शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता : प्रवीण प्रणव



परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता

- प्रवीण प्रणव

बशीर बद्र का बहुत मकबूल शेर है "परखना मत परखने में
कोई अपना नहीं रहता/ किसी भी आइने में देर तक चेहरा नहीं रहता।/ बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना/ जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता।" हालांकि एक सत्य यह भी है कि बिना परख किए अपनेपन की पहचान नहीं हो सकती। समुद्र मंथन के बाद ही यह संभव है कि हम विष और अमृत को अलग कर सकें और और उनकी तासीर की पहचान भी। यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली ने 'परख और पहचान' (2022) शीर्षक से लेखिका गुर्रमकोंडा नीरजा (1975) की किताब प्रकाशित की है जिसमें छह खंडों में पैंतीस लेख संकलित हैं। किताब का कलेवर बहुत आकर्षक है और किताब के पन्ने और इसकी छपाई उत्तम है। प्रकाशक इस किताब को इस रूप में प्रकाशित करने के लिए बधाई के पात्र हैं। हालांकि 204 पृष्ठ की इस किताब (सजिल्द) का मूल्य 595/- रुपये रखा गया है जो एक आम पाठक के लिए ज्यादा है। इस किताब को पेपरबैक संस्करण में भी प्रकाशित कर इसे आम पाठकों के लिए कम मूल्य पर उपलब्ध करवाया जा सकता है।

किसी और की परख करने से पहले अपनी परख आवश्यक है। लेखिका 'पुरोवाक्' में ही स्पष्ट कर देती हैं कि “छह खंडों में आपके सामने उपस्थित हो रही यह पुस्तक योजना बनाकर नहीं लिखी गई है, बल्कि समय-समय पर अलग-अलग प्रयोजन से लिखे गए छोटे-बड़े आलेखों को एक गुलदस्ते में सजाकर रख दिया गया है। इसलिए इन आलेखों के प्रतिपाद्य विषयों में एकसूत्रता न मिलना स्वाभाविक है। हाँ, विविधता मिलेगी।“ इस स्पष्टवादिता के कुछ नुकसान तो होंगे लेकिन पाठकों की अपेक्षाओं को यह सही दिशा देगी।

किताब का खंड एक कवि और कविताओं को समर्पित है। इस खंड में नौ लेख हैं जिनमें रसलीन, बालमुकुंद गुप्त, भगवतीचरण वर्मा, मुक्तिबोध, नरेश मेहता और रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सारगर्भित लेख तो हैं ही, समकालीन कविता के सहयात्रियों जैसे अहिल्या मिश्र, ऋषभदेव शर्मा और ईश्वर करुण के व्यक्तित्व और कृतित्व से भी पाठकों का परिचय करवाया गया है।

‘आख्यान की बुनावट’ शीर्षक खंड दो में पाँच आलेख हैं जिनमें ‘शमशेर की कहानियाँ’ और ‘श्रीलाल शुक्ल का व्यंग्य’ विशेष रूप से पठनीय है। ‘अर्थ की खोज’ शीर्षक तीसरे खंड में दो लेख हैं जिनमें आलोचक के तौर पर आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी और परमानंद श्रीवास्तव के आलोचना कर्म और इसी बहाने हिंदी साहित्य में आलोचना के महत्व पर महत्वपूर्ण चर्चा की गई है।

