शुक्रवार, 13 मई 2011

आरिगपूडि रमेश ‘चौधरी’ की हिंदी को देन


आरिगपूडि रमेश ‘चौधरी’ (26 नवंबर, 1922 - 28 अप्रैल, 1983) ऐसे रचनाकारों में प्रथम स्थान के अधिकारी हैं जिन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से हिंदी पाठकों को आंध्र प्रदेश की संस्कृति, सभ्यता, जीवन, रीति-रिवाज, खान-पान और आचार-व्यवहार से परिचित करवाया। वे यथार्थवादी साहित्यकार थे। उनके मतानुसार साहित्य जन चेतना का माध्यम है। 

आंध्र के कृष्‍णा जिले के वुय्यूरु नामक गाँव में जन्मे आरिगपूडि का वास्तविक नाम रामेश्‍वर वनजसन गांधी था। उनके पिता वेंकटराम चौधरी माहात्मा गांधी से प्रभावित थे और वे यह भी चाहते थे कि उनका बेटा ‘वनजासन’ अर्थात ब्रह्‍मा के समान समृद्ध हो। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध तीर्थस्थल रामेश्‍वरम से लौटने के बाद बेटे का जन्म हुआ। अतः उन्होंने अपने पुत्र का नाम रामेश्‍वरम वनजासन गांधी रखा। आरिगपूडि उनका उपनाम है जबकि चौधरी जातिवाचक है। दोस्तों के बीच वे रमेश के नाम से जाने जाते थे और साहित्य के क्षेत्र में अपने उपनाम ‘आरिगपूडि’ से।

आरिगपूडि बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। वे कवि के साथ साथ उपन्यासकार, नाटककार, एकांकीकार, अनुवादक और आलोचक भी थे, लेकिन उन्होंने ख्याति उपन्यासकार के रूप में अर्जित की। आरिगपूडि ने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्‍त विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं ज्वलंत समस्याओं का चित्रण किया है। मध्यवर्गीय व्यक्‍ति की यातनाओं एवं कुंठाओं को उन्होंने बखूबी उजागर किया है। उनके साहित्य में आंध्र की संस्कृति और जन जीवन का चित्र प्रमुख रूप से उभरा है।

आरिगपूडि की प्रमुख रचनाओं में भूले भटके (1956), दूर के ढोल (1957), खरे-खोटे (1957), धन्‍यभिक्षु (1958), अपवाद (1959), पतित पावनी (1959), अपनी करनी (1959), मुद्राहीन (1960), यह भी होता है (1961), सांठ-गांठ (1962), सारा संसार मेरा (1962), झाड़ फानूस (1964), निर्लज्ज (1965), उल्टी गंगा (1965), चरित्रवान (1966), उधार के पंख (1967), नदी का शोर (1975), सब स्वार्थी हैं (1981) और ‘अंतिम उपाय’ (1984) आदि उपन्यास सम्मिलित हैं। कोई न पराया (1961), उनका एकमात्र सामाजिक नाटक है जिसमें जमींदारी प्रथा का विवरण है। इनके अलावा अनेक सामाजिक कहानियाँ, बालोपयोगी कहनियाँ और आलोचनात्माक कृतियाँ भी प्रसिद्ध हैं। भगवान भला करे (1952), जीने की सजा (1960), बंद आँखें(1979) , विचित्र नादान (1973), कला पोषक (1980), एक पहिए की गाड़ी (1979), `मयसूद’ (1984) (कहानी संग्रह), नेपथ्य (एकांकी) तथा आंध्र प्रदेश, जवाहर ज्योति, आंध्र संस्कृति और साहित्य (आलोचना) आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं।

