रविवार, 24 जून 2012

मन की दीवारों पर……



‘मन की दीवारों पर कवयित्री श्रीमती सुषमा बैद का नवीनतम कविता संकलन है. इस संकलन में उन्होंने अपने 219 मुक्तकों को संग्रहीत किया है. इससे पहले सुषमा बैद की 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें कई काव्य संग्रह, गीत संग्रह, भक्ति गीत संग्रह, मुक्तक संग्रह, सावन गीत संग्रह और एकांकी सम्मिलित हैं. इतना ही नहीं उन्होंने सात पुस्तकों का सफलतापूर्वक संपादन भी किया है. जैसा कि आप सबको मालूम ही है सुषमा बैद एक गृहिणी साहित्यकार है और कवि सम्मलेन के मंचों पर इन्हें अपने खास अंदाज के लिए पहचाना जाता है. ‘मन की दीवारों पर...’ शीर्षक उनकी 13 वीं कृति के प्रकाशन और लोकार्पण के अवसर पर मैं उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देती हूँ.

आज (24 जून 2012) लोकार्पित हो रही इस पुस्तक के मुक्तक कवयित्री के व्यापक अनुभवों, यथार्थबोध, इच्छाओं–आकांक्षाओं, सपनों और आदर्शों को संक्षेप में प्रकट करने वाली रचनाएँ हैं. इनकी रचना प्रक्रिया के बारे में स्वयं कवयित्री ने यह बताया है कि समय प्रवाह के सात बोझिल मन की दीवारों पर दर्द की परतें बर्फ़ सी जमने लगती हैं और तब तक मन को व्यर्थ ही इस बोझ को ढोना पड़ता है जब तक नव कल्पना के नए सूर्य की तपती किरणें उन पीड़ित ठोस परतों को पिघला नहीं देतीं. कहना न होगा कि दर्द की परतों का यह पिघलाव ही सुषमा बैद के मुक्तकों का स्रोत है. वे कहती भी हैं कि

“चाहा था जिसको अपना जिगरी दोस्त समझकर 
 चुभने लगा वह दिल में कांटा-सा दुश्मन बनकर.
 कभी मक्खन-सा, कभी फूल-सा कोमल-नरम दिल 
 क्यों बात-बात में होता कुपित चट्टान-सा तनकर?" (मुक्तक 17, पृ.18)

प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने इस संकलन की भूमिका में एकदम अलग ढंग से इन मुक्तकों की कुछ विशेषताएं गिनवाई हैं. उनके अनुसार सुषमा बैद के मुक्तकों में जीवन के कट्टे-मीटे अनुभव से पैदा होनेवाली सूक्तियां सबसे पहले ध्यान खींचती हैं. उन्होंने इन मुक्तकों की एक विशेषता उद्बोधन की मुद्रा को भी माना है. इसके अलावा यह भी कहा है कि प्रणय निवेदन, मिलन का सुख और विरह की कसक वे विषय हैं जिनके इर्द-गिर्द सुषमा जी का सारा काव्य संसार फैला हुआ है. इस संग्रह के मुक्तक भी इसका अपवाद नहीं हैं. सुषमा जी मानती हैं

“आज नित नए चैनलों की, दूरदर्शन पर भरमार है 
 अश्लील दृश्यों का खुलेआम, बढ़ रहा व्यापार है. 
 हैं बाल, वृद्ध, युवक के, दूरदर्शन में प्राण 
 पतन हो रहा नैतिकता का, संस्कृति पर प्रहार है.” (मुक्तक 115, पृ.51)

इसी प्रकार प्रेम के संबंध में उनकी यह धारणा है कि

“प्यार ने देखा प्यार को कभी गुनगुनाते हुए 
 कभी रोते और कभी ज़रा मुस्कुराते हुए.
 सिमट गयीं दिल में यादें फूलों की तरह 
 खिलने लगीं मन-उपवन को महकाते हुए.” (मुक्तक 184, पृ.74)

प्रेम के साथ कई तरह की मजबूरियां भी जुड़ी होती हैं. इस बारे में सुषमा जी कहती हैं –

“सच भले दूर थी मैं इस तन से 
 मगर पास थी मैं इस मन से. 
 हम विरह-अग्नि में जले बराबर 
 थे बेबस दोनों मधुर मिलन से.” (मुक्तक 218, पृ.85)

और मिलन का तो अपना सुख है ही – वह भी बारिश के मौसम में –

“ये मौसम बारिश का सुहाना हो गया 
 आपसे मिलाने का इक बहाना हो गया. 
 दो अनजाने-से थे मैं और तुम मगर 
 मिलते ही नज़र दिल दीवाना हो गया.” (मुक्तक 206, पृ.81)

‘मन की दीवारों पर...’ के इन मुक्तकों के संबंध में यह भी ध्यान देने की बात है कि इनमें कवयित्री की धर्म साधना भी प्रकट हुई है. जैसा कि डॉ.राधेश्याम शुक्ल जी ने लिखा है, यह उनकी साधिका-वृत्ति तथा तपोशक्ति का ही प्रभाव है कि उन्होंने गार्हस्थ्य गौरव और धर्माचरण का पुण्य लाभ उठाने के साथ विपुल साहित्य सृजन का यश-लाभ भी अर्जित किया है. इसी प्रकार शुभाशंसा में प्रो.एम.वेंकटेश्वर जी ने इस बात की तरफ ध्यान दिलाया है कि सुषमा बैद का काव्य जहां एक ओर प्रकृति प्रधान है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को प्रखरता से अभिव्यक्त करता है. उनके ये 200 से अधिक मुक्तक वर्तमान पारिवारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों की गंभीर व्याख्या करते हैं.

