रविवार, 28 मार्च 2010

भारतीय साहित्य की पहचान की खोज



भारत में बोली जानेवाली भाषाओं एवं बोलियों की संख्या सैकड़ों में है, लेकिन भारतीय संविधान के आठवें अनुसूची में असमिया, उडि़या, उर्दू, कन्नड़, कश्‍मीरी, कोंकणी, गुजराती, डोगरी, तेलुगु, नेपाली, बांग्ला, बोरा, मणिपुरी, मराठी, मलयालम्‌, मैथिली, संताली, संस्कृत, सिंधी और हिंदी - इन 22 भाषाओं को राष्‍ट्र की भाषाओं के रूप में स्वीकृति प्राप्‍त है. इन सभी भाषाओं में साहित्य का सृजन होता रहा और आज भी प्रचुर मात्रा में हो रहा है. इन सभी भाषाओं और बोलियों की अपनी एक अलग पहचान है. प्रायः यह जिज्ञासा होती है कि क्‍या इन सबको मिलाकर एक संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है. क्‍या ये सब मिलाकर भारतीय साहित्य का एक विशिष्‍ट स्वरूप प्रस्तुत कर सकती हैं. हाँ. इन भाषाओं में रचित साहित्य को ‘भारतीय साहित्य’ की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है. कहीं-न-कहीं इन सभी भाषाओं और बोलियों में साम्य विद्‍यमान है.

समस्त आधुनिक भारतीय साहित्य में तीन समान तत्व स्पष्‍ट रूप से दिखाई देते हैं - (1) प्राचीन भारतीय साहित्य (संस्कृत साहित्य) का प्रभाव, (2) पाश्‍चात्य साहित्य (मुख्यतः अंग्रेज़ी साहित्य) का प्रभाव और (3) क्षेत्रीय प्रभाव. डॉ.सियाराम तिवारी द्वारा संपादित ग्रंथ ‘भारतीय साहित्य की पहचान’(2009) में संपादक ने यह कहा है कि उर्दू साहित्य में प्राचीन भारतीय साहित्य से कुछ नहीं आया है और उसकी कोई क्षेत्रीय विशेषता इसलिए नहीं है कि उसका कोई भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं है. इस बात पर विवाद हो सकता है. स्वयं संपादक की आगे की गई स्थापनाएँ भी उनके कथन के विरोध में जाती दिखाई देती हैं.

आधुनिक भारतीय भाषाओं मे संस्कृत साहित्य से अनेक रचनाएँ आई हैं . ‘रामायण’, ‘महाभारत’, और ‘श्रीमद्‍भागवत’ आदि ग्रंथों का अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं में प्राप्‍त हैं. रस, अलंकार और रीति जैसे काव्यशास्त्रीय तत्व भी सभी भारतीय भाषाओं में समान रूप से प्राप्‍त होते हैं. उर्दू साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है.

यह सर्वविदित है कि भारतीय वाड्‍.मय के प्रभाव के कारण भारतीय साहित्य में समानता दिखाई देती है. इसी प्रकार पाश्‍चात्य साहित्य से प्रभावित उर्दू साहित्य समस्त भारतीय साहित्य को एक सूत्र में बाँध देता है. इसके परिणाम स्वरूप कविता में नवीन प्रयोग तथा गद्‍य में नूतन विधाओं का समावेश हुआ है.

कुछ तत्व ऐसे भी हैं जो भारतीय साहित्य की एकता में बाधा पहुँचाते हैं. उन बाधक तत्वों में से पहला तत्व है भाषा भेद. भारत में कोई एक केंद्रीय भाषा नहीं है. वह बहुभाषा भाषी राष्‍ट्र है. अगर हम हिंदी की ही बात लें तो पता चलता है कि इसकी अनेक उपभाषाएँ हैं और इनका अपना समृद्ध साहित्य भी है. इसी भाषा बाहुल्य के कारण भारतीय भाषाओं की एकता पर प्रश्‍न चिह्‌न लगता है.

वस्‍तुतः सभी भारतीय भाषाएँ एक ही संस्कृति की उपज हैं. वह है भारतीय संस्कृति. अतः इन भाषाओं में भले ही व्याकरणिक भिन्नताएँ हों लेकिन एकता के तत्व भी विद्‍यमान हैं. इसे नकारा नहीं जा सकता. भारतीय भाषाओं की संरचना भी एक समान है - कर्ता, कर्म और क्रिया. इन भाषाओं में प्राप्‍त संगीत तत्व भी एक समान ही है.

भारतीय जनता में बाह्‌य विषमताएँ होने पर भी आंतरिक रूप से वे समान हैं. अर्थात्‌ उनकी मानसिकता एक है, सोचने-विचारने की पद्धति एक है. इतना तक की सबके विश्‍वास भी एक है. भारतीय संस्कृति में ईश्‍वर, भाग्यवाद, जन्‍म, पुनर्जन्‍म, परलोक, स्वर्ग, नरक और नियति आदि की संकल्पना प्राप्‍त हैं और ये सब भारतीय जन जीवन के अविभाज्य अंग हैं. यही व्यापक साम्‍य है जो अनेकता में एकता के सूत्र को पूरी तरह से सच साबित करता है. अतः एकता के तत्व भारतीय भाषाओं में भी दिखाई देते हैं.

