रविवार, 28 मार्च 2010

मरो शाकुंतलम्‌ : तुम मुझे स्पर्श करोगे सूर्यकिरण बनकर


काम, प्रेम और विवाह का त्रिकोणात्मक संबंध है. मानवेतर जगत्‌ में काम का संबंध केवल शरीर तक सीमित है परंतु मनुष्यों के बीच यह संबंध मन और आत्मा तक पहुँचता है. जैसे कि रामधारी सिंह ‘दिनकर ’ ने कहा है ’सेक्स (काम) की अनुभूति शारीरिक अनुभूति होती है. किंतु प्रेम की अनुभूति में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों अनुभूतियाँ समन्वित होती हैं.’ प्रेम हमारे जीवन में शाश्‍वत और स्वस्थ संबंधों को स्थापित करता है तथा जीवन को उदात्त बनाता है. मनुष्य के जीवनकल में हर स्थिति में प्रेम व्यक्त होता है. अतः साहित्यकारों ने प्रेम के दोनों पक्ष अर्थात्‌ संयोग और वियोग का निरूपण किया है. तेलुगु साहित्य में भी हर युग में प्रणय कवित लिखी गई है. पद्‌मलता के प्रथम कविता संग्रह ‘मरो शाकुंतलम्‌ ’( तेलुगु (दूसरा शाकुंतल), 2009) की कविताओं में भी प्रणय के इन दोनों पक्षों का निरूपण हुआ है.

मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि बाल्यावस्था से ही मानव शिशु में कामवृत्ति उपस्थित होती है और यौनावस्था में यह पूर्ण रूप से विकसित होती है. यौनावस्था में प्रेम की अनुभूति संवेदनशील मन को उद्वेलित करती है. इस आवस्था की घटनाएँ और अनुभूतियाँ सुखदायी भी हो सकते हैं और दुःखदायी भी. इस अवस्था में हर कोई व्यक्‍ति कवि बन जाता है. यह अवस्था मनुष्य और प्रणय कविता दोनों के लिए वरदान है.

‘मरो शाकुंतलम्‌ ’(दूसरा शाकुंतल) की नायिका अपने प्रियतम के साथ बिताए हुए पलों को याद करती है और स्मृतियों से बाहर निकलना नहीं चाहती - "भाषल कंदनी अनुभूतिनी / माटललो चेप्पडम / एवरि तरम्‌ / आ अनुभवम्‌ लोंचि / भयटकु रावालनी लेदु /.../ आनंदम्‌ तरंगालुगा व्यापिस्तुंदि / ना नुंचि नीकु"(पृ. 61) (यह अनुभव भाषातीत है / शब्दों में व्यक्‍त करना साध्य नहीं है / इस अनुभूति से / निकलना नहीं चाहती /.../ शब्द रहित हूँ / संज्ञाविहीन हूँ / मात्र अनुभव ही शेष है/ आनंद तरंगें व्याप्‍त हैं / हम दोनों के बीच)

नायिका नायक की प्रतीक्षा में समय काट रही है. उसके लिए जीवन बोझ बनता जा रहा है. प्रिय की पुकार सुनने के लिए वह बेचैन है - "अतनि नुंचि पिलुपु रादा / आ क्षणमे / नेनु / कोत्त सिद्धांतलनु / कनुगोंटानु"(पृ.96) (वह / कब पुकारेगा मुझे / उसी क्षण / मैं / नए सिद्धांत रचूँगी.)

नायिका की इच्छा है कि नायक निरंतर उसके साथ रहे और उसकी थकान को मिटाए तथा उसके अंदर सुरक्षा की भावना जगाए - "अलसिन ई पूट / सोलिन ना मनसुकेमो / नी गुंडे कावाली"(पृ. 7) (थके हुए मन को / तुम्हारा वक्षःस्थल चाहिए)

नायिका नायक के साथ बिताए हुए पलों को याद करती है. उसके लिए हर वह क्षण प्राणप्रद है जो प्रियतम की याद दिलाता है - "ई वेला / नी ज्ञापकम्‌ ओकटे / प्राणहितमैनदी"(पृ. 79) (इस समय / केवल तुम्हारी स्मृति ही / प्राणप्रद है.)

कवयित्री कहती हैं कि नायक का अधर चुंबन ग्रीष्म के ताप को मिटानेवाली प्रथम फुहार है - "ना लेत पेदालु निन्नंटिते / ग्रीष्म तापम्‌लो तोलकरि जल्ल्नी"(पृ.24) (मेरे अधर तुम्हारे अधरों को छूमने पर / ग्रीष्म के ताप को मिटानेवाली प्रथम फुहार होगी.) वे आगे कहती हैं कि "विरहमेप्पुडू उद्रेकमे / कलियिकेप्पुडू सुखांतमे" (पृ.15) (विरह हमेशा उद्वेग है / मिलन सुखांत है.)

विरहणी नायिका को यही लगता है कि नायक के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है - "नीवु लेक नेनु / लोयलोपलि वज्रान्ने / सूर्यकिरणमै / नीवु तगिलिते / मेरुस्तानु"(पृ.45) (तुम्हारे बिना मैं / गर्त में गिरा वज्र हूँ / सूर्यकिरण बनकर / तुम मुझे स्पर्श करोगे / तो मैं चमक उठूँगी.)

कवयित्री के लिए प्रणय मात्र शारीरिक अनुभव नहीं है, बल्कि वह आत्मिक अनुभूति है. अध्यात्म उनके लिए जीवन की प्रेरणा है. दुःख, रोना और वियोग आदि को दूसरों की सहानुभूति पाने के साधन के रूप में प्रयोग नहीं किया गया है. इन सबके माध्यम से जीवन के विविध आयामों को समझने का प्रयास किया गया है. अतः वे कहती हैं "जयापजयाले कादु / जनन मरणालू दैवादीनाले / बंधनाल संकेल्लु तेंचुकोनि / बाध्यतल बरुवुनि दिम्‍पी / बैठिकेल्लालनुंदि"(पृ.40) (जय पराजय ही नहीं / जन्म और मृत्यु भी दैवाधीन है / बंधनों की साँकलों को तोड़कर / कर्तव्य को पूरी तरह से निभाकर / बाहर निकलना चाहती हूँ / मुक्‍त होना चाहती हूँ.)

इस प्रकार कवयित्री पद्‍मलता की तेलुगु कविताओं के इस प्रथम संग्रह में प्रेमानुभूति की विविध भावभूमियों का रसपूर्ण अंकन पाठकों को आककर्षित करने में समर्थ प्रतीत होता है.(सभी उद्धरणों का हिंदी अनुवाद : समीक्षक द्वारा.)
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मरो शाकुंतलम्‌ (तेलुगु कविता संग्रह)/ पद्‍मलता / 2009 / पृ.104 / मूल्य : रु.100/- / प्रकाशक - पृथ्वी 106 ,मै होम नवद्वीप, माधापुर, हैदराबाद

मनोवैज्ञानिक पाठ का अनुवाद


साहित्येतर पाठ का अनुवाद करते समय अनुवादक को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है वे साहित्यिक पाठ के अनुवाद की समस्याओं से कई अर्थों में भिन्न होती हैं. हम जनते हैं कि साहित्यिक पाठ में अनेक प्रकार की समाज-सांस्कृतिक अर्थ छवियाँ और शैलीगत विशेषताएँ निहित होती हैं जिनसे जूझे बिना उसका अनुवाद नहीं हो सकता. साहित्येतर पाठ के अनुवादक के समक्ष ये चुनौतियाँ तो नहीं होती परंतु इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उसे सबसे पहले विषय के ज्ञान की चुनौती का सामना करना पड़ता है. इसके अतिरिक्‍त साहित्येतर पाठ का स्वरूप तकनीकी भाषा से निर्मित होता है, अतः स्रोत भाषा की प्रयुक्‍ति के समकक्ष लक्ष्य भाषा में प्रयुक्‍ति की तलाश साहित्येतर पाठ के अनुवाद की मुख्य चिंता होती है. यदि मनोवैज्ञानिक पाठ के संदर्भ में बात करें तो कहना होगा कि (1) अनुवादक को मनोविज्ञान ‘विषय ’ की सामन्य जानकारी होनी चाहिए तथा (2) मनोविज्ञान की भाषा (प्रयुक्‍ति) पर आधिकार तो अनिवार्य है ही.

