शनिवार, 28 अगस्त 2010

जैसी हमने पाई दुनिया, आओ उससे बेहतर छोड़ें : बच्चन की अनुवाद विषयक मान्‍यताएँ



"नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख;
प्रलय की निःस्तब्धता से
सृष्‍टि का नवगान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर।" (हरिवंशराय बच्चन)

आधुनिक हिंदी साहित्य में हालावाद के प्रवर्तक और उन्नायक हरिवंशराय बच्चन का शीर्ष स्थान है। सत्याग्रह आंदोलन, असहयोग आंदोलन और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने बच्चन को एक नवीन दृष्‍टि प्रदान की। उनकी कृतियों में वस्तुतः जीवन के संघर्ष, राष्‍ट्रीय आंदोलन, सांस्कृतिक पृष्‍ठभूमि, क्रांति का स्वर और परंपरा का विरोध मुखरित होता है। एक सफल कवि और गद्‍यकार के रूप में हरिवंशराय बच्च्न से भली भांति परिचित हैं लेकिन कवि और गद्‍यकार के साथ साथ वह एक सफल अनुवादक भी हैं।

अनुवाद वस्तुतः एक सांस्कृतिक सेतु है जिसके माध्यम से क्षेत्रवाद के सीमित एवं संकुचित दायरे से निकलकर विश्‍वमानवता तक पहुँच सकते हैं। भारत जैसे बहुभाषिक देश में अनुवाद की नितांत आवश्‍यकता है। इस संदर्भ में बच्चन का मत द्रष्‍टव्य है - "विविधताओं से भरे इस देश में केवल भाषा ही ऐसा माध्यम है जो हमें एकसूत्र में बाँध सकता है; और अगर भाषा में भी हम एकमत हो सुसंगठित न हो सके तो हमारे बिखराव को कोई रोक नहीं सकता।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.46)

यह सर्वविदित है कि भाषा विचार-विनिमय का सशक्‍त साधन है और साथ ही संस्‍कृति का संवाहक भी है। वह संस्‍कृति के अनुरूप ही बनती-संवरती है। अतः बच्चन कहते हैं कि - "भाषा वह बैल है, जिस पर जितना अधिक बोझ लादा जाए वह उतना ही मजबूत होता जाता है। भाषा की शक्‍ति उसकी संभावना से आंकी जानी चाहिए न कि उसकी अविकसित स्थिति से।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.46)

भाषाओं की भिन्नता एवं विविधता के कारण ही अनुवाद का जन्म हुआ है। भारत में बहुभाषिक स्थिति के कारण परस्पर संप्रेषणीयता में व्यवधान पड़ना स्वाभविक है। ऐसी स्थिति में देश की एकता को कायम रखने के लिए एक संपर्क भाषा की नितांत आवश्‍कता है और वह है हिंदी। डॉ.हरिवंशराय बच्चन ने इस आवश्यकता को समझते हुए हिंदी को स्थानीयता से मुक्‍त करके अखिल भारतीय दृष्‍टिकोण के विकास पर ज़ोर दिया और कहा कि - "हिंदी को राष्‍ट्रभाषा की अधिकारिणी बनने के लिए उसे अपना मानसिक संवेदना क्षेत्र हिंदी भाषा प्रदेश से आगे बढ़कर राष्‍ट्र व्यापी बनना पड़ेगा।" (‘बंगाल का काल’, भूमिका, पृ.17)

प्रायः हिंदीतर भाषी प्रयोक्‍ताओं की हिंदी पर उनकी मातृभाषाओं के प्रभाव की बात कही जाती है। इस संदर्भ में बच्चन जी ने माना कि क्षेत्रीय भाषा की बोली-भाषा को राष्‍ट्रभाषा का गौरव पाने के लिए इस प्रकार के प्रभाव को ग्रहण करना ही चाहिए। बच्चन का मत है कि - " हिंदी को आगर सच्चे अर्थों में राष्‍ट्रभाषा बनना है तो उसे भारत के अन्य भाषा प्रदेशों की गंध ध्वनी देनी होगी।" (‘बंगाल का काल’, भूमिका, पृ.18)। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि "हिंदी की ध्वनि-धारा के साथ साथ अन्य भाषाओं के शब्दों को खपाना साधारण कला नहीं है। यह कंठ और कानों की बड़ी बारीक परख-शक्‍ति माँगती है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.79)। उन्होंने अपने अनुवादों में इस स्थिति को साधने का प्रयास किया है।

अनुवाद की महत्ता और आवश्‍यकता निर्विवाद है। हमेशा कुछ नया कर दिखाने की तत्परता व मानव की जिज्ञासा ही इस आवश्‍यकता का मूल हेतु है। इस अर्थ में अनुवादक भी सृजक होता है और अनुवाद द्वारा सृजन सुख मिलता है। अतः बच्चन कहते हैं कि "सृजन का सुख, सृजन का सुकून, सृजन की शांति सृजक ही जान सकता है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.112)

देखा जाय तो अनुवाद की प्रक्रिया शिशु के मुख से उच्चरित ध्वनियों के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। शिशु भिन्न भिन्न प्रकार की ध्वनियाँ निकालकार अपने मनोभावों को प्रकट करता है और माँ शिशु के भावों को समझकर दूसरों के लिए बोधगम्‍य बना देती है। इस दृष्‍टि से भषा भावों और विचारों का अनुवाद है। अनुवादक भी यही तो करता है। दूसरों के भावों और विचारों को अपनी भाषा का कलेवर प्रदान करना। सफल अनुवाद के संबंध में बच्चन की मान्यता है कि - "किसी बड़ी रचना का सफल अनुवाद करना किसी उच्च कोटि के मौलिक सृजन से न कम महत्व का काम है, न कम श्रम-साधना-साध्य।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.111)। उदाहरण के लिए बच्चन द्वारा अनूदित ‘ओथेलो’ के कुछ अंश देखें -

मूल: Iago - Must be be-leed and calmed
By debitor and creditor, this counter caster
He, is good time, must his lieutenanat be
अनुवाद: इयागो - इस पार काट-सियो के
दर्जी को तरजीह दी गई टुकड़ जोड़ यह,
टुकड़खोर यह, मौका पाकर सहसेनापति बन बैठा है।

उपर्युक्‍त अनुवाद में बच्चन ने केसियो (cassio) के लिए ‘काट-सियो’ का रोचक, सर्जनात्मक प्रयोग किया है क्‍योंकि केसियो लेनदार (ऋणदाता) है जो सिर्फ जोड़ना व घटाना जानता है। अनुवाद में ‘काट-सियो’, ‘दर्जी’, ‘टुकड़खोर’ का प्रयोग कर बच्चन ने अपनी रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। स्पष्‍ट है कि बच्चन साहित्यिक पाठ के अनुवाद के संदर्भ में अनुवादक की सृजनात्मकता के समर्थक हैं।

एक भाषा भाषी समुदाय में निहित भाषा ज्ञान को दूसरे भाषा भाषी समुदाय में पहुँचाने में अनुवादक की भूमिका महत्‍वपूर्ण होती है। अतः बच्चन सफल अनुवादक के बारे में विचार व्यक्‍त करते हैं कि - "मेरी हमेशा यही धारणा रही है कि अच्छा अनुवादक वही हो सकता है जो अच्छा मौलिक लेखक भी हो।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.88)। वह यह भी मानते हैं कि - "ऐसा देखा गया है कि सफल अनुवादक वे ही हुए हैं जिनका मौलिक सृजन पर भी कुछ अधिकार है। दूसरे शब्दों में, अनुवाद भी मौलिक सृजन की ही एक प्रक्रिया है। नहीं तो आज संसार के बड़े बड़े सर्जक अनुवाद की ओर झुके न दिखाई देते।" (चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.14)। निम्‍नलिखित उदाहरण से भी यह स्पष्‍ट होता है कि बच्चन एक सर्जक अनुवादक हैं जहाँ उन्होंने औरस सारे दत्तक संतति के भेद को ‘तन से जन्मी’ और ‘मुँहबोली’ द्वारा व्यक्‍त किया है -

मूल: Brabantio - I had rather to adopt a child than got it. (Othello)

अनुवाद : ब्रेबैंशियो - काश कि मेरे तन से जन्मी
हुई न होकर तू मेरी मुँहबोली होती
जिससे ऐसी बात न कहती

इससे यह स्पष्‍ट होता है कि साहित्यिक पाठ के अनुवादक को अपने भावों के संप्रेषण पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। बच्चन की दृष्‍टि में - "सफल अनुवादक भी वही होता है जो अपनी दृष्‍टि भावों पर रखता है। शाब्दिक अनुवाद न शुद्ध होता है न सुंदर। भाव जब एक भाषा माध्यम को छोड़कर दूसरे भाषा माध्यम से मूर्त होना चाहेगा तो उसे अपने अनुरूप उद्‍बोधक और अभिव्यंजित शब्द राशि संजोने की स्वतंत्रता देनी होगी। यहीं पर अनुवाद मौलिक सृजन हो जाता है। या मौलिक सृजन की कोटि में आ जाता है।" (चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.13-14)

वस्‍तुतः कोई काम आसान नहीं है। मूल पाठ के भावों की रक्षा करते हुए दूसरी भाषा में अंतरण करना ही अनुवाद है। अतः बच्चन का मत है कि - "सफल अनुवादक के लिए आवश्यक है कि वह जिस भाषा से अनुवाद करें, जिस भाषा में करें, दोनों पर उसका समान अधिकार हो ...अनुवादक का रागात्मक संबंध हो। ... सृजन में शब्द के स्थान को सूक्ष्‍मता से समझ लिया जाय। शब्द के स्थूल और उसके कोष पर्याय को अंतिम सत्य मान लेनेवाला सफल अनुवादक नहीं हो सकता। ...जब हम साहित्यिक ग्रंथों के अनुवाद की बात सोचते हैं तब भाव, विचार और भाषा को अलग नहीं देख सकते। यहाँ भाव-विचारों का संबंध शरीर और वस्त्रों का नहीं बल्कि, शरीर के मांस और त्वचा का है। शब्द साधन है, साध्य नहीं। साध्य तो वह भावना या विचार है, जो उसके पीछे है।" (अनुवाद की समस्या, बच्चन)

अनुवाद में जीवंतता बनाए रखने के लिए सफल अनुवादक को मूल लेखक की भाँति लक्ष्य भाषा में नूतन प्रयोग भी करने पड़ते हैं। एक सफल अनुवादक को स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा दोनों पर समान अधिकार होना चाहिए, लेकिन इतना ही काफी नहीं। उसका भाषा से रागात्मक संबंध भी अनिवार्य है। बच्चन ने इसे ‘रचनानुराग’ कहा है और माना है कि "अनुवादक का रचनानुराग अनुवाद की सफलता की सबसे पहली आवश्यकता है; अपनी भाषा पर अधिकार।" (बंगाल का काल, भूमिका, पृ.14)। यहाँ ‘मैकबेथ’ के उनके अनुवाद का एक अंश देखा जा सकता है -

मूल: My mind she has mated and amazed my sight
I think but dare not speak.

