गुरुवार, 24 सितंबर 2009

ऋता शुक्ल की कहानियों में सामाजिक जीवन

ऋता शुक्ल की रचनाओं में तिवारीपुर का परिवेश दीखता है. किसी भी रचनाकार के लिए परिवेश से कटकर रहना संभव नहीं होता . अतः ऋता शुक्ल ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने परिवेश में निहित व्यष्टिगत एवं समष्टिगत समस्याओं को उकेरा है और जनमानस को सोचने के लिए मजबूर किया है. प्रेम, विवाह, स्त्री - पुरुष संबंध, व्यक्ति के अंतर्द्वन्द्व, अस्तित्व की रक्षा तथा व्यक्ति मन से संबंधित समस्याओं का चित्र उनक कहानियों में विद्यमान है. इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत समस्याओं से उत्पन्न समष्टिगत समस्याओं के प्रति भी उन्होंने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है. इन्हीं बिन्दुओं को दृष्टिगत रखकर सीताराम राठौड़ (1979) ने अपनी किताब ‘ऋता शुक्ल की कहानियों में सामाजिक जीवन ’ (2009) में ऋता शुक्ल की कहानियों का विवेचन - विश्लेषण किया है जो उनके एम.फिल. लघु शोध प्रबंध जा प्रकाशित रूप है. इस अध्ययन में लेखक ने रिता शुक्ल के चार कहानी संग्रहों को आधार बनाया है - कनिष्ठ उंगली का पाप, कासों कहौं मैं दरदिया, मानुस तन और कायांतरण.

भारतीय समाज पितृसत्तात्मक समाज है. मध्यकाल के प्रतिबंधों के बाद आजादी के संघर्ष में स्त्री को घर से बाहर आने का अवसर मिला. आजादी के बाद उसे वैधानिक अधिकार भी मिले, लेकिन भारत की औसत नारी आज भी सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई ही है. दरअसल भारतीय समाज की विविधता के अनुरूप यहाँ स्त्री की स्थिति के भी अनेक स्तर हैं. एक ओर जहाँ वह अपने हित और हकों से अनभिज्ञ है वहीं दूसरी ओर वह अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी करने लगी है. ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में नारी के इन अनेक रूपों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है . लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि नारी जीवन की विडंबनाओं चित्रण ऋता शुक्ल ने बखूबी किया है. ऋता की कहानियाँ एक ओर नारी की दयनीय स्थिति को उजागर करने में सक्षम हैं तो दूसरी ओर नारी सशक्तीकरण को उजागर करने में. स्त्री समस्याओं के अलावा उनकी कहानियाँ समाज में व्याप्त वर्ग संघर्ष, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, लैंगिक भेद, शिक्षण संस्थाओं की अव्यवस्था, कार्यालयों की भ्रष्ट नीति, बाल श्रमिकों की त्रासदी, मध्यवर्गीय मानसिकता और राजनीतिज्ञों की कूटनीति को भी रेखांकित करती हैं.

आज समाज युद्ध और आतंकवाद से त्रस्त है. सांप्रदायिकता की आग में फंसकर मानव जीवन तहस - नहस हो रहा है. मृत्यु भय, अनिश्चित भविष्य, रोजगार की समस्या आदि अनेक विसंगतियों के कारण मानव भयभीत है. ऋता की कहानियाँ मानव जीवन में व्याप्त इस आशा - निराशा, आस्था - अनास्था एवं सुख - दुःख को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं . लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि "ऋता शुक्ल एक सच्ची साहित्यकार हैं, जिन्होंने जीवन के विविध पहलुओं को बड़ी ही बारीकी के साथ अनुभव किया और अपनी कहानियों में उन्हें जागरूकता के साथ चित्रित किया है ."

शोध की मर्यादा का पालन करते हुए सीताराम राठौड़ ने पहले तो लेखिका के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा की है , उसके बाद एक एक अध्याय में उनकी कहानियों में निहित सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन , नारी जीवन और आध्यात्मिक जीवन पर प्रकाश डाला है. आशा है, हिंदी जगत में उनकी इस प्रारम्भिक कृति का यथायोग्य स्वागत होगा. _____________________________________________________

ऋता शुक्ल की कहानियों में सामाजिक जीवन / सीताराम राठौड़ / 2009 / मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2, कंदास्वामी बाग,हनुमान व्यायामशाला की गली,सुलतान बाज़ार,हैदराबाद-500 095 / पृष्ठ - 116 / मूल्य - रु.150 _____________________________________________________


