सोमवार, 1 नवंबर 2010

गुरुजाडा वेंकटअप्पाराव और कालजयी नाटक ‘कन्याशुल्कम्‌’



"देशमुनु प्रेमिंचुमन्ना,
मंचि यन्नदि पेंचुमन्ना।
वट्टि माटलु कट्टि बेट्टोया,
गट्टि मेल्‌ त‍लबेट्टवोया॥"
(देश से प्यार करो,/ अच्छाई को बढ़ाओ।/ झूठे आश्‍वासन देना बंद करो,/ आचरण करना सीखो।)

आधुनिक तेलुगु साहित्य में कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु के बाद कालजयी नाटक ‘कन्याशुल्कम्‌’ (कन्याशुल्क) के रचनाकार गुरुजाडा वेंकटअप्पाराव को युग प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्‍त कन्याशुल्क, बाल विवाह, वेश्‍यावृत्ती, सती प्रथा, अनमेल विवाह और वृद्ध विवाह जैसी सामाजिक विद्रूपताओं के उन्मूलन हेतु अपनी आवाज बुलंद की।

गुरजाड का जन्म 21 सितंबर, 1861 को विशाखपट्टनम जिले के रायवरम्‌ गाँव में हुआ। 1886 में विजयनगर महाराजा डिग्री कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्‍त की। तत्पश्‍चात्‌ उन्होंने विजयनगर डिप्टी कलेक्‍ट्रेट के कार्यालय में क्लर्क के रूप में कार्यभार संभाला। लेकिन उनकी रचनाशीलता और साहित्यिक प्रतिभा से अवगत विजयनगर साम्राज्य के संस्थानाधीश राजा आनंदगजपति ने विजयनगर कॉलेज में अंग्रेज़ी प्राध्यापक के रूप में उन्हें नियुक्‍त किया। गुरजाडा ने अध्यापक के रूप में भी विशेष ख्याति अर्जित की।

गुरजाडा के समय में आम जनता की स्थिति दयनीय थी। चारों ओर सामाजिक विसंगतियाँ विकराल रूप धारण किए हुए थीं। उन परिस्थितियों से उद्वेलित होकर उन्होंने ‘कन्याशुल्कम्‌’ नाटक का सृजन किया। इस नाटक को लिखने के पीछे निहित मूल उद्‍देश्‍य को उन्होंने स्वयं स्पष्‍ट किया है - "श्रीमान विजयनगर के महाराजा के आदेश पर विशाखपट्टनम के ब्राह्‍मण परिवारों में जितने विवाह हुए, उनकी तालिका दस वर्ष पहले तैयार की गई थी। संबंधित व्यक्‍ति कन्याशुल्क लेने की बात स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। इसलिए वह तालिका पूर्ण नहीं हुई। फिर भी, वह तालिका एक कीमती और दिलचस्प दस्तावेज बन गई। प्रमाणित विवाहों की संख्या 1084 तक पहुँच गई जिसका औसत प्रति वर्ष 344 पड़ता है। इनमें निन्यान्वे बालिकाएँ उम्र में पाचँ वर्ष की, 44 बालिकाएँ चार वर्ष की, 36 लड़कियाँ तीन वर्ष की, 6 लड़कियाँ दो वर्ष की और तीन लड़कियाँ एक वर्ष की थीं जब वे विवाह के सूत्र में बंध गईं। प्रत्येक के लिए रु.350/- से लेकर रु.400/- तक का मूल्य कन्याशुल्क के रूप में लिया गया। यह सुनकर आश्‍चर्य होगा कि कभी कभी गर्भस्थ शिशुओं के लिए भी मोल-तोल किया जाता था। यह निंदनीय है। समाज के लिए अपमानजनक है। ऐसी कुरीतियों की ओर इशारा करने और नैतिक आदर्शों का प्राचार करने से बढ़कर साहित्य का और कोई प्रयोजन नहीं है। साधारण जनता जब तक पढ़ी-लिखी नहीं होती, तब तक उसे प्रभावित करने के लिए रंगमंच को छोड़कर और कोई साधन नहीं है। इन्हीं विचारों ने मुझे ‘कन्याशुल्क’ नाटक लिखने की प्रेरणा दी।" (गुरजाडा वेंकटअप्पाराव, ‘कन्याशुल्कम्‌’, भूमिका (प्रथम संस्करण)

आधुनिक तेलुगु साहित्य के प्रथम दृश्‍य काव्य ‘कन्याशुल्कम्‌’ को गुरजाडा ने 1892 में लिखकर मंचित कराया था। 1897 में इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ। 118 सालों के बाद भी तेलुगु साहित्यिक क्षेत्र में इस नाटक की लोकप्रियता अप्रतिम है। गुरजाडा ने इतिवृत्तात्मकता को तोड़कर बोलचाल की भाषा का जीवंत रूप अंकित किया है। इस संबंध में उन्होंने स्वयं कहा है कि "मैंने इस नाटक की रचना बोलचाल की भाषा में की। केवल इसलिए नहीं कि साहित्यिक भाषा की अपेक्षा सामान्य जनता की समझ में आएगी बल्कि इस विश्‍वास से कि यह तेलुगु में हास्यरस की शैली के लिए उपयुक्‍त है।... यह आक्षेप किया जाता है कि ग्राम्य भाषा का प्रयोग साहित्यिक रचना के गौरव का नाश कर डालता है। लेकिन यह ऐसी आलोचना है जिसकी ओर आजकल किसी को ध्यान देने की आवश्‍कता नहीं है। प्राचीन भाषाओं के वैयाकरणों की इच्छा-अनिच्छाओं को छोड़कर भाषाविज्ञान के विकास ने ग्राम्य भाषा की उपयोगिता को सही सिद्ध किया है।"(वही)

लेखक ने इस कालजयी नाटक की रचना तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप की हैं। इस संदर्भ में निडदवोलु वेंकटराव का कथन द्रष्‍टव्य है - "कन्याशुल्कम्‌ केवलम्‌ नाटकमे कदु, इदि तेलुगु प्रजला राजनैतिका, सामाजिका, सांस्कृतिका जीवितानिकी निलुवुटद्‍दम्‌। वर्तमाना समाजमुलो नाटुकुपोयिना सांघिका दुराचाराले काका स्वदेशी मरियु विदेशी संस्कृतला मध्या संघर्षनवल्ला उत्पन्नैमैना सामाजिक परिस्थितुला तो पाटु चरित्रनु निरूपिंचे निघंटुवु। सामान्य वाडुका भाषालो रचिंचिनंदुना ये पद्‍यमु व्यर्थमु कादु।" ((सं) आचार्य नागभूषण शर्मा, डॉ.एटुकूरी प्रसाद; कन्याशुल्कम्‌:नूरेल्ला समालोचना; पृ.782-783)। {‘कन्याशुल्कम्‌’ नाटक महज नाटक नहीं है, बल्कि वह तेलुगु जनता की राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का प्रतिबिंब है। वर्तमान समाज में जड़ें जमा चुकी विसंगतियों के साथ साथ भारतीय और पाश्‍चात्य संस्कृतियों के बीच द्वन्द्व के फलस्वरूप उत्पन्न सामाजिक परिस्थितियों और इतिहास को उजागर करनेवाला ज्ञान कोश है। सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग होने के कारण इसमें प्रयुक्‍त शब्द व्यर्थ नहीं है।}।

स्मरण रहे कि भारतीय संस्कृति में पत्‍नी के देहांत के बाद वयोवृद्ध ब्राह्‍मण धार्मिक अनुष्‍ठान संपन्न नहीं कर सकते हैं। अतः वे लोग किसी अल्प आयुवाली कन्या के माता-पिता को धन का प्रलोभन देकर विवाह करते थे। शुल्क अदा करके कन्याओं को विक्रय करने की कुप्रथा उस समय के समाज में आम बात थी। विशेष रूप से यह प्रथा आंध्र प्रदेश के विशाख और गोदावरी जिले में प्रचलित थी। फलस्वरूप बाल विवाह और बाल विधवाओं की समस्याएँ चारों ओर व्याप्‍त थीं। गुरजाडा ने ‘कन्याशुल्कम्‌’ नाटक में इन्हीं समस्याओं का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है। गुरजाडा के इस नाटक के पात्र अग्निहोत्रावधानी, लुब्धावधानी, वेंकटेशम्‌, गिरीशम्‌, वेंकम्मा, बुच्चम्मा, मधुरवाणी आदि तेलुगु जनमानस में घर कर बैठ गए हैं।

धनलोभी अग्निहोत्रावधानी अपनी बड़ी बेटी बुच्चम्मा की शादी एक बूढ़े से कर देता है। वह कुछ ही दिनों में विधवा हो जाती है। इतना होने के बावजूद पिता अपनी दूसरी बेटी की शादी सत्तर वर्षीय लुब्धावधानी से करने को तैयार हो जाता है। उसकी पत्‍नी वेंकम्मा उसे धमकाती है कि वह आत्महत्या कर लेगी पर अग्निहोत्रावधानी टस से मस नहीं होता। तत्कालीन समाज में ऐसे लोभी अनेक थे जिन्हें केवल पैसों का मोह था। वास्तव में इस नाटक में ऐसे लोगों पर लेखक ने प्रहार किया है।

गिरीशम्‌ ढ़ोंगी, धोखेबाज और मक्कार व्यक्‍ति है जो अपनी अधकचरी अंग्रेज़ी जानकारी से सब को आकर्षित करने का प्रयास करता रहता है। वह बुच्चम्मा की ओर आकर्षित होता है और उसे अपने मोहजाल में फँसाने की कोशिश करता रहता है। शेक्सपीयर की कविताओं का अनुसरण करते हुए वह वेंकटेशम्‌ को निम्नलिखित कविता सुनाता है - "I love the widow - however she be,/ married again or single free/ Bathing and praying/ or frisking and playing/ A model of saintliness,/ or model of calmliness,/ what were the Earth,/ But for her birth?/ The Widow!" (गुरुजाडा अप्पाराव, कन्याशुल्कम्‌, पृ.40)। अंततः वह बुच्चम्मा को भगाकर जाता है। लेखक ने गिरीशम्‌ के माध्यम से यह निरूपित किया है कि ढोंगी, धोखेबाज और अर्द्धशिक्षित व्यक्‍तियों से समाज को खतरा है। इस पात्र के मुख से लेखक ने जो ‘पंच लाइन, (Punch Line) कहलवाई है- "डामिट कथा अड्डम तिरिगिंदि" (डैमिट कहानी उलट गई), वह आज भी तेलुगु जनता के मुख से अनायास ही फूट पड़ती है। धूम्रपान करना युवाओं के लिए फैशन बन चुका है, अतः गिरीशम्‌ कहता है कि "प्रोगा त्रागनिवाडु दुन्नै पुट्टुनु" (धूम्रपान न करनेवाला बैल के रूप में जन्म लेगा)। पीनेवालों के लिए तो बस बहाना चाहिए। इसलिए गिरीशम्‌ कहता है कि "इसके धुँए के सामने गुग्गुल, अगरबत्तीए आदि किस काम के? लाओ तंबाकू...(सूँघकर) वाह, बढ़िया तंबाकू है। सचमुच कंट्री लाइफ में मज़ा है, बेस्ट टुबाको, बेस्ट दही, बढ़िया घी, इसलिए पोयट्स ‘कंट्री लाइफ, कंट्री लाइफ’ कहकर, उसके लिए तड़पते रहते हैं।" (गुरजाडा अप्पाराव, ‘कन्याशुल्कम्‌’; हिंदी अनुवाद; पृ.39)|

तत्कालीन समाज में व्याप्‍त वेश्‍यावृत्ति का भी यथार्थ चित्रण इस नाटक में उपल्ब्ध है। मधुरवाणी के माध्यम से गुरजाडा ने वेश्‍या जीवन की वास्तविकता को उजगर किया है। कोई स्त्री जन्मजात वेश्‍या नहीं होती। परिस्थितियों के कारण मजबूर होकर उसे कभी कभी इस गर्त में डूबना पड़ता है। इसके लिए समाज ही गुनहगार है। लेखक ने एक ओर वेश्‍यावृत्ति पर कुठाराघात किया है और दूसरी ओर यह भी दर्शाया है कि वेश्‍याओं में भी नैतिक मूल्य होते हैं। उन्होंने मधुरवाणी के माध्यम से अपने विचार व्यक्‍त किए हैं कि ‘चाहे स्त्री हो या पुरुष, दोनों में नैतिकता होना अनिवार्य है।’

भाषा की दृष्‍टि से भी यह नाटक अत्यंत समृद्ध है। इसमें विशाखपट्टनम्‌ और विजयनगर जिले में प्रयुक्‍त आंचलिक भाषा का प्रयोग पाया जाता है। इसमें वैदिक ब्राह्‍मणों की भाषा और सामन्य जनता की व्यावहारिक भाषा का समन्वय रूप है।

‘कन्याशुल्कम्‌’ की प्रासंगिकता को देखकर अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया है -

कन्नड - 1930 - के.कृष्‍णय्यम्‌ जी
तमिल - 1964 - एम.जगन्नाथ राज
हिंदी - 1987 - एम.बी.वी.आर.शर्मा
हिंदी - 199 - डॉ.भीमसेन निर्मल
फ्रेंच - 1960-61 - हेन्नी हेन्री आल्बर्ट
रूसी - 1962 - पेर अनिचेवा अग्रानिन
अंग्रेज़ी - 1964 - एस.एन.जयंती
अंगेज़ी - 1976 - एस.जी.मूर्ति, के.रमेश (संक्षिप्‍त रूप)