अनुवाद: कानों ने जो सुना, उन्हें है उस पर गैरत,
आँखों ने जो देखा, उनको उस पर हैरत,
जो दिमाग में, उसे नहीं कहने की जुर्रत।

यहाँ अनुवादक ने मूल का शाब्दिक अनुवाद करके हिंदी की प्रकृति के अनुरूप उसकी मौलिक ढालार्थ की हैं। इससे यह स्पष्‍ट होता है कि उन्हें स्रोत और लक्ष्‍य भाषाओं पार समान अधिकार है और साथ ही समाज-सांस्कृतिक पृष्‍ठभूमि की पहचान भी। अनुवाद मूल से भी रोचक है। ‘गैरत’, ‘हैरत’, ‘जुर्रत’ शब्दों का तुक जोड़कर अनुवाद में सौंदर्य पैदा किया गया है।

अनुवादों के बारे में बच्चन का दृष्‍टिकोण सुपारिभाषित है। वे मानते हैं कि साहित्यिक पाठों के अपनी भाषा में किए गए अनुवाद ही स्वीकार्य होता है। उनका मत है कि - "अनुवादों के बारे में मेरा एक सिद्धांत है। अनुवाद के लिए मैं अनुमति तभी देना चाहता हूँ जब किसी भाषा में अनुवादक पुस्तक का अनुवाद करना चाहता है वह उसकी अपनी भाषा हो और वह अपनी इच्छा से अनुवाद करना चाहे।" (बंगाल का काल, भूमिका, पृ.14)। इसका कारण शब्दार्थ की संस्कृति में निहित है। इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद एक श्रम साध्य कार्य है तथा गद्‍यानुवाद की अपेक्षा काव्यानुवाद अधिक चुनौतिपूर्ण कार्य है। "कविता में शब्द और अर्थ इतने संपृक्‍त होते हैं - ‘गिरा अर्थ जल बीच सम’ - कि उसके अर्थ को अलग कर उसे दूसरे शब्दों, दूसरी भाषा के शब्दों, का बाना पहनाना बहुत कठिन है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि कविता का अनुवाद हो ही नहीं सकता। पर असंभव मनुष्‍य के लिए बहुत बड़ी चुनौती और बहुत बड़ा आकर्षण है - जो असंभव है उसी पर आँख मेरी,/ चाहती होना अमर मृत राख मेरी। (मिलन यामिनी)।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.12)

इस चुनौती का सामना बच्चन अपनी रचनाधर्मिता के सहारे करते हैं। यहाँ ‘किंग लियर’ के एक अंश का अनुवाद देखा जा सकता है -

मूल : Father's that wear rags
Do make their children blind,
But father that bear bags
Shall see their children kind
Fortune, that arrant whore,
Ne'er turns the keep to the poor.

अनुवाद: जिन बापों के तन के ऊपर चिथड़े होते
उनके बच्चे अपने प्रति अंधे हो जाते;
जिन बापों के हाथों मोटी थैली होती
उनके बच्चे उनके प्रति आदर दिखलाते।
सभी जानते किस्मत ऐसी रंडी गुंडी
वह गरीब के लिए खोलती कभी न कुंडी।

बच्चन ने मूल में निहित अर्थ को सुरक्षित रखने के लिए भावानुवाद का सहारा लिया है। घृणा एवं धिक्कार को सूचित करनेवाले शब्दों का प्रयोग लक्ष्य भाषा के अनुरूप किया गया है ताकि मूल में निहित हास्यपूर्ण अभिव्यक्‍तियाँ अनुवाद में भी संप्रेषित हो सकें।

वास्तव में डॉ.हरिवंशराय बच्चन एक सफल अनुवादक तथा गंभीर अनुवादशास्त्री थे। उन्होंने अनेक कृतियों का हिंदी में अनुवाद करके राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय साहित्य से हिंदी भाषा समाज को परिचित कराया। इन कृतियों में सम्मिलित हैं - ‘हेमलेट’(1969), ‘नागर गीता’ (1966), ‘मरकत द्वीप का स्वर’ (ईट्स की कविताएँ,1965), ‘चौंसठ रूसी कविताएँ’ (1964), ‘ओथेलो’ (1959), ‘मैकबेथ’ (1957), ‘जनगीता’ (1958), ‘उमर खयाम की रुबाइयाँ’ (1959), ‘नेहरू : सामजिक जीवन-चरित (1961), ‘लिरिका’ (1965), ‘द हाउस आफ वाइन’ (1950), ‘कालेर कबले बांग्ला’ (1948) तथा ‘भाषा अपनी भाव पराए’।

इनमें से ‘भाषा अपनी भाव पराए में दस विदेशी और देशी भाषाओं से काव्यानुवाद प्रस्तुत किए गए हैं। यहाँ कृति की भूमिका में कही गई बात का उल्लेख करना समीचीन होगा क्योंकि यह अनुवाद चिंतन को एक दिशा प्रदान करती है और बच्चन की अनुवाद विषयक मान्यताओं को समझने में सहायक है। इस संकलन में कुल पच्चीस अनूदित कविताएँ सम्मिलित हैं। इनके चयन और अनुवाद प्रक्रिया के बारे में चर्चा करते हुए बच्चन जी कहते हैं कि - "अच्छी कविता मैं हार भाषा की कुछ-न-कुछ समझता हूँ, क्योंकि अच्छी कविता, हर भाषा की, बहुत कुछ ध्वनि के माध्यम से कहती है, और यह विचित्र है कि ध्वनि संकेत प्रायः सभी भाषाओं का एक-सा होता है। ...जाहिर है कि ये कविताएँ अपनी अपनी भाषा-लिपि में मेरे सामने रख दी जाते तो मैं उन्हें अनूदित नहीं कर सकता था। ...मूल कविता नागरीलिपि में दी जाती थी जिसे पढ़कर, बहुत-से शब्दों और ध्वनियों से, मैं कविता की मुख्य दिश टटोल सकता था। मुझे कविता का अंग्रेज़ी अथवा हिंदी अनुवाद दिया जाता था जिससे मुझे कविता के भाव-विचार को समझने में आसानी होती थी। ...स्पेनी कविता का अनुवाद उसके अंग्रेज़ी रूपांतर के आधार पर किया गया था। कुछ लोग ऐसा सोच सकते हैं कि यह अनुवाद की सीधी प्रक्रिया नहीं है। पर शायद अधिक वैज्ञानिक प्रक्रिया यही है। यह मैंने बहुत बाद में जाना कि रूस में कविता के अनुवाद की कुछ ऐसी ही प्रक्रिया का अनुसरण होता है। मान लीजिए कि किसी कविता का रूसी में अनुवाद करना है तो कोई दुभाषिया मूल कविता का शाब्दिक अनुवाद कर देता है - शाब्दिक अनुवाद से कविता नहीं बन जाती। फिर यह शाब्दिक अनुवाद किसी कवि के पास भेजा जाता है। वह उन शब्दों के पीछे छिपे भावों को पकड़ता है और उद्‍बोधक शब्दों और रूपकों की सहायता से - आवश्‍यकता हुई तो रूपकों को बदलकर - ऐसे रूपकों में जो रूसी भाषा के लिए अभिव्यंजक हो सके - कविता बनाता है। इस तरह कविता का अनुवाद के रूप में एक कविता रची जाती है।"

निष्‍कर्षतः हरिवंशराय बच्चन के अनुवाद संबंधी चिंतन के कतिपय सूत्रवाक्‍य द्रष्‍टव्य हैं -
  • "कवि या लेखक जीवन की जो व्याखया देना चाहता है कि जो उसके अनुसार जीवन से चुनाव करता है। यानी वह जीवन के बहुत से सत्य को छोड़ता है उसकी उपेक्षा करता है या उसे दबाता है कि उसके धारणा को मूर्तिमान करनेवाले जीवन का रूप प्रमुख हो, उजागर हो।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.41)

  • "उच्च कोटि का कलाकार कला के माध्यम से जीवन की जो व्याख्या देता है वह एक प्रकार से उसका जीवन-दर्शन ही होता है।"(‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.41)

  • "जब अनुवादक शब्दों के आवारण को भेदकर सूक्ष्म भावनाओं के स्तर पर पहुँचता है और वहाँ से अपनी भाषा के अभिव्यक्‍त होने का प्रयत्‍न करता है तब अनुवाद मौलिक लगता है। यह गिरा-अर्थ, जलवीचि के अलग करना है, पर अनुवाद को सरल काम किसने समझ रखा है?" (अनुवाद की समस्या)

  • "हर अनुवाद अनुवादक की योग्यता, पैठ, सृजनशीलता और सीमाओं से प्रभावित होता है।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.12)

  • "एक यूरोपीय भाषा से दूसरी यूरोपीय भाषा में छंद को एक ही रखने की संभावना हो सकती है, पर हिंदी के लिए यह अकल्पनीय है। छंद भी कविता के अविभाज्य अंग हैं।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.12)

  • "छंदबद्ध कविता का अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में करना बहुत कठिन है। यदि मुक्‍त छंद का माध्यम समुचित रीति से विकसित एवं परिष्‍कृत हो जाए तो भाषाओं के बीच काव्य संबंधी आदान-प्रदान अधिक साध्य और सुगम हो जाएगा।" (‘बंगाल का काल’, पृ.18)

  • "छंद और तुक जहाँ भाषा के अलंकार हैं वहीं भाषा के स्वच्छंद गति में बाधाएँ भी हैं। जहाँ भाषा-भाव एकात्‍मक होकर चलते हैं, वहाँ शायद यह बात कम अनुभव की जाए, पर अनुवादों में छंद और तुक सबसे बड़ी बाधाएँ उपस्थित करते हैं।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.13)

  • "मेरी अनुवाद संबंधी नीति यह रही - भाषा सरल - सुबोध होगी/ वह बोलचाल के स्तर पर गिरकर नहीं / लिखित भाषा के स्तर पर उठकर, अगर अनुवाद को/ सही भी होना है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.79)

  • "क्रोध की अभिव्यक्‍ति करने में अंग्रेज़ी बड़ी समर्थ भाषा मालूम होती है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.109)

  • "आजकल एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद बहुत कुछ राजनीतिक कारणों से किया-कराया जा रहा है। साहित्य की दृष्‍टि से यह अस्वस्थ है और उच्च कोटि का नहीं हो सकता।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, भूमिका, पृ.18)

