रविवार, 12 जनवरी 2014

स्त्री-पुरुष में द्वैताद्वैत वादी संबंध वांछित है

आज की प्रगतिशील नारी का पुरुषों के प्रति नजरिया

“प्रश्न गाँव औ’ शहरों के तो 
हम पीछे सुलझा ही लेंगे 
तुम पहले कंधों पर सूरज 
लादे होने का भ्रम छोड़ो.

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कैसे हवा उठेगी ऊपर 
तपने पर भी 
कैसे कोई बारिश में भीगेगा हँसकर? 

छत पर आग उगाने वाले 
दीवारों के सन्नाटों में 
क्या घटता है – 
हम पीछे सोचें सलटेंगे 
तुम पहले कंधों पर सूरज 
लादे होने का भ्रम छोड़ो.”
  (कविता वाचक्नवी, मैं चल तो दूँ)

इसमें संदेह नहीं कि आज की स्त्री का पुरुष के प्रति दृष्टिकोण प्राचीन और मध्यकालीन स्त्री की तुलना में बड़ी सीमा तक परिवर्तित हुआ है. यदि प्राचीन भारतीय स्त्री के लिए पुरुष पिता, पति और पुत्र के रूप में ऐसी सुरक्षा की गारंटी था जिसके चलते उसे किसी स्वतंत्रता की आवश्यकता नहीं थी तथा मध्यकालीन भारतीय स्त्री के लिए पुरुष मालिक और परमेश्वर था जिसकी सर्वोपरि इच्छाओं के समक्ष बलिदान हो जाना ही स्त्री की नियति थी और इसे ही वह अपना अहोभाग्य समझती थी; तो इन दोनों प्रकार की मानसिकताओं से आगे बढ़कर आज की प्रगतिशील स्त्री की मानसिकता पुरुष को समता के धरातल पर मित्र और सखा के रूप में स्वीकार करने की मानसिकता है. 

इसमें संदेह नहीं कि रखवाला और मालिक मानकर पुरुष के समक्ष आत्महीनता और आत्मदया से ग्रस्त रहने वाली स्त्रियाँ आज भी हमारे समाज में बड़ी संख्या में हैं. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पुरुष से मैत्रीपूर्ण आचरण की अपेक्षा रखने वाली स्त्री भी इसी पृष्ठभूमि की जमीन तोड़कर पुरातनता के खोल से बाहर निकलकर आ रही है. 

यह प्रगतिशील स्त्री, स्त्री और पुरुष की गैरबराबरी को स्वीकार नहीं करती बल्कि मनुष्य होने के पने अधिकार को पहचानती है. अपने अधिकार की इस पहचान ने उसे आत्मविश्वास और दृढ़ता प्रदान की है. हिंदी साहित्य में यह दृढ़ और आत्मविश्वासी स्त्री प्रेमचंद और प्रसाद के समय से ही दिखाई देने लगी थी - धनिया और ध्रुवस्वामिनी जैसे पात्रो के रूप में. यशपाल के ‘दिव्या’ और ‘दादा कामरेड’ जैसे उपन्यासों में भी प्रगतिशील स्त्री का यह नया चेहरा दिखाई देता है. लेकिन फिर एक दौर ‘नई कहानी’ के जमाने में ऐसी मानसिकता का आया कि तमाम कहानी-उपन्यासों में आधुनिक स्त्री को कुंठित मानसिकता वाली दर्शाया जाने लगा. यह स्वतंत्र भारत के आरंभिक दशकों का वह दौर था जब स्त्रियाँ बड़ी संख्या में घर के बाहर निकल रही थीं और कामकाजी स्त्री के रूप में नया अवतार ले रही थीं. हो सकता है कि मेरी यह बात बहुत प्रामाणिक न हो परंतु मुझे लगता है कि उस दौर के कथाकार स्त्री की इस प्रगति से बड़ी सीमा तक आतंकित और आशंकित दिखाई देते हैं. यही कारण है कि उस दौर में स्त्री की जिस छवि का निर्माण किया गया वह दमित वासनाओं से संचालित थी. परंतु यह छवि सही रूप में प्रगतिशील स्त्री का प्रतिनिधित्व नहीं करती. इसके बाद जब 20वीं सदी के अंतिम दो दशकों में विमर्शों ने जोर पकड़ा तो स्त्री विमर्श के नाम पर भी आरंभ में काफी भ्रमपूर्ण स्थितियाँ सामने आईं. लेकिन धीरे धीरे धुंध हट गई और एक ऐसी प्रगतिशील स्त्री सामने आई जो पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकता चलती ही है, उसकी आँखों में आँखें डालकर देखती भी है और पुराने जमाने की नायिकाओं की तरह मूर्छित नहीं हो जाती. 