1956 में प्रकाशित ‘भूले भटके’ आरिगपूडि का प्रथम उपन्यास है। दक्षिण भारत में उस समय जो ब्राह्‍मण विरोधी आंदोलन चला था उसका यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में अंकित है। लेखक ने तत्कालीन समाज में व्याप्‍त वर्ण व्यवस्था पर तीखा प्रहार किया था। उपन्यास का नायक सत्यम्‌ ब्राह्‍मण है। वह जात-पांत का विरोधी है। वह वेश्‍या की बेटी नलिनी से बेहद प्यार करता है। सत्यम्‌ के पिता सनातनपंथी हैं। वे इस विवाह का विरोध करते हैं पर सत्यम्‌ नलिनी के साथ मद्रास भाग जाता है और एक नई जिंदगी शुरू करता है। इस संदर्भ में लेखक टिप्पणी करता है कि ‘सब एक ही धरती के निवासी हैं। यह जात-पांत मनुष्‍य के द्वारा बनाया गया एक ऐसा जाल है कि मनुष्‍य आज तक भी उससे बाहर निकल नहीं पाया है।’ इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने तत्कालीन समाज में व्याप्‍त परंपरागत रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया है तथा जनता को भी चेताया है। 

भारतीय जनता अत्यंत भोली भाली है और प्रायः कुछ स्वार्थी लोग उसे धर्म के नाम पर ठगते रहते हैं। आरिगपूडि ने अपने उपन्यास ‘दूर का ढोल’ (1957) में इसी बात को उकेरा है। 1958 में प्रकाशित उपन्यास ‘धन्यभिक्षु’ ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास में सातवाहन कालीन (आदिकालीन) वास्तुकला का चित्रण है। इसमें लेखक ने अग्निवर्मा नामक पात्र के माध्यम से यह स्पष्‍ट किया है कि पुरातत्ववेत्ताओं का जीवन कितना संघर्षमय होता  है। इस संदर्भ में लेखक कहते हैं कि ’कलाकार का जीवान काल और देश से प्रभावित हो सकता है, पर उसकी आधारभूत प्रेरणाएँ सदा से एक ही रही हैं अतः अग्निवर्मा का जीवन किसी भी कलाकार का जीवन हो सकता है।"

अपवाद(1959), पतित-पावनी(1959), अपनी करनी(1959), अपने पराए(1959), मुद्राहीन(1960), सारा संसार मेरा(1962) और निर्लज्ज(1965) आदि उपन्यासों के माध्यम से आरिगपूडि ने स्त्री जीवन से संबंधित समस्याओं, उनके संघर्ष, उनकी जागरूकता के साथ साथ आधुनिकता के नाम पर बढ़ रही विशृंकलता को भी उजागर किया है।

आरिगपूडि की कहानियों में बदलते जीवन मूल्य, मध्यवर्गीय व्यक्‍ति की आकांक्षाओं, मनुष्य की मनोवृत्तियों और मानसिक उत्पीड़न आदि के साथ साथ प्राकृतिक सौंदर्य का भी अंकन है। उनके मरणोपरांत 1984 में प्रकाशित ‘अंतिम उपाय’ (उपन्यास) और ‘मयसूद’ (कहानी संग्रह) उनकी अंतिम कृतियाँ हैं। ‘अंतिम उपाय’ में लेखक ने नक्सलवाद का जीवंत चित्र प्रस्तुत किया है। इस कृति के प्रतिपाद्‍य को रेखांकित करते हए उन्होंने कहा कि "भारतीय परिस्थितियों में राजनैतिक उद्‍देश्यों के लिए हिंसा का प्रयोग अनावश्यक है, अनुचित है - यही सत्य इस उपन्यास में निरूपित किया गया है। ‘मयसूद’ में संकलित कहानियाँ मध्यवर्ग, निम्नवर्ग और दलितों की समस्याओं पर केंद्रित हैं।

आरिगपूडि ने अपनी कृतियों में आँध्र प्रदेश की ग्रामीण संस्कृति को भी उकेरा है। बच्चे के जन्‍म से लेकर मृत्युपर्यंत विविध संस्कारों का पालन किया जाता है। लेखक ने उन सभी विधानों का चित्रण अपनी रचनाओं में अंकित किया है। इतना ही नहीं उन्होंने ‘एरुकला’, ‘लंबाडी’, ‘एनादी’ आदि जनजातियों की जीवन शैली को भी हिंदी पाठकों के समक्ष रखा है।

