'शब्द सुगंध' के तत्वावधान में 20 जनवरी 2014 को राजस्थानी स्नातक संघ (हैदराबाद) के प्रेक्षागार में अमेरिका से पधारे पाकिस्तान मूल के वरिष्ठ साहित्यकार अशरफ़ गिल की उर्दू गज़लों के हिंदी रूपांतर को प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने लोकार्पित किया. इस अवसर पर उन्होंने विस्तार से अशरफ गिल की गज़लों के कथ्य, शिल्प और काव्यभाषा का विवेचन किया. उन्होंने पाँच श्रेणियों में बाँटकर कवि के कुछ शेरों को उदाहरण के रूप में भी पेश किया जिन्हें पाठकों के रसास्वादन के लिए यहाँ उद्धृत किया जा रहा है.
अशरफ गिल के
चुनिंदा अशआर
मुहब्बत
तुझे वो पेश मुहब्बत, करूँ करूँ न करूँ
- जो बस रही है कसक बनके मेरे सीने में
तो पानी को भी इस ने प्यासा किया है
- ज़रा इस ने देखा जो दरिया की जानिब
इश्क की गरचे है कीमत ज़िंदगी
- इश्क से ‘अशरफ़’ ना घबराया कोई
सितम से तिरे दिल को आराम आए
- खुदा रा ! न तुम अपनी आदत बदलना
तूने दरखशां कर दिए मेरी गली के रास्ते
- सुनसान थे वीरान थे आमद से तेरी पेशतर
हर आशिक़ ने जान गंवाई फिर भी मुहब्बत रास न आई
- ‘अशरफ़’ इस दुनिया की रस्में करते करते अपने बस में
तुझे भूलने की लगन में भी, कई दर्द सीने में पल गए
- तुझे याद करने के शौक में, कई रोग जां को लगा लिए
मिरी यादों की बस्ती में बसी अक्सर गलतफ़हमी !
- हमेशा अश्क ख़्वाहिश जुस्तजू की आड़ में ‘अशरफ़’
ज़िन्दगानी मिरी मुसकुराई न थी
- व आप से जब तलक आशनाई न थी
वो लोग इबादत से मुहब्बत नहीं करते
- जो लोग मुहब्बत की इबादत नहीं करते
जो किसी ने मुझसे बुरा किया, मेरे वास्ते वो भला हुआ
- यहाँ यार कोई भी जब मिला, वो मिला के हाथ जुदा हुआ
रोज़ बढ़ता है, कम नहीं होता
- इश्क का नाम दूसरा है जुनून
व्यक्ति
आदमी ! आज की ख़बर ही नहीं
- उसकी हर पल नई कहानी है
उसको अपना मकान कहते हैं
- कल तलक जिस में रह न पाएँगे
मगर फिर भी मुसलसल चल रहा हूँ
- अगरचे चलते-चलते थक गया हूँ
मिरी ज़बान को पाबंदियों से कसते हैं
- ज़रूरतों से मुझे बांध कर जहाँ वाले
हमवार यारों ने किए बेगानगी के रास्ते
- दुश्मन बनाने को हमें कोशिश नहीं करना पड़ी
और यकीं से उठ रहा सभी का एतबार है
- दोस्ती को पड़ रही हैं दुश्मनी की आदतें
इंसान का जो ऊंचा, मेयार न कर पाए
- वो इश्क है बे मतलब, वो प्यार है बे मानी
जिस से भी सलीके या शराफ़त से मिलेंगे
- मालूम न था हम पे ही तनकीद करेगा
समाज/
राजनीति
दिलों की धरती हसीन तर है, दिलों का नक्शा बदल के देखें
- जो मुल्क ऐटम बना रहे हैं, वुह मुफ़लिसी को बढ़ा रहे हैं
जिसमें हो हर आदमी ही आदमी से डर गया?
