रविवार, 28 मार्च 2010

विशिष्ट तेलुगु साहित्यविधा अवधान के प्रवर्तक


तेलुगु भाषा और साहित्य में उपलब्ध ‘अवधान’ प्रक्रिया वस्तुतः परंपरा से प्राप्‍त एक विलक्षण प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया के प्रवर्तक दिवाकर्ल तिरुपति शास्त्री और चेल्लपिल्ल वेंकट शास्त्री ‘तिरुपति वेंकट कवि द्वय’ के नाम से विख्यात हैं. अष्‍टावधान, शतावधान और आशु कविता के माध्यम से तिरुपति वेंकट कवि द्वय ने ‘अवधान’ काव्य विधा को सुदृढ़ बनाया.

दिवाकर्ल तिरुपति शास्त्री का जन्म पश्‍चिम गोदावरी जिले में भीमवरम्‌ तालुक के येंडिगंडि नामक गाँव में 26 मार्च , 1872 को हुआ और चेल्लपिल्ल वेंकट शास्त्री का जन्म पूर्वी गोदावरी जिला, राजमंड्री के पास कडियम नामक गाँव में 8 अगस्‍त, 1870 को हुआ.

शतावधान प्रक्रिया का श्रीगणेश इन कवि युगल ने सर्वप्रथम काकिनाडा में किया था. इस प्रक्रिया में पहला कवि एक सौ पदों के पहले चरण को सौ लोगों को बताता है और दूसरा कवि उन सौ पदों के दूसरे चरण को पूरा करता है. बाद में उन सौ पदों को क्रमशः दुहराया जाता है. इन कवियों की विलक्षण प्रतिभा को देखकर अनेक कवि इनके शिष्‍य बन गए.

युगल कवियों ने काकिनाडा के बाद कोनसीमा, नेल्लूरु, बंदरु, एलूरु, पीठापुरम, विजयवाडा, हैदराबाद और गुंटूर आदि शहरों के साथ-साथ गाँवों में भी विगय पताका फहराई. उनके अवधानों में विलक्षणता थी अतः एनी बेसेंट भी उनकी अद्‍भुत प्रतिभा का अभिनंदन किए बिना नहीं रह पाईं.

तिरुपति वेंकट कवियों की साहित्यिक यात्राओं का परिचय ‘नानाराज संदर्शनमु’ में प्राप्‍त होता है. उन्होंने राजदरबारों में भी विजय की दुंदुभी बजाई थी - "दोसमटं चेरिंगियुनु दुंदुडु कोप्पग बेंचिनार मी / मीसमु रेंडु भासलकु मेमे कवींद्रुल मंचु देल्पगा, / रोसमु कल्गिनम्‌ कविवरुल्‌ ममु गेल्वुडु - गोल्चिरेनी ई / मीसमु तीसि मी पद समीपमुलम्‌ तलनुंचि म्रोक्‍कमे." (जानते हैं कि यह दोष है, फिर भी हमने मूँछों को बढ़ाया है. अपने मूँछॊं पर ताव देकर कहते हैं कि हम दोनों भाषाओं (संस्कृत और तेलुगु) के एकमात्र कवि हैं. यदि किसी कवि में पौरुष और विलक्षण प्रतिभा है तो हमें हराकर दिखाए. हम अपनी हार मानकर मूँछें मुँडवाकर उनके चरणों में नत मस्‍तक हो जाएँगे.)