‘संकल्य’/ जुलाई-सितंबर 2009/ बच्चन विशेषांक में प्रकाशित



शनिवार, 21 अगस्त 2010

`भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन की पीठिका' : एक अवलोकन

बहुत कम लोगों का नाम इतना सार्थक होता है जितना सार्थक नाम पं.विद्‍यानिवास मिश्र का था। विद्‍या सचमुच उनमें निवास करती थी। अथाह महासागर की तरह वह जितना विस्तृत था उतना ही गहरा भी था। वेदों से प्रारंभ कर आधुनिक कविता तक, पाणिनीय व्याकरण से लेकर पश्‍चिमी भाषाविज्ञान तक, लोक जीवन की मार्मिक अंतर्दृष्‍टि संपन्नता से लेकर गहन शास्त्रीय विवेचन तक उनकी सहज गति थी। संस्कृत भाषा और हिंदी के गंभीर अध्येता एवं रचनाशील साहित्यकार ही नहीं अपितु वैयाकरणी भी थे, शब्दवेत्ता और भाषावैज्ञानिक भी थे। हिंदू धर्म एवं भारतीय संस्कृति के मर्मग्राही व्याख्याता एवं मौलिक चिंतक भे थे। संस्कृत साहित्य से आरंभ करते हुए हिंदी के भक्‍तिकाल एवं आधुनिक साहित्य तक उनकी पहुँच थी। उन्होंने इस पूरे संवेदनात्मक विकास को उसकी क्रमबद्धता में विवेचित किया। डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि वे ‘समाज परिवर्तन एवं साहित्य’ के रिश्ते की भी छानबीन की ओर पुरानी प्रचलित शब्द ‘लोक’ की व्यंजनाओं को अधिक सार्थक ठहराया जिसके सहारे आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल ने बनाया ‘लोक मंगल’। (1)


विद्‍यानिवास मिश्र शब्द शिल्पी थे, पर शब्दों से परे वे बहुत कुछ तलाश्ते थे। उनके शब्द ललित नहीं , जमीनी थी। उनका पूरा रचना संसार साहित्य की चली आती प्रतीति और प्रतीकों से अलग था। उनकी कर्मठता, साहित्यिक और सांस्कृतिक विषयों में उनकी प्रखर सक्रियता, प्राचीन तथा आधुनिक साहित्य, धर्म, दर्शन, तंत्र, भाषाशास्त्र, लोक साहित्य, कला आदि विषयों में उनकी गहरी पैठ, विलक्षण स्मरण शक्‍ति, अध्ययन-चिंतन-लेखन के प्रति पूर्ण जागरूकता आदि अनेकानेक गुण उनमें विद्‍यमान थे। उनके निबंधों में ऐसे अनेक सूत्र बिखरे पड़े हैं जिन्हें अगर कोई खोल सके और जोड़ सके तो मौलिक ग्रंथों की रचना हो सकती है।

मिश्र जी के बारे में डॉ.यश गुलाटी ने ठीक ही कहा है कि "इनके निबंधों में सहज चिंतन और तीव्र अनुभूति का मणि कांचन संयोग मिलता है। इनकी शैली रोचक, मार्मिक और हृदय स्पर्शी है। प्राचीन साहित्य, संस्कृति और परंपरा का गंभीर ज्ञान और आधुनिक जीवन के जटिल प्रश्‍नों के समाधान की दृष्‍टि की एक साथ उपस्थिति से संपन्न इनके व्यक्‍तित्व का बड़ा सुंदर अभिव्यक्‍तिकरण इनके निबंधों में हुआ है।(2) वस्तुतः वे चिंतन, कथन और आचरण के अप्रितम अन्विति थे तथा लोक और शास्त्र के संगम थे। निबंध के क्षेत्र में मिश्र जी ने विषय चयन की दृष्‍टि से अद्‍भुत एवं वैविध्यपूर्ण क्षमता का परिचय दिया है। भारतीय संस्कृति एवं लोक साहित्य के मर्मज्ञ डॉ.विद्‍यानिवास मिश्र एक सफल ललित निबंधकार होने के साथ साथ अनेकानेक विधाओं के भी कुशल चितेरे थे। वे बहुमुखी व्यक्‍तित्व से दीप्‍त सर्जक थे। उनके लेखन का प्रवाह निरंतर ऊर्ध्वगामी रहा।


उनके साहित्य में परंपरा की प्रमाण देती आधुनिकता एवं आधुनिकता हेतु समर्पण भाव से भरी परंपरा, दोनों का मधुर आलिंगन अपनी एक विलक्षण छाप छोड़ जाता है। मिश्र जी का मन ‘आँगन के पंछी’ के समान फड़फड़ाकर गगन में स्वच्छंद विचरणा चाहता तो था लेकिन वह अपनी जमीन नहीं छोड़ता था। उनका मन निरंतर गतिशील रहा। भारतीयता की उर्वर जमीन उनके साहित्य में झलकता है। मिश्र जी का साहित्य लोक व्यवहृति एवं चिंतन शास्त्र दोनों से अनुशासित है, जिसमें भारतीय चिंतन के पक्ष को अपनाते हुए भी पाश्‍चात्य साहित्य चिंतन को नज़र अंदाज नहीं किया गया। आधुनिक एवं पुरानी पीढ़ी की अंतर्विरोध, सामाजिक परंपराओं का विघटन, संस्कारों के असीम संवेदना, तो कहीं सामयिक के साथ सहयात्री बनकर निकलना मिश्र जी का स्वभाव था। कहीं ग्रामीण जीवन की नीरव गलियाँ और मादकता भरी आम्रमंजरी तो कहीं नगरों की व्यग्रता, लोक रंग से आप्‍लावित जीवन, शहरी जीवन के चकाचौंध की छटपटाहट, मानव जीवन की भंग होती सहजता आदि सभी धरातलों पर मिश्र जी का बनजारा मन स्वच्छंद विचरण करता था। उनके साहित्य में बूँद बूँद से सागर का निर्माण का आभास होता है।


मिश्र जी का साहित्य संसार अधिक विस्तृत है। समाज का ऐसा कोई पक्ष नहीं, जो मिश्र जी के निबंध सागर में तरंगायित होता न दिखाई दे। उनका साहित्य दही से निकला वह नवनीत है, जो समस्त जन मानस को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है। शोध प्रबंध के रूप में आरंभ में मिश्र जी ने ‘The Descriptive Technique of Panini' लिखा था। उसके पश्‍चात्‌ उनकी अधिकांश रचनाएँ लोक जीवन का लालित्यपूर्ण छवियों से उद्‍दीप्‍त हैं। उनमें लोक संस्कृति के उपादानों और अभिप्रायों की असाधारण समझ झलकती है। उनकी रचनाओं में उनके अध्ययन एवं चिंतन का स्पष्‍ट रूप भी प्रतिबिंबित होती है। रीति विज्ञान, भाषा दर्शन की पीठिका, हिंदी की शब्द संपदा, हिंदू धर्म जीवन में सनातन की खोज, हिंदू धर्म दीपिका, महाभारत का काव्यार्थ, भाषा और संप्रेषण आदि का रचना उनका एक आयाम है जिनमें मिश्र जी की खोजी प्रवृत्ति ही झलकती है। और साथ ही यह स्पष्‍ट होता है कि मिश्र जी सफल निबंधकार होने के साथ साथ एक श्रेष्‍ठ भाषावैज्ञानिक भी थे।


मिश्र जी द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन’ सन्‌ 1976 में राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर से प्रकाशित हुई। इस संग्रह में कुल 16 निबंध संकलित हैं जो इस प्रकार हैं -

  • भारतीय भाषा दर्शन की पीठिका
  • भारत और भाषाविज्ञान
  • शब्द विचार : भारतीय दृष्‍टिकोण
  • प्रतिपादित विचार
  • शब्द और अर्थ का स्वरूप
  • शब्दार्थ संबंध : नैयायिक दृष्‍टि
  • पाणिनीय व्याकरण की कतिपय विशेषताएँ
  • वक्रोक्‍ति की संकल्पना
  • शब्दार्थ संबंध : प्राचीन काव्यशास्त्र के अनुसार
  • स्फोटवाद का भाषा दर्शन
  • शब्दार्थ संबंध : अपोहवादी दृष्‍टिकोण
  • पाणिनीय विश्‍लेषण पद्धति के आधार
  • प्राचीन भारत में ध्वनि विज्ञान
  • वाक्‍य तथा वाक्‍यार्थ संबंधी भारतीय मत
  • भाषा की चार अवस्थाएँ
  • वैदिक वाड्‍.मय में भाषादर्शन

उपर्युक्‍त सभी निबंधों में भारतीय दर्शन के अनेकानेक सूत्र ऐसे बिखरे पड़े हैं जिन्हें जोड़ने पर हर एक अंग स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में सामने आ सकते हैं। इस संग्रह के उद्देश्‍य को स्पष्‍ट करते हुए मिश्र जी ने कहा कि "‘भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन’ एक समवेत प्रयत्‍न है। इस संकलन का दुहरा उद्देश्‍य है, एक तो भारतीय चिंतान की भाषाई धारा से भारत के प्रबुद्ध आधुनिक मानस को जोड़ना और दूसरे आधुनिक संदर्भ को भारतीय अस्मिता से प्रमाणित करने का प्रयत्‍न करना।" (3)


‘भारतीय भाषादर्शन की पीठिका’ नामक अपने निबंध में मिश्र जी ने यह प्रतिपादित किया कि "भारतीय चिंतन मूलतः वाक केंद्रित है। वाक को देवताओं की धरिका तथा शक्‍ति के रूप में माना गया। अतः परिशुद्ध वाक में कल्याण निहित है। मिश्र जी की मान्यता है कि भारतीय चिंतन के अनुसार व्याकारण वेद का मुख है। अर्थात्‌ यदि भारत की विवर्तमान ज्ञान राशि के भीतर पैठना है तो यह केवल व्याकरण के द्वारा से ही संभव है। यही कारण है कि भारतीय चिंतन की भाषा व्याकरणमूलक है, पश्‍चिमी चिंतन की तरह गणित मूलक नहीं । गणित स्वयं यहाँ व्याकरणमूलक है। पाणिनीय व्याकरण के लोप से ही गणित का शून्य उद्‍भूत हुआ, और व्याकरणात्मक राशियों से तथा रूप वृत्तों से अंक गणित और ज्यामिति ने साकार ग्रहण किया है।’ (4) भारतीय कला बोध की पीठिका वस्तुतः वाक है। वाक के कारण समस्त जगत वस्तुअनुभाव्य आकार ग्रहण करता है और भारतीय साधना की पीठिका नाम का ध्यान है। मिश्र जी कहते हैं कि भारतीय चिंतन में व्याकरण किस प्रकार ओत-प्रोत है, इसको भारतीय जीवन पद्धति एवं भारतीय मूल्य बोध के आलोक में पाणिनि, पतंजली तथा भर्तृहरि के द्वारा प्रतिपादित तत्वों के आधार पर देखना समीचीन होगा।


