हैदराबाद.
आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी की इस महीने की व्याख्यानमाला 30 जुलाई 2012 को संपन्न हुई. 'विश्व चेतस हिंदी' पर केंद्रित इस व्याख्यानमाला के
मुख्य वक्ता थे प्रो.रमेशचंद्र शाह. अध्यक्ष थे हैदराबाद विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.रवि रंजन. आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी, हैदराबाद के निदेशक श्री सी.एस.एन.शर्मा भी मंच पर उपस्थित थे. इस व्याख्यानमाला के संयोजक थे प्रो.एम.वेंकटेश्वर. कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही पूरा हॉल भरा हुआ था. हैदराबाद शहर के जाने माने विद्वान, साहित्यकार, कवि, हास्य-व्यंग्य लेखक, अध्यापक, शोधार्थी आदि उपस्थित थे.
हॉल को भरा हुआ देखकर मन प्रफुल्लित हुआ.
प्रो.रमेशचंद्र शाह ने अपने व्याख्यान में कहा कि 'हिंदी भारत के हृदय की कुंजी है. हिंदी सदा से आधुनिक रही है. वह सदा ही आगे देखने वाली भाषा है. युग की आवश्यकता की पुकार है. भाव बोध अग्रगामिता का संस्कार सदा ही हिंदी के साथ रहा है. समग्र आंचलिक बोलियां हिंदी के पास हैं. हिंदी में सेंट्रीफ्यूगल टेंडेंसी – केन्द्रापसारी प्रवृत्ति निहित है. हिंदी कभी किसी के संरक्षण की मोहताज नहीं रही. वह तो स्वतः ही आगे बढ़ती रही और आज भी बढ़ रही है. मध्य युग की 'भाखा' ने समस्त सांस्कृतिक तत्वों को एकजुट किया था. आज आधुनिक भाषा के सामने सांप्रदायिक ताकतों की चुनौती उपस्थित है जो भयंकर है. इस आतंक ने हमारे इन्फ्रास्ट्रक्चर को, शिक्षा व्यवस्था को तोड़ने का प्रयत्न किया है.
रमेशचंद्र शाह |
आज के परिप्रेक्ष्य में हिंदी ने सपाट भाषा के पक्ष में अपने आपको सरंडर किया है. हिंदी का हाजमा बहुत अच्छा है. देश की संजीवनी को इक्कट्ठा करने का काम हिंदी से ही संभव होगा. हिंदी का इतिहास खड़ीबोली हिंदी का नहीं है. यदि हिंदी के कवियों को हिंदी के मर्मस्थल तक पहुंचना है तो उन्हें पहले उसकी कालगति और स्वधर्म को पहचानना होगा. भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग हिंदी और अंग्रेज़ी मिश्रित भाषा का प्रयोग कर रहा है. भारतीय बुद्धीजीवी शैडो माइंडेड है. आज इनके अस्पष्ट और भ्रामक विचारों के कारण हमारी व्यवस्था दलदल में फंसी हुई है. हम अपने ही नेटिव माइंड – देसी मन को पाताल में धकेल रहे हैं.'
प्रो.रवि रंजन ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि 'हैदराबाद की अपनी एक निजी संस्कृति है – सर्वसमावेशी संस्कृति. मिली-जुली संस्कृति. हैदराबाद में हिन्दुस्तानी कल्चर को देखा जा सकता है.' उन्होंने यह चिंता जाहिर की हम लोग ही अपने देसीपन को छोड़कर विदेसीपन के पीछे भाग रहें हैं. फैशन के नाम पर हिंदी में इतने सारे अंग्रेज़ी शब्दों को घुसेड़ रहें है कि एक अजीब भाषा उससे पैदा हो रही है. हिंदी का पाठक वर्ग – शिक्षित मध्यवर्ग जैसे ही शिक्षित होता है वह अंग्रेजीदां बन जाता है. संस्कृति के क्षेत्र में नकलीपन मेटाबोलिज्म को खराब कर देगा. इसलिए स्वाभाविक हिंदी बोलना, पढ़ना और लिखना चाहिए.'
1 टिप्पणी:
बहुत ही उपयोगी और सूचनापरक रिपोर्टिंग की है आपने। पूरे व्याख्यान का सार प्रस्तुत किया है आपने साथ ही अध्यक्षीय वक्तव्य का भी सार स्वाभाविक रूप मे हुआ है। हैदराबाद की हिन्दी जगत की गतिविधियों को ऐसी रिपोर्टिंग से पहचान मिलेगी।
डा रमेशचन्द्र शाह एक महत्वपूर्ण रचनाकर्मी हैं, उनका बहुविध साहित्य सामाजिक सरोकारों से भरा पड़ा है । कहानी,उपन्यास,निबंध,कविता, आलोचना, नाटक, यात्रावृत्त आदि सभी विधाओं मे उन्होने अपनी रचनाधर्मिता को सिद्ध किया है। पेशे से अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं वे किन्तु उनकी अभिव्यक्ति का माधम हिंदी है।
एम वेंकटेश्वर।
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