तिरुपति वेंकट कवियों की वाणी में ओज और प्रसाद गुण का अद्‍भुत समन्वय है. "मुद्‍दु मुद्‍दुगा चेप्प बूनितिमा वन्ने / लाडी तीयनि मोवि लंच मिच्चु / कठिनम्मुगा चेप्प गडगिति या प्रौढ़ / कांत वक्षोजमुल्‌ कान्कपेट्‌टु." (कोमल एवं मधुर वचनों से युक्‍त कविता कहने पर लावण्य मूर्ति अपने होठों के मधुरामृत को प्रसाद के रूप में प्रदान करेगी और कठोर वचनों से युक्‍त कविता कहने पर प्रौढ़ा का स्तनपान करना पड़ेगा.). यह पद्‍य कविद्वय के साहस एवं प्रत्युत्पन्नमति का परिचायक है. उनकी कविताओं में शब्द और अर्थ का सामंजस्य चमत्कार पैदा देता है. उनकी कविता सबको मंत्रमुग्ध कर देती है अतः विश्‍वनाथ सत्यनारायण ने कहा कि ‘वर्षा ऋतु में जिस प्रकार पानी की बौंछारों में भीगे बिना रहना असंभव है उसी प्रकार तिरुपति वेंकट कवि द्वय के काव्यामृत के रसास्वादन से वंचित रहना भी असंभव है.’

मौलिकता जीवन और साहित्यिक सृजन दोनों के लिए आवश्‍यक तत्‍व है. इन युगल कवियों की विशेषता भी यही है. इनके समय में वेश्‍यावृत्ति चारों ओर फैली हुई थी. संस्कृति और नैतिकता को भूलकर लोग भोगविलास में भटक रहे थे. इन परिस्थितियों से उद्वेलित कविद्वय ने इस कुप्रथा का जड़ से उच्छेदन करने के लिए सामाजिक काव्यों का सृजन किया जिनमें ‘श्रवणानंदम्‌’ (1898) और ‘पाणिगृहीता’ उल्लेखनीय हैं

‘श्रवणानंदम्‌’ शृंगार प्रधान प्रबंध काव्य है. इस काव्य की नायिका बालामणी वेश्‍या है. वैष्‍णव वंश में जनमा नायक मधुसूदन कवि है. वह नायिका के रूप सौंदर्य पर मुग्ध होता है और उसके प्रेम जाल में फँस जाता है. नायक - नायिका की रति के साथ साथ इस प्रबंध काव्य में नायक के अंतर्द्वन्द्व का भी सफल चित्रण है. इस काव्य में तत्कालीन पतनोन्मुख समाज की प्रवृत्तियों को उकेरा गया है.

‘पाणिगृहीता’ भी शृंगार प्रधान प्रबंध काव्य है. इसे ‘तेलुगु साहित्य का पहला दुःखात्मक काव्य’ माना जाता है. नायक उदारुडु जलजाक्षी की ओर आकृष्‍ट होकर उस पर अपनी समस्त संपदा लुटा देता है और कर्जदार बन जात है. जलजाक्षी को केवल धन से प्रेम था अतः वह नायक का धनहीन हो जाने पर दूसरे व्यक्‍ति के प्रति आकर्षित हो जाती है. नायक जीवन से विरक्‍त होकर चिर शांति के लिए मृत्यु का वरण करता है.

कविद्वय के अन्य कृतियों में ‘बिडालोपाख्यानमु’ 47 पद्‍यों का खंड काव्य है. ‘बिडाल’ अर्थात बिल्ली. इस काव्य में रामकृष्‍ण कविद्वय की तुलना दो बिल्लियों से की गई है. इस काव्य में हास्य रस चरमसीमा तक पहुँच गया है. ‘लक्षणा परिणयमु’ पौराणिक काव्य है. इसमें मुद्र देश की राजकुमारी लक्षणा और श्रीकृष्‍ण के विवाह का वर्णन है. कविद्वय ने ‘कामेश्‍वरी शतकमु’ और ‘मृत्युंजय स्तवमु’ जैसे भक्‍ति परक लघु काव्यों का सृजन भी किया है.