बारह आलेखों से युक्त चौथे खंड का शीर्षक है ‘स्मरण और संदर्शन’। यह खंड विशेष है और इन्हें पढ़ते हुए स्मृति में कई संस्मरण जीवंत हो उठते हैं। खंड में हमारी कई धरोहरों जैसे - स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी (1909 में गुजराती में लिखी गई उनकी पहली पुस्तक 'हिंद स्वराज' के बहाने), अटल बिहारी वाजपेयी, हज़ार चौरासी की माँ के बहाने महाश्वेता देवी, रमणिका गुप्ता, राजेंद्र यादव और डॉ. धर्मवीर पर अच्छे लेख हैं। कई ऐसे साहित्यकारों को भी आलेखों के माध्यम से याद किया गया है जो हाल में ही हमसे बिछड़ गए। जगदीश सुधाकर, शशि नारायण 'स्वाधीन', मृदुला सिन्हा और मंगलेश डबराल पर आधारित आलेख इनमें शामिल हैं। विश्व साहित्य में वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड (1967) के माध्यम से अपना नाम दर्ज कराने वाले साहित्यकार गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ उर्फ़ गाबो, जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला, को स्मरण करते हुए एक लेख उनके नाम भी है। साहित्यकारों से संबंधित जानकारी में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह किताब इस खंड की वजह से विशेष रूप से संग्रहणीय है।

‘भारतीय साहित्य का क्षितिज’ शीर्षक से खंड पाँच में चार लेख संकलित हैं। दो लेख तमिल भाषा के योगदान से संबंधित हैं और दो कवींद्र रवींद्र नाथ ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हैं। तमिल भाषा का बहुत पुराना और बहुत समृद्ध इतिहास है। अनेक साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने अनुवाद के माध्यम से तमिल और हिंदी भाषा-समाजों के बीच पुल का काम किया है। कई तमिल साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने हिंदी में मौलिक लेखन कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। इस किताब के लेख पाठकों के लिए इन मायनों में महत्वपूर्ण होंगे कि इनसे तमिल साहित्य और साहित्यकारों की एक संक्षिप्त जानकारी मिलती है। गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। इस किताब में भी दो लेख संकलित हैं जो गुरुदेव के बारे में सरल, सहज, और रोचक तरीके से पाठकों तक महत्वपूर्ण जानकारी पहुंचाते हैं।

किताब का आखिरी खंड ‘संचार की शक्ति’ है जिसमें तीन लेख हैं। खंड का पहला लेख ‘चाँद का फाँसी अंक’ पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक है। 'चाँद' पत्रिका का गौरवशाली इतिहास रहा है। रामरख सिंह सहगल और महादेवी वर्मा जैसी हस्तियाँ इस पत्रिका की संपादक रही हैं। 1928 नवंबर में 'चाँद' पत्रिका का ‘फाँसी’ अंक प्रकाशित हुआ था। लेखिका ने पत्रिका के इसी अंक पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए अपनी बात रखी है। ‘फाँसी’ के पक्ष और विपक्ष में चर्चा वर्षों से होती आ रही है। फाँसी की सजा को अमानवीय और क्रूर मानते हुए कई देशों ने इसे प्रतिबंधित भी किया है। कहा जाता है कि अब तक 600 से भी अधिक तरीके/ यंत्र ईजाद किए गए हैं फाँसी देने के लिए। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस तरह क्रांति में भाग लेने वालों को फाँसी की सजा दी गई, वैसे में यह अंक बहुत महत्वपूर्ण है। इस अंक में हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ कुछ नहीं लिखा गया लेकिन प्रकाशित सामग्री को भड़काऊ मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने 'चाँद: पत्रिका के इस अंक को जब्त कर लिया था। रोचक तथ्य यह भी है कि पत्रिका में शहीद भगत सिंह ने छद्म नाम से कई लेख लिखे थे। पत्रिका के इस विशेषांक के बारे में लेखिका नीरजा ने संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित लेख लिखा है जो पाठकों को इस पत्रिका के बारे में खोज-पड़ताल करने के लिए प्रेरित करेगा। इस खंड के अन्य लेखों में मीडिया का महत्व, मीडिया पर बढ़ता बाज़ार का दबाव और राजनीतिक साँठ-गाँठ की वजह से मीडिया की गिरती साख जैसे कई महत्वपूर्ण विषयों पर लेखिका की पैनी नज़र गई है और उनकी कलम चली है।

