गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं : ‘अम्न का राग’



"मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
जीवन;
कण समूह में हूँ मैं केवल
एक कण!
- कौन सहारा!
मेरा कौन सहारा!" (शमशेर; ‘लेकर सीधा नाम’; कुछ कविताएँ; पृ.17)।

शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 -12 मई,1993) ने प्रगतिशील कविता को एक नया आयाम दिया है। वे कम्यूनिस्ट आदर्शों से अपने आपको प्रभावित मानते हैं। उन्होंने स्वयं कहा है कि "बनारस में शिवदान सिंह चौहान के सत्संग से सहित्य के प्रगतिशील आंदोलन में कुछ दिलचस्पी पैदा हुई। सन्‌ 45 में ‘नया साहित्य’ के संपादन के सिलसिले में बंबई गया। वहाँ कम्यूनिस्ट पार्टी के संगठित जीवन में, अपने मन में अस्पष्‍ट बने हुए सामाजिक आदर्शों का मैंने एक बहुत सुंदर सजीव रूप देखा।" (डॉ.सूर्यप्रकाश विद्‍यालंकार; सप्‍तक त्रय : आधुनिकता एवं परंपरा; पृ.183)।

शमशेर ने लौकिक जीवन के अनेक रंगों और मानव हृदय की भावनाओं को अपनी कविता में उकेरा है। उन्होंने सूक्ष्मतम संवेदनाओं और अनुभूतियों की कभी उपेक्षा नहीं की। इतना ही नहीं उन्होंने चित्रकला, संगीत और स्थापत्य के उपकरणों का भी कविता में प्रयोग किया है। शमशेर ने एक अनूठी शैली विकसित की जिसे ‘शमशेरियत’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने शब्द को साकार रूप दिया। अपनी रचना शैली पर पड़े विभिन्न कवियों के प्रभाव के संबंध में उनका कहना है कि "फिर भी जो रचना शैली मैं सन्‌ 39 से अपनाता चला आया था उसको कोशिश के बावजूद भी सीधा स्पष्‍ट और स्वस्थ रूप नहीं दे सका, हालांकि बंबई आने के बाद ‘नए पत्ते’ के निराला, ‘वक्‍त की आवाज’ के जोश, चंद्रभूषण त्रिवेदी, रामकेर, माया काव्स्की और लोर्का मेरे आदर्श बन गए थे। मेरी शैली पर निराला के अलावा एक के बाद एक बाद और घुल मिलकर भी, इन कवियों की शैली का जिनकी दो-चार आठ-दस कविताएँ मैंने पढ़ ली थीं, काफी असर था, शायद इसलिए कि अपनी भावनाओं की भाषा मुझे एकदम इनमें मिल गई : वर्ले (अनुवाद में), लारेंस, इलियट, पाउंड, कर्मिंग्स, हापकिंस, ईडिथ, सिटवेल, डायलन टामस। ...तथा पंत ने मुझे पहले कविता की भाषा दी।" (वही; पृ.184)।

शमशेर ने अपनी कविताओं में जन आंदोलनों को एक नया रूप देना का प्रयास किया है। वे कहते हैं कि "कला का संघर्ष समाज के संघर्ष से एकदम कोई अलग चीज़ नहीं हो सकती और इसलिए आज इन संघर्षों का साथ दे रहा है। सभी देशों में बेशक यहाँ भी, दरअसल आज की कला का असली भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलनों में हिस्सा ले रहे हैं। टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि, उस भेद को जहाँ वह है वहीं से पा सकते हैं, वे उसको पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" (डॉ.धनंजय वर्मा, ‘शमशेर : आधुनिकता का समावेशी चरित्र’; (सं) विश्‍वरंजन, ठंडी धुली सुनहरी धूप; पृ.92)। शमशेर का यह आत्मसंघर्ष इन काव्य पंक्‍तियों में मुखरित है - "वाम वाम वाम दिशा,/ समय साम्यावादी।/ पृष्‍ठभूमि का विरोध अंधकार - लीन। व्यक्‍ति .../ कुहास्पष्‍ट हृदय-भार, आज हीन।/ हीनभाव, हीनभाव/ मध्यवर्ग का समाज, दीन।/ पथ-प्रदर्शिका मशाल/ कमकर की मुट्ठी में किंतु उधर :/ लाल-लाल/ वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में / पथ प्रदर्शिका मशाल।" (‘वाम वाम वाम दिशा’; कुछ और कविताएँ)।

