मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

सामासिक संस्कृति के साहित्य साधक बालशौरि रेड्डी


स्वतंत्रता सेनानी एवं वरिष्‍ठ पत्रकार, ‘दक्षिण समाचार’ के संस्थापक-संपादक मुनींद्र जी (1925-2010) की प्रथम पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी स्मृति में आयोजित वार्षिक व्याख्यान माला के अंतर्गत 16 अप्रैल, 2011 को ‘हमारा समय’ विषय पर प्रख्यात साहित्यकार और ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी व्याख्यान देंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्‍ठ लेखक डॉ.बालशौरि रेड्डी करेंगे। यहाँ डॉ.बालशौरि रेड्डी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला जा रहा है।


दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार-प्रसार में वरिष्‍ठ लेखक बालशौरि रेड्डी का योगदान सराहनीय है। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, समीक्षा, आलोचना आदि साहित्यिक विधाओं के माध्यम से दक्षिण भारत की संस्कृति को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का काम किया है। मौलिक लेखन के साथ साथ अनुवादों क माध्यम से भी उन्होंने दक्षिण और उत्तर के भेद को मिटाने का प्रयास किया है।

बालशौरि रेड्डी का जन्म 1 जुलाई, 1928 को गोल्लल गूडूर (कडपा जिला, आंध्र प्रदेश) में हुआ। उनकी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा ग्रामीण परिवेश में ही संपन्न हुई। 1946 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की रजत जयंती के अवसर पर संस्था के आजीवन संस्थापक राष्‍ट्रपिता महात्मा गांधी चेन्नई आए थे। उनके भाषण से प्रभावित और प्रेरित होकार बालशौरि रेड्डी ने हिंदी प्रचार-प्रसार करने का निश्‍चय किया। इसे क्रियान्वित करने हेतु वे हिंदी में उच्च शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए उत्तर भारत गए। 1948 में काशी परीक्षा केंद्र से ‘साहित्यालंकार’ की उपाधि प्राप्‍त की और 1949 में इलाहाबाद से ‘साहित्यरत्‍न’ की। तत्पश्‍चात्‌ चेन्नई वापस आकार उन्होंने लगभग दस साल तक दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के प्रशिक्षण महाविद्‍यालय में सेवा की।

1948 में जब बालशौरि रेड्डी वाराणसी में थे तब उनका ध्यान साहित्य की ओर आकर्षित हुआ। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, काशीनाथ उपाध्याय ‘भ्रमर’, कमलापति त्रिपाठी और गंगाधर मिश्र के प्रोत्साहन तथा सहयोग से वे साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए। इस संबंध में वे अक्सर कहा करते हैं कि "लेखन की प्रेरणा मुझे भ्रमर जी ने दी। उन्होंने मेरी आरंभिक रचनाओं को ‘ग्राम संसार’ में छापा। निराला जी, त्रिपाठी जी तथा मिश्र जी का स्नेह और प्रोत्साहन मैं भूल नहीं सकता। साहित्य के क्षेत्र में मेरा पदार्पण बड़े ही नाटकीय ढंग से हुआ। मैंने अपनी 20 वर्ष की आयु तक कभी लिखने की कोशिश नहीं की और न ही लिखने की इच्छा रही। विंध्याचल समीपवर्ती प्रकृति ने मुझे लिखने की प्रेरणा दी। प्रकृति की उस अपूर्व सुषमा व सौंदर्य की आराधना करते समय मेरी अनुभूतियाँ अभिव्यक्‍त होने की तड़प उठी। प्रारंभ से मैंने हिंदी में ही लिखा है। ‘ग्राम संसार’ और ‘संसार’ में मेरी प्रारंभिक रचनाएँ छपीं।"

भारतीय संस्कृति जड़ न होकर प्रगतिशील रही है और इसका एक सुनिश्‍चित इतिहास है। भारतीय संस्कृति असांप्रदायिक है और इसमें अखिल भारतीय भावना निहित है। किसी राष्‍ट्र के सांस्कृतिक विकास में उसकी भाषा, वहाँ का वाड्‌.मय, वहाँ का दर्शन तथा वहाँ की ललित कलाएँ अपनी अहम भूमिका निभाती हैं। भारत की संस्कृति तथा सभ्यता अतिप्राचीन है। आवश्‍यकता इस बात की है कि इसे किशोर वय बालकों तक अवश्‍य पहुँचाया जाए, साथ ही नव शिक्षित प्रौढ़ों को भी इससे परिचित कराया जाए, ताकि वे अपने वर्तमान और भविष्‍य को सुखद बनाने के लिए दिशा प्राप्‍त कर सकें। इसी उद्‍देश्‍य की पूर्ति के लिए रेड्डी जी ने आंध्र, तमिलनाडु तथा कर्नाटक राज्यों से संबंधित संस्कृति, सभ्यता आदि की चर्चा अपनी औपन्यासिक कृतियों में की है।

पाश्‍चात्य देशों की तुलना में भारत में आज भी बाल साहित्य की कमी है। इस क्षेत्र में बालशौरि रेड्डी का प्रयास सराहनीय है। 1966 से ‘चंदामामा’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बाल साहित्य लेखन को आगे बढ़ाया। उनकी मान्यता है कि देश का भविष्‍य बच्चों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास पर ही निर्भर होता है। इसी उद्‍देश्‍य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदी पाठकों के लिए ‘तेलुगु की लोक कथाएँ’, ‘आंध्र के महापुरुष’, ‘तेनाली राम के लतीफे’, ‘तेनाली राम के नए लतीफे’, ‘तेनाली राम की हास्य कहानियाँ’, ‘बुद्धू से बुद्धिमान’, ‘न्याय की कहानियाँ, ‘आदर्श जीवनियाँ’ और ‘आमुक्‍त माल्यदा’ जैसी बालोपयोगी रचनाएँ कलात्मक रूप से प्रस्तुत कीं।

मूलतः बालशौरि रेड्डी उपन्यासकार के रूप में विख्यात हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में शबरी, जिंदगी की राह, यह बस्ती : ये लोग, भग्न सीमाएँ, बैरिस्टर, स्वप्‍न और सत्य, प्रकाश और परछाई, लकुमा, धरती मेरी माँ, वीर केसरी, प्रोफेसर, दावानल और तेलुगु साहित्य का इतिहास आदि उल्लेखनीय हैं। इतना ही नहीं उन्होंने तेलुगु की अनेक प्रसिद्ध रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया है। पत्रकारिता उनका प्रिय क्षेत्र है। उन्होंने तेलुगु पत्रकारिता के इतिहास से हिंदी जगत से परिचित कराने के लिए भी प्रशंसनीय प्रयास किया है। हिंदी जगत के समक्ष शीघ्र ही तेलुगु पत्रकारिता का इतिहास मुद्रित रूप में प्रस्तुत होगा।

साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित बालशौरि रेड्डी ने अपने लेखन का मुख्य उद्‍देश्‍य यही रखा है कि आंध्र के इतिहास, उसकी सभ्यता व संस्कृति से हिंदी जगत परिचित हो। भारतीय भाषाओं के समन्वयन और सामासिक संस्कृति के रूपगठन की दशा में बालशौरि रेड्डी का यह योगदान सराहनीय है। *



3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

एक मुधन्य हिंदी सेवी की जीवन-यात्रा का सुंदर प्रस्तुतिकरण - बधाई स्वीकारें॥

Sawai Singh Rajpurohit ने कहा…

आभार आपका

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

साहित्य साधक बालशौरि रेड्डी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
बालशौरि रेड्डी जी के लेखन और कर्मठता ने मुझे सदा प्रभावित किया है।