वस्तुतः अनुवाद दो भाषाओं के मध्य घटित होनेवाला संप्रेषण व्यापार है. आज अनेक क्षेत्रों में यह व्यापार अनिवार्य हो गया है. यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ भाषा है वहाँ अनुवाद भी स्वतः निहित है. अनुवाद ‘अनुप्रयुक्‍त भाषाविज्ञान ’ (Applied Linguistics) का एक अंग है. अतः मनोभाषाविज्ञान (Psycholinguistics) के क्षेत्र में भी अनुवाद का महत्वपूर्ण योगदान है. सामान्यतः अनुवाद में स्रोत भाषा की संपूर्ण सामग्री का लक्ष्य भाषा के समतुल्य शब्दों में प्रतिस्थापित नहीं होता. ‘समतुल्य शब्दों को खोज निकालना ’ ही अनुवाद कार्य की प्रमुख समस्या है.

मनोविज्ञान एक विशिष्‍ट प्रयुक्‍ति क्षेत्र है. भाषाविज्ञान और मनोविज्ञान का बहुत गहरा संबंध है. विचारों का सीधा संबंध मस्तिष्‍क तथा मनोविज्ञान से है. मानसिक गुत्थियों एवं ग्रंथियों का पता लगाने व उन्हें सुलझाने तथा मानसिक रोगियों के उपचार में उनके द्वारा कही गई ऊल-जलूल बातों का विश्‍लेषण करने आदि में भाषाविज्ञान की क्षेत्र में प्रयुक्‍त पारिभाषिक शब्दावली और अभिव्यक्‍तियों का अनुवाद करते समय अनुवादक के सामने समस्या उत्पन्न हो सकती है.

मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में भाषा का विशिष्‍ट प्रयोग

मनोवैज्ञानिक क्षेत्र की विशिष्‍टता यह है कि उसमें जो प्रचलित तकनीकी शब्द और अभिव्यक्‍तियाँ हैं उन्हीं का प्रयोग किया जाता है. अतः अनुवादक के लिए यह अनिवार्य है कि वह इस विशिष्‍ट भाषा-प्रयोग की जानकारी रखता हो, अन्यथा उसके लिए इसे समझना दुष्‍कर हो जाएगा.

नवनिर्मित तथा अनूदित शब्द

अंग्रेज़ी पारिभाषिक शब्दों का अनुवाद भारतीय भाषा या हिंदी में करना वांछनीय है क्योंकी अंग्रेज़ी में प्रयुक्‍त शब्दों का अर्थ सामान्य भारतीय कम जानते हैं. अर्थात्‌ उनमें पारदर्शिता का अभाव रहता है. किंतु हिंदी में गढ़े जानेवाले शब्दों का एक सुनिश्‍चित आश्रय लेना उपयुक्‍त है, चूँकि संस्कृत में प्रजनन शक्‍ति (Generative Power) है. संस्कृत धातुओं में उचित उपसर्ग और प्रत्यय जोड़कर हजारों पारिभाषिक शब्दों का निर्माण किया जा सकता है.

Mind - मन / मनस
Conscious - चेतन
Subconscious - अवचेतन / अर्धचेतन
Unconscious - अचेतन
Psychology - मनोविज्ञान
Psychoanalysis - मनोविश्‍लेषण
Psychiatry - मनोचिकित्सा
Psychiatrist - मनोचिकित्सक
Abnormal Psychology - असामान्य मनोविज्ञान
Individual Psychology - वैयक्‍तिक मनोविज्ञान
Sex - यौन
Libido - कामवृत्ति
Ego - अहम्‌
Super Ego - पराहम्‌
Complex - कुंठा / ग्रंथि / मनोग्रंथि
Inferiority Complex - हीनताग्रंथि
Superiority Complex - उच्चताग्रंथि

ग्रहीत शब्द

Eros - एरोज
Thenetos - थेनेटोस
Oedipus - इडीपस
Electra - इलेक्‍ट्रा
Sex - सेक्‍स
Libido - लिबिडो
Histeria - हिस्टीरिया
Psychoneurotic - सैकोन्यूरोटिक
Death Instinct - डेथ इंसटिंक्‍ट

अनुकूलित शब्द

Id - इद / इदम्‌

संकर शब्द

Super Ego - सुपराहम्‌

अर्थ आधारित अनुवाद

अर्थ या भाव को ध्यान में रखकर निर्मित शब्द -

Oedipus - मातृरति
Electra - पितृरति
Eros - जीवनवृत्ति
Thenetos - मृत्युवृत्ति
Libido - कामवृत्ति
Histeria - मनोरोग
Histeric Patient - मनोरोगी

इस प्रकार स्पष्‍ट है कि तकनीकी क्षेत्र होने के कारण मनोवैज्ञानिक पाठ का अनुवाद करने के लिए पारिभाषिक शब्दावली और अभिव्यक्‍तियों के ज्ञान की विशेष अपेक्षा होती है. यह भी ध्यान रखने की बात है कि यथासंभव इन पाठों के अनुवाद का पाठधर्मी होना श्रेयस्कर है.

विशिष्ट तेलुगु साहित्यविधा अवधान के प्रवर्तक


तेलुगु भाषा और साहित्य में उपलब्ध ‘अवधान’ प्रक्रिया वस्तुतः परंपरा से प्राप्‍त एक विलक्षण प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया के प्रवर्तक दिवाकर्ल तिरुपति शास्त्री और चेल्लपिल्ल वेंकट शास्त्री ‘तिरुपति वेंकट कवि द्वय’ के नाम से विख्यात हैं. अष्‍टावधान, शतावधान और आशु कविता के माध्यम से तिरुपति वेंकट कवि द्वय ने ‘अवधान’ काव्य विधा को सुदृढ़ बनाया.

दिवाकर्ल तिरुपति शास्त्री का जन्म पश्‍चिम गोदावरी जिले में भीमवरम्‌ तालुक के येंडिगंडि नामक गाँव में 26 मार्च , 1872 को हुआ और चेल्लपिल्ल वेंकट शास्त्री का जन्म पूर्वी गोदावरी जिला, राजमंड्री के पास कडियम नामक गाँव में 8 अगस्‍त, 1870 को हुआ.

शतावधान प्रक्रिया का श्रीगणेश इन कवि युगल ने सर्वप्रथम काकिनाडा में किया था. इस प्रक्रिया में पहला कवि एक सौ पदों के पहले चरण को सौ लोगों को बताता है और दूसरा कवि उन सौ पदों के दूसरे चरण को पूरा करता है. बाद में उन सौ पदों को क्रमशः दुहराया जाता है. इन कवियों की विलक्षण प्रतिभा को देखकर अनेक कवि इनके शिष्‍य बन गए.

युगल कवियों ने काकिनाडा के बाद कोनसीमा, नेल्लूरु, बंदरु, एलूरु, पीठापुरम, विजयवाडा, हैदराबाद और गुंटूर आदि शहरों के साथ-साथ गाँवों में भी विगय पताका फहराई. उनके अवधानों में विलक्षणता थी अतः एनी बेसेंट भी उनकी अद्‍भुत प्रतिभा का अभिनंदन किए बिना नहीं रह पाईं.

तिरुपति वेंकट कवियों की साहित्यिक यात्राओं का परिचय ‘नानाराज संदर्शनमु’ में प्राप्‍त होता है. उन्होंने राजदरबारों में भी विजय की दुंदुभी बजाई थी - "दोसमटं चेरिंगियुनु दुंदुडु कोप्पग बेंचिनार मी / मीसमु रेंडु भासलकु मेमे कवींद्रुल मंचु देल्पगा, / रोसमु कल्गिनम्‌ कविवरुल्‌ ममु गेल्वुडु - गोल्चिरेनी ई / मीसमु तीसि मी पद समीपमुलम्‌ तलनुंचि म्रोक्‍कमे." (जानते हैं कि यह दोष है, फिर भी हमने मूँछों को बढ़ाया है. अपने मूँछॊं पर ताव देकर कहते हैं कि हम दोनों भाषाओं (संस्कृत और तेलुगु) के एकमात्र कवि हैं. यदि किसी कवि में पौरुष और विलक्षण प्रतिभा है तो हमें हराकर दिखाए. हम अपनी हार मानकर मूँछें मुँडवाकर उनके चरणों में नत मस्‍तक हो जाएँगे.)

