सोमवार, 20 जनवरी 2014

‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ पढ़ते हुए

[हैदराबाद के हिंदी दैनिक 'मिलाप' ने 19 जनवरी 2014 के अपने रविवारीय परिशिष्ट 'फुर्सत का पन्ना' में यह समीक्षा स्थानाभाव के कारण अंग-भंग करके छापी है. नीचे पूरा आलेख प्रस्तुत है.]
‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ पढ़ते हुए 


तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ

 ऋषभ देव शर्मा

2013

 पृष्ठ – 204

 मूल्य – रु. 395

 जगत भारती प्रकाशन, सी-3-77, दूरवाणी नगर, 
ए डी ए, नैनी, इलाहाबाद – 211008 (उत्तर प्रदेश )

डॉ. ऋषभ देव शर्मा (1957) कई दशक से दक्षिण भारत में रहकर निष्ठापूर्वक हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा कर रहे हैं. इस अवधि में आपने एक सफल अध्यापक, जिज्ञासु अनुसंधानकर्ता, सुधी समीक्षक, विवेकशील संपादक और ओजस्वी वक्ता के रूप में ख्याति अर्जित की है. आपकी काव्य कृतियों में तेवरी (1982), तरकश (1996), ताकि सनद रहे (2002), देहरी (स्त्री पक्षीय कविताएँ, 2011), प्रेम बना रहे (2012) और सूँ साँ माणस गंध (2013), आलोचना कृतियों में तेवरी चर्चा (1987), हिंदी कविता : आठवाँ-नवाँ दशक (1994), साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श (2000) और कविता का समकाल (2011) तथा संपादित ग्रंथों में अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य (1999, 2009), भारतीय भाषा पत्रकारिता (2000), अनुवाद : नई पीठिका नए संदर्भ (2003), स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम (2004), प्रेमचंद की भाषाई चेतना (2006) एवं भाषा की भीतरी परतें (2012) जैसी पुस्तकें बहुप्रशंसित रही हैं. एक खास बात जो डॉ. शर्मा को अपने अनेक समकालीन और समशील रचनाकारों से अलग करती है वह यह है कि आप निरंतर नई प्रतिभाओं को प्रेरित और पोषित करते हैं. शायद यही कारण है कि उन्हें हिंदीतरभाषी हिंदीसेवियों का बड़ा स्नेह मिला है. लगभग एक दशक पूर्व प्रो. दिलीप सिंह ने उनके संबंध में ठीक ही लिखा था कि “हैदराबाद के हिंदी जगत् में ऋषभदेव जी अत्यंत लोकप्रिय हैं. सब उनका साथ चाहते हैं, और वे भी किसी को निराश नहीं करते.” यह लोकप्रियता उन्होंने तेलुगु भाषा और साहित्य के प्रति अपने प्रेम के बल पर अर्जित की है. इस प्रेम की ही परिणति है उनका सद्यःप्रकाशित निबंध संग्रह ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ (2013).