भाषा बाहुल्य के साथ-साथ एक अन्य बात है जो भारतीय साहित्य को अलग पहचान प्रदान करती है. वह है भौगोलिक क्षेत्र. भाषा, रूप, रंग, आचार-व्यवहार, खान-पान, वेश-भूषा और जलवायु में भी वैविध्‍य विद्‍यमान है. यह असीम वैविध्य भारतीय साहित्य के लिए चुनौती है. इसके अतिरिक्‍त क्षेत्रीय भावना भी भारतीय साहित्य की समेकित पहचान में बाधा उत्पन्न करती है. भाषा के आधार पर अलग राज्यों का निर्माण हुआ है और हो भी रहा है. इन राज्यों के लिए सवायत्तता की मांग की जा रही है. अतः आज तक भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि निर्धारित नहीं हो सकी. यदि सभी भाषाओं के लिए एक वैज्ञानिक लिपि स्वीकृत हो जाए तो क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य भी परस्पर एक-दूसरे के निकट हो जाएगा.

सांस्कृतिक एकता से जुडे़ भारत में भाषागत वैविध्य होने पर भी इसके साहित्य में समान प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं. संपादक के शब्दों में कहें तो, जिस प्रकार हिंदी के सूरदास (1478-1583) के ‘सूरसागर’ में सख्य भाव के पद मिलते हैं, उसी प्रकार सिंधी के महामति प्राणनाथ (1618-1694) की ‘सिंधी वाणी’ में सख्य भावापन्न पद उपलब्ध हैं. सिंधी के सचल सरमस्त (1739-1829) भी आडंबरों के वैसे ही विरोधी थे जैसे हिंदी के कबीरदास (1398-1518). मलयालम्‌ के तुंचत्तु रामानुजन एष़त्तुच्छन तुलसीदास के समान जन नायक कहे जाते हैं. तमिल और हिंदी साहित्य के कवियों और काव्य प्रवृत्तियों में भी समानताएँ विद्‍यमान हैं. तमिल के संत कवि तिरुमूलर को दक्षिण का कबीर कहा जाता है. तमिल साहित्य के इतिहास में अंकित पल्लव काल हिंदी साहित्य के इतिहास का भक्‍तिकाल है.

तेलुगु साहित्य में शतक काव्य (सतसई) परंपरा हिंदी के समान ही है. तेलुगु के कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु ने अंग्रेजी़ शासन के खिलाफ आवाज उठाईं और जनता को जागृत किया ठीक उसी प्रकार भारतेंदु हरिश्‍चंद्र ने किया. जिस समय हिंदी साहित्य में छायावाद की लहर दौड़ रही थी उस समय तेलुगु साहित्य में भाव कविता की लहर दौड़ रही थी. छायावाद के पश्‍चात्‌ प्रगतिवाद का उदय हुआ तो तेलुगु साहित्य में अभुदय कविता का उदय हुआ. इसी प्रकार बांग्‍ला, पंजाबी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं में समान काव्य प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं.

भारतीय भाषाओं के साहित्यकार भी आपस में मिले जुले रहते हैं. एक भाषा के साहित्यकार अन्य भाषा के साहित्यकार से प्रभावित होकर साहित्य सृजन करते हैं. किसी भी भारतीय भाषा में रचित साहित्य क्‍यों न हो, उसमें उस क्षेत्र की संस्कृति प्रतिबिंबित होती है. भारतीय साहित्य की रचना का मूल भी यहाँ की संस्कृति ही है. अतः सियाराम तिवारी कहते हैं कि भारत विभिन्न प्रजातियों, विभिन्न भाषा भाषियों एवं विभिन्न धर्मावलंबियों का देश है. फिर भी, समग्र भारत सांस्कृतिक एकता के सूत्र में सुग्रथित है. उर्दू भाषा और उर्दू साहित्य में भारतीय संस्कृति इसी प्रकार प्रतिबिंबित है जिस प्रकार बांग्ला, तमिल, तेलुगु, कश्‍मीरी आदि भाषाओं और उनके साहित्य में प्रतिच्छायित है.

निष्‍कर्षतः यह कह सकते हैं कि सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य समान प्रवृत्तियों को लेकर चलता है. डॉ.सियाराम तिवारी द्वारा संपादित इस ग्रंथ ‘भारतीय साहित्य की पहचान’ में 22 भाषाओं के साहित्य पर विभिन्न विद्वानों के विस्तृत लेख संकलित हैं जो विभिन्न कालों, विभिन्न परिस्थितियों और विभिन्न क्षेत्रों के रचनाकारों द्वारा विभिन्न भाषाओं में रचे साहित्य की अपनी अपनी भिन्न्ता औए विशिष्‍टता का सम्मान करते हुए उन तत्वों को रेखांकित करते हैं जिनके कारण यह साहित्य भारतीयता से संपन्न होकर ‘भारतीय साहित्य’ के अभिधान का पात्र बनता है. हिंदी के माध्यम से समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के आकलन का यह प्रयास वास्तव में स्तुत्य और अभिनंदनीय है. इसकी प्रामाणिकता में भी कोई संदेह नहीं किया जा सकता क्‍योंकि इसके विभिन्न अंशों का लेखन संबंधित भाषाओं के मर्मज्ञ द्विभाषी विद्वानों द्वारा किया गया है.
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* भारतीय साहित्य की पहचान / (सं) डॉ.सियाराम तिवारी / 2009 / नालंदा मुक्‍त विश्‍व्विद्‍यालय, तीसरा तल, बिस्कोमन भवन, पश्‍चिम गांधी मैदान, पटना - 800 001 / पृष्‍ठ - 768 / मूल्य - रु.550/-