बुधवार, 27 जुलाई 2011

‘नानीलु’ के प्रवर्तक प्रो.एन.गोपि



"समय है एक धागा
है कहाँ आखिरी सिरा
ढूँढ़ते जाना ही तो
जिंदगी है." (एन.गोपि, नन्हे मुक्‍तक)

‘नानीलु’ नामक नन्हीं कविता के प्रवर्तक तेलुगु कवि एन.गोपि का जन्म 25 जून, 1948 को नलगोंडा जिले के भुवनगिरि में हुआ. उनका वास्तविक नाम गोपाल है. उनकी माता का नाम लक्ष्मम्मा है और पिता का नाम चिन्नय्या. गोपि ग्राम जीवन और लोक संस्कृति के प्रति समर्पित एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएँ वैविध्यपूर्ण एवं बहुआयामी हैं. वे अपनी जमीन से इस तरह से जुड़े हुए हैं कि उनकी कविताओं में मिट्टी का सोंधापन पाठकों के मन-मस्तिष्क को सहज ही आप्‍लावित करता है.

प्रो.गोपि के प्रमुख काव्य संग्रह हैं - तंगेडु पूलु (पीले फूल, 1976), मैलुराई (मील का पत्थर, 1982), चित्र दीपालु (रंगीन दीप, 1989), वंतेना (सेतु, 1993), कालान्नि निद्रपोनिव्वनू (समय को सोने नहीं दूँगा, 1998), नानीलू (नन्हे मुक्‍तक, 1998), एंडपोडा (धूप, 2002), जलगीतम्‌ (जलगीत, 2002) आदि. इनमें से अधिकांश काव्य संग्रह किसी न किसी संस्था द्वारा पुरस्कृत हैं : तंगेडु पूलु - आंध्र महिला सभा द्वारा देवुलपल्ली कृष्णशास्त्री पुरस्कार (1980); मैलुराई - प्रिवर्स फ्रंट अवार्ड, (1982); चित्रदीपालु - डॉ.सी.नारायण रेड्डी कविता पुरस्कार, (1990); वंतेना - अमलापुरम्‌ लेखक संघ द्वारा सरसम पुरस्कार, (1994); कालान्नि निद्र्पोनिव्वनू - केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार,(2001).

‘नानीलु’ (नन्हे मुक्‍तक) के कारण डॉ.गोपि तेलुगु कविता के क्षेत्र में ट्रेंड सेटर के रूप में प्रसिद्धि प्राप्‍त कर चुके हैं. वस्तुतः नन्हे मुक्‍तक छोटी कविताएँ हैं, पर बहुत छोटी भी नहीं. इस संदर्भ में कवि ने स्वयं कहा है कि "बिना अतीव कसावट और बिना अनावश्‍यक ढिलाई के साथ नानी (नन्हा मुक्‍तक) मेरे द्वारा रूपायित 20-25 अक्षरोंवाला एक ढाँचा है, एक छंद है. इनमें अक्षरों की संख्या 20 से कम नहीं, और 25 से अधिक नहीं. नानी माने मेरे (ना; नावि = मेरे) और तेरे (नी; नीवी = तेरे) हैं. मतलब है हम सब के. नानी माने नन्हा बच्चा भी है. ये भी नन्ही कविताएँ हैं न! इनमें मैंने चार चरणों के ही नियम का पालन किया. चरणों के विभाजन में ‘वचन कविता’ के अंतर्गत जो संगीत है वह इन में नहीं है. फिर भी निर्माण की दृष्‍टि से इन में भी नियमबद्धता देखी जा सकती है. कुछ नन्हे मुक्‍तक ऐसे हैं जिनके दो दो चरणों में एक एक भाव का अंश निहित है. इनमें प्रथम दो चरणों में एक भाव का अंश है तो अंतिम दो चरणों में दूसरा. प्रथम भावांश का समर्थन करते हुए या उस की सार्थकता का प्रतिपादन करते हुए दूसरा भावांश रहता है :
"घड़ा फूट गया
कुढ़ते हो क्यों? 
माटी दूसरा रूप लेने की
कर रही है तैयारी."

इस मुक्‍तक में प्रथम भावांश का समर्थन दूसरा भावांश कर रहा है."

गोपि हमेशा मनवता पर जोर देते हैं. वे निराडंबर जीवन व्यतीत करने में आस्था रखते हैं. वे मिलनसार और संवेदनशील व्यक्‍ति हैं. उनका हृदय इतना कोमल है कि समाज में व्याप्‍त विसंगतियों, विद्रूपताओं, मूल्यह्रास और अपसंस्कृति को देखकर विचलित हो जाता है. इसीलिए तो उनका कवि हृदय कहता है - "इंसानों के बीच/ रुपय्या ही गर पुल है/ तो इंसानियत का/ तो समझो काम तमाम." (नन्हे मुक्‍तक).

गोपि अपने भावों और विवारों को कविता के माध्यम सी अभिव्यक्‍ति करते हैं. उनके लिए तो कविता ही सब कुछ है. एक ‘पैशन’ है. अतः वे कहते हैं - "सब के सो जाने पर/ चोरी से टी.वी. देखने वाले बच्चे की भाँति/ रचता हूँ मैं कविताएँ." (वही).

प्रेम स्वाभाविक मानव प्रवृत्ति है. यदि व्यक्‍ति और व्यक्‍ति के बीच निहित संबंधों को ही लें तो इसके अनेक रूप दिखाई देते हैं. माता-पिता एवं पुत्र-पुत्री के बीच, भाई-बहन के बीच, प्रेमी-प्रेमिका के बीच, पति-पत्‍नी के बीच. और फिर यही प्रेम समाज और देश के लोगों से भी जुड़ जाता है. गोपि की कविताओं में भी प्रेम के विविध रूप दिखाई पड़ता है. एक ओर पर्यावरण के प्रति अमित प्यार दीख पड़ता है तो दूसरी ओर मानवीय संबंधों के प्रति. मातृभूमि के प्रति उनका प्रेम निर्विवाद है. वे कहते हैं - "प्रेम/ अधिक बतियाता नहीं/ द्वेष की/ कोई सीमा नहीं." (वही). कवि उन लोगों पर भी व्यंग्य कसते हैं जो प्यार के नाम पर अपनी जिंदगी को जला डालते हैं - "प्यार से/ जला लिया क्या जिंदगी को?/ तब तो/ बर्नाल भी प्रेम ही है." (वही).

गोपि की कविताओं में वृद्धावस्था विमर्श से लेकर पर्यावरण विमर्श, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श जैसे उत्तरआधुनिक विमर्श के अनेक आयाम भी दिखाई पड़ते हैं.

बचपन सबको प्रिय लगता है क्योंकि वह एक ऐसी अवस्था है जो छलरहित और निर्मल है. राग-द्वेष से परे, सुनहला समय. अपने बचपन को याद करते हुए कवि कहते हैं - "निर्मलता बचपन की/ जब तक याद आ जाती/ यदि हर दिन याद आती तो/हम शायद कुछ और होते." (वही).

कवि जहाँ बचपन को याद करके उल्लसित होते हैं वहीं दूसरी ओर अपने बच्चों की राह देखते हुए बूढ़े माँ-बाप को देखकर विचलित होते हैं - "सेलवुल्लो वच्चिना ना चिरंजीविकि/ इंडिया अंता डर्टी डस्टबिन ला कनिपिस्तुंदि/ ***/ प्रपंचम्‌ एंतो/ मारिंदंटुन्नारू/ अदेमोगानी/ इंडिया मात्रं वृद्धाश्रमम्‌गा मारुतुन्नदि." (चुट्टियाँ बिताने आए अपने लाडले को/ इंडिया एक डर्टी डस्टबिन-सा लग रहा है/ ***/ सब कहते अहिं कि दुनिया काफी बदल चुका है/ पर/ इंडिया तो वृद्धाश्रम बन रहा है; ‘होम फर द एजड’, कविता दशाब्दी, (सं) प्रो.एस.वी.सत्यनारायण, डॉ.पेन्ना शिवरामकृष्णा).

सृष्‍टि निर्माण में स्त्री-पुरुष दोनों ही समान है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. पर अपनी शारीरिक कमजोरी के कारण स्त्री को अबला के रूप में चित्रित किया जाता है अतः कवि कहते हैं - "सृष्टिकाव्य को/ रचते हैं दोनों/ पर कापीराइट होता है/ पुरुष का ही." (नन्हे मुक्‍तक). वे आधुनिक स्त्री के बारे में कहते हैं कि "आज की महिला/ है नहीं उपग्रह/ शोषण के खिलाफ/ शाब्दिक प्रहार है." (वही).

स्त्री ही नहीं बल्कि दलित और निम्न जाति के लोग भी बरसों से हाशिए पर ही रहे. आज धीरे धीरे वे केंद्र में आ रहे हैं, कहा जाए तो आ भी चुके हैं. सवर्ण जातियाँ सदियों से निम्न जाति के लोगों को अछूत कहकर धिक्कारती रही हैं. उन्हें कीड़े-मकौड़ों की तरह कुचलती रही हैं. श्रम का शोषण करती रही हैं. दलित पीढ़ी दर पीढ़ी जमीनदारों के यहाँ पालेरू/बंधुआ मजदूर बनकर रह जाता है - "कोमरय्या कोमरेल्ली मल्लन्नला अन्नप्पुडु/ इक मुंदु कोमरय्या डप्पु/ बुल्लि कोमरय्या भवितव्यान्नी पाडुतुंदि काबोलु." (कोमरय्या अब/ दिख रहा है - शिव-सा/ कोमरय्या की डफली अब/ नन्हे कोमरय्या का भविष्य गाएँगी शायद; ‘डफली’, समय को सोने नही दूँगा). आंध्र प्रदेश में शव यात्रा में डफली बजाने वालों को ‘कोमरय्या’ कहकर संबोधित किया जाता है. आज के जमाने में कोई भी गुलाम बनकर रहना पसंद नहीं करते - "गुलामी/ भाती नहीं किसी को/ यहाँ तक कि/ कीड़े को भी." (नन्हे मुक्‍तक).

गोपि संवेदनशील और जागरूक कवि हैं. उन्होंने अपनी लंबी कविता ‘जलगीतमु’ (जलगीत) में पाठकों को पर्यावरण के प्रति जागरूकता का संदेश दिया है. आधुनिकता और विकास के नाम पर मनुष्य ने धरती के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है. एक ओर बढ़ती आबादी है तो दूसरी ओर उस आबादी के कारण पैदा होनेवाली अनेकानेक समस्याएँ हैं जिसके कारण संतुलन बिगड़ रहा है और प्रदूषण तथा प्राकृतिक विपदाएँ बढ़ रही हैं. कवि कहते हैं कि "यह प्रदूषण शताब्दी है/ यह शताब्दी है जल के दंश की." (जलगीत). कवि पानी की महत्ता को भली भाँति समझते हैं. इसलिए तो वे उद्वेलित होकर कहते हैं - "जलहीनता/ जन्म देती है योद्धाओं को/ जलहीनता/ क्रूरता में प्राण फूँकती है/ जलहीनता/ आश्रयदाता के प्राणों को डस लेती है." (वही). आधुनिक मानव की त्रासदी को देखने पर कवि को लगता है कि "धरती माँ मौत की चारपाई पर अंतिम साँसें गिन रही है,/ जमीन पर घास ही नहीं उगती तो कागजों पर कविता कहाँ से आएगी?" (वही).

आज के कार्पोरेट कल्चर की ओर इशारा करते हुए कवि कहते हैं कि "कम्यूनिकेशनल होरुकु/ पावुरालु एगिरिपोतुन्नाइ/ पट्टुकोनि आपंडि/ ‘हेलो’ अने ओक्का बाणम्‌तो/ रसार्द्र जीव विन्यास संपुटान्नि चंपकंडी." (‘कम्यूनिकेशन’ के शोर से घबराकर/ कबूतर उड़ते चले जा रहे हैं/ उन्हें पकड़कर रोकिए/ ‘हेलो’ के एक ही तीर से/ रसार्द्र-जीवन के खज़ाने को मत नष्‍ट कीजिए; ‘मरती हुई चिट्ठी’, समय को सोने नहीं दूँगा).