अंततः एक बार फिर ‘मन की दीवारों पर...’ के प्रकाशन के लिए सुषमा जी को हार्दिक बधाई देती हूँ और उन्हीं का एक मुक्तक उन्हें समर्पित करती हूँ –

“टूटते-बिखरते सभी रिश्तों को नया आकार चाहिए
 नित माँ-सी ममता और पिता-सा प्यार चाहिए.
 रिश्तों के मेले में क्यों व्यापार है द्वेष-घृणा का
 प्रेम, सहिष्णुता, अपनेपन का सद्व्यवहार चाहिए.” (मुक्तक 6, पृ.14)



मन की दीवारों पर... (मुक्तक संग्रह) 
 सुषमा बैद
 2012 
 प्रकाशक : सुषमा निर्मलकुमार बैद, 3-3-835/1ए, के.एन.आर., फ़्लैट नं 302, संयुक्त एन्क्लेव, कुतबीगुडा, हैदराबाद - 500 027
 पृष्ठ - 100,
 मूल्य : रु.100/- 

शनिवार, 23 जून 2012

जनकवि वेमना



”आत्मशुद्धि लेनि आचारामदियेला ?
भांडशुद्धि लेनि पाकमेला ?
चित्तशुद्धि लेनि शिवपूजलेलारा ?
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(आत्मशुद्धि के बिना आचरण कैसा ?/ पात्र शुद्धि के बिना पकाना कैसा ?/ चित्तशुद्धि के बिना शिवपूजा कैसी ?/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.)

प्रायः वेमना को योगी या संत के रूप में याद किया जाता है लेकिन वास्तव में वे महाकवि हैं, जनकवि हैं. वेमना ने तत्कालीन समाज के प्रति विद्रोह किया. उनके पदों में विद्रोही स्वर गूँज उठता है. उनके पदों को आगे देखेंगे. पहले वेमना के जन्म और समय के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर लें.

युग प्रवर्तक वेमना की जन्मतिथि को लेकर काफी वाद-विवाद है. कुछ विद्वान उन्हें 15 वीं शती के कवि मानते हैं तो कुछ विद्वान 16 वीं शती और 17 वीं शती के कवि मानते हैं. स्मरणीय है कि फ्रेंच विद्वान जे.ए.डुबोई (J.A.Dubois) ने 1792 से 1823 तक भारत में रहकर हिंदुओं के रीति-रिवाज, संस्कार, संस्कृति, मान्यताओं आदि के बारे में अपने महाकाय ग्रंथ Hindus Manners, Customs and Ceremonies’ (1806) में विस्तार से लिखा है. सर्वप्रथम उन्होंने ही वेमना के पदों के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि वेमना के पदों में माधुर्य के साथ साथ तत्कालीन भ्रष्ट समाज के प्रति विद्रोह का स्वर है.  

वेमना के पदों को संकलित करके उन्हें मुद्रित रूप में लाने का श्रेय चार्ल्स फिलिप ब्राउन को जाता है. डुबोई की पुस्तक में वेमना के बारे में पढ़कर ब्राउन इतने प्रभावित हो गए कि लगातार 18 वर्ष तक वेमना पर शोध करते रहे. उन्होंने उनके जीवन से संबंधित अनेक बातों पर प्रकाश डाला. उनके मतानुसार वेमना 17 वीं शती के कवि हैं. ब्राउन ने अपनी किताब My Discovery of Vemana’ (1824) में स्पष्ट किया है कि – It is said that in verse 707 he has fixed the date of birth which is believed to have been his own. This date coincides with A.D. 1652. The date is given in the cycle of sixty years, but which cycle is intended is unknown. Many verses, however, prove satisfactorily that he wrote in the latter part of the seventh century when the Mohamedans were governors of that part of India.”  (डॉ. एन. गोपि, प्रजाकवि वेमना, पृ.सं. 66 से उद्धृत).  वेमना पर शोध करते समय ब्राउन को तेलुगु में कोई किताब उपलब्ध नहीं हुई. इस पर वे कहते हैं कि - I did not possess a single Telugu Volume, but ignorant as I was of all the poets in the language, the Abbe Dubois in his ‘Account of the Hindus’, has acquainted me with the name of Vemana, a rustic epigrammatist. I was led to pursue and translate the verses of Vemana; about as long as Scotts Marmion, 1866.” (डॉ.एन.गोपि, प्रजाकवि वेमना, पृ.सं. 65 से उद्धृत).

