गुरुवार, 14 सितंबर 2023

देश को सिलने के लिए चाहिए एक सुई



सितंबर! हिंदी प्रेमियों के लिए उत्सव का माहौल। पाठशालाओं, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, स्वैच्छिक संस्थानों, बैंकों, राजभाषा विभागों आदि में चारों ओर कोलाहल। न जाने कितनी तरह की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। अवसर है ‘हिंदी दिवस’। आखिर हिंदी दिवस को इतना महत्व क्यों दिया जाता है! कभी सोचा है।

14 सितंबर, 1949 को हिंदी ने भारत की राजभाषा का पद संवैधानिक रूप से प्राप्त किया। पहली बार 14 सितंबर, 1953 को ‘हिंदी दिवस’ मनाया गया। तब से लेकर आज तक यह एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भारत एक उत्सवधर्मी देश है। हर महीने कोई न कोई त्योहार होता ही है। छोटी-छोटी उपलब्धियों को भी उत्सव के रूप में मनाकर भारत के लोग आपस में भाईचारा कायम रखते हैं। ऐसे ही सितंबर में सभी हिंदी प्रेमी ‘हिंदी दिवस’ मनाने के लिए एकजुट हो जाते हैं।

हिंदी दिवस क्यों मनाते हैं, इसके पीछे निहित कारण हम सब जानते ही हैं। मैं तो बस यही कहना चाहूँगी कि इसे केवल एक औपचारिकता न समझा जाए। वैसे भी, हम दूसरे तमाम त्योहार क्यों मनाते हैं? क्योंकि हमारे हर त्योहार के पीछे कोई न कोई मूल्य अवश्य जुड़ा हुआ होता है। चाहे वह दीवाली हो या दशहरा, ईद हो या होली, बैसाखी हो या बड़ा दिन, ये त्योहार हमारे लिए केवल औपचारिक नहीं हैं। इनका संबंध हमारे जीवन मूल्यों से है। 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्तूबर की तरह 14 सितंबर भी हमारा राष्ट्रीय पर्व है। और इस पर्व के मूल में जो मूल्य निहित है वह है ‘भारतीयता’ – ‘राष्ट्रीयता’। भारतवर्ष की भावात्मक एकता। हमारा यह देश बहु-सांस्कृतिक और बहु-भाषिक है। हिंदी भारत की सामासिक एकता को अक्षुण्ण रखने का एक आधार है।

भौगोलिक रूप से हमारे बीच दूरियाँ बहुत हैं। लेकिन भावात्मक एकता के धरातल पर हम सब एक हैं। कहने का आशय है कि उत्तर के राज्यों और दक्षिण के राज्यों के बीच भौगोलिक दूर हो सकती है और है भी। इन भौगोलिक दूरियों के बावजूद यह पूरा देश भावात्मक रूप से एक सूत्र में जुड़ा हुआ है। इस भावात्मक एकता को मजबूत बनाने वाला तत्व है ‘भाषा’।

हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया और अंग्रेजों की दासता से भारत को मुक्त किया। विभिन्न भाषाएँ बोलने वाला और विभिन्न प्रांतों में बँटा हुआ भारत एक राष्ट्र बना और हिंदी इसकी राजभाषा बनी। उल्लेखनीय है कि भाषा के अभाव में न ही मनुष्य का अस्तित्व होता है और न ही देश का। इस संदर्भ में थोमस डेविड का कथन ध्यान खींचता है। उनका कहना है कि कोई भी देश राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र नहीं कहला सकता।

भाषा महज आदान-प्रदान या अभिव्यक्ति का साधन नहीं है अपितु वह मनुष्य की अस्मिता है। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो एक साथ अनेक भूमिकाएँ निभा सकती है और निभा भी रही है। अर्थात जनभाषा, संपर्क भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, शिक्षा की माध्यम भाषा, प्रौद्योगिकी की भाषा, बाजार-दोस्त भाषा, मीडिया भाषा आदि। साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में हिंदी की भूमिका निर्विवाद है। महात्मा गांधी ने हिंदी की इस ताकत को पहचाना और ‘स्वभाषा’ को स्वराज्य के लिए अनिवार्य घोषित किया। उनकी यह मान्यता थी कि हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी ही हो सकती है। क्योंकि अलग-अलग भाषा-भाषी भी हिंदी में आसानी से बातचीत कर सकते हैं। अपने भावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं।

भाषा एक संवेदनशील वस्तु है। जरा सी गलती हो जाए, तो वह तोड़ने वाली शक्ति बन सकती है। आप जानते ही हैं, भाषा के नाम पर आपस में झगड़े होने से देश किस तरह टुकड़ों में बँट जाते हैं। इसीलिए कभी कभी ऐसा भी लगता है कि भाषा के नाम पर राज्य बनना भाषा की नकारात्मक भूमिका है। किंतु इसके विपरीत भाषा की एक सकारात्मक भूमिका भी है। वह है जोड़ने की ताकत। हम सबको नकारात्मकता को छोड़कर इसी सकारात्मक तत्व को ग्रहण करना होगा। यह उचित भी है। अतः कहा जा सकता है कि ‘हिंदी दिवस’ भाषा के संबंध में सकारात्मक सोच के प्रति अपने आपको समर्पित करने का दिन है।