‘पाणिनीय विश्‍लेषण पद्धति के आधार’ नामक निबंध में व्याकरण परंपरा के उत्कर्ष पाणिनि के विश्‍लेषण पद्धति के प्रमुख आधार सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है। पाणिनि ने व्याकरण शास्त्र में प्रयुज्यमान इकाई को परिभाषित करने की तीन कसौटियाँ प्रमुख रूप से सामने रखीं -
  • इकाइयों का द्वितात्मक (Binary) विभाजन जिससे कि केवल सीमित क्षेत्रवाली इकाई की परिभाषा आवश्‍क हो तथा उससे इतर अपने आप परिभाषित हो जाय।
  • दूसरी कसौटी थी कि भाषिक परिवेश को ही आधार बनाकार परिभाषाएँ की जाय। यह सिद्धांत जे़लिंग हैरिस के वितरण सिद्धांत से भी अधिक विकसित एवं समावेशक है। मिश्र जी की मान्यता है कि पाणिनि ने इस सूत्र के आधार पर भाषा व्यवहार को ही भाषा विश्‍लेषण में प्रमाण माना है। और साथ ही साथ अर्थात्मक, पदबंधात्मक, रूपात्मक और वर्णात्मक सभी प्रकार के परिवेशों की समग्रत को सामने रखते हुए ही अपनी कोटियों की परिभाषा की है। चूँकि भाषा संरचना की समग्रता उनके ध्यान में है और वही उनके लिए अंतिम प्रमाण है। भाषा के वर्णन के लिए भाषाई उपादान ही पर्याप्‍त है।
  • पाणिनि के वर्णात्मक व्याकरण का प्रारंभ वाक्य को उक्‍ति/ Utterance की अनुभाव्य इकाई मानकर किया गया है और पूरा व्याकरण वाक्यगत संबंधों के प्रत्यायन/ Representation के रूप में बाँधा गया है। आज की भाषाशास्त्रीय शब्दावली के Sign के समीप, बुद्धिगोचर वाच्य अपने आपमें अर्थ संज्ञा/ Signified है। दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत हैं। अर्थात न अर्थरहित वाक्य संभव है और न वाक्य के श्रव्य रूप के अभाव में अर्थ की संभावना है।

अंततः मिश्र जी ने यह प्रतिपादित किया है कि "पाणिनि का व्याकरण वाक्य पर आधारित है, केवल पद व्याकरण नहीं है। क्योंकि पाणिनि ने पद की सत्ता वाक्य से ही मानी है।" (5) तथा पाणिनीय विश्‍लेषण की विशेषता यह है कि वह भाषा के तत्वों का जहाँ विखंडन प्रस्तुत करता है वहीं साथ साथ उनका संश्‍लेष भी प्रस्तुत करता है। अर्थात यह व्याकरण भाषा की रचना की परख तो करता ही है, उस रचना के प्रसार की संभावनाएँ भी बढ़ाता है। इस तरह यह भाषा के सर्जनात्मक उद्देश्य की ही वसतुतः पूर्ति करता है।


इस संग्रह में संकलित निबंधों के माध्यम से भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन को स्पष्‍ट किया गया है। इसमें संकलित कुछ निबंध तो संस्कृत विश्‍वविद्यालय और राष्‍ट्रीय शिक्षा संस्थान की संगोष्ठियों में पढ़े गए और चर्चित निबंध है। भाषाविज्ञान की जन्मभूमि के रूप में सभी लोग भारत का स्मरण करते हैं, पर भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन का पर्याप्‍त परिचय छात्रों को नहीं कराया जाता। यह संग्रह वस्तुतः इस कमी की क्षतिपूर्ति है।



संदर्भ :

  1. डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी; हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास; पृ. 311
  2. सुरेश अग्रवाल; हिंदी के प्रतिनिधि निबंधकार; पृ.163
  3. (सं) विद्यानिवास मिश्र; अनिल विद्यालंकार; माणिक लाल चतुर्वेदी; भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन; पृ. 1
  4. (सं) विद्यानिवास मिश्र; अनिल विद्यालंकार; माणिक लाल चतुर्वेदी; भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन; पृ. 10
  5. (सं) विद्यानिवास मिश्र; अनिल विद्यालंकार; माणिक लाल चतुर्वेदी; भारतीय भाषाशास्त्रीय चिंतन; पृ. 132



सोमवार, 16 अगस्त 2010

तेलुगु संस्कृति का दर्पण बनती कहानियाँ



सांस्कृतिक रूप से संपूर्ण भारत अखंड है। भाषा, रंग-रूप, आचार-व्यवहार, खान-पान, वेश-भूषा और जलवायु आदि के वैविध्य के कारण इसे ऐसे बहुसांस्कृतिक क्षेत्र के रूप में भी देखा जाता है जिसमें अनेक संस्कृतियाँ अविरोधी भाव से समाई हुई हैं। यदि भाषा को जातीयता और संस्कृति के एक आधार के रूप में स्वीकार किए जाए तो कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति में हिंदी, बंगला, तमिल, तेलुगु आदि विविध संस्कृतियाँ समाहित हैं जो परस्‍पर भारतीयता के सर्वव्यापी सूत्र द्वारा गुंथी हुई हैं।


संस्कृति के आधार स्तंभ हैं भाषा और साहित्य। यदि किसी देश से उसकी भाषा और साहित्य को छीन लिया जाए तो उसकी संस्कृति स्वतः ही नष्‍ट हो जाएगी। अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति भारतीय भाषाओं के साहित्य पर आधारित है। विविध भारतीय भाषाओं के साहित्य और इतिहास का अवलोकन करने के लिए पर्याप्‍त है कि क्षेत्र और भाषा की भिन्नता के बावजूद भारतीय मनीषा की मूलभूत चिंताएँ पहले भी एक जैसी थीं और आज भी एक जैसी हैं।


तेलुगु साहित्य के इतिहास को पूर्व नन्नया युग (ई.पू.200 - ई.1000 तक), नन्नया युग (11 वीं शती), शिव कवि युग (12 वीं शती), तिक्कना युग (13 वीं शती), एर्रना युग (1300 -1350), श्रीनाथ युग (1350 - 1500), रायल युग या प्रबंध युग (1500 -1600), दक्षिणांध्र युग (1600 - 1775), क्षीण युग 1775 - 1875) और आधुनिक युग (1875 से आज तक) के रूप में विभाजित किया गया है।


हिंदी की भाँति तेलुगु में भी आधुनिक काल का उदय नवजागरण के उन्मेष के साथ ही हुआ। राष्‍ट्रीय चेतना, मुद्रण कला का विकास, विविध समाज सुधार आंदोलन के कारण तेलुगु साहित्य की दशा एवं स्वरूप में तेजी से बदलाव आया। इस युग में गद्‍य की विविध विधाओं का विकास हुआ। आधुनिक तेलुगु साहित्य में ‘ग्रांथिकमु’ (पंडिताऊ भाषा) की जगह ‘व्यावहारिकमु’ (व्यावहारिक भाषा) का प्रयोग होने लगा। चिन्नया सूरी ने ‘बाल व्याकरणमु’ (बाल व्याकरण) नाम से तेलुगु व्याकरण लिखा। आधुनिक काल को सही अर्थ में आधुनिक बनानेवाले विद्वानों में कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु, तिरुपति वेंकट कवि द्वय (दिवार्कल तिरुपति शास्त्री तथा चेल्लपिल्ला वेंकट शास्त्री) और गुरजाडा अप्पारव का महत्वपूर्ण योगदान है। इन चारों को आधुनिक तेलुगु साहित्य के युग प्रवर्तक कहा जाता है।


गद्‍य की विधाओं में कथा साहित्य (विशेषतः कहानी साहित्य) का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। सभी भारतीय भाषाओं में बड़ी तेजी से इसका विकास हुआ। इसे बंगला में ‘गल्प’, हिंदी में ‘कहानी’, तमिल और मलयालम में ‘कथेगल’, कन्नड में ‘कथेगलु’ और तेलुगु में ‘कथा’ अथवा ‘कथानिका’ कहा गया।


तेलुगु साहित्य में कहानी रचना का आरंभ 19 वीं शती के उत्तरार्द्ध में हुआ और तेलुगु के प्रथम कहानीकार हैं गुरजाडा अप्पाराव। गुरजाडा के पूर्व भी कुछ कहानियाँ लिखी गईं, पर उन्हें कहानी नहीं माना जा सकता चूँकि उनमें आधुनिक कहानी के स्वीकृत तत्व दिखाई नहीं देते।


सती प्रथा, कन्याशुल्क, बाल विवाह, वेश्‍य वृत्ति जैसी सामाजिक विसंगतियों, दुराचार और परंपरावादियों की मानयताओं पर गुरजाडा ने खुलकर प्रहार किया। गुरजाडा ने ‘कन्याशुल्कम्‌’ (कन्याशुल्क) उपन्यास के माध्यम से तेलुगु पाठकों को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने समाज सुधार को लक्ष्य बनाकर ‘दिद्‍दुभाटु’ (सुधार), ‘मी पेरेमिटी’ (आप का नाम क्या है?) और ‘संस्कर्ता हृदयम्‌’ (स्माज सुधारक का हृदय) जैसी प्रसिद्ध कहानियों का सृजन किया। तेलुगु में कहानी विधा का प्रारंभ इन्हीं सामाजिक कहानियों से हुआ। तत्पश्‍चात्‌ चिंता दीक्षितुलु (एकादशी संग्रह), श्रीपाद सुब्रह्‌मण्य शास्त्री, वेलूरी शिवराम शास्त्री (कृति, क्षमार्पणम्‌ (क्षमार्पण)), अडवी बापिराजू, विश्‍वनाथ सत्यनारयण (नी ऋणम्‌ तीर्चुकुन्ना (तेरा ऋण चुकाया)), गुडिपाटी वेंकटचलम्‌ (कन्नीटी कालुवा (अश्रुधारा), अदृष्‍टम्‌ (किस्मत), वेंकटचलम्‌ कथलु (वेंकटचलम्‌ की कहानियाँ)), मुणिमाणिक्यम्‌ (हास्य कथलु (हास्य कहानियाँ), तल्लि प्रेमा (मातृ प्रेम), कांतम्‌ कापुरम्‌ (कांतम्‌ का पारिवारिक जीवन)), मोक्कपाटी नरसिम्‍ह शास्त्री (बैरिस्टर पार्वतीशम्‌)), कोडवटेगंटी कुटुंबराव (तल्ली लेनी पिल्ला (अनाथ), मोंडिवाडु (हठीला)), गोपीचंद (तंड्रुलु - कोडुकुलु (बाप -बेटा), शितिलालयम्‌ (खंडहर)) आदि विख्यात साहित्यकारों ने तेलुगु कहानी को एक नया शिल्प प्रदान किया। साथ ही पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों की भाँति युवा पीढ़ी ने भी समसामयिक परिस्थितियों को अपनी काहानियों में उकेरा है।