तिरुपति वेंकट कवियों की वाणी में ओज और प्रसाद गुण का अद्‍भुत समन्वय है. "मुद्‍दु मुद्‍दुगा चेप्प बूनितिमा वन्ने / लाडी तीयनि मोवि लंच मिच्चु / कठिनम्मुगा चेप्प गडगिति या प्रौढ़ / कांत वक्षोजमुल्‌ कान्कपेट्‌टु." (कोमल एवं मधुर वचनों से युक्‍त कविता कहने पर लावण्य मूर्ति अपने होठों के मधुरामृत को प्रसाद के रूप में प्रदान करेगी और कठोर वचनों से युक्‍त कविता कहने पर प्रौढ़ा का स्तनपान करना पड़ेगा.). यह पद्‍य कविद्वय के साहस एवं प्रत्युत्पन्नमति का परिचायक है. उनकी कविताओं में शब्द और अर्थ का सामंजस्य चमत्कार पैदा देता है. उनकी कविता सबको मंत्रमुग्ध कर देती है अतः विश्‍वनाथ सत्यनारायण ने कहा कि ‘वर्षा ऋतु में जिस प्रकार पानी की बौंछारों में भीगे बिना रहना असंभव है उसी प्रकार तिरुपति वेंकट कवि द्वय के काव्यामृत के रसास्वादन से वंचित रहना भी असंभव है.’

मौलिकता जीवन और साहित्यिक सृजन दोनों के लिए आवश्‍यक तत्‍व है. इन युगल कवियों की विशेषता भी यही है. इनके समय में वेश्‍यावृत्ति चारों ओर फैली हुई थी. संस्कृति और नैतिकता को भूलकर लोग भोगविलास में भटक रहे थे. इन परिस्थितियों से उद्वेलित कविद्वय ने इस कुप्रथा का जड़ से उच्छेदन करने के लिए सामाजिक काव्यों का सृजन किया जिनमें ‘श्रवणानंदम्‌’ (1898) और ‘पाणिगृहीता’ उल्लेखनीय हैं

‘श्रवणानंदम्‌’ शृंगार प्रधान प्रबंध काव्य है. इस काव्य की नायिका बालामणी वेश्‍या है. वैष्‍णव वंश में जनमा नायक मधुसूदन कवि है. वह नायिका के रूप सौंदर्य पर मुग्ध होता है और उसके प्रेम जाल में फँस जाता है. नायक - नायिका की रति के साथ साथ इस प्रबंध काव्य में नायक के अंतर्द्वन्द्व का भी सफल चित्रण है. इस काव्य में तत्कालीन पतनोन्मुख समाज की प्रवृत्तियों को उकेरा गया है.

‘पाणिगृहीता’ भी शृंगार प्रधान प्रबंध काव्य है. इसे ‘तेलुगु साहित्य का पहला दुःखात्मक काव्य’ माना जाता है. नायक उदारुडु जलजाक्षी की ओर आकृष्‍ट होकर उस पर अपनी समस्त संपदा लुटा देता है और कर्जदार बन जात है. जलजाक्षी को केवल धन से प्रेम था अतः वह नायक का धनहीन हो जाने पर दूसरे व्यक्‍ति के प्रति आकर्षित हो जाती है. नायक जीवन से विरक्‍त होकर चिर शांति के लिए मृत्यु का वरण करता है.

कविद्वय के अन्य कृतियों में ‘बिडालोपाख्यानमु’ 47 पद्‍यों का खंड काव्य है. ‘बिडाल’ अर्थात बिल्ली. इस काव्य में रामकृष्‍ण कविद्वय की तुलना दो बिल्लियों से की गई है. इस काव्य में हास्य रस चरमसीमा तक पहुँच गया है. ‘लक्षणा परिणयमु’ पौराणिक काव्य है. इसमें मुद्र देश की राजकुमारी लक्षणा और श्रीकृष्‍ण के विवाह का वर्णन है. कविद्वय ने ‘कामेश्‍वरी शतकमु’ और ‘मृत्युंजय स्तवमु’ जैसे भक्‍ति परक लघु काव्यों का सृजन भी किया है.

काव्य के साथ साथ तिरुपति वेंकट कवियों ने छह खंडों में पांडवों पर आधारित नाटक लिखे - (1) पांडव जननमु, (2) पांडव प्रसवमु, (3) पांडव राजसूयमु, (4) पांडवोद्योगमु, (5) पांडव अश्वमेधमु और (6) पांडव विजयमुस. इनमें से ‘पांडवोद्योगमु’ अत्यंत उल्लेखनीय है. आगामी महायुद्ध के लिए श्रीकृष्ण की साहयता प्राप्त करने के लिए अर्जुन और सुयोधन श्रीकृष्ण के पास पहुँचते हैं. उस समय श्रीकृष्ण के निद्रा मग्न होने के कारण दोनों चुपचाप उनके पास बैठ जाते हैं. सुयोधन श्रीकृष्ण के सिर के पास बैठता है और अर्जुन चरणों के पास. नींद से जागकर श्रीकृष्ण पहले अर्जुन को देखकर कुशल समाचार पूछते हैं -"येक्कडनुंडि राक इट केल्लरुन सुखुले कदा ? यशो / भाक्कुलु नीदु नन्नलुनु भव्य मनस्कुलु नीदु तम्मुलुन्‌ /जक्कग नुन्नवारे भुजशाली वृकोदरुड ग्रजाज्ञकुन्‌ / दक्कग निल्चि शांतुगति दानु गरिंचुने तेल्पु मर्जना!"(हे अर्जुन ! कहाँ से आए हो ? परिवार में सब कुशल मंगल हैं न ! तुम्हारे यशस्वी बडे़ भाई और उदात्त मनवाले छोटे भाई कुशल तो हैं ! भुजशाली भीमसेन अपने बडे़ भाई धएमराज की आज्ञा का पालन तो कर रहा है न ! चारों ओर शांति है न !)

वस्तुतः श्रीकृष्‍ण महाभारत रूपी संपूर्ण नाटक के सूत्रधार हैं. दुर्योधन के आगमन को वे पहले से ही जानते हैं. वे यह भी जानते हैं कि भीम और दुर्योधन के बीच वैर है. इसलिए वह पहले भीम का स्मरण करते हैं और बाद में दुर्योधन से कुशल समाचार पूछते हैं - "बावा ! येप्पुडु वचितीवु सुखुले भ्रातल्‌ सुतुल्‌ चुट्‍टमुल्‌" (हे दुर्योधन ! कब आए हो ? तुम्‍हारे भाई, पुत्र और बंधु कुशल तो हैं !) यहाँ दुर्योधन के प्रति कृष्‍ण का तेलुगु संबोधन हास्य परक है. जीजा से हँसी मजाक करते समय इस पद का प्रयोग किया जाता है.

तिरुपति वेंकट कवियों ने तेलुगु के अतिरिक्‍त संस्कृत में भी अनेक मौलिक रचनाओं का सृजन किया है. उनमें ‘धातुरत्‍नाकरा’ (चंपू काव्य, 1889-1893) ‘काली सहस्रम’ (1891-1894, 300 श्‍लोक) और ‘शुक - रंभा संवाद’ (1893-1894) विशेष उल्लेखनीय हैं. वे सफल अनुवादक भी थे. उन्होंने ‘देवी भागवतम्‌’, ‘शिवलीललु’, ‘पुराण गाथलु’, ‘श्रीनिवास विलासमु’, बिल्‍हन कृत ‘विक्रमादित्य चरित्र’, वीर नंदी कृत ‘चंद्रप्रभा चरित्र’, राजशेखर कृत ‘बाल रामायण’ को संस्कृत से तेलुगु में अंतरित किया है. इतना ही नहीं, रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियों के अंग्रेजी़ से तेलुगु में अनुवाद का भी श्रेय कविद्वय को प्राप्‍त है. उनकी प्रतिभा का अभिनंदन करते हुए आंध्र विश्‍व विद्‍यालय ने उन्हें ‘कला प्रपूर्ण’ की उपाधि से अभिहित किया. तेलुगु साहित्य जगत्‌ में तिरुपति वेंकट कविद्वय का नाम चिरस्थायी है. दिवाकर्ल तिरुपति शास्त्री के जन्मदिन (26 मार्च) पर हम उन्हें विनम्र प्रणाम निवेदित करते हैं.