14 सितंबर, 1949 को जब भारतीय संविधान के निर्माताओं ने हिंदी को ‘भारत संघ की राजभाषा’ बनाया, तो वे इसे केवल ‘राजकाज’ की भाषा नहीं बना रहे थे, बल्कि भावात्मक एकता की भाषा बना रहे थे। इसीलिए उन्होंने दो और विशेष प्रावधान रखे। एक प्रावधान यह रखा कि अलग-अलग प्रांत अपनी-अपनी राजभाषाएँ रखने के लिए स्वतंत्र हैं। दूसरे, इन अलग-अलग राजभाषाओं को भावात्मक एकता की दृष्टि से जोड़ने के लिए अनुच्छेद 351 का प्रावधान किया गया। यह कहा गया कि हिंदी का विकास इस तरह से हो कि वह सामासिक संस्कृति (मिश्रित संस्कृति) का प्रतिबिंब बने। अतः हम सबको यह समझना जरूरी है कि हिंदी केवल राजभाषा नहीं है, बल्कि अलग-अलग भाषा और बोलियाँ बोलने वाले इस महान देश के लोगों को आपस में जोड़ने वाली एक सुई है। यहाँ मुझे तेलुगु कवयित्री एन. अरुणा की एक कविता याद आ रही है –

इंसानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ
फटे भूखंडों पर
पैबंद लगाना चाहती हूँ
रफ़ू करना चाहती हूँ
चीथड़ों में फिरने वाले लोगों के लिए
हर चबूतरे पर
सिलाई मशीन बनना चाहती हूँ
असल में यह सुई
मेरी माँ की है विरासत
आत्मीयताओं के टुकड़ों से मिली
कंथा है हमारा घर
सीने का मतलब ही है जोड़ना
सीने का मतलब ही होता है बनाए रखना
माँ अपनी नजरों से बाँधती थी
हम सबको एक ही सूत्र में
सुई की नोक चुभाकर
होती थी कशीदाकारी भलाई के ही लिए
नस्ल, देश और भाषाओं में विभक्त
इस दुनिया को
कमरे के बीचों-बीच ढेर लगाकर
प्रेम के धागे से सी लेना चाहती हूँ (एन. अरुणा, मौन भी बोलता है)

सुई की तरह ही हिंदी भाषा किसी और भाषा की पहचान के लिए खतरा पैदा नहीं कर सकती। बल्कि यह उन सबको आपस में जोड़ती है। क्या आप बता सकते हैं कि घड़ी, गाड़ी, टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल, उपग्रह आदि चीजों को कैसे बनाया जाता है? जी हाँ, टुकड़ों में। टुकड़ों को असेम्बल करके जोड़ा जाता है। तभी उत्पाद तैयार होकर हमारे सामने आएगा। कहने का आशय है कि अलग-अलग टुकड़ों को असेम्बल करते हुए किसी भी उपकरण का निर्माण किया जाता है। अगर इन टुकड़ों को अलग-अलग ही रहने देंगे तो क्या उपकरण बनेगा! नहीं। इसी प्रकार राष्ट्र के निर्माण में वह जो प्राण तत्व है, आत्मा है जो दिखाई नहीं देती, वह है हमारी संपर्क भाषा। इस संपर्क भाषा के द्वारा ही सारी भाषाएँ जुड़कर ‘भारतीय चिंतन की भाषा’ का निर्माण करती हैं। इसी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। अतः हम सब मिलकर यह संकल्प लें कि असेम्बल करने वाले इस तत्व को कभी भी खत्म नहीं होने देंगे। हिंदी भाषा की सीमेंटिंग पावर को पहचानकर उसके साथ जुड़ेंगे।

हिंदी के वैश्विक विस्तार हेतु विचारणीय बिंदुओं के संबंध में आज सोशल मीडिया के माध्यम से काफी कुछ कहा जा रहा है। वहाँ 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ (हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार का मंच) एक ऐसा सक्रिय मंच है जिसके माध्यम से आम जनता हिंदी भाषा के संबंध में अपने विचार व्यक्त कर पा रही है। हिंदी दिवस के हवाले से यहाँ विभिन्न लोगों द्वारा सुझाए गए कुछ बिंदु पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत हैं –

• अनेक कंप्यूटर-साधित सॉफ्टवेयर बनाए जाएँ जिससे हिंदी का प्रचलन और भी आसान हो सके।

• विभिन्न संगठनों द्वारा विकसित भाषा-उपकरण न सिर्फ सरकारी दफ्तरों तक सीमित हों अपितु उन्हें जन-मानस के लिए सुलभ कराया जाए।

• हिंदी सिर्फ एक सरकारी भाषा बनकर न रह जाए अपितु लोग उसे सहर्ष स्वीकारें। हिंदीतर भाषियों को इस प्रकार प्रेरित करना चाहिए कि वे हिंदी को सहर्ष ही अपने आप स्वीकारें।