तेलुगु कहानी की इस रोचक यात्रा का आनंद हिंदी पाठकों को प्रदान करने के लिए राचकोंडा बहनों (राचकोंडा स्वराज्यलक्ष्‍मी, पारनंदि निर्मला, मुनुकुट्‍ल पद्‍म राव, गुंटूर रजनी प्रभा) ने तेलुगु पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित 48 चर्चित कहानियों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है। उनकी सद्‍यः प्रकाशित पुस्तकें ‘तेलुगु की प्रतिनिधि कहानियाँ, भाग - 1,2 (2010) हिंदी पाठकों के समक्ष तेलुगु संस्कृति का आइना पेश करती हैं। प्रथम खंड में अवसराल रामकृष्‍ण राव, वेलचेटि सुब्रह्‌मण्यम, मल्लादि वेंकट कृष्‍णमूर्ति, शांति नारायण, विविन मूर्ति, चिल्ल्र भवानी देवी, सोदुम जयराम, वाराल कृष्‍णमूर्ति, मधुरांतक नरेंद्र, कवन शर्मा, धंडिकोटि ब्रह्‌माजी राव तथा पारनंदि निर्मला की कहानियों का अनुवाद सम्मिलित है जबकि द्वितीय खंड में राचकोंडा सुभद्रा देवी, स्वराज्य लक्ष्मी, बलिवाड कांताराव, एल.आर.स्वामी, दार्ल तिरुपतिराव, शिवल जगन्नाथराव, अवधानुल विजयलक्ष्मी और वेलचेटि सुब्रह्‌मण्‍यम्‌ की कहानियों को रखा गया है। इन कहानियों में विषय वैविध्य है। इनमें वृद्धावस्था की रचनाएँ, चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्‍त भ्रष्‍टाचार,वैवाहिक जीवन की विसंगतियों के साथ साथ स्त्री विमर्श, पर्यावरण विमर्श और दलित विमर्श जैसी उत्तर आधुनिक सोच से संबंधित कहानियाँ भी शामिल हैं।


मराठी में 1960 के बाद दलित साहित्य आंदोलन चला। इस आंदोलन का मुख्‍य उद्‍देश्‍य है जातिप्रथा, वर्ण व्यवस्था, अछूत समस्या, जातिगत सांप्रदायिकता और दलितों के अधिकार की लड़ाई को तीव्र करना ही है। हिंदी साहित्य के साथ साथ तेलुगु साहित्य में भी दलित विमर्श ने जोर पकड़ा। विद्रोह और आक्रोश वस्तुतः दलित साहित्य की मूल प्रवृत्ति है। लंबे समय से दलितों को सामाजिक तिरस्कार और शोषण का शिकार बनाया जाता रहा है। समाज सुधार और जागरण की लहर का यह सुपरिणाम है कि सदियों से दबा कुचला यह वर्ग आज उठकर खड़ा हो गया है और अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है। इस दृष्‍टि से इस संग्रह में संकलित कहानियाँ ‘अर्थी’, ‘विवाह’, ‘बंधन’(सोदुम जयराम), ‘मुखिया का बैल’ और ‘दीवाल’(वाराल कृष्‍णमूर्ति) द्रष्‍टव्य हैं।


सोदुम जयराम की कहानी ‘अर्थी’ में दर्शाया गया है कि पहले हरिजन बस्ती गाँव से बाहर होती थी, पर आज हरिजन बस्ती और गाँव के बीच की दूरी समाप्‍त हो चुकी है। "बीते दिन तो और ही थे, वे दाने दाने के लिए मौताज होते हैं। घिनौनी जिंदगी जीते थे। मार खाकर फिर उसी किसान के वहाँ जा बैठते थे और अधफूँकी बीड़ी के लिए हाथ फैलाते थे। उन्हें शायद यह महसूस ही नहीं होता था कि कितनी घिनौनी जिंदगी जी रहे थे वे। औरतों की बात का तो कहना ही क्या?... जब मर्द ही गुलामों की तरह जी रहे थे तब उनकी औरतों का अपना अस्तित्व ही क्या रह जाता है।... कभी घोंघे की चाल चलनेवाला जमाना आज तीर की तेजी से भाग चला जा रहा है।"


एक ओर विश्‍व में अंतरराष्‍ट्रीय आदिवासी दिवस मनाया जा रहा है और दूसरी ओर ‘ऑपरेश्‍न ग्रीन हंट’ के नाम पर उन्हें जमीन से विस्थापित किया जा रहा है। डॉ.कवन शर्मा की कहानी ‘बचाओ’ में इस बात को स्पष्‍ट किया गया है। "बड़े बड़े बाँधों का निर्माण करने पार निर्वासित हुए लोग अब भी चालीस से अस्सी प्रतिशत निर्वासित ही हैं। आज के नेताओं के वादे केवल पानी पर खींची लकीर मात्र हैं। जिंदगी का आनंद उठानेवाले कुछ हैं तो बली की वेदी पर चढ़नेवाले कुछ और हैं।"


इस संकलन की कहानियों में स्त्री के अनेक रूपों का चित्रण भी है। स्त्री भले ही शारीरिक शक्‍ति में पुरुषों से कमजोर है लेकिन उसके पास मानसिक शक्‍ति की कमी नहीं होती। बलिवाड कांताराव की कहानी ‘कथानायिका’ में ऐसी स्त्री की मानसिक स्थिति का वर्णन है जिसके पास शारीरिक सुंदरता नहीं है - "ठंडी हवा के झोंके रह रहकर बंद दरवाजों की दरारों से आ आकर गालों को थप्पड़ की मार की तरह सुन्न कर रहे थे। मेरी कल्पना की उमा में और प्रत्यक्ष उमा में जमीन - आसमान का अंतर था। अपनी चिट्‍ठी में उतने सुंदर और कोमल भावों को व्यक्‍त करनेवाले उमा देखने में नाटी, धँसी आँखों वाली, चिडिया सी दुबली पतली थी। *** मुझे लगा कि जीवन की सभी इच्छाएँ उसी क्षण जलकर राख हो गई और मेरी नसें फूटकर शक्‍तिविहीन हो गईं। मैं वहीं ढ़ेर सा पड़ा रहा।" यदि स्त्री देखने में सुंदर नहीं होती तो कोई भी उसे पसंद नहीं करता। वह स्त्री भी मानसिक रोग का शिकार हो सकती है।


इस समाज में निःसंतान स्त्री को प्रताडित होना पड़ता है। पारनंदि निर्मला की कहानी ‘बंगारम्मा’ में निःसंतान स्त्री की मानसिक पीड़ा का वर्णन है। "ज़िंदगी आराम से कट रही थी। किंतु विधाता को यह सहन नहीं हुआ। भाग्य का क्रूरतम दंड बंगारम्मा को मिली। वह यह कि उसकी गोद कभी नहीं भरी।.... दिन बीतते गए, वर्ष बीतते गए, जाने कितने देवी देवताओं से मनौतोयाँ माँगी। हर पेड़, हर मंदिर में माथा टेका किंतु उसके माथे पर संतान भाग्य कोई नहीं लिख पाया था।... यह खोट सदा महसूस करती कि उसके बच्चा नहीं है। ससुराल में भी उस पर व्यंग्य बाण चलते, उसे नीची दृष्‍टि से देखते।" लेकिन निःसंतान स्त्रियाँ भी स्नेहशील, ममतामयी और वात्सल्य से युक्‍त होती हैं, इसे नकारा नहीं जा सकता है।


दहेज प्रथा सामाजिक विसंगति है। सब लोग यह जानते हैं कि दहेज लेना और दहेज देना दोनों कानूनन अपराध हैं, फिर भी लोग दहेज लेने और देने को अपनी शान समझते हैं। यही कारण है कि दहेज न दे पाने की स्थिति में अनेक शिक्षित कन्याएँ अविवाहित रह जाती हैं। अवधानुल विजयलक्ष्मी की कहनी ‘वाह रे वाह! बुजुर्ग’ में इस विषम स्थिति का मार्मिक चित्रण है।


अंततः यह कहना समीचीन होगा कि अनुवादकों ने इन दो संकलनों में प्रायः ऐसी तेलुगु कहानियों का चयन किया है जिनमें नारी हृदय की पीड़ा और सामाजिक विसंगतियों का मर्मस्पर्शी अंकन है। कुछ कहानियों में बाल मनोविज्ञान को भी आधार बनाया गया है। इसमें संदेह नहीं कि इस अनुवाद से तेलुगु और हिंदी भाषियों के मध्य साहित्यिक ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक आत्मीयता में वृद्धि होगी क्योंकि अनुवाद का कार्य सही अर्थों में सेतुबंध का कार्य है। राचकोंडा बहनों की यह साहित्य सेवा सराहनीय है।


--------------------------------------
* तेलुगु की प्रतिनिधि कहानियाँ (भाग - 1,2)/ अनुवाद : पारनंदि निर्मला (भाग - 1) राचकोंडा बहनें (भाग - 2)/ 2010/ निहाल पब्लिकेशन्स्‌ एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, सी -70, गली नं. 3, उत्तरी छज्जुपूर, दिल्ली - 110 094/ पृ.167 (भाग -1), पृ.128 (भाग - 2)/ मूल्य -350/- (भाग - 1), 250/- (भाग - 2)