'कुरुक्षेत्र ’ काव्य के अंग्रेज़ी अनुवादक डॉ.पी.आदेश्वर राव से साक्षात्कार




‘कुरुक्षेत्र ’ को अनुवाद करने के लिए विशेष रूप से आपने अंग्रेज़ी भाषा को ही क्यों चुना ?

‘कुरुक्षेत्र ’ काव्य का अंग्रेज़ी भाषा में रूपांतरित होना इसलिए वांछनीय है कि अंग्रेज़ी विश्व की समर्थ भाषा है और विश्व साहित्य की परिकल्पना उसी के द्वारा साकार हो सकती है. यदी कोई रचना उस भाषा में अनूदित होती है तो विश्व मानव समुदाय उससे लाभान्वित होता है. अंग्रेज़ी को ही चुनने का एक कारण यह भी है कि भारत में आज भी अंग्रेज़ी उच्चतर भावों व विचारों को व्यक्त करने के लिए एक समर्थ माध्यम है. जो पाठक हिंदी नहीं जानते हैं वे अंग्रेज़ी के माध्यम से ‘कुरुक्षेत्र ’ जैसी रचना का रसास्वादन कर सकते हैं. यदि कोई रचना अंग्रेज़ी में अनूदित होती है तो विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इस कृति के रूपांतरित होने की अत्यधिक संभावना है.


आप के अनुसार इस कृति की क्या विशेषताएँ हैं ?

‘कुरुक्षेत्र ’ दिनकर का ऐसा कालजयी विचारोत्तेजक प्रबंध काव्य है जिसमें मानव समाज की वैयक्तिक, राजनैतिक एवं सामाजिक समस्याओं पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया है. अनादि काल से मानव के वैयक्तिक एवं सामूहिक संघर्षों के कारणों पर महाभारत युद्ध के पश्‍चात्‌ भीष्‍म और युधिष्ठिर के बीच वार्तालाप के माध्यम से विचार किया गया है. युद्ध और शांति के अनेक आयामों को मुखरित किया गया है और मानव समाज को युद्ध मुक्त करने के उपायों पर भी सोचा गया है. आधुनिक युग में वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप निर्मित अणुबम और प्रक्षेपास्त्रों की जन संहार शक्ति का दिग्दर्शन इस कृति में हुआ है. इस काव्य में माहाभारत युद्ध के नेपथ्य में युद्ध की समस्या पर विचार मंथन हुआ है. इस तरह युद्ध भय से संत्रस्त आज के विश्व नागरिक के लिए इस कृति की प्रासंगिकता असंदिग्ध है.


अनुवाद करते समय शब्द के स्तर पर क्या क्या समस्याएँ आई हैं ?

अनुवाद करते समय शब्द चयन के स्तर पर कई समस्याएँ आ गई हैं. पहली समस्या यह है कि हिंदी शब्दों के समानार्थी अंग्रेज़ी शब्दों का चयन कैसे किया जाय. मूल पाठ के कथ्य को प्रभावशाली ढ़ंग से अंग्रेज़ी में उतारने के लिए मुझे अपने अंग्रेज़ी भाषा ज्ञान पर आधृत होना पड़ा है. कविता के क्षेत्र में प्रत्येक शब्द का अपना एक निश्चित अर्थ होता है और उस अर्थ के साथ वह शब्द एक विशिष्ट बिंब या चित्र को प्रस्तुत करता है. अतः जैसे कवि अपने सृजन कर्म में अपनी भाषा के शब्दों को चुनता है वैसा ही अनुवादक को भी लक्ष्य भाषा में समानार्थी एवं समान बिंबधर्मी शब्दों का चयन करना पड़ता है. दूसरी समस्या है, अंग्रेज़ी काव्यानुवाद में भावाभिव्यक्ति के लिए ऐसे शब्द चुने जाए जो विचारों का वहन करनेवाली भाषा शैली के प्रवाह में बाधक न हों. अतः अंग्रेज़ी शब्दों की लयात्मकता पर भी मुझे विशेष ध्यान देना पड़ा है. अनुवाद में शब्दों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी ध्यान दिया गया है, जैसे ‘वैतरणी ’ का अनुवाद ग्रीक मिथक में संप्राप्त ‘Styx ' किया गया है. दोनों शब्द नरक में प्रवाहमान भयावह नदियाँ हैं.



मूल पाठ की संवेदना को रूपांतरित करने में किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?

मूल पाठ की संवेदना को रूपांतरित करते समय मुझे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. मुख्य समस्या तो यही है कि मूल पाठ की संवेदना को अंग्रेज़ी में सफलता के साथ कैसे उतारा जाय. जितनी सहजता से दिनकर अपनी काव्य शैली में भावों एवं विचारों को हिंदी में उतारते हैं, उसी संवेदना को, उसी शैली को आत्मसात करते हुए अंग्रेज़ी में प्रत्येक पंक्ति का पुनःसृजन करने की चेष्टा मैं ने की. अंग्रेज़ी में ठीक समांतर अभिव्यक्ति प्राप्‍त करने के लिए प्रत्येक छंद को कई बार बदलना पड़ा है. जब तक छंद का अनुवाद अंग्रेज़ी में ठीक उतरता नहीं है, तब तक काव्यानुवाद की यह प्रक्रिया चलती रही. जब मूल छंद और अनूदित छंद में एकरूपता, लयात्मकता तथा प्रभावोत्पादकता में सामंजस्य बैठ जाता है तब आगे के छंद की ओर मैं अग्रसर होने लगता. वास्तव में काव्य सर्जना या काव्यानुवाद की प्रक्रिया एक मधुर सुखात्मक अनुभूति है. इसी कारण कुछ छंदों के अनुवाद के पीछे कई घंटे लागाने पर भी वह श्रम बड़ा सुखद ही लगता था.



अन्य व्याकरणिक स्तरों पर क्या समस्याएँ आई ?

‘कुरुक्षेत्र ’ के अंग्रेज़ी काव्यानुवाद के संदर्भ में व्याकरणिक स्तरों पर अधिक समस्याएँ उपस्थित नहीं हुई हैं. वाक्यों में संबंधकारकों के संदर्भ में यद्‍यपि सावधानी बरतनी पड़ी है. हिंदी की काव्य शैली में कहीं कहीं एक साथ कई विशेषणों का प्रयोग किया गया है, वहाँ पर अंग्रेज़ी भाषा की प्रकृति के अनुरूप उन्हें घटा दिया गया है ताकि अनुवाद में सहजता का समावेश हो.



कृति के प्रतिपाद्‍य को अंग्रेज़ी में रूपांतरित करने के लिए आपने किस तरह की अनुवाद प्रक्रिया अपनाई ?

कृति के प्रतिपाद्‍य को अंग्रेज़ी में रूपांतरित करते समय जो अनुवाद प्रक्रिया अपनाई गई है, वह यह है कि मूल कृति का पुनःसृजन अंग्रेज़ी में हो. इसके लिए कृति के प्रतिपाद्‍य को सीधे पाठकों के मन में उसी तरह उतारना जिस तरह मूल पाठ में किया गया है. युद्ध की समस्या तथा उसका निदान दिनकर के विचारों के प्रवाह में उभर आया है. अतः अनुवाद में भी मूल कवि दिनकर ने जितनी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है, उसी ‘टोन ’ व ‘ट्‌यून ’ में लाना ही मेरा लक्ष्य रहा है. प्रतिपाद्‍य को संप्रेषित करने के लिए उसके अनुकूल अनुवाद की शैली को प्रवाहमय बनाने की चेष्टा की गई है. मूल एवं अनुवाद दोनों की समतुल्यता को ध्यान में रखकर अनुवाद कार्य हुआ है.



इस कृति के अनूदित पाठ में सप्‍तम सर्ग में निम्नलिखित अंश छूटा हुआ है - "और, कहे, क्या स्वयं उसे /कर्तव्य नहीं करना है ? / नहीं काम कर सही भीख से / क्या न उदर भरता है ?" (मूल पृ.94, अं.अ.पृ. 93). इसके बारे में आपका क्या विचार है ?