गुरजाडा अप्पाराव नाटककार के साथ साथ सफल कवि और कहानीकार भी हैं। उनकी कविताओं में मानव, पूर्णम्मा, मुत्यालासरालु (मोतियों के हार), नीलगिरि पाटलु (1909, नीलगिरि के गीत), कासुलु (1910, पैसे), देशभक्‍ति (1910), सारंगधर काव्य, सत्यवती शतकम्‌ (सत्यवती शतक), उमापति अर्चना (1911, उमापति (शिव) की अर्चना), कन्यका (1912,कन्या), सुभद्रा (1913-14) आदि उल्लेखनीय हैं। कहानियों में दिद्‍दुबाटु (सुधार), मेटिल्डा, संस्कर्ता हृदयमु (समाज सुधारक का हृदय), मी पेरेमिटि (आपका नाम क्या है) और पेद्‍द मसीदु (बड़ा मस्जिद) आदि सम्मिलित हैं।

आधुनिक तेलुगु साहित्य के युगप्रवर्तक गुरजाडा वेंकटअप्पाराव का निधन 30 नवंबर, 1915 को हुआ। लेकिन आज भी वे तेलुगु जनता के हृदय में गिरीशम्‌ और मधुरवाणी जैसे पात्रों के माध्यम से अमर हैं।

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं : ‘अम्न का राग’



मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
जीवन;
कण समूह में हूँ मैं केवल
एक कण!
- कौन सहारा!
मेरा कौन सहारा!" (शमशेर; ‘लेकर सीधा नाम’; कुछ कविताएँ; पृ.17)।

शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 -12 मई,1993) ने प्रगतिशील कविता को एक नया आयाम दिया है। वे कम्यूनिस्ट आदर्शों से अपने आपको प्रभावित मानते हैं। उन्होंने स्वयं कहा है कि "बनारस में शिवदान सिंह चौहान के सत्संग से सहित्य के प्रगतिशील आंदोलन में कुछ दिलचस्पी पैदा हुई। सन्‌ 45 में ‘नया साहित्य’ के संपादन के सिलसिले में बंबई गया। वहाँ कम्यूनिस्ट पार्टी के संगठित जीवन में, अपने मन में अस्पष्‍ट बने हुए सामाजिक आदर्शों का मैंने एक बहुत सुंदर सजीव रूप देखा।" (डॉ.सूर्यप्रकाश विद्‍यालंकार; सप्‍तक त्रय : आधुनिकता एवं परंपरा; पृ.183)।

शमशेर ने लौकिक जीवन के अनेक रंगों और मानव हृदय की भावनाओं को अपनी कविता में उकेरा है। उन्होंने सूक्ष्मतम संवेदनाओं और अनुभूतियों की कभी उपेक्षा नहीं की। इतना ही नहीं उन्होंने चित्रकला, संगीत और स्थापत्य के उपकरणों का भी कविता में प्रयोग किया है। शमशेर ने एक अनूठी शैली विकसित की जिसे ‘शमशेरियत’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने शब्द को साकार रूप दिया। अपनी रचना शैली पर पड़े विभिन्न कवियों के प्रभाव के संबंध में उनका कहना है कि "फिर भी जो रचना शैली मैं सन्‌ 39 से अपनाता चला आया था उसको कोशिश के बावजूद भी सीधा स्पष्‍ट और स्वस्थ रूप नहीं दे सका, हालांकि बंबई आने के बाद ‘नए पत्ते’ के निराला, ‘वक्‍त की आवाज’ के जोश, चंद्रभूषण त्रिवेदी, रामकेर, माया काव्स्की और लोर्का मेरे आदर्श बन गए थे। मेरी शैली पर निराला के अलावा एक के बाद एक बाद और घुल मिलकर भी, इन कवियों की शैली का जिनकी दो-चार आठ-दस कविताएँ मैंने पढ़ ली थीं, काफी असर था, शायद इसलिए कि अपनी भावनाओं की भाषा मुझे एकदम इनमें मिल गई : वर्ले (अनुवाद में), लारेंस, इलियट, पाउंड, कर्मिंग्स, हापकिंस, ईडिथ, सिटवेल, डायलन टामस। ...तथा पंत ने मुझे पहले कविता की भाषा दी।" (वही; पृ.184)।

शमशेर ने अपनी कविताओं में जन आंदोलनों को एक नया रूप देना का प्रयास किया है। वे कहते हैं कि "कला का संघर्ष समाज के संघर्ष से एकदम कोई अलग चीज़ नहीं हो सकती और इसलिए आज इन संघर्षों का साथ दे रहा है। सभी देशों में बेशक यहाँ भी, दरअसल आज की कला का असली भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलनों में हिस्सा ले रहे हैं। टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि, उस भेद को जहाँ वह है वहीं से पा सकते हैं, वे उसको पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" (डॉ.धनंजय वर्मा, ‘शमशेर : आधुनिकता का समावेशी चरित्र’; (सं) विश्‍वरंजन, ठंडी धुली सुनहरी धूप; पृ.92)। शमशेर का यह आत्मसंघर्ष इन काव्य पंक्‍तियों में मुखरित है - "वाम वाम वाम दिशा,/ समय साम्यावादी।/ पृष्‍ठभूमि का विरोध अंधकार - लीन। व्यक्‍ति .../ कुहास्पष्‍ट हृदय-भार, आज हीन।/ हीनभाव, हीनभाव/ मध्यवर्ग का समाज, दीन।/ पथ-प्रदर्शिका मशाल/ कमकर की मुट्ठी में किंतु उधर :/ लाल-लाल/ वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में / पथ प्रदर्शिका मशाल।" (‘वाम वाम वाम दिशा’; कुछ और कविताएँ)।

मध्यवर्गीय समाज की स्थिति दीन-हीन है। इस समाज की मुक्‍ति सिर्फ साम्यवाद में ही निहित है। लाल मशाल जो कामगार की मुट्ठी में है वही मार्ग प्रशस्त करेगी। मार्क्स ने भी कहा था कि "Proletariat alone is a really revolutionary class." (Karl Marx, Friedrich Engles; The Communist Manifesto; Pg. 11)। इसी भाव को शमशेर ने अपनी कविता ‘वाम वाम वाम दिशा’ में व्यक्‍त किया है।

इसी तरह शमशेर ने मजदूर की वास्तविक स्थिति को ‘बात बोलेगी’ में अंकित किया है। इतना ही नहीं उन्होंने समाज और लोगों की स्थिति को उजागर करते हुए लिखा है कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।" वे आगे यह प्रश्‍न करते हैं कि जब हमारी दृष्‍टि ही झूठी है तो देखने से क्या होगा - "सत्य का मुख/ झूठ की आँखें/ क्या - देखें!" वे यह भी प्रश्‍न करते हैं कि "सत्य का/ क्या रंग है?"

शमशेर के अनुसार एकमात्र सत्य यही है कि जनता का दुःख एक है। आर्थिक विषमता ही वसतुतः सत्य का रंग है _ "एक - जनता का/ दुःख एक।/ हवा में उड़ती पताकाएँ/ अनेक।" मजदूर के घर की वास्तविक स्थिति भी यही होती है - "दैन्य दानव : काल/ भीषण क्रूर/ स्थिति कंगाल। बुद्धि; घर मजूर।"

कार्ल मार्क्स ने आवाज दी "The Proletarians have nothing to lose but their chains. They have world to win. Working men of all countries, Unite!" (Karl Marx, Friedrich Engles; Th Communist Manifesto; pg. 121)। इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए शमशेर कहते हैं कि अगर दुनिया के मजदूर एक नहीं होंगे तो उनके स्वातंत्र्य की इति समझनी चाहिए क्योंकि स्वतंत्रता के लिए एकता अनिवार्य है - "एक जनता का - अमर वर :/ एकता का स्वर।/ -अन्यथा स्वातंत्र्य - इति।"

शमशेर बौद्धिक स्तर पर मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित है। उनकी कविताओं में मार्क्स के विचारों के साथ साथ कला, प्रेम और प्रकृति के विविध रंग विद्‍यमान है। विजयदेव नारायण साही ने शमशेर की काव्य कला के संबंध में कहा है कि "तात्विक दृष्‍टि से शमशेर की काव्यानुभूति सौंदर्य की ही अनुभूति है। शमशेर की प्रवृत्ति सदा की वस्तुपरकता को उसके शुद्ध और मार्मिक रूप में ग्रहण करने में रही है। वे वस्तुपरकता का आत्मपरकता में और आत्मपरकता का वस्तुपरकता में आविष्‍कार करनेवाले कवि हैं, जिनकी काव्यानुभूति बिंब की नहीं बिंबलोक की है।" (शैलेंद्र चौहान; ‘शमशेर की कविता : क्लासिकल ऊँचाई की कविता है’; (सं) विश्‍वरंजन; ठंडी धुली सुनहरी धूप; पृ.248)।

शमशेर ने अपनी काव्यानुभूति के बारे में स्पष्‍ट करते हुए स्वयं कहा है कि "एक दौर था जब मैं ऐसी (रूमानी भावबोध से युक्‍त) चीजें लिखने के लिए अधिक उत्सुक था, उसके लिए अपने अंदर काफी प्रेरणा महसूस करता था। पर अपेक्षित स्तर मुझे सदा अपने कवि-व्यक्‍तित्व की पहुँच से ऊँचा और असंभव-सा महसूस होता। फिर भी मैंने अपनी प्रेरणाओं को कुछ ऐतिहासिक सत्यों से जोड़ने की, उनके मर्म को अपनी धड़कन के साथ व्यक्‍त करने की कोशिश कीं ... फिर भी मैं दोहरा कर कहना चाहूँगा कि जहाँ तक वह मेरी निजी उपलब्धी है, वहीं तक मैं उन्हें दूसरों के लिए भी मूल्यवान समझता हूँ।" (शमशेर; कुछ और कविताएँ; भूमिका)।

कलासृजन, संरचना और शिल्प की दृष्‍टि से शमशेर की लंबी कविता ‘अम्न का राग’ उल्लेखनीय है। इसमें कवि ने समाजशास्त्रीय संबंधों को बखूबी उकेरा है। इस कविता में उन्होंने दो राष्‍ट्रों की संस्कृतियों को प्रतिबिंबित किया है। बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने वैश्‍विक दृष्‍टिकोण को उभारा है। शमशेर शोषण, हिंसा और युद्ध का विरोध करते हैं और यह चाहते हैं कि सर्वत्र शांति कायम हो। उन्होंने अपनी इस लंबी कविता ‘अम्न का राग’ की शुरुआत में ही बसंत के नए प्रभात की ओर संकेत किया है - "सच्चाइयाँ/ जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं/ हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उनमुक्‍त नाचते/ परों में झिलमिलाती रहती हैं/ जो एक हजार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है/ उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ/ कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।" छायावादी सौंदर्यबोध से अनुप्राणित प्रतीत होनेवाले इस काव्यांश में कवि ने प्रतीकों के माध्यम से सत्य और शांति को उजागर किया है।

शमशेर देश की सीमाओं को अतिक्रमित करते हुए कहते हैं कि - "ये पूरब-पश्‍चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं/ मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द लपेट लिया।" शमशेर भारतीय एवं पाश्‍चात्य संस्कृतियों को अपनी आत्मा मानते हैं। उनक दृष्‍टिकोण वैश्‍विक है। इसी वैश्‍विक परिदृष्‍य को उकेरते हुए वे कहते हैं कि "मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर/ बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ/ सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं/ क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख शांति का राग हूँ/ बहुत आदिम, बहुत अभिनव।"

इतना ही नहीं शमशेर ने ‘अम्न का राग’ में भारतीय एवं पाश्‍चात्य विचारकों, शायरों, दार्शनिकों, संगीतकारों और रचनाकारों का उल्लेख किया है - "देखो न हक़ीकत हमारे समय की जिसमें/ होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफ़री को/ इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है/ कि जिसमें फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ अमर लता हिल उठी/ मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में / झलकता हुआ देख रहा हूँ/ और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते/ और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज मेरा तुलसी मेरी/ ग़ालिब/ एक एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का/ कुशल आपरेटर हैं।"

शमशेर को अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है जितना मास्को का लाल तारा। पीकिंग का स्वर्गीय महल मक्का मदीना से कम पवित्र नहीं - "मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है/ जितना मास्को का लाल तारा/ और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल/ मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं/ मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ/ जो वोल्गा से आए/ मेरी देहली में प्रह्‍लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की/ चौखट पर/ युद्ध के हिरण्यकश्‍य को चीर रही हैं।" शमशेर ने इस कविता में नए नए बिंबों का सृजन किया है। यह कविता उनकी अद्‍भुत सृजनात्मक प्रतिभा का परिचायक है।

शमशेर समस्त संसार में शांती कायम करना चाहते हैं - "यह सुख का भविष्‍य़ शांति की आँखों में ही वर्तमान है/ इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक रहे हैं।" उन्होंने अतीत, वर्तमान और भविष्‍य के सपने को एक साथ पिरोया है - "ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों/ का दिल है/ ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी/ और हमारी कला का सच्चा सपना हैं/ ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं/ ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और/ हक़ीक़त का अमर सपना हैं/ इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ/ पाना है।/ हम मानते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।"

