त्रिपुरनेनी गोपीचंद (08 सितंबर, 1910 - 02 नवंबर, 1962) तेलुगु के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं. वे कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और निबंधकार के साथ साथ सिनेमा निर्देशक के रूप में भी प्रसिद्ध हैं. उनकी मान्यता है कि साहित्य मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि जनकल्याण का साधन है. इसीलिए उन्होंने समाज और जीवन से संबंधित सच्चाइयों को उजागर करने के लिए साहित्य को माध्यम बनाया और जनता को सोचने तथा विचारने के लिए मजबूर किया. उनका कथन है कि "वस्तु-शिल्पाललो वस्तुवु कोसमे शिल्पमु. विनोदमु साहित्य प्रयोजनम कादु. अदि सामाजिक मार्पुकु दोहदकारी." (वस्तु और शिल्प दोनों में शिल्प वस्तु के लिए है. मनोरंजन साहित्य का प्रयोजन नहीं है. अपितु वह सामाजिक परिवर्तन का द्योतक है.).
गोपीचंद का जन्म 08 सितंबर, 1910 को अंगलूरु (कृष्णा जिला, आंध्र प्रदेश) नामक गाँव में हुआ. उनके पिता त्रिपुरनेनी रामस्वामि चौधरी तेलुगु साहित्य में आधुनिक हेतुवाद के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं. रामस्वामि चौधरी ने ‘सूताश्रम’ की स्थापना करके हेतुवाद का प्रचार-प्रसार किया. इस प्रकार गोपीचंद को हेतुवाद अपने पिता से विरासत में प्राप्त हुआ.
बचपन से ही गोपीचंद जिज्ञासु थे अतः हर विषय को तर्क तथा खंडन-मंडन के सहारे समझने का प्रयास करते थे. उन्होंने अपने आप को पाठ्य पुस्तकों तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों की रचनाओं का अध्ययन किया. उन पर महात्मा गांधी, अरविंद, रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, प्रेमचंद, उन्नव लक्ष्मीनारायण, बर्नार्डशा, बर्टरेंड रसल, शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स, स्काट और ह्यूम्स आदि का प्रभाव दिखाई देता है. पर उन्होंने कभी किसी का अंधानुकरण नहीं किया.
गोपीचंद भी अन्य रचनाकारों की भाँति अपने परिवेश से जुड़े साहित्यकार हैं. अतः उनकी रचनाओं में गाँव से लेकर शहर तक का परिवेश दिखाई देता है.
पेशे से वे वकील थे. दरअसल 1937 में मद्रास विश्वविद्यालय से बी.एल. की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने वकील के रूप में अपना जीविकोपार्जन शुरू किया था, परंतु वे उस क्षेत्र में ज्यादा दिन टिक नहीं सके क्योंकि केस जीतने के लिए न्याय को अन्याय के रूप में तथा अन्याय को न्याय के रूप में साबित करना उन्हें पसंद नहीं आया और इसलिए उन्होंने वकालत छोड़ दी.
गोपीचंद ने राजनीति में भी सक्रिय रूप से भाग लिया. इसके अतिरिक्त 1953 में जब अलग राज्य के रूप में आंध्र प्रदेश की स्थापना हुई और कर्नूल को आंध्र की राजधानी बनाया गया तो उस समय गोपीचंद समाचार विभाग के निर्देशक बने. लेकिन इस काम में भी वे रम नहीं सके. अतः इसे भी तिलांजलि देकर जीवन भर अपने प्रिय साहित्यिक क्षेत्र में सक्रिय रहे.
संवेदनशील साहित्यकार के रूप में त्रिपुरनेनी गोपीचंद ने देखा कि समसामयिक समाज में अंधविश्वास, असमानताएँ, विसंगतियाँ, मूल्यह्रास और विद्रूपताएँ चारों ओर व्याप्त हैं. इनके उन्मूलन हेतु उन्होंने अनेक कहानियों, उपन्यासों और नाटकों का सृजन किया. उनकी मान्यता थी कि जब तक जनता जागृत नहीं होगी तब तक सामाजिक विसंगतियों का उन्मूलन संभव नहीं होगा. उन्होंने नाटक, उपन्यास और कहानियों के माध्यम से जनता को चेताया तथा तेलुगु कथा-साहित्य को एक नया मोड़ दिया. यों तो बचपन से ही साहित्यिक परिवेश प्राप्त होने के कारण उन्होंने विद्यार्थी जीवन में ही कहानियाँ लिखना शुरू किया था लेकिन 1933 में छ्पी ‘ओलंपियस’ उनकी पहली प्रकाशित कहानी है.