मैंने उपर्युक्त छंद का भी अनुवाद किया है. प्रकाशन के समय शायद इसका अनुवाद छूट गया हो. मुद्रण की असावधानी भी इसका कारण हो सकता है. दूसरे संस्करण में इस छंद का अनुवाद भी जोड़ा जाएगा.


इस रचना के अनुवाद करने की योजना कैसी बनी ?

इस रचना के अनुवाद की कोई सुनिश्चित योजना नहीं थी. वास्तव में 1965 में ही मैंने ‘कुरुक्षेत्र ’ के द्वितीय सर्ग का अंग्रेज़ी अनुवाद किया था. युद्ध की समस्या पर व्यक्त दिनकर के विचारों को अंग्रेज़ी में प्रस्तुत करना ही तब मेरा लक्ष्य था. जब दिनकर जी का देहांत 1974 में मद्रास में हुआ तो उनकी कविता से अंग्रेज़ी पाठकों को परिचित कराने की दृष्टि से मैंने उस समय दिल्ली से निकलनेवाली अंग्रेज़ी दैनिक पत्रिका ‘नेशनल हेराल्ड ’ के संपादक चलपतिराव को भेजा तो उन्होंने तत्काल पूरे सर्ग को ‘Thus Spoke Bhishma ' के शीर्षक से प्रकाशित किया. जब मैं 1988 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्‌ की ओर से विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में बेल्जियम गया था वहाँ अमेरिका और ईरान के बीच भयानक यद्ध छिड़ गया. इस युद्ध के साथ ‘कुरुक्षेत्र ’ की प्रासंगिकता बढ़ गई. तब मैंने अन्य छह सर्गों का काव्यानुवाद 27 दिनों में कर डाला और मेरे मित्र डॉ.यिनांद एम.कालवार्ट को दिखाया. मैंने अनुवाद को कंप्यूटर में डाला और मेरे मित्र ने कई स्थानों पर अभिव्यक्ति को बदलने में योग दिया. इसी कारण मैंने कालवार्ट को सह-अनुवादक बनाया. मेरी मित्र मंडली ने इस अनुवाद की प्रशंसा की और उसे प्रकाशित किया.



आप अनूदित कृति के किस पक्ष को महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय मानते हैं और क्यों ?

अनूदित कृति के वस्तुपक्ष को इसलिए मैं महत्वपूर्ण मानता हूँ क्योंकि इसमें एक कालजयी राजनीतिक एवं सामाजिक समस्या पर बड़े विस्तार से प्रकाश डाला गया है. चिरंतन काल से मानव समाज को आतंकित करनेवाली ‘युद्ध की समस्या ’ के कारणों और उसके निवारण के उपायों परा विचार किया गया है. आज के भारत-पाक के विवाद व संघर्ष का ब्यौरा भी इस कृति में मिलता है. युद्ध की यह समस्या समसामायिक होने के साथ साथ सर्वकालीन है. यह अनूदित कृति विश्व के समक्ष इस भयावह युद्ध की समस्या को रेखांकित करते हुए विश्व को चिरंतन शांति देती है.



क्या आपने इस अनुवाद के लिए कोश आदि की भी सहायता ली ? या केवल भाव बोध के आधार पर अनुवाद किया ?

इस अनुवाद के लिए कई कोशों की सहायता ली गई है. जहाँ पर मुझे अंग्रेज़ी के ठीक शब्द नहीं मिलते थे और जहाँ मेरी अभिव्यक्ति को सशक्त बनाने के आवश्यकता होती थी, वहाँ मैंने हिंदी-अंग्रेज़ी कोश, अंग्रेज़ी-अंग्रेज़ी कोश तथा अंग्रेज़ी के समानार्थी कोश (Thesaurus) आदि कोशों की सहायता ली.



इस अनुवाद कार्य से आपको कितनी और किस तरह की आत्मसंतुष्टि प्राप्‍त हुई ?

इस अनुवाद कार्य से मुझे अतीव आत्मसंतुष्टि मिली. वास्तव में मैं स्‍वांतः सुखाय ही अंग्रेज़ी काव्यानुवाद की ओर प्रवृत्त हुआ. हिंदी व तेलिगु की कालजयी काव्य कृतियों को अंग्रेज़ी में रूपांतरित करना मेरी साहित्यिक साधना का एक आयाम है. मेरा एक संकल्प ‘कुरुक्षेत्र ’ काव्यानुवाद के साथ पूरा हो गया. मैंने यह अनुभव किया कि मैंने दिनकर की इस महान कृति को अंग्रेज़ी पाठकों के समक्ष प्रभावशाली शैली में प्रस्तुत किया है. यह मेरी आत्मतुष्टि का प्रमुख कारण है.



अनुवाद करते समय यदि कुछ रोचक अनुभव हुए हैं तो उनका उल्लेख करेंगे ?

अनुवाद स्वयं अपने आप में एक अवतंत्र निर्माण है और काव्यानुवाद में प्रवृत्त लेखक को एक प्रकार का आनंद प्राप्त होता है. मैं इस अनुवाद को समाप्त करने के लिए हर रोज नियमित रूप से 5 पृष्ठों का अनुवाद कर लेता था. समय को निश्चित कर लेने के कारण एक महीने की अवधि में ही उसका प्रथम पाठ (First Draft) पूरा हुआ. उसे संशोधित एवं परिवर्धित किया. जब तक प्रत्येक छंद का सटीक या आदर्श अनुवाद प्रस्तुत नहीं होता तब तक एक बेचैनी मुझे सताया करती थी.



हिंदी से अंग्रेज़ी में साहित्यिक अनुवाद से क्या लाभ हैं ?

हिंदी भारत की प्रमुख राष्ट्रभाषा है और उसमें समृद्ध साहित्य भी है. अंग्रेज़ी विश्व की संपर्क भाषा है और उसमें विश्व साहित्य के महान ग्रंथ उपलब्ध होते हैं. अंग्रेज़ी अनुवादों द्वारा ही आस्वादन किया जा सकता है. अंग्रेज़ी अनुवादों द्वारा ही विश्व का पाठक अन्य साहित्यों से परिचित हुआ है. अतः हिंदी से अंग्रेज़ी में साहित्यिक अनुवाद से हिंदी के लेखक एवं उनके ग्रंथ विश्व स्तर पर पढ़े जाते हैं.

भारत की प्रमुख भाषाओं में अंग्रेज़ी का अपना स्थान है. आज भी वह शिक्षित समाज के व्यवहार की भाषा है. अतः भारत में भी अहिंदी भाषी, जो अंग्रेज़ी जानते हैं, वे हिंदी ग्रंथों को अंग्रेज़ी अनुवाद के माध्यम से पढ़कर हिंदी साहित्य का रसास्वादन कर सकते हैं.



इस स्मय क्या आप कोई अंग्रेजी में स्नुवाद कार्य कर रहे हैं ? या फिर कोई योजना बना रहे हैं ?

आज से चालीस वर्ष पूर्व ही (1962 में) जब मैं शोध कर रहा था, तब दिनकर की ‘उर्वशी ’ का प्रकाशन हुआ. जब मैं, शोध कार्य करता था तब मैं आत्मतोष के लिए ‘उर्वशी ’ का अंग्रेज़ी अनुवाद करने लगा. 1964 तक मैंने उसके तीन अंकों का अनुवाद पूरा किया. अन्य विषयों में व्यस्त होने के कारण मैंने बचे हुए भाग का अनुवाद नहीं किया. मद्रास में स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के स्नातकोत्तर विभाग में मैं अक्तूबर 1964 में प्राध्यापक बना. 1967 में जब दिनकर जी हमारे विभाग में आए थे मैंने ‘उर्वशी ’ के अंग्रेज़ी अनुवाद के प्रथम तीन अंक उन्हें समर्पित किया. दूसरे दिन दिनकर जी से मिलने के लिए गोयंका के आवास पर मैं गया और उनसे मिला. तब तक उन्होंने मेरे अंग्रेज़ी अनुवाद को पढ़ लिया. मेरे अनुवाद से संतुष्ट होकर उन्होंने अंग्रेज़ी में ही मुझ से कहा "Dr.Rao if you can complete the rest, it will be a wonderful feat in India". दिनकर जी के जीवनकाल में मैं उस अनुवाद को पूरा क नहीं सका. 1974 में दिनकर जी के निधन होने पर अंग्रेज़ी दैनिक ‘नेशनल हेराल्ड ’ में दो हफ्तों तक ‘उर्वशी ’ का मेरा अंग्रेज़ी काव्यानुवाद छपता ही रहा. 1988 में (बेल्ज़ियम में रहते समय) ‘उर्वशी ’ का अनुवाद पूरा किया.