शमशेर की कविताओं में एक ओर छयावादी सौंदर्यबोध है तो दूसरी ओर जीवन मर्म, संघर्ष, शांति और भविष्‍य का सुनहरा सपना गुंफित है। ‘अम्न का राग’ इस दृष्‍टि से उनकी कलात्मकता का प्रतिनिधित्व करनेवाली रचना प्रतीत होती है।


शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

तेलुगु साहित्य में गांधी की व्याप्‍ति



"सत्य के प्रयोग करते हुए मैंने रस लूटा है, आज भी लूट रहा हूँ। लेकिन मैं जानता हूँ कि अभी मुझे विकट मार्ग पूरा करना है; इसके लिए मुझे शून्यवत्‌ बनना है। ... अहिंसा नम्रता की पराकाष्‍ठा है। और यह अनुभव सिद्ध बात है कि इस नम्रता के बिना मुक्‍ति कभी नहीं मिलती।" (मोहनदास करमचंद गांधी)

सत्य, अहिंसा और शांति के प्रतीक राष्‍ट्रपिता माहात्मा गांधी (02 अक्‍तूबर, 1869 - 30 जनवरी, 1948) जनमानस में आज भी विराजमान हैं। उन्होंने भारतीय जनता के सम्मुख आदर्श स्थापित किया है। अतः काका कालेलकर कहते हैं कि "गांधी जी ने जिस उत्कट श्रद्धा से और गहराई से चंद सिद्धांतों का पालन किया और लोगों से करवाया उसे देखते हुए गांधी विचार, गांधी मत या गांधी मार्ग की एक निश्‍चित जीवन दृष्‍टि और जीवन साधना तैयार हुई। इसमें दो राय नहीं।" (काका कालेलकर; गांधी नव सर्जन की अनिवार्यता; पृ.236)|

गांधी जी का समूचा जीवन सत्य के प्रयोगों से भरपूर है। उनके व्यक्‍तित्व में ऐसी विलक्षणता और अनोखी शक्‍ति थी कि शत्रु भी आकृष्‍ट हो जाते थे। "जितने अनुयायी गांधी विचारधारा के निकले उतने किसी अन्य के नहीं, गांधी जी ने जिस मानवतावाद को अग्रसर किया वह कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। सत्य और अहिंसा के साथ उन्होंने सत्याग्रह का अनुपम मेल कर एक प्रगतिशील मानववाद को जन्म दिया।" (लक्ष्‍मी सक्‍सेना; समकालीन भारतीय दर्शन; पृ.16)

भारतीय संस्कृति से राष्‍ट्रपिता माहात्मा गांधी के विचार ओतप्रोत हैं। भारतीय संस्कृति की ओर देखने का अर्थ है गांधी की ओर देखना। "संसार का ध्यान गांधी जी की ओर इसलिए आकृष्‍ट हुआ कि उन्होंने पशुबल के समक्ष आत्मबल का शस्त्र निकाला, तोपों और मशीनगनों का सामना करने के लिए अहिंसा का आश्रय लिया।" (रामधारी सिंह ‘दिनकर’; संस्कृति के चार अध्याय; पृ.531)। सामान्य जनता ही नहीं बल्कि साहित्यकार भी गांधी जी की विचारधारा से प्रभावित हैं। हिंदी साहित्य के साथ साथ अंग्रेज़ी, जर्मन, इटैलियन, फ्रेंच, रूसी, चीनी, जापानी, हिब्रू, अरबी, फारसी, संस्कृत, असमी, मराठी, तमिल, कन्नड, मलयालम और तेलुगु आदि विजातीय और सजातीय भाषाओं के साहित्य में गांधी जी का प्रभाव दृष्‍टिगोचर है।

आह्‍लाद का विषय है कि भारत भर की भाषाओं में से सबसे पहले गांधी विचारधारा की अभिव्यक्‍ति तेलुगु में हुई। 20वीं सदी के आरंभ में ही आंध्र प्रदेश के साहित्यकारों ने गांधी जी के सिद्धांतों का स्वागत किया। दक्षिण अफ्रीका में बापूजी के सत्याग्रह में भाग लेकर कारावास भोगनेवालों में से अधिकांश लोग आंध्र प्रदेश के थे। गांधी जी ने आंध्र प्रदेश के गाँव गाँव की यात्रा की थी। उन्होंने यह पाया कि आंध्र प्रदेश में उनके सिद्धांत पूरी तरह से क्रियाशील हैं। इससे संतुष्‍ट होकर उन्होंने कहा था कि "वहाँ निष्‍ठावान मेहनती कार्यकर्ता हैं, साधन संपत्ती है, कवित्व है, श्रद्धा भक्‍ति और त्याग बुद्धि है।" (अड़पा रामकृष्‍णराव; तेलिगु में गांधीवाद)

वेंकट पार्वतीश्‍वर, विश्‍वनाथ सत्यनारायण, रायप्रोलु सुब्बाराव, वेंकटेश्‍वर राव, जाषुवा, दाशरथी, सी.नारायण रेड्डी और शेषेंद्र शर्मा आदि कवि गांधी जी से प्रभावित हुए। उन सभी ने उनके सिद्धांतों को अपनी रचनाओं में अंकित किया। इन कवियों की कविताओं में दीन-दलितों तथा शोषित और प्रताड़ितों का हाहाकार, किसानों एवं मजदूरों के मानवाधिकारों की अनुगूँज विद्‍यमान है। इतिहास से पता चलता है कि तिरुपति वेंकट कवि द्वय के नाम से विख्यात दिवाकर्ला तिरुपति शास्त्री और चेल्लपिल्ला वेंकट शास्त्री ने मद्रास (अब चेन्नै) में रवींद्रनाथ टैगोर और सरोजनी नायुडु आदि के सम्मुख बापूजी की प्रशंसा में आशु कविता सुनाई थी।

तुम्मला सीताराम मूर्ति चौधरी ‘महात्मा के आस्थान कवि’ के नाम से विख्यात हैं। उन्होंने गांधी जी की आत्मकथा को तेलुगु में ‘महात्मुनि कथा’ नामक महाकाव्य का रूप दिया है। मारिगंटि शेषाचार्य ने ‘श्री गांधी भागवतम्‌’ (श्री गांधी भागवत्‌) में स्वतंत्रता संग्राम का वर्णन किया है। ‘स्वराज्य रथमु’ (स्वराज्य रथ) नामक काव्य में बलिजुपल्ली लक्ष्‍मीकांतम्‌ ने गांधी जी के सिद्धांतों को उजागर किया है। उन्होंने यह स्पष्‍ट किया है कि इस रथ के सारथी गांधी जी हैं और रथ को खींचनेवाले अश्‍व जनता हैं।

राष्‍ट्रकवि दिनकर कहते हैं कि बापू जी का व्यक्‍तित्व इतना विराट है कि वह पृथ्वी और स्वर्ग तक व्याप्‍त है -"तेरा विराट यह रूप कल्पना/ पट पर नहीं समाता है/ जितना कुछ कहूँ, मगर कहने/ को शेष बहुत रह जाता है।" दिनकर की ही भांति सी.नारायण रेड्डी ने भी गांधी जी के व्यक्‍तित्व को विराट मानकर यह कहा है कि उनकी दिव्य शक्‍ति के सान्निध्य में नरक स्वर्ग हो गया है - "नरक में नन्दन वन लगाया है तूने/ स्थिरों को सिंह शावक बनाया है तूने/ मिट्टी और पत्थरों को वज्रों में परिवर्तित किया तूने।"

तेलुगु साहित्य के इतिहास में राष्‍ट्रकवि के नाम से विख्यात गुरुजाडा अप्पाराव की कविता ‘देश भक्‍ति’ में बापूजी का संदेश मुखरित है - "देशमुनु प्रेमिंचुमन्ना,/ मंचि यन्नदि पेंचुमन्ना,/ विट्टि माटलु कट्टि पेट्टोय्‌/ गट्टि मेल्‌ तलबेट्टवोय्‌।" (देश को प्रेम करो,/ अच्छाई को बढ़ाओ,/ झूठे आश्‍वासन देना बंद करो,/ आचरण करना सीखो।)।
गांधी जी ने अपने व्यावहारिक जीवन दर्शन से भारतीय सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक जगत को एक नया मोड़ दिया तथा राजनैतिक जगत को नई गति प्रदान की। वे यही चाहते थे कि देश में चारों ओर हरियाली और समृद्धि हो। इसी संदेश को गुरजाडा ने अपनी कविता में व्यक्‍त किया है - "पाडि पंटलु पोंगि पोर्ले/ दारिलो नुवु पाटु पडवोय्‌।/ तिंडि कलिगिते कंडा कलदोय्‌,/ कंडा कलवाडेनु मनिषोय्‌।" (जिस राह में हरे भरे खेत लहराते हों, उस राह में श्रम करो। भरपेट खाना जिसके पास होगा उसका स्वास्थ्य भी ठीक होगा।)।

गुरुजाडा ने यह भी घोषित किया है कि "देशमंटे मट्टि कादोय्‌,/ देशमंटे मुनुषलोय्‌..."(देश का अर्थ सिर्फ मिट्टि नहीं है। देश का अर्थ है मनुष्‍य)।

गुर्रम्‌ जाषुवा का खंड काव्य ‘गब्बिलम्‌’ (चमगादड) दलितों की दीन दशा की व्यथा सुनता है। अनाथा (अनाथ), शमशान वाटिका (श्‍माशान), बाष्‍प संदेशमु (अश्रु संदेश), पाता चुट्टमु (पुराना मेहमान) आदि कविताओं के माध्यम से उन्होंने अस्पृश्‍यता और जाति भेद के दुष्‍परिणामों को उकेरा है।

तेलुगु साहित्यकारों ने कविताओं के माध्यम से ही नहीं नाटक, कथा साहित्य, निबंध आदि के माध्यम से भी गांधी जी के विचारों को साहित्य में उतारा है। उन्नव लक्ष्मीनारायण का उपन्यास ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव), विश्‍वनाथ सत्यनारायण के ‘वेयि पडगलु’ (सहस्रफण), अडवि बापिराजु के ‘नारायणराव’, बुच्चिबाबू के ‘चिवरकु मिगिलेदि’ (जो शेष है) आदि उपन्यासों में बापूजी के सिधांतों का प्रतिपादन हुआ है।

गांधीजी तत्कालीन अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति से संतुष्‍ट नहीं थे। उस समय शिक्षा का उद्‍देश्‍य अंग्रेज़ी सरकार की निष्‍ठापूर्वक सेवा करनेवाले नागरिकों को तैयार करना भर था। इस संदर्भ में गांधी जी ने स्वयं लिखा है कि "मैकाले का यह उद्‍देश्‍य था कि हम पश्‍चिमी सभ्यता का जनता में प्रचार करनेवाले बन जाएँ।" (महात्मा गांधी, सच्ची शिक्षा; पृ.13)। कवि सम्राट विश्‍वनाथ स्तयनारायण ने ‘वेयि पडगलु’ (सहस्रफण) में इसी तथ्य को उजागर किया है। उसका अंश यहाँ उद्धृत है -
"महात्मा गांधी को अपना असहयोग आंदोलन प्रारंभ किए दो वर्ष हो चुके थे। लोग यह मानने लगे थे गांधी जो भगवान के अवतार हैं, श्रीकृष्‍ण हैं। चरखा उनकी वंशी है। और चरखे की ध्वनि वंशीनाद। सारा देश वृंदावन है और सारी जनता गोपियों की भांति करोड़ों के संख्या में गांधी जी की बात बात पर मुग्ध होकर अनुसरण करती है। देश में एक ऐसा युद्ध प्रारंभ हुआ जो सचमुच युद्ध नहीं था। इस महान आंदोलन को देखकर अन्य देशों के लोग आश्‍चर्यचकित हो गए। देश में अंग्रेज़ी पढ़ाई और पाश्‍चात्य रीतियों के प्रति अनादर उत्पन्न हुआ। उग्रवादी लोग मानने लगे कि अंग्रेज़ी पढ़ाई ने भारतवासियों को पराई संस्कृति के मोह में डाल कर परतंत्रता की शृंकलाओं में बाँध दिया है और उनके मस्तिष्‍क में दास्ता का भाव भर दिया है। रंगापुर गाँव का एक युवक जिसका नाम केशवराव था, एम.ए., बी.एल. पास करके मद्रास में वकालत कर रहा था। गांधी जी का आंदोलन प्रारंभ होते ही उसने अपनी वकालत चोड़ दी और आंदोलन में कूद पड़ा। ... स्थान स्थान पर राष्‍ट्रीय महाविद्‍यालयों की स्थापना हुई और अंग्रेज़ी पढ़ाई छोड़े हुए विद्‍यार्थियों की शिक्षा का कई देशभक्‍तों ने प्रबंध किया। ... केशवराव का विश्‍वास था कि देश में कला और विद्‍या का नाश हो चला है। इसलिए उनके पुनरुत्थान के लिए राष्‍ट्रीय महाविद्‍यालय को प्रयत्‍न करना चाहिए, इसलिए विद्‍यालय में स्वदेशी ढंग का व्यायाम सिखाया जाता था।" (वेयि पदगलु (सहस्रफण) - हिंदी अनुवाद; पृ.147)

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि गांधी जी राष्‍ट्रीय एवं राजनैतिक प्रतिष्‍ठानों के कारण नहीं बल्कि साहित्यकारों की वाणी में बसकर लोक में व्याप्‍त होने के कारण अमर है। इतना ही नहीं अहिंसा का आजीवन पालन करके विश्‍व के सम्मुख गांधी जी ने जो आदर्श स्थापित किए हैं, उसके लिए संपूर्ण विश्‍व उनका ऋणी है। परंतु उनके व्यावहारिक चिंतन को वाद की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। इस विषय में गांधी जी के शब्दों से ही इस चर्चा का समाहार करना उचित होगा - "गांधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है और न ही अपने पीछे मैं कोई ऐसा संप्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ। मैं कदापि यह दावा नहीं करता कि मैंने किन्हीं नए सिद्धांतों को जन्म दिया है। मैंने तो अपने निजी शाश्‍वत सत्यों को दैनिक जीवन और उसकी समस्याओं पर लागू करने का प्रयत्‍न मात्र किया है। मैंने जो समितियाँ बनाई हैं और जिन परिणामों पर मैं पहुँचा हूँ वे अंतिम नहीं है। मैं उन्हें बदल भी सकता हूँ। मुझे संसार को कुछ नया नहीं सिखाना है। सत्य और अहिंसा इतने ही पुराने हैं जितनी ये पहाड़ियाँ। मैंने तो केवल व्यापक आधार पर सत्य और अहिंसा के आचारण में जीवन और उसकी समस्याओं का अनेक विधियों से परीक्षण किया है। अपनी सहज जन्मजात प्रकृति से मैं सच्चा तो रहा हूँ और अहिंसक नहीं । सत्य तो यह है कि सत्य मार्ग की खोज में ही मैंने अहिंसा को ढूँढ़ निकाला। मेरा दर्शन जिसे आपने गांधीवाद का नाम दिया है सत्य और अहिंसा में निहित है, आप इसे गांधीवाद के नाम से न पुकारें, क्योंकि इसमें ‘वाद’ तो नहीं है।" ((सं) डॉ.लक्ष्मी सक्सेना; समकालीन भारतीय दर्शन; पृ.89)

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

निजीपन के संसार के कवि शमशेर



ओ मेरे घर
ओ हे मेरी पृथ्वी
साँस के एवज़ तूने क्‍या दिया मुझे
- ओ मेरी माँ?

तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
और क्या दिया
मुझे भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह!"
(शमशेर; ‘ओ मेरे घर’, इतने पास अपने; पृ.19)

हिंदी साहित्य जगत में ‘नई कविता’ के सक्षक्‍त हस्ताक्षर शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 - 12 मई,1993) का अपना एक सुनिश्‍चित स्थान है। वस्तुतः शमशेर और उनकी कविताओं पर कुछ लिखना एक चुनौती है। उनकी काव्य यात्रा छायावादोत्तर रोमांटिक भावधारा से शुरु होकर प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को पार करती हुई नई कविता से जुड़ गई है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का कथन है कि "प्रयोगवादियों में यदि कोई प्रगतिशील संभाग हो, तो उनके प्रतिनिधि के रूप में शमशेर बहादुर को स्वीकार किया जा सकता है।" (नई कविता; आचार्य नंददुलारे वाजपेयी; पृ.55)

शमशेर अद्वितीय शिल्पी हैं। उन्होंने कविता के क्षेत्र में छाए हुए वादों की जकड़न से हमेशा अपने आपको अलग रखा और काव्य भाषा को चित्रात्मकता, संगीत, बिंब विधान और लय के माध्यम से तराशा। इस संदर्भ में रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत द्रष्‍टव्य है - "शमशेर की कविताओं में संगीत की मनःस्थिति बराबर चलती रहती है।एक ओर चित्रात्मकता की मूर्तता उभरती है, और फिर वह संगीत की अमूर्तता में डूब जाती है। भाषा में बोलचाल के गद्‍य का लहजा और लय में संगीत का चरम अमूर्तन इन दो परस्पर प्रतिरोधी संदर्भों के कम-से-कम रहने पर भी शमशेर में हमें एक संपूर्ण रचना संसार दिखाई देता है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदान का विकास; पृ.205)

शमशेर कविता में आंतरिक ऊर्जा को महत्व देते हैं। वे खड़ीबोली के बोलचाल के रूप को महत्व देते हैं। उनका मत है कि ‘पाठक के मन की बात को पाठक की ही भाषा में व्यक्‍त करना चाहिए।’ इस संदर्भ में वे उर्दू को भी याद करते हैं और कहते हैं - "मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूँ। मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं।" (शमशेर, बाढ़)

शमशेर का रचना संसार उनके निजीपन का संसार है। सामाजिक जीवन का  उत्कर्ष उनकी रच्नाओं में नहीं दिखाई देता। इस संदर्भ में उनका मत है कि "अपनी काव्य कृतियाँ मुझे दरअसल सामाजिक दृष्‍टि से बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं। उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्‍न चिह्‍न-सा ही रही है, कितना ही धुँधला सही। खै़र, यह मेरी नितांत अपनी निजी आंतरिक भावना है।" (शमशेर, चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ.6)। पर सामाजिक संघर्षों से शमशेर अछूते नहीं रहे। उन्होंने भले ही किसी शैली या विषय सीमा को स्वीकार नहीं किया हो लेकिन वे कवि कर्म को जानते हैं तथा कविता की सही दिशा को पहचानते हैं। अतः वे कहते हैं कि "कवि का कर्म अपनी भावनाओं में , अपनी प्रेरणाओं में , अपने आंतरिक संस्कारों में, समाज सत्य के मर्म को ढालना - उसमें अपने को पाना है, और उस पाने को अपनी पूरी कलात्मक क्षमता से पूरी सच्चाई के साथ व्यक्‍त करना है, जहाँ तक वह कर सकता है।" (शमशेर, कुछ और कविताएँ, पृ.5)

शमशेर संवेदनशील कवि हैं। उनमें निहित रोमांटिक संवेदना उन्हें छायावाद से जोड़ती है। छायावादी भाव बोध के साथ साथ शमशेर जीवन के यथार्थ बोध को भी साथ लेकर चलते हैं। उनमें प्रेम, सौंदर्य और इंद्रियजनित सहज अनुभूतियाँ हैं। उनमें रोमानी संवेदना की ताजगी है - "छिप गया वह मुख/ ढँक लिया जल आँचलों ने बादलों के/ (आज काजल रात भर बरसा करेगा क्‍या?)" (वही; पृ.27)

शमशेर की कविताओं में एक ओर प्रेम की आकांक्षा, नारी सौंदर्य की कल्पना और निराशा से उत्पन्न व्यथा का मार्मिक चित्रण है - "गोद यह/ रेशमी गोरी/ अस्थिर/ अस्थिर/ हो उठती/ आज/ किसके लिए? जा/ ओ बहार/ जा! मैं जा चुका कब का/ तू भी-/ ये सपने न दिखा?" (वही; पृ.39) तो दूसरी ओर उनका मिज़ाज इन्क़लाबी है - "सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैं।? हमारे अपने नेता भूल जाते हैं हमें जब,? भूल जाता है ज़माना भी उन्हें, हम भूल जाते हैं उन्हें खुद/ और तब/ इन्क़लाब आता है उनके दौर को गुम करने।" (वही; पृ.10)

शमशेर अपनी कविताओं में संवेदनाओं का मूर्त चित्रण करते हैं। इस संदर्भ में मुक्‍तिबोध का मत है कि "शमशेर की मूल प्रवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है। इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा जो उसके संवेदना-ज्ञान की दृष्‍टि से प्रभावपूर्ण संकेत शक्‍ति रखते हैं।... दूसरे शब्दों में इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार दृश्‍य के सर्वाधिक संवेदनाघात वाले अंशों को प्रस्तुत करेगा और यह मानकर चलेगा कि यदि वह संवेदनाघात दर्शक के हृदय में पहुँच गया तो दर्शक अचित्रित शेष अंशों को अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर लेगा।" (मुक्‍तिबोध, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध; पृ.92)।

शमशेर की धारणाएँ उनकी कविता में बोलती हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।/ सत्य का/ क्या रंग/ पूछो, एक रंग/ एक जनता का दुःख एक/ हवा में उड़ती पताकाएँ अनेक।" (बात बोलेगी)। कभी कभी यह भी प्रतीत होता है कि शमशेर आधुनिक मानवीय दाह को शांत करनेवाले कलाकार हैं - "आधुनिकता आधुनिकता/ डूब रही है महासागर में/ किसी कोंपले के ओंठ पे/ उभरी ओस के महासागर में / डूब रही है/ तो फिर क्षुब्ध क्यों है तू।" (‘सारनाथ की एक शाम’ (त्रिलोचन के लिए); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.21)।

वसतुतः शमशेर को ‘मूड्‍स’ का कवि माना जाता है। उनका यह मूड यथार्थ से होकर गुजरता है। वे खुली आँखों से सामाजिक गतिविधियों को देखकर उन्हें परखते हैं और कहते हैं कि - "मैं समाज तो नहीं, न मैं कुल जीवन,/ कण समूह में हूँ मैं केवल एक कण।"(कुछ कविताएँ; पृ.17)। शमशेर व्यक्‍तिवाद के उस धरातल पर पहुँच जाते हैं जहाँ व्यक्‍ति मन की अनंत गहराइयों में अकेलापन और संत्रास है। इस वैयक्‍तिक मनोभूमि में शमशेर अपने आपको तलाशते नजर आते हैं - "खुश हूँ कि अकेला हूँ,/ कोई पास नहीं है.../ बजुज एक सराही के,/ बजुज एक चटाई के,/ बजुज का ज़रा से आकाश के,/ जो मेरा पड़ोसी मेरी छत पर/ (बजुज उसके, जो तुम होती-मगर हो फिर भी/ यहीं कहीं अजब तौर से।)"

शमशेर की कविता में बिंबात्मकता है। ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ में संकलित कविता ‘कथा मूल’ पर दृष्‍टि केंद्रित करें। यह कविता चार खंडों में विभाजित है। इसमें भारतीय परिवार, लोक जीवन, सामाजिक संबंध और आर्थिक विसंगति आदि का विवरण है - "गाय-सानी। संध्या। मुन्नी - मासी!/ दूध! दूध! चूल्हा, आग, भूख।/ मा/ प्रेम।/ रोटी।/ मृत्यु।" इसका दूसरा खंड प्रथम खंड पर केंद्रित है - "औरत। अंधेरी। जोड़ों का दर्द। बच्चे। पाप। पुनर्जन्म। आत्मोन्नति। पुलिस। आजादी। स्वाहा।" इस कविता का तीसरा खंड है - "गुरुजन। हिम-शिखर। हँसी।" तथा चौथा है - "लिंग; मानस। लिंग; अर्वाचीन।/ लिंग; शिव; भविष्‍य। सदा शिव। तुम तत्-सत्।/ मैं यह क्षण" (‘कथा मूल’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.52-53)। यदि इस कविता में निहित शब्दों को एक-दूसरे से मिलाते जाएँ तो चाक्षुष बिंबों की पूरी कड़ी उभकर सामने आता है। शमशेर ने प्रेम, रोटी, औरत, पुलिस, आजादी जैसे प्रतीकों का भी बखूबी प्रयोग किया है। यह कविता उनकी प्रयोगधर्मिता और सृजनात्मकता का परिचायक है।

शमशेर की कविता का केंद्र व्यक्‍ति है। उन्होंने अपने आप को व्यक्‍ति के प्रति समर्पित कर दिया है - "समय के/ चौराहों के चकित केंद्रों से।/ उद्‍भूत  होता है कोई : "उसे-व्यक्‍ति-कहो" :/ कि यही काव्य है।/ आत्मतमा/ इसलिए उसमें अपने को खो दिया।" (‘एक नीला दरिया बरस रहा’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.13)

आज मध्यवर्ग की स्थिति बहुत दयनीय है। इसका प्रमुख कारण आर्थिक है। वह उच्च वर्ग की ज़िंदगी जीने के चक्कर में लुट रहा है। शमशेर मध्यवर्ग को आवाज देते हैं - "ओ मध्यवर्ग/ तू क्यों क्यों कैसे लुट गया/ दसों दिशाओं की भी दसों दिशाओं की भी.../ दसों दि... शा... ओं/ में / तू कहा हैं कहीं भी तो नहीं/ इतिहास में भी तू/ असहनीय रूप से दयनीय/ असहनीय/ न-कुछ न-कुछ न-कुछ.../ मैं/ उसीका छाया हुआ/ अंधेरा हूँ/ शताब्दी के/ अंत में। छटता हुआ।" (‘दो बातें’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.70-71)।

शमशेर ने बदलती हुई जटिल और भयावह दुनिया में मनुष्‍य की पीड़ा और मूल्यहीनता को चित्रित किया है। मनुष्‍य परिस्थितियों और उनके सुख-दुःख को विविध धरातलों पर अभिव्यक्‍त किया है। उन्होंने मध्यवर्ग की अधकचरी स्थिति को ऐतिहासिक संदर्भों में देखते हुए कहा है कि - "इतिहास में भी तू/ असहनीय रूप से दयनीय।"

साम्राज्यवाद के नाम पर लोगों को धोखा दिया जा रहा है। इस पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि "बनियों ने समाजवाद को जोखा है/ गहरा सौदा है काल भी चोखा है/ दुकानें नई खुली हैं आजादी की/ कैसा साम्राज्यवाद का धोखा है!" (‘बनियों ने समाजवाद को जोखा है’; सुकून की तलाश; पृ.56)

