बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

तेलंगाना की सांस्कृतिक पहचान ‘बतुकम्मा’

स्वायत्त अस्तित्व ग्रहण करने के बाद तेलंगाना राज्य ने 24 सितंबर 2014 से 2 अक्टूबर 2014 तक विराट स्तर पर राजकीय लोकपर्व के रूप में ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार भव्यता के साथ मनाया. इस त्यौहार का संबंध देवी पूजा से है. रोचक तथ्य यह है कि तेलंगाना का एक अन्य लोकपर्व ‘बोनालु’ भी देवी पूजा से ही संबंधित है. 

अतः ‘बतुकम्मा’ पर चर्चा करने से पूर्व संक्षेप में ही सही ‘बोनालु’ की चर्चा अपेक्षित है. ‘बोनालु’ को हैदराबादी भाषा में ‘बोनाल’ कहा जाता है. ‘बोनालु’ शब्द ‘भोजनालु’ (भोजन) का बिगड़ा हुआ रूप है. आषाढ़ मास आधा बीत जाने के बाद शुरू होकर यह पर्व श्रावण के आधा बीतने पर समाप्त होता है. अर्थात एक माह तक मनाया जाता है. इसके साथ एक लोक कथा जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि लगभग डेढ़ सौ साल पहले तेलंगाना में बारिश का मौसम शुरू होते ही आषाढ़ मास में महामारी फैल गई. सब लोग इसे दैवी प्रकोप मानने लगे. देवी माँ को शांत करने के लिए पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, मेले-ठेले का आयोजन किया गया. और तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है. क्रमशः गोलकुंडा, सिंकदराबाद, लाल दरवाजा और पुराने शहर में माह के चार सप्ताह के लिए यह उत्सव मनाया जाता है. प्रसाद के रूप में देवी माँ को नमक और काली मिर्च के साथ पके हुए चावल चढ़ाते हैं. मंदिर में देवी माँ के समक्ष जो चावल का ढेर लग जाता है उसे ‘बल्लम गल्ला’ कहते हैं. इस अवसर पर सोमवार को जुलूस की तैयारी की जाती है. माता के लिए रंगबिरंगे कागजों से सबसे ऊँचा बेंत का झूला तैयार किया जाता है. इस जुलूस का अर्थ है खुशी से माता को उनके ससुराल विदा करना. विदा करने के लिए तो भाई ही जाते हैं. माँ की विदाई के लिए उनके भाई और अंगरक्षक ‘पोतुराजु’ जाते हैं. नदी किनारे झूला और ‘बल्लम गल्ला’ रख दिए जाते हैं और नदी में दिया छोड़कर लोग वापस आ जाते हैं. लोक विश्वास है कि प्रेतात्माएँ भोजन पाकर तृप्त हो जाएँगी अतः कोई अनिष्ट नहीं होगा और देवी माँ सबकी रक्षा करेगी. 

इसी तरह ‘बतुकम्मा’ भी तेलंगाना का विशिष्ट त्यौहार है. यह त्यौहार भाद्रपद मास की समाप्ति के दिन अर्थात अमावस से शुरू होता है. स्मरणीय है कि आश्विन मास में भारतवर्ष में दुर्गा नवरात्र धूमधाम से हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. भारत के विभिन्न भागों में यह त्यौहार अलग अलग ढंग से मनाई जाती है. इस अवसर पर उत्तर भारत में रामलीला का आयोजन होता है तो गुजरात में डांडिया या गरबा का. आंध्र प्रदेश में दशहरे के रूप में मनाया जाता है तो तेलंगाना में ‘बतुकम्मा’ के नाम से प्रचलित है. अलग तेलंगाना राज्य बनने के बाद इस त्यौहार को तेलंगाना राज्य त्यौहार की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है. यह पर्व महालय अमावस के दिन शुरू होकर दुर्गाष्टमी के दिन समाप्त होता है. अंतिम दिन को ‘सद्दुला बतुकम्मा’ या ‘पेद्दा बतुकम्मा’ (बड़ी बतुकम्मा/ महाबतुकम्मा) कहा जाता है. इसके बाद होता है ‘बोड्डम्मा’ (गौरी पूजन) जिसके लिए तालाब की मिट्टी से माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाई जाती है. यह भी मान्यता है कि ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार जहाँ वर्षा ऋतु के समाप्त होने की निशानी है तो ‘बोड्डम्मा’ शरद ऋतु की शुरूआत की निशानी है. ‘बतुकम्मा’ दो शब्दों की संधि से बना हुआ शब्द है, ‘बतुकु’ (जीवन) + ‘अम्मा’ (माँ) अर्थात जीवनदायिनी माँ. इसका एक और अर्थ भी है कि ‘हे माँ जागो सबकी रक्षा करो’. 

बतुकम्मा पर्व वर्षा ऋतु के समाप्त होने का प्रतीक है. बारिश की समाप्ति के बाद जीवन की रक्षा के लिए देवी माँ के धन्यवाद स्वरूप यह उत्सव मनाया जाता है. विशेष रूप से फूलों से ‘बतुकम्मा’ को सजाते हैं. बरसात में हर जगह जंगली पौधे उग आते हैं. तेलंगाना के क्षेत्र में इस मौसम में हर जगह मद्धम सफेद रंग के ‘गुनुका’ (Celosia) के फूल उग आते हैं. इन्हें बतुकम्मा के फूल कहते हैं. बतुकम्मा को सजाने के लिए इन फूलों का प्रयोग किया जाता है. इन फूलों के साथ साथ तंगेडू (अमलतास), आक, कनेर, घास के फूलों का भी प्रयोग किया जाता है. पहले तो लोग इन फूलों को अपने आसपास के पेड़-पौधों से तोड़ लाते थे लेकिन आजकल जंगली फूलों के स्थान पर गेंदे, गुलाब, गुलदाउदी, गुड़हल और सजावटी फूलों का उपयोग किया जाने लगा है जो बाजार में उपलब्ध हैं. 

अब एक नजर ‘बतुकम्मा’ बनाने की विधि पर. पीतल की थाल जिसे ‘तांबलम’ कहते हैं उसमें गोबर की गोल से सतह बनाई जाती है और उस पर गुनुका (बतुकम्मा के फूल) के फूलों को इस तरह सजाया जाता है कि डंठल भीतर की ओर हो और बाहर फूल दिखाई दें. इन डंठलों पर फिर गोबर से सतह बनाई जाती है और उस पर फिर फूलों से सजाया जाता है. इस तरह परत दर परत पिरामिड आकार में फूलों से सजाया जाता है. शिखर पर कुम्हडे का फूल रखकर उस पर दिया जलाया जाता है. फूल खुशहाली का प्रतीक है और दिया प्रकाश का. आजकल गोबर के स्थान पर बेंत से पिरामिड आकार बनाया जाने लगा है और उसे रंगबिरंगे फूलों से सजाया जाता है. अष्टमी के दिन बतुकम्मा को लेकर स्त्रियाँ नदी किनारे पहुँचती हैं और बतुकम्मा के चारों ओर गोलाकार बनाकर गीत गाते हुए नाचती हैं. इसे स्त्री-बहनापे का भी प्रतीक कहा जा सकता है. गीत-संगीत और नृत्य के बाद ‘बतुकम्मा’ को नदी या तालाब में विसर्जित करते हैं और प्रसाद के रूप में ‘मलीदा’ (बाजरे और जवारी के आटे को मिलकर बनाई गई रोटी में गुड़ मिलाकर बनाया गया नैवेद्य) बाँटते हैं. 

‘बतुकम्मा’ त्यौहार से संबंधित अनेक लोक कथाएँ प्रचलित हैं. उनमें से कुछ इस प्रकार हैं – कहा जाता है कि चोल वंश के राजा धर्मंगा और उनकी पत्नी सत्यवती की सौ शूरवीर संतानें युद्ध में एक साथ शहीद हो जाती हैं. राजपाट सब छोड़कर राजा अपनी पत्नी समेत वनवास चले जाते हैं और संतान की कामना करते हुए माँ से याचना करते हैं. माँ की कृपा से बेटी का जन्म होता है लेकिन जन्म से ही उसे तरह तरह के खतरों का सामना करना पड़ता है. तब उस बच्ची का नामकरण ‘बतुकम्मा’ किया जाता है. इस कथा से संबंधित एक प्रचलित लोकगीत भी है जो आमतौर पर बतुकम्मा के अवसर पर गाया जाता है - बतक्म्मा बतकम्मा उय्यालो, बंगारू बतकम्मा उय्यालो/ आनाटी कलाना उय्यालो, धर्मांगुडनु राजु उय्यालो/ आ राजु भार्यायु उय्यालो, अति सत्यवती अंदुरु उय्यालो/ ...../ कलिकी लक्ष्मीनि गूर्ची उय्यालो, गनता पोंदिरिंका उय्यालो/ ..../ सत्यवती गर्भमुना उय्यालो, जनियिंचे श्रीलक्ष्मी उय्यालो. तेलंगाना क्षेत्र में आज भी यदि किसी घर में जन्म लेते ही बच्ची मर जाती है तो ऐसे माँ-बाप देवी माँ के दरबार में जाकर मन्नत मांगते हैं कि यदि बेटी जन्म लेगी तो उसका नाम ‘बतुकम्मा’ रखेंगे. 

एक और कथा भी प्रचलित है. बलात्कार से त्रस्त एक अबोध बालिका नदी में कूदकर आत्महत्या कर लेती है. गाँव वाले उस लड़की को ‘बतुकम्मा’ (जीवित हो जाओ, माँ) कह कर आशीर्वाद देते हैं. लोग आज भी यह मानते हैं कि ‘बतुकम्मा’ किसी भी अबोध बच्ची के साथ ऐसा कुकृत्य नहीं होने देगी. एक और मिथकीय कथा इस त्यौहार से जुड़ी हुई है. वह यह कि दक्ष के यज्ञ में सती देवी बिना बुलाए चली जाती हैं यह सोचकर कि गुरु और पिता के घर बिन बुलाए जाया जा सकता है. परंतु वहाँ दक्ष शिव की निंदा करते हैं तो सती इस अपमान को सह नहीं पाती और प्राण त्याग देती है. इसी की स्मृति में सती देवी के पुनः जीवित होने की कामना करते हुए फूल और हल्दी से गौरी माता की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है. 

वस्तुतः ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार धरती, पानी और मनुष्य के बीच निहित संबंध को उजागर करता है. बतुकम्मा के लिए प्रयुक्त फूलों में औषधीय गुण होते हैं जो पानी के स्वच्छ रखने में सहायक होते हैं. जहाँ बतकम्मा फूलों से सजती हैं वहीं ‘बोड्डम्मा’ तालाब की मिट्टी से बनती है. माँ दुर्गा की मूर्ति को तालाब की मिट्टी से बनाकर पूजा-अर्चना करते हैं तथा तालाब में विसर्जित करते हैं ताकि तालाब हमेशा पानी से लबालब रहे. 

2 अक्टूबर 2014 को दुर्गाष्टमी के दिन शाम को हैदराबाद स्थित टैंक बंड पर ‘बतुकम्मा’ का पर्व बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया. इस अवसर पर विभिन्न अंचलों के लोककलाकार यहाँ एकत्र हुए और यक्ष गान, शिव तांडव, विभिन्न अंचलों के लोक नृत्य आदि का प्रदर्शन किया गया. यह त्यौहार प्रकृति की सुंदरता और तेलंगाना के लोगों की सद्भावना का प्रतीक बन गया है. आज यह पर्व तेलंगाना राज्य की सांस्कृतिक पहचान बन चुका है.

शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

प्रो. एन. गोपि से साक्षात्कार


प्रो. एन. गोपि से डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा का संवाद 

[तेलुगु साहित्य जगत में नई काव्य विधा ‘नानीलु’ के प्रवर्तक प्रो. एन. गोपि का जन्म 25 जून, 1948 को भुवनगिरि (जिला नलगोंडा, तेलंगाना क्षेत्र, आंध्र प्रदेश) में हुआ. डॉ. एन. गोपि तेलुगु साहित्य जगत में कवि, समीक्षक, अनुसंधानकर्ता, यात्रावृत्तकार, संपादक और स्तंभ लेखक के रूप में सुप्रसिद्ध हैं. बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. गोपि जन्मजात कवि हैं. समकालीन तेलुगु कवियों में अग्रगण्य डॉ. गोपि को ‘कालान्नि निद्र पोनिव्वनु’ (समय को सोने नहीं दूँगा) काव्य संकलन पर सन 2001 में केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया. आपके अब तक प्रकाशित ग्रंथों में 19 काव्य संग्रह, 6 निबंध संग्रह, 3 शोधकार्य, 4 यात्रावृत्त, 2 अनुवाद, 2 समीक्षा, 3 आलेख संग्रह और 4 पाठ्यपुस्तकें सम्मिलित हैं. आपके लगभग सारे काव्य संग्रह किसी न किसी संस्था से पुरस्कृत हुए हैं. उनमें से प्रमुख हैं – तंगेडु पूलु (1976, पीले फूल), मइलु राइ (1981, मील का पत्थर), चित्र दीपालु (1989, रंगीन रोशनी), वंतेना (1993, सेतु), कालान्नि निद्र पोनिव्वनु’ (1998, समय को सोने नहीं दूँगा), नानीलु (1998, नन्हे मुक्तक), चुट्ट कुदुरु (2000, जूड़ा), एंड पोडा (2002, धूप का निशान) जलगीतम (2002, जलगीत), गोपि नानीलु (2002, गोपि के नन्हे मुक्तक), मरो आकाशम (2004, दूसरा आकाश), अक्षराललो दग्धमै (2006, अक्षर दग्ध), दीपम ओका एकांतम (2007, दीप अकेला), गोवा लो समुद्रम (2008, गोवा में समुद्र), मा ऊरु महाकाव्यम (2010, मेरे गाँव का महाकाव्य), राति केरटालु (2011, पथरीला ज्वार) और हृदय रश्मि (2013, हृदय रश्मि) आदि. आपकी अनेक कविताओं का हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, नेपाली, तमिल, मलयालम, मराठी, कोंकणी, डोगरी, मैथिली, कन्नड, पंजाबी, संस्कृत, ओड़िया, सिंधी, मणिपुरी और फारसी में अनुवाद हो चुका है. 2008 में पोट्टि श्रीरामुलु तेलुगु विश्वविद्यालय के कुलपति के कार्यभार से मुक्त होने के उपरांत संप्रति वे हैदराबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं. इस समय वे केंद्रीय साहित्य अकादमी के तेलुगु सलाहकार बोर्ड के संयोजक भी हैं. संपर्क सूत्र : 13-1/5 बी, श्रीनिवासपुरम, रामंतापुर, हैदराबाद – 500 013. 

प्रस्तुत हैं प्रो. एन. गोपि से ‘बहुब्रीहि’ के लिए 5 अप्रैल 2014 को अपराह्न 4 बजे से रात्रि 8 बजे तक लिए गए साक्षात्कार के मुख्य अंश.]

अक्षर ही मेरी धड़कन है 

घर दूर हो गया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे 

  • आपका जन्म तेलंगाना क्षेत्र के एक गाँव में हुआ. वहाँ से चलकर आप समकालीन तेलुगु कविता के शिखर स्थान तक पहुँचे. आपकी यह यात्रा कई तरह के उतार-चढ़ाव वाली रही होगी. हिंदी जगत के पाठक आपकी इस जीवन यात्रा और रचना यात्रा के बारे में जानना चाहेंगे. आपका पारिवारिक, शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश कैसा रहा – बचपन और किशोर अवस्था में?
मेरा जन्म नलगोंडा जिले के भुवनगिरि में निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ. अब यह तालुका है. मंडल हेडक्वार्टर्स. मेरा परिवार सुसंपन्न परिवार नहीं था. मेरे पिताजी श्री चेन्नय्या और माँ श्रीमती लक्ष्मम्मा ने जो संस्कार मुझे दिए वे आज भी मेरे जीवन का अटूट हिस्सा हैं. मुझे परिवार से शिक्षा और साहित्य की कोई प्रेरणा विरासत में नहीं मिली. निम्न मध्यवर्गीय परिवार की स्वाभाविक आर्थिक कठिनाइयों के बीच मेरा बचपन गुजरा. प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा 12वीं कक्षा तक गाँव में ही संपन्न हुई. हमारे गाँव में एक ‘तालूका शाखा ग्रंथालय’ था. वहाँ बैठकर खूब किताबें पढ़ता था. चाहे समझ में आए या न आए इससे कोई मतलब ही नहीं था. एक तरह का जूनून ही कहिए, बस बैठकर किताबें पढ़ लेता था. लगभग तीन या चार हजार किताबें. आठवीं कक्षा में ही विश्वनाथ सत्यनारायण के प्रसिद्ध महाकाय उपन्यास ‘वेयिपडगलु’ को पढ़ डाला. एक तरह से वह मेरे साहित्यिक जीवन की नींव है. 

मैंने धीरे धीरे कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं. वैसे तो बचपन से ही कविता की ओर मेरा रुझान थी. 8वीं कक्षा में मैंने पहली बार कविता लिखी. वही मेरी साहित्य यात्रा का श्रीगणेश था. पत्र-पत्रिकाओं में भी तभी से मेरी कविताएँ छापने लगीं. मछलीपट्टनम से प्रकाशित होने वाली ‘कृष्णा पत्रिका’ में कोई रचना छप जाए तो यह बहुत बड़ी बात मानी जाती थी. 13 साल की उम्र में ही ‘कृष्णा पत्रिका’ में मेरी कविताएँ छपने लगीं. बैंगलोर से प्रकाशित ‘प्रजामत’ में भी छपीं. तब से लेकर मैं नियमित रूप से हर दिन कविताएँ लिखता रहा. जिस दिन कविता नहीं लिखी जाती उस दिन खाना भी नहीं रुचता था. अक्षर ही मेरा रक्तस्पंदन है, मेरी धड़कन है. यही वह समय था जब मैंने डॉ. सी. नारायण रेड्डी का काव्य संग्रह ‘स्वप्न भंगमु’ (स्वप्न भंग) पढ़ा था. उससे मैं काफी प्रभावित हुआ. मैंने उन्हें पत्र लिखा. उन्होंने मेरे पत्र का उत्तर दिया तो उनसे लगातार पत्राचार चल पड़ा. 1963 की बता है. उनसे मिलने के लिए पहली बार ट्रेन की यात्रा की और हैदराबाद पहुँचा. उस समय वे आर्ट्स कॉलेज में प्राध्यापक थे और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र की तेलुगु पत्रिका ‘स्रवंति’ के संपादक भी थे. उस समय वे शिखर पर थे. उन्होंने मेरी दो कविताओं ‘अद्वैतम’ (अद्वैत) और ‘कन्नीरू’ (अश्रु) को ‘स्रवंति’ में स्थान दिया. उन दिनों मैंने एक ही दिन में ‘शशि’ के आत्मबोधन से एक शतक काव्य की रचना की जो ‘नेता’ में प्रकाशित हुआ. उसे दिवाकर्ल वेंकटावधानी, सी. नारायण रेड्डी, दाशरथि कृष्णमाचार्य और विश्वनाथ सत्यनारायण जैसे महान साहित्यकारों का आशीर्वाद मिला. इस सबसे मेरे मन में कवि बनने की इच्छा बलबती होती गई. परिणामस्वरूप प्रवेश मिलने के एक महीने के बाद ही इंजिनीयरिंग की पढ़ाई छोड़ दी और हैदराबाद के आर्ट्स कॉलेज में बी.ए. में प्रवेश लिया. उस जमाने में डॉ. सी. नारायण रेड्डी का काफी प्रभाव था मुझ पर. तेलुगु, संस्कृत और भाषाविज्ञान विषय लेकर मैंने बी.ए. किया. निज़ाम स्वर्ण पदक के साथ साथ नेशनल मेरिट स्कॉलरशिप भी प्राप्त हुई. उसी से मैंने एम.ए. (तेलुगु) में प्रवेश लिया और यहाँ भी प्रथम श्रेणी के साथ गुरजाडा अप्पाराव स्वर्ण पदक प्राप्त किया. 

मेरी काव्य रुचि को ‘सृजना’ पत्रिका की कविता प्रतियोगिता से भी प्रेरणा मिली. यहाँ मेरी कविता ‘कत्ति कार्चिना कन्नीरू’ (तलवार की अश्रुधारा) के लिए विशिष्ट पुरस्कार प्राप्त हुआ. शिक्षा के साथ साथ मेरा साहित्य सृजन निर्बाध गति से चलता रहा. मेरे अंदर तेलंगाना बोली के प्रति विशेष रुझान है. मैं तरह तरह की क्षेत्रीय बोलियों की मिमिक्री भी करता था. मैं स्टेज आर्टिस्ट भी था. आगे चलकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के समय में महबूब नगर जिले में अनौपचारिक शैक्षणिक कार्यक्रम की शुरूआत हुआ तो मुझे उस परियोजना के अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया. मेरे अधीन 100 गाँव थे. इस अवसर के कारण मेरे ज्ञान की सीमा का विस्तार हुआ. 1973 में महबूब नगर में सूखा पड़ा हुआ था. उस स्थिति से विचलित होकर मैंने एक कविता लिखी थी जिसकी पंक्तियाँ हैं – अंगी बरुवैइंदी/ अन्नम विगटैइंदि (कपड़े बोझ हो गए हैं/ भोजन अखाद्य). तो ऐसे चली मेरी साहित्य यात्रा. 