इस पुस्तक (तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ) में छह खंड हैं जिनमें 36 आलेख और 1 विस्तृत शोधपत्र सम्मिलित हैं. पहले खंड में आंध्र के महान भक्त कवियों अन्नमाचार्य, रामदास, क्षेत्रय्या, पोतना, मोल्ला और वेंगमाम्बा तथा संत कवि वेमना पर केंद्रित हिंदी पुस्तकों का विवेचन करते हुए भारतीय साहित्य में भक्ति आंदोलन के योगदान पर कुछ टिप्पणियाँ शामिल हैं. दूसरा खंड आधुनिक तेलुगु कविता को समर्पित है. इसमें जिन अनेक तेलुगु कवियों की अनूदित कृतियों की विवेचना की गई है उनमें श्रीश्री, डॉ. सी. नारायण रेड्डी, कालोजी, दिगंबर कविगण (नग्नमुनि, निखिलेश्वर, चेरबंड राजु, महास्वप्न, ज्वालामुखी और भैरवय्या), पेर्वारम, अजंता, वासा प्रभावती, डॉ. एस. शरत ज्योत्स्ना रानी, मुस्लिमवादी कविगण (एस. ए. अज़ीम, अली, ख्वाजा, आजम, दिलावर, शाहजहाना, सिकिंदर, गौस मोहिउद्दीन और स्काई बाबा), डॉ. एन. गोपि, डॉ. शिखामणि, डॉ. सी. भवानी देवी, डॉ. पी. विजयलक्ष्मी पंडित, वाणी रंगाराव, डॉ. मसन चेन्नप्पा और डॉ. एस. वी. सत्यनारायण के नाम शामिल हैं. इसी प्रकार तीसरे और चौथे खंड में कथा साहित्य और नाट्य साहित्य के अनुवादों की तटस्थ समीक्षा देखी जा सकती है. यहाँ विवेचित कृतियाँ हैं बैरिस्टर पार्वतीशम (मोक्कपाटी नरसिंह शास्त्री), द्रौपदी (डॉ. यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद), नई इमारत के खंडहर (सय्यद सलीम), अहल्या (चलसानी वसुमती), सोने की वर्षा (डॉ. भार्गवी राव), बारिश थम गई (एल. आर. स्वामी), आक्रमण कब का हो चुका (पेद्दिन्टि अशोक कुमार), पंचामृत (डॉ. डी. विजय भास्कर) तथा अक्षर (नंदि राजु सुब्बाराव). साथ ही, आरंभिक भारतीय उपन्यासों पर एक शोधग्रंथ (आर. एस. सर्राजू) और प्रतिनिधि तेलुगु कहानियों के 2 संकलनों की भी विवेचना की गई है जिसके कारण तेलुगु कथा साहित्य के संपूर्ण परिदृश्य का विहंगम अवलोकन संभव हो सका है. पाँचवे खंड में 4 आलेख हैं – तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील परिदृश्य, बीसवीं सदी का तेलुगु साहित्य, हिंदी तेलुगु तुलना और हिंदी में दक्षिण भारतीय साहित्य जिनमें क्रमशः निखिलेश्वर, डॉ. आई. एन. चंद्रशेखर रेड्डी, डॉ. शकीला खानम और डॉ. विजय राघव रेड्डी की हिंदी पुस्तकों के बहाने तेलुगु साहित्य के इतिहास, आलोचना और अनुवाद पक्ष की चर्चा की गई है. पुस्तक के छठे खंड में तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद की परंपरा और उसके प्रदेय पर केंद्रित 56 पृष्ठों का एक सुविस्तृत शोधपत्र प्रकाशित किया गया है. मुझे भी सहलेखक के रूप में इस शोधपत्र के लिए काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. यह अपनी प्रकार का शायद पहला शोधपत्र है जिसमें अनुवाद परंपरा की चर्चा के बाद तेलुगु से अनूदित पाठों का गहराई से विश्लेषण करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि हिंदी के भाषा समाज को ये अनुवाद किस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषिक और साहित्यिक स्तर पर समृद्ध करते हैं. ‘भास्वर भारत’ (दिसंबर 2013) में प्रो. गोपाल शर्मा ने इस खंड को इस पुस्तक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंश मानते हुए लिखा है “कहना न होगा कि इस विस्तृत खंड में हिंदी में आए तेलुगु साहित्य के कुछ पाठों से ही ज्ञात हो जाता है कि तेलुगु भाषासमाज की सांस्कृतिक विशेषताएं एक ओर तो समग्र भारत के समान है और दूसरी ओर इसमें किंचित इंद्रधनुषी विभिन्नताएँ भी हैं. तेलुगुभाषी लेखक समय-समय पर तेलुगु जीवन शैली का विवरण-विश्लेषण भी करते जाते हैं और हिंदी के पाठक समझ जाते हैं कि आंध्र जीवनशैली में किन-किन सांस्कृतिक चिह्नों का प्रयोग आज भी हो रहा है. इस प्रकार के तुलनात्मक समाजभाषावैज्ञानिक अध्ययन की हिंदी में यह पहली मिसाल देखने में आई है.” वस्तुतः यह अनुवाद का सेतुधर्म है और प्रो. शर्मा की यह पुस्तक इस सेतुधर्म को ही विशेष रूप से रेखांकित करती है. 