अज्ञेय के निबंध



प्रयोगवाद और नई कविता के विशिष्ट कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय ’ का स्वर अत्यंत वैविध्यपूर्ण है. एक कुशल कवि होने के साथ साथ वे एक सफल उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार और संपादक भी हैं. अज्ञेय मध्यवर्ग की पीड़ा से भली भाँति परिचित हैं. मध्यवर्ग के सपने और आकांक्षाएँ बड़े रंगीन होते हैं, लेकिन चतुर्दिक व्याप्त आर्थिक वैषम्य की दीवारों से टकराकर वे चूर चूर हो जाते हैं.अज्ञेय ने थके -हारे और टूटे हुए मध्यवर्गीय व्यक्ति की पीड़ा को भलीभांति पहचाना है, तभी तो वे लिखते हैं - "दुःख सबको माँजता है / और / चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किंतु / जिनको माँजता है / उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें."
सच्चिदानंद चतुर्वेदी (१९५८) ने अपनी समीक्षाकृति ‘अज्ञेय के निबंध ’ (2009) में यह प्रतिपादित किया है कि अज्ञेय ने अपने साहित्य द्वारा जन मानस के समक्ष संस्कृति का वह रूप प्रस्तुत किया है जो मानव विकास के लिए अत्यंत उपयोगी है. अज्ञेय के साहित्य में प्रतिपादित सांस्कृतिक दृष्टि किसी ‘वाद’ या ‘पूर्वाग्रह’ से ग्रस्त नहीं है . संस्कृति के बारे में उनकी मान्यता है कि "संस्कृति शब्द यों तो बहुत पुराना है, लेकिन जिस अर्थ में हम आधुनिक युग में उसका प्रयोग करते हैं, उस अर्थ में उसका इतिहास बहुत लंबा नहीं है. भारतीय चिंतन धारा में समग्रता की खोज की बात मान लें तो संस्कृति की चेतना की अपनी पड़ताल में परिधि से केंद्र की ओर यात्रा करते हुए बहुत से बाहरी लक्षणों की पड़ताल कर सकते हैं जिनसे हमें भीतरी स्थिति का निदान करने में सहायता मिलेगी."
अज्ञेय ने व्यक्ति, समाज, संस्कृति तथा साहित्य को मानवीय मूल्यों की कसौटी पर ही कसा है. लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि "अज्ञेय ने अपने निबंधों में मूल्यों की बार-बार चर्चा की है क्योंकि उनका मानना था कि मानव ही ऐसा प्राणी है जो मूल्यों की सृष्टि करता है और बाद में उन मूल्यों को अपने जीवन से बड़ा मान लेता है तथा उनकी रक्षा के लिए प्राण भी निछावर कर सकता है."
लेखक ने अपनी पुस्तक में निबंध साहित्य की सैद्धांतिक चर्चा करते हुए अज्ञेय के निबंध साहित्य का विवेचन - विश्लेषण सांस्कृतिक, सामाजिक, मानववादी तथा भाषिक स्तर पर किया है. विषयवस्तु और शैली के आधार पर अज्ञेय के निबंधों का वर्गीकरण किया गया है. लेखक ने अज्ञेय के निबंधों में प्रयुक्त भाषा और शैली की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है. उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि अज्ञेय वस्तुतः पाठकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए कई पद्धतियों का प्रयोग करते हैं. जैसे स्थापना - परिणाम पद्धति, परिणाम - स्थापना पद्धति, प्रश्न पद्धति, खंडन - मंडन पद्धति, गणितीय पद्धति तथा चित्र पद्धति. इन पद्धतियों का सोदाहरण विवेचन भी किया गया है.
अज्ञेय की भाषा स्थिर न होकर गत्यात्मक है. शब्द चयन और शब्द के सही प्रयोग के बारे में स्वयं अज्ञेय की मान्यता है कि "केवल सही शब्द मिल जाएँ तो ! लेखक के नाते और उससे अधिक कवि के नाते मैं अनुभव करता हूँ कि यही समस्या की जड़ है. मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है. भाषा का उपयोग मैं करता हूँ, निस्संदेह लेकिन कवि के नाते जो मैं कहता हूँ, वह भाषा के द्वारा नहीं केवल शब्दों के द्वारा. मेरे लिए यह भेद गहरा महत्व रखता है. भाषा का उपयोग मैं करता हूँ, लेखक के नाते, कवि के नाते और एक साधारण सामाजिक मानव प्राणी के नाते, दूसरे सामाजिक मानव प्राणियों से साधारण व्यवहार के लिए. उसका उपयोग मैं ऐसे ढंग से करना चाहता हूँ कि नए प्राणों से दीप्त हो उठे." लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि अज्ञेय की लिखित भाषा और उच्चरित भाषा में कोई अंतर नहीं दीखता. यह उनकी विशेषता है. अज्ञेय की रचनाओं में कोड मिश्रण और कोड परिवर्तन की संकल्पनाएँ व्यवहारतः सम्मिलित हैं.
लेखक की यह स्थापना महत्वपूर्ण है कि अज्ञेय ने अपने निबंधों के माध्यम से साहित्यालोचना की कई कसौटियाँ निर्धारित की हैं. पहली कसौटी यह है , किसी रचना का मूल्यांकन करने के लिए तत्कालीन युगीन परिवर्तनों के साथ उस रचना के रचनाकार के संबंध को देखना. दूसरी कसौटी है भाषा और तीसरी कसौटी है रचनाकार के मन की परख.
इस प्रकार एक निबंधकार के रूप में अज्ञेय को समझने के लिए डा.सच्चिदानंद चतुर्वेदी की यह कृति अत्यंत उपयोगी है तथा अन्य निबंधकारों की कृतियों के विवेचन के लिए भी इससे दिशा प्राप्त की जा सकती है. _______________________________________________________
_ अज्ञेय के निबंध / सच्चिदानंद चतुर्वेदी / 2009 / मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2, कंदास्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाज़ार, हैदराबाद - 500 095 / पृष्ठ - 188 / मूल्य - रु.225 _______________________________________



शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

मुक्तिबोध के सौंदर्य सिद्धांत



हम जानते हैं कि नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षर गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाएँ पाठकों और आलोचकों के लिए चुनौती हैं. उनकी प्रतीकात्मकता एवं बिंब विधान मौलिक तथा किंचित दुरूह भी है. उनकी रचनाओं में सामाजिक चेतना, लोक मंगल की भावना, सौंदर्यानुभूति तथा जीवन के प्रति व्यापक दृष्टिकोण देखने को मिलता है. डॉ. श्याम राव (1965) ने अपनी किताब मुक्तिबोध के सौंदर्य सिद्धांतों का विवेचन’ (2009) में मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया एवं सौंदर्य सिद्धांतों का संक्षिप्त विवेचन किया है.



मुक्तिबोध पर टॉलस्टॉय और मार्क्स जैसे वामपंथी रचनाकारों का प्रभाव बताया जाता है. मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार संसार में जो कुछ सुंदर तथा श्रेष्ठ है, वह सब मानव श्रम की उपज है. मुक्तिबोध की मान्यता भी यही है कि
"जब मनुष्य को मनुष्य होने के लिए ’श्रम’ का सहरा लेना पड़ता है तो कविता के लिए भी यही सच है."
मुक्तिबोध की कविताओं में आस्था, जीवन की गतिशीलता तथा समष्टि की चेतना का चित्र अंकित है. मानव जीवन की जटिल संवेदनाओं और उसके अंतर्द्वन्द्वों की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के लिए मुक्तिबोध फैंटेसी का कल्पनात्मक प्रयोग करते हैं. लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि
"गजानन माधव मुक्तिबोध का संपूर्ण साहित्य आधुनिक त्रस्त मानवता का आत्मसाक्षात्कार है. वहाँ उनका रचनात्मक एवं शिल्पग्त सौंदर्य नवीन प्रतीकों एवं बिंबों के माध्यम से जीवंत और ज्वलंत हो उठता है. आधुनिक भाव-बोधा एवं काव्य-शिल्प को गंभीर विश्वस्तरीय पहचान उन्होंने प्रदान की है. मुक्तिबोध का कृतित्व उनके व्यापक जीवनानुभव, गंभीर सौंदर्यानुभूति एवं रचनात्मक क्षमता को स्पष्ट कर देता है. आज की प्रगतिवादी काव्यधारा, प्रयोगवादी लेखन एवं नई कविता की फैंटसी को उनकी रचनाओं से दिशा प्राप्त हुई है. सृजन कर्म को मुक्तिबोध सौंदर्य मीमांसा का आधार मानते हैं. यह सीधे जीवनानुभव से संबंधित है. वे जीवनानुभवों के गुणात्मक रीति से परिवर्तन को ही सौंदर्यानुभूति मानते हैं."