मैंने अपने गुरुवर तथा तेलुगु व हिंदी के विख्यात कवि आलूरि बैरागी जी की प्रायः सभी तेलुगु कविताओं का अनुवाद चार भागों में किया है. उनके शीर्षक हैं - ‘Voices From The Empty Well', `The Broken Mirror', `The Unwritten Poetry', `Tamilnadu, My Foster Mother'. डॉ.नगेंद्र जी के आग्रह पर उनके कवि मित्र श्री रामनिवास जाजू के दो काव्य संग्रहों का अंग्रेज़ी पद्‍यानुवाद प्रस्तुत किया - `Quest For Love' and `Puppets Of Time'.

मैंने 20 वीं शताब्दी के पचास से अधिक प्रतिनिधि हिंदी कवियों की कविताओं का अंग्रेज़ी काव्यानुवाद किया है. यह ‘Modern Hindi Poetry (20th Century) ’ नाम से प्रकाशित है.

आगे भी कई योजनाएँ हैं. समय का अभाव है. तेलुगु के प्रसिद्ध कथाकार गुडिपाटि वेंकट चलम्‌ के प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय उपन्यासों का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रस्तुत करने का संकल्प मुझमें है.

भारतीय साहित्य की पहचान की खोज



भारत में बोली जानेवाली भाषाओं एवं बोलियों की संख्या सैकड़ों में है, लेकिन भारतीय संविधान के आठवें अनुसूची में असमिया, उडि़या, उर्दू, कन्नड़, कश्‍मीरी, कोंकणी, गुजराती, डोगरी, तेलुगु, नेपाली, बांग्ला, बोरा, मणिपुरी, मराठी, मलयालम्‌, मैथिली, संताली, संस्कृत, सिंधी और हिंदी - इन 22 भाषाओं को राष्‍ट्र की भाषाओं के रूप में स्वीकृति प्राप्‍त है. इन सभी भाषाओं में साहित्य का सृजन होता रहा और आज भी प्रचुर मात्रा में हो रहा है. इन सभी भाषाओं और बोलियों की अपनी एक अलग पहचान है. प्रायः यह जिज्ञासा होती है कि क्‍या इन सबको मिलाकर एक संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है. क्‍या ये सब मिलाकर भारतीय साहित्य का एक विशिष्‍ट स्वरूप प्रस्तुत कर सकती हैं. हाँ. इन भाषाओं में रचित साहित्य को ‘भारतीय साहित्य’ की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है. कहीं-न-कहीं इन सभी भाषाओं और बोलियों में साम्य विद्‍यमान है.

समस्त आधुनिक भारतीय साहित्य में तीन समान तत्व स्पष्‍ट रूप से दिखाई देते हैं - (1) प्राचीन भारतीय साहित्य (संस्कृत साहित्य) का प्रभाव, (2) पाश्‍चात्य साहित्य (मुख्यतः अंग्रेज़ी साहित्य) का प्रभाव और (3) क्षेत्रीय प्रभाव. डॉ.सियाराम तिवारी द्वारा संपादित ग्रंथ ‘भारतीय साहित्य की पहचान’(2009) में संपादक ने यह कहा है कि उर्दू साहित्य में प्राचीन भारतीय साहित्य से कुछ नहीं आया है और उसकी कोई क्षेत्रीय विशेषता इसलिए नहीं है कि उसका कोई भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं है. इस बात पर विवाद हो सकता है. स्वयं संपादक की आगे की गई स्थापनाएँ भी उनके कथन के विरोध में जाती दिखाई देती हैं.

आधुनिक भारतीय भाषाओं मे संस्कृत साहित्य से अनेक रचनाएँ आई हैं . ‘रामायण’, ‘महाभारत’, और ‘श्रीमद्‍भागवत’ आदि ग्रंथों का अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं में प्राप्‍त हैं. रस, अलंकार और रीति जैसे काव्यशास्त्रीय तत्व भी सभी भारतीय भाषाओं में समान रूप से प्राप्‍त होते हैं. उर्दू साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है.

यह सर्वविदित है कि भारतीय वाड्‍.मय के प्रभाव के कारण भारतीय साहित्य में समानता दिखाई देती है. इसी प्रकार पाश्‍चात्य साहित्य से प्रभावित उर्दू साहित्य समस्त भारतीय साहित्य को एक सूत्र में बाँध देता है. इसके परिणाम स्वरूप कविता में नवीन प्रयोग तथा गद्‍य में नूतन विधाओं का समावेश हुआ है.

कुछ तत्व ऐसे भी हैं जो भारतीय साहित्य की एकता में बाधा पहुँचाते हैं. उन बाधक तत्वों में से पहला तत्व है भाषा भेद. भारत में कोई एक केंद्रीय भाषा नहीं है. वह बहुभाषा भाषी राष्‍ट्र है. अगर हम हिंदी की ही बात लें तो पता चलता है कि इसकी अनेक उपभाषाएँ हैं और इनका अपना समृद्ध साहित्य भी है. इसी भाषा बाहुल्य के कारण भारतीय भाषाओं की एकता पर प्रश्‍न चिह्‌न लगता है.

वस्‍तुतः सभी भारतीय भाषाएँ एक ही संस्कृति की उपज हैं. वह है भारतीय संस्कृति. अतः इन भाषाओं में भले ही व्याकरणिक भिन्नताएँ हों लेकिन एकता के तत्व भी विद्‍यमान हैं. इसे नकारा नहीं जा सकता. भारतीय भाषाओं की संरचना भी एक समान है - कर्ता, कर्म और क्रिया. इन भाषाओं में प्राप्‍त संगीत तत्व भी एक समान ही है.

भारतीय जनता में बाह्‌य विषमताएँ होने पर भी आंतरिक रूप से वे समान हैं. अर्थात्‌ उनकी मानसिकता एक है, सोचने-विचारने की पद्धति एक है. इतना तक की सबके विश्‍वास भी एक है. भारतीय संस्कृति में ईश्‍वर, भाग्यवाद, जन्‍म, पुनर्जन्‍म, परलोक, स्वर्ग, नरक और नियति आदि की संकल्पना प्राप्‍त हैं और ये सब भारतीय जन जीवन के अविभाज्य अंग हैं. यही व्यापक साम्‍य है जो अनेकता में एकता के सूत्र को पूरी तरह से सच साबित करता है. अतः एकता के तत्व भारतीय भाषाओं में भी दिखाई देते हैं.

भाषा बाहुल्य के साथ-साथ एक अन्य बात है जो भारतीय साहित्य को अलग पहचान प्रदान करती है. वह है भौगोलिक क्षेत्र. भाषा, रूप, रंग, आचार-व्यवहार, खान-पान, वेश-भूषा और जलवायु में भी वैविध्‍य विद्‍यमान है. यह असीम वैविध्य भारतीय साहित्य के लिए चुनौती है. इसके अतिरिक्‍त क्षेत्रीय भावना भी भारतीय साहित्य की समेकित पहचान में बाधा उत्पन्न करती है. भाषा के आधार पर अलग राज्यों का निर्माण हुआ है और हो भी रहा है. इन राज्यों के लिए सवायत्तता की मांग की जा रही है. अतः आज तक भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि निर्धारित नहीं हो सकी. यदि सभी भाषाओं के लिए एक वैज्ञानिक लिपि स्वीकृत हो जाए तो क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य भी परस्पर एक-दूसरे के निकट हो जाएगा.