तेलुगु और हिंदी के भाषासमाजों के बीच इस साहित्यिक सेतु के निर्माण में मूल रचनाकारों और प्रस्तुत ग्रंथकार का संवाद अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. परंतु यहाँ यह कहना जरूरी है कि यह संवाद अनुवादकों के बल पर ही संभव हुआ है. प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने इस पुस्तक में जिन 23 अनुवादकों के द्वारा अनूदित सामग्री का विवेचन किया है वे हैं डॉ. भीमसेन निर्मल, डॉ. एम. बी. वी. आई. आर. शर्मा, डॉ. निर्मलानंद वात्स्यायन, डॉ. एम. रंगैया, डॉ. पी. माणिक्यांबा, डॉ. जे.एल. रेड्डी, डॉ. टी. मोहन सिंह, प्रो. पी. आदेश्वर राव, डॉ. विजय राघव रेड्डी, डॉ. भागवतुल सीता कुमारी, डॉ. वाई. वेंकटरमण राव, आर. शांता सुंदरी, एस. शंकराचार्लु, निखिलेश्वर, पारनंदि निर्मला, डॉ. आर. सुमनलता, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, जी. परमेश्वर, डॉ. म. लक्ष्मणाचारी, डॉ. वेन्ना वल्लभ राव, डॉ. के. श्याम सुंदर, डॉ. संतोष अलेक्स एवं डॉ. बी. विश्वनाथाचारी. वस्तुतः, जैसा कि प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ‘भूमिका’ में निर्दिष्ट किया है, “यह ग्रंथ अनूदित साहित्य के प्रति ऋषभ देव शर्मा की सहज संवेदना को प्रदर्शित करता है. भारतीय संदर्भ में हिंदी में इतर भाषा से अनूदित साहित्य मूल भाषासमाज की सांस्कृतिक अस्मिता को समझने के लिए वृहत पाठक वर्ग को अवसर प्रदान करता है. यह ग्रंथ हिंदीभाषी पाठकों एवं शोधार्थियों के लिए तेलुगु साहित्य के गणनीय हिस्से को समझने में न केवल सहायक होगा बल्कि यह शोध के क्षेत्र में नई संभावनाओं को भी विकसित करेगा. तेलुगु साहित्य के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए यह ग्रंथ उत्प्रेरक की भूमिका अवश्य निभाएगा.” 

अंत में, मैं यह उल्लेख करना चाहूँगी कि इस पुस्तक का समर्पण-वाक्य अत्यंत भावपूर्ण और श्लाघनीय है “समकालीन भारतीय कविता के उन्नायक ‘नानीलु’ के प्रवर्तक परम आत्मीय अग्रज कवि प्रो. एन. गोपि को सादर” समर्पित यह कृति हिंदी और तेलुगु साहित्यकारों के बीच भावपूर्ण स्नेह-संबंध की प्रतीक और प्रतिमान बन गई है. इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि प्रो. ऋषभ देव शर्मा की इस आलोचना कृति को हिंदी के साथ साथ तेलुगु समाज का भी भरपूर स्नेह प्राप्त होगा.
- गुर्रमकोंडा नीरजा  


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रविवार, 12 जनवरी 2014

स्त्री-पुरुष में द्वैताद्वैत वादी संबंध वांछित है

आज की प्रगतिशील नारी का पुरुषों के प्रति नजरिया

“प्रश्न गाँव औ’ शहरों के तो 
हम पीछे सुलझा ही लेंगे 
तुम पहले कंधों पर सूरज 
लादे होने का भ्रम छोड़ो.

