‘स्रवंति’ ने अपने सीमित कलेवर के बावजूद सदा यह प्रयास किया है कि अपने पाठकों को भाषा और साहित्य के हलकों में चलनेवाली हलचलों से अवगत कराया जाए। पिछले कुछ दशकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है उत्तर आधुनिकता की हलचल। समय समय पर इसके विभिन्न पहलुओं से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जुड़ी हुई सामग्री हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं। इसी कड़ी में फरवरी 2011 के अंक को ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ पर केंद्रित विशेषांक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। स्मरणीय है कि गत वर्ष ‘साहित्य-संस्कृति मंच’ द्वारा इस विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी और पोस्टर प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था, जिसका विद्वानों और शोधार्थियों ने व्यापक स्वागत किया था। और यह मांग की थी कि संगोष्ठी की सामग्री को मुद्रित रूप में सामने आना चाहिए। सभा के सचिव और विशेष अधिकारी के सहयोग से इस वेशेषांक के रूप में हमने उसी माँग को पूरा करने का प्रयास किया है।
इस विशेषांक में संपादकीय के अलावा तेरह आलेख, आठ टिप्पणियाँ, दो काव्यांश और एक रिपोर्ट सम्मिलित हैं।
उत्तर आधुनिकता एक ओर भूमंडलीकरण से जुड़ी हुई है तो दूसरी ओर लोकतंत्रीकरण से। डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने विषय प्रवेश में इस बात की ओर इशारा किया है कि विभिन्न क्षेत्रों के ध्रुवों और सत्ता केंद्रों के टूटने से, अब तक के हाशियाकृत समूह और विमर्श जीवन और साहित्य में अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहे हैं तथा व्यक्तिकेंद्री चिंतन का स्थान समूहों के विमर्श ले रहे हैं।
प्रो.दिलीप सिंह का आलेख ‘उत्तर आधुनिक विमर्श:एक बहस’ इस अंक की जान है। बहुत सरल ढंग से लिखे गए इस आलेख में प्रो.दिलीप सिंह ने उत्तर आधुनिकता को अनिवार्यतः आधुनिकता विरोधी मानने के भ्रम का खंडन तो किया ही है, यह भी खुलासा किया है कि भारत में पुनर्जागरण और उसके बाद भी आधुनिकता के भीतर से ही उत्तर आधुनिक संदर्भ जनमते और पनपते दिखाई देते हैं। उनकी यह स्थापना पिछले डेढ़ सौ साल के साहित्य के इतिहास पर नए सिरे से सोचने को बाध्य करती है कि उत्तर आधुनिक साहित्य का टटका आधार मानी जानेवाली विडंबना, उपहास और पैरोडी जैसी प्रवृत्तियाँ भारतेंदु, प्रेमचंद और निराला से लेकर अमृतलाल नागर, मुक्तिबोध और धूमिल तक के साहित्य में परिव्याप्त हैं।
उत्तर आधुनिकता के लक्षणों को गिनवाते हुए प्रो.अर्जुन चव्हाण ने अपने आलेख में जहाँ यह कहा है कि इसमें न तो कोई विचार अंतिम है और न कोई विकास, वहीं यह भी कहा है कि इसका वैध-अवैध से कोई लेना-देना नहीं है तथा उदारीकरण, निजीकरण, पूँजीवाद और उपभोक्तावाद इसके विभिन्न पक्ष हैं।
उत्तर आधुनिक विमर्श के अर्थ, इतिहास और विकास को समझने की दृष्टि से इस अंक में प्रकाशित प्रो.एम.वेंकटेश्वर का आलेख अत्यंत महत्वपूर्ण और दिशा निर्देशक है। प्रो.एम.वेंकटेश्वर ने वि-रचना को उत्तर आधुनिक विमर्श का एक मात्र लक्ष्य मानते हुए इस बात पर बल दिया है कि इसमें पाठ को अर्थ युक्त रचना के रूप में देखने के बजाय उसमें उपस्थित आंतरिक विसंगतियों की पहचान महत्वपूर्ण होती है। उन्होंने ध्यान दिलाया है कि यह विमर्श रचना को विज्ञापन बनाता है और बहुकेंद्रीयता इसका प्रमुख लक्षण है। इस लेख को इस विशेषांक की विशेष उपलब्धि माना जा सकता है।