गोपि ने अपनी कविताओं के माध्यम से समसामयिक घटनाओं और परिस्थितियों को उकेरा है. उनकी कविताओं में ग्राम जीवन से लेकर शहर के आभिजात्य जीवन का अकेलापन भी परिलक्षित होता है. इसलिए तो वे कहते हैं - "जिंदगियाँ हैं हजारों की/ हाथों में / ‘स्पाट वेल्यूएशन’ में/ घायल मत करो प्रतियाँ." (नन्हे मुक्‍तक).



बुधवार, 20 जुलाई 2011

‘कादंबिनी क्लब’ में शमशेर पर विशेष व्याख्यान



‘कादंबिनी क्लब’ में शमशेर पर विशेष व्याख्यान

हैदराबाद.

स्थानीय कादंबिनी क्लब, के तत्वावधान में 17 जुलाई, 2011 को हिंदी प्रचार सभा परिसर में क्लब की 227वीं मासिक गोष्ठी आयोजित की गई|  प्रो. ऋषभदेव शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न इस गोष्ठी के प्रथम चरण में  शमशेर बहादुर सींह के शताब्दी के संदर्भ में ‘शमशेर बहादुर सिंह को समझने की कोशिश’ विषय पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की प्राध्यापक डॉ.जी.नीरजा ने विशेष व्याख्यान दिया. ‘देसिल बयना’ के अध्यक्ष दयानाथ झा मुख्य अतिथि रहे तथा संयोजन क्लब की संयोजिका डॉ.अहिल्या मिश्र ने किया.

विशेष व्याख्यान देते हुए डॉ.जी.नीरजा ने शमशेर को आंतरिक ऊर्जा से संपन्न कवि बताते हुए उनके व्यक्‍तित्व और कृतित्व की संघर्षशीलता और रचनाधर्मिता पर विशेष चर्चा की. डॉ.जी.नीरजा ने कहा कि "गद्‍य हो या पद्‍य - शमशेर की भाषा बनावटी नहीं है। वे खड़ीबोली क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ठेठ तथा एक सीमा तक खुरदरा अंदाज उनकी भाषा में भी है। खास तौर से उनकी कहानियाँ पढ़ते समय यह साफ दिखाई देता है कि उनका गद्‍य बातचीत की शैली का है। वे जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते भी हैं। कहने का मतलब यह है कि लिखते समय भी वे बातचीत का खुलापन लाते हैं।" डॉ.जी.नीरजा ने शमशेर की अनेक कविताओं के उदाहरण देते हुए यह प्रतिपादित किया है कि "शमशेर की कविताओं में एक ओर प्रेम की आकांक्षा, नारी सौंदर्य की कल्पना और निराशा से उत्पन्न व्यथा का मार्मिक चित्रण है तो दूसरी ओर उनका मिज़ाज इन्क़लाबी है."


डॉ.ऋषभ देव शर्मा ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि शमशेर बहादुर सिंह एक कवि, समीक्षक, संस्मरणकार, कहानीकार और कोशकार के रूप में हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय योगदान के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने बताया कि शमशेर भारतीय और पश्‍चिमी साहित्यिक परंपराओं के साथ साथ हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी तथा साहित्य, चित्रकला, वास्तुकला और संगीत के संगम के प्रतीक हैं तथा उन्होंने हिंदी कविता के क्षेत्र में ‘हिंदुस्तानियत’ के संस्कार को परिपुष्‍ट किया. डॉ.शर्मा ने शमशेर की भाषा में हिंदवी की लय की चर्चा करते हुए उसकी बिंबात्मकता और समाजविद्‍धता की ओर भी ध्यान दिलाया और कहा कि शमशेर की तमाम कविता में प्रगतिशीलता के प्रति एक खास तरह का रुझान निहित है जो नारेबाजी और बड़बोलेपन के बिना शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है. डॉ.शर्मा ने शमशेर की कुछ चर्चित रचनाओं का वाचन भी किया.

दूसरे चरण में लक्ष्मीनारायण अग्रवाल के संचालन में कवि गोष्ठी हुई, जिसमें प्रो.ऋषभ देव शर्मा, कुंजबिहारी गुप्ता, सत्यनारायण काकड़ा, गौतम दीवाना, सूरजप्रसाद सोनी, उमा सोनी, डॉ. रमा द्विवेदी, आज्ञा खंडेलवाल, डॉ. अहिल्या मिश्र, मीना मूथा, भंवरलाल उपाध्याय, नीरज त्रिपाठी, डॉ. देवेन्द्र शर्मा, विनीता शर्मा, मीना खोंड, जयश्री कुलकर्णी, मुकुंददास डांगरा, जुगल बंग जुगल', डॉ. सीता मिश्र, सरिता सुराणा जैन, पवित्रा अग्रवाल, संपत देवी मुरारका, दत्तभारती गोस्वामी, भावना पुरोहित आदि ने विविध विषयों को केंद्रित करते हुए काव्यपाठ किया| 

सरिता सुराणा जैन के धन्यवाद के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ|

(रिपोर्ट एवं चित्र : संपतदेवी मुरारका)

शमशेर बहादुर सिंह को समझने की कोशिश

"ओ मेरे घर
ओ हे मेरी पृथ्वी
साँस के एवज़ तूने क्‍या दिया मुझे
- ओ मेरी माँ?

तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
और क्या दिया
मुझे भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह!"
(शमशेर; ‘ओ मेरे घर’, इतने पास अपने; पृ.19)

हिंदी साहित्य जगत में ‘नई कविता’ के सशक्‍त हस्ताक्षर शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 - 12 मई,1993) का अपना एक सुनिश्‍चित स्थान है। उनका जन्‍म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गाँव एलम में हुआ था। शिक्षा-दीक्षा देहरादून तथा प्रयाग में हुई। वे हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी के विद्वान थे। इन तीनों ही भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - दोआब(1948), प्लाट का मोर्चा : काहानियाँ और स्केच(1952), कुछ कविताएँ(1959), कुछ और कविताएँ(1961), चुका भी हूँ नहीं मैं(1975), इतने पास अपने(1980), उदिता : अभिव्यक्‍ति का संघर्ष(1980), बात बोलेगी(1981), काल तुझसे होड़ है मेरी(1988), टूटी हुई बिखरी हुई(1990), कुछ गद्‍य रचनाएँ(1989) तथा कुछ और गद्‍य रचनाएँ (1992)। स्मरणीय है कि शमशेर ‘दूसरा सप्‍तक’ (1952) में सम्मिलित थे तथा उन्हें 1977 में ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं मध्यप्रदेश साहित्य परिषद का तुलसी पुरस्कार प्राप्‍त हुए थे। 1987 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें मैथिलीशरण गुप्‍त पुरस्कार और 1989 में कबीर पुरस्कार से सम्मानित किया।

शमशेर और उनकी कविताओं पर कुछ कहना एक चुनौती है क्योंकि उनकी काव्य यात्रा छायावादोत्तर रोमांटिक भावधारा से शुरू होकर प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को पार करती हुई नई कविता से जुड़ती है और उसके पार भी चली जाती है। सच तो यह है कि उन्होंने कविता के क्षेत्र में छाए हुए वादों की जकड़न से अपने आपको अलग रखा और काव्य भाषा को चित्रात्मकता, संगीत, बिंब विधान और लय के माध्यम से तराशा। इस संदर्भ में रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत द्रष्‍टव्य है - "शमशेर की कविताओं में संगीत की मनःस्थिति बराबर चलती रहती है।एक ओर चित्रात्मकता की मूर्तता उभरती है, और फिर वह संगीत की अमूर्तता में डूब जाती है। भाषा में बोलचाल के गद्‍य का लहजा और लय में संगीत का चरम अमूर्तन।"(रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदान का विकास; पृ.205)। वे अपनी कविताओं में संवेदनाओं का मूर्त चित्रण करते हैं। इस संदर्भ में मुक्‍तिबोध का मत है कि "शमशेर की मूल प्रवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है। इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा जो उसके संवेदना-ज्ञान की दृष्‍टि से प्रभावपूर्ण संकेत शक्‍ति रखते हैं।... दूसरे शब्दों में इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार दृश्‍य के सर्वाधिक संवेदनाघात वाले अंशों को प्रस्तुत करेगा और यह मानकर चलेगा कि यदि वह संवेदनाघात दर्शक के हृदय में पहुँच गया तो दर्शक अचित्रित शेष अंशों को अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर लेगा।" (मुक्‍तिबोध, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध; पृ.92)

शमशेर कविता में आंतरिक ऊर्जा को महत्व देते हैं। वे खड़ीबोली के बोलचाल के रूप को महत्व देते हैं। उनका मत है कि ‘पाठक के मन की बात को पाठक की ही भाषा में व्यक्‍त करना चाहिए।’ इस संदर्भ में वे उर्दू को भी याद करते हैं और कहते हैं - "मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूँ। मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं।" (शमशेर, बाढ़)

यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि गद्‍य हो या पद्‍य - शमशेर की भाषा बनावटी नहीं है। वे खड़ीबोली क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ठेठ तथा एक सीमा तक खुरदरा अंदाज उनकी भाषा में भी है। खास तौर से उनकी कहानियाँ पढ़ते समय यह साफ दिखाई देता है कि उनका गद्‍य बातचीत की शैली का है। वे जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते भी हैं। कहने का मतलब यह है कि लिखते समय भी वे बातचीत का खुलापन लाते हैं।

शमशेर बहादुर सिंह को भली भाँति उनके साहित्य के माध्यम से जाना जा सकता है चूँकि उनका जीवन और साहित्य वस्तुतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पाखंड और दिखावा न तो उनके व्यक्‍तित्व में था और न ही उनके साहित्य में । उनका संसार निजीपन का संसार है। अनुभव का संसार है। जीवन के ताप को सहकर वे सहज बने। यही सहजता उनके व्यक्‍तित्व और रचनाओं में मुखरित है। इसी के कारण उनके विचार भी उदात्त बने। वे हमेशा अपने प्रिय कवि निराला को याद करते हैं और कहते हैं - "भूल कर जब राह - जब-जब राह... भटका मैं/ तुम्हीं झलके हे महाकवि,/ सघन तुम ही आँख बन मेरे लिए।"

शमशेर का समूचा जीवन अभावों के कटघरे में बीता पर उन्होंने कभी उफ तक नहीं की। हालात के आगे घुटने टेकना तो शायद वे जानते ही नहीं थे। शमशेर के साथ बिताए तीन वर्षों को याद करते हुए हेमराज मीणा बताते हैं कि "शमशेर जी साधारण चाय के स्थान पर हल्दी की चाय खुद बनाकर पीते थे और आर्थिक विपन्नता का आलम यह था कि घिसे और फटे हुए कुर्ते को हाथ से सिलकर काम चलाना पड़ता था।" ऐसी स्थिति में भी शमशेर टूटे नहीं, बिखरे नहीं। अड़िग होकर आगे बढ़ते रहें। यही आस्था और जिजीविषा उनकी रचनाओं में भी मुखरित है - "मैं समाज तो नहीं, न मैं कुल/ जीवन:/ कण-समूह में हूँ मैं केवल/ एक कण।/ -कौन सहारा!/ मेरा कौन सहारा!"