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

दलित विमर्श से संबंधित कुछ पुस्तकें

  • अपेक्षित समुदायों का आत्म इतिहास/ (सं) बद्रीनारायण विष्‍णु महापात्र, अनंत राममिश्र/ वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली - 110 002
  • आधुनिकता के आइने में दलित/ (सं) अभय कुमार दुबे/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • उत्तर आधुनिकता और दलित साहित्य/ कृष्‍णदत्त पालीवाल/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • गांधी और दलित भारत जागरण/ श्री भगवान सिंह/ भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 18, इंस्टीट्‍यूशनल एरिया, लोडी रोड, नई दिल्ली - 110 003
  • गांधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ/ डॉ.रामविलास शर्मा/ वाणी प्रकाशान, नई दिल्ली - 110 002
  • जातियों की राजनीतिकरण (बिहार में पिछड़ी जातियों के उभार की दास्तानें)/ कमल नयन चौबे/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • डॉ.बाबा साहेब आंबेडकार/ डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे/ राधाकृष्‍ण प्रकाशन, 7/31, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110 002
  • डॉ.अंबेडकर के प्रशासनिक विचार/ डॉ.धर्मवीर/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • दलित चिंतन का विकास (अभिशप्‍त चिंतन से इतिहास की ओर)/ डॉ.धर्मवीर/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • दलित चिंतन के विविध आयाम/ आ.ल.ऊके/ शिल्पायन प्रकाशन, 10295, लेन नं.1, वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली - 110 032
  • दलित चेतना : साहित्य/ (सं) रमणिका गुप्‍ता/ शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली -110 032
  • दलित चेतना : साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार/ रमणिका गुप्‍ता/ शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली - 110 032
  • दलित चेतना की कहानियाँ : बदलती परिभाषाएँ/ राजमणि शर्मा/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • दलित दर्शन/ (सं) रमणिका गुप्‍ता, ज्ञान सिंह बाल/ शिल्पायान प्रकाशन, दिल्ली - 110 032
  • दलित ब्राह्‌मण/ शरण कुमार लिंबाले/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली -110 002
  • दलित राजनीति की समस्याएँ (आज के प्रश्‍न, शृंकला - 18)/ (सं) राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र/ शरण कुमार लिंबाले, (अनु) रमणिका गुप्‍ता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर/ विमल थोरात/ अनिता पब्लिशर्स, 4697/3, 21-ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110 002
  • दलित सिविल कानून (खंड 5)/ डॉ.धर्मवीर/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • दलित हस्तक्षेप/ रमणिका गुप्‍ता/ (सं) ओमप्रकाश वाल्मीकि/ शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली - 110 032
  • पंजाबी साहित्य में दलित कदम/ (सं) रमणिका गुप्‍ता/ शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली - 110 032
  • भारत में जाति एवं वर्ण व्यवस्था : कब, क्यों और कैसे?/ शाह.एस.एल/ सरिता बुक हाउस, लोकहित प्रकाशन, दिल्ली
  • भारतीय दलित साहित्य : परिप्रेक्ष्‍य/ (सं) पुन्नी सिंह, कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • भारतीय समाज क्रांति के जनक महात्मा जोतिबा फुले/ डॉ.मु.ब.शह/ राधाकृष्‍ण प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • महात्मा जोतिबा फुले/ डॉ.मु.ब.शह/ राधाकृष्‍ण प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • राष्‍ट्रनेता डॉ.बी.आर.अंबेडकर/ नीलीश विश्‍वास/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • हरिजन से दलित/ राजकिशोर/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
  • हिंदू/ शरण कुमार लिंबाले/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002

'मोहि कहाँ विश्राम' की समीक्षा

swatantra vaartta-8/8/2010

शनिवार, 7 अगस्त 2010

मनुष्‍य होने की रचना यात्रा : ‘मोहि कहाँ विश्राम’





आधुनिक हिंदी साहित्य में समाज, संस्कृति, राजनीति और मनोविज्ञान को आधार बनाकर उच्च कोटि के निबंधों का सृजन हुआ है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपरांत विद्‍यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, शिव प्रसाद सिंह, प्रभाकर माचवे, विवेकी राय, रामदरश मिश्र, कृष्‍ण बिहारी मिश्र और ठाकुर प्रसाद सिंह आदि ने ललित निबंधों को नई दिशा प्रदान की हैं। रामअवध शास्त्री (16 अगस्त, 1947) इन्हीं की परंपरा की कड़ी हैं।

रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों में जहाँ एक ओर परंपराग्त मान्यताओं की नई व्याख्या है वहीं दूसरी ओर आधुनिकता जनित पीड़ा का दिग्दर्शन भी है। उनमें प्रकृति चित्रण के साथ साथ समाज की विड़बंनाओं पर आक्रोश है। साथ ही राष्‍ट्रीयता और मनुष्‍यता की प्रतिष्‍ठा के अतिरिक्‍त स्त्री विषयक चिंतन भी निहित है। उनके निबंधों में ‘लोक’ समाहित है। निबंधों की विशेषता के बारे में रामअवध शास्त्री की मान्यता है कि "यह कहना सही नहीं कि आज निबंध विधा अलोकप्रिय हो गई है और फिर कोई भी रचनाकार जब अपने पाठकों से सीधा संवाद स्थापित करने की इच्छा रखता है तो उसके लिए निबंध से बेहतर कोई दूसरी विधा नहीं हो सकती। निबंध की यही विशेषता मुझे भी निबंध से जुडे़ रहने के लिए विवश किए हुए है और मैं वर्षों से उससे जुड़ा हुआ हूँ।" (मोकि कहाँ विश्राम, पुरोवाक्‌)।

निबंध विचारों के माध्यम से रचानाकार के व्यक्‍तित्व को उद्‍घाटित करने वाली विधा है। ये विचार शृंकलाबद्ध हो सकते हैं अथवा शृंकलामुक्‍त भी, सूक्ष्म हो सकते हैं अथवा स्थूल भी। रामअवध शास्त्री के सद्‍यः प्रकाशित ललित निबंध संग्रह ‘मोहि कहाँ विश्राम’ (2010, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली) में कुल 19 निबंध संकलित हैं। इनमें से कुछ निबंध व्यक्‍तिनिष्‍ठ हैं और कुछ वस्तुनिष्‍ठ। स्वयं लेखक ने यह कहा है कि ‘इसमें आपको व्यक्‍तिनिष्‍ठ और वस्तुनिष्‍ठ दोनों प्रकार के निबंध मिल सकते हैं। ये निबंध समय समय पर मागँ के अनुसार लिखे गए हैं।’ (मोहि कहाँ विश्राम, पुरोवाक्‌)

रामअवध शास्त्री वस्‍तुतः मनुष्‍यता के पक्षधर लेखक हैं। उनके अनुसार राष्‍ट्रीयता को वहीं तक महत्व दिया जा सकता है जहाँ तक वह मनुष्‍य जाति की सेवा में साधक होती है - ‘मेरे लिए राष्‍ट्रीयता से अधिक महत्वपूर्ण मनुष्‍य है।’ उनकी इस मान्यता से मतभेद संभव है क्योंकि यहाँ उन्होंने ‘राष्ट्र’ और ‘मनुष्‍य’ को द्वंद्व के रूप में प्रयुक्‍त किया है - जो बहुत वांछनीय प्रतीत नहीं होता।

साहित्य सृजन के पीछे कोई न कोई उद्‍देश्‍य अथवा प्रयोजन होता है। इस विषय में शास्त्री जी को अध्यापक पूर्णसिंह से प्रेरणा मिली जिन्होंने कहा है कि - ‘उठो, जाओ असंख्य लोग तुम्हारी बाट जोह रहे हैं। उनमें से कुछ अपनी राह भूलकर अमानुष बन गए हैं तो कुछ अमानुष, मनुष्य बनने के लिए अंगुलीमाल की तरह तैयार बैठे हैं। उन्हें मनुष्य बनाना है। उनको मनुष्य के रंग में रंगना है। यदि तुम ऐसा करते हो तो यह कोई नई बात नहीं होगी। सदियों से ऐसा होता चला आ रहा है। यह एक सनातन प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रेहेगी और चलती रहनी चाहिए।’ (मोहि कहाँ विश्राम, पृ.20)।

रामअवध शास्त्री ऐसे समाज की कामना करते हैं जिसमें हर व्यक्‍ति को जीने का समान अधिकार प्राप्‍त हो। डॉ.हजारी प्रसाद द्विवेदी की भाँति वे भी मनुष्‍य की जिजीविषा पर मुग्ध है। संगीत के माध्यम से मानव जीवन में आशा का संचार होता है जिससे प्रेरणा पाकार मनुष्‍य संघर्षरत होता है और संकल्प शक्‍ति को अर्जित करता है। लेखक की मान्यता है कि ‘वसंत की सनातन गंध युग युगांतर से चली आ रही जीवानधारा में समाकार मानव की दर्दमनीय जिजीविषा का प्रमाण प्रस्तुत करती है।’ (मधुवन महक उठा, पृ.77)।

परिवर्तन संसार का नियम है। जहाँ जड़ता होगी वहाँ विकास अवरुद्ध होगा। अतः गतिशीलता अथवा जीवंतता के लिए परिवर्तन अनिवार्य है। शास्त्री जी इसलिए कहते हैं कि मधुवन पुराने जमाने में भी महकता था और आज भी महकता है लेकिन अंतर इतना ही है कि पहले वह दुष्‍यंत जैसे व्यक्‍तियों की इच्छानुसार महकता था और आज उस पर आम आदमी का अधिकार है।

रामअवध शास्त्री भारतीय संस्कृति के प्रति जागरूक हैं। अतः निबंधों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का दर्शन होता है। भारतीय पवित्र ग्रंथों से उद्धरण देते हुए उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को उजागर किया है। शिव भारतीयों के आराध्य देवता हैं। माहादेव, आशुतोष, रुद्र, जटा जूटधारी(धूर्जटी), नीलग्रीवा, नीलकंठ, त्र्यंबक, चंद्रशेखर, गंगाधर, भोलेनाथ आदि नामों से पुकारे जानेवाले भगवान शिव की अभिव्यंजना से भारतीय दर्शन, साहित्य, संगीत, कला और नृत्य अभिव्यंजित है। हड़प्पाकालीन सभ्यता हो या आधुनिक कालीन, शिव अपनी सरलता के कारण लोकाराध्य हैं। शिव हमारे चारों ओर समाहित हैं। वे हमारी अस्मिता के प्रतीक हैं। वे हमारी संस्कृति के प्राणाधार हैं। उनके महात्म्य से भारतीय संस्कृति का कण कण अनुप्राणित है। वे हमारे देवता हैं। हमारी एकता के प्रतीक हैं। उनमें भारत का हृदय धड़कता है। (राष्‍ट्रीय देवता शिव, पृ.103)। इसी तरह उन्होंने अपने निबंध ‘शिवतत्व’ में भी शिव की महिमा का वर्णन किया है। यथा - शिवतत्व अपनी ही शक्‍ति से आभासित होता है और वही संयोजन का कारण भी है और वियोजन का भी। (शिवतत्व, पृ.37)।

भारत गाँवों का देश है। सही अर्थ में भारतीय संस्कृति गाँवों में ही जीवित है। शास्त्रीजी ने गाँवों के जीवन तथा मिट्टी के सोंधेपन को बखूबी अपने निबंधों में प्रस्तुत किया है। ‘लमही में प्रेमचंद’ नामक निबंध में लेखक ने अपनी बात रम्य कल्पना के माध्यम से शुरू की हैं। वे कहते हैं कि लमही उनकी भेंट प्रेमचंद से हुई। भौतिक रूप से भले ही प्रेमचंद उपस्थित नहीं हैं लेकिन लमही के जनमानस में , लमहीवालों की चर्चाओं और प्रसंगों में आज भी प्रेमचंद जीवित हैं। लमही में सिर्फ प्रेमचंद ही नहीं बल्कि उनके होरी, धनिया, मातादीन और सिलिया से भी मिला जा सकता है। ‘प्रेमचंद उस माटी से जुड़े हुए हैं जिसके माध्यम से उन्होंने पूरे भारत की माटी और माटी से जुड़े सपूतों की पीड़ा को उभार कर उसीके परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की मांग की थी।’ (लमही में प्रेमचंद, पृ.64)। लेकिन आज तक भी वह न्याय प्राप्‍त नहीं हुआ है। आज भी लमहे के नागरिक प्रेमचंद के समान ही जीतोड़ परिश्रम करके थके मांदे घर लौटते हैं। उनके जीवन में कहीं कोई बदलाव नहीं है। हाँ बदलाव आया है तो बस इतना कि पगडंड़ी की जगह कच्ची सड़क बन गई है।