• इंडिया हटाओ ‘भारत’ बनाओ।

• भारत सरकार के सभी कार्यालयों, मंत्रालयों, विभागों आदि का कामकाज प्रथम राजभाषा हिंदी में नोट शीट से लेकर सभी विधेयक तक बिना विलंब प्रारंभ कर दिया जाय।

• न्याय के क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय तक अपील तथा बहस की सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध करा दी जाए।

• सभी कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बिना विलंब बनाने का समय आ गया है।

• देश में देवनागरी लिपि के लिए अंग्रेजी भाषा की लिपि का उपयोग तेज़ी से बढ़ाया जा रहा है। यह हिंदी की लिपि देवनागरी के अस्तित्व पर संकट पैदा कर रहा है। इसे हतोत्साहित करना चाहिए।

अंततः इतना ही कि अब समय आ गया है कि हिंदी को उसका सही सम्मानपूर्ण वैश्विक स्थान प्रदान कराने के लिए सभी भारतवासियों को नवीनतम भाषा प्रौद्योगिकी से सुसज्जित होकर भाषाभिमान का परिचय देना चाहिए।

मंगलवार, 8 अगस्त 2023

भाषा के लक्षण

मानवेतर और मानव भाषा के बीच निहित भेद स्पष्ट करने की प्रक्रिया के कारण भाषा के लक्षण सामने आए। यहाँ भाषा के कुछ प्रमुख लक्षणों पर विचार किया जाएगा। यह पहले भी संकेत किया गया है कि मनुष्य ध्वनियों और प्रतीकों के माध्यम से भावों और विचारों को प्रकट करते हैं। भावाभिव्यक्ति के समस्त साधन भाषा के व्यापक अर्थ में सम्मिलित हो जाते हैं। भाषा के व्यापक अर्थ की सीमाएँ अत्यंत विस्तृत हैं। वस्तुतः व्यापक अर्थ उसकी सीमाओं को संकेतों से लेकर मूक भावाभिव्यक्तियों तक पहुँचा देता है तथा जिसके अंतर्गत केवल मानवीय भाषा ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के निरर्थक समझे जाने वाले स्वर भी सम्मिलित हो जाते हैं। लेकिन भाषाविज्ञान के अनुसार भाषा का आशय सिर्फ और सिर्फ मानव भाषा है. मानव भाषा के लक्षणों को ही भाषाविज्ञान मान्यता देती है. भाषाविज्ञान ने यह स्पष्ट कर दिया कि भाषा की संरचना हमेशा नियमबद्ध होती है. सस्यूर, जॉन लयोंस और चार्ल्स हॉकेट आदि ने भाषा के कुछ लक्षण निर्धारित किए. कुछ प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –

अभिव्यक्ति की क्षमता : अभिव्यक्ति वक्ता और श्रोता तथा लेखक और पाठक के बीच संबंध स्थापित करता है. इसे संप्रेषण क्रिया (कम्यूनिकेशन एक्ट) कहा जा सकता है. इससे सामाजिक संबंधों को स्थापित किया जा सकता है.

अर्जित व्यवहार : व्यवहार दो प्रकार का होते हैं – प्राकृतिक व्यवहार और अर्जित व्यवहार. प्राकृतिक व्यवहार वह है जो अनायास ही सीखा जा सकता है. अर्थात खाना, पीना, हँसना, रोना, चिल्लाना, चीखना, बैठना आदि. यह व्यवहार सभी प्राणियों में समान होते हैं. इसके विपरीत कुछ व्यवहार परिश्रमपूर्वक अर्जित किए जाते हैं. भाषा अर्जित व्यवहार है. इसे व्यवस्थित ढंग से सीखना पड़ता है. मातृभाषा अर्जन अनुकरण के माध्यम से अनायास ही हो जाता. द्वितीय भाषा और विदेशी भाषा को सायास रूप से सीखना पड़ता है.

अनुकरणशीलता : यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि भाषा अर्जित व्यवहार है. मनुष्य भाषा को पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त नहीं कर सकता. जिस परिवार में वह जन्म लेता है वहीं से भाषा को अर्जित करता है. मनुष्य अनुकरण के माध्यम से ही भाषा सीखता है.

सामाजिक व्यवहार : भाषा अर्जित व्यवहार होने का अर्थ है कि उसका संबंध समाज से है. समाज में रहकर ही इसे सीखा जा सकता है और समाज में ही इसका प्रयोग किया जाता है. वस्तुतः भाषा सामाजीकरण का सबसे महत्वपूर्ण घटक है. भाषा को सामाजिक संस्था भी कहा जाता है. वह इसलिए कि भाषा का निर्माण नहीं होता बल्कि विकास होता है.