*****

कैसे हवा उठेगी ऊपर 
तपने पर भी 
कैसे कोई बारिश में भीगेगा हँसकर? 

छत पर आग उगाने वाले 
दीवारों के सन्नाटों में 
क्या घटता है – 
हम पीछे सोचें सलटेंगे 
तुम पहले कंधों पर सूरज 
लादे होने का भ्रम छोड़ो.”
  (कविता वाचक्नवी, मैं चल तो दूँ)

इसमें संदेह नहीं कि आज की स्त्री का पुरुष के प्रति दृष्टिकोण प्राचीन और मध्यकालीन स्त्री की तुलना में बड़ी सीमा तक परिवर्तित हुआ है. यदि प्राचीन भारतीय स्त्री के लिए पुरुष पिता, पति और पुत्र के रूप में ऐसी सुरक्षा की गारंटी था जिसके चलते उसे किसी स्वतंत्रता की आवश्यकता नहीं थी तथा मध्यकालीन भारतीय स्त्री के लिए पुरुष मालिक और परमेश्वर था जिसकी सर्वोपरि इच्छाओं के समक्ष बलिदान हो जाना ही स्त्री की नियति थी और इसे ही वह अपना अहोभाग्य समझती थी; तो इन दोनों प्रकार की मानसिकताओं से आगे बढ़कर आज की प्रगतिशील स्त्री की मानसिकता पुरुष को समता के धरातल पर मित्र और सखा के रूप में स्वीकार करने की मानसिकता है. 

इसमें संदेह नहीं कि रखवाला और मालिक मानकर पुरुष के समक्ष आत्महीनता और आत्मदया से ग्रस्त रहने वाली स्त्रियाँ आज भी हमारे समाज में बड़ी संख्या में हैं. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पुरुष से मैत्रीपूर्ण आचरण की अपेक्षा रखने वाली स्त्री भी इसी पृष्ठभूमि की जमीन तोड़कर पुरातनता के खोल से बाहर निकलकर आ रही है. 

यह प्रगतिशील स्त्री, स्त्री और पुरुष की गैरबराबरी को स्वीकार नहीं करती बल्कि मनुष्य होने के पने अधिकार को पहचानती है. अपने अधिकार की इस पहचान ने उसे आत्मविश्वास और दृढ़ता प्रदान की है. हिंदी साहित्य में यह दृढ़ और आत्मविश्वासी स्त्री प्रेमचंद और प्रसाद के समय से ही दिखाई देने लगी थी - धनिया और ध्रुवस्वामिनी जैसे पात्रो के रूप में. यशपाल के ‘दिव्या’ और ‘दादा कामरेड’ जैसे उपन्यासों में भी प्रगतिशील स्त्री का यह नया चेहरा दिखाई देता है. लेकिन फिर एक दौर ‘नई कहानी’ के जमाने में ऐसी मानसिकता का आया कि तमाम कहानी-उपन्यासों में आधुनिक स्त्री को कुंठित मानसिकता वाली दर्शाया जाने लगा. यह स्वतंत्र भारत के आरंभिक दशकों का वह दौर था जब स्त्रियाँ बड़ी संख्या में घर के बाहर निकल रही थीं और कामकाजी स्त्री के रूप में नया अवतार ले रही थीं. हो सकता है कि मेरी यह बात बहुत प्रामाणिक न हो परंतु मुझे लगता है कि उस दौर के कथाकार स्त्री की इस प्रगति से बड़ी सीमा तक आतंकित और आशंकित दिखाई देते हैं. यही कारण है कि उस दौर में स्त्री की जिस छवि का निर्माण किया गया वह दमित वासनाओं से संचालित थी. परंतु यह छवि सही रूप में प्रगतिशील स्त्री का प्रतिनिधित्व नहीं करती. इसके बाद जब 20वीं सदी के अंतिम दो दशकों में विमर्शों ने जोर पकड़ा तो स्त्री विमर्श के नाम पर भी आरंभ में काफी भ्रमपूर्ण स्थितियाँ सामने आईं. लेकिन धीरे धीरे धुंध हट गई और एक ऐसी प्रगतिशील स्त्री सामने आई जो पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकता चलती ही है, उसकी आँखों में आँखें डालकर देखती भी है और पुराने जमाने की नायिकाओं की तरह मूर्छित नहीं हो जाती. 

