रविवार, 28 मार्च 2010

मरो शाकुंतलम्‌ : तुम मुझे स्पर्श करोगे सूर्यकिरण बनकर


काम, प्रेम और विवाह का त्रिकोणात्मक संबंध है. मानवेतर जगत्‌ में काम का संबंध केवल शरीर तक सीमित है परंतु मनुष्यों के बीच यह संबंध मन और आत्मा तक पहुँचता है. जैसे कि रामधारी सिंह ‘दिनकर ’ ने कहा है ’सेक्स (काम) की अनुभूति शारीरिक अनुभूति होती है. किंतु प्रेम की अनुभूति में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों अनुभूतियाँ समन्वित होती हैं.’ प्रेम हमारे जीवन में शाश्‍वत और स्वस्थ संबंधों को स्थापित करता है तथा जीवन को उदात्त बनाता है. मनुष्य के जीवनकल में हर स्थिति में प्रेम व्यक्त होता है. अतः साहित्यकारों ने प्रेम के दोनों पक्ष अर्थात्‌ संयोग और वियोग का निरूपण किया है. तेलुगु साहित्य में भी हर युग में प्रणय कवित लिखी गई है. पद्‌मलता के प्रथम कविता संग्रह ‘मरो शाकुंतलम्‌ ’( तेलुगु (दूसरा शाकुंतल), 2009) की कविताओं में भी प्रणय के इन दोनों पक्षों का निरूपण हुआ है.

मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि बाल्यावस्था से ही मानव शिशु में कामवृत्ति उपस्थित होती है और यौनावस्था में यह पूर्ण रूप से विकसित होती है. यौनावस्था में प्रेम की अनुभूति संवेदनशील मन को उद्वेलित करती है. इस आवस्था की घटनाएँ और अनुभूतियाँ सुखदायी भी हो सकते हैं और दुःखदायी भी. इस अवस्था में हर कोई व्यक्‍ति कवि बन जाता है. यह अवस्था मनुष्य और प्रणय कविता दोनों के लिए वरदान है.

‘मरो शाकुंतलम्‌ ’(दूसरा शाकुंतल) की नायिका अपने प्रियतम के साथ बिताए हुए पलों को याद करती है और स्मृतियों से बाहर निकलना नहीं चाहती - "भाषल कंदनी अनुभूतिनी / माटललो चेप्पडम / एवरि तरम्‌ / आ अनुभवम्‌ लोंचि / भयटकु रावालनी लेदु /.../ आनंदम्‌ तरंगालुगा व्यापिस्तुंदि / ना नुंचि नीकु"(पृ. 61) (यह अनुभव भाषातीत है / शब्दों में व्यक्‍त करना साध्य नहीं है / इस अनुभूति से / निकलना नहीं चाहती /.../ शब्द रहित हूँ / संज्ञाविहीन हूँ / मात्र अनुभव ही शेष है/ आनंद तरंगें व्याप्‍त हैं / हम दोनों के बीच)

नायिका नायक की प्रतीक्षा में समय काट रही है. उसके लिए जीवन बोझ बनता जा रहा है. प्रिय की पुकार सुनने के लिए वह बेचैन है - "अतनि नुंचि पिलुपु रादा / आ क्षणमे / नेनु / कोत्त सिद्धांतलनु / कनुगोंटानु"(पृ.96) (वह / कब पुकारेगा मुझे / उसी क्षण / मैं / नए सिद्धांत रचूँगी.)

नायिका की इच्छा है कि नायक निरंतर उसके साथ रहे और उसकी थकान को मिटाए तथा उसके अंदर सुरक्षा की भावना जगाए - "अलसिन ई पूट / सोलिन ना मनसुकेमो / नी गुंडे कावाली"(पृ. 7) (थके हुए मन को / तुम्हारा वक्षःस्थल चाहिए)

नायिका नायक के साथ बिताए हुए पलों को याद करती है. उसके लिए हर वह क्षण प्राणप्रद है जो प्रियतम की याद दिलाता है - "ई वेला / नी ज्ञापकम्‌ ओकटे / प्राणहितमैनदी"(पृ. 79) (इस समय / केवल तुम्हारी स्मृति ही / प्राणप्रद है.)

कवयित्री कहती हैं कि नायक का अधर चुंबन ग्रीष्म के ताप को मिटानेवाली प्रथम फुहार है - "ना लेत पेदालु निन्नंटिते / ग्रीष्म तापम्‌लो तोलकरि जल्ल्नी"(पृ.24) (मेरे अधर तुम्हारे अधरों को छूमने पर / ग्रीष्म के ताप को मिटानेवाली प्रथम फुहार होगी.) वे आगे कहती हैं कि "विरहमेप्पुडू उद्रेकमे / कलियिकेप्पुडू सुखांतमे" (पृ.15) (विरह हमेशा उद्वेग है / मिलन सुखांत है.)

विरहणी नायिका को यही लगता है कि नायक के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है - "नीवु लेक नेनु / लोयलोपलि वज्रान्ने / सूर्यकिरणमै / नीवु तगिलिते / मेरुस्तानु"(पृ.45) (तुम्हारे बिना मैं / गर्त में गिरा वज्र हूँ / सूर्यकिरण बनकर / तुम मुझे स्पर्श करोगे / तो मैं चमक उठूँगी.)

कवयित्री के लिए प्रणय मात्र शारीरिक अनुभव नहीं है, बल्कि वह आत्मिक अनुभूति है. अध्यात्म उनके लिए जीवन की प्रेरणा है. दुःख, रोना और वियोग आदि को दूसरों की सहानुभूति पाने के साधन के रूप में प्रयोग नहीं किया गया है. इन सबके माध्यम से जीवन के विविध आयामों को समझने का प्रयास किया गया है. अतः वे कहती हैं "जयापजयाले कादु / जनन मरणालू दैवादीनाले / बंधनाल संकेल्लु तेंचुकोनि / बाध्यतल बरुवुनि दिम्‍पी / बैठिकेल्लालनुंदि"(पृ.40) (जय पराजय ही नहीं / जन्म और मृत्यु भी दैवाधीन है / बंधनों की साँकलों को तोड़कर / कर्तव्य को पूरी तरह से निभाकर / बाहर निकलना चाहती हूँ / मुक्‍त होना चाहती हूँ.)

इस प्रकार कवयित्री पद्‍मलता की तेलुगु कविताओं के इस प्रथम संग्रह में प्रेमानुभूति की विविध भावभूमियों का रसपूर्ण अंकन पाठकों को आककर्षित करने में समर्थ प्रतीत होता है.(सभी उद्धरणों का हिंदी अनुवाद : समीक्षक द्वारा.)
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मरो शाकुंतलम्‌ (तेलुगु कविता संग्रह)/ पद्‍मलता / 2009 / पृ.104 / मूल्य : रु.100/- / प्रकाशक - पृथ्वी 106 ,मै होम नवद्वीप, माधापुर, हैदराबाद

1 टिप्पणी:

शिवा ने कहा…

अच्छा आलेख , बधाई