शमशेर की कविताओं में एक ओर प्रेम की आकांक्षा, नारी सौंदर्य की कल्पना और निराशा से उत्पन्न व्यथा का मार्मिक चित्रण है - "गोद यह/ रेशमी गोरी/ अस्थिर/ अस्थिर/ हो उठती/ आज/ किसके लिए? जा/ ओ बहार/ जा! मैं जा चुका कब का/ तू भी-/ ये सपने न दिखा?"  तो दूसरी ओर उनका मिज़ाज इन्क़लाबी है - "सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैं।? हमारे अपने नेता भूल जाते हैं हमें जब,? भूल जाता है ज़माना भी उन्हें, हम भूल जाते हैं उन्हें खुद/ और तब/ इन्क़लाब आता है उनके दौर को गुम करने।"

शमशेर कम बोलनेवाले व्यक्‍ति थे। उनकी धारणाएँ उनकी कविता में बोलती हैं। उनकी प्रसिद्ध उक्‍ति है कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।/ सत्य का/ क्या रंग/ पूछो, एक रंग/ एक जनता का दुःख एक/ हवा में उड़ती पताकाएँ अनेक।" (बात बोलेगी)। कभी कभी यह भी प्रतीत होता है कि शमशेर आधुनिक मानवीय दाह को शांत करनेवाले कलाकार हैं - "आधुनिकता आधुनिकता/ डूब रही है महासागर में/ किसी कोंपले के ओंठ पे/ उभरी ओस के महासागर में / डूब रही है/ तो फिर क्षुब्ध क्यों है तू।" (‘सारनाथ की एक शाम’ (त्रिलोचन के लिए); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.21)

शमशेर ने बदलती हुई जटिल और भयावह दुनिया में मनुष्‍य की पीड़ा और मूल्यहीनता को चित्रित किया है। मनुष्‍य परिस्थितियों और उनके सुख-दुःख को विविध धरातलों पर अभिव्यक्‍त किया है। उनकी कविता का केंद्र व्यक्‍ति है। उन्होंने अपने आप को व्यक्‍ति के प्रति समर्पित कर दिया है - "समय के/ चौराहों के चकित केंद्रों से।/ उद्‍भूत  होता है कोई : "उसे-व्यक्‍ति-कहो" :/ कि यही काव्य है।/ आत्मतमा/ इसलिए उसमें अपने को खो दिया।" (‘एक नीला दरिया बरस रहा’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.13)। उन्होंने मध्यवर्ग की अधकचरी स्थिति को ऐतिहासिक संदर्भों में देखते हुए कहा है कि - "इतिहास में भी तू/ असहनीय रूप से दयनीय।" इसी प्रकार साम्राज्यवाद के नाम पर आम लोगों को धोखा दिए जाने पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं कि "बनियों ने समाजवाद को जोखा है/ गहरा सौदा है काल भी चोखा है/ दुकानें नई खुली हैं आजादी की/ कैसा साम्राज्यवाद का धोखा है!" (‘बनियों ने समाजवाद को जोखा है’; सुकून की तलाश; पृ.56)।

शमशेर ने अनेक रचनाओं में सामाजिक सच्चाई और लोकतंत्र की ताकत को स्वर प्रदान किया है। उनकी दृष्‍टि में "दरअसल आज की कविता का असली भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलान में हिस्सा ले रहे हैं।"((सं) वक्‍तव्य; दूसरा सप्‍तक; पृ.77)। भारत-चीन युद्ध के समय कवि ने ‘सत्यमेव जयते’ पर जोर दिया - "शिव लोक में चीनी दीवार न उठाओ!/ वहाँ सब कुछ गल जाता है/ सिवाए सच्चाई की उज्ज्वलता के!/ असत्य कहीं नहीं है!/ शक्‍ति आकार में नहीं,/ सत्य में है!/ हमारी शक्‍ति/ सत्य की विजय/ ...याद रखो/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!" (‘सत्यमेव जयते’(भारत-चीन युद्ध); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.43)। कवि की मान्यता है कि मानव मात्र के लिए बुनियादी चीज है-शांति। अतः वे कहते हैं - "अगर तुमसे पूछा जाय कि/ सबसे बुनियादी वह पहली चीज़ कौन-सी है/ कि मानव मात्र के लिए जिसका होना आवश्यक है?/ तो एक ही जवाब होगा तुम्हारा :/ एकदम पहली ही बार,/ फिर दूसरी बार भी,/ और अंतिम बार भी/ यही एक जवाब :-/ शांति!" (‘शांति के ही लिए’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.57)

समाज में धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंड पर भी शमशेर कुठाराघात करते हैं - "जो धर्मों के अखाड़े है/ उन्हें लड़वा दिया जाए!/ जरूरत क्या कि हिंदुस्तान पर/ हमला किया जाए!!/ ***/ मुझे मालूम था पहले ही/ ये दिन गुल खिलाएँगे/ ये दंगे और धर्मों तक भी/ आख़िर फैल जाएँगे/ ***/ जो हश्र होता है/ फ़र्दों का वही/ क़ौमों का होता है/ वही फल मुल्क को/ मिलना है, जिसका/ बीज बोता है।" (‘धार्मिक दंगों की राजनीति’, सुकून की तलाश; पृ.71)। वे यह भी कहते हैं कि "जितना ही लाउडस्पीकर चीखा/ उतना ही ईश्‍वर दूर हुआ :/ (-अल्ला-ईश्‍वर दूर हुए!)/ उतने ही दंगे फैले, जितने/ ‘दीन-धरम’ फैलाए गए।" (‘राह तो एक थी हम दोनों की’, सुकून की तलाश; पृ.33)। शमशेर बौद्धिक स्तर पर मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित है। उनकी कविताओं में मार्क्स के विचारों के साथ साथ कला, प्रेम और प्रकृति के विविध रंग विद्‍यमान है। इस संदर्भ में उन्होंने अपने आत्मसंघर्ष को व्यक्‍त करते हुए कहा कि - "वाम वाम वाम दिशा,/ समय साम्यावादी।/ पृष्‍ठभूमि का विरोध अंधकार - लीन। व्यक्‍ति .../ कुहास्पष्‍ट हृदय-भार, आज हीन।/ हीनभाव, हीनभाव/ मध्यवर्ग का समाज, दीन।/ पथ-प्रदर्शिका मशाल/ कमकर की मुट्ठी में किंतु उधर :/ लाल-लाल/ वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में / पथ प्रदर्शिका मशाल।" (‘वाम वाम वाम दिशा’; कुछ और कविताएँ)

कलासृजन, संरचना और शिल्प की दृष्‍टि से शमशेर की लंबी कविता ‘अम्न का राग’को विशेष रूप से  उल्लेखनीय माना जाता है। इसमें कवि ने समाजशास्त्रीय संबंधों को बखूबी उकेरा है। इस कविता में उन्होंने दो राष्‍ट्रों की संस्कृतियों को प्रतिबिंबित किया है तथा वैश्‍विक दृष्‍टिकोण को उभारा है। शमशेर शोषण, हिंसा और युद्ध का विरोध करते हैं और यह चाहते हैं कि सर्वत्र शांति कायम हो। ‘अम्न का राग’ की शुरुआत में ही बसंत के नए प्रभात की ओर संकेत किया  है - "सच्चाइयाँ/ जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं/ हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्‍मुक्‍त नाचते/ परों में झिलमिलाती रहती हैं/ जो एक हजार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है/ उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ/ कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।" इस काव्यांश में कवि ने प्रतीकों के माध्यम से सत्य और शांति को उजागर किया है। आगे देश की सीमाओं को अतिक्रमित करते हुए कहते हैं कि - "ये पूरब-पश्‍चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं/ मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द लपेट लिया।" शमशेर भारतीय एवं पाश्‍चात्य संस्कृतियों को अपनी आत्मा मानते हैं। उनक दृष्‍टिकोण वैश्‍विक है। इसी वैश्‍विक परिदृश्‍य को उकेरते हुए वे कहते हैं कि "मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर/ बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ/ सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं/ क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख शांति का राग हूँ/ बहुत आदिम, बहुत अभिनव।" इतना ही नहीं भारतीय एवं पाश्‍चात्य विचारकों, शायरों, दार्शनिकों, संगीतकारों और रचनाकारों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि - "देखो न हक़ीकत हमारे समय की जिसमें/ होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफ़री को/ इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है/ ***/ और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज मेरा तुलसी मेरी/ ग़ालिब/ एक एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का/ कुशल आपरेटर हैं।" शमशेर को अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है जितना मास्को का लाल तारा। पीकिंग का स्वर्गीय महल मक्का मदीना से कम पवित्र नहीं - "मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है/ जितना मास्को का लाल तारा/ और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल/ मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं/ मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ/ जो वोल्गा से आए/ मेरी देहली में प्रह्‍लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की/ चौखट पर/ युद्ध के हिरण्यकश्‍य को चीर रही हैं।" यह कविता उनकी अद्‍भुत सृजनात्मक प्रतिभा का परिचायक है।

शमशेर समस्त संसार में शांति कायम करना चाहते हैं। उन्होंने अतीत, वर्तमान और भविष्‍य के सपने को एक साथ पिरोया है - "ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों/ का दिल है/ ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी/ और हमारी कला का सच्चा सपना हैं/ ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं/ ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और/ हक़ीक़त का अमर सपना हैं/ इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ/ पाना है।/ हम मानते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।"

शमशेर संवेदनशील ही नहीं अपितु भावुक भी थे। नामवर सिंह ने उनकी भावुकता का जिक्र करते हुए हैदराबाद में एक समारोह में बताया था कि कैसे एक बार नरेंद्र शर्मा की गिरफ्तारी की सूचना ने उन्हें विचलित कर दिया था। प्रेमलता वर्मा शमशेर के व्यक्‍तित्व के कुछ आयामों को सामने रखते हुए कहती हैं कि शमशेर की दुनिया ‘वाइब्रेंट’ थी। वे छलरहित मगर चुंबकीय आकर्षण वाले व्यक्‍ति थे। वे हमेशा कहा करते थे कि "कविता के माध्यम से मैंने प्यार करना - अधिक से अधिक चीजों को प्यार करना - सीखा है। मैं उसके द्वारा सौंदर्य तक पहुँचा हूँ।" अनेक विद्वानों ने शमशेर को अनेक तरह से संबोधित किया है। मलयज के लिए वे ‘मूड्स के कवि’ हैं तो अज्ञेय के लिए ‘कवियों के कवि।’ रामस्वरूप चतुर्वेदी उन्हें ‘एब्स्ट्रैक्‍ट के कवि’ मानते हैं तो नामवर सिंह ‘सुंदरता के कवि।’ गोपाल कृष्‍ण कौल ने उन्हें ‘फार्मलिस्ट’ माना है तो मधुरेश उन्हें ‘तनाव और अंतर्द्वन्द्वों के कवि’ मानते हैं। विजय देव नारायण साही ने उन्हें ‘बिंबों का कवि’ घोषित किया है तो सत्यकाम ने ‘कवियों का पुंज’ तक कह दिया है। पर शमशेर कहते हैं - 

" मैं समय की लंबी आह
मौन लंबी आह...
होना था - समझना न था कुछ भी शमशेर...
आत्मा है
अखिल की हठ - सी..."

  • (शताब्दी संदर्भ के अंतर्गत १७ जुलाई, २०११ को कादंबिनी क्लब में प्रस्तुत किया गया आलेख  )




शनिवार, 16 जुलाई 2011

अज्ञेय का भाषा विमर्श


‘अज्ञेय’ के उपनाम से विख्यात सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन प्रयोगवाद और नई कविता के विशिष्‍ट कवि, क्रांतिकारी विचारक, लेखक और पत्रकार हैं। उनका जन्म 7 मार्च, 1911 को देवरिया जिले के कसिया (कशीनगर) गाँव में हुआ। वे पं.हीरानंद शास्त्री के पुत्र थे।

‘अज्ञेय’ अर्थात ‘जो जाना नहीं जा सके।’ हाँ ‘अज्ञेय’ आज भी सामान्य पाठकों के लिए ‘अज्ञेय’ ही है। उन्हें जानना - समझना आसान कार्य नहीं है। विश‍वनाथ तिवारी उन्हें ‘चिंतक रचनाकार’ (डॉ.प्रभाकर मिश्र, निबंधकार ‘अज्ञेय’, आवरण) मानते हैं तो कृष्‍ण बलदेव वैद ‘खूबसूरत नकाबपोश’ (प्रभाकर माचवे, हिंदी के साहित्य निर्माता ‘अज्ञेय’, पृ.6) मानते हैं। अज्ञेय के कई उपनाम हैं। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन नाम वे गद्‍य लेखक तथा संपादक के नाते प्रयुक्‍त करते थे जबकि सृजनात्मक लेखन ‘अज्ञेय’ के नाम से करते थे। उनके अन्य उपनाम हैं - श्रीवत्स, कुट्टिचातन, गजानन पंडित, डॉ.अबुल लतीफ और समाजद्रोही नं.1 आदि।