पहले भी संकेत किया गया है कि शास्त्री जी के निबंधों में स्त्री विषयक चिंतन निहित है। वे यह मानते हैं कि नारी के स्वाभिमान के रक्षा के लिए उसके मन की शुचिता को महत्व दिया जाना चाहिए। जन्म से लेकर स्त्री अपने जीवन काल में अनेक भूमिकाओं का निर्वाह करती है। इन सबमें से मातृत्व का आधिक महत्व है। कहा जाता है कि जब स्त्री माँ बनती है तो वह पूर्ण्ता प्राप्‍त करती है। जिस स्त्री के नसीब में माँ बनने का सौभाग्य नहीं है उसे यह समाज धिक्कारता है और बांझ कहकर उसकी कोख को अपमानित करता है। इसलिए ग्रामीण स्त्रियाँ देवी माँ के सामने याचना करती हैं - ‘माई के दुआरे एक बांझ पुकारे/ देहु ललन घर जाऊँ।’ (ग्रीष्‍म में एक गाँव, पृ.68)। अर्थात्‌ हे माँ! मुझ पर कृपा करो और कम से कम एक पुत्र का वरदान दो जिससे मैं बांझ होने के अभिशाप से मुक्‍त होकर प्रसन्नता पूर्वक घर जा सकूँ। यह स्थिति सिर्फ गाँवों में ही नहीं है, सुशिक्षित सभ्य समाज में भी यही स्थिति है। हमारे समाज में निःसंतान स्त्रियों को आज भी अपमानित होना पड़ता है।


ललित निबंध के क्षेत्र में ‘मोकि कहाँ विश्राम' प्राचीन और उत्तर आधुनिक विमर्श को जोड़नेवाली रचना के रूप में समाधृत होगा। ऐसा विश्‍वास है।
__________________________________________-
मोहि कहाँ विश्राम/ डॉ.रामअवध शास्त्री/ 2010/ नमन प्रकाशन, 4231/1, अंसारी रोद, दरियागंज, नई दिल्ली- 110 002/ पृ.119/ मूल्य 250/-

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

स्त्री विमर्श से संबंधित कुछ पुस्तकें



  • आम औरत : जिंदा सवाल - सुधा अरोड़ा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • औरत अपने लिए - लता शर्मा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • औरत के लिए औरत - नासिरा शर्मा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • औरत : कल, आज और कल - आशा रानी व्होरा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • आधी दुनिया का सच - कुमुद शर्मा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • आज का स्त्री आंदोलन - रमेश उपाध्‍याय और संज्ञा उपाध्याय, शब्द संधान प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • औरतें और आवाज - क्षमा शर्मा, आलेख प्रकाशन, दिल्ली।
  • आदमी के निगाह में औरत - राजेंद्र यादव, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
  • इस्पात में ढ़लती स्त्री - शशिकला राय, सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • उपनिवेश में स्त्री : मुक्‍ति कामना की दस वार्ताएँ - प्रभा खेतान, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
  • खुली खिड़कियाँ - मैत्रेयी पुष्‍पा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • जीना है तो लड़ना होगा - वृंदा कारात, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • नारी तुम अनन्या हो - जयश्री गोस्वमी महंत, सामायिक प्राकशन, नई दिल्ली।
  • नारी प्रश्‍न - सरला माहेश्‍वरी, राधाकृष्‍ण प्रकाशन, दिल्ली।
  • नारी शोषण : आइने और आयाम - आशारानी व्होरा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  • नष्‍ट लड़की : नष्‍ट गद्‍य - तसलीमा नसरीन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • नहीं, नहीं मैं केवल नारी - इंदिरा ‘नूपुर’, आलेख प्रकाशन, दिल्ली।
  • नौकरपेशा नारी - पुष्‍पपाल सिंह, सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • प्रेम के साथ पिटाई - लवलीन, सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • बाज़ार के बीच : बाज़ार के खिलाफ (भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रश्‍न) - प्रभा खेतान, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • बिटिया! बनो सयानी - सुदर्शन भाटिया, आलेख प्रकाशन, दिल्ली।
  • महिला शोषण और मानवाधिकार - सुधारानी श्रीवास्तव एवं आशा श्रीवास्तव, अर्जुन पब्लिकेशन हाउस, नई दिल्ली।
  • मात्र देह नहीं है औरत - मृदुला सिन्हा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • मन माँझने की जरूरत - अनामिका, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • मोर्चे पर स्त्री - अंजुदुआ जैमानी, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • लड़ेंगे भी - रचेंगे भी (भारत में स्वरोजगारत स्त्रियों का दास्तान) - इला.भट्‍ट, वाग्देवी प्रकाशन, बिकानेर, राजस्थान।
  • विश्‍व की प्रसिद्ध महिलाएँ - आशारानी व्होरा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्री उपेक्षिता - प्रभा खेतान, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
  • स्त्रीत्व धारणाएँ : यथार्थ - कुसुमलता केडिया, विश्‍वविद्‍यालय प्रकाशन, दिल्ली।
  • स्त्री आकांक्षा के मानचित्र - गीताश्री, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्री अस्मिता के प्रश्‍न - सुभाष सेतिया, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्री के लिए जगह - (सं)राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्री संघर्ष का इतिहास :1880-1900 - राधाकुमार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्रीवादी विमर्श : समाज और साहित्य - क्षमा शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ - रेखा कस्तवार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्री सशक्‍तीकरण के विविध आयाम - (सं) ऋषभदेव शर्मा, गीता प्रकाशन, हैदराबाद।
  • स्त्री : मुक्‍ति का सपना - कमला प्रसाद, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्री अस्मिता : साहित्य और विचारधारा - जगदीश चतुर्वेदी, सुधा सिंह, आनंद प्रकाशन, कलकत्ता।
  • स्त्री : परंपरा और आधुनिकता - राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • स्त्री और पराधीनता - द सब्जेक्‍शन ऑफ विमैन’ - जॉन स्टुअर्ट मिल, (अनु) युगांत धीर, संवाद प्रकाशन, मुंबई, मेरठ।
  • स्त्री-मुक्‍ति : साझा चूल्हा - अनामिका, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली।
  • शृंखला की कडियाँ - महादेवी वर्मा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
  • हम सभ्य औरतें - मनीषा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • हिंदी लेखिकाओं की कहानी - नारी के बदलते स्वरूप - सुधा बालकृष्‍णन,संजय बुक सेंटर, वाराणसी।

बुधवार, 4 अगस्त 2010

‘कुरुक्षेत्र’ का अनुवाद : सांस्कृतिक अभिव्यक्‍तियाँ



डॉ.रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का सारा साहित्य भारतीय संस्कृति और जन जीवन के विविध प्रसंगों से भरा पड़ा है। उनका प्रसिद्ध खंडकाव्य ‘कुरुक्षेत्र’ भी इसका अपवाद नहीं है। उल्लेखनीय है कि अनुवाद की दृष्‍टि से ऐसी रचनाएँ अत्यंत चुनौतिपूर्ण मानी जाती हैं क्योंकि इनका अनुवाद करते समय अनुवादक को स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा - दोनों ही - के समाजों की सांस्कृतिक पृष्‍ठभूमि को समझना पड़ता है, तथा तदनुरूप अनुवाद करना होता है। यही कारण है कि अनुवाद को सांस्कृतिक सेतु कहा जाता है। इस संदर्भ में यदी ‘दिनकर’ के ‘कुरुक्षेत्र’ (1946) के डॉ.पी.आदेश्‍वर राव तथा डॉ.यिनान्द एम.कल्वार्ट कृत अंग्रेज़ी अनुवाद ‘kURUKSHETRA' (1995, हेरिटेज पब्लिकेशन डिविज़न, विशाखपट्‍णम्‌) का तुलनात्मक अध्ययन करें तो अत्यंत रोचक परिणाम प्राप्‍त हो सकते हैं। यह आलेख इसी दिशा के एक विनम्र एवं लघु प्रयास है।

भारत एक विशाल एवं समृद्ध देश है। इसमें विविध जातीय पृष्‍ठभूमि वाले एवं भिन्न भिन्न भाषा भाषी निवास करते हैं। यही कारण है कि भारत के जाति, भाषा, रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, रीति-रिवाज आदि की विविधता के साथ धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताओं में भी विविधता देखने को मिलती हैं। वस्तुतः इनके समीकरण से ही भारत की सामाजिक संस्कृति का निर्माण हुआ है। ‘कुरुक्षेत्र’ के मूल हिंदी पाठ में उपलब्ध कतिपय सांस्कृतिक और रीति रिवाजों से संबंधित उक्‍तियों के अंग्रेज़ी अनुवाद की समीक्षा करते समय इस विविधता का स्मरण तो रखना ही होगा, साथ ही यह भी न भूलना होगा कि ये दोनों भाषाएँ विजातीय हैं तथा दोनों के भाषा समाजों की संस्कृतियाँ अलग अलग हैं। कतिपय उदाहरण देखें -


मूल : जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है। (पृ.7)

अं.अ: Semi-conscious with the excitement of the wine of victory (pg.3)

मूल में प्रयुक्‍त ‘सुरा’ शब्द मदिरा का द्‍योतक है। इस प्रकार पांडव सेना विजयोल्लास में मग्न थी मानो सुरा पान किया हो। इसकी ओर संकेत करते हुए मूल में ‘जय-सुरा’ शब्द का प्रयोग किया गया है। अंग्रेज़ी अनुवाद में ‘the wine of victory' का प्रयोग किया गया है जो मूलतः शाब्दिक अनुवाद है। मूल में विवेक का शिथिल होने की ओर संकेत करते हुए ‘चेतना निस्पन्द’ का प्रयोग गया है। लेकिन अंग्रेज़ी अनुवाद में प्रयुक्‍त ‘Semi-Conscious' शब्द दूसरा ही अर्थ प्रकट कर रहा है।



मूल: द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता (पृ.9)

अं.अ. : Draupadi now wears her heavenly attire (pg.5)

महाभारत संग्राम के मुख्य कारण की ओर इंगित करते हुए कवि ने ‘दिव्य वस्त्रालंकृता’ का प्रयोग किया है। भारतीय रीति रिवाज के अनुसार रानियाँ-महारानियाँ अपने सौभाग्य और वैभव के चिह्‌नों के रूप में कैसे दिव्य-वस्त्रालंकृता होती हैं, इसकी ओर यहाँ कवि ने संकेत किया है। अंग्रेज़ी अनुवाद में ‘now wears her heavenly attire' का प्रयोग किया गया है। अंग्रेज़ी अनुवाद में मूल से भिन्न अर्थ द्‍योतित हो रहा है।