"सत्यं, शिवं, सुंदरम" में से सुंदर पर ही विशेष बल दिया जाता है. वास्तव में सौंदर्य मूर्त होता है लेकिन कविता में वह अमूर्त है. आमतौर पर यह प्रश्न उठाया जाता है कि सौंदर्य वस्तुनिष्ठ है या व्यक्तिनिष्ठ. अर्थात सौंदर्य वस्तु का गुण है या द्रष्टा की प्रतीति. सौंदर्य दृष्टि कृति को अपनी विवेचना का केंद्र मानती है. प्रत्यक्षीकरण के द्वारा ही सौंदर्यानुभव संभव होता है. इस संदर्भ में मुक्तिबोध का कथन द्रष्टव्य है -
"सौंदर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशील कल्पना के सहारे, संवेदित अनुभव का विस्तार हो जाए. कलाकार का वास्तविक अनुभव और अनुभव के संवेदनाओं द्वारा प्रेरित फैंटेसी - इन दोनों के बीच कल्पना का एक रोल होता है, वह रोल, वह भूमिका सृजनशील भूमिका है. सौंदर्यानुभव जीवनानुभूति और जीवनानुभव, दोनों की दो विभिन्न कक्षाओं पर पृथक समांतर गति नहीं होती. सौंदर्यानुभूति (ऐस्थेटिक एक्सपीरियन्स) जीवनानुभवों के गुणात्मक रीति से परिवर्तित रूप का नाम है. सौंदर्यानुभव और वास्तविक जीवन जगत से प्राप्त जीवनानुभव, इन दो का सार स्वरूप एक ही है. सौंदर्यानुभव के तत्व जीवन द्वारा, जीवनानुभव द्वारा प्रदत्त होते हैं. किंतु वे, विधायक कल्पना के हाथों निराला रूप धारण करके उद्दीप्त हो उठते हैं."



लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि
"मुक्तिबोध केवल स्त्री सौंदर्य को सौंदर्य की कसौटी नहीं मानते. परंतु रीतिकालीन साहित्य में स्त्री के अंग-प्रत्यंगों का वर्णन खुले रूप में हो चुका है. रीतिकालीन कवि कहीं-कहीं स्त्री के अंगों को चमकता हुआ ‘शीशे’ बनाया तो कहीं शीशे की गोल प्याली. इन चमकते हुए शीशे और प्याली को छायावादी कवियों ने मदिरा से भर दिया. लेकिन मदिरा के शीशे और प्याली को खाली करके वामपंथी कवियों ने उन्हें पसीने से भर दिया. यह वामपंथी सौंदर्यशास्त्र का मूलभूत पहलू है."



मुक्तिबोध की कविताओं में अंतः - बाह्य द्वन्द्व विद्यमान है. उनके लिए कविता मात्र मनोरंजन का साधन न होकर मानव के स्वर्णिम भविष्य निर्माण में सहायक घटक है. उनके लिए काव्य रचना एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है. लेखक ने इस पुस्तक में वामपंथी सौंदर्यशास्त्र की दिशा, सौंदर्यबोध के घटक, मार्क्सवादी दृष्टिकोण, सौंदर्यानुभूति के संबंध में मुक्तिबोध की धारणा, काव्य सत्य और फैंटेसी का संबंध, कला के संबंध में भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टिकोण, साहित्य में वस्तु और रूप के अंतःसंबंध का विवेचन - विश्लेषण किया है जिससे मुक्तिबोध के व्यक्तित्व को समझने में सहायता मिल सकती है.



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* मुक्तिबोध के सौंदर्य सिद्धांतों का विवेचन/डॉ.श्याम राव/2009/मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2, कंदस्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाज़ार, हैदराबाद-500 095/पृष्ठ:133/मूल्य:रु.180/-
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बालशौरि रेड्डी और उनका साहित्य




दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार-प्रसार में वरिष्ठ लेखक बालशौरि रेड्डी का योगदान सराहनीय है. उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, समीक्षा, आलोचना आदि साहित्यिक विधाओं के माध्यम से दक्षिण भारत की संस्कृति को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का काम किया है. मौलिख लेखन के साथ-साथ अनुवादों के माध्यम से भी उन्होंने दक्षिण और उत्तर के भेद को मिटाने का प्रयास किया है. डॉ.जी.मल्लेशम (1959) ने बालशौरि रेड्डी के समग्र साहित्य का अनुशीलन किया है. इसीका परिणाम है उनकी किताब ‘बालशौरि रेड्डी और उनका साहित्य : एक अनुशीलन’ (2008).



भारतीय संस्कृति जड़ न होकर प्रगतिशील रही है और इसका एक सुनिश्चित इतिहास है. भारतीय संस्कृति असांप्रदायिक है और इसमें अखिल भारतीय भावना निहित है. किसी राष्ट्र अथवा देश के सांस्कृतिक विकास में उस राष्ट्र या देश की भाषा, वहाँ का वाङमय, वहाँ का दर्शन तथा वहाँ की ललित कलाएँ अपनी अहम भूमिका निभाति हैं. भारत की संस्कृति तथा सभ्यता अतिप्राचीन है. आवश्यकता इस बात की है कि इसे किशोर वय बालकों तक अवश्य पहुँचाया जाए, साथ ही नव शिक्षित प्रौढ़ों को भी इससे परिचित कराया जाए ताकि वे अपने वर्तमान और भविष्य को सुखद बनाने के लिए दिशा प्राप्त कर सकें. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रेड्डी जी ने आंध्र, तमिलनाडु तथा कर्नाटक राज्यों से संबंधित संस्कृति, सभ्यता आदि की चर्चा अपनी कृतियों में की है.



पाश्चात्य देशों की तुलना में भारत में आज भी बाल साहित्य की कमी है. इस क्षेत्र में बालशौरि रेड्डी का प्रयास सराहनीय है. ‘चंदामामा’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बाल साहित्य लेखन को आगे बढ़ाया. उनकी मान्यता है कि देश का भविष्य बच्चों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास पर ही निर्भर होता है. इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदी पाठकों के लिए ‘तेलुगु की लोक कथाएँ’, ‘आँध्र के महापुरुष’, ‘तेनाली राम के लतीफ़े’, ‘तेनाली राम के नए लतीफ़े’, ‘बुद्धू से बुद्धिमान’, ‘न्याय की कहानियाँ’, ‘तेनाली राम की हास्य कथाएँ’, ‘आदर्श जीवनियाँ’ और ‘आमुक्त माल्यदा’ जैसे बालोपयोगी रचनाएँ कलात्मक रूप से प्रस्तुत की.



लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि बालशौरि रेड्डी एक प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने उपन्यासों, कहानियों, नाटकों आदि के माध्यम से भारतीय समाज की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डाला है और साथ ही उनके निदान हेतु समुचित सुझाव भी प्रस्तुत किए हैं. वस्तुतः आंध्र का इतिहास, उसकी सभ्यता व संस्कृति से हिंदी पाठकों को परिचित कराना ही रेड्डी जी के साहित्य का मुख्य उद्धेश्य रहा है, इस तथ्य को उभारने में यह पुस्तक बड़ी सीमा तक सफल है.