‘परख और पहचान’ के लेखों को पढ़ते हुए कई चेहरे और कई कृतियाँ स्मृति के झरोखों में आती-जाती रहती हैं। इन शख्सियतों में से कई के साथ व्यक्तिगत और कई के साथ साहित्यिक राब्ता, पाठकों का होगा ही। ऐसे में इनसे जुड़ी सूचनाओंऔर जानकारियों को समेटे इस संग्रह के लेख पाठकों को प्रिय लगेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। अकबर इलाहाबादी ने कहा था- "बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है/ तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता।" लेकिन "परख और पहचान" को पढ़ने के बाद पाठक इसमें संगृहीत साहित्यकारों को इस कदर समझ सकेंगे कि वे दिल में भी आ बसें और उनकी कृति समझ में भी आए।

प्रवीण प्रणव
सीनियर डायरेक्टर, माइक्रोसॉफ्ट, हैदराबाद
praveen.pranav@gmail.com

बुधवार, 22 मार्च 2023

बिन पानी सब सून...



औद्योगीकरण के कारण देशों का विकास हो रहा है। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची! विकास के अंधाधुंध में मनुष्य ने प्रकृति से छेड़छाड़ की। परिणामस्वरूप आज स्वच्छ वातावरण का अभाव है। प्रदूषण का दैत्य मुँह बाये खड़ा है। हवाएँ जहरीली हो चुकी हैं। इन जहरीली हवाओं के कारण आकाश भी मैला हो चुका है। पृथ्वी और जल भी प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं। हम सब जल संकट से जूझ रहे हैं। इसीलिए प्रति वर्ष 22 मार्च को 'विश्व जल दिवस' मनाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य है जल के महत्व को उजागर करना।

विश्व के हर नागरिक को पानी के महत्व को समझाने के लिए ही संयुक्त राष्ट्र ने ‘विश्व जल दिवस’ मनाने की शुरूआत 1992 में की थी। 1993 को पहली बार 22 मार्च के दिन पूरे विश्व में 'जल दिवस' के अवसर पर जल के संरक्षण पर जागरूकता फैलाने का कार्य आरंभ किया गया। हर वर्ष इसकी एक थीम होती है। जैसे शहर के लिए जल (1993), हमारे जल संसाधनों की देखभाल करना हर किसी का कार्य है (1994), महिला और जल (1995), प्यासे शहरों के लिए पानी (1996), विश्व का जल : क्या पर्याप्त है (1997), भूमि जल - अदृश्य संसाधन (1998), हर कोई प्रवाह की ओर जी रहा है (1999), 21वीं सदी के लिए पानी (2000), जल और दीर्घकालिक विकास (2015), जल और नौकरियाँ (2016), अपशिष्ट जल (2017), जल के लिए प्रकृति के आधार पर समाधान (2018), किसी को पीछे नहीं छोड़ना (2019), जल और जलवायु परिवर्तन (2020), पानी का महत्व (2021), भूजल : अदृश्य को दृश्यमान बनाना (2022)। और विश्व जल दिवस 2023 की थीम है ‘अक्सेलरेटिंग चेंज’ अर्थात परिवर्तन में तेजी। विश्व जल दिवस सिर्फ एक औपचारिकता भर न रह जाए। इसके लिए हमें हर दिन पानी बचाने के लिए संकल्प लेना होगा और उस पर अटल रहना होगा।