वेमना की जन्मतिथि के निर्धारण के लिए इतिहासकारों ने निम्नलिखित पद को आधार बनाया है –
“नंदन संवत्सरमुना  
पोंदुगा कार्तीक शुद्ध पुन्नम नाडुन्
विन्द्याद्रि सेतु बंधना
संदुना नोका वीरुडेला सरसुना वेमा.”
(नंदन नाम संवत्सर में/ शुद्ध कार्तिक पूर्णिमा के दिन/ विन्ध्य और हिमाद्रि के बीच/ एक वीर है वेमा.)

तेलुगु कैलेंडर के अनुसार यह संवत्सर हर साठ साल के बाद पुनः आता है. वेमना के पद में नंदन नाम संवत्सर का उल्लेख है. 1652, 1712 और 1772 नंदन संवत्सर हैं. ब्राउन 1652 को ही वेमना की जन्मतिथि मानते हैं तथा अनेक विद्वानों ने इसे ही प्रामाणिक माना है. यह भी ध्यान देने की बात है कि 2012 भी नंदन नाम संवत्सर ही है अर्थात यह वर्ष वेमना का 360 वाँ वर्ष है.

वेमना का जन्म रेड्डी वंश में हुआ था. आंध्र प्रदेश में रेड्डी संपन्न जाति है. जिस तरह वेमना की जन्मतिथि को लेकर मतभेद है उसी तरह उनके जन्म स्थान के संबंध में भी मतभेद है. वेमना के ही एक अन्य पद से यह अनुमान लगाया जाता है कि वे रायलसीमा के कोंडावीडु के मूका चिंतापल्ले गाँव के निवासी थे –
“ऊरू कोंडावीडु, वुनिकी पश्चिमवीदी
मूका चिंतापल्ले मोदटि इल्लू
एड्डे रेड्डी कुलमदेमनी तेलुपुदु
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(शहर कोंडावीडु, जो पश्चिम दिशा में है/ मूका चिंतापल्ले मेरा पहला घर है/ वंश तो है रेड्डी पर क्या बताऊँ / विश्वदाभिराम सुनरे वेमा).

कहा जाता है कि कदिरी जिले में स्थित काटूरुपल्ले नामक गाँव में शरवरी नामक संवत्सर में रामनवमी के दिन वेमना की मृत्यु हुई. आज भी काटूरुपल्ले में वेमना की समाधि विद्यमान है. वैसे जन्मतिथि, जन्मस्थान, जाति, कुल-गोत्र आदि के विवाद में कुछ नहीं धरा है. असल बात यह है कि वेमना तब भी प्रासंगिक थे और आज भी प्रासंगिक हैं.

वेमना के पदों में तत्कालीन समाज को भली-भांति देखा जा सकता है. उनके पद लोकभाषा की धरोहर हैं. वेमना के उद्गारों में लोकजीवन, भक्ति, ज्ञान, नीति, सदाचार आदि मुखरित हैं. अन्तःसाक्ष्य के आधार पर कहा जाता है कि योगी बनने से पूर्व वेमना भी भोगलिप्सा में प्रवृत्त थे. बचपन में ही माँ का स्वर्गवास हो गया अतः घर में वे सबके लाड़ले थे. तत्कालीन समाज में वेश्यावृत्ति चरमोत्कर्ष पर थी. संपन्न लोगों के लिए वेश्याओं के पास जाना शान समझा जाता था. अपने यौवनकाल में वेमना भी एक वेश्या के प्रति आसक्त थे. उस वेश्या को प्रसन्न करने के लिए वेमना ने अपनी भाभी से गहने माँगे. वेमना को सही दिशा में लाने और उस वेश्या से छुटकारा दिलाने के लिए उनकी भाभी ने उन्हें गहने इस शर्त पर दिए कि वे गहने पहनने के बाद वेश्या के नग्न रूप का दर्शन अवश्य करें. पूर्णतः नग्न स्त्रीदेह को देखने के बाद वेमना का स्त्रीदेह के प्रति मोहभंग हो गया और उन्होंने सांसारिक सुख त्याग दिया.

जैसा कि पहले ही संकेत किया गया है, वेमना के पदों में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियाँ मुखरित हैं. इतना ही नहीं उनमें भौगोलिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और लोक जीवन भी निहित है. उन्होंने अपने पदों में अपने अनुभव को अभिव्यक्त किया है, विशेष रूप से ‘कंद’, ‘तेटा गीति’ और ‘आटावेलदि’ नामक छंदों में. वेमना आशु कवि हैं. उनके पदों में चार पंक्तियाँ होती हैं. प्रथम तीन पंक्तियों में कोई-न-कोई सूक्ति अवश्य होती है और अंतिम पंक्ति में आत्मसंबोधन निहित है. यह आत्मसंबोधन एक तरह से वेमना के पदों की विशेषता है. उदाहरण के लिए देखें –

“पसुल वन्ने वेरु पालोक वर्णमौ
बुष्प जाति वेरु पूज योकटे
दर्शनंबु वेरु दैवंबु योक्कटे
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(पशुओं के वर्ण है अलग अलग, दूध का वर्ण एक है/ पुष्प-जाति है अलग अलग, पूजा तो एक है/ रूप है अलग अलग, देव तो एक ही है/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा).  