जब हम कहते हैं कि पुरुष के संबंध में आज की स्त्री का नज़रिया बदल रहा है तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि वह पति परमेश्वर वाले आतंककारी संबंध से निकलकर पति को सहयात्री के रूप में स्वीकार करती है, मालिक के रूप में नहीं. दरअसल यदि परिवार को लोकतांत्रिक सामाजिक संस्था के रूप में देखा जाए तो स्त्री और पुरुष दोनों ही को परस्पर मालिक और गुलाम मानने की मानसिकता से मुक्त होना होगा. आज की स्त्री चाहती है कि पुरुष समय-असमय अपना ‘पतिपना’ न दिखाया करे. स्त्री को भी गाहेबगाहे प्रतिपल अपना ‘पत्नीपना’ दिखाने की प्रवृत्ति से बाज़ आना होगा. वह ज़माना गया जब पति-पत्नी ‘दो शरीर एक प्राण’ होते थे क्योंकि इस एकप्राणता के लिए दो में से किसी एक को अपना व्यक्तित्व दूसरे के व्यक्तित्व में विलीन करना होता था. आज की स्त्री अपने व्यक्तित्व को इस तरह पुरुष के व्यक्तित्व में विलीन करने के लिए तैयार नहीं है. उसे अपनी स्पष्ट पहचान और परिवार तथा समाज में अपना स्थान व सम्मान चाहिए. भारतीय परंपरा में ‘अर्द्धनारीश्वर’ इस परस्पर पहचान की स्वीकृति का अत्यंत सुंदर और समर्थ प्रतीक है. यह बात भी समझनी चाहिए कि स्त्री-पुरुष दुनिया की दो विपरीत अपूर्ण इकाइयाँ हैं जिन्हें प्राकृतिक संरचना के कारण पूर्णता प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे की जरूरत होती है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. ऐसी स्थिति में विचारों के स्तर पर भेद को सहन करना सीख लेना ज्यादा अच्छा होगा. हाँ, इन स्थितियों के आधार पर यह तो कहा ही जा सकता है कि पति-पत्नी ‘दो शरीर एक प्राण’ नहीं बल्कि ‘दो शरीर और दो प्राण’ ही होते हैं. (नीलम कुलश्रेष्ठ, परत दर परत स्त्री, पृ. 77). अभिप्राय यह है कि स्त्री को ‘मानव’ के रूप में स्वीकृति चाहिए. यह स्वीकृति पुरुष के प्रति स्त्री के दृष्टिकोण को भी बदलने और व्यापक बनाने वाली साबित होगी, इसमें संदेह नहीं. 

आज की प्रगतिशील नारी यह समझ चुकी है कि उसकी पुरुष के साथ प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा नहीं है. उसे शिकायत है तो पुरुष के मालिकाना और अहंवादी व्यवहार से है. अधिकतर घरेलू ही नहीं कामकाजी स्त्रियां भी यह महसूस करती हैं कि पुरुष स्त्री के श्रम से लेकर धन तक और प्रेम से लेकर संतान तक सब कुछ को लेता तो अपना अधिकार समझकर है, लेकिन देने की बात आती है तो घर खर्च के कुछ रुपए देते वक्त भी उसका अंदाज ऐसा होता है जैसे स्त्री को खैरात दे रहा हो. ‘यदि पुरुष अपने अहं से निकलकर सिर्फ अपनी मानसिकता बदल लें तो सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी.’ (वही, पृ. 159).

यही कारण है कि आज दुनिया के हर कोने में औरतें यही चाह रही हैं कि पुरुष अपनी मानसिकता बदलें. जिन्होंने अपनी मानसिकता को बदल लिया है वे निश्चित ही स्वस्थ संबंधों और सभ्य समाज की नई इमारत बना रहे हैं. 