  • आपकी प्रथम प्रकाशित पुस्तक कौन सी थी? और आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कहाँ से मिली? 
मेरा पहला काव्य संग्रह 1976 में ‘तंगेडु पूवुलू’ (कसोद के फूल) नाम से प्रकाशित हुआ. जैसा मैंने पहले भी कहा, आरंभिक दिनों में डॉ. सी. नारायण रेड्डी का काफी प्रभाव मुझ पर था. सिर्फ मुझ पर ही नहीं, बहुत सारे रचनाकारों को उन्होंने प्रभावित किया. उस समय ग्रांथिक तेलुगु का प्रभाव था. इसके विपरीत, तेलंगाना क्षेत्र में उर्दू ज्यादा प्रचलित थी - यहाँ उस समय तेलुगु भाषा उतनी प्रचलन में नहीं थी. इस क्षेत्र में तेलुगु भाषा के प्रचार-प्रसार का श्रेय ‘हरिकथा’ को जाता है. हम बचपन में ‘हरिकथा’ सुनने जाते थे. मैं उस समय नोटबुक और कलम लेकर बैठता था. जो भी पद हरिकथाकार के मुख से सुनता था उन्हें नोट करके बाद में उनके अर्थ शब्दकोश में ढूँढ़ता था तथा उनके द्वारा प्रयुक्त शास्त्रीय शब्दों का प्रयोग अपनी कविताओं में संदर्भानुसार करता था. अगर मैं कहूँ कि ‘हरिकथा’ के ही माध्यम से मैंने तेलुगु भाषा सीखी तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है. हरिकथाओं के माध्यम से ही रामायण, महाभारत, भागवत आदि घर घर में पहुँचे और इनके पात्र हमारे परिवारों के सदस्य बन गए. कहा जा सकता है कि साहित्य सृजन में ‘हरिकथा’ ने भी मुझे प्रभावित किया. 
  • आप तेलुगु सहित भारतीय साहित्य के गहन अध्येता रहे हैं. विशेष रूप से वेमना पर आपका कार्य अति चर्चित रहा है. वेमना के प्रति अपने रुझान और लगाव को आप किस रूप में देखते हैं? 
एम.ए. (तेलुगु) के बाद स्वतः ही पीएचडी करने की इच्छा जगी. मेरे पिताजी अशिक्षित होते हुए भी संदर्भानुसार वेमना के पद सुनाया करते थे. आंध्र प्रदेश में वेमना तो हर घर में पाए जाते हैं. और हर सदस्य के मुँह से वेमना के पद स्वतः ही फूट पड़ते हैं. वे साधारण जनता के बीच प्रसिद्ध थे. आज भी हैं. वे विलक्षण कवि हैं. पिताजी के द्वारा दिए हुए इस संस्कार के कारण मैं बचपन से वेमना के जीवन और उनके पदों के प्रति आकर्षित था. अब मेरा भाग्य देखिए, हैदराबाद की ओल्ड सिटी में एम.बी. साईंस कॉलेज में लेक्चर की नौकरी तथा पीएचडी सीट एक साथ प्राप्त हुई. मैंने वेमना को शोध का विषय बनाया. उन्हीं दिनों शादी हुई; बेटा पैदा. आर्थिक पारिस्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. जिंदगी की जिम्मेदारियों ने मुझे बहुत ही गंभीर बना दिया. सुबह से लेकर शाम तक नौकरी करता और शाम को पीएचडी के लिए अध्ययन. 