वस्तुतः अज्ञेय की रचनाएँ उनके संवेदनशील कवि व्यक्‍तित्व और वैचारिक मानस की संवाहिका है। उनका चिंतन पक्ष समृद्ध एवं मौलिक है। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जनमानस में चेतना जगाने के साथ साथ भारतीय संस्कृति और सभ्यता को उजागर किया है। उन्होंने मानवीय मूल्यों की कसौटी पर व्यक्‍ति, समाज, संस्कृति और साहित्य को कसा है। इसलिए वे कहते हैं "दिन है/ जय है/ यह बहु-जन-की:/प्रगति,/ लाल रवि,/ ओ जन जीवन/ लो यह/ मेरी/ सफल साधना/ तन की/ मन की -" (प्रथम किरण)।

अज्ञेय की कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और निबंधों पर काफी विचार किया गया है लेकिन उनके भाषा चिंतन की ओर कम लोगों का ध्यान आकृष्‍ट हुआ है। 

यह सर्वविदित है कि भाषा संप्रेषण का सशक्‍त साधन है और सामाजिक धरोहर भी। रचनाशीलता और सृजनशीलता का मूलाधार भी भाषा ही है। अतः भाषा विहीन समाज और व्यक्‍ति की कल्पना करना असंभव है। इसलिए अज्ञेय कहते हैं कि "भाषा मोक्षदा है : वह मनुष्‍य को ही नहीं, सुख को भी मुक्‍त करती है।" (त्रिशंकु, पृ.24)। भाषा के बारे में अज्ञेय का विचार स्पष्‍ट है। वे कहते हैं कि "भाषा कल्पवृक्ष है, जो उससे आस्थापूर्वक माँगा जाता है, भाषा वह देती है। उससे कुछ माँगा ही न जाय क्योंकि वह पेड़ से लटका हुआ नहीं दीख रहा है, तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता।" (अद्‍यतन, पृ.14)|

भाषा की सहायता से ही मनुष्य अपने भावों, अनुभूतियों और विचारों का आदान-प्रदान करता है। भाषा के अभाव में वक्‍ता और श्रोता के बीच संप्रेषण संभव ही नहीं है। अतः अज्ञेय मानते हैं कि "भाषा मूलतः वह चीज होती है जो एक और अनेक के बीच एक समान प्रतिज्ञा पर निर्भर होती है।" (आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.24-25)

कहा जाता है कि भाषा शक्‍तिशाली साधन है। इसमें वह शक्‍ति निहित है जिसके माध्यम से दो दिलों को जोड़ सकते हैं और तोड़ भी सकते हैं। अज्ञेय के अनुसार भाषा की तीन शक्‍तियाँ हैं -"अपनी अस्मिता की पहचान, मूल्यबोध की संभावना और यथार्थ की पहचान।" (स्रोत और सेतु; पृ.83)|  

भाषा ही मानव अस्मिता का मूलाधार है। वस्तुतः मानव जैविक जंतु है। भाषा के माध्यम से ही वह समाज-सांस्कृतिक प्राणी कहलाता है। अतः भाषा मनुष्‍य को पहचान प्रदान करती है। साथ ही वह यथार्थ के साथ बँधी हुई है और मानवीय मूल्यों को भी उजागर करती है। अज्ञेय ने यह स्पष्‍ट किया है कि "‘मैं’ की पहचान भाषा के साथ बँधी हुई है, तो स्वाभाविक है कि यथार्थ की पहचान भी भाषा के साथ बँधी हुई है।" (आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.22)।

मनुष्‍य भाषा के माध्यम से संस्कारित होता है और समाज में अपनी एक सुनिश्‍चित पहचान बनाता है। उसके लिए समाज से और अपने भाषा समुदाय से कटकर जीना संभव नहीं है। चाहे आम आदमी हो या साहित्यकार, अपने परिवेश को उकेरता है। अतः परिवेश की महत्ता को स्पष्‍ट करते हुए अज्ञेय ने लिखा है कि "आज का लेखक इस प्रकार अपने परिवेश से दबा है - अपने परिवेश के उस भाग से जो कि वह स्वयं है और जितना ही अच्छा लेखक है, उतना ही अधिक वह अपना परिवेश है... संक्षेप में लेखक के नाते यही मेरी परिवेश की समस्या और मेरा संकट है। मैं, लेखक, एक आत्यन्तिक विभूति, जिसका काम है मूल्य की खोज और प्रतिष्‍ठा। खड़ा हूँ तो वहाँ जहाँ मैं स्वयं भी केवल परिवेश हूँ और मूल्य भी केवल परिवेश है।" (आल-वाल; पृ.21)

भाषा की खोज में वस्तुतः रचनाकार स्थूल से सूक्ष्‍म की ओर अग्रसर होता है। इस यात्रा में उसकी मूल चिंता यही होती है कि अभिप्रेत अर्थ को वह ठीक तरह से अपने पाठकों तक पहुँचा सके। इसके लिए वह बार बार भाषा को परिमार्जित करता है। इस संबंध में अज्ञेय की अवधारणा सप्ष्‍ट है -"मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है। भाषा का मैं उपयोग करता हूँ। उपयोग करता हूँ लेखक के नाते, कवि के नाते और एक साधारण सामाजिक मानव प्राणी के नाते, दूसरे सामाजिक मानव प्राणियों से साधारण व्यवहार के लिए। इस प्रकार एक लेखक के नाते मैं कला सृजन के माध्यमों में सबसे अधिक वेध्य माध्यम का उपयोग करता हूँ - ऐसे माध्यम का जिसको निरंतर दूषित और संस्कारच्युत किया जाता रहता है। अथच उसका उपयोग मैं ऐसे ढंग से करना चाहता हूँ कि वह नए प्राणों से दीप्‍त हो उठे।" (आल-वाल; पृ.10-11)।

मानव अनुकरण के माध्यम से अनायास ही भाषा सीखता है और उसका प्रयोग करता है। बोलते समय वह व्याकरणिक नियमों पर ध्यान नहीं देता। कभी कभी वह भाषा का मिश्रित रूप भी प्रयोग करता है। अज्ञेय अच्छी भाषा को अपने आप में एक सिद्धि मानते हैं - "मैं उन व्यक्‍तियों में से हूँ - और ऐसे व्यक्‍तियों की संख्या शायद दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है जो भाषा का सम्मान करते हैं और अच्छी भाषा को अपने आप में एक सिद्धि मानते हैं।" (आत्मनेपद; पृ.242)

भाषा का प्रयोग भी मनुष्‍य किसी प्रयोजन के लिए करता है। चूँकि मनुष्‍य जो भी काम करता है उसके पीछे कुछ-न-कुछ प्रयोजन अवश्‍य होता है। चाहे व्यक्‍तिगत प्रयोजन हो या सामाजिक प्रयोजन। बिना किसी उद्‍देश्‍य के वह कुछ भी नहीं करता। इस संदर्भ में अज्ञेय कहते हैं कि "व्यक्‍तिगत प्रयोजन तो बिना भाषा के ही पूरे हो जाते हैं लेकिन सामाजिक प्रयोजन के लिए भाषा से काम लेते हैं। निजी प्रयोजनों में से अधिकतर ऐसे हैं जो कि बिना भाषा के सिद्ध हो जाते हैं। क्योंकि दूसरों से जो प्रयोजन होता है उसके लिए भाषा काम आती है।" (आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.24-25)|

अज्ञेय वस्तुतः शब्द को अधिक महत्व देते हैं। चूँकि अनुभूति की अभिव्यक्‍ति शब्दों के माध्यम से ही संभव है। वे शब्दों की गरिमा में विश्‍वास रखते हैं। अतः वे स्पष्‍ट करते हैं कि "भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसमें आत्यंतिक या स्वतंत्र अस्तित्व रखनेवाला कुछ भी नहीं है। शब्द का आत्यंतिक या अपौरुषेय अर्थ नहीं है : अर्थ वही है, उतना ही है जितना हम उसे देते हैं बल्कि देने की प्रतिज्ञा कर लेते हैं, दूसरे शब्दों में (‘दूसरे शब्दों में कहना’ ही अर्थ का आरोप है।) शब्द का अर्थ एक सर्वथा मानवीय आविष्‍कार है, तो एक समय है, जितने अर्थ हैं सभी तदर्थ हैं।" (आत्मनेपद; पृ.163)।

अज्ञेय वस्तुतः शब्द शिल्पी ही हैं। इस में दो राय नहीं है। वे शब्द अर्थात भाषा से तमाशा न खड़ा करके उसे कला की उदात्त भावभूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं। "निरी वाक्‍चातुरी मेरे निकट कोई बड़ी बात नहीं है और बात बात में बहुत कुछ नहीं मानता। वह भाषा की मदारीगीरी है, और मदारी का तमाशा देखने में क्षण भर रम जाना एक बात है, उसे कला के सिंहासन पर बिठाना दूसरी बात।" (आत्मनेपद; पृ.242)।

अज्ञेय कुशल चितेरे हैं। वे अपने तीर जैसे तेज शब्दों के माध्यम से राजनीतिज्ञों पर करारा व्यंग्य भी करते हैं। कुछ लोग विषय के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं, लेकिन बेझिझक धड़ल्ले से अपनी बात कर जाते हैं। उनके पास ‘रेडीमेड जवाब’ होते हैं। ऐसों के बारे में अज्ञेय कहते हैं कि उन्हें "जानकारी की कमी से कोई झिझक नहीं होती, बल्कि जो जितना कम जानता है उतना ही अधिक धड़ल्ले से अपनी बात कर जाता है।" (अद्‍यतन; पृ.126)।

वस्तुतः समाज में भाषा का प्रयोग दो तरह से होता है। एक तो सामान्य संप्रेषण के रूप में जिसके माध्यम से लोग बातचीत करते हैं। भाषा समुदाय में आमतौर पर सामान्य संप्रेषण की भाषा से ही काम लिया जाता है। शिक्षित, अशिक्षित, उच्च, मध्य और निम्न वर्ग सभी इसी सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं। इसे ही समाज भाषाविज्ञान ने ‘सामान्य प्रयोजनों की भाषा’ माना है। अर्थात दैनिक जीवन की आवश्‍यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयुक्‍त भाषा रूप। इसमें विविधता होती है चूँकि परिवार, समाज, परिवेश, संपूर्ण देश इसमें समाहित है। भाषा का दूसरा रूप इससे भिन्न है। यह रूप विशिष्‍ट प्रयोजन पर आधारित है अतः इसे ‘प्रयोजनमूलक भाषा’ कहते हैं। भाषा के प्रयोजन को स्पष्‍ट करते हुए अज्ञेय कहते हैं कि "भाषा हमेशा से साधारण प्रयोजनों और कर्म व्यापारियों का माध्यम रही है, इस मामले में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं हुआ है। लेकिन जहाँ पहले ऐसी प्रयोजनवादी भाषा में भी एक पर्यायत्व के शब्द और अर्थ के स्पष्‍ट और संप्रेषण अभेद को, एक मूल्य माना जाता था, वहाँ आज ऐसा नहीं जान पड़ता। यह बात केवल शिष्‍ट आचरण के जाने हुए और इसलिए परस्पर सुबोध पाठकों के, पारंपरिक कूटनीतिक व्यापारों के बारे में नहीं कही जा रही है।" (अद्‍यतन; पृ.19)।

अज्ञेय आगे यह कहते हैं कि यदि प्रयोजनवती भाषा को ही अंतिम सीमा मानकर उसी भाषा में रचना करते रहेंगे तो नई रचना का सृजन नहीं होगा। इससे शब्दों का संस्कार नहीं होगा और संवेदन की क्षमता भी नहीं बढ़ेगी -"अगर हम ‘प्रयोजनवती’ भाषा को अपनी अंतिम सीमा मानकर उसी भाषा में, उन्हीं अर्थों के भीतर उसी ‘समय’ में रचना करते हैं तो फिर आवृत्ति ही आवृत्ति होती है; नई रचना नहीं होती, न शब्दों का नया संस्कार होता है और न हमारे संवेदन की क्षमता बढ़ती है। अच्छी कविता का काम है संवेदन की क्षमता बढ़ाना, मनुष्‍य की अपनी भी नई रचना करना।" (आँखों देखी और कागद लेखी, पृ.26)|

