शक्ति बिन शिव अधूरा
राधा बिन श्याम
नारी बिन नर अधूरा
सीता बिन राम ।
फिर भी ऐ औरत
सोच !
सोच उन सुविधाओं के बारे में
जो प्रकृति ने तुझे दी औ'
समाज ने खसोट लीं...
पैदा तो हुई तू
पुरुष की साथिन के रूप में
दैया रे दैया !
आज तो उसीकी गुलाम बन गई !
कभी किसी की बेटी बनी
तो कभी किसी की प्रेयसी
कभी किसी की पत्नी
तो कभी किसी की जननी।
जाग ! जाग ! जाग ! हे विभावरी !
जाग ! जाग अपनी चिर निद्रा से ...
तोड़ अपनी बेडियों की माया
और लड़ अपनी हक़ की लडाई ।
5 टिप्पणियां:
सुन्दर प्रेरक रचना है।बधाई।
कभी किसी की बेटी बनी
तो कभी किसी की प्रेयसी
कभी किसी की पत्नी
तो कभी किसी की जननी।
सुन्दर रचना है।बधाई।
waah !
बहुत गहरी अभिव्यक्ति!! बधाई!!
सागरिका जी,
स्त्री के हक की लड़ाई में आवज बुलंद करती हुई कविता आव्हान करती है, एक जंग लड़े जाने का।
अच्छी रचना के लिये बधाई।
मुकेश कुमार तिवारी
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