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* बालशौरि रेड्डी और उनका साहित्य : एक अनुशीलन/डॉ.जी.मल्लेशम/2008/मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2 कंदास्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाज़ार, हैदराबाद-500 095/पृष्ठ : 320/मूल्य: रु.375/-
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मंगलवार, 8 सितंबर 2009

प्रयोजनमूलक हिंदी और प्रिंट मीडिया : दैनिक पत्रों का संदर्भ




’केंद्र सरकार अडी़,भ्रष्टाचार में डूबी,पुलिस के हाथ आकर फिसला पहाडी़,चुनाव नहीं लड़ रहे हैं बिहार के कई बाहुबली,मंदी के बावजूद छंटनी से परहेज कर रही कंपनियाँ,अब हलफ़नामे जमा करने की आई सुध’



ये हैं दैनिक समाचार पत्रों की कुछ सुर्खियाँ जो इस व्यवहार क्षेत्र के भाषिक वैशिष्ट्य का जायका देने में समर्थ हैं. वस्तुतः भाषा,संप्रेषण का सशक्त माध्यम है. समाज में भाषा दो तरह से काम करती है. एक : सामान्य संप्रेषण,जिसके माध्यम से लोग बातचीत कर सकें,तर्क प्रस्तुत कर सकें,स्वागत कर सकें,विदाई दे सकें आदि. वास्तव में जो भाषा समुदाय होता है उसके अधिकतर सदस्य सामान्य संप्रेषण की भाषा से ही काम लेते हैं,चाहे वे शिक्षित हों या अशिक्षित अथवा उच्च वर्ग के हो या निम्नवर्ग के. ऐसी भाषा या भाषा के प्रकार्य को समाज भाषाविज्ञान ने ’सामान्य प्रयोजनों की भाषा’(Language for General Purposes / LGP) की संज्ञा दी. अर्थात दैनंदिन जीवन की संप्रेषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति सामान्य संप्रेषण की भाषा करती है. इसमें परिवार,परिवेश,समाज,पूरा देश आते हैं. सामान्य प्रयोजन की भाषा में विविधता होती है. प्रयोक्ता क्षेत्र,सामाजिक वर्ग भेद आदि के अनुसार यह बदलती रहती है. कभी भी सामान्य प्रयोजन की भाषा एकरूपी नहीं होती, यही उसकी सामाजिक स्वीकृति का प्रमाण है. हिंदी को सामान्य प्रयोजन की भाषा के रूप में बहुत लोगों ने स्वीकार किया है. इसका प्रमुख लक्ष्य है-सामान्य संप्रेषण के माध्यम से समाज को जोड़्ना. भाषा का दूसरा प्रकार्य इससे भिन्न है जिसे विशिष्ट प्रयोजन पर आधारित होने के कारण ’प्रयोजनमूलक भाषा’ (Language for Specific / Special Purposes) के रूप में जाना जाता है.



जब भाषा विशिष्ट सामाजिक दायित्वों को पूरा करती है तो वह प्रयोजनमूलक भाषा का रूप धारण करती है. विशेष प्र्योजनों के लिए समाज को विशेष भाषा की जरूरत पड़ती है. अब जरूरत काम सामान्य प्रयोजनों को पूरा करनेवाली सामान्य भाषा से नहीं चलता;उसकी एक सीमा है. अतः जरूरत पड़ने पर समाज प्रयोजनमूलक भाषा क निर्माण करता है. इसका अर्थ यह नहीं है कि सामान्य भाषा का कोई प्रयोजन नहीं है. इसी सामान्य भाषा का आधार लेकर ही प्रयोजनमूलक भाषा को विकसित किया जाता है. अपने ओरयोजन क्षेत्र में प्र्योजनमूलक भाषा एकरूपी होती है. यद्यपि हिंदी के विविध प्रयोजनमूलक भाषा के लिए भी सत्य है.



प्रयोजनमूलक भाषा सायास (Conscious) रूप में विकसित होती है. समयबद्ध ढंग से इसका निर्माण होता है. भारतीय भाषाओं का विकास जो प्रयोजनमूलक भाषाओं के रूप में हुआ है,वह स्वतंत्रता के बाद सायास रूप में कियाअ गया है. प्रयोजनमूलक भाषा का सीधा संबंध विषय क्षेत्र (Domain) से होता है. विषय के अनुरूप प्रयोजनमूलक शैली / बोली में परिवर्तन आ जाता है. इसलिए प्रयोजनमूलक भाषा के वर्ग बनाए गए हैं. कुछ विद्वानों ने यह माना कि इनके केंद्र में ’विषय’(Subject) है तो कुछ लोगों ने ’विषय बिंदु" (Topic) को ज्यादा महत्व दिया और कहा कि वस्तुतः विषय बिंदु के अनुसार प्रयोजनमूलक भाषा का रूप बदलता है.



प्रयोजनमूलक क्षेत्र के अनुसार जो भाषा रूप विकसित होते हैं उन्हें प्रयुक्ति (Register) कहा जाता है. प्रयुक्ति के माध्यम से यह देखने का प्रयास किया जाता है कि भाषा प्रयोक्ता विशिष्ट परिस्थितियों में भाषा की लचीली संभावना के साथ क्या करते हैं. अर्थात किसी निश्चित परिस्थिति में सामाजिक दायित्व के निर्वाह हेतु वक्ता द्वारा प्रयुक्त भाषा शैली ही प्रयुक्ति या रजिस्टर है. प्रायः राजभाषा के रूप में हिंदी की कार्यालय तथा प्रशासन में काम आने वाली प्रयुक्ति की काफी चर्चा की जाती है परंतु केवल कार्यालयीन व प्रशासनिक भाषा या वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा ही प्रयोजनमूलक भाषा नहीं है अपितु साहित्य की भाषा भी एक विशिष्ट प्रयोजन ही है और उसकी भी अनेकानेक प्रयुक्तियाँ व उप-प्रयुक्तियाँ हैं. आधुनिक युग संचार का युग है अतः संचार माध्यमों अथवा पत्रकारिता के प्रयुक्ति कहा जा सकता है. इसमें संदेह नहीं कि लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ के रूप में विख्यात पत्रकारिता के विषय क्षेत्र (Domain) में आश्चर्यजनक विस्तार हुआ है. मनुष्य ज्ञान-विज्ञान की अनेक नवीन उपलब्धियों तथा समसामायिक गतिविधियों के प्रति विशेष जिज्ञासु हो उठा है. अतः तेजी से बदलती हुई परिस्थितियों के साथ ही पत्रकारिता के प्रयोजनों मेंभी वृद्धि हो रही है.



पत्रकारिता आज मात्र राजनीतिक एवं सामाजिक गतिविधियों तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि यह आज अपने को आर्थिक,साहित्यिक,सांस्कृतिक आदि क्रिया-कलापों से भी जोड़ चुकी है और इन विषय क्षेत्रों के साथ-साथ फिल्म,खेल-कूद,स्वास्थ्य,ग्लैमर व फैशन तथा अन्य समस्त सामाजिक विषयों को अपने भीतर समेटे हुए हैं. इन सब उपक्षेत्रों की अपनी-अपनी उप-प्रयुक्तियाँ हैं जो व्यापक रूप से पत्रकारिता की प्रयुक्ति का अंग है.



दैनिक पत्रों में लगभग सभी पहलुओं पर समाचार छपते हैं. जैसा विषय होगा उसमें उसी प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जाता है.