परिवर्तनशीलता : भाषा की संरचना ऐसी होती है कि उसमें परिवर्तन आवश्यक होता है. परिवर्तन जीवंतता का परिचायक होता है. हिंदी भाषा को ही देखें तो उसके विकास क्रम में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी का क्रम दिखाई देता है. हिंदी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है. क्रमशः परिवर्तित होते हुए हिंदी का वह रूप आज समाने है जिसे हिंदी का आधुनिक रूप कहते हैं. हिंदी के संबंध में इस परिवर्तन को गृह > घर; चंद्र > चाँद आदि में देखा जा सकता है. ऐसे परिवर्तन को प्रायः ध्वनि परिवर्तन कहा जाता है. इसी प्रकार विदेशी भाषाओं के कारण हिंदी ध्वनियों का विकास हुआ. जैसे – ऑ, ग़, ज़, फ़ आदि ध्वनियाँ अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों को ग्रहण करके हिंदी में लाया गया है. संस्कृत में तीन वचन और लिंग हैं तो हिंदी में दो. इसी प्रकार शब्द के स्तर पर भी भाषा परिवर्तित होती है. जैसे हिंदी में अनके विदेशी शब्द ग्रहण कर लिए गए. समय के साथ-साथ भाषा में नए-नए शब्द आते रहते हैं. जैसे – छटाक, पाव, सेर आदि के स्थान पर ग्राम तथा किलोग्राम आ गए. अर्थात समय के साथ-साथ परिवर्तन करना पड़ता है. जिस भाषा में परिवर्तन के जितने स्तर होते हैं वह भाषा उतना ही विकास करती है. अतः आधुनिक भाषाविज्ञान में परिवर्तन को भाषा का मुख्य लक्षण माना गया है.

मानकता : प्रत्येक भाषा का एक मानक रूप होता है. इसका प्रयोग औपचारिक वार्तालाप और लिखित अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है. इन दोनों स्थितियों में भाषा प्रयोक्ता भाषा के मानक रूप का यथासंभव प्रयोग करने का प्रयास करता है. मानक भाषा रूप को शिक्षा में, कामकाज में अपनाया जाता है. हिंदी के संबंध में कहें तो इसके अनके रूप समाज में प्रचलित हैं लेकिन उसके मानक रूप खड़ीबोली को ही शिक्षा के स्तर पर स्वीकार किया जाता है. भाषा के मानक रूप को विकसित करने की प्रक्रिया को मानकीकरण कहा जाता है. यह एक सामाजिक प्रक्रिया है क्योंकि समाज ही यह निश्चित करता है कि मानक भाषा की आवश्यकता है या नहीं. यह पूरी तरह से समाज केंद्रित संकल्पना है.

पॉल गार्विन (1959) ने अपने आलेख ‘A Conceptual Framework for the study of the language standardization’ में यह प्रतिपादित किया है कि ‘किसी भी भाषा समुदाय के सदस्यों के लिए भाषा राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है.’ मानक भाषा के बारे में स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि ‘Standard Language is a codified variety of language that serves the multiple and complex communicative needs of a speech community that has either achieved modernization or has the desire of achieving it.’ उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मानक भाषा के लिए सतत लचीलापन (constant flexibility) और बौद्धीकरण (intellectualization) के गुण होने चाहिए.

फर्ग्यूसन (1962) ने मानकीकरण तथा लेखन के दो आयामों के आधार पर मानक भाषाओं के विकास को स्पष्ट करने का प्रयास किया है. उन्होंने लेखन के तीन बिंदु बनाए (0, 1, 2) और मानकीकरण के चार बिंदु (0, 1, 2, 3).
मानकीकरण की प्रक्रिया को दो स्तरों पर समझा जा सकता है –

यादृच्छिकता : इसका अर्थ है ‘इच्छानुसार’. भाषा में यादृच्छिकता हर स्तर पर पाई जाती है. यह समाज द्वारा स्वीकार्य लक्षण है. यदि ऐसा नहीं होता तो प्रायः संसार की सभी भाषाओं में एक वस्तु के लिए एक ही शब्द होता है. कहने का आशय है, ‘पानी’ के लिए सभी भाषाएँ ‘पानी’ का ही प्रयोग करतीं. जबकि ऐसा नहीं है. ‘पानी’ के लिए अंग्रजी में ‘वाटर’, तेलुगु में ‘नीरु’, तमिल में ‘तन्नीर’, मलयालम में ‘वेल्लम’, रूसी में ‘वदा’ आदि का प्रयोग किया जाता है. विभिन्न भाषाओं में सभी शब्दों में यादृच्छिकता द्रष्टव्य है. आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक सस्यूर ने यादृच्छिकता सिद्धांत का प्रतिपादन किया और कहा कि, “The link between signal and signification is arbitrary. The term arbitrary implies that the signal is unmotivated; that is to say arbitrary in relation to its signification, with which it has no natural connection in reality (de Saussure, 1983).” रवींद्रनाथ श्रावास्त्व (1997 : 58) कहते हैं कि यादृच्छिकता के कारण एक शब्द के लिए भिन्न भिन्न भाषाओं में अलग अलग शब्द पाए जाते हैं. एक भाषा में भी एक शब्द के लिए अनेक पारिभाषिक शब्द पाए जाते हैं.