मैं आपको बता दूँ कि वेमना का अध्ययन ताड़ पत्रों पर हस्तलिखित ग्रंथों के अध्ययन के बिना पूरा नहीं हो सकता. इसके लिए मैं मद्रास पहुँचा. इससे पहले तेलुगु के प्रसिद्ध कवि आरुद्रा के घर पहुँचा क्योंकि उन्होंने वेमना पर कुछ काम किया था. वे ही मुझे मद्रास विश्वविद्यालय परिसर में स्थित मद्रास ओरिएंटल लाइब्रेरी ले गए जो हस्तलिखित पांडुलिपियों के लिए प्रसिद्ध है. वहाँ पहुँचा तो मेरा दिमाग चकरा गया. सामन्य रूप से लोग ‘वेमना शतक’ को जानते हैं. अर्थात 100 पद. पर वहाँ जाने के बाद मुझे पता चला कि वेमना के लगभग 3000 से ज्यादा पद हैं. सभी ताड़ पत्रों पर हस्तलिखित. उस समय तो आधुनिक टेकनालॉजी नहीं थी. जीरोक्स की सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी. तो क्या करता ! बैठकर लिखने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं था. फिर अगले दिन पहुँचा यह तय करके कि सुबह से लेकर शाम तक 150 पद अपनी कॉपी में लिखूँगा. इस तरह पाँच महीने वहाँ रहा और 1500 पदों को उनके पाठांतर सहित अपनी कॉपी में उतार कर लाया. उस सामग्री को मैंने अपने शोध का आधार बनाया. मैं इस घटना को अपनी जिंदगी का एक वर्तन बिंदु (टर्निंग पाइंट) मानता हूँ. उस वक्त मैंने यह महसूस किया कि ज्ञान निरंतर कार्य करने से आता है. यह वह समय था जब 25 साल के लड़के में मानसिक और बौद्धिक परिवर्तन हुआ. मैंने चार साल की अवधि में वेमना पर अपना शोधकार्य संपन्न किया जो ‘प्रजाकवि वेमना’ शीर्षक से पुस्तकाकार पाठकों के सामने आया. अब तक उसके छह पुनर्मुद्रित संस्करण आ चुके हैं. वेमना पर यह एक तरह से प्रामाणिक कार्य हो गया. हैदराबाद बुक ट्रस्ट ने मुझसे ‘वेमना वादम’ (वेमना का सिद्धांत) शीर्षक से वेमना के पदों की व्याख्या भी लिखवाई. उसके भी छह पुनर्मुद्रण हो चुके हैं. दो लाख कॉपियाँ बिक गईं. यह सोचकर मैं रोमांचित हूँ कि अशिक्षा और असुविधा के अंधेरे में जन्मा ‘गोपन्ना’ तेलुगु साहित्यिकों के लिए ‘वेमना गोपि’ बन गया. ...तो यह है मेरी जीवन यात्रा – गोपि से वेमना गोपि तक ! 
  • वेमना और भारतीय भाषाओं के संत साहित्य के बीच क्या आपको कोई संपर्क सूत्र दिखाई देता है? 
सपर्क सूत्र तो सपष्ट रूप से दिखाई देता है. मैं तो मानता हूँ कि वेमना कबीर की तरह ही हैं. इसमें कोई दो राय नहीं. मैंने कबीर से तुलना करने के लिए हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘कबीर’ का अध्ययन किया. जिस तरह से एक छोटा बच्चा पढ़ता है उस तरह से मैंने उस किताब का एक एक अक्षर पढ़ डाला और उसे आत्मसात करता गया. भारतीय भाषाओं के संतों में वेमना के जैसे और कौन हैं इसका भी अध्ययन मैंने किया और यह पाया कि कबीर, तिरुवल्लुवर और अरुणगिरिनाथर (तमिल), गुरुनानक, तुकाराम, सर्वज्ञ, पोतुलूरी वीरब्रह्मेंद्र स्वामी, येगंटि लक्षमप्पा, दूदेकुला सिद्धप्पा, रामदासु, त्यागय्या ही नहीं आधुनिक काल में गुरजाडा और कालोजी आदि भी वेमना के समशील हैं. वेमना वस्तुतः लोक-अद्वैतवादी हैं. इसे अचल (अद्वैत) ही कहा जाता है. इससे एक बात स्पष्ट है कि भारतीय संतों की विचारधारा मूलतः एक ही है. इन सबको पिरोने वाला अंतःसूत्र एक ही है. भले ही नाम अलग अलग हों, संप्रदाय अलग अलग हों, पर अंतःसूत्र एक ही है – अद्वैत. बाहरी आक्रमणों से जब-जब भारतीय जीवन मूल्य खतरे में पड़े, तब-तब संतों ने भारतीयता को नष्ट होने से अपनी वाणी द्वारा बचाया. 
  • संतों और भक्तों के साहित्य को आज की ग्लोबल दुनिया में आप किस तरह प्रासंगिक मानते हैं? 
देखा जाय तो इस तरह के साहित्य की जरूरत आज ही सबसे जयादा है. आज का मनुष्य भोगविलास में इतना लिप्त है कि उसकी मानसिक शांति नष्ट हो रही है. संयुक्त परिवार टूट रहे हैं. संयुक्त परिवारों में हमें मानवता का प्रशिक्षण प्राप्त होता था. मानवता आकाश से नहीं टपकती. वह हमारे घर-आँगन से पल्लवित होती है. एक तरह से कहें तो मूल्यों की शिक्षा हम परिवार से ग्रहण करते हैं. सुख-दुःख सब एक-दूसरे से बाँटने की शिक्षा, बड़ों के आदर की शिक्षा आदि. लेकिन आज हम यह देख रहें हैं कि धन कमाने के लिए हम इधर-उधर भटक रहे हैं और घर से दूर जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में परिवार से मिलने वाले मूल्यों के प्रशिक्षण का टूटना स्वाभाविक है. इसके फलस्वरूप ऐसी स्थितियों का हमें सामना करना पड़ रहा है कि छोटी से छोटी बात भी हमें विचलित कर देती है. छोटी विपत्ति को भी हम झेलने की स्थिति में नहीं हैं. ऐसी स्थिति में संतों की वाणी प्रासंगिक प्रतीत होती है क्योंकि वह मौलिक संवेदना से उद्भूत वाणी है. उनके साहित्य में जीवन के उतार-चढ़ाव, विसंगतियों और विद्रूपताओं आदि का समावेश है. अतः मैं यह मानता हूँ कि यदि हम इन संतों के साहित्य को सही अर्थ में ग्रहण करेंगे तो जीवन में अशांति के लिए जगह नहीं होगी. 
  • यहाँ रुककर एक प्रश्न तेलुगु भाषा के बारे में. तेलुगु भाषा की प्राचीनता के संबंध में तो कोई संदेह नहीं है. लेकिन इसके आरंभ के बारे में कई तरह के मत पाए जाते हैं. इस संबंध में आपकी क्या मान्यता है? 
भले ही कुछ लोग यह मानते हों कि तेलुगु संस्कृत से विकसित हुई, मैं यहाँ यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि तेलुगु द्रविड मूल की भाषा है. इसमें 60 प्रतिशत संस्कृत की शब्दावली है. यह भी कहा जा सकता है कि संस्कृत के प्रति आदर भाव के कारण तेलुगु ने ज्यादा से ज्यादा संस्कृत शब्दों को अपनाया. संस्कृत शब्दावली को देखकर तेलुगु को संस्कृत से विकसित भाषा समझना स्वाभाविक है. तेलुगु में प्राकृत के भी कुछ शब्द हैं. बाद में उर्दू और अंग्रेजी शब्द भी आ गए हैं. साथ ही तेलुगु ने हिंदी भाषा के भी बहुत सारे शब्दों को ग्रहण कर लिया है. पर आतंरिक व्याकरणिक संरचना को ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह द्रविड भाषा है. आप यह भी देख सकते हैं कि मलयालम में 80 प्रतिशत संस्कृत शब्द हैं पर वह द्रविड भाषा है. कन्नड में भी यही स्थिति है. तमिल भाषा पर संस्कृत का प्रभाव अपेक्षाकृत कम है. 
  • तेलुगु और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओँ के आपसी रिश्तों के बारे में आप क्या सोचते हैं? आप का साहित्य अकादमी से लंबे समय से जुड़ाव है, इसलिए यह भी जानने की इच्छा है कि साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएँ इस दिशा में क्या कर सकती हैं? 
सभी भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे संबद्ध हैं. अगर एक ही वाक्य में कहना हो तो मैं यही कहूँगा कि मुझे हिंदी से लगाव है. मैं अपने अनुभव से यह बात बता रहा हूँ कि हिंदी समस्त भारतवर्ष की सबसे सशक्त संपर्क भाषा है. मैं अपनी ही बात कहूँगा. मेरे काव्य संग्रह ‘कालान्नि निद्रा पोनिव्वनु’ (समय को सोने नहीं दूँगा) का अनुवाद 20 भाषाओं में हुआ है और सभी का प्रकाशन साहित्य अकादमी ने किया है. यह पुस्तक हिंदी के माध्यम से ही इतनी भाषाओं में पहुँची है. कहने का तात्पर्य यही है कि सभी भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे को संमृद्ध करती हैं. सभी भारतीय भाषाओं में अन्योन्याश्रय संबंध देखा जा सकता है. साहित्य अकादमी में पहले मैं तेलुगु सलाहकार समिति का सदस्य था. अब मैं उस समिति का संयोजक हूँ. साथ ही कार्यकारिणी परिषद का सदस्य भी. मैं अपने अनुभव से यही कहूँगा कि साहित्य अकादमी एक बड़ा सपना है. अकादमी पूरे भारत को जोड़ने का कार्य कर रही है. यह संपूर्ण भारत का भावनात्मक भांडागार, सृजनात्मक भांडागार है. आज यह 24 भाषाओं में निरंतर काम कर रही है. यहाँ मुझे सर्वेपल्लि राधाकृष्णन की बात याद आ रही है. उन्होंने कहा था कि भारतीय साहित्य मूलतः एक ही है भले ही वह विभिन्न भाषाओं लिखा जाता है. साहित्य अकादमी की मूलभूत अवधारणा यही है. इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु वह सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को संमृद्ध करने में सफलता प्राप्त कर रही है. 
  • आप विभिन्न विश्वविद्यालयों से भी संबद्ध हैं. कुलपति भी रहे हैं. भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रमों के संबंध में आपका क्या अनुभव है? आज के समय में विश्वविद्यालय स्तर पर भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रम किस प्रकार के होने चाहिए? खासतौर से तेलंगाना क्षेत्र को ध्यान में रखकर क्या सुझाव देंगे? 
अच्छा प्रश्न किया आपने. मैं आपको बताना चाहूँगा कि तेलुगु साहित्य के इतिहास में न तो तेलंगाना के साहित्य को समुचित स्थान प्राप्त हुआ है और न ही तेलंगाना भाषा को. पाठ्यक्रमों में भी यही स्थिति रही. 60 वर्ष के सुदीर्घ संघर्ष के बाद आज तेलंगाना अलग हुआ है और एक स्वतंत्र राज्य के रूप में आविर्भाव के लिए यत्नशील है. अतः आज विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों का नवीकरण वांछित है. तेलंगाना साहित्य को पाठ्यक्रम में समुचित स्थान दिया जाना चाहिए. इसके लिए अखिल आंध्र के पाठ्यक्रम में जो रिक्त स्थान है उसे भरना होगा. इसका अर्थ यह नहीं कि आंध्र और तेलंगाना का पाठ्यक्रम अलग अलग हो या इन्हें दो अलग भाषाएँ मानी जाए. सब तेलुगु ही है. मेरा अभिप्राय है कि तेलंगाना क्षेत्र की साहित्यिक उपलब्धि को साहित्य के इतिहास में समुचित स्थान देने से रिक्तता को कम किया जा सकता है. 
  • ये तो हुईं भाषा और शिक्षा से जुड़ी प्रासंगिक बातें. अब पुनः अपनी मुख्य चर्चा की ओर लौटें. साहित्य की चर्चा. हमने वेमना के बहाने संत और भक्ति साहित्य की बात की और यह जाना कि हिंदी और तेलुगु का संत साहित्य संवेदना के स्तर पर समान है. मैं कई बार सोचती हूँ कि 19वीं शताब्दी का भारतीय नवजागरण सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक आंदोलन होने के साथ साथ भारतीय साहित्य का व्यापक आंदोलन भी था. पुनर्जागरण काल के तेलुगु साहित्य की सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना के बारे में आप किस प्रकार सोचते हैं? 
नवजागरण का दौर बहुत ही प्रभावशाली था. उत्तर भारत जिस तरह से उससे प्रभावित था उसी तरह दक्षिण भारत. तेलुगु साहित्य पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है. देखा जाय तो हमारे साहित्यकारों पर बंगला साहित्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है. बंगला से रोमांटिसिज़्म और अन्य नई विधाएँ तेलुगु साहित्य में आनी लगीं. लेकिन इस पुनर्जागरण में तेलंगाना के पुनर्जागरण का उल्लेख कहीं भी नहीं है. तत्कालीन परिस्थितियों में तेलंगाना की जनता निज़ाम शासन से त्रस्त थी. आंध्र प्रदेश में उस समय तेलुगु भाषा को दबाया गया. तेलुगु का अस्तित्व खतरे में पड़ने लगा. भारतीय नवजागरण के कारण इस क्षेत्र में भी धीरे धीरे जनता में चेतना जगी. परिणामस्वरूप अनेक आंदोलन फूट पड़े. उनमें प्रमुख हैं रज़ाकर आंदोलन (निज़ाम समर्थक), किसान आंदोलन, पुस्तकालय आंदोलन और साक्षरता आंदोलन आदि. इससे तेलंगाना पुनर्जागरण संभव हुआ जिसे इतिहास में हाशिए पर रख दिया गया है. तेलंगाना के इतिहास को देखेंगे तो सुरवरम प्रताप रेड्डी और माडपाटी हनुमंत राव जैसे समाज सुधारकों को तेलंगाना पुनर्जागरण के प्रवर्तकों के रूप में याद किया जा सकता है. 
  • पुनर्जागरण काल में ग्रांथिक और व्यावहारिक तेलुगु का प्रश्न भी उभरा. व्यावहारिक तेलुगु के विकास के बारे में हिंदी पाठकों की उत्सुकता स्वाभाविक है. 
जब ग्रांथिक भाषा कुछ विद्वानों तक सीमित थी तब व्यावहारिक भाषा आंदोलन की शुरूआत हुई. निश्चय ही भाषा प्रयोग के क्षेत्र में व्यावहारिक भाषा आंदोलन ने लोकतांत्रिक वातावरण पैदा किया. इस आंदोलन को तेलुगु पत्रकारिता की सहायता मिली. पत्रकारिता की भाषा में परिवर्तन आया. उसकी काया पलट गई. दैनिक समाचार पत्रों को सामान्य जनता भी पढ़ कर समझने लगी. अपने विचारों को सशक्त रूप से अभिव्यक्त करने लगी. व्यावहारिक भाषा आज की माँग है चूँकि इसी भाषा के माध्यम से हम अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकते हैं. 
  • भारतीय पुनर्जागरण की एक परिणति हिंदी में स्वच्छंदतावादी कविता या छायावाद के रूप में दिखाई दी तो तेलुगु में भावकविता के रूप में. भाव कविता को आप किस नज़रिए से देखते हैं? 
मेरी दृष्टि में भाव कविता श्रेष्ठ कोटि की कविता है. इसके उन्नायक थे रायप्रोलु सुब्बाराव. देवुलपल्लि कृष्णशास्त्री ने इसे समृद्ध किया. राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कविता-परिणाम का यह भी एक हिस्सा है. इंग्लैंड की रोमांटिक कविता ने समूचे विश्व को प्रभावित किया. कीट्स, शेली, बाइरन आदि का काफी प्रभाव रहा. देखा जाय तो इसका प्रादुर्भाव पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के विरोध में हुआ था. वहाँ से बंगाल के रस्ते इसकी अनुगूँज समस्त भारत में फ़ैली. अनेक तेलुगु साहित्यकार अंग्रेजी में दक्ष थे. अंग्रेजी के माध्यम से ही वस्तुतः यह धारा तेलुगु में आई और हमारे तेलुगु साहित्यकारों ने इसे अपनी निजी शैली में विकसित किया. भाव कविता मुख्य रूप से भाव प्रधान और छंद प्रधान कविता है. प्रकृति के माध्यम से भावों को अभिव्यक्त करने का सिलसिला है. भाव के अभाव में कविता का क्या अस्तित्व है भला? इतिहास में झाँकने से यह स्पष्ट होता है कि भाव कविता से तत्काल पहले की कविता में स्त्री के भावनात्मक या मानसिक सौंदर्य की अपेक्षा उसका शारीरिक और मांसल वर्णन होता था. स्त्री को केवल भोग की वस्तु मानकर नखशिख वर्णन किया जाता था. इसके विरोध में भाव कविता का उद्भव हुआ. भाव कविता स्त्री को हृदयेश्वरी मानती है. इस काव्य धारा पर राष्ट्रीयता और देशभक्ति तथा स्वातंत्र्य चेतना का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है. अनेक कवियों ने भाव कविता को आगे बढ़ाया जिसके पथप्रदर्शक के रूप में देवुलपल्लि कृष्णशास्त्री का नाम लिया जाता है. उन्हें तेलुगु साहित्य में ‘भाव कविता पितामह’ के नाम से जाना जाता है. 
  • प्रगतिवाद और जनवाद की तेलुगु साहित्य में परिणति अभ्युदय और विप्लव साहित्य के रूप में हुई. एक कवि और आलोचक के रूप में इन पर आपकी क्या टिप्पणी है? 
आंध्र के क्षेत्र में कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ साथ अभ्युदय कविता का प्रादुर्भाव हुआ. यहाँ से वचन कविता (गद्य कविता) का उद्भव हुआ. श्रीश्री की कविताएँ इसका उदाहरण हैं. उन्होंने गद्य कविता के साथ साथ गेय कविताएँ भी लिखी हैं. अनेक प्रयोग भी किए. कार्टून कविता भी लिखी. उन्हें एक्सपेरीमेंटलिस्ट माना जाता है. अभ्युदय कविता आम आदमी को साहित्य के केंद्र में प्रतिष्ठित किया. कृषक और श्रर्मिक उसके लिए प्रधान थे. उसी समय तेलंगाना क्षेत्र में निज़ाम शासन के विरुद्ध किसानों का आंदोलन चल रहा था. उसे भी अभ्युदय कविता से बल मिला. आगे चलकर 1972-80 के काल में विप्लव कविता (वरवरराव, लोचन आदि) का प्रादुर्भाव हुआ. इसे क्रांतिकारी कविता और जनवादी कविता भी कहा जा सकता है. यह समय नक्सल आंदोलन के प्रभाव का समय था. इस अवधि में तेलंगाना के क्षेत्र में दाशरथि और सी. नारायण रेड्डी प्रतिष्ठित हो चुके थे. आंध्र प्रदेश के साहित्यिक इतिहास से टक्कर लेने के लिए इन दोनों महाकवियों ने पद्य रचना, गेय रचना और वचन कविता का सृजन किया. दाशरथि प्रगतिशील चेतना से युक्त आंदोलनी कवि हैं तो नारायण रेड्डी मानवतावादी कवि. कालोजी और दाशरथि ने प्रत्यक्ष रूप से निज़ाम के विरुद्ध हुए आंदोलन में भाग लिया था. अतः इनकी कविताएँ स्वानुभूति की कविताएँ हैं. आक्रोश की कविताएँ हैं. कुछ संवेदनशील सहृदय आंध्र के साहित्यकारों ने भी इस निज़ाम शासन के विरूद्ध हुए आंदोलन का समर्थन किया. जैसे कुंदुर्ति आंजनेयुलू और सोमसुंदर आदि. इन लोगों ने सहानुभूतिपरक साहित्य का सृजन किया. 
  • मनोविश्लेषणवाद (फ्रायड) और अस्तित्ववाद (सार्त्र) के प्रभाव को आप तेलुगु साहित्य के लिए कैसा मानते हैं? 
तेलुगु साहित्य में उपन्यास साहित्य पर फ्रायड और सार्त्र का प्रभाव दिखाई पड़ता है. गोपीचंद के उपन्यास ‘असमर्थतुनि जीवयात्रा’ (असमर्थ की जीवनयात्रा), बुच्चिबाबू के ‘चिवरकु मिगिलेदी’ (अंत में जो शेष है) और नवीन के ‘अम्पशय्या’ (शरशय्या) आदि को उदाहरण के तौर देख सकते हैं. इन उपन्यासों में विभिन्न मनोविश्लेषणात्मक पहलू द्रष्टव्य हैं. तेलुगु साहित्य में अस्तित्ववाद एक्सपेरीमेंटल स्टेज में ही रह गया. कहा जा सकता है, अस्तित्ववाद आज के साहित्य में अधिक मुखर हैं - स्त्री, दलित और मुस्लिम वादी साहित्य के रूप में. पर ये अलग हैं. 
  • दिगंबर कविता के प्रस्तुतकर्ताओं से तो आपका प्रत्यक्ष संबंध रहा होगा. उनके बारे में कुछ बताएँ. 
अभ्युदय कविता के बाद 1965 मेंदिगंबर कविता प्रारंभ हुई. दिगंबर कवियों (नग्नमुनि, निखिलेश्वर, चेरबंडा राजु, महास्वप्न, ज्वालामुखी और भैरवय्या) ने एक तरह से तत्कालीन समाज में व्याप्त व्यवस्था के प्रति आक्रामक तेवर का प्रदर्शन किया. पर छात्र जीवन से ही मैं दिगंबर कविता को पसंद नहीं करता. इसमें प्रयुक्त अश्लील शब्दावली से मुझे परहेज है. यह मेरी निजी मान्यता है. पर दिगंबर कविता तेलुगु साहित्य के इतिहास की एक परिघटना तो है ही. इससे इनकार नहीं किया जा सकता. दिगंबर हो या विप्लव कवि - वे सीधे सीधे ब्लैकमेल करते थे कि प्रेम के बारे में लिखना नहीं चाहिए. यदि लिखना हो तो लाल झंडे के बारे लिखें. इन कवियों के आक्रामक तेवर ने उत्तम कवियों को मार डाला, कुचल डाला. बहुत सारे कवियों ने तो कविता लिखना बंद कर दिया. यह चिंता मुझे सालती रही. पर मैंने उनकी नारेबाजी व फतवों की परवाह नहीं की और बेबाक होकर लिखता रहा. उनके महत्व को मैं नहीं नकारता पर मुझे उनका डोमिनेट करने का आचरण पसंद नहीं है. मैंने अपने अंदर के कवि को इस तमाम विप्लव से, तूफ़ान से, बचाया. 
  • 20वीं शती के तेलुगु साहित्य में अलग अलग विधाओं में आप किन साहित्यकारों के संपर्क में आए या प्रभावित हुए? 
मैंने आप से पहले भी कहा कि बचपन में मैं डॉ. सी. नारायण रेड्डी से काफी प्रभावित हुआ. आरंभिक दिनों में एक हद तक दाशरथि और दुव्वूरि रामरेड्डी का भी प्रभाव था. लेकिन धीरे धीरे मुझ में अपनी एक निजी शैली का विकास हुआ. इसके बाद मुझ पर किसी और का प्रभाव नहीं रहा. मैं ‘मैं’ बन गया. अर्थात ‘गोपि’. 
  • तेलंगाना क्षेत्र की भाषा और साहित्य की निजता की पहचान आपके ख़याल से किन रचना और रचनाकारों द्वारा हो सकती है – आप तो हैं ही? 
अगर मैं अपनी बात कहूँ तो मेरी रचनाओं में तेलंगाना की भाषा और परिवेश साफ़ दिखाई पड़ता है. मेरी पहली कविता से लेकर आज तक की तमाम कविताओं में तेलंगाना अंचल की भाषा, संस्कृति और परिवेश मेरे साथ हैं. इनसे कटकर हम नहीं रह सकते. इनके अभाव में हमारा अस्तित्व नहीं रहेगा. आंध्र परिवेश का प्रभाव भी कहीं कहीं दिखाई पड़ता है, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता. आंध्र और तेलंगाना में आपसी रिश्ता है. अतः एक दूसरे को प्रभावित करते रहेंगे. और रही अन्य रचनाकारों की बात. तेलंगाना क्षेत्र की भाषा और साहित्य को भलीभाँति प्रजाकवि कालोजी नारायणराव की कविताओं में आप देख सकते हैं. वे मूलतः सक्रिय कार्यकर्ता थे. उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से निजाम शासन में होने वाले अत्याचारों तथा तत्कालीन समाज में व्याप्त राजनैतिक विसंगतियों के प्रति आवाज उठाई. उनकी कविताओं में तेलंगाना के प्रति विशेष लगाव दिखाई देता है. उनकी कविताओं में तेलंगाना की उपेक्षित जनता की आवाज सुनाई पड़ती है. दूसरा कोई कालोजी नहीं हो सकता. दाशरथि और सी. नारायण रेड्डी की कविताओं में भी आप इस निजता को रेखांकित कर सकते हैं. सी. नारायण रेड्डी की पुस्तक ‘मा ऊरू माट्लाडिंदि’ (हमारा गाँव बोल उठा) में तेलंगाना की आंचलिक भाषा को देख सकते हैं. यह पुस्तक पूरी तरह से तेलंगाना की आंचलिक भाषा में लिखी गई है. इसमें अपनी मिट्टी के प्रति लगाव को आप महसूस कर सकते हैं. अपने परिवेश और भाषा से कटकर साहित्यकार जीवित नहीं रह सकता. यह उसके लिए संभव नहीं. मैं यही कहना चाहूँगा कि यदि घर दूर हो गया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे. चाहे कालोजी हो या दाशरथि, या सी. नारायण रेड्डी या फिर मैं – हम सब ने घर से ही अपनी बात शुरू की. फिर हम पहुंचे दूर तक. लेकिन हमारी आँखें हमारी जमीन पर गड़ी हुई हैं. 
  • तेलुगु में स्त्रीवादी, दलितवादी और मुस्लिमवादी साहित्य के उभार को आप किस तरह देखते हैं? इनका भविष्य क्या है? आज के कवि और कविता से आप क्या चाहते हैं? 
मेरी दृष्टि में स्त्रीवादी, दलितवादी और मुस्लिमवादी साहित्य अस्तित्ववादी आंदोलन के ही रूप हैं. इस तरह का साहित्य विश्व भर में उभरा. तेलुगु में भी अनिवार्य रूप से आया. ये सभी धाराएँ साहित्य में अभियोग और फ़रियाद के रूप में उभरी हैं. इन सब ने अपना एक दर्शन बना लिया है. आज स्त्री शिक्षित हो रही है. शिक्षा ने उसे अपने अधिकारों के प्रति चेताया. जब उसने यह महसूस किया कि उसे मूलभूत अधिकार भी प्राप्त नहीं हो रहे हैं तो उसने आक्रोश जताया और विद्रोह किया. जब स्त्री ने सार्वजनिक भूमिका में प्रवेश किया तो उसने चाहा कि उसे ऐसा साथी मिले जो उसका सहयोगी और मित्र हो न कि पुरुष वर्चस्व से त्रस्त पति. लेकिन पुरुष पढ़ी-लिखी स्त्री को चाहता है पर पुराने संस्कारों से युक्त. वह यह चाहता है कि स्त्री बाहर जाकर कमाकर भी लाए और घर आने के बाद उसकी सेवा भी. तो ऐसी स्थिति में स्त्रीवाद का जोर पकड़ना स्वाभाविक है. यह नहीं कहा जा सकता कि हर पुरुष स्वार्थी है. पुरुषों में भी बदलाव आ रहा है. पर यह बदलाव धीरे धीरे परिलक्षित होता है. मैंने पहले कहा कि पुरुष वर्चस्व के खिलाफ यह एक अभियोग और फ़रियाद के रूप में उभरा. लेकिन आज स्थितियाँ बदल चुकी हैं. अब स्त्रीवाद को फ़रियाद से ऊपर उठना होगा. तभी वह ‘उभयवाद’ के रूप में परिणत हो सकता है. ठीक यही स्थिति दलित वाद की भी है. अनेक पिछड़ी जातियों के बच्चे शिक्षित हुए. अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए. तो उन्होंने अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष किया. क्योंकि आज हम किसी के आधिपत्य को स्वीकारने की स्थिति में नहीं हैं. चाहे स्त्री हो या दलित या अल्पसंख्यक. स्त्रीवादी, दलितवादी और अल्पसंख्यकवादी कविताओं में विशेष रूप से उनकी संस्कृति, उनकी स्वानुभूति, उनकी पीड़ा, उनका आक्रोश, उनका संघर्ष और उनकी मुक्ति मुखरित है. अतः मैं यही कहूँगा कि इस तरह के साहित्य को नकारत्मक रूप में देखने की आवश्यकता नहीं है. स्त्रीवादी चिंतन को लेकर लिखने वाले अनेक साहित्यकार हैं लेकिन स्त्रीवादी पथप्रदर्शक के रूप में प्रमुख रूप से वोल्गा का नाम लिया जा सकता है. दलित लेखन के अग्रदूतों के बारे कहना चाहें तो विप्लववाद में पहले सत्यमूर्ति ने दलित चिंतन को उजागर किया. आज के दलितवादी लेखकों में शिखामणि, एंड्लूरि सुधाकर, कत्ति पद्माराव, पयिडि तेरेश बाबू आदि प्रमुख हैं. इसी तरह मुस्लिमवादी लेखकों में शाहजहाना, स्काई बाबा आदि. 