अंत में एक बात की ओर इशारा जरूरी है कि प्रगतिशीलता के कारण जो तनाव और संघर्ष पैदा हुए हैं उनमें ‘जो पिछली पीढ़ी के जीवन की सर्वोत्तम निधि नष्ट हुई है वह है स्त्री-पुरुष के बीच के आकर्षण का सौंदर्यबोध व आपसी सहज संबंध. दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पर वार एवं प्रतिवार करते रह गए हैं.’ (वही, पृ. 160). आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे को पूर्ण मानव माने तथा एक दूसरे की भावनाओं और संवेदनाओं का सम्मान करें. ऐसा होगा तो आनेवाला समय निश्चय ही मंगलमय होगा. स्त्री के मुक्त होने या मानव के रूप में पहचाने जाने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि स्त्री पुरुष के बीच के मधुर संबंध को नकार दिया जाए. दरअसल दोनों एक-दूसरे से द्वैताद्वैत वादी संबंध की उम्मीद रखते हैं. यानी हमारा अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी हो और हम एक-दूसरे के होकर भी रहें. ऐसी स्तिथि में ‘दोनों अपनी अपनी स्वायत्तता में दूसरे का अनन्य रूप भी देखेंगे. संबंधों की पारस्परिकता और अन्योन्याश्रितता से, चाह, अधिकार, प्रेम और आमोद-प्रमोद के अर्थ समाप्त नहीं हो जाएँगे और न ही समाप्त होंगे दो संवर्गों के बीच से शब्द देना, प्राप्त करना, मिलन होना; बल्कि दासत्व जब समाप्त होगा और वह भी आधी मानवता का, तब व्यवस्था का यह सारा ढोंग समाप्त हो जाएगा तथा स्त्री-पुरुष के बीच का विभेद वास्तव में एक महत्वपूर्ण नई सार्थकता को अभिव्यक्त करेगा.’ (सिमोन द बोउवार, स्त्री : उपेक्षिता).

(चेन्नई के अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (11.1.14) में प्रस्तुत शोधपत्र.)

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

हवाएँ न जाने कहाँ ले जाएँ !

पिछला महीना हिंदी जगत के लिए पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने जैसे दुःसह अनुभव का महीना रहा. राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव,ओमप्रकाश वाल्मीकि और कैलाश चंद्र भाटिया जैसे दिग्गजों का अचानक सदा के लिए विदा हो जाना हिंदी भाषा और साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति है. काल ने सँभलने का अवसर दिए बिना वार पर वार किए और सृजन, समीक्षा, विमर्श तथा भाषा चिंतन के इन विशिष्ट हस्ताक्षरों का अपहरण कर लिया. 

आलोचना क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘व्यास सम्मान’ और ‘भारत भारती’ पुरस्कारों से सम्मानित ‘नई कविता का परिप्रेक्ष्य’ (1965), ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965), ‘कवि कर्म और काव्य भाषा’ (1975) आदि के लेखक परमानंद श्रीवास्तव (9 फरवरी 1935-5 नवंबर 2013) का जन्म गोरखपुर जिले के बाँसगाँव में हुआ था. ‘आलोचना’ पत्रिका से वे काफी समय तक जुड़े रहे. पहले नामवर सिंह के साथ सह संपादक के रूप में उन्होंने अपना योगदान दिया और फिर संपादक के रूप में. 