ग्रामीण सभ्यता के साथ साथ आरिगपूडि ने महानगरीय जीवन शैली को भी उकेरा है। उन्होंने यह भी स्पष्‍ट किया है कि किस तरह ग्रामीण जनता जमींदारों के पंजों से अपने आपको बचाने हेतु नगरों की ओर भागती है। ‘ये छोटे बड़े लोग’ उपन्यास में लेखक ने निम्नवर्ग के संघर्ष का चित्रण किया है। लेखक ने कृष्णस्वामी नामक पात्र के माध्यम से इस समाज को वर्ग विहीन समाज बनाने के लिए प्रेरित किया है। उन्होंने अपने पात्र के मुख से यह कहलवाया है कि "जिस व्यक्‍ति में आदर्शवाद है, आदर्शों के प्रति निष्‍ठा है, अपने मूल्य हैं, मूल्य नैतिकता है और उन पर ‘अडिग रहने का’ विश्‍वास है, शक्‍ति है, समाज के लिए उदाहरण बन जाता  है। वह व्यक्‍ति अपने उदाहरण से समाज को नई दिशा देता है, असली मायने में व्यक्‍ति ही उदाहरण बनता है, न कि समाज। ऐसे व्यक्‍ति विरले होते हैं और वे समाज पर अपनी छाप छोड़ते हैं।"

वस्तुतः आरिगपूडि ने अपनी रचनाओं में पारिवारिक संबंधों, जीवन से संबंधित समस्याओं, परंपरागत और आधुनिक स्त्री छवि, सामाजिक विसंगतियाँ, जन आंदोलन, आतंकवाद, नक्सलवाद, मूल्यह्रास, कुंठा, ऊब, अकेलापन और संत्रास आदि अनेक विषयों को बखूबी उकेरा है।

आरिगपूडि लंबे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहे। उन्होंने मद्रास से प्रकाशित अंग्रेज़ी दैनिक पत्र ‘हिंदू’ से अपना कैरियर शुरू किया थ। बाद में वे ‘इंडियन रिपब्लिक’ (अंग्रेज़ी दैनिक), ‘स्वराज्य’ (अंग्रेज़ी दैनिक), ‘पथेरम’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ (अंग्रेज़ी) तथा ‘नवभारत टाइम्स’ (हिंदी) आदि पत्र-पत्रिकाओं के संपादक एवं विशेष संवाददाता रहे। उनकी विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर मोटूरि सत्यनारायण ने उन्हें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई की ओर से प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका ‘दक्षिण भारत’ का संपादक बनाया। इतना ही नहीं उन्होंने काफी समय तक बाल पत्रिका ‘चंदामामा’ के हिंदी संस्करण का संपादन कार्य भी संभाले। वे अक्सर यह कहा करते थे कि "लेखक वह है जो जनसाधारण की भावनाओं को तथा अनुभवों को संदर्भानुसार वाणी देता है। उनके सुख-दुखों को कलात्मक रूप में अभिव्यक्‍त करता है। जनता को जागृत करता है।"

3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आरिगपूडि पर विस्तृत जानकारी के लिए आभार॥ दक्षिण के साहित्यकारों का परिचय आप के ब्लाग के माध्यम से हो तो सारे हिंदी साहित्यिक क्षेत्र को इसकी जानकारी मिलेगी। यह सिलसिला जारी रखने के लिए बधाई डॉ. नीरजा जी॥

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

मैं अब तक चंदामामा के संपादक के रूप में आरिगपूड़ी रमेश 'चौधरी' के केवल नाम से ही परिचित था. आज आप का लेख पढ़ा तो उनके विस्तृत लेखन और उनके साहित्य के संबंध में विचारों से भी परिचय हो गया.
लेख बढ़िया है. शुभकामनाएं.

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

संकलन करने योग्य जानकारी। बहुत बहुत शुक्रिया।