तत्कालीन समाज में संपन्न लोगों के बड़े बड़े घर होते थे. उन घरों के चारों ओर बड़े बड़े फाटक, पेड़-पौधे आदि हुआ करते थे. वेमना कहते हैं कि संपन्न वर्ग बड़े बड़े आलीशान घर बनाते हैं और उस घर की सुंदरता को देखकर ऐंठते रहते हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि उनका दंभ टूट सकता है–
”चेट्टू चेमा गोट्टी चुट्टू गोडालू बेट्टी
इट्टूनट्टू पेद्दा इल्लू गट्टी
मित्तिपडूनु नरुडू मीदि चेटेरुगका
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(पेड़-पौधे लगाकर चारों ओर दीवार बनाकर/ इधर-उधर बड़े बड़े घर बनाकर/ ऐंठता रहता है मनुष्य आनेवाली विपत्ति को न जानकर/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा).

वेमना ने अपने समय के ग्रामीण परिवेश को बखूबी उजागर किया है. उन्होंने तत्कालीन आंध्र प्रदेश के गाँवों और ग्रामीण जनता की गाथा का अंकन अपने पदों में किया है. वेमना के हर पद में लोक है. लोकभाषा ही उनकी शक्ति है. वे अपनी मिट्टी से गहरे जुड़े हुए रचनाकार हैं. इसीलिए वे कहते हैं –
“वेल्य भूमि तल्ली वितन्नमु तंड्री
पंटलरया सुतुलु पाडिपरमु
धर्ममु तनपालि दैवमु सिद्धमु
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(उर्वर भूमि है माँ बीज है पिता/ उनकी फसल हैं बच्चे/ सदाचरण है उनका संरक्षक/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.).

उस जमाने में जमींदारी प्रथा थी. जमींदार किसानों को ऋण देकर उनका खून चूसते थे. ऋण न चुका पाने के कारण किसानों को जमींदार के यहाँ ‘पालेरू’ (बंधुआ मजदूर) बनकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी काम करना पड़ता था. कुछ लोग निरुपायता और मजबूरी की स्थिति में अपनी जमीन छोड़कर दूसरे प्रदेश में जा बसते थे. वेमना ने उन जमींदारों, दलालों और अधिकारियों पर तीखा प्रहार किया जो किसानों के श्रम का शोषण करते थे और उनसे उनकी भूमि छीन रहे थे –
“भूपति कृपनम्मी भूमि तेरुचुवाडू
प्रजला युसुरु दाकि पडुनु पिदपा
येगुरवेयि बंति येंदाका निल्चुरा
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(जमींदार की कृपा पर भूमि को छीननेवाले/ जनता की आह से बाद में नीचे गिरोगे/ ऊपर फेंकी  हुई गेंद कब तक रुकेगी / विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.)

वेमना ने देखा कि हमारा समाज जाति के नाम पर विभाजित है. वेमना के समय में भी गाँवों में जाति के नाम पर अलग अलग बस्तियाँ हुआ करती थीं. यह स्थिति आज भी आंध्र प्रदेश के गाँवों में देखी जा सकती है - धोबी बस्ती, कुम्हार बस्ती, भंगी बस्ती आदि. ग्राम जीवन में धोबी को अधिक महत्व दिया जाता है. यह भी एक मान्यता है कि यदि अन्नप्राशन के समय बच्चे को पहले धोबी के हाथ से अन्न खिलाया जाए तो शुभ होगा. वेमना कहते हैं कि धोबी सिर्फ कपड़ों का मैल साफ नहीं करता बल्कि समाज का मैल भी साफ करता है –
“चाकिवाडू कोका चीकाकू पडजेसि
मैलबुच्चि मंचि मडुपु जेयु
बुद्धि चेप्पु वाडु गुद्धिते नेमया !
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(धोबी साड़ी को घिस घिस कर/ मैल निकालकर साफ सुथरा बनाता है;/ सद्बुद्धि देने वाला अगर घूँसा भी मारे तो क्या !/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.).

वेमना यह मानते हैं कि किसी को जन्म और जाति के आधार पर नहीं आंका जा सकता अपितु  गुण के आधार पर ही किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता की पहचान होती है –
“गुणमुलु कलवानि कुल मेंचगा नेल
गुणमुलु कलिगनेनि कोटि सेयु
गुणमुलेका युन्न गुड्डी गुव्वयु लेदु
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(सद्गुणी व्यक्ति की जाति पूछने की क्या आवश्यकता/ उनके अच्छे गुण ही उन्हें गौरव दिलाएंगे/ गुणहीन है फूटी कौड़ी के बराबर/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.) इस पद को पढ़ते समय स्वतः ही कबीर का प्रसिद्ध दोहा याद आना स्वाभाविक है – “जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान.”