अज्ञेय अपनी बात को ‘सामान्य भाषा’ में अभिव्यक्‍त करते हैं। चाहे तत्सम शब्द प्रयोग हो या तद्‍भव या सघन वाक्य रचना, उनकी भाषिक विशिष्‍टता अपनी एक अलग पहचान बनाए रखती है। अज्ञेय यह कहते हैं कि "भाषा अथवा शब्द का संस्कार व्याकरण शुद्धि से अधिक बड़ी और गहरी बात है।" (आत्मनेपद, पृ.164)। वस्तुतः अज्ञेय की भाषा में मर्म की कई परतें हैं। पाठक उन मार्मिक परतों में निहित अर्थ को न समझ पाने के कारण भ्रम में पड़ जाते हैं।

अज्ञेय ने बार बार भाषा के बारे में अपने विचार व्यक्‍त किए हैं। उनका दृष्‍टिकोण हमेशा ही व्यावहारिक एवं स्पष्‍ट रहा है। उनकी मान्यता है कि सहज भाषा ही वास्तव में सही भाषा है। अर्थात भाषा में सहजता होना जरूरी है -"भाषा का संस्कार सही वही होता है जो इतना गहरा हो जावे कि लिखते बोलते समय ही नहीं; स्वप्न देखते समय भी यह प्रश्‍न न उठे कि भाषा सही है या नहीं। सही भाषा जब सहज भाषा हो जाए तभी वह वास्तव में सही है। इस सहजता की साधना हम हिंदी लेखकों ने यथेष्‍ट नहीं की, ऐसा मुझे लगता है।" (आत्मनेपद; पृ.164)।

अज्ञेय को यह पीढ़ा बराबर सालती रही कि पिता की भ्रमणशील वृत्ति के कारण उन्हें कहीं एक जगह ठिककर लोक भाषा और जन भाषा के बोलीगत मुहावरे को आत्मसात करने का अवसर नहीं मिला -"मुझे सभी कुछ मिला पर सब बेपेंदी की। शिक्षा मिली, पर उसकी नींव भाषा नहीं मिली; आजादी मिली लेकिन उसकी नींव आत्मगौरव नहीं मिला; राष्‍ट्रीयता मिली लेकिन उसकी नींव ऐतिहासिक पहचान नहीं मिली।" (अद्‍यतन; पृ.83)। उनका यह तब और भी अधिक गहरा हो उठता है जब वे भाषा को रचनाशीलता के स्रोत के रूप में पहचानने का आग्रह करते हैं -"भाषा हमारी शक्‍ति है, उसको हम पहचानें; वही रचनाशीलता का उत्स है व्यक्‍ति के लिए भी और समाज के लिए भी।" (स्रोत और सेतु; पृ.99)। इसमें संदेह नहीं कि अज्ञेय अद्वितीय शब्द शिल्पी हैं। भाषा में निहित विविध प्रकार की सर्जना की संभावनाओं को वे भली प्रकार पहचानते भी हैं और उद्‍घाटित भी करते हैं। इसके बावजूद वे यह बताना नहीं भूलते कि उनकी शिक्षा-दीक्षा ने उन्हें हिंदी का मानक रूप भर प्रदान किया। इसीमें उनकी साहित्य भाषा की सीमा भी निहित है और विशेषता भी -"एक तरह से मेरी भाषा में सीमा और विशेषता भी आप पहचान सकते हैं। आरंभ से मेरी शिक्षा हिंदी में हुई - उस हिंदी में जिसका मैं इस समय उपयोग कर रहा हूँ : जिसमें पुस्तकें मिली जाती हैं।" (आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.19)। वे आगे कहते हैं कि भाषा का संबंध अस्मिता से है और अस्मिता की आक्रांत होने के कारण भाषा भी आक्रांत होती है -"इस सुविधा और सौभाग्य के बावजूद कि मैं शुरू से ही हिंदी का व्यक्‍ति रहा, मैं यह समझता रहा कि भाषा अस्मिता के साथ जुड़ी हुई है और मेरी भाषा आक्रांत नहीं है। ‘हिंदी को खतरा है, हम उसे बचाएँ’ - यह नारा मेरी समझ में कभी नहीं आया। ‘हमें खतरा है जिससे हिंदी हमें बचा सकती है’ - यह बात ज्यादा सही जान पड़ती रही। भाषा इसलिए आक्रांत है कि अस्मिता आक्रांत है।"(वही; पृ.23)।

भाषा ऐसा सशक्‍त साधन है जो परंपरा, अनुभव और अध्ययन से प्राप्‍त शब्द संपदा पर आधारित है। वस्तुतः भाषा का प्रारंभ समाज के गठन के साथ ही हुआ है और समाज का गठन भाषा के प्रारंभ के साथ। अर्थात समाज और भाषा एक दूसरे के पूरक हैं। इसलिए अज्ञेय कहते हैं कि राष्‍ट्रत्व के बोध के विस्तार के साथ भाषा का विस्तार होगा -"भाषा राष्‍ट्र की देन होती है। देश में अगर एक राष्‍ट्र समाज नहीं है तो उसकी एक भाषा भी नहीं होगी। जितनी छोटी या बड़ी परिधि में राष्‍ट्रत्व का बोध होगा उतनी ही परिधि  भाषा की भी होगी, राष्‍ट्रत्व के बोध का जितना विस्तार होगा उतना ही भाषा का भी।" (त्रिशंकु; पृ.24)|

पहले भी संकेत किया जा चुका है कि समाज में भाषा से ही मनुष्‍य का पहचान होता है। अर्थात मनुष्‍य को सही अर्थ में आधुनिक बनने के लिए उसे सही भाषा की जरूरत है। चूँकि भाषा के माध्यम से ही वह संस्कारी होता है। आज के बुद्धिजीवी वर्ग ने ‘आधुनिकता’ को कई तरह से परिभाषित किया है। पर अज्ञेय यह मानते हैं कि आधुनिकता एक प्रक्रिया है, अंस्कारवान होने की एक क्रिया -"आधुनिकता को लोगों ने अलग अलग अर्थ दिए हैं। मेरी दृष्‍टि में आधुनिकता एक अनगढ़ चीज है। वह एक सिद्ध स्थिति नहीं है, एक प्रक्रिया है। संस्कारवान होने की क्रिया को ही मैं आधुनिकता मानता हूँ। जो संस्कारी हो चुका है और अब स्थिर है वह मेरी दृष्‍टि में आधुनिक नहीं है।" (लिखि कागाद कोरे; पृ.67)।

अज्ञेय की दृष्‍टि में हिंदी हमेशा ही आधुनिक रही है। हिंदी में जड़ता नहीं है, वह गतिशील है। वह जो ग्राह्‍य है उसे ग्रहण कर लेती है और जो त्याज्य है उसे त्याग देती है। इसलिए वह जनमानस के साथ जुड़ी हुई है - "मेरी दृष्‍टि में हिंदी सदा से आधुनिक रही है। सिंधु से ब्रह्‍मपुत्र तक सारा क्षेत्र हिंदी का है, चाहे आज उनके दोनों छोर देश से बाहर चले गए हैं। यह देश भाषाओं और संस्कृतियों के संगमों का देश है। हिंदी उन संगमों से ही विकसित हुई है। अतः वह संगमों की भाषा है, विद्रोहों की भाषा है। इसी भाषा ने सारे देश में भारतीय संस्कृति को बनाए रखा, भारतीयता के बोध को जीवित रखा। युद्ध होते रहे, फिर भी भारतीय संस्कृति नाम की चीज आगे बढ़ती रही। हिंदी उसकी भाषा रही। हिंदी प्रदेश से प्रवृत्तियाँ उठीं और सारे देश में फैलीं। दूसरे भाषा क्षेत्रों में भी जो प्रसारणीय हुआ वह हिंदी में गया और हिंदी से छनकर वितरित हुआ। किसी दूसरी भाषा ने यह काम नहीं किया। हिंदी अब भी यह काम कर रही है।" (लिखि कागद कोरे; पृ.67-68)।

हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है। नफा़सत तो वस्तुतः सामाजिक गुण है और यह भाषा का आत्यन्तिक गुण नहीं है। अतः कोई भी भाषा इस गुण को पा सकती है। लेकिन हिंदी में निहित नाद सौंदर्य आत्यन्तिक है। वह भाषा की निजी पहचान है। इसलिए अज्ञेय कहते हैं कि "उर्दू बड़ी नफ़ीस ज़बान है। लेकिन उर्दू की नफ़ासत की बात करते वक्‍त कुछ बातें और भी याद रखने की है। नफ़ासत भाषा का आत्यन्तिक गुण नहीं है, एक सामाजिक गुण है। अर्थात कोई भी भाषा उसे पा सकती है अगर उस भाषा समाज में उसका इतना ऊँचा मूल्य हो और अगर वह समाज इसलिए उस दिशा में विकास करे। लेकिन नादगुण आत्यन्तिक गुण है। हिंदी का नाद सौंदर्य उर्दू में नहीं है, कभी नहीं रहा, न उस दिशा में उसने विशेष उन्नति की है।" (शाश्‍वती; पृ.41-42)।

वैश्‍वीकरण के कारण परिस्थितियों में बदलाव आए। मनुष्‍य ने अपनी आवश्यकता हेतु मशीनों का आविष्‍कार किया लेकिन मशीनी युग ने संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति को इतना बदल दिया कि मनुष्‍य यांत्रिक पुर्जा बन गया है। इसलिए अज्ञेय कहते हैं कि "आधुनिक युग मशीन युग है। मशीन के विस्तार के प्राचीण समाज व्यवस्था और संस्कृति नष्‍ट हो रही है। इसका परिणाम है कि पुरानी संस्कृति के मरने के साथ नई के मान नहीं बन रहे, हमारा मान और आत्मा संकुचित हो रहे हैं और हम यथार्थता का सामना करने के अयोग्य बनते हैं। दूसरी ओर, मशीन युग के साथ जो ‘मास प्रोडक्‍शन’ आया है, उसके लिए विज्ञापनबाजी आवश्यक है, और साहित्य को सस्ता, घटिया और एकरस बनाने का कारण बनती है।" (त्रिशंकु; पृ.23)। 

‘मास प्रोडक्‍शन’ के आगमन के साथ साथ साहित्य की ओर लोगों की रुचि कम होती जा रही है। यह सर्वविदित है कि किसी भी संस्कृति का मूलाधार भाषा होती है और भाषा का चरम उत्कर्ष उसके साहित्य में प्रकट होता है। संस्कृति का पतन जीवन का पतन है। मशीन युग ने हमारे जीवन को सस्ता और अर्थहीन बना दिया है। इसके साथ ही भाषिक प्रयोग भी। भाषा की गुणवत्ता गिरने लगी है। शब्द अर्थात भाषा के सस्तेपन पर चिंता व्यक्‍त करते हुए अज्ञेय कहते हैं कि "केवल शब्द ही सस्ता नहीं हुआ है, उसका प्रयोग करनेवालों का सामाजिक जीवन भी उतना ही सस्ता हुआ है, क्योंकि प्रेम का नगर और घर और मंदिर और नदी तो हैं लेकिन प्राण स्रोत सूख गया है और यदि वह कहीं फूट निकलना भी चाहे तो कम से कम इस मार्ग से नहीं बह सकता - वह गहरा अर्थ इस शब्द से सदा के लिए अलग हो गया है।" (त्रिशंकु; पृ.21)।

यह नहीं कहा जा सकता कि भाषा का सस्तापन अकारण हो गया है। इसका मूल कारण है परिस्थितियों की मजबूरी। चूँकि यह युग उत्पादन का युग है तथा मुनाफे के सिद्धांत पर आश्रित है। फलतः ज्यादा उपज के मार्ग ढूँढ़े जा रही हैं। इसके कारण प्राचीन सामाजिक व्यवस्था नष्‍ट हो रही है। पुराने मूल्य टूट रहे हैं। साथ ही साहित्य और कला की ओर आकर्षण कम होता जा रहा है। अतः अज्ञेय आक्रोश व्यक्‍त करते हैं कि "हमें समझ लेना चाहिए कि हमारा उद्धार मशीन से नहीं होगा, प्रचार विज्ञापन से नहीं होगा, लेक्‍चर और विवाद और कवि सम्मेलनों से नहीं होगा। अगर उद्धार का उपाय कोई है, तो वह संस्कृति की रक्षा और निर्माण की चिर जागरूक चेष्‍टा और उस चेष्‍टा की आवश्‍कता में अखंड विश्‍वास का ही मार्ग है।" (त्रिशंकु; पृ.24)|