पृथ्वी की 71% सतह जल से आच्छादित है। लेकिन पीने योग्य पानी की मात्रा बहुत ही कम है। आजकल पानी भी बंद बोतल में बिक रहा है। जल संरक्षण आज की जरूरत है। जल संकट की समस्या की ओर अनेक साहित्यकारों ने भी समय-समय पर ध्यान आकृष्ट किया है। एकांत श्रीवास्तव कहते हैं कि ‘जब वह जीवन और समाज के लिए संकट बनकर आती है - कभी भूकंप तो कभी बाढ़ के रूप में - तब आतंकित करती है।’ (पानी भीतर फूल, पृ.62)। ‘बाढ़ के कारण खाने के लाले पड़ गए हैं’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.40), ‘यहाँ आती है बाढ़, आती है महामारी, आती है भूख, ..... आती है, ... डॉक्टर क्यों आएगा?’ (रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, पृ.166)। बाढ़ पूरे गाँव को लील जाता है – ‘बेतवा में जो उफान आया वह न जाने कितने गाँव के गाँव लील गया।’ (वीरेंद्र जैन, डूब, पृ. 204)। बाढ़ का मार्मिक चित्र देखें – ‘रात के पिछले पहर में आंधी की सी हरहराहट गाँव में गरज उठी। आखिर वही हुआ जो होना था। पड़ोसी गाँव के लोगों ने रात को बाँध काट दिया क्योंकि इधर का पानी उधर फैल रहा था। घुर-घुर-घुर-घुर पानी की धारा गहरी में गिर रही है। गड़ही और खेत देखते-देखते एक हो गए। गाँव के चारों ओर छाती भर पानी घहरा उठा। पानी ही पानी। आदिगंत सफेद-सफेद फेन फैल रहा था। राप्ती और गोरा एक हो गए। ह-ह-ह-हास – ह-ह-ह-ह-हास – भेड़िया उछल रही है। तेज पुरवा हुहुकार रही है। ऊपर से पानी बरस रहा है और बाढ़ की ऊँची-ऊँची तरंगें हहास-हहास गरज रही हैं। किसान नदी-नालों को पार कर दूर-दूर के खेतों तक जा रहे हैं और फसलों को उखाड़-उखाड़ कर पशुओं के लिए ला रहे हैं। साँप, पशु, पक्षी और मुर्दे आदमी बहे जा रहे हैं।’ (रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, पृ.10)। इससे गंदगी फैल जाती है। सब कुछ नष्ट हो जाता है। “खेतों में बाढ़ का हाहाकार तड़पा था, इन्हीं खेतों से होकर कितनी लाशें बही थीं। बाढ़ इन खेतों की फसलें छीन कर इनमें बालू झोंक गई थी, इनके ऊपर तान गई थी रिक्तता का खाली आकाश।’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.76)। इतना होने के बावजूद किसान आशा नहीं छोड़ते। ‘खेत बोये जा रहे थे – यह समझते हुए भी कि बाढ़ आएगी, सब डूब जाएगा, फिर भी खेत बोये जा रहे थे। गरीब किसान अपने खेत के अन्न को बेच-बाच गए। बीज खरीद रहे थे – उन खेतों में डालने के लिए जहाँ बाढ़ आएगी, सब कुछ लूट ले जाएगी... फिर भी एक आशा थी, भविष्य के प्रति एक आस्था थी, जो उन्हें बीज बोने के लिए प्रेरित कर रही थी। सदियों से इनकी यह जिजीविषा इन्हें जीवन देती आई है, नहीं तो न जाने कब के खत्म हो गए होते।’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.159)। (हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह/ एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।/ नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,/ एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन – कामायनी, चिंता सर्ग)। पानी में घिरे हुए लोग किसी से कुछ प्रार्थना नहीं करते बल्कि ‘वे पूरे विश्वास के साथ देखते हैं पानी को/ और एक दिन/ बिना किसी सूचना के/ खच्चर बैल भैंस की पीठ पर/ घर-असबाब लादकर/ चल देते हैं कहीं और।’ (केदारनाथ सिंह, पानी में घिरे हुए लोग)

