बुधवार, 27 जुलाई 2011

‘नानीलु’ के प्रवर्तक प्रो.एन.गोपि



"समय है एक धागा
है कहाँ आखिरी सिरा
ढूँढ़ते जाना ही तो
जिंदगी है." (एन.गोपि, नन्हे मुक्‍तक)

‘नानीलु’ नामक नन्हीं कविता के प्रवर्तक तेलुगु कवि एन.गोपि का जन्म 25 जून, 1948 को नलगोंडा जिले के भुवनगिरि में हुआ. उनका वास्तविक नाम गोपाल है. उनकी माता का नाम लक्ष्मम्मा है और पिता का नाम चिन्नय्या. गोपि ग्राम जीवन और लोक संस्कृति के प्रति समर्पित एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएँ वैविध्यपूर्ण एवं बहुआयामी हैं. वे अपनी जमीन से इस तरह से जुड़े हुए हैं कि उनकी कविताओं में मिट्टी का सोंधापन पाठकों के मन-मस्तिष्क को सहज ही आप्‍लावित करता है.

प्रो.गोपि के प्रमुख काव्य संग्रह हैं - तंगेडु पूलु (पीले फूल, 1976), मैलुराई (मील का पत्थर, 1982), चित्र दीपालु (रंगीन दीप, 1989), वंतेना (सेतु, 1993), कालान्नि निद्रपोनिव्वनू (समय को सोने नहीं दूँगा, 1998), नानीलू (नन्हे मुक्‍तक, 1998), एंडपोडा (धूप, 2002), जलगीतम्‌ (जलगीत, 2002) आदि. इनमें से अधिकांश काव्य संग्रह किसी न किसी संस्था द्वारा पुरस्कृत हैं : तंगेडु पूलु - आंध्र महिला सभा द्वारा देवुलपल्ली कृष्णशास्त्री पुरस्कार (1980); मैलुराई - प्रिवर्स फ्रंट अवार्ड, (1982); चित्रदीपालु - डॉ.सी.नारायण रेड्डी कविता पुरस्कार, (1990); वंतेना - अमलापुरम्‌ लेखक संघ द्वारा सरसम पुरस्कार, (1994); कालान्नि निद्र्पोनिव्वनू - केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार,(2001).

‘नानीलु’ (नन्हे मुक्‍तक) के कारण डॉ.गोपि तेलुगु कविता के क्षेत्र में ट्रेंड सेटर के रूप में प्रसिद्धि प्राप्‍त कर चुके हैं. वस्तुतः नन्हे मुक्‍तक छोटी कविताएँ हैं, पर बहुत छोटी भी नहीं. इस संदर्भ में कवि ने स्वयं कहा है कि "बिना अतीव कसावट और बिना अनावश्‍यक ढिलाई के साथ नानी (नन्हा मुक्‍तक) मेरे द्वारा रूपायित 20-25 अक्षरोंवाला एक ढाँचा है, एक छंद है. इनमें अक्षरों की संख्या 20 से कम नहीं, और 25 से अधिक नहीं. नानी माने मेरे (ना; नावि = मेरे) और तेरे (नी; नीवी = तेरे) हैं. मतलब है हम सब के. नानी माने नन्हा बच्चा भी है. ये भी नन्ही कविताएँ हैं न! इनमें मैंने चार चरणों के ही नियम का पालन किया. चरणों के विभाजन में ‘वचन कविता’ के अंतर्गत जो संगीत है वह इन में नहीं है. फिर भी निर्माण की दृष्‍टि से इन में भी नियमबद्धता देखी जा सकती है. कुछ नन्हे मुक्‍तक ऐसे हैं जिनके दो दो चरणों में एक एक भाव का अंश निहित है. इनमें प्रथम दो चरणों में एक भाव का अंश है तो अंतिम दो चरणों में दूसरा. प्रथम भावांश का समर्थन करते हुए या उस की सार्थकता का प्रतिपादन करते हुए दूसरा भावांश रहता है :
"घड़ा फूट गया
कुढ़ते हो क्यों? 
माटी दूसरा रूप लेने की
कर रही है तैयारी."

इस मुक्‍तक में प्रथम भावांश का समर्थन दूसरा भावांश कर रहा है."

