बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान द्वीप समूह, म्यान्मार व सुमात्रा के बीच, 219 मील की लंबाई में फैला हुआ है। यूनानियों का भ्रम था कि अंडमानवासी नरभक्षी थे और यूरोपीय अन्वेषकों ने तो अंडमान द्वीप समूह को 'नरभक्षियों की भूमि' का नाम दिया था। ऐसी अफवाहें भी थी कि अंडमान के स्थानीय निवासियों के लिए दुर्घटनाग्रस्त जहाजों के नाविक अच्छा आहार सिद्ध होते थे तथा पड़ोसी निकोबार में, वार्षिक शुल्क के रूप में, मानव शरीर देने की प्रथा थी। परंतु अंडमान के मूल निवासी नरभक्षी नहीं थे। घने जंगलों, संुदर समुद्री तटों व मनमोहक दृश्यों से भरपूर यह गर्म द्वीप समूह समृद्ध प्राकृतिक संपदा है, लेकिन कुछ सत्ता लोभियों ने इसे 'कालापानी' जैसा नारकीय स्थल बना दिया। 'कालापानी' नाम सुनते ही आदमी सिहर उठता है। आज भी भारतीयों के मन पर 'कालापानी' शब्द आतंक बनकर अंकित है। कालापानी की विभीषका, यातना एवं त्रासदी किसी नरक से कम नहीं थी। 1857 के विद्रोह के पश्चात् ब्रिटिश शासन की औपनिवेशिक सरकार ने अंडमान द्वीप समूह में दंड़ी-बस्ती बनाकर राजनैतिक विद्रोहियों को वहाँ निर्वासित करना प्रारंभ कर दिया था।
प्रमोद कुमार (1952) की शोधपरक पुस्तक ''कालापानीः अंडमान की दंड-बस्ती'' (2006) इसी विभीषिका को उजागर करती है। पाँच अध्यायों में विभाजित यह पुस्तक कालापानी अथवा अंडमान द्वीप समूह की दंडी-बस्ती व सेल्यूलर कारावास के अनुशासन व प्रशासन, बंदियों की त्रासदी, उनके साथ होनेवाले दमन तथा उनके प्रतिरोधों का हृदय विदारक चित्र पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है।
'कालापानी' की सजा पाना, अर्थात् एक ऐसे रहस्यात्मक स्थान पर भेजा जाना, जहाँ से वापस आना संभव नहीं था। किसी बंदी को 'कालापानी' भेजने का अर्थ था, उसे अंडमान द्वीप समूह भेजना। औपनिवेशिक राज्य के विद्रोहियों तथा जघन्य अपराधियों को 'कालापानी' की सजा दी जाती थी। यह एक प्रकार से देश-निकाले के दंड के समान ही था। भारतीय समाज के लिए यह दंड मृत्युदंड से भी अधिक भयानक था।
भारतीय बंदियों के लिए प्रथम 'दंडी-बस्ती' या 'पीनल सेटलमेंट' अंग्रेज़ों ने सागर-पार सुमात्रा के बेंकोलीन नामक स्थान पर बनाई थी। उसके बाद 1823 में मलाया के पेनांग नामक स्थान पर बने एक अन्य दंडी-बस्ती में कैदियों को स्थानांतरित कर दिया गया। पेनांग के अतिरिकत सिंगापुर, मलक्का, म्यान्मार तथा मॉरीशस में भी दंडी-बस्तियों का निर्माण किया गया था। अंततः सभी दंड-बस्तियों को 1858 में स्थाई रूप से अंडमान स्थानांतरित कर दिया गया। दंडी-बस्तियों के कैदियों से जंगलों को साफ कराने तथा सड़कों के बनवाने का कार्य लिया जाता था, परंतु राज्य के अस्तित्व को सुरक्षित रखना ही मुख्य उद्देश्य था। भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के साथ-साथ दंडी-बस्तियों की अवधारणा जन्म ले चुकी थी। अंडमान की इसी दंडी-बस्ती को 'कालापानी' तथा निर्वासित कैदियों को 'दामिली' कहा जाता था।
वस्तुतः यह दंडी-बस्ती केवल राजनैतिक बंदियों के लिए ही बनाई गई थी। 1858 में इसके निर्माण के बाद केवल गदर के क्रांतिकारियों को यहाँ भेजा गया। औपनिवेशिक सत्ता के लिए तो 'विद्रोह' की परिभाषा बदलती रही। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आवाज बुलंद करनेवाले भी विद्रोही थे तथा झांसी की रानी, नाना साहब या सावरकर की तरह युद्ध करनेवाले भी विद्रोही थे। इतना ही नहीं लूट या अन्य अपराधों के लिए सज़ा पाए कैदी भी विद्रोही थे। इसीके आधार पर निर्वासन के लिए कैदियों का चुनाव किया जाता था। ब्रिटिश शासन के अनुसार विद्रोहियों का मुख्य अपराध यही था कि वे विद्रोही नेतृत्व के प्रति उन्मुख थे। यदि विद्रोही औपनिवेशिक सत्ता के प्रति ईमानदार हो जाते तो वे अपराधी नहीं रह जाते। वस्तुतः अपराध की महत्ता इस बात से होती थी कि विद्रोही किसके प्रति निष्ठावान थे।