शमशेर की कई रचनाएँ सामाजिक सच्चाई और लोकतंत्र की ताकत को स्वर देती हैं तथा जन मानस की भावनाओं को छूती हैं। उनकी दृष्‍टि में "दरअसल आज की कविता का उसकी भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलान में हिस्सा ले रहे हैं। टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि को जहाँ वह है, वहीं से पा सकते हैं। वे उसको पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" ((सं) अज्ञेय, दूसरा सप्‍तक; वक्‍तव्य; पृ.77)

समसामयिक युग में दर्द की सच्चाई, तड़प और अनुभूति अपना अस्तित्व खो चुकी हैं। कहा जाता है कि उदात्त भावों का विकास उदात्त स्वभाव वाले व्यक्‍ति के हृदय से होता है। लेकिन आज की विडंबना यह है कि लोग कहते कुछ हैं तथा करते कुछ और। इस पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि "मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत/ लेकिन इन्सान के दर्शन हैं मुहाल।" (‘मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.56)

भारत-चीन युद्ध के समय कवि ने ‘सत्यमेव जयते’ पर जोर दिया है - "शिव लोक में चीनी दीवार न उठाओ!/ वहाँ सब कुछ गल जाता है/ सिवाए सच्चाई की उज्ज्वलता के!/ असत्य कहीं नहीं है!/ शक्‍ति आकार में नहीं,/ सत्य में है!/ हमारी शक्‍ति/ सत्य की विजय/ ...याद रखो/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!" (‘सत्यमेव जयते’(भारत-चीन युद्ध); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.43)। कवि की मान्यता है कि मानव मात्र के लिए बुनियादी चीज है-शांति। अतः वे कहते हैं - "अगर तुमसे पूछा जाय कि/ सबसे बुनियादी वह पहली चीज़ कौन-सी है/ कि मानव मात्र के लिए जिसका होना आवश्यक है?/ तो एक ही जवाब होगा तुम्हारा :/ एकदम पहली ही बार,/ फिर दूसरी बार भी,/ और अंतिम बार भी/ यही एक जवाब :-/ शांति!" (‘शांति के ही लिए’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.57)

भाषागत और वर्णगत वैविध्य भी भारत की अखंड मानवता को खंडित नहीं कर सकते हैं चूँकि "भाषा? भाषा/ हृदय हमारे/ भाषा हमारी/ सीमा रेखाएँ हमारी एक-एक साथ/ हम हैं एक साथ हम हैं/ हम-हम सारी दुनिया!/ लिपियाँ स्‍वर ओ’ व्यंजन/ आरोहावरोह गति टोन/ छंद न्यास मौन की मुखर/ साँस की नाना गतियाँ/ दम सम विराम/ इन सबके अर्थ/ हम/ आर पार-सातों समंदर के/ छहों महाद्वीप के/ गत-आगत के/ आर पार/ हम हैं; हम/ कवि लोग!" (‘गिन्सवर्ग के लिए’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.61-62)। शमशेर यह भी कहते हैं कि "भाषाओं की नस-नस एक-दूसरे से गुँथी हुई है/ (मगर उलझती हुई नहीं)/ हमारी साँस साँस में उनका सौंदर्य है/ (मॉ डर्निस्‌ टिक्‌ कहो मत)/ अभी हमें लड़ने दो।" (‘भाषा’, चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.65)

समाज में धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंड पर भी शमशेर कुठाराघात करते हैं - "जो धर्मों के अखाड़े है/ उन्हें लड़वा दिया जाए!/ जरूरत क्या कि हिंदुस्तान पर/ हमला किया जाए!!/ ***/ मुझे मालूम था पहले हि/ ये दिन गुल खिलाएँगे/ ये दंगे और धर्मों तक भि/ आख़िर फैल जाएँगे/ ***/ जो हश्र होता है/ फ़र्दों का वही/ क़ौमों का होता है/ वही फल मुल्क को/ मिलना है, जिसका/ बीज बोता है।" (‘धार्मिक दंगों की राजनीति’, सुकून की तलाश; पृ.71)। वे यह भी कहते हैं कि "जितना ही लाउडस्पीकर चीखा/ उतना ही ईश्‍वर दूर हुआ :/ (-अल्ला-ईश्‍वर दूर हुए!)/ उतने ही दंगे फैले, जितने/ ‘दीन-धरम’ फैलाए गए।" (‘राह तो एक थी हम दोनों की’, सुकून की तलाश; पृ.33)

धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंड पर ही नहीं शमशेर ने देश में व्याप्‍त अकाल पर भी व्यंग्य कसा है - "जहाँ कुत्तों का जीवन भर दीर्घतर लगता है,/ स्पृहनीय; केवल/ अपना ही दयनीय।/ क्यों जन्मा था मनुष्‍य/ बीसवीं सदी के मध्याह्‌न में/ यो मरने के लिए?" (‘अकाल’, चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.84)|

शमशेर की कविताओं में प्रकृति के अनेक रंगों की छटा है।प्रेम, सौंदर्य, मनुष्‍य, देश, समाज, प्रकृति, परंपरा, आधुनिकता, युद्ध, संघर्ष, अकेलापन और तनाव आदि मुखरित हैं। शमशेर की कविता हो या गद्‍य उसमें निहित अर्थ छटाओं को खोलना इतना आसान नहीं है।

शमशेर की शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित कृति ‘ठंडी धुली सुनहरी धूप’ ((सं) विश्‍वरंजन/ 2010(प्रथम संस्करण)/ यश पब्लिकेशनस, X/909,चाँद मौहल्ला, गांधी नगर, दिल्ली-110 031/ (Yash-publication@hotmail.com)/ पृ. 309/ मूल्य- रु.495/-) में 31विद्वानों के आलेख सम्मिलित हैं जिन्हें पढ़ने से पाठकों के समक्ष शमशेर और उनकी कविता को समझने के अनेक आयाम खुल जाएँगे।



मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

एक निबंधकार का समग्र अनुशीलन



"अब तो धर्मनिरपेक्षता के लिए राम और रहीम को भूलना अनिवार्य सा हो गया है। राम को कोसिए तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं, रहीम को उपेक्षा कीजिए तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं। मुसलमान हैं तो हिंदुओं की बात कीजिए आप धर्मनिरपेक्ष हैं, हिंदू हैं तो मुसलमानों की बात कीजिए तो धर्मनिरपेक्ष हैं, पर अपने धर्म की बात कीजिए तो आप सांप्रदायिक हैं। भाइयो! कहीं धर्मनिरपेक्षता को नास्तिकता से तो जोड़ नहीं लिया है। यदि यह सही है तो सत्यानाश हो ऐसी धर्मनिरपेक्षता का। इसे लानत भेजता हूँ। अरे गंजेड़ियो! तुम्हें किसने बता दिया है कि धर्मनिरपेक्ष होने के लिए धार्मिक उदासीनता जरूरी है। जिस किसी ने ऐसा बताया है उसका मन साफ नहीं है। उसको पहचानो, वह कोई और नहीं तुम्हें तपानेवाला कोई कुटिल है।" (बढ़ गई है गर्मी)

यह विचार ललित निबंधकार रामअवध शास्त्री का है। उनकी दृष्‍टि में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता दोनों निंदनीय हैं चूँकि ये मनुष्‍य को तपाती हैं। इनके ताप से मनुष्‍यता झुलस रही है। उन्होंने एक साक्षात्कार में अपना मत व्यक्‍त करते हुए कहा है कि "धर्म का मानना, उसके अनुसार आचरण करना तो श्रेयस्कर है, पर उसकी आड़ में अपना उल्लू सीधा करना व्यक्‍ति और समाज दोनों के लिए घातक है। दुर्भाग्यवश आज उल्लू सीधा करने की राजनीति चल रही है। राजनीतिज्ञों की सोचने की शैली अपनी है, पर वे ही सर्वेसर्वा नहीं हैं। इस देश में कलाकार हैं, बुद्धिजीवी हैं, विद्वान हैं, दार्शनिक हैं, चिंतक हैं जिनकी समझ कहीं राजनीतिज्ञों की समझ से अधिक सुलझी हुई होती है। उन्हें महत्व मिलना चाहिए तभी इन समस्याओं का समाधान संभव है और तभी हमारी सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रह सकती है। आज के भारत की संस्कृति मिश्रित संस्कृति है। उसके निर्माण में जितना योगदान हिंदुओं का है उससे कम योगदान मुसलमानों तथा अन्य धर्मावलंबियों का नहीं है। इस सच्चाई को स्वीकारना चाहिए।"

रामअवध शास्त्री वस्तुतः मानवता के पक्षधर हैं। उनमें आम आदमी से जुड़ने का भाव है और आदमी को केवल आदमी के परिवेश में देखने की ललक है। इस ललक के कारण ही वे आम आदमी की वकालत करते हैं। इसीलिए उनके निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण तथा कविता पाठकों को स्वतः मोह लेते हैं और संदर्भ विशेष में सोचने के लिए विवश करते हैं। मानवतावादी दृष्‍टिकोण ही उनके निबंधों का केंद्रीय तत्व है।

एक कहावात है - काला अक्षर भैंस बराबर। इसमें यह संकेत छिपा है कि शिक्षा मनुष्य को जैविक जंतु से समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है। अतः वह मनुष्य के अस्तित्व का अभिन्न अंग है। रामअवध शास्त्री की दृष्‍टि में जो शिक्षा मनुष्‍य को मनुष्‍य के पास जाने से रोकती है और भेदभाव को जगाती है, उसका मिलना और न मिलना दोनों बराबर है - "जो शिक्षा हमारी विवशता का उन्मूलन नहीं करती, मनुष्‍य को मनुष्‍य से जोड़ना नहीं जानती, मनुष्‍य को मनुष्‍य का महत्व नहीं समझा पाती, उसका मिलना और न मिलना दोनों बराबर है।" (जोगी ठाकुर)

गुरु-शिष्‍य परंपरा बहुत प्राचीन है। गुरु वह है जो शिष्‍य को ज्ञान दे और शिष्‍य वह है जो अपने गुरु से ज्ञान ले। दोनों के बीच आत्मीय संबंध होता है। लेकिन आज गुरु-शिष्‍य के बीच आत्मीयता का अभाव है। न ही शिष्‍य गुरु को सम्मान दे रहे हैं और न ही गुरु शिष्‍य को स्नेह। इस पर शास्त्री जी कहते हैं कि "गुरु और शिष्‍यों के बीच अब आत्मीयता नहीं रही। अब न कोई शिष्‍य किसी गुरु की खोज में निकलता है, न कोई गुरु बहुत जाँच-पड़ताल के बाद अपने शिष्‍यों का चुनाव करता है और न उसके कृत्याकृत्य का भागीदार बनना चाहता है।" (गुरु जी का चूल्हा)

रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों में परंपरा की गूँज सुनाई पड़ती है। वे कहते हैं कि ‘परंपरा से कट कर कोई जीवित नहीं रह सकता। मैं परंपरावादी तो हूँ, किंतु रूढ़िवादी नहीं हूँ। रूढ़ियों का तो घोर विरोधी हूँ। स्वयं निजी जिंदगी में भी मैंने रूढ़ियों को तोड़ा है और अपने लेखन द्वारा लोगों को तोड़ने के लिए उकसाया है क्योंकि रूढ़ियाँ प्रगति के लिए बाधक होती हैं। आधुनिकता की तरह परंपरा भी गतिशील है, हाँ चलती है किसी कुलवधू की तरह मंथर गति से। उसकी यह गति लोगों को अपनी ओर आकृष्‍ट करती है, मुझे भी आकृष्‍ट करती है। मैं भी आकृष्‍ट होता हूँ। अपने देश के चिंतन से जुड़ा हूँ, अपने देश के साहित्य से जुड़ा हूँ, अपने देश के महान साहित्यकारों से जुड़ा हूँ कि भले ही हमारा समाज पाषाण युग से प्‍लास्टिक युग में आ गया हो किंतु उसकी कई मान्यताएँ और मूल्य आज भी प्राचीनता की चादर ओढ़े हुए हैं।’

वस्तुतः रामअवध शास्त्री जिजीविषा और जीवट के रचनाकार हैं। वे ऐतिहासिक और परंपरागत मूल्यों में आस्था रखने के बावजूद रूढ़िगत मूल्यों के विरुद्ध जागरूक हैं। उनकी दृष्‍टि में नारी परंपरा की संवाहिनी है और परंपरा निर्वाह से सर्वाधिक सुरक्षा और सुविधा उसे ही प्राप्‍त होती है। इस समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान तभी प्राप्‍त होगा जब पुरुष का संवेदनशील हृदय उसके साथ जुड़ेगा। जहाँ कहीं नारी का अपमान होता है, शास्त्री जी का संवेदनशील हृदय विचलित होता है। अतः वे कहते हैं - "बहुत होती थीं चर्चाएँ/ मच जाता था शोर/ जब कोई नारी/ अपमानित हो जाती थी/ किसी चौराहे पर।"

पर आज लोग संवेदनहीन होते जा रहे हैं। दिनदहाड़े आँखों के सामने ही किसी को मौत के घाट उतारा जा रहा है, किसी की इज्जत लूटी जा रही है। फिर भी लोग अपने रास्ते जाते हैं। इस स्थिति से शास्त्री जी का मन पीड़ित होता है - "किंतु अब ऐसा कुछ नहीं होता/ न द्रवित होता है मन/ न फूटती हैं प्रतिक्रियाँ/ किन्हीं ऐसी घटनाओं पर/ हम आश्‍वस्त हो जाते हैं।"

