‘मन की दीवारों पर…’ कवयित्री श्रीमती
सुषमा बैद का नवीनतम कविता संकलन है. इस संकलन में उन्होंने अपने 219 मुक्तकों को
संग्रहीत किया है. इससे पहले सुषमा बैद की 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं
जिनमें कई काव्य संग्रह, गीत संग्रह, भक्ति गीत संग्रह, मुक्तक संग्रह, सावन गीत
संग्रह और एकांकी सम्मिलित हैं. इतना ही नहीं उन्होंने सात पुस्तकों का
सफलतापूर्वक संपादन भी किया है. जैसा कि आप सबको मालूम ही है सुषमा बैद एक गृहिणी
साहित्यकार है और कवि सम्मलेन के मंचों पर इन्हें अपने खास अंदाज के लिए पहचाना
जाता है. ‘मन की दीवारों पर...’ शीर्षक उनकी 13 वीं कृति के प्रकाशन और लोकार्पण के
अवसर पर मैं उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देती हूँ.
आज (24 जून 2012) लोकार्पित हो रही इस पुस्तक के मुक्तक कवयित्री के व्यापक अनुभवों,
यथार्थबोध, इच्छाओं–आकांक्षाओं, सपनों और आदर्शों को संक्षेप में प्रकट करने वाली
रचनाएँ हैं. इनकी रचना प्रक्रिया के बारे में स्वयं कवयित्री ने यह बताया है कि समय
प्रवाह के सात बोझिल मन की दीवारों पर दर्द की परतें बर्फ़ सी जमने लगती हैं और तब
तक मन को व्यर्थ ही इस बोझ को ढोना पड़ता है जब तक नव कल्पना के नए सूर्य की तपती
किरणें उन पीड़ित ठोस परतों को पिघला नहीं देतीं. कहना न होगा कि दर्द की परतों का
यह पिघलाव ही सुषमा बैद के मुक्तकों का स्रोत है. वे कहती भी हैं कि
“चाहा था
जिसको अपना जिगरी दोस्त समझकर
चुभने लगा वह दिल में कांटा-सा दुश्मन बनकर.
कभी मक्खन-सा,
कभी फूल-सा कोमल-नरम दिल
क्यों बात-बात में होता कुपित चट्टान-सा तनकर?" (मुक्तक 17,
पृ.18)
प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने इस संकलन की भूमिका में एकदम अलग ढंग से इन
मुक्तकों की कुछ विशेषताएं गिनवाई हैं. उनके अनुसार सुषमा बैद के मुक्तकों में
जीवन के कट्टे-मीटे अनुभव से पैदा होनेवाली सूक्तियां सबसे पहले ध्यान खींचती हैं.
उन्होंने इन मुक्तकों की एक विशेषता उद्बोधन की मुद्रा को भी माना है. इसके अलावा
यह भी कहा है कि प्रणय निवेदन, मिलन का सुख और विरह की कसक वे विषय हैं जिनके
इर्द-गिर्द सुषमा जी का सारा काव्य संसार फैला हुआ है. इस संग्रह के मुक्तक भी इसका
अपवाद नहीं हैं. सुषमा जी मानती हैं
“आज नित नए चैनलों की, दूरदर्शन पर भरमार
है
अश्लील दृश्यों का खुलेआम, बढ़ रहा व्यापार है.
हैं बाल, वृद्ध, युवक
के, दूरदर्शन में प्राण
पतन हो रहा नैतिकता का, संस्कृति पर प्रहार है.” (मुक्तक 115,
पृ.51)
इसी प्रकार प्रेम के संबंध में उनकी यह धारणा है कि
“प्यार ने देखा
प्यार को कभी गुनगुनाते हुए
कभी रोते और कभी ज़रा मुस्कुराते हुए.
सिमट गयीं दिल
में यादें फूलों की तरह
खिलने लगीं मन-उपवन को महकाते हुए.” (मुक्तक 184, पृ.74)
प्रेम के साथ कई तरह की मजबूरियां भी जुड़ी होती हैं. इस बारे में सुषमा
जी कहती हैं –
“सच भले दूर थी मैं इस तन से
मगर पास थी मैं इस मन से.
हम
विरह-अग्नि में जले बराबर
थे बेबस दोनों मधुर मिलन से.” (मुक्तक 218, पृ.85)
और मिलन का तो अपना सुख है ही – वह भी बारिश के मौसम में –
“ये
मौसम बारिश का सुहाना हो गया
आपसे मिलाने का इक बहाना हो गया.
दो अनजाने-से थे
मैं और तुम मगर
मिलते ही नज़र दिल दीवाना हो गया.” (मुक्तक 206, पृ.81)
‘मन की दीवारों पर...’ के इन मुक्तकों के संबंध में यह भी ध्यान देने की
बात है कि इनमें कवयित्री की धर्म साधना भी प्रकट हुई है. जैसा कि डॉ.राधेश्याम
शुक्ल जी ने लिखा है, यह उनकी साधिका-वृत्ति तथा तपोशक्ति का ही प्रभाव है कि
उन्होंने गार्हस्थ्य गौरव और धर्माचरण का पुण्य लाभ उठाने के साथ विपुल साहित्य
सृजन का यश-लाभ भी अर्जित किया है. इसी प्रकार शुभाशंसा में प्रो.एम.वेंकटेश्वर जी
ने इस बात की तरफ ध्यान दिलाया है कि सुषमा बैद का काव्य जहां एक ओर प्रकृति प्रधान
है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को प्रखरता से अभिव्यक्त करता है. उनके ये 200
से अधिक मुक्तक वर्तमान पारिवारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक
परिस्थितियों की गंभीर व्याख्या करते हैं.
अंततः एक बार फिर ‘मन की दीवारों पर...’ के प्रकाशन के लिए सुषमा जी को
हार्दिक बधाई देती हूँ और उन्हीं का एक मुक्तक उन्हें समर्पित करती हूँ –
“टूटते-बिखरते सभी रिश्तों को नया आकार चाहिए
नित माँ-सी ममता और पिता-सा प्यार चाहिए.
रिश्तों के मेले में क्यों व्यापार है
द्वेष-घृणा का
प्रेम, सहिष्णुता, अपनेपन का सद्व्यवहार
चाहिए.” (मुक्तक 6, पृ.14)
मन की दीवारों पर... (मुक्तक संग्रह)
सुषमा बैद
2012
प्रकाशक : सुषमा निर्मलकुमार बैद, 3-3-835/1ए, के.एन.आर., फ़्लैट नं 302, संयुक्त एन्क्लेव, कुतबीगुडा, हैदराबाद - 500 027
पृष्ठ - 100,
मूल्य : रु.100/-
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