गदर विद्रोहियों के निर्वासन के पश्चात् वहाबी विद्रोहियों को कालापानी की सजा दी गई। 19वीं सदी के अंतिम दशक में यूरोप सहित पूरी दुनिया में अराजकता एवं आतंक की घटनाओं की बाढ़-सी आ गई थी। इसके परिणामस्वरूप 1872 में वहाबी आंदोलन के दौरान वाइसराय मेयो की हत्या कर दी गई। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा, लेकिन भारतीय आतंकवादी आंदोलन इस बात में विश्वास रखता था कि अंग्रेज़ों में आतंक पैदा कर उसे भारत छोड़ने पर मजबूर किया जा सकता था क्योंकि वे त्याग, बलिदान तथा देशभक्ति के मूल्यों से ओत-प्रोत थे। 1917 के रूस की क्रांति के बाद इस आंदोलन का स्वरूप परिवर्तित हुआ।
भारतीय दंड-संहिता के निर्माण के साथ-साथ मैकाले औपनिवेशिक कारावास-व्यवस्था का भी जन्मदाता था। अंडमान में निर्वासित कैदियों को दंड व अनुशासन के जिन नियमों के अंतर्गत रहना पड़ता था, उनका मूल स्रोत 1830 के दशक में मैकाले द्वारा विकसित कारावास-व्यवस्था थी। ''अंडमान की दंडी-बस्ती में अनुशासन बनाए रखने के लिए सजा और पुरस्कार के द्वैत सिद्धांत के अनुसार कठोर श्रम, अनुशासित व्यवहार व राजनैतिक निष्ठा के आधार पर कैदियों को पुरस्कृत किया जाता था।'' (पृ.सं. 42)|
लेखक ने प्रमाणपूर्वक बताया है कि अनुशासन बनाए रखने के लिए अमानवीय दमन की प्रक्रिया भी अपनाई जाती थी। सेल्युलर कारावास की कोठरियाँ वास्तविक अर्थों में काल-कोठरियाँ थीं, रोशनी भी नहीं पहँुचती थी। उन काल कोठरियों में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। कीड़े-मकोड़ों से भरा हुआ खाना और उबला हुआ जंगली घास दिया जाता था। बंदियों पर शारीरिक अत्याचार भी किए जाते थे। अतः 1933 में इन अत्याचारों के खिलाफ भूख हड़ताल की गई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अंडमान की दंडी-बस्ती को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया गया और तदुपरांत अंडमान व निकोबार द्वीप समूह भारत के एक महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हुआ। औपनिवेशिक शासन के समय आतंक का पर्याय बना सेल्यूलर जेल आज स्वतंत्रता संग्राम के एक राष्ट्रीय-स्मारक के रूप में दर्शनीय स्थल है।
वस्तुतः प्रमोद कुमार की यह पुस्तक व्यापक शोध का परिणाम है। निश्चय ही इस प्रकार की पुस्तकों की हिंदी में बड़ी आवश्यकता है। इस पुस्तक का दस्तावेजी महत्व इस तथ्य से बढ़ जाता है कि परिशिष्ट के अंतर्गत अगस्त 1932 से अपै्रल 1933 के मध्य सेल्यूलर जेल, पोर्ट ब्लेयर के लिए निर्वासित 117 राजनैतिक बंदियों की सूची दी गई है। संदर्भ ग्रंथों की सूची भी पर्याप्त समृद्ध है।
अंत में इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाना समीचीन होगा कि निर्भीक पत्रकारिता के लिए भारत के अनेक पत्रकारों को भी कालापानी की सजा दी गई थी। इनमें 'स्वराज' अकेला एक ऐसा पत्र था जिसके आठ उत्तरोत्तर संपादकों को निर्वासित किया गया था। ''इनमें से सात संपादक अकेले पंजाब के मूल निवासी थे। ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य के लिए कितनी छोटी-छोटी राज्य विरोधी बातें देशद्रोह तथा निर्वासन के योग्य भयंकर अपराध की श्रेणी में आ जाती थीं, यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि 'स्वराज ' के एक संपादक, कादियान, गुरदासपुर, पंजाब के निवासी, बाबू हरिराम को निम्नलिखित कविता रचने व प्रकाशित करने के लिए कुल 21 वर्ष की सजा दी गई थी -
''ओ मेरी प्रिय माँ/रोती हो तुम क्यों?/फिरंगियों का राज/ होने ही वाला है खत्म/बाँधने लगे हैं असबाब/ नहीं रहेगा अब शेष/राष्ट्रीय शर्म व दुर्भाग्य/ बहने लगी है आजादी की बयार/माँगने लगे हैं आजादी/ बूढ़े व जवान/'हरि' भी लेगा मजा आजादी का/ जब होगा भारत आजाद।''(पृ.सं. 48,49)|
प्रमोद कुमार/कालापानी : अंडमान की दंडी-बस्ती/2006 (प्रथम संस्करण)/ नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, ए-5, ग्रीन पार्क, नई दिल्ली-110 016/पृष्ठ 109/ मूल्य रु. 50 (पेपर बैक)
- डॉ. जी. नीरजा
2 टिप्पणियां:
जनाब, पत्रकारों की तो समय-समय पर वाट लगती रही है। जब-जब किसी ने खुलकर पत्रकारिता के जरिए बोलने की चेष्ठा की उसका गला घोंटने वाले हर दौर में जाने कहां से पैदा हो गए। कालापानी की सजा पत्रकारों को भी कभी दी गई थी, आज पहली बार पढ़ा। बेहतरीन तथ्य है। अपने संग्रह में अपडेट करना चाहंूगा। पुस्तक अच्छी है। समीक्षा से इतना ही समझ पाया हंू।
achchee pustak samikha ki hai.nayi jaankariyan bhi milin
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