संरचना द्वैतता : अपनी पुस्तक ‘द स्टडी ऑफ लैंग्वेज’ में जॉर्ज यूल ने कहा कि “Duality is a property of language whereby linguistic forms have two simultaneous levels of sound production and meaning; also called ‘double articulation’.” (George Yule, 2010). भाषा की प्रत्येक इकाई द्विपक्षीय होती है. एक ओर जहाँ इनका निर्माण कुछ निश्चित ध्वनियों के माध्यम से होता है वहीं दूसरी ओर ये इकाइयाँ कुछ विशिष्ट अर्थ प्रकट करती हैं.

सृजनात्मकता : मानव भाषा और मानवेतर भाषा को अलगाने की दृष्टि से चॉमस्की ने सृजनात्मकता को आधार बनाया. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वक्ता आवश्यकतानुसार भाषा में नए शब्द और वाक्यों का सृजन करता है.

लचीलापन : लचीलेपन को भाषा की जीवंतता का कारण तथा उसकी शक्ति माना जा सकता है.

भाषा और भाषाविज्ञान


भाषाविज्ञान भाषा का ही वैज्ञानिक अध्ययन है। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा क्या है? उसका विकास और परिवर्तन कैसे और क्यों होता है? उसके क्या कारण हैं? आदि। अर्थात भाषाविज्ञान भाषा संबंधी सभी प्रश्नों एवं समस्याओँ का निदान करता है। भाषाविज्ञान से संबंधित पहलुओं पर विचार करने से पूर्व भाषा क्या है? भाषा की परिभाषा क्या है? भाषा के क्या लक्षण हैं? भाषा और अभिव्यक्ति का क्या अंतःसंबंध है? आदि प्रश्नों पर विचार करना समीचीन होगा। सबसे पहले मानवेतर और मानव संप्रेषण पर विचार करेंगे। 

मानवेतर और मानव संप्रेषण

भाषा संप्रेषण का सशक्त साधन है। वह केवल विचार-विनिमय का साधन मात्र नहीं है अपितु मनुष्य का अस्तित्व इसके माध्यम से ही सिद्ध होता है। भाषा के अभाव में मनुष्य केवल जैविक जंतु (बायोलोजिकल ऑर्गानिज्म) है। भाषा ही वह साधन है जो मनुष्य को इस समाज से जोड़कर उसे समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करता है। 
भाषा क्या है? इस पर विचार करने से पूर्व ‘भाषा’ शब्द की व्युत्पत्ति पर ध्यान देना आवश्यक है। ‘भाषा’ शब्द संस्कृत की धातु ‘भाष’ से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना। इस दृष्टि से ‘जो बोला जाए वह भाषा है।’ संसार के प्रायः सभी प्राणी बोलते तो हैं। प्रत्येक जीवधारी गाय, कुत्ता, बिल्ली, बंदर आदि परस्पर भावों के आदान-प्रदान हेतु किसी-न-किसी प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। ‘रामचरितमानस’ में खग भाषा का उल्लेख है – समुझै खग खग ही कै भाषा। पशु-पक्षियों की भाषा का अध्ययन करने वालों का मत है कि मनोदशा के अनुसार पशु-पक्षियों की ध्वनियाँ परिवर्तित हो जाते हैं। लेकिन भाषाविज्ञान की दृष्टि से उनके विचार-विनिमय को भाषा की संज्ञा नहीं दी जाती। 

भाषाविज्ञान में मानव के मुख से उच्चरित ध्वनि व्यवस्था को ही ‘भाषा’ की संज्ञा दी जाती है। मनुष्य कभी कभी आँख, हाथ, सिर आदि का प्रयोग करके अपना काम संकेतों से चलाता है। इसे सांकेतिक भाषा, इंगित भाषा अथवा आंगिक भाषा कहा जाता है। मनुष्य कई प्रकार के संकेत चिह्नों से भी काम चलाता है। चौराहे की बत्तियाँ, रेलवे गार्ड की झंडियाँ, झंडे का रंग, मोर्स कोड, कूट भाषा, सिक्के, राष्ट्रध्वज, विवाह में निमंत्रण के लिए हल्दी-सुपारी बाँटना आदि भी सांकेतिक भाषा के अंतर्गत ही आते हैं। सभ्यता और संस्कृति के अनेक उपादान प्रतीकात्मक होते हैं; जैसे – दाड़ी, पगड़ी आदि। स्वस्तिका, ईद का चाँद, क्रॉस आदि धार्मिक प्रतीक हैं तो × √ ∑ + = आदि गणित के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के बिना मनुष्य का जीवन यापन कठिन है। ये सारे प्रतीक सूक्ष्म संकेतात्मक और ध्वन्यात्मक हैं लेकिन भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन्हें भाषा नहीं कहा जा सकता। 