हर भाषिक प्रयुक्ति की अपनी विशेषताएँ होती हैं. हिंदी पत्रकारिता की विविध उप-प्रयुक्तियों में अनेकानेक अंतरराष्ट्रीय शब्दों का प्रयोगा बडी़ मात्रा में किया जा रहा है. पारिभाषिक शब्दावली किसी भी प्रयुक्ति की रीढ़ होती है अतः शब्द चयन व्यापक पाठक वर्ग को ध्यानमें रखकर किया जाता है. उदाहरण के के रूप में, 02 अप्रैल,2009 के ’स्वतंत्र वार्ता’ के मुख पृष्ठ को ही देखें-



"20 शीर्ष आर्थिक शक्तियों ने आज टैक्स हैवन (कर चोरी) के धन की पनाहगाहों को ध्वस्त करने का फैसला करते हुए...तीस के दशक के बाद की सबसे बडी़ मंदी से निपटने के लिए 1100 अरब डालर के नकद पैकेज का ऐलान किया."



इस समाचार में टैक्स हैवन, डालर, पैकेज जैसी अंतरराष्ट्रीय शब्दावली को उनके प्रचलित अंग्रेजी़ रूपों में ही अपनाया गया है और हिंदी की प्रकृति के अनुसार ही उनका लिप्यंतरण किया गया है. संस्कृत, अरबी, फा़रसी शब्दों के साथ-साथ संकर शब्दों का भी प्रयोग किया गया है.



इसी तरह दैनिक पत्रों में अंग्रेजी़ भाषा से अनूदित शब्दों का प्रयोग भी किया जाता है. जैसे- International Monetary Fund के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, Trade Proposal के लिए व्यापार के वित्तपोषण, Free Convertable Money के लिए मुक्त विनिमय मुद्रा आदि. इस प्रकार के शब्द प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली से ही ग्रहण किए जाते हैं.



यदि विषय वैज्ञानिक होगा तो उसमें तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों का अधिक प्रयोग होगा. उदाहरणार्थ-


प्लास्टिक मिनरल वाटर बोतलों में एस्ट्रोजन हार्मोन (स्वतंत्र वार्ता: 05 अपैल,2009)
परावर्तित यीस्ट का प्रयोग (स्वतंत्र वार्ता: 05 अपैल,2009)
मनुष्य के एस्ट्रोजन के लिए एक रिसेप्टर लगाया गया (स्वतंत्र वार्ता: 05 अपैल,2009)
मिनरल वाटर में मिलावट स्वास्थ्य के लिए जोखिम का कारण हो सकता है (स्वतंत्र वार्ता: 05 अपैल,2009)
शरीर की कोशिकाओं में ग्लूकोज के दहन का काम कोशिका के एक विशेष उपांग माइटोकांड्रिया (Mitochondria) में किया जाता है (स्वतंत्र वार्ता:26 मार्च,2009)
चिकन गुनिया... डेंगू... और अब स्वाइन फ्लू का कहर (स्वतंत्र वार्ता: 15 अगस्त,2009)
स्वाइन फ्लू की चपेट में विश्व (स्वतंत्र वार्ता: 15 अगस्त,2009)


यहाँ प्रयुक्त अनेक वैज्ञानिक शब्द लैटिन से अंग्रेज़ी में स्वीकार होकर हिंदी तक आए हैं. पारिभाषिकता के बावजूद समाचार पत्र की भाषा में सरलता और सुबोधता का भी ध्यान रखा जाता है. इसलिए वैज्ञानिक तथ्यों को भी जन सामान्य तक पहुँचाने के लिए दैनिक पत्रों में सहज-सरल भाषा का प्रयोग किया जाता है. दूसरी ओर, विषय सामान्य होने पर भाषा भी सामान्य होगी,लेकिन अपनी प्रस्तुतिगत विशिष्टता के कारण पत्रकारिता भाषा तकनीकी बन जाती है. कुछ शीर्ष पंक्तियाँ और कुछ अभिव्यक्तियाँ देखें-


शीर्ष पंक्तियाँ


पिता के लिए पुत्र सारथी, तो पुत्र के लिए पिता
लोकसभा चुनाव में कई नेताओं व दलों की प्रतिष्ठा दांव पर
नफरत व देश को बाँटने की राजनीति न करे
नोट देकर वोट माँगनेवाले नेता, सावधान रहें मतदाता
चुनाव आयोग के कडे़ तेवर
भारतीय कोच कम नहीं
सफलता के लिए मक्सद जरूरी
ट्वेंटी-20 के ट्रेडमार्क को लेकर जंग
साल्ट का डिफाल्ट
गेंद अब पाकिस्तान के पाले में है
ज्योतिष की सीढ़ी के सहारे चुनावी नैया पार करने की तैयारी
शेयर बाज़ार में तेजड़ियों की मजबूत होती पकड़


अभिव्यक्तियाँ


बंदूकधारी की गोलीबारी /अटूट संबंध बरकरार /पुछल्ले बल्लेबाज /प्रभावशाली गेंदबाज / बल्लेबाजों के तेजतर्रार खेल / पगबाधा आउट /
काले धन के जन्नत / कुर्सी के लिए जीना मरना /चुनावी महासमर /खूफिया मुद्दे /गुमराह करने की कोशिश /दरों में कटौती की घोषणा /
ऊँची छ्लांग /बाज़ार मे तेजी का सिलसिला /सीबीआई की क्लीन चिट /गुमराह करनेवाले विज्ञापन /आतंकवादियों के खिलाफ प्रदर्शन /
भ्रष्टाचार के खात्मे का आह्वान /सनसनीखेज़ खबर /बात धर्मनिरपेक्षता की,व्यवहार सांप्रदायिक राजनीति की /दिन-दहाड़े हत्या



कुछ अभिव्यक्तियों के अवलोकन से यह भी पता चलता है कि आजकल समाचर की भाषा में भी काव्यात्मक प्रयोग दैनिक पत्रों में सहज रूप से पाए जाने लगे हैं क्योंकि दैनिक पत्रों की भाषा में संप्रेषणीयता और परिवर्तनशीलता के साथ-साथ जीवंतता और लचीलापन भी विद्यमान है. पत्रकारिता का संबंध आम जनता से है. अतः अपने पाठक वर्ग को बाँधकर रखने के लिए प्रायः भावपरक भाषा (Emotive Language) का भी प्रयोग किया जाता है. पत्रकारिता की भाषा में अनेकरूप्ता, कोड मिश्रण और शैली भेद भी पाई जाती है जो इस प्रयुक्ति की विशिष्टता है.