सज्जन के गुणों का परिचय देते हुए वेमना कहते हैं कि –
“मृग मदंबू चूड मीद नल्ल्गनुंडु
बरिढविल्लु दानि परिमळंबु
गुरुवुलैन वारि गुणमु लीलागुरा
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”  
(कस्तूरी मृग ऊपर से काला है/ उसकी सुगंध दूर दूर तक व्याप्त है/ गुरु के गुण भी ऐसे ही हैं/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.).

इसी तरह एक और उदाहरण देखें –
“मीरपगिंजा चूड मीद नल्ल्गनुंडु
कोरिकि चूड लोना चुरुकुमनुनु
सज्जनुलगुवारि सारमिट्लुंडुरा
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(मिर्च ऊपर से काली है/ काटने पर तीखी है/ सज्जन का सार भी ऐसा ही है/ विश्वदाभिराम सुनारे वेमा).

वेमना जाति-पांत और छुआछूत के विरोधी थे. उनके मतानुसार सब एक ही जाति के हैं और वह है मानव जाति. वस्तुतः मानवता ही वेमना का मत है. वे विश्वमानव की कल्पना करते हैं. इसीलिए वे कहते हैं कि –
“कुलमु चेताबट्टि गुंपिंचा नेटिकि
पादु उन्न चोटा प्रबलु वित्तु
एटि कुलम्बिंका येक्कडि द्विजुडया
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(जाति को हाथ में पकड़कर इतराना किसलिए/ अनुकूल स्थिति में बीज अंकुरित होते हैं/ कैसी  जाति कैसा ब्राह्मण/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा).

वेमना जाति प्रथा के निर्मूलन के पक्षधर थे. वी.आर. नरुला ने अपनी पुस्तक ‘वेमना’ में यह स्पष्ट किया है कि As a social philosopher, Vemana is an advocate of human equality. He believes fervently that there can be no equality so long as the caste system, with its many gradations and degradations, its totems and taboos, is not done away with.” (डॉ.एन.गोपि; प्रजाकवि वेमना, पृ.सं.175 से उद्धृत).

वेमना ने तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों को भी बखूबी उजागर किया है. वेमना राज्याश्रय का विरोध करते हैं चूँकि कुछ ऐसे राजा थे जो कवियों को देय धन को भी हड़प लेते थे और उन्हें निस्सहाय छोड़ देते थे. ऐसी व्यवस्था की तुलना उन्होंने आवारा और कटखने कुत्ते से  करते हुए कहा है कि –
“गंडमैन दोंगा कवुला सोम्मेगवेसी
कंडा कावाराना कड़िय बलिसी
गंडुकुक्का वलेनु काटुकु दिरुगुनु
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(राजा ही चोर बनकर कवियों का धन लूटे/ बाहुबल दिखाकर शक्ति प्रदर्शन करे/ आवारा कुत्ते की तरह काटने को तैयार!/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.). इससे यह स्पष्ट होता है कि जब समाज में अनीति बढ़ती है तब योग्यता का अपमान होता है, उसका तिरस्कार होता है. फलतः कुशासन का जन्म होना स्वाभाविक है.    

वेमना ने एक पद के माध्यम से यह बताया है कि यदि सत्ता अयोग्य के हाथों लगा जाए तो मर्कट नीति ही होगी-
“क्रोति नोनर देच्चि क्रोत्ता पट्टमु गट्टि
कोंडमृच्चु लेल्ल गोल्चिनट्लु
नीतिहीनु नोद्दा निर्भाग्युलंदरू
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(बंदर को ले आकर राजतिलक करके/ सब मर्कट मिलकर उसका गुणगान करते हैं / नीतिहीन के निकट सब निर्भाग्य हैं/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.).

वेमना के पदों में सांस्कृतिक पक्ष भी विद्यमान है. तत्कालीन समाज में स्त्री-पुरुष की वेशभूषा विशिष्ट थी. वेमना की कविता से ज्ञात होता है कि पुरुष पगड़ी पहनते थे. संपन्न लोगों की पगड़ियों में मोती और नग होते थे. इतना ही नहीं वे मोती और नग जड़ित आभूषण पहनते थे – जैसे झुमके, अंगूठी, कड़े, मालाएँ आदि. देखिए वेमना ने एक संपन्न व्यक्ति का चित्र कैसे खींचा है-
“पाग पच्चडमु पैकि कूसंबुनु
पोगुलुंगरमुलु बोज्ज कडुपू....”
(पगड़ी के ऊपर मरकत जड़े हुए/ झुमके, अंगूठी और थुलथुल पेट ...).