स्मरणीय है कि मानव भाषा केवल सांकेतिक न होकर लिखित है। अतः मनुष्य के भावों, विचारों और अभिप्रेत अर्थों को अभिव्यक्त करने का ध्वनि प्रतीकमय साधन भाषा है। भाषाविज्ञान में भाषा के इसी रूप का अध्ययन किया जाता है। भाषा शब्द का प्रयोग कृत्रिम भाषा के लिए भी होता है। कृत्रिम भाषा उसे कहते हैं जिसे मनुष्य अपनी सुविधा या उद्देश्य से गढ़ लेते हैं. वस्तुतः कृतिम भाषा का प्रयोग उस भाषा के लिए किया जाता है जो सहज न होकर तोड़ी-मरोड़ी जाती है. देवेंद्रनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘भाषाविज्ञान की भूमिका’ में कृत्रिम भाषा को अंतरराष्ट्रीय भाषा की संज्ञा दी है और कहा है कि “भाषा भेद जनित असुविधाओं को दूर कर अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए एक सामान्य भाषा प्रस्तुत करना ही कृत्रिम भाषा के आविष्कार का उद्देश्य है। अतः चाहें तो कृत्रिम भाषा को अंतरराष्ट्रीय भाषा भी कह सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विगत दो शताब्दियों में सैकड़ों भाषाएँ बनाई गईं। किंतु उनमें अधिकतर उत्पत्ति के साथ ही गतायु हो गईं।” (देवेंद्रनाथ शर्मा, (2008), पृ. 52)। इस प्रकार की भाषा का प्रमुख उदाहरण है एस्पेरांतो नाम की भाषा. कृत्रिम भाषा प्रयोग में कुछ समस्याएँ उत्पन्न होती हैं क्योंकि कृत्रिम भाषा दैनिक व्यवहार के लिए उपयुक्त कामचलाऊ भाषा है। अतः इसमें न ही गंभीर आलोचना संभव है न ही साहित्य रचना। 

मानवेतर और मानव भाषा के संबंध में प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक चार्ल्स हॉकेट (1960) ने अपना आलेख ‘द ऑरिजिन ऑफ द लैंग्वेज’ में विचार प्रस्तुत किए। उनका कहना है कि “man is the only animal that can communicate by means of abstract symbols. Yet this ability shares many features with communication in other animals, and has arisen from these more primitive systems.” उन्होंने मानवेतर एवं मानव भाषा की तुलना सृजनात्मक यादृच्छिकता तथा द्वैतता के आधार पर की. इसके लिए उन्होंने 13 आधारों को कसौटियों के रूप में प्रयोग किया जो निम्नलिखित हैं –
             Vocal-auditory channel (मौखिक श्रव्यता): मानव भाषा मुँह से बोली जाती है और कान से सुनी जाती है। यह मौखिक-श्रव्य सरणि है। भाषा की लिखित-पठित सरणि का आधार भी यही है। 

            Broadcast transmission (प्रसारण संचरण) and directional reception (दिशात्मक अभिग्रहण): जब मानव मुख से ध्वनियाँ निकलती हैं तो ध्वनि तरंग सभी दिशाओं में संचरण करता है तथा सुनने वाले श्रोता का ध्यान भी उसी दिशा की ओर जाता है.

            Rapid fading (Transitoriness) (अनित्यता): नाम से स्पष्ट है कि ध्वनि अल्पकालिक है. कहने का आशय है कि ध्वनि मुँह से निकलने के बाद लुप्त हो जाती है। कहने का आशय है कि जैसे ही वक्ता बात करना बंद कर देता है तो ध्वनि तरंगे रुख जाती हैं। 

Interchangeability (परिवर्तनीयता) : मनुष्य जब संदेश को संप्रेषित करता है तो वह वक्ता की भूमिका में होता है और वह जब संदेश के ग्रहण करता है तो श्रोता की भूमिका में होता है. अर्थात वक्ता-श्रोता की भूमिकाएँ आपस में परिवर्तनशील हैं। 

         Total feed back (पूर्ण प्रतिक्रया): वक्ता अपने वक्तव्य को सुनकर यदि उसमें कोई कमियाँ निहित हैं तो उनका निराकरण कर सकता है। अनुतान, बालाघात आदि की सहायता से वह बोलने की पद्धति को बदल सकता है। 


        Specialization (विशेषीकरण): भाषिक संकेतों के माध्यम संप्रेषण संभव होता है। संकेतों के माध्यम से मौखिक भाषा को विशेषीकृत किया जाता है ताकि श्रोता संदेश को गरहन कर सके। 

Semanticity (आर्थीयता)
Arbitrariness (यादृच्छिकता)
Discreteness (विविकत्ता)
Displacement (अंतरणता)
Productivity (उत्पादनशीलता)
Traditional transmission (परंपरागत प्रेषण)
Duality of patterning (अभिरचनात्मक द्वैतता)

इनमें से ज्यादातर प्रवृत्तियाँ मानवेतर प्राणियों की भाषा में दिखाई देती हैं लेकिन कुछ कुछ प्रवृत्तियाँ सिर्फ मानव भाषा में ही उपलब्ध होती हैं। 