मैं इस बात पर बल देना चाहूँगा कि शिक्षा के कारण समाज में काफी परिवर्तन दिखाई दे रहा है. पहले तो हमें द्वेष को जड़ से उखाड़ कर दूर फेंकना चाहिए. मानवता को कायम करना चाहिए. स्त्रीवादी साहित्य भी तो यही चाहता है कि स्त्री को मानवी के रूप में देखें. उसके अस्तित्व को न नकारें. उसे जीने का अधिकार दें. दलित साहित्य और मुस्लिमवादी साहित्य भी यही चाहता है. लेकिन हमें एक बात ध्यान में रखनी होगी कि मानवता सबसे ऊँची चीज है. यह चिंता मुझे बार बार सालती रहती है कि मानव और मानवता आज खतरे में हैं. इंसानियत खतरे में है. यह समाप्त हो जाएगी तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा. तहस-नहस हो जाएगा. आज जितना ख़तरा मँडरा रहा है उतना शायद सृष्टि के आरंभ में भी नहीं मँडराया होगा. आज हम सबसे जयादा खतरनाक वक्त में हैं. अर्थप्रधान समय है यह. व्यक्तिगत मानवीय संबंध अब सार्वजनिक हो गए हैं. संयुक्त परिवार टूट गए हैं. अमेरिकीकरण का बोलबाला है. एक मात्र अमेरिका ही सबकी मंजिल बनता जा रहा है. डॉलर सबको प्रभावित कर रहा है. अमानवीयता प्रबल होती जा रही है. ऐसे में एक कवि होने के कारण, एक सहृदय होने के कारण, मैं तो यही कहूँगा कि साहित्य वादों से परे हो और मानवता को प्रोत्साहित करने वाला हो. मानव से मानव को जोड़ने वाला साहित्य ही आज हमें चाहिए. 
  • अब कुछ चर्चा आपके अपने साहित्य की. आप अपने साहित्य-जीवन में किन घटनाओं को टर्निंग पॉइंट्स मानते हैं? 
बारह-तेरह वर्ष की आयु से लेकर आज तक निर्बाध गति से मेरी लेखनी चल रही है. अभी तक मेरी 42 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें 19 काव्य संग्रह, 6 निबंध संग्रह, 4 यात्रावृत्त, 3 शोधकार्य, 2 अनुवाद, 2 समीक्षा और 3 स्तंभ लेखन सम्मिलित हैं. मैंने उन तमाम स्थितियों पर लिखा है जो मेरे अंदर के कवि को झकझोरती रही हैं. मैंने पहले भी इस बात का जिक्र किया कि एम.ए. के बाद महबूब नगर के सूखा ग्रस्त इलाके में काम करने का मौका मिला तो वहाँ की परिस्थिति ने मुझे झिंझोड़ दिया. उस समय मैंने काफी कविताएँ लिखी. मेरे साहित्यिक जीवन में व्ह एक टर्निंग पाइंट था. 
  • आपकी कृति ‘कालान्नि निद्र पोनिव्वनु’ को केंद्रीय साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया. आपके विचार से इस कृति की श्रेष्ठता किस बात में निहित है? 
वास्तव में इस संग्रह से मेरी कविता की आवाज बदल गई. यह वह समय था जब मेरी 17 साल की बेटी रचना की अकाल मृत्यु हुई. उसके बाद मैं दो साल तक भावनात्मक रूप से काफी अस्त-व्यस्त रहा. एक तरह से मैं पाताल में पहुँच गया था. मुझे अपने आपको संभालने में तथा सामान्य बनाने में पूरे दो साल लग गए. इन दो सालों में पता नहीं मेरे अंदर का कवि क्या लिख रहा था. पर वह कुछ न कुछ लिखता रहा. यह घटना तो मेरे जीवन में वास्तविक टर्निंग पाइंट है जिसने मेरे टोन को बदल दिया. ‘कालान्नि निद्र पोनिव्वनु’ (समय को सोने नहीं दूँगा) मेरी उस दो साल की भावनात्मक लड़ाई का दस्तावेज है. इसे रचकर मैंने महसूस किया कि व्यक्तिगत दुःख विश्व जनीन दुःख में परिणत हो गया. 
  • दूसरी बात. आपकी एक कृति ‘जलगीतम’ ने जल चेतना के काव्य के रूप में भारतीय साहित्य में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है. इस कृति की पृष्ठभूमि और विषय वस्तु के बारे में कुछ बताएँ. 