बाढ़ के कारण चारों ओर पानी ही पानी है लेकिन किसी काम का नहीं। जब अकाल पड़ता है तो भी मानव जीवन तहस-नहस हो जाता है। रांगेय राघव ने बंगाल के अकाल की भीषण त्रासदी को अपनी रिपोर्ताज ‘तूफ़ानों के बीच’ में चित्रित किया है तो रेणु (मैला आँचल), रामधारी सिंह दिवाकर (अकाल संध्या), शिवमूर्ति (आखिरी छलांग), पंकज सुबीर (अकाल के उत्सव), संजीव (फाँस), कमल कुमार (पासवर्ड) आदि अनेक साहित्यकारों ने मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। तेलुगु साहित्य में भी कंदविल्ली साम्बासिव राव (शिक्षा (दंड), पापीकोंडलु,), राजेश्वरी (वरदा – बाढ़), बंडी नारायण स्वामी (शप्तभूमि – श्राप ग्रस्त भूमि) जैसे साहित्यकारों ने इन समस्याओं का मार्मिक चित्र अंकित किया है। सिर्फ उपन्यास, कहानी या रिपोर्ताज ही नहीं बल्कि कविताओं में भी इस समस्या का चित्रण है। हिंदी में केदारनाथ सिंह ने ‘पानी की प्रार्थना’ के माध्यम से पाने के महत्व को रेखांकित किया है तो तेलुगु के प्रसिद्ध कवि एन. गोपि ने ‘जलगीतम’ (जलगीत) के माध्यम से इसका अंकन किया है। संपूर्ण भारतीय साहित्य में बाढ़ और अकाल की समस्याओं को देखा जा सकता है। बिन पानी सब सून।

पानी की समस्या अत्यंत गंभीर समस्या है। सदियों से समाज इससे पीड़ित है। नासिरा शर्मा लिखती हैं – ‘खालिस दूध नहीं मिलता – यह शिकायत तो पुरानी हो चुकी है। नई शिकायत है – खालिस पानी नहीं मिलता है, देखने को। पानी तो दूर, खालिस शब्द की तरह खालिस पानी को भी लोग बोतल में बंद रखेंगे, ताकि उसकी एक दो बूँद सूखे के समय चाटकर अमृत का स्वाद ले सकें। ऐसा दौर जल्दी ही आने वाला है, जब हीरे के मोल पानी मिलेगा और पूँजीपति उसको अपनी तिजोरी में बंद करके रखेंगे, तब डकैतियाँ पानी की बोतल के लिए पड़ेंगी। बैंक के लॉकर टूटे मिलेंगे, केवल खालिस पानी के लिए जिसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में करोड़ों में होगी। यह फैंटसी नहीं, बल्कि आने वाले समय में पानी की दुर्बलता की पूर्व घोषणा है। यह मजाक नहीं बल्कि पानी के बढ़ते महत्व का सच है। यह अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि भविष्य का यथार्थ है’। (कुइयाँजान, पृ. 271)। यह हमारा कर्तव्य है कि इस अनमोल वस्तु को सुरक्षित रखें और धरा का संरक्षण करें।

प्रिय पाठको! पानी की गुहार सुन लीजिए-
                        मेरा मूल्य जानो! मेरी कीमत समझो
                        मुझे प्रदूषित करते
                        फिर शुद्ध करते
                        फिर शुद्ध करते, मुझे
                        दुकान का सौदा मत बनाओ
                        पहले अपने हृदयों को
                        शुद्ध करो।'' (एन. गोपि, जलगीतम, पृ. 103)

शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

विलोम शब्द


विलोम अर्थात उलटा, विपरीत, रीतिविरुद्ध। अतः विलोम शब्द ऐसे शब्दों को कहा जाता है जो एक-दूसरे का विपरीत अर्थ देते हों। उदाहरण के लिए - 