काव्य के साथ साथ तिरुपति वेंकट कवियों ने छह खंडों में पांडवों पर आधारित नाटक लिखे - (1) पांडव जननमु, (2) पांडव प्रसवमु, (3) पांडव राजसूयमु, (4) पांडवोद्योगमु, (5) पांडव अश्वमेधमु और (6) पांडव विजयमुस. इनमें से ‘पांडवोद्योगमु’ अत्यंत उल्लेखनीय है. आगामी महायुद्ध के लिए श्रीकृष्ण की साहयता प्राप्त करने के लिए अर्जुन और सुयोधन श्रीकृष्ण के पास पहुँचते हैं. उस समय श्रीकृष्ण के निद्रा मग्न होने के कारण दोनों चुपचाप उनके पास बैठ जाते हैं. सुयोधन श्रीकृष्ण के सिर के पास बैठता है और अर्जुन चरणों के पास. नींद से जागकर श्रीकृष्ण पहले अर्जुन को देखकर कुशल समाचार पूछते हैं -"येक्कडनुंडि राक इट केल्लरुन सुखुले कदा ? यशो / भाक्कुलु नीदु नन्नलुनु भव्य मनस्कुलु नीदु तम्मुलुन्‌ /जक्कग नुन्नवारे भुजशाली वृकोदरुड ग्रजाज्ञकुन्‌ / दक्कग निल्चि शांतुगति दानु गरिंचुने तेल्पु मर्जना!"(हे अर्जुन ! कहाँ से आए हो ? परिवार में सब कुशल मंगल हैं न ! तुम्हारे यशस्वी बडे़ भाई और उदात्त मनवाले छोटे भाई कुशल तो हैं ! भुजशाली भीमसेन अपने बडे़ भाई धएमराज की आज्ञा का पालन तो कर रहा है न ! चारों ओर शांति है न !)

वस्तुतः श्रीकृष्‍ण महाभारत रूपी संपूर्ण नाटक के सूत्रधार हैं. दुर्योधन के आगमन को वे पहले से ही जानते हैं. वे यह भी जानते हैं कि भीम और दुर्योधन के बीच वैर है. इसलिए वह पहले भीम का स्मरण करते हैं और बाद में दुर्योधन से कुशल समाचार पूछते हैं - "बावा ! येप्पुडु वचितीवु सुखुले भ्रातल्‌ सुतुल्‌ चुट्‍टमुल्‌" (हे दुर्योधन ! कब आए हो ? तुम्‍हारे भाई, पुत्र और बंधु कुशल तो हैं !) यहाँ दुर्योधन के प्रति कृष्‍ण का तेलुगु संबोधन हास्य परक है. जीजा से हँसी मजाक करते समय इस पद का प्रयोग किया जाता है.

तिरुपति वेंकट कवियों ने तेलुगु के अतिरिक्‍त संस्कृत में भी अनेक मौलिक रचनाओं का सृजन किया है. उनमें ‘धातुरत्‍नाकरा’ (चंपू काव्य, 1889-1893) ‘काली सहस्रम’ (1891-1894, 300 श्‍लोक) और ‘शुक - रंभा संवाद’ (1893-1894) विशेष उल्लेखनीय हैं. वे सफल अनुवादक भी थे. उन्होंने ‘देवी भागवतम्‌’, ‘शिवलीललु’, ‘पुराण गाथलु’, ‘श्रीनिवास विलासमु’, बिल्‍हन कृत ‘विक्रमादित्य चरित्र’, वीर नंदी कृत ‘चंद्रप्रभा चरित्र’, राजशेखर कृत ‘बाल रामायण’ को संस्कृत से तेलुगु में अंतरित किया है. इतना ही नहीं, रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियों के अंग्रेजी़ से तेलुगु में अनुवाद का भी श्रेय कविद्वय को प्राप्‍त है. उनकी प्रतिभा का अभिनंदन करते हुए आंध्र विश्‍व विद्‍यालय ने उन्हें ‘कला प्रपूर्ण’ की उपाधि से अभिहित किया. तेलुगु साहित्य जगत्‌ में तिरुपति वेंकट कविद्वय का नाम चिरस्थायी है. दिवाकर्ल तिरुपति शास्त्री के जन्मदिन (26 मार्च) पर हम उन्हें विनम्र प्रणाम निवेदित करते हैं.

1 टिप्पणी:

युग मानस yugmanas ने कहा…

तेलुगु साहित्य की गरिमा का बयान हिंदी में करते हुए आप अच्छी सेवा कर रही हैं, बधाइयाँ । युग मानस को भी सहयोग देते रहें । - डॉ. सी. जय शंकर बाबु