मैं जिस क्षेत्र से आया हूँ – नलगोंडा क्षेत्र - वह सूखाग्रस्त क्षेत्र है. वहाँ पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है जिसके कारण अनेक लोगों को तरह-तरह की बीमारियों का भी शिकार होना पड़ता है. हमारे घर में कुँआ नहीं था तो मैं अपनी माँ के साथ बहुत दूर से पीने का पानी लाता था. अतः मुझे पानी की अहमियत मालूम है. जब मैं कुलपति था तब छह वर्षों तक पानी के बारे में, उससे जुड़ी समस्याओं के बारे में, अलग अलग आयामों के बारे में सोचता रहा. जब कुलपति का कार्यकाल पूरा हो गया तो मैंने उस लौकिक मालिन्य को धो डालना चाहा. तब मैं निर्णय लेकर बैठ गया लिखने के लिए. 100 दिनों में मैंने दीर्घकविता ‘जलगीतम’ लिखकर पूरी की. उसकी पृष्ठभूमि बहुत विशाल है. इसमें पानी का बहुआयामी चित्रण है. पानी के शारीरिक, मानसिक, रासायानिक, आत्मिक और आध्यात्मिक आदि बहुत आयाम आपके सामने उभर कर आएँगे. पानी और मनुष्य के संबंध को भी इस कविता में दिखाने की कोशिश मैंने की है. कविता को समाप्त करने के बाद मैंने यह सोचा कि राजस्थान में जल-संग्रहण करने वाले रामन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेंदर सिंह को यह कृति समर्पित करूँ तो कैसे होगा. यह विचार मन में आते ही मैंने उन्हें फोन किया और सारी बात बताई तो वे उछल पड़े. उन्होंने कहा कि ‘रक्त संबंध से भी जल संबंध गहरा है.’ लोकार्पण के अवसर पर वे हैदराबाद आए. यह कृति अब तक 10 भाषाओं में अनूदित हो चुकी है. 
  • आपके द्वारा प्रवर्तित काव्य विधा ‘नानीलु’ अत्यंत लोकप्रिय है और प्रो. एन. गोपि तथा ‘नानीलु’ को लोग पर्याय के रूप में देखते हैं. इस छंद को प्रवर्तित करने का विचार आपको कब और कैसे आया तथा इसे तेलुगु साहित्य में एक व्यापक आंदोलन का रूप किस प्रकार मिला? 
‘जलगीतम’ (जलगीत) लिखने से पहले मैं नन्हे नन्हे मुक्तक लिखता था. इसके पीछे कोई निश्चित कारण तो नहीं है. बस ऐसे ही मन में उठे विचारों को कागज पर उतारता था. पूरा लिखने के बाद मैंने उन्हें गौर से देखा और सोचा कि क्या इन मुक्तकों में कोई विशेषता है? देखा-परखा तो मुझे वे अलग प्रतीत हुए. वे एकदम नवीन थे. तब मैंने यह पाया कि इनमें चार पंक्तियाँ हैं - दो इकाइयों में. प्रथम इकाई दूसरी इकाई के साथ जुड़ती है. पहली इकाई में एक भाव है तो दूसरी इकाई में दूसरा. पहला अंश दूसरे अंश का समर्थन करता है और दूसरा अंश उसे प्रतिपादित करता है. खास बात यह है कि दूसरे अंश में ऊर्जा होनी चाहिए. पंच होना चाहिए. इसमें कवि की ऊर्जा ध्वनित होती है – चिता में/ दायाँ हाथ नहीं जला/ कारण/ कलमग्राही तो ठहरा. यह है मेरा पहला ‘नानी’ (नन्हा मुक्तक). वस्तुतः यह छंद गुलेल में रखकर मारे गठ पत्थर सा है. मैंने यह अहसास किया कि यह नई आवाज मेरे अंदर से फूट रही है. मैंने उसे नहीं रोका. 20 दिनों के अंदर मैंने 365 मुक्तक लिख दिए. एक दिन तेलुगु पत्र ‘वार्ता’ के संपादक ए.बी.के.प्रसाद मेरे घर आए थे. उनकी नजर उन मुक्तकों पर पड़ी. उन्होंने झट से वह पांडुलिपि समेत ली. अपने साथ ले गए और ‘वार्ता’ के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित करते गए. बस फिर क्या था? ‘नानी’ का बुखार चढ़ गया. यह ज्वर इतना प्रबल हो गया कि आज 1000 से ज्यादा कवि इस विधा में सृजन कार्य कर रहे हैं और लगभग 230 संग्रह छप चुके हैं. इस तरह मैं इस विधा का प्रवर्तक बन गया - ‘नानी का जनक’. मुझे ‘नानीला त्रिविक्रमुडु’, ‘नानीला नान्ना’ के रूप में पुकारा जाने लगा. डॉ. सी. भवानी देवी, डॉ. एस. रघु आदि अनेक लोग इस विधा में लिख रहे हैं. अभी गत दिनों साहित्य अकादमी ने कम उम्र में (25 साल के अंदर) ‘नानी’ लिखने वालों का चयन करने का दायित्व मुझे सौंपा तो मैंने पाया कि 10वीं कक्षा का बालक बहुत ही पंच के साथ लिख रहा है. यह विधा अनुवाद के माध्यम से हिंदी में गई. डॉ. विजय राघव रेड्डी ने अनुवाद किया. विश्वनाथ त्रिपाठी ने हिंदी भवन (दिल्ली) में उस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कहा कि यह नई मुक्तक संपदा है जो दक्षिण से उत्तर की ओर आई है ! 
  • आपकी रचनाओं के अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं. क्या आप इन अनुवादों से संतुष्ट हैं? अपने अनुवादकों से आपके कैसे संबंध हैं? अनुवाद के कुछ रोचक अनुभव? 
मैं अपने अनुवादकों से बहुत संतुष्ट हूँ. उनसे बहुत कुछ सीखा भी है. आप यकीन नहीं करेंगे, मैंने प्रत्यक्ष रूप से अपने 90 प्रतिशत अनुवादकों के साथ बैठकर अनुवाद कराया है. यह उनके लिए भी फायदेमंद सिद्ध हुआ. मूल में जो भाव है वह अनुवाद में भी उसी भंगिमा को लेकर आया है या नहीं, यह देखने के लिए. ज्यादातर अनुवादक तेलुगु जानते थे. कुछ अनुवादकों ने संपर्क भाषा हिंदी के माध्यम से किया है और बहुत कम अनुवादकों ने अंग्रेजी से. मेरी मान्यता है कि यह मनुष्यों को आपस में मिलाने का कार्य है. जब हम अनुवादों के माध्यम से उस भाषा में जाते हैं तो उस भाषा के लोगों के हृदय के निकट पहुँचते हैं. तभी हम कह सकते हैं कि अनुवाद वास्तव में सार्थक हुआ है. मैं अनुवादों के प्रति बहुत ही गंभीर हूँ. मेरे अंदर भी स्वार्थ है दूसरी भाषाओं में जाने का. पर मैं नाम के वास्ते नहीं जाना चाहता हूँ. मेरी कामना है कि मेरी कविता उन भाषाओं के पाठक के हृदय की धड़कन को छू सके. 