गोपीचंद ने 1947 में ‘आंध्र ज्योति’ (मासिक पत्रिका) में प्रकाशित कहानी ‘बीदलंता ओकटे’ (गरीब सब एक हैं) के माध्यम से कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों को प्रत्पादित किया. इस कहानी में लेखक ने श्रमिक वर्ग की बेबसी, उनके जीवन संघर्श और अन्याय के प्रति उनके विद्रोह को बखूबी रेखांकित किया है. उनकी कहानी ‘अर्रुचाचिना एद्दु’ (बूढ़ा बैल) वृद्धावस्था विमर्श की स्शक्त प्रस्तुति है. बूढ़े बैल का स्वगत कथन इस प्रकार है - "नेनुइप्पुडु मुसलिदान्नि अय्यानु. कालु तीसी कालु वेय्यलेनु. लेचि निलबडटमे कष्टंगावुंदी. आकली अनेदी उंटुंदी. अदि शरीरम उन्नंतकालम उंटुंदिकाबोलु. ... ना यजमानि तंड्रि चाला मंचिवाडु. अंटे पातकालम मनिषि. ना मनस्सुलो वुन्नाकष्टम आयनकु तेलिसिनट्लुगा एवरिकी तेलियदु. एंदुकंटे प्रस्तुतम आयना अनुभवम कूडा इंचुमिंचु ना अनुभवानिकी मल्लने वुंदि. मेमु एंदुकु ब्रतुकुतुन्नामो इतरुलकु तेलियदु. माकू तेलियदु." (मैं बूढ़ा हो गया हूँ. मेरे अंदर ताकत भी नहीं बची. खड़े रहना भी मुश्किल हो रहा है. भूख लगती है. यह शरीर जब तक रहेगा तब तक भूख भी रहेगी. ... मेरे मालिक के पिताजी भलेमानुस हैं. वे पुराने विचारों वाले हैं. ....मेरे मन की व्यथा को वे अच्छी तरह समझते हैं. चूँकि उनका और मेरी अनुभव एक समान है. हम क्यों जी रहे हैं हमारे अलवा कोई नहीं जानता. शायद हम भी नहीं.).
कहानीकार के रूप में गोपीचंद की प्रसिद्धी अप्रतिम है. उन्होंने तीन सौ से अधिक कहानियों का सृजन किया. उनकी कुछ प्रमुख कहानियाँ हैं - ‘देशमेमैयेटट्टू?’ (देश का क्या होगा?), ‘पिरिकिवाडु’ (डरपोक), ‘भार्यल्लोने उंदि’ (पत्नियों में ही है), ‘इरुगु-पोरुगु’ (अडोस-पडोस), ‘गोडमीदा मूडोवाडु’(दीवार पर तीसरा व्यक्ति) आदि.
गोपीचंद ने सामाजिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों से संबंधित अनेक उपन्यास भी रचे. 1943 में प्रकाशित ‘परिवर्तना’ (परिवर्तन) उनका पहला उपन्यास है. इस उपन्यास का नायक राजाराव अपनी पत्नी की मृत्यु को सहन नहीं कर पाता. वह इतना व्याकुल हो जाता है कि दिन-ब-दिन उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और वह रोग ग्रस्त हो जाता है. कथा में नाटकीय मोड़ तब आता है जब मृत्यु शय्या पर लेटे राजाराव के मन में अचानक जीने की इच्छा प्रबल हो उठती है और वह तनाव की स्थिति से मुक्त हो जाता है. इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि जीवन गतिशील है.
