"भारतीय दृष्टि से साहित्य की आत्मा रस है जिसका आधार मनुष्य के हृदय में स्थित विभिन्न भाव होते हैं। जन्मजात संस्कार के रूप में प्राप्त प्रेम और हास जैसे भाव ही परिपक्व होकर रस के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। हमारे दार्शनिकों ने रस को आनंद रूप और रसानुभूति को ब्रह्म की अनुभूति के समक्ष माना है। इसके लिए यह भी स्पष्ट किया है कि रस का अधिकारी अथवा पात्र वह सामान्य मनुष्य होता है जिसके भीतर आस्वादन की आकांक्षा होती है। ऐसा सहृदय ही रस का मानसिक साक्षात्कार करता है और रसानुभूति के क्षण में अपनेपन, पराएपन और तटस्थता से परे निर्वैयक्तिकता जैसी चौथी स्थिति में रहता है। इस तनमयता से ही लोकोत्तरता प्राप्त होती है जिससे निर्मल मन वाले सहृदय को आनंद का अनुभव होता है। यह अवस्था चित्त के द्रवित होने की अवस्था होती है।"
ये विचार मुंबई से पधारे वरिष्ठ काव्यशास्त्रीय विद्वान प्रो.त्रिभुवन राय ने यहाँ उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अंतर्गत सक्रिय दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के क्षेत्रीय कार्यालय में आयोजित विशेष व्याख्यानमाला के क्रम में ‘रसानुभूति का स्वरूप’ विषय पर दूरस्थ माध्यम के स्नातकोत्तर के अधयेताओं को संबोधित करते हुए प्रकट किए। विशेष व्याख्यान की अध्यक्षता प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने की तथा संचालन सहायक निदेशक डॉ.पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव ने किया।
इस अवसर पर निदेशालय की ओर से अध्यक्ष और मुख्य वक्ता का सम्मान किया गया। व्याखान पर परिचर्चा में डॉ.पूर्णिमा शर्मा, डॉ.मृत्युंजय सिंह, डॉ.जी.नीरजा, डॉ.गोरखनाथ तिवरी, डॉ.साहिरा बानू, डॉ.लक्ष्मीकांतम, अकबर, संगीता, राज्यलक्ष्मी, हेमंता बिष्ट, संध्या रानी ने सक्रिय रूप से भागीदारी निभाई।
2 टिप्पणियां:
जो पल भीतरी आस्वादन का होता है
बस वही पल रसास्वादन को पल होता है।
[‘सृजन के पल’ के रचनाकार से क्षमा मांगते हुए:)]
एक शिक्षक किन-किन उदाहरणों के माध्यम से अपने पाठक तक अपनी बात पहुँचाना चाहता हैं। इसका एक बड़ा ही रोचक बिम्ब प्रो.त्रिभुवन राय जी ने प्रस्तुत किया। इतने सुन्दर काव्यशास्त्रीय व्याख्यान के लिए उन्हें पुनः धन्यवाद।
और इतने सुन्दर ढंग से उस पूरी परिचर्चा को संक्षिप्त में फोटो के माध्यम से भी अभिव्यक्त करने के लिए जी.नीरजा जी को धन्यवाद।
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