मेरे अनुवादकों से मेरा बहुत अच्छा संबंध है. सबने स्वैच्छिक रूप से अपनी इच्छा के अनुसार अनुवाद किया है. डॉ. माणिक्यांबा ने ‘जलगीतम’ (जलगीत) का अनुवाद किया. उस पर उन्हें केंद्रीय सरकार का एक लाख का पुरस्कार प्राप्त हुआ. तेलुगु विश्वविद्यालय ने नगमे-आब’ के अनुवादक प्रो. रहमत यूसुफ़ जॉय को उर्दू के उत्तम अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित किया. ‘जलगीत’ के गुजराती (रमणीक सोमेश्वर) अनुवाद को साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ. मणिपुरी में सलाम तोम्बा ने किया. मेरी कविताओं का हिंदी में सर्वाधिक अनुवाद अनुवाद शांता सुंदरी ने किया. ‘समय को सोने नहीं दूँगा’ का हिंदी अनुवाद उन्होंने ही किया है. कह सकता हूँ कि उन्होंने मेरी आत्मा को पकड़ कर अनुवादों में उसे प्रभावी रूप से अंकित किया है. मेरे मन में एक आशा जग रही है कि मैं एक पुस्तक लिखूँ - ‘अनुवादकों के साथ मेरा अनुभव’. चूँकि उनके साथ मेरा अनुभव इंद्रधनुषी है. एक भाषा जब दूसरी भाषा के रूप में परिवर्तित होती है तब वह किस तरह उस भाषा के रंग और स्वाद को कैसे लेकर जाती है इसे अभिव्यक्त करना चाहता हूँ. 
  • एक पारिवारिक जिज्ञासा. आपकी धर्मपत्नी श्रीमती एन. अरुणा भी तेलुगु कवयित्री हैं. आपने अपनी कृतियाँ उन्हें समर्पित की हैं और षष्ठिपूर्ति पर आपके समग्र काव्य का संपादन उन्होंने किया है. आप दोनों का घरेलू और साहित्यिक तालमेल कैसा रहता है? 
हम दोनों एम.ए. के सहपाठी हैं. 1974 में हम वैवाहिक बंधन में बंधे. प्रेम विवाह. हमारा विवाह अंतर्जातीय है. मेरी धर्मपत्नी अरुणा भी कविताएँ लिखती हैं. उस समय मैं अपने शोधकार्य में व्यस्त था. अतः मेरे करियर के लिए घर-परिवार की जिम्मेदारियों में उलझ गईं. पोते के जन्म के बाद अर्थात जब उन्होंने अपने जीवन की 50 वर्षों की यात्रा पूरी कर की तो एक बार फिर उनके अंदर की कवियत्री जग गई. जहाँ तक हो सका मैंने उनका साथ दिया. उन्होंने सूझबूझ के साथ घर भी संभाला और साहित्यिक जीवन भी. 
  • पाठक आपके परिवार और संतानों के बारे में भी उत्सुकता रखते हैं. 
एक बेटा है. बहु एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर है. दो पोते – एक सातवीं कक्षा में है और दूसरा कक्षा एक में. उनके लालन-पालन में दिन बीत रहा है. सुखी परिवार. 
  • अब पुनः साहित्य की ओर. आजकल आपकी क्या दिनचर्या है? नया क्या क्या लिख रहे हैं? 
दिनचर्या और क्या हो सकती है एक कवि के लिए. कविताएँ लिखना. 2008 में सेवानिवृत्त होने के बाद यूजीसी मेजर प्रोजेक्ट हाथ में लिया. ‘वेमना वेलुगुलु’ (वेमना ज्योति) शीर्षक से 500 पृष्ठों की पुस्तक प्रकाशित की. इसमें वेमना के पदों की व्याख्या है - समीक्षा के रूप में. ‘समकालीन (तेलुगु) कविता की वस्तु और रूप’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित हो रही है. बहुत जल्दी वह पाठकों के समक्ष होगी. हो सका तो इस जून तक अर्थात मेरे जन्मदिन तक एक और काव्य संग्रह प्रकाशित करने की योजना है. इसका शीर्षक है ‘मल्ली वित्तनम लोकि’ (फिर से बीज के अंदर) – ‘अप्पुड़प्पुडु मल्ली वित्तनम लोकि वेल्लि रावालि/ ई नाटि आकुला निगनिगलु अर्धम कावालंटे, आनाटी मूलालो कि तोंगिचूडालि/ इप्पटि पूवुलनु अप्पटि स्वप्नालनु बेरीजु वेसुकोवाली’ (कभी कभार फिर से बीज के अंदर तक जाकर आना होगा/ आज के पत्तों की चमक को पहचानना हो तो उसके मूल में जाना होगा./ अब के फूल और तब के सपनों का आकलन करना होगा). आज की दुनिया स्वार्थपरक है. इस स्वार्थ को मिटाने के लिए तथा स्वस्थ समाज की स्थापना के लिए हमें फिर से अतीत की ओर लौटकर देखना होगा. रिफ्रेश होने के लिए. 

मेरी एक और योजना भी है ‘वृद्धोपनिषद’ लिखने की. इस विषय में अपने मित्र हिंदी कवि ऋषभ देव शर्मा से मैंने चर्चा की है. उन्होंने कुछ सामग्री भी मुझे पढ़ने को लाकर दी है. इस विषय पर गहन अध्ययन कर रहा हूँ. चूँकि पहले वृद्धों की मानसिकता को समझना चाहिए. इस दुनिया में बूढ़े सुखी जीवन नहीं जी रहे हैं. निःसहाय स्थिति में हैं. गरीब बूढ़ों की स्थिति तो और भी दयनीय है. एक तरह से उनका जीवन नारकीय जीवन है. अतः बूढ़ों पर लिखने के लिए स्वानुभव की भी जरूरत होती है. अब मुझे यह महसूस हो रहा है कि धीरे धीरे मैं बुढ़ापे की ओर बढ़ रहा हूँ. भविष्य में लिखूँगा. मैं यही कहूँगा कि पहले हमें मृत्यु से डर छोड़ना होगा. तब हम आराम से जी सकते हैं; नहीं तो चिंता अंदर ही अंदर खा जाएगी. यह सब मैं अपने लिए भी कह रहा हूँ क्योंकि मेरे अंदर भी कहीं न कहीं वह डर है. बुढ़ापे में शरीर का एक एक अंग कमजोर होता जाता है. मानसिक स्थिति भी इससे प्रभावित होती है. ऐसी स्थिति में हमें कमजोर नहीं होना चाहिए. यहाँ भी देखिए ‘अर्थ’ प्रधान है. आर्थिक स्थिति अच्छी रही तो आप आराम की जिंदगी जी सकते है नहीं है तो फिर वही..... 
  • आपका जीवन दर्शन क्या है? 
अच्छे ढंग से जीना. कृत्रिम जीवन नहीं. मनुष्य भावात्मक प्राणी है. जीवन भावप्रपूर्ण होना चाहिए. उसे अनुभव करना चाहिए. प्रेम, वात्सल्य, सौहार्द और मानवता आदि से युक्त जीवन हमें जीना चाहिए. खुद जिँए और दूसरों को भी जीने दें. मैं यही कहूँगा कि अपने जीवन से सीखना चाहिए. अपने शोध के दौरान बहुत कठिनाइयों का सामना किया. मद्रास में पुस्ताकालय से सामग्री का संचयन करने के लिए गया था तो दो रात बसस्टैंड पर सोकर बिताई थी. उस घटना के कारण मैंने यह संकल्प लिया कि दूरदराज इलाकों से आने वाले शोधार्थियों के लिए कुछ करना चाहिए. इसीलिए मैंने अपने ही घर पर वेमना के नाम पर पुस्तकालय की स्थापना की. यहाँ शोधार्थी आकर अपना शोधकार्य कर सकते हैं. उनके ठहरने की मुफ्त व्यवस्था है. 
  • ‘बहुब्रीहि’ के पाठकों के लिए आपका संदेश ...... ? 
मैं संदेश क्या दे सकता हूँ. बस यही चाहता हूँ कि हम आगे की पीढ़ी को एक स्वस्थ समाज प्रदान करने का प्रयास करते रहें. 

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प्रो. एन. गोपि, 13-1/5 बी, श्रीनिवासपुरम, रामंतापुर, हैदराबाद – 500 013.

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (सह-संपादक ‘स्रवंति’), प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500 004
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  • 'बहुब्रीहि' अंक 2, जनवरी-जून 2014 में प्रकाशित 

अद्यतन संचार माध्यमों का स्वरूप : मास मीडिया में बढ़ता बाजारवाद



आरंभ में ही यह ध्यान दिलाना चाहूँगी कि अब से कुछ वर्ष पहले तक सार्वजनिक रूप से या संगोष्ठियों में मीडिया की भूमिका पर बहुत ही कम चर्चा की जाती थी. पर आज मीडिया विमर्श विधिवत एक नए ज्ञान क्षेत्र के रूप में हमारे सामने है. इस दिशा में यह राष्ट्रीय संगोष्ठी भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण आयोजन के रूप में दर्ज होगी. इस सामयिक और विचारोत्तेजक संगोष्ठी का आयोजन करने के लिए यह महाविद्यालय और इसका हिंदी विभाग बधाई के पात्र हैं. 

हम आपस में विचार-विमर्श के लिए/ सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए विविध माध्यमों का उपयोग करते रहते हैं. मीडिया एक ऐसी व्यवस्था है जिसका विकास मनुष्य ने सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए किया है. भाषा और लिपि के विकास के साथ साथ मुद्रित माध्यम (प्रिंट मीडिया) सामने आया. धीरे धीरे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विकास हुआ. रेडियो के बाद टेलीविजन और फिल्मों के आविष्कार ने स्थितियाँ बदल दीं. और अब सूचना संप्रेषण की विकास यात्रा में इंटरनेट के आविष्कार ने एक नया ही मोड उपस्थित कर दिया है. इस अद्यतन जनसंचार माध्यम से हम घर बैठे बैठे अपने कंप्यूटर पर संदेश टाइप करके कुछ ही क्षणों में उसे विश्व के कोने में विद्यमान जन समूह तक पहुँचा सकते हैं. फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर, वाट्सअप आदि इंटरनेट की ही देन हैं जिनके माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान अपूर्व त्वरित गति से हो रहा है. “लोगों द्वारा अपना सामाजिक दायरा बढ़ाने हेतु समूह बना कर आपसी सूचनाओं का आदान-प्रदान करने की सुविधाएँ उपलब्ध कराने वाली ऐसी वेब साइट्स को लोगों ने सोशल मीडिया का नाम दिया. ये सोशल वेब साइट्स काफी लोकप्रिय हुईं और इनके उपयोगकर्ता बढ़ते गए और यह संख्या आज भी बढ़ती ही जा रही है. विश्व में पिछले कुछ वर्षों में हुए कई देशों के आंदोलनों में इस सोशल मीडिया का प्रभाव व उपयोगिता स्पष्ट देखी गई है.”(ज्ञानदर्पण). इसमें दो राय नहीं कि विश्व भर में सोशल मीडिया सूचनाएँ संप्रेषित करने का मुख्य माध्यम बन चुका है. 2014 के लोकसभा चुनाव ने भी इस माध्यम की भारत जैसे महादेश में उपादेयता को भलीभाँति प्रमाणित कर दिया है. 

यह ध्यान देने की बात है कि प्रवासी लोग अपनी मातृभूमि की खबर जानने के लिए इस सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं. यहाँ तक कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इस नए मीडिया पर निर्भर होना पड़ रहा है. विभिन्न वेबसाइटस, ऑडियो-वीडियो कोंफ्रेंस, चैट रूम्स, ईमेल, ऑनलाइन समूह, वेब विज्ञापन, वर्चुअल रियलीटी एन्विरोंमेंट्स, इंटरनेट टेलीफोनी, डिजिटल कैमरास और मोबाइल कंप्यूटिंग आदि इस नए सोशल मीडिया के अंतर्गत सम्मिलित हैं. अद्यतन न्यू मीडिया पारंपरिक मीडिया की तरह संगठित नहीं है. फिर भी इसकी एक विशेषता यह है कि इसका हर उपयोगकर्ता स्वयं पत्रकार है, स्वयं संपादक है, स्वयं प्रकाशक भी है. इससे इंटरनेट पर भारी मात्रा में कचरा लेखन और अराजकता की बाढ़ अवश्य आ गई है जिससे इस माध्यम की प्रामाणिकता और गंभीरता बाधित होती है. इसके बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि इसमें दी गई सूचना सिर्फ एक क्लिक में ही पूरे विश्व में पहुँच जाती है. कहा जाय तो इस अद्यतन मीडिया के कारण ही आज एक साधारण व्यक्ति को सर्व-सामान्य के समक्ष अपनी बात रखने का मौका मिला है. इसका सबसे सकारात्मक प्रयोग जन जागरण और सामाजिक परिवर्तन के लिए किया जा सकता है. प्रकारंतर से, नव मीडिया ने संचार का लोकतंत्र संभव करके दिखा दिया है. 