‘निबंधकार रामअवध शास्त्री’ शीर्षक शोधपरक पुस्तक में शानमियाँ ने रामअवध शास्त्री के व्यक्‍तित्व और कृतित्व (विशेष रूप से निबंधों) का समग्र विवेचन किया है और यह दर्शाया है कि वे परंपरा प्रेमी होते हुए भी आअधुनिकता के बोध से सुसंपन्न रचनाकार है। निष्‍कर्षतः यह कृति यह प्रतिपादित करने में सर्वथा समर्थ है कि रामअवध शास्त्री के निबंधों में उनका साहित्यानुरागी एवं बहुभाषाविद्‌ व्यक्‍तित्व झलकता है जो भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों का समर्थक तथा आधुनिक समाज में पनपती विसंगतियों के प्रति सचेत है। उनके निबंधों में साहित्य की अन्य विधाओं की ऐसी सुगंध मिलती है जिससे प्रभावित हुए बिना कोई पाठक नहीं रह सकता।

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* निबंधकार रामअवध शास्त्री/ (सं) देवकीनंदन शर्मा/ 2008 (प्रथम संस्करण)/ नवयुग पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, एल-21/1, गली नं.5, शिवानी मार्ग, वेस्ट घोंडा, दिल्ली-110 053/ पृष्‍ठ-150/ मूल्य- रु.295/-


सोमवार, 20 सितंबर 2010

वहाँ के बिच्छू डंक नहीं मारते


"कालिदास ने वर्षा ऋतु को जलधर रूपी मदोन्मत्त हाथी पर सवार एक राजा के समान कहा है। इस ऋतु में वसुंधरा अनेक रंगों से अलंकृत हो जाती है। मृगदल पुलकित हो जाते हैं, वीर वधूटियों का दल घूमने लगता है। मेढक टर्राने लगते हैं। मयूर नाचने लगते हैं। कदंब फूल उठते हैं और नदियाँ कामासक्‍त कुलटाओं की तरह जलनाथ से मिलने के लिए उतावली हो जाती है। कवि कालिदास ने इस ऋतु में प्रियतमाओं की वेशेष स्थिति का उल्लेख किया है कि वे जूड़ों को कदंब, नवकेसर और केतकी के पुष्‍पों से सजाकर, कुंकुम के फूलों का झुमका पहनकर, शरीर पर चंदन का लेप लगाकर सायंकाल होते ही गुरुजनों के गृहों को त्याग कर शयन कक्ष में प्रविष्‍ट हो जाती हैं और अपने अपराधी प्रवृत्ति के प्रियतमों को भी आलिंगनपाश में बाँध लेती हैं।"
(वर्षा ऋतु का यह वर्णन डॉ.रामावध शास्त्री ने अपने ललित निबंध ‘कालिदास का ऋतुसंहार’ में उद्धृत किया है।)

वे संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य के साथ साथ लोक साहित्य के भी विविध संदर्भों को साथ लेकर चलनेवाले निबंधकार हैं। अगर उनके एक और निबंध ‘कांस फूल गए’ में वर्षा के प्रसंग को देखे तो मंज़र एकदम बदला हुआ दिखाई देता है - ‘इस वर्ष जब से आर्द्रा नक्षत्र चढी़ है तब से बरसती ही जा रही है कि गाँव के गाँव बह गए, फसलें उखड़ गईं, लेकिन रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। अतिवृष्‍टि योग का नजारा दिखाई पड़ता है। लगता है, इंद्र देव अधिक रूष्‍ट हैं। लेकिन देवराज ऐसा नहीं कर सकते क्‍योंकि द्वापर में उपेंद्र के हाथों जो पराजित हुए थे। ऐसा हो सकता है, किसी दूसरे देव को उकसा दिया हो क्योंकि वे अपनी तो नाक कटवा चुके हैं, दूसरों की कटवाने की चाह ने शायद उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया हो।’

ललित निबंध एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक की कल्पनाशक्‍ति और विद्वत्तता साथ साथ दौड़ लगाती प्रतीत होती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, शिवप्रसाद सिंह और विद्‍यानिवास मिश्र की तरह रामअवध शास्त्री भी ऐसी दुहरी दौड़ खूब लगा लेते हैं। शायद इसीसे ललित में निहित लीला या क्रीड़ा भाव की सिद्धि होती है। इंद्र का संदर्भ आया तो शास्त्री जी ने शास्त्रों के द्रष्‍टांतों की छढ़ी लगा दी - "ऋग्वेद में कहा गया है कि पर्जन्य देव इंद्र के समरूप हैं। उन्हें वीर, पराक्रमी, प्रलयकारी तथा निःस्वनकारी कहा गया है। जब वे अपने मेघों की सेवा का संचालन करते हैं तो मेघाच्छन आकाश एक छोर से दूसरे छोर तक विद्‍युत रेखा से आलोकित हो उठता है। इस रूप में पर्जन्यदेव इंद्र के समरूप न होकर स्वयं इंद्र देव ही लक्षित होते हैं। मानव जाति इन्हें इंद्र के रूप में पूजती रही, लेकिन व्रजराज कृष्‍ण ने ही इस भ्रम को दूर किया। उस दिन से ये धरती से ऐसा उखड़े की आज तक नहीं जम पाए।"

विभिन्न ऋतुएँ हों, प्रकृति का नित्य परिवर्तित वेश हो, गंगा हो या राधा सब विषयों पर रामअवध शास्त्री ने अपने निबंधों में उन्मुक्‍त चिंतन किया है। कुछ निबंध उन्होंने व्यक्‍ति केंद्रित भी लिखे हैं जो मोनोग्राफ जैसे हैं। प्रेमचंद, सुब्रह्‍मण्य भारती, राहुल सांकृत्यायन और अकबर पर लिखे गए लेख ऐसे ही हैं। ‘सहकार मंजरी’ एकदम अलग तरह का ललित निबंध है। शास्त्री जी उत्तर प्रदेश के अमरोह में रहते हैं। वहाँ एक दरगाह ऐसी है जिसके आहते में सैंकड़ों बिच्छू रहते हैं लेकिन दरगाह के प्रभाव क्षेत्र में ये किसी को ड़ंक नहीं मारते। लेखक ने इसे अमरोह की अमराई के प्रभाव के साथ जोड़ा है। कहा जाता है कि आम का बौर अगर वसंत पंचमी के दिन सूंघ लिया जाय तो वर्ष भर के लिए व्यक्‍ति साँप और बिच्छू के ज़हर से सुरक्षित रहता है। इन तथ्यों और मिथकों को गूँथते हुए लेखक ने अपने शहर के सांप्रदायिक सद्‍भाव के साथ जोड़ा है, पर जब वे अमराइयों को उजड़ते हुए देखते हैं, आम के वृक्षों को कटते हुए देखते हैं तो उन्हें लगता है कि बिच्छुओं के दंश से आनेवाली पीढ़ी को बचाना मुश्किल होगा।

ये सारे संदर्भ ललित निबंधकार डॉ.रामअवध शास्त्री की सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता के सूचक हैं। वे एक ओर तो प्रकृति प्रेम में पगे हुए हैं तथा दूसरी ओर राष्‍ट्रीय चेतना में जगे हुए हैं। राष्‍ट्रीय चेतना न होती तो प्रकृति प्रेम अधूरा रह जाता। ये दोनों गुण उन्हें लोक जीवन का रसिया बनाते हैं। पर उन्हें चिंता इस बात की है कि आज के सहित्यकारों का लोक जीवन से वैसा गहरा लगाव नहीं है जैसा कभी हाल जैसे साहित्यकारों का था, परिणामतः आज का साहित्य लोक जीवन और लोक संस्कृति से कटता जा रहा है।

‘डॉ.रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों का समीक्षात्मक अध्ययन’ करते हुए सुनील दत्त शर्मा ने उनकी सांस्कृतिक चेतना, पर्यावरण के प्रति जागरूकता, लोक संस्कृति और भाषिक विशेषता का सोदाहरण विवेचन किया है और उन्हें एक ऐसी निबंधकार सिद्ध किया है जिसमें लालित्य और व्यंग्य को एक साथ साधने की कलात्मक शक्‍ति विद्‍यमान है। यहाँ उनके निबंध ‘वसंत पंचमी का एक अंश उद्धृत है - "पिछले चौदह वर्षों से कर्मभूमि के लिए जिस अमरोहा का चुनाव किया है उसका प्रांतर भाग सघन अमराइयों से घिरा पड़ा है। कहते हैं कि इन अमराइयों में जो शाह विलायत की दरगाह है उसके आहते में रहनेवाले बिच्छू डंक नहीं मारते यदि कोई दरगाह में इच्छा व्यक्‍त करके निश्चित समय के लिए इन बिच्छुओं को अपने घर भी ले जाए तो वे वहाँ भी ड़ंक नहीं मारते। फिर भला मुझे क्‍या पड़ी है किसी वसंत पंचमी के दिन सहकार मंजरी को सूँघने की।"

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* डॉ.रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों का समीक्षात्मक अध्ययन/ सुनील दत्त शर्मा/ 2009/ नमन प्रकाशन, 4231/1, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110 002/ पृ.99/ मूल्य- रु.200/-

सोमवार, 6 सितंबर 2010

‘कला कुलीनों की संपत्ति नहीं’ : गुर्रम्‌ जाषुवा

कुला मतालु गीचिना गीतललो जिक्की,
पंजराना कट्टु बडनु नेनु।
निखिल लोका मेट्लु नुर्णयिंचिना, नाकु
तिरुगु लेदु - विश्‍वनरुडु नेनु॥" (जाषुवा)

(जाति भेद के इस पिंजरे में मैं नहीं फसूँगा। मैं विश्‍व की सीढ़ियों को पार कर चुका हूँ। मैं तो विश्‍वमानव हूँ।)


तेलुगु साहित्य जगत्‌ मे ‘नवयुग कवि चक्रवर्ती’ और ‘विश्‍वनरुडु’ (विश्‍वमानव) के नाम से विख्यात गुर्रम जाषुवा का जन्म 28 सितंबर, 1895 को गुंटूर जिले के काट्रग्ड्डपाडु नामक गाँव में वीरैया और लिंगम्मा दंपति के घर में हुआ। वीरैया यादव थे जबकि लिंगम्मा दलित जाति की थीं। अंतरजातीय विवाह के कारण इस दंपति को जाति भेद का शिकार होना पड़ा। बचपन से ही जाषुवा को गरीबी झेलना पड़ा और अपमान के घूँट पीने पड़े। यहाँ तक कि अपमान और ज़िल्लत से बचने के लिए जाषुवा के माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया। समाज के तपेड़ों को झेलते हुए जाषुवा आगे बढ़ते रहें। उन्होंने कभी हालात के सामने घुटने नहीं टेके।

यह रोचक तथ्य है कि जाषुवा तेलुगु और संस्कृत के विद्वान होने के करण हिंदू दर्शन और मिथक काव्यों से इतने प्रभावित थे कि अपने खंड काव्यों में उनका प्रचुर प्रयोग किया। इसलिए ईसाई समुदाय ने उनका विरोध किया।

जाषुवा अत्यंत संवेदनशील रचनाकार थे। तत्कालीन समाज में व्याप्‍त असमानता, अराजकता, जाति भेद, वर्ण भेद, ऊँच-नीच, गरीबी और छुआछूत से अत्यंत विचलित होना उनके लिए स्वाभाविक था। उन्होंने मानवता का पहला पाठ अपने परिवार में ही पढ़ा। उनका लक्ष्य था समाज से ऊँच-नीच और अस्पृश्‍ता की दीवार को हटाकर समता स्थापित करना। अतः उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक विसंगतियों का खुलकर विरोध किया तथा मानवाधिकरों और सामाजिक न्याय पर बल दिया।

जाषुवा का रचना संसार बहुत व्यापक है। उन्होंने तेलुगु साहित्य को अनेक खंड काव्यों और लंभी कविताओं द्वारा समृद्ध किया जिन्में ‘रुक्मिणि कल्याणम्‌’(1919), ‘चिदानंद प्रभातम्‌’(1922), ‘कुशलवोपाख्यानम्‌’(1922), ‘कोकिला’(1942, कोयाल), ‘ध्रुव विजयम्‌’(1925, ध्रुव विजय), ‘कृष्‍णा नदी’(1925), ‘संसार सागरम्‌’ (1925, पारिवारिक सागर), ‘शिवाजी प्रबंधम्‌’(1926, शिवाजी प्रबंध), ‘वीरा बाई’(1926), ‘कृष्णदेव रायुलु’(1926, कृष्णदेव राय), ‘वेमना योगींद्रुडु’(1926, योगी वेमना), ‘भारतमाता’(1926), ‘भारतवीरुडु’(1927, भारत के वीर), ‘गिज्जिगाडु’(1927,घोंसला), ‘भीष्‍मुडु’(1931,भीष्‍म), ‘चीट्ला पेका’(1932,ताश), ‘अनाथा’(1932, अनाथ), ‘फिरदौसी’(1932), ‘श्मशाना वाटिका’(1933, श्मशान), ‘आंध्र भोजुडु’(1934, आंध्र भोज), ‘गब्बिलम्‌’(1941,चमगादड), ‘तेरा चाटु’(1946, परदे के पीछे), ‘बापूजी’(1948), ‘स्वयंवरम्‌’(1950, स्वयंवर), ‘कोत्ता लोकम्‌’(1957, नया लोक), ‘ना कथा’(1966, मेरी कहानी) आदि उल्लेखनीय हैं।