अज्ञेय भाषा को परंपरा, संस्कृति और यथार्थ को पहचानने का माध्यम स्वीकार करते हैं। संस्कारवान और शुद्ध भाषा की खोज में सतत अन्वेषणशील दिखाई देते हैं। उन्होंने भाषा के रूपों और प्रयोगकर्ताओं की मनःस्थिति की भी पड़ताल की हैं। उनका भाषा चिंतन साहित्यिक भाषा तक सीमित न होकर व्यक्‍ति भाषा और समाज भाषा के विवेचन-विश्‍लेषण तक व्याप्‍त है।

किसी व्यक्‍ति का पारिवारिक और सामाजिक जीवन संस्कृति से ही परिलक्षित होता है। हमारे जीवन का ढंग ही हमारी संस्कृति है। अतः यह जीवन की आवश्‍यकता है। जैसा कि पहले भी संकेत किया गया है, अज्ञेय की विचारधारा से यह स्पष्‍ट है कि भाषा का मूलाधार संस्कृति है तो संस्कृति का मूलाधार मानवता है और साहित्य इसी मानवता की चरम साधन है। संस्कृति के संबंध में अज्ञेय की मान्यता है कि "संस्कृति न केवल  बुर्जुआ है, न प्रगति विरोधी है, वह समाज को स्थायित्व देती है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह उसे स्थितिशील बनाती है। संस्कृति एक कब्र नहीं है, वह तो जीवन है जिस पर पैर टेके बिना प्रगति हो ही नहीं सकती।" (संस्कृति : यहाँ, वहाँ या कब्र में?; पृ.28)। 

अज्ञेय ने अपने लेखन में अनेक प्रकार से परंपरा और भारतीय संस्कृति की व्याख्या की है। वे इस बात को स्पष्‍ट करते हैं कि "कहने के लिए कि हम परंपरा से मुक्‍त हैं, भाषा उपयोग करना  कितनी बड़ी विडंबना है। भाषा हमारी सबसे पुरानी, सबसे कडी, अनुल्लंघ्‍नीय सांस्कृतिक रूढ़ी है : अपने दावे के लिए उसका सहारा लेना - और दावे के लिए भाषा का सहारा अनिवार्य है। -सिद्ध कर देता है कि दावा बेमानी है।" (भवन्ती; पृ.25)। अक्सर यह सुनने को मिलता है कि भाषा का अवमूल्यन हो रहा है। इस संदर्भ में अज्ञेय की दो टूक टिप्पणी बड़े महत्व की है। उनका विचार है कि "जब तक संस्कृति की एक समग्र भावना बनी रहती है तब तो भाषा का अवमूल्यन नहीं होता। पूरी संस्कृति का अवमूल्यन होता है इसलिए भाषा का अवमूल्यन होता है।" (स्रोत और सेतु; पृ.91)।

भाषा ही वह साधन है जिसके माध्यम से मानव समाज - सांस्कृतिक प्राणी कहलाता है। भाषा के अभाव में वह केवल जैविक जंतु है - "और यों हम भाषा के गुलाम हैं। भाषा मनुष्‍य की सबसे मूल्यवान सृष्‍टि है क्योंकि सच्चाई को पहचानने, अपना लेने, ‘नाम देने’ का वही एक साधन हमारे पास है और वही हमें पशु से अलग करती है जिसके आस पास चीजें हैं नाम नहीं है।" (भवन्‍ती;पृ.64)। अज्ञेय भाषा और समाज के आंतरिक एवं बाह्‍य संबंधों पर सूक्ष्मता से विचार करते हुए कहते हैं कि "मेरी दृष्‍टि में भाषा मात्र मनुष्‍य होने की पहचान और शर्त है। भाषा के बिना मनुष्य नहीं होता, पशु से मनुष्य के विकास में भाषा ही वह सीढ़ी है जिसको पार करके वह मनुष्‍यत्व प्राप्‍त करता है।" (स्रोत और सेतु; पृ.80)। वे आगे यह भी स्पष्‍ट करते हैं कि "बिना इसके किसी समाज में अपनी अस्मिता की पहचान नहीं हो सकती। सबसे पहले भाषा अपने आप को पहचानने का साधन है।" (वही ; पृ.83)|

इस बात की ओर पहले ही ध्यान आकृष्‍ट किया गया है कि अज्ञेय के अनुसार भाषा की तीन शक्‍तियाँ हैं - अपनी अस्मिता की पहचान, मूल्यबोध की संभावना और यथार्थ की पहचान। इसी तथ्य पर आधारित अज्ञेय के भाषा चिंतन के कतिपय सूत्र वाक्य द्रष्‍टव्य हैं -

"भाषा संस्कृति का सर्वाधिक शक्‍तिशाली और समृद्ध उपकरण है क्योंकि इस संगीत और संबंध के बोध का सबसे महत्वपूर्ण वाहक है। वस्तुतः हम जो भाषा बोलते हैं, उसके द्वार चुन लिए जाते हैं, एक निर्दिष्‍ट स्थान और धर्म पा लेते हैं और निबाहने को स्वतंत्र हो जाते हैं।" (अद्‍यतन; पृ.17)|


"अगर हमें भाषा के अवमूल्यन की चिंता है तो वास्तव में हमें संस्कृति के अवमूल्यन की चिंता होनी चाहिए। अगर हमारा ध्यान उधर नहीं है तो सिर्फ भाषा की चिंता करके हम कहीं नहीं पहुँचेंगे।" (स्रोत और सेतु; पृ.89)|


"जिस आविष्कार को आज की भाषा में मीडिया कहा जाता है, जहाँ से उसका आरंभ हुआ है, जहाँ से व्यापक संचार माध्यमों का विस्तृत लोक संपर्क, प्रचार विज्ञापन या मास कांटेक्‍ट के लिए इन दूर प्रभावी साधनों का उपयोग होने लगा है, वहीं से भाषा का अवमूल्यन आरंभ होता है। क्योंकि व्यापक जन संपर्क के नाम पर वास्तव में कुछ अन्य चीजों का, या सही बात कहें तो कुछ गहरे मूल्यों का अवमूल्यन कर रहे होते हैं।" (स्रोत और सेतु; पृ.87)|


"भाषा का उपयोग जितना ही व्यापक और गहरा होता है उतनी ही भाषा समृद्धतर होती है और अपने व्यवहर्ता को समृद्धतर बनाती है। और भाषा का ऐसा प्रयोग काम चलाऊ, आनुषंगिक, आपद्धर्मी प्रयोग नहीं है, वैसा प्रयोग नहीं है जो शासक के या लोक संपर्क कर्मचारियों के या व्यवसायियों के या पंडितों के द्वारा भी किया जा सकता है। भाषा का व्यवहार समृद्धि देनेवाला तभी होता है जब उसके साथ लगाव (कमिटमेंट) उसी भाषा के माध्यम से अनुभव के प्रति लगाव होता है। ऐसी ही भाषा, ऐसे ही प्रयुक्‍त भाषा अनुभव की भाषा संस्कृति का और अस्मिता का उपकरण होती है।" (अद्‍यतन; पृ.17)|


"इस सत्य से कोई किनारा नहीं है कि आज के संसार में मानव मन का घर्षण भाषा के घर्षण से आरंभ होता है, और आज भाषा मात्र सारे संसार में अवज्ञ और बलात्कार का शिकार हो रही है।" (अद्‍यत; पृ.18)।


"भाषा के द्वारा हम यथार्थ की एक नए ढंग की पहचान कर सकते हैं, इसलिए यह कहना अनुचित न होगा कि भाषा संस्कृति की बुनियाद होती है।" (स्रोत और सेतु; पृ83)।


"भाषा बदलती है तो भाषा के परिवर्तन भाषा में से ही निकलते हैं, भाषा एक सामाजिक और युगीन समय है, जिससे आगे तो बढ़ा जा सकता है, पर सीढ़ी-दर-सीढ़ी और समाज को अपने साथ लेते हुए ही। भाषा को आमूल उखाड़कर उसकी जगह नई भाषा हम नहीं दे सकते, नए शब्द, नए मुहावरे, नए प्रयोग हम कर सकते हैं तो एक जाने हुए उभयपक्ष द्वारा स्वीकृत ढाँचे के भीतर ही।" (युग संधियों पर; पृ.42)|

अतिरिक्त जानकारी के लिए यहाँ देखें 

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

अज्ञेय के भाषा चिंतन के आलोक में उनकी काव्य भाषा




मैं सन्नाटे का छंद हूँ

"सुनो कवि! भावनाएँ नहीं है सोती
भावनाएँ खाद हैं केवल
जरा उनको दबा रखो
जरा सा और पकने दो
ताने और तचने दो।" (अज्ञेय; हरी घास पर क्षण भर)

यह सर्वविदित तथ्य है कि भाषा संप्रेषण का सशक्‍त साधन है और सामाजिक धरोहर भी। भाषा ही वह चीज है जो मनुष्‍य को जैविक जंतु से समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है। भाषा के संबंध में अज्ञेय की मान्यता है कि "मानवीय संस्कृति की सबसे मूल्यवान उपलब्धि भाषा है और भाषा ही समाज जीवन का - मध्यवर्ती जीवन का सबसे अधिक मूल्यवान उपकरण है। भाषा संपन्न मानव जीवन ही ‘मानवीय मध्यवर्ती’ होता है। भाषा के आविष्‍कार में मानवीय अस्मिता का आविष्‍कार होता है : उसकी सृष्‍टि होती है।" (अज्ञेय; सर्जना और संदर्भ; पृ.342)। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी स्पष्‍ट किया है कि "‘मैं’ की पहचान भाषा के साथ बँधी हुई है, तो स्वाभाविक है कि यथार्थ की पहचान भी भाषा के साथ बँधी हुई है।" (अज्ञेय; आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.22)।

यहाँ अज्ञेय के भाषा चिंतन के आलोक में उनकी काव्य भाषा पर दृष्‍टि केंद्रि करने का प्रयास किया जा रहा है। आज के समय में कविता के परंपरागत लक्षण - जैसे तुक, लय, छंद और अलंकार आदि धीरे धीरे लुप्‍त होते जा रहे हैं, तो ऐसी स्थिति में कविता को समझने के लिए काव्यभाषा ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण आधार बन जाती है। इतना ही नहीं काव्यभाषा का विश्‍लेषण सिर्फ व्याकरणिक या सौंदर्यात्मक दृष्‍टि से करना काफ़ी नहीं होगा, निश्‍चय ही इसके लिए दूसरी दृष्‍टि अपेक्षित है - पाठ विश्‍लेषण की।

उल्लेखनीय है कि मानव जीवन में सामान्य रूप से भाषा का प्रयोग कई स्तरों पर होता है। कुछ विद्वानों के अनुसार बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में काफी अंतर है। पर ध्यान देने की बात है कि बोलचाल की भाषा जीवंत है और किसी भी देश की साहित्यिक भाषा में वहाँ के जन समुदाय की भाषा प्रायः पाई जाती है। यह इसलिए संभव है चूँकि साहित्यकार अपने परिवेश से ही शब्दों का चयन करता है। इस दृष्‍टि से यह कहा जा सकता है कि "साहित्यिक भाषा मूलतः बोलचाल की ही भाषा है जो विभिन्न रचनाकारों की सृजन प्रक्रिया में समाहित होकार परिवर्तित होता है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी; ‘काव्यभाषा का स्वरूप’; काव्य भाषा पर तीन निबंध; पृ.81)।