इसी प्रकार डॉ.मृत्युंजय सिंह ने ‘मत कहो आकाश में कुहरा घना है’ शीर्षक अपने आलेख में रेखांकित किया है कि हिंदी के आलोचक साहित्य में उत्तर आधुनिकतावादी मूल्य ध्वंस को लेकर चिंतित रहे हैं, पर मूल्य के संदर्भ में आए तनाव और मूल्यांकन की जगह अनुभावन पर जोर देने की उपेक्षा करते रहे हैं।
उत्तर आधुनिक विमर्श की लोकतांत्रिकता पर ध्यान केंद्रित करते हुए डॉ.जी.नीरजा अर्थात मैंने अपने आलेख में यह दर्शाया है कि इसमें ‘डिफरेंस’ बुनियादी मुद्दा है, जिसके फलस्वरूप दलित, आदिवासी, स्त्री, समलैंगिक आदि समुदायों को अपनी सामूहिक पहचान के लिए साहित्य में संघर्ष करते देखा जा सकता है।
डॉ.बलविंदर कौर, जो आज के इस कार्यक्रम का संयोजन भी कर रही है, ने अत्यंत अध्यवसाय पूर्वक तैयार किए गए अपने ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और पहचान का संकट’ शीर्षक विस्तृत आलेख में विकेंद्रीकरण, महावृत्तों के अवसान तथा विचारधारा से मुक्ति की व्याख्या करते हुए इस विमर्श में पाठक की रचनाधर्मिता और उसके पाठ का महत्व दर्शाया है। भारतीय समाज और जनता को उसकी अमानुषिक परिणति का अहसास कराने में इसकी प्रासंगिकता मानने के विचार का उन्होंने समर्थन किया है।
उत्तर आधुनिक साहित्य में दलित संदर्भ की चर्चा करते हुए डॉ.भीमसिंह ने इसे ऐसी ताकतवर प्रस्तुति माना है जो इतिहास के अंत की घोषणा के बाद भी इतिहास बनाने की परिघटना के लिए आधारभूमि बनी रही है।
इसी क्रम में डॉ.पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव ने अपने संक्षिप्त परंतु शोधपूर्ण आलेख में हिंदी के स्त्री लेखन को स्त्री के निजीपन और अस्मिता की खोज के रूप में पहचानने पर बल दिया है।
डॉ.करन सिंह ऊटवाल ने अपने लेख में उत्तर आधुनिकता में स्वीकृत सीमातीत खुलेपन की अभिव्यक्ति को नाटकों में सर्वाधिक संभाव्य माना है।
जड़ों की ओर वापसी की प्रवृत्ति की चर्चा करते हुए डॉ.घनश्याम ने अपने लेख में आदिवासी जीवन के चित्रण को इसका उत्कृष्ट उदाहरण बताया है।
इसी क्रम में प्रणव कुमार ठाकुर ने कविताओं की चर्चा करते हुए दर्शाया है कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में आदिवासी समुदाय सबसे अधिक लहूलुहान हुआ है।
डॉ.साहिरा बानू बी. बोरगल ने साहित्य भाषा पर पड़े उत्तर आधुनिकता के प्रभाव को आंकने का प्रयास किया है।
इसके अलावा डॉ.अनुराधा जैन, राजकमला, प्रतिभा कुमारी, एम.डी.कुतुबुद्दीन, चंदन कुमारी, सुशीला, मोनिका देवी और डॉ.बी.बालाजी की टिप्पणियों में भी उत्तर आधुनिकता और साहित्य के संबंधों पर महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं।
उत्तर आधुनिकता की थीम को ध्यान मे रखते हुए इस अंक का आवरण चित्र भी विशेष रूप से तैयार कराया गया है। उल्लेखनीय है कि मई 2010 से ‘स्रवंति’ के मुख पृष्ठ पर जो फोटोग्राफ छप रहे हैं, वे सब अंग्रेज़ी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय की ‘मास कम्यूनिकेशन’ की द्वितीय वर्ष की छात्रा लिपि भारद्वाज ने उपलब्ध कराए हैं।
विशेषांक कैसा बन पड़ा है, यह तो श्रद्धेय प्रो.एम.वेंकटेश्वर जी और आप सब ही बताएँगे, लेकिन हमारी ओर से कुल मिलाकर यह सामग्री उत्तर आधुनिक विमर्श की सैद्धांतिकी के अलग अलग पहलुओं को सामने लाते हुए समकालीन साहित्य में उनके प्रतिफलन की पड़ताल का एक संक्षिप्त परंतु समग्र प्रयास है।
1 टिप्पणी:
बधाई हो मैडम जी
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