- ऐसी नगरी में भला कैसे रहें क्योंकर रहें
लेकिन रवां अल्लाह की जानिब सभी के रास्ते
- कितने मज़ाहिब मुखतलिफ है मुखतलिफ सब की रविश
गर हंसी आए मुसकाइए
- पास रखिए, ना यह नेमतें
सोचकर हाथ पकड़ाइए
- पकड़िए हाथ भी सूझ से
तभी हुकूमती दरबारियों की ज़द में हूँ
- मैं वोट मर्ज़ी के इक रहनुमा को दे बैठा
तभी मैं रोज़ ही बमबारियों की ज़द में हूँ
- मैं कर्बला हूँ जो प्यासों को पानी दे ना सका
सतरों के बदन छलनी अलफ़ाज़ के सर ज़ख्मी
- अखबार की हर सुर्खी यूँ सुर्ख लगे हर दिन
एक तराज़ू को भी तलवार बना के छोड़ा
- खोखली ऐसी हुकूमत की जड़ें हैं जिसने
बदले में मासूमों की जो मासूमियत जाती रही
- हथियार हथिया लो मगर कर पाओगे वापिस कभी?
पसीना बस ग़रीबों ने बहाना था
- तिजोरी थी अमीरों की भरी जानी
चारों तरफ़ फ़ज़ाओं में बारूद है यहाँ
- इनसान का तो साँस भी लेना मुहाल है
पर यहाँ भूख से मरते है न जाने कितने
- ऐटमी मुल्क का सोचें जो ये खुशहाल लगे
जिंदगी
जानता गर तेरी बाबत ज़िंदगी
- तुझ को बच्चों से भी मैं रखता अज़ीज़
जो बिखर गई ना सिमट सकी, वही आप लोगों के नाम है
- वही ज़िन्दगानी मिरी हुई, मेरे हुक्म पर जो चली रुकी
बस आना जाना होता है
- एक खेल है जीना मरना भी
माँ बन के ख़ौफ़ दिल से मिटाती है ज़िन्दगी
- रो ज़ाना बाप बनके डराती है ज़िन्दगी
कथन
भंगिमा
पौ फटे जैसे अंधेरा रोशनी से डर गया
- वह मेरे इज़हार-ए-उलफ़त पर यूं घबरा से गए
अक्सर आँखें तर करता हूँ
- याद की खेती सूख न जाए
दीया हूँ ! बुझ रहा हूँ जल रहा हूँ
- मैं आंधी और अंधेरे का हूँ साथी
कि मैं इंसान हूँ माँ की दुआ हूँ?
- खुदा भी मुसतरद कैसे करेगा
तू मगर मुझ से से फ़ासिला माँगे
- चाहता हूँ मैं तेरी नज़दीकी
आप नज़रों से अगर सहलाइए
- मेरी आँखों की चुभन शायद हो कम
रंग हैं अनमोल यकता ज़ायका मौजूद है
- सुन के या पढ़ के ही जानोगे मेरे अशआर में
आइए जाइए आइए जाइए
- महफ़िल-ए-गिल में जब जी करे
जो सुझाई क्या, दिखाई भी नहीं देता है
- प्यार तूफ़ान है आंधी है गरजता बादल
ये तो खुदफ़रेबी का खेल था, जो हम आसरों से बहल गए
- न तिरी वफ़ा थी नसीब में, न तिरी नज़र का करम हुआ
जिससे आँख मिलाएं आँसू
- उस की आँखें तरकर डालें
तुम्हारे रूठ जाने से तो थी बेहतर गलतफ़हमी !
- जता के प्यार तुम को कर लिया नाराज़, उफ़ तौबा !
मेरी बारी है तो अब रात हुई जाती है
- अपनी मर्ज़ी से हुआ शहर में सूरज तकसीम
दिल पर जुरमाना होता है
- आँखों की ख़ताओं के बदले
क्या ख़ूब ज़माना होता है
- जिस उम्र में आँखें मिलती हैं
सांस ! जो मकान-ए-जिस्म में किराएदार है
- एक दिन ये ख़ामुशी से घर को छोड़ जाएगी
ज़माने को इसी दम ही रुलाना था
- मिरा जिस वक्त हँसने का ज़माना था
हमारी किस्मतों पर है फकत तेरा इजारा
- खिलौनों की तरह पाबंद हम तेरी रज़ा के
फिर ज़रूर एक हादसा कीजे
- प्यार है हादसे का नाम अगर
कभी उलझनों में खुदा याद आया
- कभी गम में माँ याद आयी है ‘अशरफ़’
कविता
आएंगे जब वो बज़्म में होगी गज़ल तमाम
- होता रहेगा खुद-बखुद अशआर का नुज़ूल
जो ख़ासो आम से नहीं होता है हमकलाम
- ‘अशरफ़’ कुबूलियत नहीं पाता वही कलाम
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