अज्ञेय के व्यक्‍तित्व में भारतीय लोक जीवन और पश्‍चिम के बौद्धिक आभिजात्य का विलक्षण संतुलन है। उनकी संवेदना का मूल स्रोत भारतीय जन जीवन में है। उनको यह पीड़ा सालती रही कि उन्हें बोलीगत मुहावरे को आत्मसात करने का अवसर नहीं मिला अतः वे कहते हैं कि "मुझे सभी कुछ मिला पर सब बेपेंदी का। शिक्षा मिली, पर उसकी नींव भाषा नहीं मिली; आजादी मिली लेकिन उसकी नींव आत्मगौरव नहीं मिला; राष्‍ट्रीयता मिली लेकिन उसकी नींव ऐतिहासिक पहचान नहीं मिली।" (अज्ञेय; अद्‍यतन; पृ.83)। वे यह भी कहते हैं कि "एक तरह से मेरी भाषा में सीमा और विशेषता भी आप पहचान सकते हैं। आरंभ से मेरी शिक्षा हिंदी में हुई - उस हिंदी में जिसका मैं इस समय उपयोग कर रहा हूँ; जिसमें पुस्तकें लिखी जाती हैं।" (अज्ञेय; आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.19)। इसके बावजूद अज्ञेय की काव्य भाषा पर दृष्‍टि केंद्रित करें तो यह स्पष्‍ट होता है कि उनकी कविताओं में लोक भाषा की धरोहर समाहित है - 
"मेरा भाव - यंत्र?
एक मचिया है सूखी घास - फूस की
उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान -
साध्य नहीं मुझ से, किसी से चाहे सधा हो।"

‘भाव - यंत्र’ के लिए अज्ञेय ने ‘सूखी घास - फूस की मचिया’ का बिंबात्मक प्रयोग किया है। यह उनकी काव्य संवेदना के लोक उत्स की देन है।

यह संकेत किया जा चुका है कि वस्तुतः काव्य भाषा का आधार बोलचाल की ही भाषा है। अज्ञेय की काव्य भाषा के बारे में स्पष्‍ट करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि "अज्ञेय की कविता की भाषा में ‘नॉन यू’ तत्व (निम्नवर्गीय जीवन से लिया गया शब्द समूह) प्रधान रहा है। प्रतीकों, बिंबों, अभिप्रायों के चयन और सामान्य शब्द प्रयोगों में उनकी दृष्‍टि अधिकतर लोक जीवन की ओर उन्मुख दीख पड़ते है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी; काव्य भाषा का स्वरूप; काव्य भाषा पर तीन निबंध; पृ.83)। उदाहरण के लिए ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में ठाठ फ़की़री, घुड़का, झौंसी, कुलबुलाती, डाँगर जैसे प्रयोग देखे जा सकते हैं -
"अच्छी कुंठा रहित इकाई
साँचे - ढले समाज से
अच्छा 
अपना ठाठ फ़की़री
मँगनी के सुख - साज से।" (अच्छा खंडित सत्य)

अज्ञेय की कविताओं में लोक कथाओं, लोक गीतों और मुहावरों का प्रभाव भी दिखाई देता है। जैसे - 
"बाँगर में 
राजाजी का बाग है
चारों ओर दीवार है,
बीच बाग में कुआँ है
बहुत बहुत गहरा।"

दबे पाँव आना, मुँह चिढ़ाना, झींकते रहना, गाल बजाना, आकाश फाड़ना जैसे मुहावरों का प्रयोग भी अज्ञेय की कविताओं में सम्मिलित हैं - 
"फूल खिलते रहे चुपचाप
मँजरी आई
दबे पाँव सकुचाती,
तड़फड़ाते रहे, करते रोर
मुँह चिढ़ाते रहे वन की शांति को
अविराम अनगिन झींकते झींगुर
भिखारी सब
बजाते गाल बगलें
फाड़ते आकाश"

इसी तरह एक और उदाहरण देखें -
"सुनी सी साँझ एक
दबे पाँव मेरे कमरे में आई थी
मुझको भी वहाँ देख
थोड़ा सकुचाई थी।"

अज्ञेय की काव्य भाषा पर विचार करते हुए रामदरश मिश्र ने कहा है कि "अज्ञेय की भाषा के कई रूप हैं। एक रूप वह है जो जीवन की अनुभूतियों की सहजता के कारण सहज है, लोक शब्दों, लोक प्रतीकों से युक्‍त है तथा सहज प्रवाहमय है। दूसरा रूप वह है जो असहज प्रलंबित वाक्‍यों और विशेषण मालाओं से गुँफित तथा क्लिष्‍ट पदों से बोझिल है।" (डॉ.मदन गुलाटी; अज्ञेय की काव्य चेतना और सर्जना के क्षण; पृ.51)। तत्सम शब्दों की माला के बीच बोलीगत प्रयोगों को बिठाकर भी अज्ञेय अनेक स्थलों पर भाषिक चमत्कार उत्पन्न करते हैं - 
"तेरे दोलन की लोरी पर झूँमूँ मैं तन्मय -
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रांति पायँ।" (असाध्य वीणा)

किसी भी बात को, या विचार को अभिव्यक्‍त करने के लिए उचित शब्दों का चयन करना आवश्‍यक है। अज्ञेय यह मानते हैं कि कविता शब्दों में होती है और विचार भाषा में होता है। अतः वे कहते हैं कि "मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है। ... भाषा का मैं उपयोग करता हूँ। उपयोग करता हूँ लेखक के नाते, कवि के नाते और एक साधारण सामाजिक मानव प्राणी के नाते, दूसरे सामाजिक मानव प्राणियों से साधारण व्यवहार के लिए। इस प्रकार एक लेखक के नाते मैं कला सृजन के माध्यमों में सबसे अधिक वेध्य माध्यम का उपयोग करता हूँ - ऐसे माध्यम का जिसको निरंतर दूषित और संस्कारच्युत किया जाता रहता है। अथच उसका उपयोग मैं ऐसे ढंग से करना चाहता हूँ कि वह नए प्राणों से दीप्‍त हो उठे।" (अज्ञेय; आल-वाल’ पृ.10-11)। इसीलिए वे अपनी अनुभूति को सामाजिक उपमानों के द्वारा व्यक्‍त करते हैं। उन्होंने जीवन की नश्‍वरता, निस्सारता और क्षणभंगुरता को अभिव्यक्‍त करने के लिए ‘काँच के प्याले’ का प्रयोग किया है -
"जीवन!
वह जगमग
एक काँच का प्याला था
जिसमें यह भरमाये हमने
भर रक्खा
तीखा भभके खिंचा उजाला था
कौंध उसी की से 
तू फूट गया।"

यह उल्लेखनीय है कि काव्य भाषा का केंद्रीय तत्व बिंब विधान है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार "कविता की भाषा का केंद्रीय तत्व भावचित्रों अथवा बिंबों का विधान है। कवि परंपरा में स्वीकृत भावचित्रों का प्रयोग अधिक नहीं करता; आवश्‍कता पड़ने पर सामान्य से सामान्य शब्द को एक विशिष्‍ट अर्थ देता है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी; काव्य भाषा का स्वरूप; काव्य भाषा पर तीन निबंध; पृ.85)| अगर यह कहा जाए कि अज्ञेय के काव्य में नवगठित बिंबों का व्यापक प्रयोग है तो यह अनुचित नहीं होगा। ‘औद्‍योगिक बस्ती’ शीर्षक कविता का एक अंश इस संदर्भ में द्रष्‍टव्य है -
"बंधी लीक पर रेलें लादे माल
चिंहुकती और रँभाती अफराए डाँगर-सी
ठिलती चलती जाती हैं।
उद्‍यम की कड़ी-कड़ी में बंधते जाते मुक्‍तिकाम
मानव की आशाएँ ही पल-पल
उसको छ्लती
जाती हैं।" (औद्‍योगिक बस्ती)

यहाँ अज्ञेय ने लदी मालगाड़ी के चित्र को ‘चिंहुकती और रँभाती अफराए डाँगर-सी ठिलती चलती’ के माध्यम से बिंबित किया है। इससे यह चित्र स्पष्‍ट नज़र आता है कि ठेठ देहाती इलाके में औद्‍योगिक बस्ती बसी हुई है। इतना ही नहीं, लदी मालगाड़ी के लिए ‘अफराए डाँगर’ का जो दृश्‍य बिंब प्रयुक्‍त हुआ है इससे चित्र और  भी स्पष्‍ट होता है।

अज्ञेय की कविताओं में निजी अनुभूतियाँ मुखरित हैं। अज्ञेय का अपने परिवेश से इतना ऐक्य है कि उनकी कविताओं में वह अनायास ही झाँकता रहता है, आँख मिचौनी खेलता रहता है। परिवेश की महत्ता को स्पष्‍ट करते हुए अज्ञेय ने स्वयं लिखा है कि "आज का लेखक इस प्रकार अपने परिवेश से दबा है - जो कि वह स्वयं है और जितना ही अच्छा लेखक है, उतना ही अधिक वह अपना परिवेश है।" (अज्ञेय; आल-वाल; पृ.21)। इस संदर्भ में अज्ञेय की कविता ‘बसंत गीत’ का एक अंश देखें -
"सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली
नीम के भी बौर में मिठास देख
हँस उठी है कचनार की कली!
टेसुओं की आरती सजा के
बन गई वधू वनस्थली।" (बसंत गीत)

अज्ञेय जैसे संवेदनशील कवि के लिए मौन भी अभिव्यंजना का माध्यम है। उनकी मान्यता है कि मौन के द्वारा भी संप्रेषण संभव है और काव्य रचना  के लिए ढेर सारे शब्दों की जरूरत नहीं होती।  इसीलिए वे कहते हैं - 
"मौन भी अभिव्यंजना है :
जितना तुम्हारा सच है
उतना ही कहो।" (जितना तुम्हारा सच है)

इस संबंध में वे यह भी कहते हैं कि "किसी भी समय की कविता को समझने के लिए - यह अत्यंत आवश्‍क है कि हम जानें कि काव्य ‘अभिव्यक्‍ति’ से भी अधिक ‘संप्रेषण’ है, और संप्रेषण की स्थितियों के संदर्भ में ही यह पड़ताल करें कि कविता क्‍या है। संप्रेषण की स्थितियों को समझे बिना काव्य का मूल्यांकन तो दूर, सही अर्थ-ग्रहण भी नहीं हो सकता - उसका कथ्य भी ठीक-ठीक नहीं पहचाना जा सकता।" (अज्ञेय; सर्जना के क्षण; भूमिका; कवि दृष्‍टि; पृ.11)। अज्ञेय की कविता ‘भोर’ को ही देख लें -
"भोर!
तुम!
आओ!
जीवन है।
आशी!" (भोर)

यह अपने आप में पूरी कविता है। इसमें भोर से संबंधित सारे उल्लास को अज्ञेय ने अन्‌-अभिव्यक्‍त छोड़ दिया है।

अज्ञेय की मान्यता है कि प्रत्येक शब्द के अपने वाच्यार्थ के अतिरिक्‍त अलग अलग लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ होते हैं जो संदर्भ सापेक्ष हुआ करते हैं। वे कहते हैं कि "शब्द अपने आप में संपूर्ण या आत्यंतिक नहीं है; किसी शब्द का कोई स्वयंभूत अर्थ नहीं है। अर्थ उसे दिया गया है, वह संकेत है जिसमें अर्थ की प्रतीपत्ति की गई है।" (अज्ञेय; नई कविता : प्रयोग के आयाम; तीसरा सप्‍तक की भूमिका; कवि दृष्‍टि; पृ.83)। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘साँप’ के अंश का उदाहरण देखें -
"साँप
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगरों में बसना
भी तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछँ - उत्तर दोगे?
तब कैसे सीखा डसना
विष कहाँ पाया?" (साँप)

यहाँ कवि ने नागरिक सभ्यता की कृत्रिमता पर असंतोष व्यक्‍त किया है। इतना ही नहीं उनकी काव्य पंक्‍तियों में सूक्‍तियाँ भी दृष्‍टिगत होती हैं -
"दुःख सबको माँजता है
और
चाहे स्वयं सब को मुक्‍ति देना वह न जाने, किंतु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सब को मुक्‍त रखें।"

"किंतु हम हैं द्वीप। हम धरा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के ।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लावन होगा। ढहेंगे। सहेंगे बह जाएँगे।" (नदी के द्वीप)

स्मरीणय है कि अज्ञेय शब्द शिल्पी के साथ साथ रंगों और सौंदर्य के कवि भी हैं। उनकी कविताओं में विविध रंग छटाओं का समावेश है -
"भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल कनियाँ" (बावरा अहेरी)

"बिछली घास हो तुम
या शरद के साँझ के सूने गगन की पीठिका पर 
दोलती कलगी अकेली
बाजरे की"

"साँझ हुई, सब ओर निशा ने फैलाया निज चीर
नभ से अंजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर"