गोपि हमेशा मनवता पर जोर देते हैं. वे निराडंबर जीवन व्यतीत करने में आस्था रखते हैं. वे मिलनसार और संवेदनशील व्यक्‍ति हैं. उनका हृदय इतना कोमल है कि समाज में व्याप्‍त विसंगतियों, विद्रूपताओं, मूल्यह्रास और अपसंस्कृति को देखकर विचलित हो जाता है. इसीलिए तो उनका कवि हृदय कहता है - "इंसानों के बीच/ रुपय्या ही गर पुल है/ तो इंसानियत का/ तो समझो काम तमाम." (नन्हे मुक्‍तक).

गोपि अपने भावों और विवारों को कविता के माध्यम सी अभिव्यक्‍ति करते हैं. उनके लिए तो कविता ही सब कुछ है. एक ‘पैशन’ है. अतः वे कहते हैं - "सब के सो जाने पर/ चोरी से टी.वी. देखने वाले बच्चे की भाँति/ रचता हूँ मैं कविताएँ." (वही).

प्रेम स्वाभाविक मानव प्रवृत्ति है. यदि व्यक्‍ति और व्यक्‍ति के बीच निहित संबंधों को ही लें तो इसके अनेक रूप दिखाई देते हैं. माता-पिता एवं पुत्र-पुत्री के बीच, भाई-बहन के बीच, प्रेमी-प्रेमिका के बीच, पति-पत्‍नी के बीच. और फिर यही प्रेम समाज और देश के लोगों से भी जुड़ जाता है. गोपि की कविताओं में भी प्रेम के विविध रूप दिखाई पड़ता है. एक ओर पर्यावरण के प्रति अमित प्यार दीख पड़ता है तो दूसरी ओर मानवीय संबंधों के प्रति. मातृभूमि के प्रति उनका प्रेम निर्विवाद है. वे कहते हैं - "प्रेम/ अधिक बतियाता नहीं/ द्वेष की/ कोई सीमा नहीं." (वही). कवि उन लोगों पर भी व्यंग्य कसते हैं जो प्यार के नाम पर अपनी जिंदगी को जला डालते हैं - "प्यार से/ जला लिया क्या जिंदगी को?/ तब तो/ बर्नाल भी प्रेम ही है." (वही).

गोपि की कविताओं में वृद्धावस्था विमर्श से लेकर पर्यावरण विमर्श, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श जैसे उत्तरआधुनिक विमर्श के अनेक आयाम भी दिखाई पड़ते हैं.

बचपन सबको प्रिय लगता है क्योंकि वह एक ऐसी अवस्था है जो छलरहित और निर्मल है. राग-द्वेष से परे, सुनहला समय. अपने बचपन को याद करते हुए कवि कहते हैं - "निर्मलता बचपन की/ जब तक याद आ जाती/ यदि हर दिन याद आती तो/हम शायद कुछ और होते." (वही).

कवि जहाँ बचपन को याद करके उल्लसित होते हैं वहीं दूसरी ओर अपने बच्चों की राह देखते हुए बूढ़े माँ-बाप को देखकर विचलित होते हैं - "सेलवुल्लो वच्चिना ना चिरंजीविकि/ इंडिया अंता डर्टी डस्टबिन ला कनिपिस्तुंदि/ ***/ प्रपंचम्‌ एंतो/ मारिंदंटुन्नारू/ अदेमोगानी/ इंडिया मात्रं वृद्धाश्रमम्‌गा मारुतुन्नदि." (चुट्टियाँ बिताने आए अपने लाडले को/ इंडिया एक डर्टी डस्टबिन-सा लग रहा है/ ***/ सब कहते अहिं कि दुनिया काफी बदल चुका है/ पर/ इंडिया तो वृद्धाश्रम बन रहा है; ‘होम फर द एजड’, कविता दशाब्दी, (सं) प्रो.एस.वी.सत्यनारायण, डॉ.पेन्ना शिवरामकृष्णा).

सृष्‍टि निर्माण में स्त्री-पुरुष दोनों ही समान है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. पर अपनी शारीरिक कमजोरी के कारण स्त्री को अबला के रूप में चित्रित किया जाता है अतः कवि कहते हैं - "सृष्टिकाव्य को/ रचते हैं दोनों/ पर कापीराइट होता है/ पुरुष का ही." (नन्हे मुक्‍तक). वे आधुनिक स्त्री के बारे में कहते हैं कि "आज की महिला/ है नहीं उपग्रह/ शोषण के खिलाफ/ शाब्दिक प्रहार है." (वही).