परमानंद श्रीवास्तव ने अपने सृजनात्मक जीवन में काफी कुछ लिखा है. आलोचनात्मक पुस्तकों में ‘नई कविता का परिप्रेक्ष्य’ (1965), ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965), ‘कवि कर्म और काव्य भाषा’ (1975), ‘उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा’ (1976), ‘जैनेंद्र के उपन्यास’ (1976), ‘समकालीनता का व्याकरण’ (1980), ‘समकालीन कविता का यथार्थ’ (1988), ‘शब्द और मनुष्य’ (1988), ‘उपन्यास का पुनर्जन्म’ (1995), ‘कविता का यथार्थ’ (1999), ‘कविता का उत्तर जीवन’ (2005), ‘दूसरा सौंदर्यशास्त्र क्यों’ (2005) उल्लेखनीय हैं. वे आलोचक ही नहीं बल्कि अच्छे कवि भी थे. उनके कविता संग्रहों में ‘उजली हँसी के छोर पर’ (1960), ‘अगली शताब्दी के बारे में’ (1981), ‘चौथा शब्द’ (1993), ‘एक अनायक का वृत्तांत’ (2004), ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (2008) और ‘इस बार सपने में’ (2008) उल्लेखनीय हैं. उनके निबंध संग्रह ‘अँधेरे कुँए से आवाज’ (2005) और ‘सन्नाटे में बारिश’ (2008) तथा 2005 में प्रकाशित उनके साक्षात्कारों की पुस्तक ‘मेरे साक्षात्कार’ उल्लेखनीय हैं. वे अनुवादक भी थे. उन्होंने पाब्लो नेरुदा की 70 कविताओं का अनुवाद भी किया था. इतना ही नहीं साहित्य अकादमी से निराला और जायसी पर उनके दो मोनोग्राफ भी प्रकाशित हो चुके हैं. उनके सफल संपादन में साहित्य अकादमी से ‘समकालीन हिंदी कविता’ (1990) और ‘समकालीन हिंदी आलोचना’ (1998) के संचयन भी प्रकाशित हैं. 

अपनी साहित्यिक यात्रा के बारे में स्पष्ट करते हुए परमानंद श्रीवास्तव ने कहा कि ‘एक लेखक के रूप में मेरी पहली रचना कहानी थी. पत्र शैली में कहानी जो किशोर वय के रागात्मक लगाव से प्रेरित अज्ञात प्रिय को देने के लिए लिखी गई थी. संकोचवश दी नहीं गई. जेब में रखे-रखे सील गई. काश दी होती, तो मैं अपने पहले कहानी संग्रह में शामिल करता. जो नहीं हुआ, अच्छा ही हुआ. एक उम्र का नास्टेल्जिया!’

नए लेखक के लिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण होती है कि उसकी रचना किस पत्रिका में छपी. यदि अपनी रचना के साथ किसी लब्धप्रतिष्ठित हस्ताक्षर की रचना हो तो क्या कहना. ऐसी ही घटना को याद करते हुए परमानंद श्रीवास्तव कहते हैं कि ‘कायदे से मेरी पहली रचना कविता थी, ‘सांझ : तीन चित्र’, एक टटका बिंब शाम का. तब मैं बीए पहले साल में था. ‘नई धारा’ के संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘नई धारा’ में छापी. बगल में प्रतिष्ठित कवि गिरिजाकुमार माथुर की कविता थी. वे बड़े कवि थे - तार सप्तक के कवियों में एक. रूमानी रंग के साथ. जैसे बछड़ा खूँटा तुड़ाकर भागता है, सूरज ऐसे ही औचक ढलता है. यह कस्बाई रंग था. अच्छा लगा. धर्मवीर भारती ने स्वरवेला (आकाशवाणी-इलाहाबाद) में कविता सुनी. सराहा. जगदीश गुप्त ने भी.’

परमानंद श्रीवास्तव कविता के मर्मज्ञ आलोचक थे. उन्होंने ‘कविता का उत्तर जीवन’ शीर्षक पुस्तक की भूमिका में इस प्रकार लिखा है कि ‘देखते देखते कविता को सस्तेपन की ओर, भद्दी तुकबंदियों की ओर और अश्लील मनोरंजन तक सीमित रखने का जो दुष्चक्र सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडे पर है, उसे देखते हुए भी कहा जा सकता है कि कविता की जीवनी शक्ति असंदिग्ध है. यही समय है कि ग़ालिब, मीर, दादू, कबीर भी हमारे समकालीन हो सकते हैं.’ वे मानते हैं कि कविता वस्तुतः शब्दों में और शब्दों से लिखी तो जाती है पर साथ ही अपने आसपास वह स्पेस भी छोड़ती चलती है जिसे पाठक अपनी कल्पना और समय के अनुरूप भर सकता है. प्रमाणस्वरूप उनकी एक छोटी कविता ‘हवाएँ न जाने’ देखें – 

“हवाएँ, 
न जाने कहाँ ले जाएँ. 