दैनिक पत्रों में अनेक प्रयोजनमूलक वर्गों (Functional Categories) को भी देखा जा सकता है. हर एक वर्ग की भाषा विशिष्ट होती है. उदाहरणार्थ, संपादकीय, राजनैतिक समाचार, आर्थिक समाचार, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय एवं स्थानीय समाचार, अपराध समाचार आदि के अतिरिक्त खान-पान की हिंदी,स्वास्थ्य एवं सौंदर्य की हिंदी, बाज़ार की हिंदी, फिल्म की हिंदी, ग्लैमर व फैशन की हिंदी,विज्ञापन की हिंदी आदि विशिष्ट प्रयोजनमूलक वर्ग हैं और इनकी अपनी प्रयुक्तियाँ हैं. हर प्रयुक्ति की अपनी विशिष्ट भाषिक संरचना है. जैसे खान-पान की प्रयुक्ति को ही अगर लें तो इसकी भाषा में विविधता पाई जाती है- उबालें, कूट लें, लपेट कर रोल कर लें, गरम गरम परोसें, बगैर तेल के सुनहरा होने तक भूनें,आटे की लोई बना लें, सेंक लें, फिलिंग के लिए आलू के टुकडों को काट लें, तड़का लगाएँ, मसाला कूट लें, मिश्रण को मिक्सर में पीसें जैसे प्रयोग पाए जाते हैं. इस प्रयुक्ति में अंग्रेज़ी-हिंदी कोड मिश्रण स्वाभाविक रूप से प्रचलित है. इतना ही नहीं सामान्य क्षेत्रीय शब्द इस प्रयुक्ति के विशिष्ट शब्द बन जाते हैं.



इसी तरह
साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्में, पर्सनल ट्रेजडी, यूनिक पॉवर,कैरियर, निर्देशक, कैरेक्टर, डिफरेंट टाइप की फिल्म, किर्दार, रोल प्ले, उम्दा अभिनय, बॉक्स ऑफिस
आदि फिल्म प्रयुक्ति के शब्द हैं. इस क्षेत्र में अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार हैं.



इसी के इलेक्ट्रिक उपकरणों से संबंधित पत्रकारिता की प्रयुक्ति में प्रायः अंतरराष्ट्रीय शब्दों को ही ग्रहण कर लिया गया है. जैसे-
मोबाइल, हैंड सेट, असेसरीज़, बैटरी, इयर फोन, चार्जर, वारंटी कार्ड, फैट रिडक्शन मिशन
आदि. बाज़ार भाव की हिंदी तो अब आमफहम हो गई हैं.
ऊँची छलाँग, बाज़ार में तेजी, बाज़ार में मजबूती दर्ज, सोने में हल्की तेजी, चाँदी स्थिर, सर्राफा बाज़ार में सुस्त गतिविधियाँ, कीमती धातुओं में विशेष उठापटक
आदि बाज़ार प्रयुक्ति की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं तो
शीटॉक्सीफिकेशन प्लान से लुक्स में लाए बदलाव,त्वचा को दे सन प्रोटेक्शन, याद र्खें मैचिंग का फंडा, फैशन के दौर में आभूषणों की कमी नहीं, अपनाइए टिप्स और बन जाइए पार्टी की शान
आदि ग्लैमर व फैशन दुनिया से संबंधित है.



अतः हम यह कह सकते हैं कि राजनैतिक चहल पहल हो या व्यावसायिक गतिविधियाँ, ग्लैमर व फैशन की दुनिया हो या पाक वोद्या - हिंदी दैनिक पत्रों ने इन प्रयोजनमूलक वर्गों को अपने सहज भाषा प्रयोज से समृद्ध बनाया है. इस क्षेत्र में एक साथ विभिन्न प्रयुक्तियाँ एवं इप-प्रयुक्तियाँ विद्यमान है. इनके गठन में अनुवाद का बड़ा हाथ है. जैसे अंतरराष्ट्रीय महत्व के समाचार,खेल-कूद समाचार. सभी भारतीय भाषाएँ इन प्रयुक्तियों को अनुवाद के माध्यम से भी, तथा मौलिक शब्द निर्माण से भी समृद्ध कर रही है.


दिगंबर कवि ज्वालामुखी



"नर-बलि की चीख-पुकार
ओहदों के होठों पर
भयंकर रक्त-स्राव
संसद के मर्यादा को
भंग करती बेकार बहस
जनतंत्र है हँसी-मजाक
खूनी-दस्त."
(पराजित का विद्रोह , ज्वालामुखी)



14 दिसंबर,2008 को तेलुगे के दहकते विप्लव के केसरी,क्रांति की झंकार,सच्चे अर्थों में जनवादी कवि ’ज्वालामुखी’ के नाम से विख्यात आकारम वीरवल्ली राघवाचार्युलु की ’ज्वाला’ सदा के लिए बुझ गई. उनका जन्म 12 अप्रैल,1938 को हुआ था; यानि वे 71 वर्ष के हो चुके थे. उनका इस तरह से यों हमारे बीच से चले जाना तेलुगु साहित्य जगत के लिए एक क्षति है जिसकी पूर्ति करना असंभव है. विप्लव साहित्यांदोलन ने एक आत्मीय मित्र एवं प्रगतिशील कार्यकर्ता को हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया है.


1965 में तेलुगु साहित्य में दिगंबर काव्यांदोलन उभरा. समाज में पनप रहे शोषण,वर्ग विषमता, धोखाधड़ी आदि के प्रति दिगंबर कवियों (ज्वालामुखी,नग्नमुनि,निखिलेश्वर,चेरबंड राजु,भैरवय्या और महास्वप्न) ने आवाज अठाई. दिगंबर काव्यांदोलन की उफनाती तरंग ज्वालामुखी का कंठ दहकता हुआ वह अंगार है जिसने लाखों-करोड़ों जनता को गहन निद्रा से जगाया. प्रगतिशील भावों से युक्त ज्वालामुखी ने समाज को दीमक की तरह खाते जा रहे विषकीटकों के प्रति समाज को जगाया. उन्होंने केवल कवि के रूप में ही न्हीं अपितु कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में भी अपने विचारों से तहलका मचाया. उनकी प्रमुख रचनाओं में "वोट्मी-तिरुगुबाटु" (पराजित-विद्रोह) तथा ’हैदराबाद कथलु’ (हैदराबाद की कहानियाँ) आदि उल्लेखनीय हैं. "रांगेय राघव : जीवित चरित्र" के लिए उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया.


धधकते तेवर क रूप में जनकल्याण के लिए,निष्कपट समाज के मंदहास के लिए अहर्निश अशांत अग्नि में जलनेवाली आत्मा की आवाज है ’ज्वालामुखी’. समाज को आलोकित करने तथा समाज से कुरीतियों को जड़ से मिटाने के लिए वे जीवनपर्यंत कार्यरत रहे. 1970 में विप्लवकारी रचयिताओं की संस्था (विप्लव रचयितल संगम, विरसं) की स्थापना कर शोषित वर्गों के हक के लिए लड़ते रहे. उन्होंने ’भारत-चीन मैत्री संस्था’ की नींव भी डाली है.