मूल : करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
ऊँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से, (पृ.10)

अं.अ. : He saluted Bhishma,
touching the feet with his head,
washing the toes with his tears (pg.7)

पैरों पर झुककर प्रणाम करना, सिर से चरण छूना, आँसुओं से उँगलियों को धोना आदि क्रियाएँ भारतीय सभ्यता एवं संस्कार को व्यक्‍त करती हैं। मूल में कवि ने वर्तमान काल का प्रयोग करते हुए ‘करते प्रणाम’ का जो प्रयोग किया है, वह वर्तमान सूचक है, जब कि अंग्रेज़ी में प्रयुक्‍त ‘saluted' शब्द भूतकाल का द्‍योतक है। ‘पवित्र पद’ में ‘पवित्र’ विशेषण को अनुवाद में छोड़ दिया गया है। इससे मूल के उदात्त भाव की क्षति हुई है।



मूल : क्लीव-सा देखा लज्जा-हरण निज नारी का (पृ.18)

अं.अ. : Like a eunuch, allowed your wife to be insulted (pg.14)


द्रौपदी के लज्जा-हरण के कुकृत्य को धर्म के भय से युधिष्‍ठिर ने सहा। इसकी ओर संकेत करते हुए मूल में ‘क्लीव-सा’ (उपमा अलंकार) का प्रयोग किया गया है। भारतीय समाज में कायर लोगों को नपुंसक या क्लीव कहने का जो रिवाज है वह यहाँ मूल कृति में दर्शाया गया है। अंग्रेज़ी में प्रयुक्‍त ‘like a eunuch' उसका शाब्दिक अनुवाद है। ‘लज्जा-हरण’ का अनुवाद ‘insulted' अपरिहार्य है। इससे मूल भाव स्पष्‍ट नहीं हो रहा है।



मूल : शिव-शांति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में;
सदा जन्म लेती वह नर के
मनःप्रांत निस्पृह में (पृ.30)

अंअ. : Like the idol of Parvati, peace
is not made in the house of a potter;
It always takes birth in the dispassionate mind of man. (pg. 26)

मूल में सांस्कृतिक तथ्य निहित है। जहरीले और दुखःदायी संघर्ष के कारणों को दूर करने से मानव के निष्‍काम हृदय में शांति की शीतल प्रतिमा का निर्माण होगा। सारी मानव चेतना ही शिवा-शांति का रूप धारण करेगा। इसी तथ्य को कवि ने उकेरा है।

मूल में कल्याणकारी रूप की ओर संकेत करते हुए ‘शिवा-शांति’ की मूर्ति का प्रयोग किया गया है। अंग्रेज़ी अनुवाद में ‘the idol of Parvati' का प्रयोग किया गया है, जो वस्तुतः भावानुवाद है। इससे मूल की अर्थच्छवियाँ स्पष्‍ट नहीं हो पा रही हैं। मूल में प्रयुक्‍त ‘कुलाल’ शब्द जातिवचक है। अंग्रेज़ी अनुवाद में प्रयुक्‍त ‘a potter' शब्द व्यावसायिक कर्म का सूचक है।



मूल : ब्रह्‌मचर्य के व्रती, धर्म के
महास्‍तम्भ, बल के आगार,
परम विरागी पुरुष, जिन्हें
पाकर भी पा न सका संसार। (पृ.32)

अं.अ. : Bhishma, a celibate by vow, a pillar of Dharma,
embodiment of strength,
a most detached man,
living in the world, but not of the world. (pg.29)

मूल में ब्रह्‌मचर्य आश्रम की ओर संकेत किया जया है तथा वीरता और विवेक के साक्षात्‌ प्रतिरूप भीष्‍म की महानता के प्रति कवि ने अपना श्रद्धाभाव व्यक्‍त किया है। भारतीय संस्कृति में ब्रह्‌मचर्य आश्रम का जो निर्दिष्‍ट महत्व है इसकी ओर यहाँ संकेत किया गया है। अंग्रेज़ी अनुवाद में भी मूल के भाव को सशक्‍त एवं सुचारू रूप से अभिव्यक्‍त करते हुए ‘a celibate' का प्रयोग किया गया है। ‘धर्म’ शब्द को अंग्रेज़ी अनुवाद में लिप्यंतरण किया गया है।


मूल : निर्दोषा, कुलवधू, एकवस्त्रा। (पृ.40)

अं.अ. : Wrapped in a saree the innocent princess (pg.37)

मूल में नारी की दयनीय स्थिति की ओर संकेते किया गया है। प्राचीन भारतीय समाज में नारी के वस्त्र धारण संबंधी रिवाज की ओर यहाँ कवि ने संकेत किया है। ‘एकवस्त्रा’ पर विशेष बल दिया गया है। अंग्रेज़ी अनुवाद में ‘a saree' का प्रयोग किया गया है जिसमें विशेष रूप से बल नहीं है और ‘एकवस्त्रा’ में निहित यह भाव स्पष्‍ट रूप से अंकित नहीं हो पाया है कि उस समय द्रौपदी रजस्वला थी। यहाँ टिप्पणी देकर यह स्पष्‍ट किया जाना चाहिए था कि भारत में रजस्वला स्त्रियों को किस प्रकार का आचरण करना होता था तथा उनके साथ किस प्रकार का आचरण अपेक्षित था। इससे इस शब्द की सांस्कृतिक दृष्‍टिकोण स्पष्‍ट हो सकती थी।



मूल : सम्राट-भाल पार चढ़ी लाल जो टीका,
चन्दन है या लोहित प्रतिशोध किसी का? (पृ.53)

अं.अ. : The red mark shining on the forehead of the king -
is it sacred paste or someone's bloody revenge? (pg.50)

यज्ञ की दीक्षा में सम्मिलित हुए नरेशों के मस्तक पर भारतीय संस्कृति के अनुसार लाल टीका (तिलक) लगाया जाता है। मूल में इसी की ओर संकेत किया गया है। अंग्रेज़ी अनुवाद में ‘लाल टीका’ के लिए ‘The red mark' का प्रयोग किया गया है। ‘Mark’ शब्द से ‘टीका’ (तिलक) का आशय प्रकट नहीं हो रहा है क्योंकि यह एक विशेष सांस्कृतिक कृत्य है जो पाश्‍चात्य संस्कृति में दुर्लभ है। ‘चन्दन’ शब्द के लिए ‘Sacred paste' का प्रयोग किया गया है। इससे यह स्पष्‍ट नहीं हो पा रहा है कि चन्दन (sandal) का प्रयोग किस तरह से किया जाता है। ये सारे शब्द अपने आप में विशिष्‍ट प्रयुक्‍तिगत शब्द हैं। अतः पाद टिप्पणियों के द्वारा इनका आशय स्पष्‍ट किया जाना चाहिए था।



मूल : यह स्वस्ति-पाठ है या नव अनल-प्रदाहन? (पृ.53)

अं.अ. : Are these the words of blessing or new blazing flames? (pg.50)

मूल में कवि ने प्रश्‍न चिह्‌न लगाया कि वसतुतः यह स्नान यज्ञ के अंत में किया जानेवाला अवभृत स्नान है या कि रुधिर स्नान। भारतीय संस्कृति के अनुसार यज्ञ के उपरांत स्‍नान करने की प्रथा है। ‘यज्ञान्त स्नान’ का अंग्रेज़ी में भावानुवाद करके ‘a sacrificial bath' का प्रयोग किया गया है, जिससे कि इसका दूसरा अर्थ ध्वनित हो रहा है। वस्तुतः यह संकल्पना पाश्‍चात्य सभ्यता में नहीं है। अतः मूल का आशय स्पष्‍ट करने के लिए यदि ‘bath after Yagna' का प्रयोग किया गया होता तो एक हद तक मूल पाठ से अधिक न्याय हो पाता। यहाँ भी टिप्पणी की आवश्‍कता है।



मूल : दौड़ी नीराजन-थाल लिए निज कर में ,
पढ़ती स्वागत के श्‍लोक मनोरम स्वर में ।
आरती सजा फिर लगी नाचने-गाने,
संहार-देवता पर प्रसून छितराने। (पृ.53)

अं.अ. : Holding the plate of homage in her hand,
reciting welcome songs in her melodious voice
She began to sing and dance for arti,
showering flowers on the God of Destruction. (pg.50)

मूल में भारतीय सभ्यता में विजेताओं के स्वागत करने की संस्कृति की ओर संकेत किया गया है। विजेताओं का स्वागत नीराजन-थाल के साथ किया जाता है तथा मधुर स्वर में स्वागत के श्‍लोक पढ़ती हुई आरती उतारी जाती है। मूल में निहित भाव को अंग्रेज़ी अनुवाद में उतारने का प्रयास किया गया है। ‘आरती’ शब्द को अंग्रेज़ी अनुवाद में लिप्यंतरण किया गया है। पाश्‍चात्य सभ्यता में ऐसी सांस्कृतिक संकल्पना न होने के कारण शब्दानुवाद मात्र करना पड़ा। श्‍लोक, नीराजन, आरती, संहार-देवता आदि दार्शनिक शब्दों को टिप्पणी के माध्यम से स्पष्‍ट किया जाना चाहिए।



इस प्रकार ‘कुरुक्षेत्र’ के कतिपय सांस्कृतिक संदर्भों के अंग्रेज़ी अनुवाद के अनुशीलन से स्पष्‍ट होता है कि इस काव्य का मूल पाठ संस्कृति गर्भित है जिसका अनुवाद करने के लिए अनुवादक द्वय ने यथास्थान शब्दानुवाद, भावानुवाद और ग्रहण की नीति अपनाई है। परंतु ध्यान रखने की बात यह है कि हिंदी और अंग्रेज़ी सांस्कृतिक दृष्‍टि से विजातीय भाषाएँ हैं। इसीलिए अनूदित पाठ की संप्रेषणीयता बढ़ाने और हिंदी भाषा समाज की सांस्कृतिक विशेषताओं से अंग्रेज़ी पाठक को परिचित कराने के लिए यह आवश्‍यक था कि भारतीय संस्कृति और प्रथाओं से संबंधित शब्दों और अभिव्यक्‍तियों को स्पष्‍ट करने के लिए -
(1) या तो पाद टिप्पणियाँ दी जाती, (2) या परिशिष्‍ट दिया जाता (3) अथवा व्याख्यात्मक अनुवाद किया जाता।

अंततः कहा जा सकता है कि ‘दिनकर’ सांस्कृतिक चेतना से ओत-प्रोत एक ऐसे रचनाकार हैं जिनके काव्य का अंग्रेज़ी में अनुवाद करना निश्‍चय ही चुनौतिपूर्ण कार्य है