स्त्री ही नहीं बल्कि दलित और निम्न जाति के लोग भी बरसों से हाशिए पर ही रहे. आज धीरे धीरे वे केंद्र में आ रहे हैं, कहा जाए तो आ भी चुके हैं. सवर्ण जातियाँ सदियों से निम्न जाति के लोगों को अछूत कहकर धिक्कारती रही हैं. उन्हें कीड़े-मकौड़ों की तरह कुचलती रही हैं. श्रम का शोषण करती रही हैं. दलित पीढ़ी दर पीढ़ी जमीनदारों के यहाँ पालेरू/बंधुआ मजदूर बनकर रह जाता है - "कोमरय्या कोमरेल्ली मल्लन्नला अन्नप्पुडु/ इक मुंदु कोमरय्या डप्पु/ बुल्लि कोमरय्या भवितव्यान्नी पाडुतुंदि काबोलु." (कोमरय्या अब/ दिख रहा है - शिव-सा/ कोमरय्या की डफली अब/ नन्हे कोमरय्या का भविष्य गाएँगी शायद; ‘डफली’, समय को सोने नही दूँगा). आंध्र प्रदेश में शव यात्रा में डफली बजाने वालों को ‘कोमरय्या’ कहकर संबोधित किया जाता है. आज के जमाने में कोई भी गुलाम बनकर रहना पसंद नहीं करते - "गुलामी/ भाती नहीं किसी को/ यहाँ तक कि/ कीड़े को भी." (नन्हे मुक्‍तक).

गोपि संवेदनशील और जागरूक कवि हैं. उन्होंने अपनी लंबी कविता ‘जलगीतमु’ (जलगीत) में पाठकों को पर्यावरण के प्रति जागरूकता का संदेश दिया है. आधुनिकता और विकास के नाम पर मनुष्य ने धरती के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है. एक ओर बढ़ती आबादी है तो दूसरी ओर उस आबादी के कारण पैदा होनेवाली अनेकानेक समस्याएँ हैं जिसके कारण संतुलन बिगड़ रहा है और प्रदूषण तथा प्राकृतिक विपदाएँ बढ़ रही हैं. कवि कहते हैं कि "यह प्रदूषण शताब्दी है/ यह शताब्दी है जल के दंश की." (जलगीत). कवि पानी की महत्ता को भली भाँति समझते हैं. इसलिए तो वे उद्वेलित होकर कहते हैं - "जलहीनता/ जन्म देती है योद्धाओं को/ जलहीनता/ क्रूरता में प्राण फूँकती है/ जलहीनता/ आश्रयदाता के प्राणों को डस लेती है." (वही). आधुनिक मानव की त्रासदी को देखने पर कवि को लगता है कि "धरती माँ मौत की चारपाई पर अंतिम साँसें गिन रही है,/ जमीन पर घास ही नहीं उगती तो कागजों पर कविता कहाँ से आएगी?" (वही).

आज के कार्पोरेट कल्चर की ओर इशारा करते हुए कवि कहते हैं कि "कम्यूनिकेशनल होरुकु/ पावुरालु एगिरिपोतुन्नाइ/ पट्टुकोनि आपंडि/ ‘हेलो’ अने ओक्का बाणम्‌तो/ रसार्द्र जीव विन्यास संपुटान्नि चंपकंडी." (‘कम्यूनिकेशन’ के शोर से घबराकर/ कबूतर उड़ते चले जा रहे हैं/ उन्हें पकड़कर रोकिए/ ‘हेलो’ के एक ही तीर से/ रसार्द्र-जीवन के खज़ाने को मत नष्‍ट कीजिए; ‘मरती हुई चिट्ठी’, समय को सोने नहीं दूँगा).

गोपि ने अपनी कविताओं के माध्यम से समसामयिक घटनाओं और परिस्थितियों को उकेरा है. उनकी कविताओं में ग्राम जीवन से लेकर शहर के आभिजात्य जीवन का अकेलापन भी परिलक्षित होता है. इसलिए तो वे कहते हैं - "जिंदगियाँ हैं हजारों की/ हाथों में / ‘स्पाट वेल्यूएशन’ में/ घायल मत करो प्रतियाँ." (नन्हे मुक्‍तक).



2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

नन्हें मुक्तक के प्रवर्तक प्रो. एन.गोपी पर अच्छी जानकारी के लिए आभार॥

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

प्रो.एन.गोपि जी के बारे में जानकारी देने के लिए आभार.