पुरुष अपने हाथों में कड़े पहनते थे (“मोंडिवानिकेला मुन्जेती कडियालू?”; जिद्दी के हाथों में कड़े क्यों हों?). स्त्री और पुरुष, दोनों ही, कानों में झुमके पहनते थे. संपन्न लोगों के आभूषणों में नग और मोती होते थे तो गरीब लोगों के आभूषणों में नग और मोती के स्थान पर साधारण मनके होते थे.

वेशभूषा ही नहीं संस्कार भी लोक का ही अंग है. आंध्र प्रदेश में सगोत्र विवाह (consanguineous marriage)  की प्रथा रही है. तमिलों में यह प्रथा नहीं है. इसका वर्णन वेमना के इस पद में प्राप्त होता है –
“मेनमामा बिड्डा मेरिसि पेंड्लामाए
अरवलंदु चेल्लेलायेनदियु
वलसिना पुण्यंबु वलदन्न दोषंबु
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(मामा की बेटी हुई पत्नी/ तमिलों में तो बहन हुई/ शादी करें तो पुण्य, न तो दोष/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.) आंध्र में पहले मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी. वस्तुतः इस तरह के विवाह इसलिए संपन्न करवाए जाते थे कि घर की संपत्ति घर में ही रहे.

पत्नी के गुलाम होकर अपने कर्तव्यों को ठोकर मारने वाले पुत्र हर काल में पाए जाते हैं –
“तल्लिदंड्रुलपयि दयलेनि पुत्रुंडु
पुट्टेनेमि वाडु गिट्टेनेमि
यिंट बुट्टि पेरिगि यिल्लालि बंटुरा
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(माँ-बाप के प्रति निर्दय पुत्र/ चाहे जिए या मरे/ घर में पला-पुसा पर स्त्री का गुलाम हुआ/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.)

एक जमाने में संयुक्त परिवार दिखाई देते थे. लेकिन धीरे धीरे पारिवारिक विघटन होने लगा और एकल परिवार सामने आया. पारिवारिक विघटन के अनेक कारण हो सकते हैं. अविवेक उनमें से एक कारण है अतः वेमना कहते हैं कि -
“आलि माटलु विनि अन्नदम्मुलू बासि
वेरुबड्डा वाडु वेर्री वाडु
कुक्का तोका बट्टि गोदावरीदुना
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(पत्नी की बातों में आकर भाई-भाई लड़कर/ एक-दूसरे से जुदा होने वाले मूर्ख हैं/ कुत्ते की पूँछ को पकड़कर गोदावरी को पार करना क्या संभव है/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.)

लेकिन इन पदों के आधार पर वेमना को स्त्री विरोधी करार नहीं दिया जा सकता. असल में वेमना का यह आशय कतई नहीं है कि पत्नी को छोड़ दें. वे तो यहाँ तक कहते हैं कि –
“कामि गानिवाडु कवि गाडु रविगाडु
कामि गाका मोक्ष कामि गाडु
कामि ऐना वाडु कवि अउनु रवि अउनु
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”
(जो कामी नहीं है वह न कवि है न रवि/ काम के बिना मोक्ष की सिद्धि नहीं होगी/ जो कामी है वह कवि भी है और रवि भी/ विश्वदाभिराम सुनरे वेमा.).

इसके अलावा वेमना के पदों में शैव और वैष्णव दर्शन भी दर्शनीय है. परंतु जो चीज हमें आज के संदर्भ में पुनः पुनः वेमना के पदों पर चिंतन-मनन के लिए प्रेरित करती है वह यह है कि वे मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, जात-पांत, ऊँच-नीच, अस्पृश्यता आदि का खंडन करते हैं तथा उनकी दृष्टि में मानवता ही सबसे श्रेष्ठ जीवनमूल्य है.  

सोमवार, 11 जून 2012

'तेरे मेरे दरमियाँ' लोकार्पित


[10 जून 2012 को आई ए एस ऑफीसर्स  एसोसिएशन, हैदराबाद के प्रांगण में   स्व. नारायणदास जाजू (10.6.1942 – 17.3.2012) की 70 वीं जयंती के अवसर पर नेशनल पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित उनके ग़ज़ल संग्रह ‘तेरे मेरे दरमियाँ’ का लोकार्पण समारोह संपन्न हुआ. इस समारोह के अध्यक्ष थे कानपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ.दिनेश प्रियमन. मुख्य अतिथि थे श्री निदा फ़ाजली और लोकार्पणकर्ता डॉ. कुँवर बेचैन. कार्यक्रम का उद्घाटन डॉ.ए.के.पुरोहित ने किया. श्री स्वाधीन ने स्व.नारायणदास जाजू से जुडी यादों को श्रोताओं के सम्मुख रखा. नेशनल पब्लिशिंग हाउस के प्रकाशक श्री मोहित मलिक ने प्रकाशकीय वक्तव्य प्रस्तुत किया. मंच पर 12 लोग उपस्थित थे. डॉ.सलाउद्दीन नैयर, डॉ.किशोरीलाल व्यास, डॉ.दुर्गेश नंदिनी, श्रीमती रूबी मिश्रा, श्री बंसीलाल के साथ साथ मुझे भी वक्ता के रूप में मंचासीन होने का सुअवसर मिला. मुख्य व्याख्यानकर्त्ता के रूप में डॉ. ऋषभदेव शर्मा को आना था लेकिन संभवतः हैदराबाद से बाहर गए होने के कारण वे उपस्थित नहीं हो सके.