हॉकेट : मानवेतर और मानव भाषा के आधार

इसी तरह मैकनील (1972, हार्पर) ने ‘Aquisition of Language’ में यह स्पष्ट किया है कि संरचनात्मक दृष्टि से मानव भाषा में योजना व्यवस्था होती है अर्थात विभिन्न ध्वनियों के संयोजन से शब्द, वाक्य आदि का निर्माण होता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि प्रकार्यात्मकता के आधार पर वस्तु, भाव एवं घटना को संकेत करने के प्रकार्य होते हैं। चॉमस्की (1966) ने अपनी पुस्तक ‘कार्टीसियन लिंग्विस्टिक्स’ में मानवेतर एवं मानव भाषा के बीच निहित भेद को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने यह कहा कि मानव भाषा के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त करता है जबकि मानवेतर प्राणी में इस शक्ति का अभाव है। उनका मत है कि “Language acquisition is a matter of growth and maturation of relatively fixed capacities, under appropriate external conditions.” मानव भाषा में किसी भी अज्ञात या नए-नए संदर्भों को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है जबकि मानवेतर भाषा में नहीं होती। 

मानवेतर और मानव भाषा के बीच निहित भेद को स्पष्ट करते हुए जॉन लयोंस (1991, पृ. 2) ने कहा कि “A Human Language is one that is attested as being used (or as having been used in the past) by human beings; and a non-human language is one that is (or has been) used by any non-human being (either an animal or a machine).” इससे यह स्पष्ट होता है कि भाषाविज्ञान का विषय ‘मानव भाषा’ है। भाषा एक सामाजिक प्रक्रिया है (सोशल फिनोमिना)। वक्ता और श्रोता के बीच विचार-विनिमय का साधन है भाषा। अर्थात वक्ता-श्रोता के बीच भाषा मौखिक व्यवहार का साधन है। भाषा मनुष्य के मुख से उच्चरित वह सार्थक ध्वनि समूह है जिसका विश्लेषण और अध्ययन भाषाविज्ञान में किया जाता है। 

संदर्भ
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शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता : प्रवीण प्रणव



परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता

- प्रवीण प्रणव

बशीर बद्र का बहुत मकबूल शेर है "परखना मत परखने में
कोई अपना नहीं रहता/ किसी भी आइने में देर तक चेहरा नहीं रहता।/ बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना/ जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता।" हालांकि एक सत्य यह भी है कि बिना परख किए अपनेपन की पहचान नहीं हो सकती। समुद्र मंथन के बाद ही यह संभव है कि हम विष और अमृत को अलग कर सकें और और उनकी तासीर की पहचान भी। यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली ने 'परख और पहचान' (2022) शीर्षक से लेखिका गुर्रमकोंडा नीरजा (1975) की किताब प्रकाशित की है जिसमें छह खंडों में पैंतीस लेख संकलित हैं। किताब का कलेवर बहुत आकर्षक है और किताब के पन्ने और इसकी छपाई उत्तम है। प्रकाशक इस किताब को इस रूप में प्रकाशित करने के लिए बधाई के पात्र हैं। हालांकि 204 पृष्ठ की इस किताब (सजिल्द) का मूल्य 595/- रुपये रखा गया है जो एक आम पाठक के लिए ज्यादा है। इस किताब को पेपरबैक संस्करण में भी प्रकाशित कर इसे आम पाठकों के लिए कम मूल्य पर उपलब्ध करवाया जा सकता है।

किसी और की परख करने से पहले अपनी परख आवश्यक है। लेखिका 'पुरोवाक्' में ही स्पष्ट कर देती हैं कि “छह खंडों में आपके सामने उपस्थित हो रही यह पुस्तक योजना बनाकर नहीं लिखी गई है, बल्कि समय-समय पर अलग-अलग प्रयोजन से लिखे गए छोटे-बड़े आलेखों को एक गुलदस्ते में सजाकर रख दिया गया है। इसलिए इन आलेखों के प्रतिपाद्य विषयों में एकसूत्रता न मिलना स्वाभाविक है। हाँ, विविधता मिलेगी।“ इस स्पष्टवादिता के कुछ नुकसान तो होंगे लेकिन पाठकों की अपेक्षाओं को यह सही दिशा देगी।

किताब का खंड एक कवि और कविताओं को समर्पित है। इस खंड में नौ लेख हैं जिनमें रसलीन, बालमुकुंद गुप्त, भगवतीचरण वर्मा, मुक्तिबोध, नरेश मेहता और रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सारगर्भित लेख तो हैं ही, समकालीन कविता के सहयात्रियों जैसे अहिल्या मिश्र, ऋषभदेव शर्मा और ईश्वर करुण के व्यक्तित्व और कृतित्व से भी पाठकों का परिचय करवाया गया है।

‘आख्यान की बुनावट’ शीर्षक खंड दो में पाँच आलेख हैं जिनमें ‘शमशेर की कहानियाँ’ और ‘श्रीलाल शुक्ल का व्यंग्य’ विशेष रूप से पठनीय है। ‘अर्थ की खोज’ शीर्षक तीसरे खंड में दो लेख हैं जिनमें आलोचक के तौर पर आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी और परमानंद श्रीवास्तव के आलोचना कर्म और इसी बहाने हिंदी साहित्य में आलोचना के महत्व पर महत्वपूर्ण चर्चा की गई है।