मध्यवर्गीय समाज की स्थिति दीन-हीन है। इस समाज की मुक्‍ति सिर्फ साम्यवाद में ही निहित है। लाल मशाल जो कामगार की मुट्ठी में है वही मार्ग प्रशस्त करेगी। मार्क्स ने भी कहा था कि "Proletariat alone is a really revolutionary class." (Karl Marx, Friedrich Engles; The Communist Manifesto; Pg. 11)। इसी भाव को शमशेर ने अपनी कविता ‘वाम वाम वाम दिशा’ में व्यक्‍त किया है।

इसी तरह शमशेर ने मजदूर की वास्तविक स्थिति को ‘बात बोलेगी’ में अंकित किया है। इतना ही नहीं उन्होंने समाज और लोगों की स्थिति को उजागर करते हुए लिखा है कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।" वे आगे यह प्रश्‍न करते हैं कि जब हमारी दृष्‍टि ही झूठी है तो देखने से क्या होगा - "सत्य का मुख/ झूठ की आँखें/ क्या - देखें!" वे यह भी प्रश्‍न करते हैं कि "सत्य का/ क्या रंग है?"

शमशेर के अनुसार एकमात्र सत्य यही है कि जनता का दुःख एक है। आर्थिक विषमता ही वसतुतः सत्य का रंग है _ "एक - जनता का/ दुःख एक।/ हवा में उड़ती पताकाएँ/ अनेक।" मजदूर के घर की वास्तविक स्थिति भी यही होती है -"दैन्य दानव : काल/ भीषण क्रूर/ स्थिति कंगाल। बुद्धि; घर मजूर।"

कार्ल मार्क्स ने आवाज दी "The Proletarians have nothing to lose but their chains. They have world to win. Working men of all countries, Unite!" (Karl Marx, Friedrich Engles; Th Communist Manifesto; pg. 121)। इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए शमशेर कहते हैं कि अगर दुनिया के मजदूर एक नहीं होंगे तो उनके स्वातंत्र्य की इति समझनी चाहिए क्योंकि स्वतंत्रता के लिए एकता अनिवार्य है - "एक जनता का - अमर वर :/ एकता का स्वर।/ -अन्यथा स्वातंत्र्य - इति।"

शमशेर बौद्धिक स्तर पर मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित है। उनकी कविताओं में मार्क्स के विचारों के साथ साथ कला, प्रेम और प्रकृति के विविध रंग विद्‍यमान है। विजयदेव नारायण साही ने शमशेर की काव्य कला के संबंध में कहा है कि "तात्विक दृष्‍टि से शमशेर की काव्यानुभूति सौंदर्य की ही अनुभूति है। शमशेर की प्रवृत्ति सदा की वस्तुपरकता को उसके शुद्ध और मार्मिक रूप में ग्रहण करने में रही है। वे वस्तुपरकता का आत्मपरकता में और आत्मपरकता का वस्तुपरकता में आविष्‍कार करनेवाले कवि हैं, जिनकी काव्यानुभूति बिंब की नहीं बिंबलोक की है।" (शैलेंद्र चौहान; ‘शमशेर की कविता : क्लासिकल ऊँचाई की कविता है’; (सं) विश्‍वरंजन; ठंडी धुली सुनहरी धूप; पृ.248)।

शमशेर ने अपनी काव्यानुभूति के बारे में स्पष्‍ट करते हुए स्वयं कहा है कि "एक दौर था जब मैं ऐसी (रूमानी भावबोध से युक्‍त) चीजें लिखने के लिए अधिक उत्सुक था, उसके लिए अपने अंदर काफी प्रेरणा महसूस करता था। पर अपेक्षित स्तर मुझे सदा अपने कवि-व्यक्‍तित्व की पहुँच से ऊँचा और असंभव-सा महसूस होता। फिर भी मैंने अपनी प्रेरणाओं को कुछ ऐतिहासिक सत्यों से जोड़ने की, उनके मर्म को अपनी धड़कन के साथ व्यक्‍त करने की कोशिश कीं ... फिर भी मैं दोहरा कर कहना चाहूँगा कि जहाँ तक वह मेरी निजी उपलब्धि है, वहीं तक मैं उन्हें दूसरों के लिए भी मूल्यवान समझता हूँ।" (शमशेर; कुछ और कविताएँ; भूमिका)।