लोकार्पण समारोह का मुख्य आकर्षण था निदा फ़ाजली और कुँवर बेचैन का काव्य पाठ. दोनों ही समकालीन हिंदी-उर्दू मंचों के शिखरस्थ रचनाकार हैं. हैदराबाद की जनता ने इन्हें एक साथ सुनकर धन्यता का अनुभव किया.

स्वाधीन जी, नैयर जी और दुर्गेश नंदिनी जी ने काफी लंबे भाषण दिए. मुझसे पहले छह वक्ता बोल चुके थे. अपनी बारी आने पर जैसे ही मैं माइक पर गई तो स्वाधीन जी ने निर्देश जारी कर दिया, ' ज्यादा मत बोलना, अपनी बात बस दो मिनट में खत्म करना.' वैसे तो मुझे ज्यादा नहीं बोलना था पर मैंने पाँच मिनट के हिसाब से अपना लिखित वक्तव्य तैयार किया था. अतः जो कुछ मुझे कहना था, मैंने बस दो ही मिनट में ही समेट लिया. मंच से ही जब डॉ. कुँवर बेचैन जी, डॉ. ए.के.पुरोहित जी और डॉ. दिनेश प्रियमन जी ने एक साथ कहा - ‘बहुत अच्छा’, ’शाबाश’, ‘शॉर्ट एंड स्वीट’ - तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा. जब यह कहा गया कि विवशता के पाठ की दृष्टि से ग़ज़लों का मेरा विवेचन अन्य वक्ताओं से भिन्न रहा तो मैंने मन ही मन अपने गुरुवर प्रो. दिलीप सिंह जी और प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी को प्रणाम किया क्योंकि इसका सारा श्रेय उन्हीं की शिक्षाओं को जाता है.

मैं आपके सामने उसी वक्तव्य को प्रस्तुत कर रहीं हूँ.]

गज़लकार नारायण दास जाजू की रचनाओं में विवशता का पाठ

“माना कि अब आकाश से ये दुनियाँ बड़ी है.
 लेकिन यहाँ हर वक्त ये मुश्किल में पड़ी है.

रुकने का नाम भी तो नहीं लेती ज़िंदगी 
पल पल यूँ गुज़रती हुई ये रात-घड़ी है.

तुम भी तो यहाँ आके हवा हो गए हो दोस्त 
 दीवारो दर के पास फ़कत धूप खड़ी है.” 
                                                                                               [तेरे मेरे दरमियाँ, पृष्ठ 60]

यह ठीक है कि दुनिया आज इतनी बड़ी हो गई है कि अनंत संभावनाओं से भरा आकाश भी उसके सामने छोटा लगता है. लेकिन इस विवशता का क्या कीजिएगा कि इतनी विशाल होकर भी यह दुनिया हर वक्त किसी-न-किसी मुश्किल में पड़ी है. यहाँ तक कि विराट होते होते दुनिया का गुब्बारा इतना फूल गया लगता है कि जाने कब फट पड़े. अपने विकास में ही विनाश को भी पनाह देने की मजबूरी दुनिया के अस्तित्व की मजबूरी है. इसी तरह निरंतर दौड़ती हुई ज़िंदगी भी विवश है, मजबूर है - पल पल बीतते जाने के लिए. दुनिया और ज़िंदगी की मजबूरियाँ तो अपनी जगह हैं, रिश्ते-नातों और संबंधों की मजबूरियाँ इनसे भी बड़ी हैं. पता ही नहीं चलता कि छायादार पेड़ जैसी दोस्ती कब हमारे सिर से गायब हो जाती है और हम हर ओर से तमतमाती धूप में अकेले खड़े रह जाते हैं. आज का आदमी दुनिया की तमाम भीड़ के बीच इसी तरह अकेला होने को मजबूर है.

व्यक्ति, जीवन और जगत की इन तमाम मजबूरियों को हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़लकार स्व.नारायण दास जाजू की ग़ज़लों में बहुत ख़ूबसूरती से प्रकट किया गया है. मुझे जो थोड़ा सा समय यहाँ अपनी बात कहने के लिए मिला है उसमें मैं उनकी गज़लों में निहित इसी विवशता के पाठ पर प्रकाश डालने का प्रयास करूँगी.