बारह आलेखों से युक्त चौथे खंड का शीर्षक है ‘स्मरण और संदर्शन’। यह खंड विशेष है और इन्हें पढ़ते हुए स्मृति में कई संस्मरण जीवंत हो उठते हैं। खंड में हमारी कई धरोहरों जैसे - स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी (1909 में गुजराती में लिखी गई उनकी पहली पुस्तक 'हिंद स्वराज' के बहाने), अटल बिहारी वाजपेयी, हज़ार चौरासी की माँ के बहाने महाश्वेता देवी, रमणिका गुप्ता, राजेंद्र यादव और डॉ. धर्मवीर पर अच्छे लेख हैं। कई ऐसे साहित्यकारों को भी आलेखों के माध्यम से याद किया गया है जो हाल में ही हमसे बिछड़ गए। जगदीश सुधाकर, शशि नारायण 'स्वाधीन', मृदुला सिन्हा और मंगलेश डबराल पर आधारित आलेख इनमें शामिल हैं। विश्व साहित्य में वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड (1967) के माध्यम से अपना नाम दर्ज कराने वाले साहित्यकार गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ उर्फ़ गाबो, जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला, को स्मरण करते हुए एक लेख उनके नाम भी है। साहित्यकारों से संबंधित जानकारी में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह किताब इस खंड की वजह से विशेष रूप से संग्रहणीय है।

‘भारतीय साहित्य का क्षितिज’ शीर्षक से खंड पाँच में चार लेख संकलित हैं। दो लेख तमिल भाषा के योगदान से संबंधित हैं और दो कवींद्र रवींद्र नाथ ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हैं। तमिल भाषा का बहुत पुराना और बहुत समृद्ध इतिहास है। अनेक साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने अनुवाद के माध्यम से तमिल और हिंदी भाषा-समाजों के बीच पुल का काम किया है। कई तमिल साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने हिंदी में मौलिक लेखन कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। इस किताब के लेख पाठकों के लिए इन मायनों में महत्वपूर्ण होंगे कि इनसे तमिल साहित्य और साहित्यकारों की एक संक्षिप्त जानकारी मिलती है। गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। इस किताब में भी दो लेख संकलित हैं जो गुरुदेव के बारे में सरल, सहज, और रोचक तरीके से पाठकों तक महत्वपूर्ण जानकारी पहुंचाते हैं।

किताब का आखिरी खंड ‘संचार की शक्ति’ है जिसमें तीन लेख हैं। खंड का पहला लेख ‘चाँद का फाँसी अंक’ पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक है। 'चाँद' पत्रिका का गौरवशाली इतिहास रहा है। रामरख सिंह सहगल और महादेवी वर्मा जैसी हस्तियाँ इस पत्रिका की संपादक रही हैं। 1928 नवंबर में 'चाँद' पत्रिका का ‘फाँसी’ अंक प्रकाशित हुआ था। लेखिका ने पत्रिका के इसी अंक पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए अपनी बात रखी है। ‘फाँसी’ के पक्ष और विपक्ष में चर्चा वर्षों से होती आ रही है। फाँसी की सजा को अमानवीय और क्रूर मानते हुए कई देशों ने इसे प्रतिबंधित भी किया है। कहा जाता है कि अब तक 600 से भी अधिक तरीके/ यंत्र ईजाद किए गए हैं फाँसी देने के लिए। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस तरह क्रांति में भाग लेने वालों को फाँसी की सजा दी गई, वैसे में यह अंक बहुत महत्वपूर्ण है। इस अंक में हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ कुछ नहीं लिखा गया लेकिन प्रकाशित सामग्री को भड़काऊ मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने 'चाँद: पत्रिका के इस अंक को जब्त कर लिया था। रोचक तथ्य यह भी है कि पत्रिका में शहीद भगत सिंह ने छद्म नाम से कई लेख लिखे थे। पत्रिका के इस विशेषांक के बारे में लेखिका नीरजा ने संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित लेख लिखा है जो पाठकों को इस पत्रिका के बारे में खोज-पड़ताल करने के लिए प्रेरित करेगा। इस खंड के अन्य लेखों में मीडिया का महत्व, मीडिया पर बढ़ता बाज़ार का दबाव और राजनीतिक साँठ-गाँठ की वजह से मीडिया की गिरती साख जैसे कई महत्वपूर्ण विषयों पर लेखिका की पैनी नज़र गई है और उनकी कलम चली है।

‘परख और पहचान’ के लेखों को पढ़ते हुए कई चेहरे और कई कृतियाँ स्मृति के झरोखों में आती-जाती रहती हैं। इन शख्सियतों में से कई के साथ व्यक्तिगत और कई के साथ साहित्यिक राब्ता, पाठकों का होगा ही। ऐसे में इनसे जुड़ी सूचनाओंऔर जानकारियों को समेटे इस संग्रह के लेख पाठकों को प्रिय लगेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। अकबर इलाहाबादी ने कहा था- "बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है/ तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता।" लेकिन "परख और पहचान" को पढ़ने के बाद पाठक इसमें संगृहीत साहित्यकारों को इस कदर समझ सकेंगे कि वे दिल में भी आ बसें और उनकी कृति समझ में भी आए।

प्रवीण प्रणव
सीनियर डायरेक्टर, माइक्रोसॉफ्ट, हैदराबाद
praveen.pranav@gmail.com