सांस्कृतिक एकता से जुडे़ भारत में भाषागत वैविध्य होने पर भी इसके साहित्य में समान प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं. संपादक के शब्दों में कहें तो, जिस प्रकार हिंदी के सूरदास (1478-1583) के ‘सूरसागर’ में सख्य भाव के पद मिलते हैं, उसी प्रकार सिंधी के महामति प्राणनाथ (1618-1694) की ‘सिंधी वाणी’ में सख्य भावापन्न पद उपलब्ध हैं. सिंधी के सचल सरमस्त (1739-1829) भी आडंबरों के वैसे ही विरोधी थे जैसे हिंदी के कबीरदास (1398-1518). मलयालम्‌ के तुंचत्तु रामानुजन एष़त्तुच्छन तुलसीदास के समान जन नायक कहे जाते हैं. तमिल और हिंदी साहित्य के कवियों और काव्य प्रवृत्तियों में भी समानताएँ विद्‍यमान हैं. तमिल के संत कवि तिरुमूलर को दक्षिण का कबीर कहा जाता है. तमिल साहित्य के इतिहास में अंकित पल्लव काल हिंदी साहित्य के इतिहास का भक्‍तिकाल है.

तेलुगु साहित्य में शतक काव्य (सतसई) परंपरा हिंदी के समान ही है. तेलुगु के कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु ने अंग्रेजी़ शासन के खिलाफ आवाज उठाईं और जनता को जागृत किया ठीक उसी प्रकार भारतेंदु हरिश्‍चंद्र ने किया. जिस समय हिंदी साहित्य में छायावाद की लहर दौड़ रही थी उस समय तेलुगु साहित्य में भाव कविता की लहर दौड़ रही थी. छायावाद के पश्‍चात्‌ प्रगतिवाद का उदय हुआ तो तेलुगु साहित्य में अभुदय कविता का उदय हुआ. इसी प्रकार बांग्‍ला, पंजाबी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं में समान काव्य प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं.

भारतीय भाषाओं के साहित्यकार भी आपस में मिले जुले रहते हैं. एक भाषा के साहित्यकार अन्य भाषा के साहित्यकार से प्रभावित होकर साहित्य सृजन करते हैं. किसी भी भारतीय भाषा में रचित साहित्य क्‍यों न हो, उसमें उस क्षेत्र की संस्कृति प्रतिबिंबित होती है. भारतीय साहित्य की रचना का मूल भी यहाँ की संस्कृति ही है. अतः सियाराम तिवारी कहते हैं कि भारत विभिन्न प्रजातियों, विभिन्न भाषा भाषियों एवं विभिन्न धर्मावलंबियों का देश है. फिर भी, समग्र भारत सांस्कृतिक एकता के सूत्र में सुग्रथित है. उर्दू भाषा और उर्दू साहित्य में भारतीय संस्कृति इसी प्रकार प्रतिबिंबित है जिस प्रकार बांग्ला, तमिल, तेलुगु, कश्‍मीरी आदि भाषाओं और उनके साहित्य में प्रतिच्छायित है.

निष्‍कर्षतः यह कह सकते हैं कि सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य समान प्रवृत्तियों को लेकर चलता है. डॉ.सियाराम तिवारी द्वारा संपादित इस ग्रंथ ‘भारतीय साहित्य की पहचान’ में 22 भाषाओं के साहित्य पर विभिन्न विद्वानों के विस्तृत लेख संकलित हैं जो विभिन्न कालों, विभिन्न परिस्थितियों और विभिन्न क्षेत्रों के रचनाकारों द्वारा विभिन्न भाषाओं में रचे साहित्य की अपनी अपनी भिन्न्ता औए विशिष्‍टता का सम्मान करते हुए उन तत्वों को रेखांकित करते हैं जिनके कारण यह साहित्य भारतीयता से संपन्न होकर ‘भारतीय साहित्य’ के अभिधान का पात्र बनता है. हिंदी के माध्यम से समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के आकलन का यह प्रयास वास्तव में स्तुत्य और अभिनंदनीय है. इसकी प्रामाणिकता में भी कोई संदेह नहीं किया जा सकता क्‍योंकि इसके विभिन्न अंशों का लेखन संबंधित भाषाओं के मर्मज्ञ द्विभाषी विद्वानों द्वारा किया गया है.
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* भारतीय साहित्य की पहचान / (सं) डॉ.सियाराम तिवारी / 2009 / नालंदा मुक्‍त विश्‍व्विद्‍यालय, तीसरा तल, बिस्कोमन भवन, पश्‍चिम गांधी मैदान, पटना - 800 001 / पृष्‍ठ - 768 / मूल्य - रु.550/-

तेलुगु के मानवतावादी कवि श्रीश्री : शताब्दी संदर्भ

" श्रम निष्फलमै, जनि निष्‍ठुरमै,
नूतिनि गोतिनी वेदिकेवाल्ल्लु,
अनेकुलिंका अभाग्युलंता,
अनाथुलंता,
अशांतुलंता,
दीर्घ श्रुतिलो, तीव्र ध्‍वनि तो
विप्लव शंखम्‌ विनिपिस्तारोई "

(भाव : जब शोषित लाचार होगा और शोषकों के अत्याचार बढ़ेंगे तब सारे श्रमिक व शोषित वर्ग का विप्लव शंख प्रतिध्वनित होगा)


विप्लव का दहकता अंगार, मानवतावादी जनकवि श्रीरंगम्‌ श्रीनिवास राव (श्रीश्री) का जन्म 2 जनवरी 1910 में विशाखपट्टणम्‌ (आं.प्र) में हुआ. श्री श्री तेलुगु अभ्यूदय कविता (प्रगतिशील कविता) को एक नया आयाम दिया है. लौकिक जीवन के हर एक रंग रूप और मानव हृदय की जटिल भावनाओं को उन्होंने अपनी कविता में अभिव्यक्त किया है. उनकी कविता में एक ओर जहाँ क्रांति की ज्वालमुखी फूटती है वहीं दूसरी ओर भावुकता भी प्रस्फुटित होती है. वर्ग विहीन समाज की स्थापना ही श्रीश्री का सपना था. अतः उन्होंने नवयुवकों को आवाज दी - "मरो प्रपंचम्‌/मरो प्रपंचम्‌/मरो प्रपंचम्‌ पिलिचिंदी!/पदंड़ि मुंदुकु/ पदंड़ि त्रोसुकु/पोदाम पोदाम पै पैकि!"(एक नया युग/एक नया जग/एक नया जग रहा पुकार!/डट के चलो तुम/सट के चलो तुम/चढ़ के चलो तुम/बढ़के चलो !" ; महाप्रस्थान)


श्रीश्री ने अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों का पर्दाफाश किया था. वस्तुतः ‘मनुष्‍य ’ ही उनकी कविता का केंद्रबिंदु है. ‘महासंकल्‍पम्‌ ’ (महासंकल्प) नामक कविता के माध्यम से उन्होंने यह स्पष्‍ट किया है कि "मनुष्युडे ना संदेशम्‌, मानवुडे ना संगीतम्‌"(मनुष्य ही मेरा संदेश है, मानव ही मेरा संगीत है). हम जब भी श्रीश्री की कविता का आकलन करेंगे तब मन में यही प्रश्‍न उभरता है कि उनका ‘मानव ’ कौन है? इस प्रश्‍न का समाधान भी हमें उन्हीं की कविता ‘मानुवुड़ा ’ (हे मानव !) में मिलेगा. इसमें कवि ने मनुष्‍य के हर एक रूप का सफल चित्रण किया है. इस कविता की अंतिम पंक्तियों को देखें - "खैदी !/रौड़ी !/खूनीखोर !/बेबी !/मानव !/हे मानव !" . समाज में मानव के अनेक रूप हैं. वह खैदी भी है और गुंडा भी. खुंख्वार खूनी भी है और निर्मल एवं कोमल शिशु भी. इन सबसे ऊपर वह मानव है.