1947 में प्रकाशित ‘असमर्थुनी जीवयात्रा’ (असमर्थ की जीवन यात्रा) गोपीचंद का दूसरा उपन्यास है. इस मनोवैज्ञानिक उपन्यास के माध्यम से उन्होंने मानव जीवन की अनेक परतों को उजागर किया है. इस उपन्यास का प्रमुख पात्र सीताराम उच्चता ग्रंथि से ग्रसित है. वह अपने मरणासन्न पिता को वचन देता है कि वंश की प्रतिष्ठा बनाए रखेगा. अपने पिता को दिए वचन को निभाते निभाते सीताराम पूरी तरह कंगाल हो जाता है. पापी पेट को पालने के लिए विवश होकर वह अंततः नौकरी करता है. लेकिन किसी के अधीन काम करने से उसके अहं को ठेस पहुँचती है इसलिए वह नौकरी छोड़ देता है. आर्थिक अभाव के कारण वह कम उम्र में ही मानसिक रोगी बन जाता है और आत्महत्या कर लेता है. इस उपन्यास के माध्यम से गोपीचंद ने यह स्पष्ट किया है कि उतार-चाढ़ाव का नाम ही जीवन है. इस समाज में स्वस्थ जीवन जीने के लिए अहं और राग-द्वेष को तजकर कर्मशील रहना आवाश्यक है. कहा जाता है कि गोपीचंद ने इस उपन्यास में अपने निजी अनुभवों को अभिव्यक्ति दी है.
1960 में प्रकाशित उपन्यास ‘पिल्ला तेम्मेरा’ (फुरवाई) के माध्यम से त्रिपुरनेनी गोपीचंद स्त्री की उच्छृंकल मनोवृत्ति को दर्शाया है. इसी प्रकार 1961 में प्रकशित उपन्यास ‘पंडित परमेश्वर शास्त्री वीलुनामा’ (पंडित परमेश्वर शास्त्री की वसीयत) एक सामाजिक उपन्यास है. इस उपन्यास के लिए गोपीचंद को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ. उनके अन्य बहुचर्चित उपन्यास हैं - ‘शिथिलालयम’ (खंडहर), ‘गतिंचिन गतम’ (बीता हुआ कल), ‘यमपाशम’ (यमपाश), ‘चीकटी गदुलु’ (अंधेरे कमरे) और ‘मेरुपु मरकलु’ (बिजली के धब्बे) आदि.
‘गुड्डी संघम’ (अंधा समाज), ‘अभागिन’, ‘तत्वमसी’, ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव) आदि गोपीचंद के सामाजिक नाटक हैं. उनके ‘सोशलिस्टु उद्यम चरित्र’ (समाजवादी आंदोलन का इतिहास), ‘पट्टाभिगारी सोशलिज्म’ (पट्टाभिजी का समाजवाद), ‘कम्यूनिज्म अंटे एमिटी?’ (कम्यूनिज्म का क्या अर्थ है?), ‘प्रजा साहित्यमु’ (प्रजा साहित्य) जैसे विचारोत्तेजक लेखों ने जनमानस को चेताया.
गोपीचंद के साहित्य में एक ओर सामाजिक और राजनैतिक विद्रूपताओं का अंकन है तो दूसरी ओर आधुनिकता और परंपरा की टकराहट है. मृत्युबोध और पीढ़ी अंतराल के साथ साथ उनके साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, पर्यावरण विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श और वृद्धावस्था विमर्श भी उल्लेखनीय हैं. भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी गोपीचंद का साहित्य विलक्षण है.
यह पहले भी बताया गया है कि गोपीचंद सिनेमा निर्देशक भी थे. उन्होंने ‘रैतुबिड्डा’ (किसान पुत्र), ‘गृहप्रवेशम’ (गृहप्रवेश), ‘गृहलक्ष्मी’ (गृहणी), ‘चदुवुकुन्ना अम्माइलु’ (शिक्षित लड़कियाँ) आदि चलचित्रों के संवाद लिखे तक ‘प्रियुरालु’ (प्रेयसी) और ‘लक्षम्मा’ आदि चित्रों का निर्देशन किया.
गोपीचंद सफल कथाकार, नाटककार, निबंधकार और फिल्म निर्देशक तो हैं ही. उन्होंने अपने आप को सफल संपादक के रूप में भी प्रतिष्ठित किया. एम.एन.राय के नेतृत्व में ‘रेडिकल पार्टी’ का आविर्भाव हुआ तो कुछ समय तक गोपीचंद ने रेडिकल पार्टी के सचिव के रूप में भी अपनी सेवाएँ दीं और तेलुगु पत्रिका ‘रेडिकल’ का संपादन भी किया. उनके संपादकीय जनमानस को झकझोरने की दृष्टि से सफल माने जाते हैं. वस्तुतः गोपीचंद मानववादी साहित्यकार हैं. और आज भी उनकी रचनाएँ प्रासंगिक हैं.