कलासृजन, संरचना और शिल्प की दृष्‍टि से शमशेर की लंबी कविता ‘अम्न का राग’ उल्लेखनीय है। इसमें कवि ने समाजशास्त्रीय संबंधों को बखूबी उकेरा है। इस कविता में उन्होंने दो राष्‍ट्रों की संस्कृतियों को प्रतिबिंबित किया है। बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने वैश्‍विक दृष्‍टिकोण को उभारा है। शमशेर शोषण, हिंसा और युद्ध का विरोध करते हैं और यह चाहते हैं कि सर्वत्र शांति कायम हो। उन्होंने अपनी इस लंबी कविता ‘अम्न का राग’ की शुरुआत में ही बसंत के नए प्रभात की ओर संकेत किया है - "सच्चाइयाँ/ जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं/ हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्‍मुक्‍त नाचते/ परों में झिलमिलाती रहती हैं/ जो एक हजार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है/ उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ/ कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।" छायावादी सौंदर्यबोध से अनुप्राणित प्रतीत होनेवाले इस काव्यांश में कवि ने प्रतीकों के माध्यम से सत्य और शांति को उजागर किया है।

शमशेर देश की सीमाओं को अतिक्रमित करते हुए कहते हैं कि - "ये पूरब-पश्‍चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं/ मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द लपेट लिया।" शमशेर भारतीय एवं पाश्‍चात्य संस्कृतियों को अपनी आत्मा मानते हैं। उनक दृष्‍टिकोण वैश्‍विक है। इसी वैश्‍विक परिदृष्‍य को उकेरते हुए वे कहते हैं कि "मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर/ बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ/ सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं/ क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख शांति का राग हूँ/ बहुत आदिम, बहुत अभिनव।"

इतना ही नहीं शमशेर ने ‘अम्न का राग’ में भारतीय एवं पाश्‍चात्य विचारकों, शायरों, दार्शनिकों, संगीतकारों और रचनाकारों का उल्लेख किया है - "देखो न हक़ीकत हमारे समय की जिसमें/ होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफ़री को/ इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है/ कि जिसमें फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ अमर लता हिल उठी/ मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में / झलकता हुआ देख रहा हूँ/ और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते/ और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज मेरा तुलसी मेरी/ ग़ालिब/ एक एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का/ कुशल आपरेटर हैं।"

शमशेर को अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है जितना मास्को का लाल तारा। पीकिंग का स्वर्गीय महल मक्का मदीना से कम पवित्र नहीं - "मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है/ जितना मास्को का लाल तारा/ और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल/ मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं/ मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ/ जो वोल्गा से आए/ मेरी देहली में प्रह्‍लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की/ चौखट पर/ युद्ध के हिरण्यकश्‍य को चीर रही हैं।"शमशेर ने इस कविता में नए नए बिंबों का सृजन किया है। यह कविता उनकी अद्‍भुत सृजनात्मक प्रतिभा का परिचायक है।

शमशेर समस्त संसार में शांति कायम करना चाहते हैं - "यह सुख का भविष्‍य़ शांति की आँखों में ही वर्तमान है/ इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक रहे हैं।" उन्होंने अतीत, वर्तमान और भविष्‍य के सपने को एक साथ पिरोया है - "ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों/ का दिल है/ ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी/ और हमारी कला का सच्चा सपना हैं/ ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं/ ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और/ हक़ीक़त का अमर सपना हैं/ इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ/ पाना है।/ हम मानते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।"

शमशेर की कविताओं में एक ओर छयावादी सौंदर्यबोध है तो दूसरी ओर जीवन मर्म, संघर्ष, शांति और भविष्‍य का सुनहरा सपना गुंफित है। ‘अम्न का राग’ इस दृष्‍टि से उनकी कलात्मकता का प्रतिनिधित्व करनेवाली रचना प्रतीत होती है।

  • `चौथा विमर्श' में प्रकाशित - चौथा विमर्श / (सं) विश्रांत वशिष्ठ / मुजफ्फर नगर/ एलम 


4 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

आपने सही लिखा है कि ‘शमशेर ने एक अनूठी शैली विकसित की जिसे ‘शमशेरियत’ के नाम से जाना जाता है। ’

शमशेर बहादुर सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बहुत सारगर्भित आलेख।

हार्दिक बधाई...

Sunil Kumar ने कहा…

शमशेर बहादुर सिंह की शमशेरियतबहुत सारगर्भित आलेख। ऐसे रचनाकार से परिचय करने के लिए आपका आभार

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बढिया जीवन वृत्त... ये लेख बोल रहा है हम नहीं :)

arpanadipti ने कहा…

बहुत ही बढिया आलेख । बधाई आपको