श्रीश्री की कविताओं में मुख्य रूप से पूँजीपतियों के हाथों में पीड़ित शोषक वर्ग का इमेज अंकित है. वास्तविक जीवन की कठोर यथार्थता तथा असफलताओं ने मानव को निराशाग्रस्त और कुंठित बनाया. अतः श्रीश्री आक्रोश व्यक्‍त करते हैं कि - "मनमंता बानिसलम्‌,/गानुगलम्‌,/पीनुगुलम‌ !/वेनुक दगा, मुंदु दगा,/कुडि एडमल दगा, दगा !/***/मनदी ओक ब्रतुकेना?/कुक्कल वले, नक्कल वले!/मनदी ओक ब्रतुकेना ?/संदुलो पंदुलवले ?(हम सब गुलाम हैं,/कोल्हू हैं, मुर्दे हैं,/पीछे छल, आगे छल/दाएँ - बाएँ छल ही छल !/***/हमारी भी कोई ज़िंदगी है ?/कूकरों-सी, सियारों-सी,/हमारी भी कोई ज़िंदगी है ?/गलियों की सुव्वरों-सी? ; कडुवा गीत)


संसार के सभी देशों के इतिहास में छिपे ‘असली’ और ‘नकली ’ को उन्होंने पहली बार अपनी कविता ‘देश चरित्रलु ’(देश का इतिहास) में उजागर किया जो वस्तुतः द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का प्रतिबिंब है - "ये देश चरित्र चूचिना/ ये मुन्नदी गर्व कारणम्‌ ?/नर जाति चरित्र समस्तम्‌/पर-पीड़ परायणत्वम्‌."(किसी भी देश का देखें इतिहास/क्या है उसमें गर्व का अंश/नर जाति का समस्त इतिहास/पर-पीड़न से भरा हुआ है.)


मार्क्स की विचार पद्धति से प्रभावित श्रीश्री ने उपेक्षित, दुर्बल, निर्धन जनता की दयनीय स्थिति को उजागर किया है - "बलवंतुलु दुर्बल जातिनी/ बानिसलनु काविंचारु;/नरहंतलु धराधिपतुलै/चरित्रमुन प्रसिद्धि केक्किरी./***/रणरंगम्‌ कानिचोट भू/स्थलमंता वेदकिना दोरकदु;/***चल्लारिन संसारालू/मरणिन्चिन जन संदोहम्‌/असहायुल हाहाकारम्‌/चरित्रलो मूलुगुतुन्नवी."(बली लोग दुर्बल जन को/दास बनाकर कुचल चुके हैं/नरहंतक सब धराधीश बन/इतिहास में बैठ चुके हैं./***नहीं दीखना ऐसा स्थल जो/नर के रक्‍त से सिंचा न हो/***/बुझे पड़े सारे परिवार/.गिरी मरी जनता इकतार/असहायों के हाहाकार/कराहते हैं इतिहासों में ; देशों का इतिहास)


मार्क्स की पुस्तक में लिखी गई पहली पंक्‍तियाँ पूरी तरह श्रीश्री की निम्नलिखित पंक्‍तियों में उतर आई हैं - "परस्परम्‌ संघर्षिंचिन/शक्‍तुल्लो चरित्र पुट्टेनु" (शक्‍तियों के पारस्परिक संघर्ष से/जन्म लिया था इस सारा इतिहास ने ; देश का इतिहास)


झूठे इतिहास में उपेक्षित तथ्यों को खोज निकालने के लिए कवि हमें प्रेरित करते हैं - "इतिहासपु चीकटिकोणम्‌/अट्टडुगुन पडि कनिपिंचिना/कथलन्नी कावालिप्पुडु !/दाचेस्ते दागनी सत्यम्‌." (इतिहास के अंधेरे कोने/निचले तह में गिरकर नजर न आती/कहानियाँ सब हमें चाहिए अब/छिपाने से नहीं छिपता सत्य ; देश का इतिहास)


विश्‍व भर के मजदूरों के एक हो जाने से पूँजीवादी व्यवस्था का विनाश अवश्य होगा. मार्क्स द्वारा कही गई इस बात को श्रीश्री ने अपनी कविता में उकेरा है - "चीनालो रिक्शावाला,/चेक देशपु गनि पनिमनिषि,/आयरलैंडुन ओड कलासी,/अनगारिन आर्थुलंदरू -/***/हाटेन टाट,जूलू, नीग्रो,/खंडांतर नाना जातुलु/चारित्रिक यथार्थत्वम्‌,/चाटिस्ता ओक गोंतुकतो."(चीन देश का रिक्शावाला/चेक देश के खानी नौकर/आयरलैंड के जहाज नौकर/बढ़े पड़े सारे पीड़ित नर/***/हाटेन टाट, जूलू, नीग्रो,/सारे खंड़ांतरवासी जन/बताएँगे एक कंठ से/इतिहासों का मार्मिक मन ; देश का इतिहास)


फ्रांस की क्रांति से यूरोप के प्रायः सभी देशों में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ. इसके बाद रूस की क्रांति के कारण साम्यवाद की स्थापना हुई. श्रीश्री ने अपनी कविता ‘गर्जिंचु रष्या ’ (गर्जना कर रूस !) में यह उल्लेख किया है कि अत्याचारी शासकों का ध्वंस करना चाहिए - "गर्जिंचु रष्या !/गांड्रिंचु रष्या !/परजन्य शंखम्‌ पलिकिंचु रष्या !/दौर्जन्य राज्यम्‌ ध्वंसिंचु रष्या!" (गर्जना कर रूस!/गर्जना कर/शंख फूँककर/युद्ध की तू घोषणा कर/अत्याचारी शासकों का ध्वंस कर)


भारत में जो औद्‍योगिक विकास हुआ है, वह शोषण के आड़ में हुआ था. भारत पहले लूट का शिकार बना और बाद में शोषण का. आज मानव यांत्रिक पुर्जा बन गया है. औद्‍योगिक विकास के कारण मनुष्य का बौद्धिक विकास तो हुआ, लेकिन शोषण का स्वरूप सघन और सुव्यवस्थित होता गया. यांत्रिक सभ्यता के कारण कृषकों को मजबूर होकर मजदूर बनना पड़ा और रोजी रोटी के लिए शहर की ओर भागना पड़ा. कवि अपनी कविता ‘बाटसारी ’(राही) में पापी पेट भरने के लिए अपनी माँ की बात टालकर शहर जाननेवाले राही की निस्सहायता पर सहानुभूतिव्यक्‍त की हैं -"बाटसारी कलेबरंतो/शीतवायुवु आडुकुंटोंदि !/पल्लेटूल्लो तल्लिकेदो/पाडु कललो पेगु कदिलिंदि !" (राही के शरीर से/ठंडी हवा खेलने लगी !/माँ अपने सपने में/बेचैनी झेलने लगी)


‘भिक्षुवर्षीयसी ’ में कवि ने वर्षा में भीगती हुई एक भिखारिनी का यथार्थ चित्र अंकित किया है -"दारिपक्क, चेट्टुक्रिंद,/आरिन कुंपटि विधान/कूर्चुन्नदि मुसलदोक्कते/मूलुगुतू/***/आ अव्व मरणिस्ते/आ पापम्‌ एव्वरिदनी/वेर्रिगालि प्रश्‍निस्तू/वेल्लिपोयिंदि !" (पथ के समीप, तरू के तले,/बुझी पड़ी एक अंगीठी-सी/बुढ़िया बैठी थी कराहती,/***/पगलीहवा प्रश्‍न करती निकल गई-/यदी वह बूढ़ी मर जाए तो/वह पाप किसके सिर लगेगा?)


प्रगतिवादी कवि की दृष्टि में कविता के लिए त्याज्य वस्तु कोई नहीं है. कोई चीज़ बुरी या भली नहीं होती. अर्थात्‌ कोई भेदभाव नहीं होती. श्रीश्री के अनुसार कुत्ता, साबुन का टुकड़ा, दियासलाई आदि वस्तुओं को भी ‘नई कविता ’ में स्थान दिया जाएगा - "कुक्क पिल्ला, अग्गिपुल्ला, सब्बुबिल्ला-/हीनंगा चूडकू देनिनी !/कवितामयमेनोई अन्नी ! (कुत्ते का पिल्ला हो/साबुन का टुकड़ा हो/डिब्बा हो या दियासलाई/मत समझो हीन किसी को/कवितामय समझो सबको !)


कवि की दृष्टि में यह संसार एक पद्‍मव्यूह है और कविता कभी न बुझती दाह है. वस्तुतः श्रीश्री की दृष्टि विश्वमानवता की दृष्टि है. अतः वे कहते हैं कि "जो कुछ देखा, जो कुछ सुना/उसे व्यक्‍त करने निकला था मैं." (कविता ! हे कविता !)