लेकिन इसका दूसरा पहलू भी विचारणीय है. वास्तव में मीडिया का काम है जनता और सरकार दोनों के सामने सच की तस्वीर पेश करना. मीडिया की आचार संहिताओं में यह कहा गया है कि उसे निष्पक्ष व निर्भीक तरीके से कार्य करना चाहिए न कि निर्णायक तरीके से. लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में मीडिया निर्णायक की भूमिका में नजर आ रहा है. कभी कभी हम यह भी देखते हैं कि टीवी और सोशल साइटों पर तथ्यों को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि मीडिया, मीडिया न होकर कोई अदालत हो. ओपीनियन लीडर और इमेज बिल्डर के रूप में अद्यतन संचार माध्मों का दुष्प्रयोग भी किसी से छिपा नहीं है. 

आज हर क्षेत्र में बाजारवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है. इस बढ़ते बाजारवाद के प्रभाव से मीडिया भी नहीं बच पाया है. इसमें संदेह नहीं कि भूमंडलीकरण ने बाजारवाद को मीडिया के पंखों पर ही बिठाकर दुनिया की सैर कराई है. आज मीडिया मिशन नहीं, व्यवसाय है. व्यावसायिक होते ही मीडिया ने खबरों को माल की तरह बेचना प्रारंभ कर दिया. यहाँ तक कहा जा सकता है कि मीडिया और बाजार ने तो महानायकों की परिभाषा भी बदल दी. वे रातों रात किसी को भी महानायक बना सकते हैं. आज वे निहित स्वार्थों के पोषक, राजनीति के संचालक और लोगों को गिराने तथा उठाने वाले बन गए हैं. उदारीकरण व नई आर्थिक नीतियों ने समाज व व्यवस्था को पूरी तरह से बदल दिया है. मीडिया भी इस बदलाव से अछूता नहीं रहा. चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, उनके काम करने की शैली में आमूलचूल परिवर्तन आया है. पहले तो मीडिया मूल्यों और सरोकारों की बात करता था लेकिन अब वह प्रोफिट/ लाभ व पैसा कमाने की होड़ में शामिल हो गया है. पेड न्यूज ने तो और भी भ्रामक स्थिति पैदा कर दी है. इसके अलावा लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ में कोर्पोरेट का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है जो आने वाले समय में बेहद खतरनाक साबित हो सकता है. दरअसल राजनैतिक और आर्थिक शक्तियाँ यह भली प्रकार जानती हैं कि जनसंचार माध्यम यदि जनता के हाथ में रहेंगे तो एक न एक दिन उनका प्रयोग जनता के अधिकारों के लड़ाई के लिए किया जाएगा. इसलिए ये शक्तियाँ ऐसा होने से पहले ही जनसंचार पर पूरी तरह हावी हो जाना चाहती हैं. सत्ता और पैसा जिनके पास है, वे मीडिया को अपने लिए इस्तेमाल करते हैं, कर रहे हैं – इसे लोकतंत्र के लिए श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता. 

आज भले ही मीडिया का इतना विस्तार हो गया हो लेकिन इसका प्रारंभिक व पारंपरिक रूप मुनादी करने और नाटक खेलने का था. इसकी व्यापक संबोध्यता को देखते हुए ‘नाट्यशास्त्र’ में भरतमुनि ने जहां इसकी भाषा के मृदु, ललित, गूढ़ शब्दार्थ से हीन और जनपद सुखबोध्य होने की बात कही थी वहीं यह भी निर्देश दिया था कि जो चीज लोक रुचि एवं लोक मर्यादा के विरुद्ध हो उसका सार्वजनिक प्रस्तुतीकरण नहीं करना चाहिए. यह बात मीडिया पर भी उतनी ही लागू है जितनी नाटक या ललित कलाओं पर, क्योंकि दोनों ही जनसंचार के माध्यम है. लेकिन आज मीडिया की रुचि किस में है! संचार मूल्य वहाँ है जहाँ कुछ गोपनीय है, सनसनीपूर्ण है; उत्तेजना, आक्रामकता और हिंसा आज बाजार और मीडिया दोनों के ही बीज शब्द बन गए हैं. 

अमेरिका के संदर्भ में डब्ल्यू जेम्स पोटर ने अपनी किताब ‘ऑन मीडिया वायलेंस’ में इस बात को उजागर किया कि ‘मीडिया एक अकेले इंसान से जुड़े अपराधों को रिपोर्ट करता ही रहता है. हिंसा से जुडी खबरों का इस्तेमाल कई बार जनता के मनोरंजन के लिए भी बखूबी किया जाता है. इस तरह से मीडिया असल जिंदगी में मौजूद हिंसा के तत्वों को परिभाषित करता है और इन संदेशों को अंतहीन प्रयासों के जरिए हमारी सोच में भरता रहता है.’ मीडिया विशेषज्ञ वर्तिका नंदा इस संदर्भ में कहती हैं कि ‘भले ही पोटर ने यह टिप्पणी अमेरिकी संदर्भ में की हो लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य पर भी यह सटीक लगती है.’ विशेषज्ञों का कहना है कि मीडिया में अपराध, उसमें भी विशेष रूप से बलात्कार, का कवरेज प्रथम श्रेणी पर है. टीवी चैनलों की सुर्खियों को ही देख लें – बलात्कारियों ने नाबालिग पर किया हमला अपराधी फरार, नाबालिग को बनाया अपनी भूख का निशान आदि, आदि, आदि. अपराधी तो हमेशा फरार होने में कामयाबी हासिल करता है. कभी कभी ऐसा लगता है कि मानो अपराधी को विशिष्ट सम्मान दिया जा रहा हो. इस तरह के कवरेज में हम अक्सर यह देखते हैं कि न ही अपराधी का नाम बताया जाता है और न ही उसका फोटो दिखाया जाता है. पर हाँ, उस लड़की का चेहरा मोजैक करके दिखाया जाता है, उसके घर का लॉन्ग शॉट दिखाया जाता है, कभी कभी तो उस लड़की के माँ-बाप के बारे में बताया जाता है. इतना काफी है उस लड़की के रिश्तेदारों को उसकी पहचान करवाने के लिए इससे बड़ी बेईमानी और क्या होगी? 

विज्ञापन और फिल्मों को ही देख लीजिए. ये रुचि का परिष्कार करने के बजाय रुचि में विकृति पैदा करने वाले होते जा रहे हैं. उदाहरण के लिए साहित्यिक कृतियों के रूपांतरण को ही लें. टीवी धारावाहिक या फिर कमर्शियल फिल्म के रूप में किसी साहित्यिक कृति का रूपांतरण करते समय इतना ज्यादा उत्तेजक मसाला भर दिया जाता है कि कृति का मूल उद्देश्य मिट जाता है. प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ को याद करें. इस कहानी में प्रेमचंद ने इस वाक्य के माध्यम से भारत के गावों में शिक्षा के अभाव को रेखांकित किया है – गंगी “खराब पानी पीने से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है.” लेकिन इस मूल सूत्र को इस कहानी के टीवी रूपांतरण में उड़ा दिया गया तथा इसे छोटे पर्दे पर अमीर-गरीब के वर्गभेद के स्थान पर सवर्ण-दलित के वर्णभेद की कहानी के रूप में पेश किया गया. इसी तरह ‘देवदास’ की बात भी की जा सकती है. शाहरुख खान की फिल्म ‘देवदास’ (2002) को यदि देखें तो यह शरतचंद्र के उपन्यास ‘देवदास’ का व्यंग्य पाठ लगती है. इस फिल्म में पूरी तरह से उत्तरआधुनिक बाजारवाद झलकता है. मूल पाठ को तोड़ मरोड़ कर नया पाठ निर्मित किया गया है. इस फिल्म का हर सीन भव्य है. एक तरह से तो भव्यता अहम विषय बन गया. यह फिल्म पूरी तरह से बाजार की माँग के अनुरूप है. मूल कथा में पारो का परिवार निम्नवर्गीय था. लेकिन फिल्मकार ने उसे उच्चवर्गीय बना डाला. अर्थात साहित्य के साथ टीवी और सिनेमा बड़ी सफाई से अत्याचार कर रहे हैं – माध्यम की माँग के नाम पर. 

अंत में मुझे यह और कहना जरूरी लग रहा है कि अद्यतन मीडिया ने भाषा के रूप को भी बदल डाला है. आए दिन तरह तरह के भाषा रूप उभर रहे हैं. विज्ञापनों की नई शब्दावली (नो उल्लू बनाविंग) गढ़ने से लेकर लोक प्रतीकों और लोक मिथकों तक का नए ढंग से प्रयोग मीडिया कर रहा है. इससे हिंदी भाषा एक नया अक्षेत्रीय रूप उभर रहा है. इस तरह के प्रयोगों से मीडिया की भाषा में कोड मिश्रण व कोड परिवर्तन की प्रवृत्ति बढ़ चुकी है. “कोड परिवर्तन का मुख्य प्रकार्य यह होता है कि द्विभाषिक या बहुभाषिक व्यक्ति जो भाषाएँ जानता-समझता है, वे भाषा प्रयोग के विशेष संदर्भ (Context) और स्थिति (Situation) के अनुरूप बोलते समय ही परस्पर परिवर्तित होती रहती हैं.” (दिलीप सिंह, ‘भाषा प्रयोग की दिशा–दो’, हिंदी भाषा चिंतन, पृ. 109). इस प्रकार के भाषा मिश्रण के लिए भी कुछ सीमाएँ/ प्रतिबंध होते हैं. जैसे – “(1) एक भाषा के वाक्य में दूसरी भाषा का उपवाक्य मान्य नहीं है. (2) एक भाषा के दो वाक्यों के बीच दूसरी भाषा का संयोजक मान्य नहीं है. (3) एक भाषा के उपवाक्य के बाद दूसरी भाषा के उपवाक्य में समुच्चय बोधक दूसरी भाषा का ही होना चाहिए. (4) हिंदी के वाक्यों में अंग्रेजी के निर्धारक, क्रमसूचक, संख्यासूचक का प्रयोग अमान्य है.” (प्रो. दिलीप सिंह, ‘भाषा अध्ययन की आधुनिक संकल्पनाएँ,’ भाषा का संसार, पृ. 150). लेकिन मीडिया इन सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए आगे बढ़ चुका है. इस तरह उसने बाजार की भाषा अपना ली है. 

आज बाजार का इतना दबाव है कि सबको विवश होना पड़ रहा है. हम सब जानते हैं कि मीडिया का मूलभूत लक्ष्य सूचना, मनोरंजन और जनशिक्षा है. इन तीनों के बाद ही मुनाफ़ा कमाने का स्थान आता है. लेकिन विडंबना यह है कि आज मुनाफ़ा प्रथम स्थान पर है. यह अन्य लक्ष्यों पर हावी हो रहा है. यह भी कहा जा सकता है कि एक-दूसरे के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता की होड़ में मीडिया की अनुशासनहीनता और संवेदनहीनता बढ़ रही है तथा पत्रकारिता के मानदंड कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं. कहना होगा कि जहाँ एक तरफ अद्यतन मीडिया ने सूचना के लोकतंत्र को संभव बनाया है वहीं यह भी देखने में आ रहा है कि यह मीडिया जब पूँजीपति या सत्ता के हाथ में चला जाता है तो वह लोकतंत्र का वाहक न रहकर मुनाफे का माध्यम अर्थात बाजार का दास बन जाता है. 

(द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी : 18 तथा 19 अक्टूबर 2014
श्री सिद्धरामेश्वर महाविद्यालय, कमलनगर)