जब हम कहते हैं कि पुरुष के संबंध में आज की स्त्री का नज़रिया बदल रहा है तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि वह पति परमेश्वर वाले आतंककारी संबंध से निकलकर पति को सहयात्री के रूप में स्वीकार करती है, मालिक के रूप में नहीं. दरअसल यदि परिवार को लोकतांत्रिक सामाजिक संस्था के रूप में देखा जाए तो स्त्री और पुरुष दोनों ही को परस्पर मालिक और गुलाम मानने की मानसिकता से मुक्त होना होगा. आज की स्त्री चाहती है कि पुरुष समय-असमय अपना ‘पतिपना’ न दिखाया करे. स्त्री को भी गाहेबगाहे प्रतिपल अपना ‘पत्नीपना’ दिखाने की प्रवृत्ति से बाज़ आना होगा. वह ज़माना गया जब पति-पत्नी ‘दो शरीर एक प्राण’ होते थे क्योंकि इस एकप्राणता के लिए दो में से किसी एक को अपना व्यक्तित्व दूसरे के व्यक्तित्व में विलीन करना होता था. आज की स्त्री अपने व्यक्तित्व को इस तरह पुरुष के व्यक्तित्व में विलीन करने के लिए तैयार नहीं है. उसे अपनी स्पष्ट पहचान और परिवार तथा समाज में अपना स्थान व सम्मान चाहिए. भारतीय परंपरा में ‘अर्द्धनारीश्वर’ इस परस्पर पहचान की स्वीकृति का अत्यंत सुंदर और समर्थ प्रतीक है. यह बात भी समझनी चाहिए कि स्त्री-पुरुष दुनिया की दो विपरीत अपूर्ण इकाइयाँ हैं जिन्हें प्राकृतिक संरचना के कारण पूर्णता प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे की जरूरत होती है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. ऐसी स्थिति में विचारों के स्तर पर भेद को सहन करना सीख लेना ज्यादा अच्छा होगा. हाँ, इन स्थितियों के आधार पर यह तो कहा ही जा सकता है कि पति-पत्नी ‘दो शरीर एक प्राण’ नहीं बल्कि ‘दो शरीर और दो प्राण’ ही होते हैं. (नीलम कुलश्रेष्ठ, परत दर परत स्त्री, पृ. 77). अभिप्राय यह है कि स्त्री को ‘मानव’ के रूप में स्वीकृति चाहिए. यह स्वीकृति पुरुष के प्रति स्त्री के दृष्टिकोण को भी बदलने और व्यापक बनाने वाली साबित होगी, इसमें संदेह नहीं. 

आज की प्रगतिशील नारी यह समझ चुकी है कि उसकी पुरुष के साथ प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा नहीं है. उसे शिकायत है तो पुरुष के मालिकाना और अहंवादी व्यवहार से है. अधिकतर घरेलू ही नहीं कामकाजी स्त्रियां भी यह महसूस करती हैं कि पुरुष स्त्री के श्रम से लेकर धन तक और प्रेम से लेकर संतान तक सब कुछ को लेता तो अपना अधिकार समझकर है, लेकिन देने की बात आती है तो घर खर्च के कुछ रुपए देते वक्त भी उसका अंदाज ऐसा होता है जैसे स्त्री को खैरात दे रहा हो. ‘यदि पुरुष अपने अहं से निकलकर सिर्फ अपनी मानसिकता बदल लें तो सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी.’ (वही, पृ. 159).

यही कारण है कि आज दुनिया के हर कोने में औरतें यही चाह रही हैं कि पुरुष अपनी मानसिकता बदलें. जिन्होंने अपनी मानसिकता को बदल लिया है वे निश्चित ही स्वस्थ संबंधों और सभ्य समाज की नई इमारत बना रहे हैं. 

अंत में एक बात की ओर इशारा जरूरी है कि प्रगतिशीलता के कारण जो तनाव और संघर्ष पैदा हुए हैं उनमें ‘जो पिछली पीढ़ी के जीवन की सर्वोत्तम निधि नष्ट हुई है वह है स्त्री-पुरुष के बीच के आकर्षण का सौंदर्यबोध व आपसी सहज संबंध. दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पर वार एवं प्रतिवार करते रह गए हैं.’ (वही, पृ. 160). आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे को पूर्ण मानव माने तथा एक दूसरे की भावनाओं और संवेदनाओं का सम्मान करें. ऐसा होगा तो आनेवाला समय निश्चय ही मंगलमय होगा. स्त्री के मुक्त होने या मानव के रूप में पहचाने जाने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि स्त्री पुरुष के बीच के मधुर संबंध को नकार दिया जाए. दरअसल दोनों एक-दूसरे से द्वैताद्वैत वादी संबंध की उम्मीद रखते हैं. यानी हमारा अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी हो और हम एक-दूसरे के होकर भी रहें. ऐसी स्तिथि में ‘दोनों अपनी अपनी स्वायत्तता में दूसरे का अनन्य रूप भी देखेंगे. संबंधों की पारस्परिकता और अन्योन्याश्रितता से, चाह, अधिकार, प्रेम और आमोद-प्रमोद के अर्थ समाप्त नहीं हो जाएँगे और न ही समाप्त होंगे दो संवर्गों के बीच से शब्द देना, प्राप्त करना, मिलन होना; बल्कि दासत्व जब समाप्त होगा और वह भी आधी मानवता का, तब व्यवस्था का यह सारा ढोंग समाप्त हो जाएगा तथा स्त्री-पुरुष के बीच का विभेद वास्तव में एक महत्वपूर्ण नई सार्थकता को अभिव्यक्त करेगा.’ (सिमोन द बोउवार, स्त्री : उपेक्षिता).

(चेन्नई के अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (11.1.14) में प्रस्तुत शोधपत्र.)

2 टिप्‍पणियां:

Kavita Vachaknavee ने कहा…

मेरी काव्य-पंक्तियाँ और भी सार्थक हुईं कि उनका उपयोग इस प्रकार किया गया !
धन्यवाद ।

अच्छा परिपत्र है।
बधाई।

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

बहुत सटीक उदाहरणों से विषय को स्पष्ट करता हुआ लेख.लेख पढ़ते समय मुझे 'अत्तारिन्टिकी दारेदी' तेलुगु फिल्म की कहानी याद आ रही थी. चित्र भी एकदम सही चुना है.बधाई.