यहाँ इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ग़ज़ल अब केवल हिंदी-उर्दू की काव्य विधा  नहीं रह गई है बल्कि देश-विदेश में अनेक भाषाओं में अब ग़ज़ल कही जा रही है. मराठी,  गुजराती, तेलुगु और पंजाबी ही नहीं हमारे हैदराबाद में तो अंग्रेज़ी तक में गज़ल कही जा रही है. खासतौर पर तेलुगु में दाशरथी कृष्णमाचार्य,ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता डॉ.सी.नारायण रेड्डी और ग़ज़ल श्रीनिवास ने इस विधा को अपार लोकप्रियता दिलवाई है. अगर आप तेलुगु और हिंदी में रची गई डॉ.सी.नारायण रेड्डी की ग़ज़लों को देखें तो पता चलेगा कि उनमें एक खास तरह की जीवन-ऊर्जा और मानवतावादी दृष्टि विद्यमान है. अगर उन ग़ज़लों के सामने नारायण दास जाजू की ‘तेरे मेरे दरमियाँ’ की ग़ज़लों को रखकर देखा जाए तो यह मानवतावादी नज़रिया दोनों को एक दूसरे के करीब लाता प्रतीत होगा. लेकिन श्री जाजू ने उदासी और विवशता का जो पाठ अपनी ग़ज़लों में बुना है वह उन्हें एक स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करता है. इसका अर्थ यह न समझा जाए कि इस संग्रह की ग़ज़लों में व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक आदि दूसरे सरोकार नहीं हैं, बल्कि मेरा कहना है कि नारायण दास जाजू अत्यंत व्यापक समाजी सरोकार वाले कवि हैं और ये सरोकार ही उन्हें उन मजबूरियों का साक्षात्कार कराते हैं जिनकी चर्चा मैंने शुरू में की. अपनी पहली ही गज़ल में कवि ने दिल के घावों का भरना नामुमकिन बताया है क्योंकि उन पर एक तलवार लटकी हुई है –
“ये दिल के घावों का भरना कहाँ है मुमकिन अब  
लटक रही है इन पर जो ये तलवार ज़रा.” (पृष्ठ 1)
- यहाँ ‘ज़रा’ के प्रयोग से मजबूरी और गहन हो गई है.

कवि चाहता है कि आनेवाली पीढ़ी को जीने की कला सिखा सके. लेकिन वह इस तथ्य के आगे विवश है कि‘दिखती है रात, दिन के उजाले में भी यहाँ.’ (पृष्ठ 3)
अब इसे मजबूरी नहीं तो क्या कहिएगा कि 
“मैंने गुजारी इस तरह से ये ज़िंदगी 
 सहरा में कड़ी धूप में लिपटी रही छाया. 
*** 
मैं जो गया था पास से तेरे कभी उठकर 
क्या बात थी कि लौट कर, मैं नहीं आया.” (पृष्ठ 9)

यह विवशता इतनी बढ़ गई है कि
“दुःख पीड़ा और दर्द अश्क सब साथ उतर जाते हैं लेकिन  
खुद में नीलकंठ सा गहरा एक बवंडर देखता हूँ मैं.”(पृष्ठ 11)

दरअसल बेचैनी और विवशता नारायण दास जाजू की गज़ल-भाषा के दो मजबूत स्तंभ हैं. समय की सीमा को देखते हुए अपनी तरफ से कुछ अधिक न कहते हुए मैं उनके चंद अशआर पेश करना चाहूँगी. गज़ल नं. 19 का मक़ता देखें –
“इस ज़मीन पर ‘जाजू’ हमने बिखरे दिल को बाँध लिया  
जीता है बीमार यहाँ जो उस का सब कुछ दवा के नाम”(पृष्ठ 19)

गज़ल नं 23 का मतला –
“ज़िंदगी बंट जो गई आज कई किश्तों में  
ये क्यों दरार सी पड़ आई अपने रिश्तों में” (पृष्ठ 23)

गज़ल नं. 109 का एक शेर है – 
“इस ज़िंदगी में दिल की लगी आग थी ऐसी  
हर शाम उठा करते थे तुम आह की तरह.” (पृष्ठ 109)

और अंत में आखिरी गज़ल –

“कि अपने प्यार में साज़िश रचाई जाती है 
 हमारे मिलने पे बंदिश लगाई जाती है.
तुम्हारे गाँव की आँख तरसती रहती है  
हमारे शहर में फ़सलें उगाई जाती है.
आग लग जाए तो हंगामा खडा होता है.  
इस लिए शहर में आग लगाई जाती है.
बेगुनाह लोगों को किस की सज़ा मिलती है  
पेशियाँ बदलती हैं, मियाद बढ़ाई जाती है.”(पृष्ठ 114)  

शनिवार, 9 जून 2012

Welwitschia Mirabilis



Welwitschia  is a desert plant. This plant is commonly called as living fossil. 


 It  is named after the Austrian botanist Friedrich Welwitsch who discovered it in 1859. This plant grows in Namib desert of Namibia and Angola. This plant has a prominent Taproot system.

After germination the cotyledons grow into 25-35 mm in length. There appears two permanent leaves which are produced at right angles to the cotyledons.

This is a dioecious plant with separate male and female plants. The fertilization ocuurs through Pollination.

The LifeSpan of this plant varies from approximately 1000 years to 2000 years.