  • अंशकालिक - पूनकालिक                                                           अंशतः - पूर्णतः 
  • अकर्मक - सकर्मक                                                                     अकारण - सकारण 
  • अपयश - यश                                                                             अविश्वास - विश्वास 
  • आरंभ - अंत                                                                               अनुत्तीर्ण - उत्तीर्ण 
  • असंभव - संभव                                                                          अगोचर - गोचर 
  • अग्र - पश्च                                                                                   अचल - चल 
  • अचेतन - चेतन                                                                            अज्ञेय - ज्ञेय 
  • अडिग - अस्थिर                                                                          अतिवृष्टि - अनावृष्टि 
  • अदृश्य - दृश्य                                                                              अद्भुत - सामान्य 
  • अधर्म - धर्म                                                                                 अधिक - थोड़ा 
  • अधीन - स्वतंत्र                                                                             अधूरा - पूरा 
  • अनधिकार - साधिकार                                                                  अभिज्ञ - अनभिज्ञ 
  • अनहोनी - होनी                                                                            आदि - अनादि 
  • अनायास - सायास                                                                         आवरण - अनावरण 
  • आवृत्त - अनावृत्त                                                                           आस्था - अनास्था 
  • अनिवार्य - ऐच्छिक                                                                        अनिश्चित - निश्चित 
  • अग्रज - अनुज                                                                              अनुपयुक्त - उपयुक्त 
  • अनुपस्थित - उपस्थित                                                                   अनैतिक - नैतिक 
  • औपचारिक - अनौपचारिक                                                            अंधकार - प्रकाश 
  • अंतरंग - बहिरंग                                                                            अंतर्मुखी - बहिर्मुखी 
  • अपकार - उपकार                                                                         अपठनीय - पठनीय 
  • अपना - पराया                                                                               अपमान - सम्मान 
  • अपशकुन - शकुन                                                                          अपराध - निरपराध 
  • अपरिचित - परिचित                                                                       अप्रस्तुत - प्रस्तुत 
  • अबला - सबला                                                                               अमानुषिक - मानुषिक 
  • अमीर - गरीब                                                                                 अमृत - विष  
  • अर्थ - अनर्थ                                                                                    अपूर्ण - पूर्ण 
  • अल्पायु - दीर्घायु                                                                              आधुनिक - प्राचीन  

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2023

वस्तुनिष्ठ प्रश्न : हिंदी साहित्य का इतिहास



1. ‘उत्तर अपभ्रंश ही पुरानी हिंदी है’ – यह किसका मत है?

        चंद्रधर शर्मा गुलेरी

2. आदिकाल के प्रथम कवि कौन हैं?

        सरहपाद

3. राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी के प्रथम कवि किसे माना?

        सरहपा

4. ‘पउम चरिउ’ के रचनाकार कौन हैं?

        स्वयंभू

5. ‘आल्हाखंड’ के रचयिता कौन हैं?

        जगनिक

6. आदिकाल को ‘वीरगाथा काल’ नाम किसने दिया?

        रामचंद्र शुक्ल

7. ‘चारण काल’ का दूसरा नाम क्या है?

        आदिकाल

8. आदिकाल को ‘बीजवपन काल’ किसने माना?

        महावीर प्रसाद द्विवेदी

9. प्रथम काल का नामकरण ‘आदिकाल’ किसने किया?

        हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर इसे आदिकाल कहा

10. हिंदी साहित्य के इतिहास को ‘संधि काल एवं चारण काल’ किसने कहा?

        डॉ. रामकुमार वर्मा

11. आचार्य शुक्ल ने किस आधार पर प्रथम काल को वीरगाथा काल कहा?

        ऐतिहासिक सामाजिक वास्तविकता के आधार पर

12. ऐतिहासिकता के आधार पर गरियर्सन ने आदिकाल को क्या कहा?

        चारण काल

13. मिश्रबंधुओं ने आदिकाल को क्या नाम रखा?

        प्रारंभिक काल

14. ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ के रचनाकार कौन हैं?

        शालिभद्र सूरी

15. ‘मैथिल कोकिल’ कौन हैं?

        विद्यापति

16. हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार कौन हैं?

    गार्सां द तासी। ‘इस्त्वार द ल लितरेत्युर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी’ नाम से उन्होंने हिंदी साहित्य का पहला इतिहास फ्रेंच में लिखा है।

17. हिंदी में लिखा गया हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास का नाम बताइए।

        शिवसिंह सेंगर कृत ‘शिवसिंह सरोज’

18. अंग्रेजी में लिखा गया हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास का नाम बताइए।

        सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन कृत ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’

19. चौरासी सिद्धों में आदि सिद्ध कौन हैं?

        सरहपा