यह हँसी का छोर उजला 
यह चमक नीली 
कहाँ ले जाए तुम्हारी 
आँख सपनीली 

चमकता आकाश-जल हो 
चाँद प्यारा हो 
फूल-जैसा तन, सुरभि-सा 
मन तुम्हारा हो 

महकते वन हों नदी-जैसी 
चमकती चाँदनी हो 
स्वप्न-डूबे जंगलों में 
गंध डूबी यामिनी हो 

एक अनजानी नियति से 
बँधी जो सारी दिशाएँ 
न जाने 
कहाँ .... ले ... जा .... एँ ?”

समकालीन युवा लेखकों के समक्ष चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं. इस संबंध में परमानंद श्रीवास्तव ने कहा था कि “समकालीन युवा लेखकों को एक लंबा संघर्ष करना होगा. कई पुरस्कार केवल 35 वर्ष तक के युवाओं के लिए हैं. मैंने ‘आलोचना’ के संपादन से जाना कि पूरन चंद्र जोशी, गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे, भालचंद्र नेमाड़े, अशोक केलकर तो ‘आलोचना’ के लेखक हैं. युवा आलोचकों में अपूर्वानंद, अरुण कमल, राजेश जोशी, आशुतोष, रघुवंश मणि, अनिल राय, भृगुनंदन त्रिपाठी, नीलाभ मिश्र ने अचानक लिखना बंद कर दिया. अपवाद हैं - पुरुषोत्तम अग्रवाल जिन्होंने आलोचना से शुरू किया और ‘अकथ कहानी प्रेम’ की जैसी बड़ी कृति लिखी. या विजय कुमार - आलाचेना के लिए अनिवार्य हो गए. साहित्य आसानी की राह नहीं चलता - वह नए समय की चुनौतियों का सामना करता है।“

ऐसे वरिष्ठ आलोचक और कवि 5 नवंबर 2013 को पंचतत्व में विलीन हो गए. उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए शीर्षस्थ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि “मैंने ही उन्हें ‘आलोचना’ का संपादक बनाया. वर्षों तक उन्होंने मेरे साथ काम किया. वह शरीर से लघु मानव थे लेकिन मन और विचार से बड़े थे.”

कवि डॉ. केदारनाथ सिंह ने कहा कि “एक आलोचक के रूप में उन्होंने नई प्रतिभाओं को आगे बढ़ाने में जो योगदान दिया ऐसा योगदान देने वाला कोई दूसरा आलोचक शायद ही मिले. पूर्वांचल के पिछड़े क्षेत्र से उठकर उन्होंने देश स्तर पर हिंदी साहित्य का सम्मान बढ़ाया।“

कथाकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि ”परमानंद बुनियादी तौर पर एक प्रगतिशील आलोचक थे. हालांकि उन्होंने शुरूआत में कविताएँ लिखी, बाद में उनका मुख्य कार्य आलोचना से रहा.”

आलोचक ए.के.फातमी ने कहा कि “परमानंद श्रीवास्तव से हम लोगों ने वैसे ही सीखा जैसे अकील रिजवी से. वह मानवता, सूफीवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के पोषक थे. वह भारतीय संस्कृति और परंपरा में ढले हुए रचनाकारों की पीढ़ी के प्रतिनिधि थे. उनका जाना प्रगतिशील आंदोलन का बड़ा नुकसान है.”

ऐसे महान साहित्यकार को विनम्र श्रद्धांजलि.