गुर्रम जाषुवा की सर्वाधिक चर्चित कृति है ‘गब्बिलम्‌’(चमगादड)। जाषुवा ‘गब्बिलम’ के लेखक के रूप में तेलुगु साहित्य जगत्‌ में विख्यात हैं। 1941 में प्रकाशित यह खंड काव्य वस्तुतः कालिदास कृत ‘मेघदूतम्‌’ की पैरोडी है। ‘मेघदूतम्‌’ में यक्ष मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रेयसी के पास संदेश भेजता है लेकिन जाषुवा के काव्य ‘गब्बिलम्‌’ में संदेश भेजनेवाला यक्ष नहीं है बल्कि हाशिए पर स्थित वह दलित है जो गरीबी और भूख से तड़प रहा है तथा अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। वह चमगादड से यचना करता है कि वह लोकाराध्य भगवान शिव के पास जाकर उसकी व्यथा को सुनाए। वह चमगादड को दूत इसलिए बनाता है क्योंकि वह हमेशा शिव मंदिर में उल्टा लटका हुआ रहता है और भगवान के सान्निध्य में रहता है। इस काव्य में जाषुवा ने व्यंग्य और प्रतीकों के माध्यम से दलितों की वेदना का हृदयस्पर्शी अंकन किया है।

भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था आदि से चली आ रही है। मध्यकाल में निम्न जाति के लोगों को सवर्णों के पैरों तले जीवन यापन करना पड़ता था। उनकी ज़िंदगी जानवरों से भी बदत्तर थी। जाषुवा इस स्थिति को बदलना चाहते थे। अतः उन्होंने भगवान से प्रश्‍न किया कि उसकी सुंदर सृष्‍टि में मनुष्‍य और मनुष्‍य के बीच खाई क्यों उत्पन्न हो रही है - "सृष्‍टिकर्तवी नीवु,/ नी सृष्‍टि लो/ निनु प्रश्‍निंचे हक्कु उन्नवाडिनी नेनु।" (सृष्‍टिकर्ता हो तुम,/ तुम्हारी इस सृष्‍टि में,/ तुमसे प्रश्‍न करने का हक रखता हूँ मैं।) जाषुवा की सहानुभूति उस आम आदमी के साथ है जो पूँजीवादी व्यवस्था के पैरों तले दब गया हो।

आलोचकों ने जाषुवा को दलितवादी घोषित कर रखा लेकिन वस्तुतः वे मानववादी कवि हैं। जनकवि हैं। वे कहते हैं कि "वडागाल्पुलु/ ना जीवितमैते,/ वेन्नला/ ना कवित्वम्‌।" (लू के झोंके हैं/ मेरा जीवन,/ तो शीतल चाँदनी है/ मेरी कविता।)

राष्‍ट्रपिता महात्मा गांधी की निर्मम हत्या से विचलित होकर जाषुवा ने ‘बापूजी’ शीर्षक काव्य की रचना की जिसका प्रकाशन 1948 में हुआ। इसमें कुल 15 लंभी कविताएँ हैं जिनमें महात्मा गांधी के संपूर्ण जीवन संघर्ष और दर्शन का समावेश है। यह काव्य कृति एक तरह से बापू को कवि की अश्रुपूरित श्रद्धांजलि है।

जाषुवा ने अपनी कृतियों के माध्यम से निम्न वर्ग के विरुद्ध होनेवाले षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया और साथ ही सामाजिक विसंगतियों पर भी प्रहार किया। उनके काव्यों में विषय वैविध्य है। एक ओर प्रकृति चित्रण है तो दूसरी ओर संयोग और वियोग श्रुंगार का वर्णन भी है। राष्‍ट्रीय चेतना और समाजिक जागरूकता के साथ साथ निम्न वर्ग का आक्रोश तथा अस्मिता की लड़ाई भी अंकित है। वे यह कहते हैं कि "कललु मोहिंचुटोक कुलीनुलनेगादु,/ कुलमु लेदन्ना वाडिनी गूडा वलचू/ सत्‌ कला देवी कटाक्षंभु वलना,/ समयुगावुता उच्च नीचतला बेडदा!" (कला की देवी के कृपा कटाक्ष से ऊँच-नीच का भेद मिट जाएगा क्योंकि वह केवल कुलीनों पर ही मोहित नहीं होती बल्कि कुलहीनों के पास भी रहती है।)

जाषुवा को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें ‘क्रीस्तु चरेत्रा’(ईसा चरित) के लिए 1964 को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया तथा 1970 में आंध्र विश्‍वविद्‍यालाय द्वारा ‘कलाप्रपूर्ण’ और भारत सरकार के ‘पद्‍मभूषण’ से अलंकृत किया गया।

सामाजिक न्याय के इस महान कवि का निधन 24 जिलाई, 1971 को हुआ। 1994 में ‘जाषुवा फाउंडेशन’ ने उनका जन्मशताब्दी वर्ष मनाया। उसके बाद हर साल संस्था की ओर से विभिन्न भाषाओं के प्रमुख कवियों को ‘जाषुवा साहित्य पुरस्कार’ प्रदान किया जाता है। 1995 में ‘जाषुवा साहित्य पुरस्कार’ प्राप्‍त करनेवाले प्रथम कवि डॉ.ओ.एन.वी.कुरुप(मलयालम)। 1997 में हिंदी के प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह को भी इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस संस्था के व्यवस्थापक कार्यदर्शी जाषुवा की बेटी हेमलता लवनम्‌ है। समाज में व्याप्‍त ऊँच-नीच की दीवर को तोड़कर मानवता और समता की भावना को फैलाना इस संस्था का मुख्य उद्‍देश्‍य है।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

जैसी हमने पाई दुनिया, आओ उससे बेहतर छोड़ें : बच्चन की अनुवाद विषयक मान्‍यताएँ



"नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख;
प्रलय की निःस्तब्धता से
सृष्‍टि का नवगान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर।" (हरिवंशराय बच्चन)

आधुनिक हिंदी साहित्य में हालावाद के प्रवर्तक और उन्नायक हरिवंशराय बच्चन का शीर्ष स्थान है। सत्याग्रह आंदोलन, असहयोग आंदोलन और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने बच्चन को एक नवीन दृष्‍टि प्रदान की। उनकी कृतियों में वस्तुतः जीवन के संघर्ष, राष्‍ट्रीय आंदोलन, सांस्कृतिक पृष्‍ठभूमि, क्रांति का स्वर और परंपरा का विरोध मुखरित होता है। एक सफल कवि और गद्‍यकार के रूप में हरिवंशराय बच्च्न से भली भांति परिचित हैं लेकिन कवि और गद्‍यकार के साथ साथ वह एक सफल अनुवादक भी हैं।

अनुवाद वस्तुतः एक सांस्कृतिक सेतु है जिसके माध्यम से क्षेत्रवाद के सीमित एवं संकुचित दायरे से निकलकर विश्‍वमानवता तक पहुँच सकते हैं। भारत जैसे बहुभाषिक देश में अनुवाद की नितांत आवश्‍यकता है। इस संदर्भ में बच्चन का मत द्रष्‍टव्य है - "विविधताओं से भरे इस देश में केवल भाषा ही ऐसा माध्यम है जो हमें एकसूत्र में बाँध सकता है; और अगर भाषा में भी हम एकमत हो सुसंगठित न हो सके तो हमारे बिखराव को कोई रोक नहीं सकता।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.46)

यह सर्वविदित है कि भाषा विचार-विनिमय का सशक्‍त साधन है और साथ ही संस्‍कृति का संवाहक भी है। वह संस्‍कृति के अनुरूप ही बनती-संवरती है। अतः बच्चन कहते हैं कि - "भाषा वह बैल है, जिस पर जितना अधिक बोझ लादा जाए वह उतना ही मजबूत होता जाता है। भाषा की शक्‍ति उसकी संभावना से आंकी जानी चाहिए न कि उसकी अविकसित स्थिति से।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.46)

भाषाओं की भिन्नता एवं विविधता के कारण ही अनुवाद का जन्म हुआ है। भारत में बहुभाषिक स्थिति के कारण परस्पर संप्रेषणीयता में व्यवधान पड़ना स्वाभविक है। ऐसी स्थिति में देश की एकता को कायम रखने के लिए एक संपर्क भाषा की नितांत आवश्‍कता है और वह है हिंदी। डॉ.हरिवंशराय बच्चन ने इस आवश्यकता को समझते हुए हिंदी को स्थानीयता से मुक्‍त करके अखिल भारतीय दृष्‍टिकोण के विकास पर ज़ोर दिया और कहा कि - "हिंदी को राष्‍ट्रभाषा की अधिकारिणी बनने के लिए उसे अपना मानसिक संवेदना क्षेत्र हिंदी भाषा प्रदेश से आगे बढ़कर राष्‍ट्र व्यापी बनना पड़ेगा।" (‘बंगाल का काल’, भूमिका, पृ.17)

प्रायः हिंदीतर भाषी प्रयोक्‍ताओं की हिंदी पर उनकी मातृभाषाओं के प्रभाव की बात कही जाती है। इस संदर्भ में बच्चन जी ने माना कि क्षेत्रीय भाषा की बोली-भाषा को राष्‍ट्रभाषा का गौरव पाने के लिए इस प्रकार के प्रभाव को ग्रहण करना ही चाहिए। बच्चन का मत है कि - " हिंदी को आगर सच्चे अर्थों में राष्‍ट्रभाषा बनना है तो उसे भारत के अन्य भाषा प्रदेशों की गंध ध्वनी देनी होगी।" (‘बंगाल का काल’, भूमिका, पृ.18)। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि "हिंदी की ध्वनि-धारा के साथ साथ अन्य भाषाओं के शब्दों को खपाना साधारण कला नहीं है। यह कंठ और कानों की बड़ी बारीक परख-शक्‍ति माँगती है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.79)। उन्होंने अपने अनुवादों में इस स्थिति को साधने का प्रयास किया है।

अनुवाद की महत्ता और आवश्‍यकता निर्विवाद है। हमेशा कुछ नया कर दिखाने की तत्परता व मानव की जिज्ञासा ही इस आवश्‍यकता का मूल हेतु है। इस अर्थ में अनुवादक भी सृजक होता है और अनुवाद द्वारा सृजन सुख मिलता है। अतः बच्चन कहते हैं कि "सृजन का सुख, सृजन का सुकून, सृजन की शांति सृजक ही जान सकता है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.112)

देखा जाय तो अनुवाद की प्रक्रिया शिशु के मुख से उच्चरित ध्वनियों के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। शिशु भिन्न भिन्न प्रकार की ध्वनियाँ निकालकार अपने मनोभावों को प्रकट करता है और माँ शिशु के भावों को समझकर दूसरों के लिए बोधगम्‍य बना देती है। इस दृष्‍टि से भषा भावों और विचारों का अनुवाद है। अनुवादक भी यही तो करता है। दूसरों के भावों और विचारों को अपनी भाषा का कलेवर प्रदान करना। सफल अनुवाद के संबंध में बच्चन की मान्यता है कि - "किसी बड़ी रचना का सफल अनुवाद करना किसी उच्च कोटि के मौलिक सृजन से न कम महत्व का काम है, न कम श्रम-साधना-साध्य।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.111)। उदाहरण के लिए बच्चन द्वारा अनूदित ‘ओथेलो’ के कुछ अंश देखें -

मूल: Iago - Must be be-leed and calmed
By debitor and creditor, this counter caster
He, is good time, must his lieutenanat be
अनुवाद: इयागो - इस पार काट-सियो के
दर्जी को तरजीह दी गई टुकड़ जोड़ यह,
टुकड़खोर यह, मौका पाकर सहसेनापति बन बैठा है।

उपर्युक्‍त अनुवाद में बच्चन ने केसियो (cassio) के लिए ‘काट-सियो’ का रोचक, सर्जनात्मक प्रयोग किया है क्‍योंकि केसियो लेनदार (ऋणदाता) है जो सिर्फ जोड़ना व घटाना जानता है। अनुवाद में ‘काट-सियो’, ‘दर्जी’, ‘टुकड़खोर’ का प्रयोग कर बच्चन ने अपनी रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। स्पष्‍ट है कि बच्चन साहित्यिक पाठ के अनुवाद के संदर्भ में अनुवादक की सृजनात्मकता के समर्थक हैं।

एक भाषा भाषी समुदाय में निहित भाषा ज्ञान को दूसरे भाषा भाषी समुदाय में पहुँचाने में अनुवादक की भूमिका महत्‍वपूर्ण होती है। अतः बच्चन सफल अनुवादक के बारे में विचार व्यक्‍त करते हैं कि - "मेरी हमेशा यही धारणा रही है कि अच्छा अनुवादक वही हो सकता है जो अच्छा मौलिक लेखक भी हो।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.88)। वह यह भी मानते हैं कि - "ऐसा देखा गया है कि सफल अनुवादक वे ही हुए हैं जिनका मौलिक सृजन पर भी कुछ अधिकार है। दूसरे शब्दों में, अनुवाद भी मौलिक सृजन की ही एक प्रक्रिया है। नहीं तो आज संसार के बड़े बड़े सर्जक अनुवाद की ओर झुके न दिखाई देते।" (चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.14)। निम्‍नलिखित उदाहरण से भी यह स्पष्‍ट होता है कि बच्चन एक सर्जक अनुवादक हैं जहाँ उन्होंने औरस सारे दत्तक संतति के भेद को ‘तन से जन्मी’ और ‘मुँहबोली’ द्वारा व्यक्‍त किया है -