"धूप
माँ की हँसी के प्रतिबिंब सी शिशु बदन पर
हुईं भासित"

"लाल 
अंगारों से डह - डह इस
पंचमुख गुड़हल के फूल को
बाँधते रहे नीरव -" (पंचमुख गुड़हल)

अज्ञेय ने इलियट की भँति भाषा और संवेदना के बदलाव को ही मुख्य रूप से कवि कर्म माना है। उन्होंने नए उपमानों, बिंबों, प्रतीकों और भाषा के प्रयोग को अभिव्यक्‍ति के माध्यमों के रूप में ही स्वीकार किया है। उनका मत है कि -
"ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों से कर गए कूच
कभी बासन अधिक घिसने से
मुलम्मा छूट जाता है।"

इसके अतिरिक्‍त उनकी काव्यभाषा में ध्वन्‍यात्मकता का प्रयोग भी दृष्‍ट्व्य है। वे अर्थ की सघनता बढ़ाने के लिए ध्वनियों का सटीक प्रयोग करते हैं। जैसे -
"चट - चट - चट कर सहसा तड़क गए हिमखंड
जमे सरसी के तल पर 
लुढ़क - पुढ़क कर स्थिर...।"

"झींगुरों की लोरिया
सुला गई थी गाँव को
झोंपड़े हिंडौल - सी झुला रही है
धीमे धीमे
उजली न्यासी धूम डोरियाँ"

"चातक तापस तरु पर बैठ।
स्वाति बूँद में ध्यान रमाए,
स्‍वप्‍न तृप्‍ति का देखा करता
‘पी! पी! पी!’ की टेर लगाए;" (आज थका हिय हारिल मेरा)

अज्ञेय कविता में अर्थ की सघनता के लिए शब्दों को और कभी कभी पंक्‍तियों को भी अलग अल्ग करके रखते हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘जीवन मर्म’ का उदाहरण देखें -
"झ
ना
झरता पत्ता
हरी डाल से 
अटक गया।"

अज्ञेय का कव्य सत्य उनकी भाषा की बनावट और बुनावट पर चलता है। वे भाषा को परंपरा, संस्कृति और यथार्थ को पहचानने का माध्यम स्वीकार करते हैं। उनकी कविता का क्षितिज अत्यंत व्याप्क है। उनकी प्रसिद्ध उक्‍ति है कि "काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है। सारे कवि-कर्म इसी परिभाषा से निःसृत होते हैं। शब्द का ज्ञान - ज्ञान के अर्थवत्ता की सही पकड़ - ही कृतिकार को कृति बनाती है। ध्वनि, लय, छंद आदि के सभी प्रश्‍न इसी में से निकलते और इसी में विलय होते हैं।" (अज्ञेय; तार सप्‍तक; पुनश्‍च; पृ.301)। अज्ञेय के पास शब्द और अर्थवत्ता की सही पकड़ है। जिस प्रकार चित्रकार सीधी - तिरछी लकीरों के माध्यम से चित्र बनाता है उसी प्रकार वे थोड़े से शब्दों और ध्वनियों  से भी वांछित बिंब गढ़ लेते हैं, भाव चित्र बना लेते हैं -
"मैं ने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर की झाग से -
रंगी गई क्षण - भर
ढलते सूरज की आग से।
- मुझको दीख गया :
हर आलोक - छुआ अपनापन
हे उन्मोचन
नश्‍वरता के दाग से।" (मैं ने देखा, एक बूँद)

"जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जाएँगे
सेनाएँ हो जाएँगी पार 
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे 
इतिहास में 
बंदर कहलाएँगे।"

अज्ञेय शब्दों के सफल चितेरे हैं। मितकथन उनका अपना भी स्वभाव है और उनकी काव्य भाषा का भी। जैसा कि रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा है, "अज्ञेय की कविता की भाषा सहज, लोक प्रचलित तथा परंपरागत शिल्प प्रविधि से विहीन है। और भाषा के इस क्रांतिकारी प्रयोग से उन्होंने कविता को एक नई अर्थवत्ता प्रदान की है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी; ‘काव्य भाषा का स्वरूप’; कावय भाषा पर तीन निबंध; पृ.85)।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अज्ञेय ऐसे भाषा चिंतक और भाषा सृजक के कवि हैं जिन्होंने इस स्थिति की ओर संकेत किया है कि अच्छी भाषा लिखना अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धी है और कविता की प्रमुख विशेषता उसकी भाषा प्रयोग विधि है। इसके लिए वे भाषा के पार भी जाने को तत्पर दिखाई पड़ते हैं -
"मैं सभी ओर से खुला हूँ
वन - सा, वन - सा अपने में बंद हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।" (छंद)

अंततः पंडित विद्‍यानिवास मिश्र के शब्द में "अज्ञेय की कविता मुझे इसलिए प्रिय है कि वह जहाँ वक्‍तृता के प्रभाव से या सफ़ाई के आग्रह से मुक्‍त है, शुद्ध कविता है। युग उसमें है, पर व्यक्‍ति के माध्यम से; देश उसमें है, पर किसी आलोकित आकाश के माध्यम से। दर्प उसमें है, ध्वंस या निर्माण का नहीं , अपनी किरण के दुलार का। बिंबों का वैचित्र्य भी ऐसा है जो अपरिचित न होते हुए भी नए परिचय का रस देता है, वही दीप, वही मुकुर, वही कोकनद, वही सागर, वही लहर, वही नैवेद्‍य, वही आहुति अज्ञेय की कविता में नया प्राण पा जाते हैं।" (विद्‍यानिवास मिश्र; आज के लोकप्रिय हिंदी कवि -10; अज्ञेय; पृ.44)|



    बुधवार, 13 जुलाई 2011

    दूर दूर दूर ... मैं वहाँ हूँ


    "दुःख सबको माँजता है
    और 
    चाहे स्वयं मुक्‍ति देना वह न जाने, किंतु
    जिनको माँजता है
    उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्‍त रखें।"
    (अज्ञेय, ‘दूध का चाँद’, आँगन के पार द्वार)

    ये पंक्‍तियाँ अज्ञेय की जीवन दृष्‍टि और रचना दृष्‍टि का आधार हैं और केंद्रबिंदु भी। ‘अज्ञेय’ के उपनाम से विख्यात सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन प्रयोगवाद और नई कविता के विशिष्‍ट कवि, क्रांतिकारी विचारक, लेखक और पत्रकार रहें। उनका जन्म 7 मार्च, 1911 को देवरिया जिले के कसिया (कुशीनगर) गाँव में हुआ, इसीलिए इस वर्ष उनकी जन्मशताब्दी मनाई जा रही है।

    ‘अज्ञेय’ अर्थात ‘जो जाना नहीं जा सके!’ विश्‍वनाथ तिवारी उन्हें ‘चिंतक रचनाकार’ मानते हैं तो कृष्‍ण बलदेव वैद ‘खूबसूरत नकाबपोश’। अज्ञेय के कई उपनाम हैं। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन नाम वे गद्‍य लेखक तथा संपादक के नाते प्रयुक्‍त करते थे जबकि सृजनात्मक लेखन ‘अज्ञेय’ के नाम से करते थे। उनके अन्य उपनाम हैं - श्रीवत्स, कुट्टिचातन, गजानन पंडित, डॉ.अबुल लतीफ और समाजद्रोही नं. वन।

    वस्तुतः अज्ञेय की रचनाएँ उनके संवेदनशील कवि व्यक्‍तित्व और वैचारिक मानस की संवाहिका है। उनका चिंतन पक्ष समृद्ध एवं मौलिक है। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जनमानस में चेतना जगाने के साथ साथ भारतीय संस्कृति और सभ्यता को उजागर किया है। उन्होंने मानवीय मूल्यों की कसौटी पर व्यक्‍ति, समाज, संस्कृति और साहित्य को कसा है। इसीलिए वे कहते हैं "दूर दूर दूर... मैं वहाँ हूँ।/ यह नहीं कि मैं भागता हूँ :/ मैं सेतु हूँ -/ जो है और जो होगा दोनों को मिलाता हूँ -/ मैं हूँ, मैं यहाँ हूँ,/ पर सेतु हूँ इसलिए / दूर दूर दूर ... मैं वहाँ हूँ। / यह जो मिट्टी गोड़ता है/ कोदई खाता है और गेहूँ खिलता है/ उसकी मैं साधना हूँ।/ यह जो गिट्टी फोड़ता है / मड़िया में रहता है और महलों को बनाता है/ उसकी मैं व्यथा हूँ।" (अज्ञेय,मैं वहाँ हूँ)।

    यह सर्वविदित है कि अज्ञेय ‘शब्द’ को सर्वाधिक महत्व  देते हैं। उनकी मान्यता है कि काव्य भी शब्द ही है। उन्होंने स्वयं घोषणा की है कि उनकी खोज भाषा नहीं, केवल शब्दों की खोज है। उनका अपना चिंतन है, दृष्‍टिकोण है और अपनी सोच है; अतः वे कहते हैं - "कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं करें / प्रयोजन मेरा बस इतना है - /ये दोनों जो / सदा एक दूसरे से तन कर रहते हैं, / कब, कैसे, किस आलोक - स्फुरण में / इन्हें मिला दूँ - / दोनों जो हैं बंधु, सखा, चिर सहचर मेरे।" (अज्ञेय, ‘शब्द और सत्य’, अरी ओ करुणा प्रभामयी)। इसी तरह तेलुगु के अभ्युदय कवि दाशरथी कृष्णमाचार्य भी कहते हैं कि "मंचि कवित्वम्‌ ए भाषलो उँटे अदि ना भाषा / मंचि कवि एवरैते अतडु ना मित्रुडु।? ई कविता सौधम्‌ पुष्‍पक विमानम्‌ वंटिदि / अन्नि भाषाला वारू रंडि... पुष्‍पक विमानम्‌लो /  आनंद लोकाला संचारानिकी।" (अच्छी कविता जिस भाषा में होगी वह मेरी भाषा है। अच्छे कवि मेरे मित्र हैं। काव्य सृजन एक पुष्‍पक विमान के समान है। सभी भाषा वाले आइए... इस पुष्पक विमान में बैठकर रस मग्न होकर विहार करें। - दाशरथी कृष्णमाचार्य; कविता पुष्पकम्‌)।

    अज्ञेय अपने परिवेश के प्रति जागरूक हैं। इसीलिए तो वे कहते हैं, "खड़ा हूँ तो वहाँ जहाँ मैं स्वयं भी केवल परिवेश हूँ और मूल्य भी केवल परिवेश है।" वे इतने जागरूक कवि हैं कि वे कहते हैं, "आधुनिक युग मशीन युग है। मशीन के विस्तार से प्राचीन समाज व्यवस्था और संस्कृति नष्‍ट हो रही है।" उन्होंने इसी बात को अपनी कविता ‘औद्‍योगिक बस्ती’ में उजागर किया है - "यंत्र हमें दलते हैं / और हम अपने को छलते हैं / थोड़ा और खट लो / थोड़ा और पिस लो।" अज्ञेय के समकालीन तेलुगु के कवि श्री श्री (श्रीरंगम्‌ श्रीनिवास राव) ने भी अपनी कविता ‘चेदु पाटा’ (कडुवा गीत) में यह स्पष्‍ट किया है कि "मनमंता बानिसलम्‌ / गानुगलम्‌ पीनुगलम्‌ / वेनुका दगा मुंदु दगा / कुडि एडमला दगा दगा।" ( हम सब गुलाम हैं/ कोल्हू हैं, मुर्दे हैं / पीछे भी छल है, आगे भी छल है/ दाएँ भी और बाएँ भी छल ही छल हैं। ; श्री श्री ; महाप्रस्थानम्‌, ‘चेदु पाटा’ - कडुवा गीत)।

    अज्ञेय भारतीय साहित्य, समाज और संस्कृति पर विशेष रूप से बल देने वाले विलक्षण व्यक्तित्व के धनी  हैं.
    " अल्ला रे अल्ला 
    होता न मनुष्य मैं, होता करमकल्ला.
    रूखे कर्म जीवन से उलझता न पल्ला.
    चाहता न काम कुछ, माँगता न दाम कुछ
    करता न काम कुछ, बैठता निठल्ला-
    अल्ला रे अल्ला-" (अज्ञेय, एक आटोग्राफ)