समाज में कोढ़ की तरह व्याप्त सत्तालोलुप राजनेता,धर्मांध मठाधीश और अवार्थी पूँजीपति आदि को उन्होंने अपनी कविताओं द्वारा बेनकाब किया. इसके लिए गाली-गलौज तथा अपशब्दों का प्रयोग करने में भी वे नहीं हिचकिचाए - "भय विह्वल जनता का/पागल-जीवन उसका/पीछा करता रहा/तोंदधारी लुटेरे/फोते वाले मरद/ढ़ोंगी तिलकधारी पंड़े/चोटीवाले नेता-सियार/दाढ़ी वाले घूस/मूँछ्वाली औरतें/मूँछ विहीन हिजड़े/मृदुल व्यवहारी/...खद्दर टोपीधारी/हरामजादे नेता/कुमार्गी कुटिल क्रूर/मंदिरों के म्लेच्छ/मस्जिद के काफिर/गुरुद्वारे के गुंडे/चर्च के पापी/शांति के पुजारी/वार्ता चोर..."


ज्वालामुखी अंत तक लोकतांत्रिक हकों के लिए लड़ते रहे क्योंकि लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही का साम्राज्य ही चारों ओर फैला हुआ है. साधारण जन की प्रवंचना की पीड़ा को उन्होंने अपनी बुलंद आवाज में व्यक्त किया -"आज़ादी की सड़क पर/मज़ाकिया जानवर-सा/भगा दिया गया/जनतंत्र के/चोरों के बगीचे से/निर्दयतापूर्वक/ढ़केला गया./संसद की बहस में/अधिकारियों के विचित्र/पदार्थ के रूप में उसे/पेश किया गया."


बहुमुखी प्रतिभासंपन्न दीनबंधु,विश्वमानवता के पक्षधर ज्वालामुखी को उन्हीं के एक कवितांश के माध्यम से श्रद्धांजली निवेदित है-"लक्ष नक्षत्रमुलु रालनिदे/उज्ज्वल उदयं प्रवहिंचदु/रालिन निर्मल नक्षत्र कांतुले/रेपटि सूर्योदय किरणालु/नेटि निर्मल त्यागालु/रेपटि तूरुपु सौरभालु/समता सूर्योदयं नित्यं.../विप्लवं आगदु...सत्यं..."
(लाखों-करोड़ों नक्षत्र जब तक विलीन नहीं होते तब तक प्रभात का उदय नहीं होगा. आज का निर्मल त्याग ही कल के पूरब का सौरभ है. समता का सूर्योदय ही नित्य है. विप्लव को रोका नहीं जा सकता. यही सत्य है.)




आज की हिंदी कविता में स्त्री



औरतें हैं अस्मिता
औरतें हैं आजादी
औरतें गौरव हैं
औरतेंऔरतें हैं लज्जा
औरतें हैं शील
स्वाभिमान

औरतें औरतें नहीं हैं
औरतें हैं संस्कृति
औरतें हैं सभ्यता
औरतें मनुष्यता हैं
देवत्व की संभावनाएँ हैं औरतें


ऋषभदेव शर्मा की इस कविता ’औरतें औरतें नहीं!’ को सुनकर पहले पहल तो हम चौंकते हैं लेकिन ध्यान देने पर कवि का यह मंतव्य स्पष्ट होता है कि स्त्री न तो मनोरंजन का साधन है और न ही बाज़ार की वस्तु. वे उन मूल्यों को सहेज कर रखती है जिनसे मनुष्यता के संस्कार का निर्माण होता है. यही कारण है कि स्त्रियाँ किसी देश की मर्यादा और संस्कृति का पर्याय होती हैं. लज्जा,शील,अस्मिता,आजादी,स्वाभिमान,सभ्यता,संस्कृति,मनुष्यता -और यहाँ तक कि मनुष्य के भीतर निहित देवत्व की संभावना को स्त्री के स्त्रीत्व में निहित माना गया है. वह श्रद्धा और विश्वास की मूर्ती है. लेकिन सामाजिक दबावों ने उसे ’अबला ’ बनाकर रख दिया. लोकतांत्रिक व्यवस्था का तकाजा है कि स्त्री को इस अबलापन से मुक्त किए जाए और उसका सशक्त रूप आनेवाली पीढ़ियों के सामने उभर कर आए.

साहित्य समाज की आलोचना है. सामंती संस्कारवाले साहित्य के शुरुआती दौर में नारी की निंदात्मक और प्रशंसात्मक दोनों दशाओं का चित्रण मिलता है. मध्यकालीन साहित्य में स्त्री के प्रति वैराग्यजनित कुंठाओं का चित्रण हुआ है. भोगवादी दौर में तो स्त्री विलासिता का केंद्र बन गई. आधुनिक काल में स्त्री अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के प्रति जागरूक हुई. यही कारण है कि प्राचीन और मध्य्कालीन साहित्य की तुलना में आज की हिंदी कविता में स्त्री की छवि बदली हुई है. आज के हिंदी कवियों एवं कवयित्रियों ने स्त्री के हर रूप को,उसके दिल की हर धड़कन को बारीकी से उकेरा है.

सदियों से यही रीति चली आ रही है कि घर-बार और बच्चे संभालना ही औरत का काम है. सामाजिक मर्यादाओं एवं पारिवारिक मूल्यों का बचाव भी औरत की ही जिम्मेदारी है. बेटी,बहन,प्रेयसी,बहू,पत्नी और माँ की जिम्मेदारी निभाते-निभाते वह खुद को भूल गई है. कविता वाचक्नवी की कविता ’माँ बूढ़ी है ’ में मातृत्व का जीवंत पक्ष दिखाई देता है -दिन भर भागा करती /चिंतित /इसे खिलाती,उसे मनाती /दो पल का भी चैन नहीं था /तब इअस माँ को, /अब फुर्सत में खाली बैठी /पल-पल काटे /पास नहीं पर अब कोई भी. /फुर्सत बेमानी लगती है /अपना होना भी बेमानी /अपने बच्चों में अनजानी /माँ बूढ़ी है." (मैं चल तो दूँ ; कविता वाचक्नवी ;’माँ बूढ़ी है ’;पृ.२३)

माँ की ममता की कोई मिसाल नहीं होती. माँ की ममता को ठीक तरह से वही जान पाता है जो माँ के रिश्ते की गहराई जनता है.माँ की ममता जब स्वयं से होकर गुजरती है तब माँ की याद अपने आप तरोताजा हो जाती है - " माँ! /तुम्हारी लोरी नहीं सुनी मैंने, /कभी गाई होगी /याद नहीं /फिर भी /जाने कैसे /मेरे कंठ से /तुम झरती हो /मेरा मस्तक /सूँघा अवश्य होगा तुमने /मेरी माँ! /ध्यान नहीं पड़ता /परंतु /मेरे रोम-रोम से /तुम्हारी कस्तूरी फूटती है."( मैं चल तो दूँ ; कविता वाचक्नवी ;’माँ बूढ़ी है ’;पृ.२५)

कविता वाचक्नवी की कविताओं में मातृत्व की अनुपमेयता अत्यंत स्पष्ट है. कवयित्री बार-बार माँ को याद करती हैं- " माँ! /यदी तुम होती, /ऊँची भट्ठियों में दहकती आग का धुआँ /गिरने देती मेरे आँगन में? /सारे विकराल स्वपनों में घिर /सुबकने और चौंक कँपने देतीं मुझे?"(मैं चल तो दूँ ; कविता वाचक्नवी ;’माँ,यदि तुम होती... ’;पृ.१६१)