मूल: Brabantio - I had rather to adopt a child than got it. (Othello)

अनुवाद : ब्रेबैंशियो - काश कि मेरे तन से जन्मी
हुई न होकर तू मेरी मुँहबोली होती
जिससे ऐसी बात न कहती

इससे यह स्पष्‍ट होता है कि साहित्यिक पाठ के अनुवादक को अपने भावों के संप्रेषण पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। बच्चन की दृष्‍टि में - "सफल अनुवादक भी वही होता है जो अपनी दृष्‍टि भावों पर रखता है। शाब्दिक अनुवाद न शुद्ध होता है न सुंदर। भाव जब एक भाषा माध्यम को छोड़कर दूसरे भाषा माध्यम से मूर्त होना चाहेगा तो उसे अपने अनुरूप उद्‍बोधक और अभिव्यंजित शब्द राशि संजोने की स्वतंत्रता देनी होगी। यहीं पर अनुवाद मौलिक सृजन हो जाता है। या मौलिक सृजन की कोटि में आ जाता है।" (चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.13-14)

वस्‍तुतः कोई काम आसान नहीं है। मूल पाठ के भावों की रक्षा करते हुए दूसरी भाषा में अंतरण करना ही अनुवाद है। अतः बच्चन का मत है कि - "सफल अनुवादक के लिए आवश्यक है कि वह जिस भाषा से अनुवाद करें, जिस भाषा में करें, दोनों पर उसका समान अधिकार हो ...अनुवादक का रागात्मक संबंध हो। ... सृजन में शब्द के स्थान को सूक्ष्‍मता से समझ लिया जाय। शब्द के स्थूल और उसके कोष पर्याय को अंतिम सत्य मान लेनेवाला सफल अनुवादक नहीं हो सकता। ...जब हम साहित्यिक ग्रंथों के अनुवाद की बात सोचते हैं तब भाव, विचार और भाषा को अलग नहीं देख सकते। यहाँ भाव-विचारों का संबंध शरीर और वस्त्रों का नहीं बल्कि, शरीर के मांस और त्वचा का है। शब्द साधन है, साध्य नहीं। साध्य तो वह भावना या विचार है, जो उसके पीछे है।" (अनुवाद की समस्या, बच्चन)

अनुवाद में जीवंतता बनाए रखने के लिए सफल अनुवादक को मूल लेखक की भाँति लक्ष्य भाषा में नूतन प्रयोग भी करने पड़ते हैं। एक सफल अनुवादक को स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा दोनों पर समान अधिकार होना चाहिए, लेकिन इतना ही काफी नहीं। उसका भाषा से रागात्मक संबंध भी अनिवार्य है। बच्चन ने इसे ‘रचनानुराग’ कहा है और माना है कि "अनुवादक का रचनानुराग अनुवाद की सफलता की सबसे पहली आवश्यकता है; अपनी भाषा पर अधिकार।" (बंगाल का काल, भूमिका, पृ.14)। यहाँ ‘मैकबेथ’ के उनके अनुवाद का एक अंश देखा जा सकता है -

मूल: My mind she has mated and amazed my sight
I think but dare not speak.

अनुवाद: कानों ने जो सुना, उन्हें है उस पर गैरत,
आँखों ने जो देखा, उनको उस पर हैरत,
जो दिमाग में, उसे नहीं कहने की जुर्रत।

यहाँ अनुवादक ने मूल का शाब्दिक अनुवाद करके हिंदी की प्रकृति के अनुरूप उसकी मौलिक ढालार्थ की हैं। इससे यह स्पष्‍ट होता है कि उन्हें स्रोत और लक्ष्‍य भाषाओं पार समान अधिकार है और साथ ही समाज-सांस्कृतिक पृष्‍ठभूमि की पहचान भी। अनुवाद मूल से भी रोचक है। ‘गैरत’, ‘हैरत’, ‘जुर्रत’ शब्दों का तुक जोड़कर अनुवाद में सौंदर्य पैदा किया गया है।

अनुवादों के बारे में बच्चन का दृष्‍टिकोण सुपारिभाषित है। वे मानते हैं कि साहित्यिक पाठों के अपनी भाषा में किए गए अनुवाद ही स्वीकार्य होता है। उनका मत है कि - "अनुवादों के बारे में मेरा एक सिद्धांत है। अनुवाद के लिए मैं अनुमति तभी देना चाहता हूँ जब किसी भाषा में अनुवादक पुस्तक का अनुवाद करना चाहता है वह उसकी अपनी भाषा हो और वह अपनी इच्छा से अनुवाद करना चाहे।" (बंगाल का काल, भूमिका, पृ.14)। इसका कारण शब्दार्थ की संस्कृति में निहित है। इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद एक श्रम साध्य कार्य है तथा गद्‍यानुवाद की अपेक्षा काव्यानुवाद अधिक चुनौतिपूर्ण कार्य है। "कविता में शब्द और अर्थ इतने संपृक्‍त होते हैं - ‘गिरा अर्थ जल बीच सम’ - कि उसके अर्थ को अलग कर उसे दूसरे शब्दों, दूसरी भाषा के शब्दों, का बाना पहनाना बहुत कठिन है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि कविता का अनुवाद हो ही नहीं सकता। पर असंभव मनुष्‍य के लिए बहुत बड़ी चुनौती और बहुत बड़ा आकर्षण है - जो असंभव है उसी पर आँख मेरी,/ चाहती होना अमर मृत राख मेरी। (मिलन यामिनी)।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.12)

इस चुनौती का सामना बच्चन अपनी रचनाधर्मिता के सहारे करते हैं। यहाँ ‘किंग लियर’ के एक अंश का अनुवाद देखा जा सकता है -

मूल : Father's that wear rags
Do make their children blind,
But father that bear bags
Shall see their children kind
Fortune, that arrant whore,
Ne'er turns the keep to the poor.

अनुवाद: जिन बापों के तन के ऊपर चिथड़े होते
उनके बच्चे अपने प्रति अंधे हो जाते;
जिन बापों के हाथों मोटी थैली होती
उनके बच्चे उनके प्रति आदर दिखलाते।
सभी जानते किस्मत ऐसी रंडी गुंडी
वह गरीब के लिए खोलती कभी न कुंडी।

बच्चन ने मूल में निहित अर्थ को सुरक्षित रखने के लिए भावानुवाद का सहारा लिया है। घृणा एवं धिक्कार को सूचित करनेवाले शब्दों का प्रयोग लक्ष्य भाषा के अनुरूप किया गया है ताकि मूल में निहित हास्यपूर्ण अभिव्यक्‍तियाँ अनुवाद में भी संप्रेषित हो सकें।

वास्तव में डॉ.हरिवंशराय बच्चन एक सफल अनुवादक तथा गंभीर अनुवादशास्त्री थे। उन्होंने अनेक कृतियों का हिंदी में अनुवाद करके राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय साहित्य से हिंदी भाषा समाज को परिचित कराया। इन कृतियों में सम्मिलित हैं - ‘हेमलेट’(1969), ‘नागर गीता’ (1966), ‘मरकत द्वीप का स्वर’ (ईट्स की कविताएँ,1965), ‘चौंसठ रूसी कविताएँ’ (1964), ‘ओथेलो’ (1959), ‘मैकबेथ’ (1957), ‘जनगीता’ (1958), ‘उमर खयाम की रुबाइयाँ’ (1959), ‘नेहरू : सामजिक जीवन-चरित (1961), ‘लिरिका’ (1965), ‘द हाउस आफ वाइन’ (1950), ‘कालेर कबले बांग्ला’ (1948) तथा ‘भाषा अपनी भाव पराए’।

इनमें से ‘भाषा अपनी भाव पराए में दस विदेशी और देशी भाषाओं से काव्यानुवाद प्रस्तुत किए गए हैं। यहाँ कृति की भूमिका में कही गई बात का उल्लेख करना समीचीन होगा क्योंकि यह अनुवाद चिंतन को एक दिशा प्रदान करती है और बच्चन की अनुवाद विषयक मान्यताओं को समझने में सहायक है। इस संकलन में कुल पच्चीस अनूदित कविताएँ सम्मिलित हैं। इनके चयन और अनुवाद प्रक्रिया के बारे में चर्चा करते हुए बच्चन जी कहते हैं कि - "अच्छी कविता मैं हार भाषा की कुछ-न-कुछ समझता हूँ, क्योंकि अच्छी कविता, हर भाषा की, बहुत कुछ ध्वनि के माध्यम से कहती है, और यह विचित्र है कि ध्वनि संकेत प्रायः सभी भाषाओं का एक-सा होता है। ...जाहिर है कि ये कविताएँ अपनी अपनी भाषा-लिपि में मेरे सामने रख दी जाते तो मैं उन्हें अनूदित नहीं कर सकता था। ...मूल कविता नागरीलिपि में दी जाती थी जिसे पढ़कर, बहुत-से शब्दों और ध्वनियों से, मैं कविता की मुख्य दिश टटोल सकता था। मुझे कविता का अंग्रेज़ी अथवा हिंदी अनुवाद दिया जाता था जिससे मुझे कविता के भाव-विचार को समझने में आसानी होती थी। ...स्पेनी कविता का अनुवाद उसके अंग्रेज़ी रूपांतर के आधार पर किया गया था। कुछ लोग ऐसा सोच सकते हैं कि यह अनुवाद की सीधी प्रक्रिया नहीं है। पर शायद अधिक वैज्ञानिक प्रक्रिया यही है। यह मैंने बहुत बाद में जाना कि रूस में कविता के अनुवाद की कुछ ऐसी ही प्रक्रिया का अनुसरण होता है। मान लीजिए कि किसी कविता का रूसी में अनुवाद करना है तो कोई दुभाषिया मूल कविता का शाब्दिक अनुवाद कर देता है - शाब्दिक अनुवाद से कविता नहीं बन जाती। फिर यह शाब्दिक अनुवाद किसी कवि के पास भेजा जाता है। वह उन शब्दों के पीछे छिपे भावों को पकड़ता है और उद्‍बोधक शब्दों और रूपकों की सहायता से - आवश्‍यकता हुई तो रूपकों को बदलकर - ऐसे रूपकों में जो रूसी भाषा के लिए अभिव्यंजक हो सके - कविता बनाता है। इस तरह कविता का अनुवाद के रूप में एक कविता रची जाती है।"

निष्‍कर्षतः हरिवंशराय बच्चन के अनुवाद संबंधी चिंतन के कतिपय सूत्रवाक्‍य द्रष्‍टव्य हैं -
  • "कवि या लेखक जीवन की जो व्याखया देना चाहता है कि जो उसके अनुसार जीवन से चुनाव करता है। यानी वह जीवन के बहुत से सत्य को छोड़ता है उसकी उपेक्षा करता है या उसे दबाता है कि उसके धारणा को मूर्तिमान करनेवाले जीवन का रूप प्रमुख हो, उजागर हो।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.41)

  • "उच्च कोटि का कलाकार कला के माध्यम से जीवन की जो व्याख्या देता है वह एक प्रकार से उसका जीवन-दर्शन ही होता है।"(‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.41)

  • "जब अनुवादक शब्दों के आवारण को भेदकर सूक्ष्म भावनाओं के स्तर पर पहुँचता है और वहाँ से अपनी भाषा के अभिव्यक्‍त होने का प्रयत्‍न करता है तब अनुवाद मौलिक लगता है। यह गिरा-अर्थ, जलवीचि के अलग करना है, पर अनुवाद को सरल काम किसने समझ रखा है?" (अनुवाद की समस्या)

  • "हर अनुवाद अनुवादक की योग्यता, पैठ, सृजनशीलता और सीमाओं से प्रभावित होता है।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.12)

  • "एक यूरोपीय भाषा से दूसरी यूरोपीय भाषा में छंद को एक ही रखने की संभावना हो सकती है, पर हिंदी के लिए यह अकल्पनीय है। छंद भी कविता के अविभाज्य अंग हैं।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.12)

  • "छंदबद्ध कविता का अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में करना बहुत कठिन है। यदि मुक्‍त छंद का माध्यम समुचित रीति से विकसित एवं परिष्‍कृत हो जाए तो भाषाओं के बीच काव्य संबंधी आदान-प्रदान अधिक साध्य और सुगम हो जाएगा।" (‘बंगाल का काल’, पृ.18)

  • "छंद और तुक जहाँ भाषा के अलंकार हैं वहीं भाषा के स्वच्छंद गति में बाधाएँ भी हैं। जहाँ भाषा-भाव एकात्‍मक होकर चलते हैं, वहाँ शायद यह बात कम अनुभव की जाए, पर अनुवादों में छंद और तुक सबसे बड़ी बाधाएँ उपस्थित करते हैं।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.13)

  • "मेरी अनुवाद संबंधी नीति यह रही - भाषा सरल - सुबोध होगी/ वह बोलचाल के स्तर पर गिरकर नहीं / लिखित भाषा के स्तर पर उठकर, अगर अनुवाद को/ सही भी होना है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.79)

  • "क्रोध की अभिव्यक्‍ति करने में अंग्रेज़ी बड़ी समर्थ भाषा मालूम होती है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.109)

  • "आजकल एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद बहुत कुछ राजनीतिक कारणों से किया-कराया जा रहा है। साहित्य की दृष्‍टि से यह अस्वस्थ है और उच्च कोटि का नहीं हो सकता।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, भूमिका, पृ.18)

‘संकल्य’/ जुलाई-सितंबर 2009/ बच्चन विशेषांक में प्रकाशित