हमारा समाज मूलतः पितृसत्तात्मक समाज है. एक ओर स्त्री की पूजा की जाती है और दूसरी ओर उसे जिंदा जलाया जाता है. जहाँ लड़की का जन्म अवांछित या ’गले पड़ा ढोल ’ समझा जाता है वहाँ अहम मुद्दा नारी के अस्तित्व का है.लैंगिक भेदभाव के कारण कन्या भ्रूण हत्या आम बात हो गई है. कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती हुई घटनाएँ एक ऐसी विभीषिका है जिसने मानव विकास की यात्रा पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है. आधुनिक जीवन शैली की इस विसंगति ने मानव अस्तित्व और अस्मिता को ही झकझोर कर रख दिया है. कवयित्री कविता वाचक्नवी ने ऐसी वर्जित और बेसहारा बेटियों के आर्त्नाद को अपनी कविता ’बिटियाएँ ’ के माध्यम से सशक्त रूप में सुनाया है -"पिता! /अभी जीना चाहती थीं हम /यह क्या किया... /हमारी अर्थियाँ उठवा दीं! /अपनी विरक्ति के निभाव की /सारी पगबाधाएँ हटवा दीं...!! /***अब कैसे तो आएँ /तुम्हारे पास? /अर्थियाँ उठे लोग(दीख पड़ें तो) / ’भूत’ हो जाते हैं /बहुत सताते हैं. /*** हम हैं-भूत /-अतीत /समय के /वर्तमान में वर्जित.../विड़ंबनाएँ.../बिटियाएँ..."(मैं चल तो दूँ;कविता वाचक्नवी;’बिटियाएँ’;पृ.१३०)

वास्तव में,हमारे परंपराग्रस्त समाज में बेटी की डोली भी अर्थी की तरह ही उठती है और उसकी तैयारी बेटी के जन्म से होने लगती है. विवाह के साथ जैसे बोझ उतर जाता है. बेटी को बोझ मानने की मानसिकता के कारण ही उनकी हत्या भ्रूण दशा में करने का दुष्कर्म आरंभ हुआ होगा.

इसी प्रकार जया महता ने कन्या भ्रूण से कहलवाया है कि -"रोक सके तो रोक बिस्तर पर पड़े हुए की कराह /पोंछ सके तो पोंछों मृत शिशु की माँ के आँसू /*** उसने कहा, /रोक सके तो रोको /शिशुओं को क़त्ल करते अश्वत्थामाओं को /शिष्य का अँगूठा माँगते द्रोणाचार्यों को /अणुश्स्त्र बनाती उँगलियों को /*** नहीं कर सकते न कुछ /तो भला मुझे किस लिए रोकते हो इस तरह! /मैं तो हूँ माँ के पेट में पलती कन्या /मैंने तो अभी तक दुनिया देखी भी नहीं..."(जया मेहता;समकालीन भारताय साहित्य;मार्च-अप्रैल २००९,पृ.५१)

माँ-बाप के लिए लड़की का ब्याह चिंताजनक विषय है. कविता वाचक्नवी ने उम्रदराज लड़कियों की बेबसी को अपनी कविता ’लड़की’ में उकेरा है -"अक्सर बुदबुदाती /एक उमरदराज लड़की /*** ज्योतिषियों के तंत्र सारे /रटे गए मंत्र सारे /नवग्रह दशाएँ /भाग्य विधाता कंकर-शंकर /साथ नहीं देते अक्सर /उन सारी लड़कियों का /छ्ली जाती हैं जो वक्त से /छले जाती हैं आप ही को जो /और बेतहाशा भाग्ती हैं /दर्द से बेहाल होकर /किसी दुलार भरे क्षण की याद में /मिटाए जाती हैं /अस्तित्व का कण-कण /बूँद-बूँद बन, /प्यास की भरपाई में."(मैं चल तो दूँ ; कविता वाचक्नवी;’लड़की’;पृ.१४)

भूमंड़लीकरण के साथ ’उपभोक्तावादी संस्कृति’ व ’बाज़ार संस्कृति’ का विकास हुआ. इसने आज स्त्री की छवि को बदल दिया है. महिला साहित्यकार प्रभा खेतान का मानना है कि ’भूमंड़लीकरण के हाशिए पर स्त्री मनुष्य नहीं मात्र एक देह,एक उत्पाद तथा एक ब्रांड बन गई है. टी.वी.चैनलों और किसी फैशन मैगज़ीन की कवर पेज अथवा पेज थ्री की चमक-दमक सनसनी बनती जा रही है."(अमित कुमार सिंह;भूमंड़लीकरण और भारत:परिदृश्य और विकलप;पृ.१८२)

बाज़ार स्त्री की सुनहरी छवि का अपने लाभ के लिए भरपूर इस्तेमाल करता है. बदलते जीवन मूल्यों के साथ प्रेम का स्वरूप भी बदला है. प्रेम में बिखराव और छिछलापन आ गया है. समाज में वेश्यावृत्ती दिन-ब-दिन बढ़ रही है. कई बेबस और अभावग्रस्त स्त्रियों को मजबूरी से इस व्यवसाय की ओर मुड़ना पड़ रहा था. देह व्यापार,लड़कियों की ट्रेफिकिंग या यौन दास्ता आम बात हो रही है. पुरुष कैसे कभी-कभार इन स्त्रियों के रूप में बाज़ार की चाट का स्वाद लेना चाहता है, मानिक बच्छावत की कविता ’पेशेवालियाँ’ इस नग्न सत्य को उजागर करती है - "जैसे मछुआ बाज़ार की फल-मंड़ी से /कोई लबालब भरकर /फल बेचने के लिए ले जाता है टोकरियाँ /ठीक वैसे ही इन /स्त्री शरीरों को भरकर /रोज़ /चितरंजन एवन्यू से /बहुत सारी टैक्सियाँ निकलती हैं /अपने दलालों के साथ."(मानिक बच्छावत;’पेशेवालियाँ’;नया ज्ञानोदय;मई २००९;पृ.७५)

कोई भी स्त्री जन्मतः वेश्या पैदा नहीं होती बल्कि परिस्थितियों के कारण उसे इस व्य्वसाय को अपनाना पड़ता है. उदभ्रांत की कविता ’तवायफ़’ इसी सत्य को उजागर करती है -"क्या एक तवायफ़ /जिस्म का सौदा करते समय /करती है आत्मा की भी? /क्या एक तवायफ़ जानती है /कि वह पैदा नहीं हुई /उसे बनाया गया समाज के /उच्च पदासीन /पर्दानशीन /सभ्य कहे जाते /धर्म के ठेकेदारों द्वारा ही?" (उदभ्रांत ; ’तवायफ़’ प्रगतिशील वसुधा-६९;पृ.४५)

परंपरागत रूढ़ियों और अंधविश्वासों के विरुद्ध विजय हासिल करना ही आज की स्त्री का स्वप्न है. वेश्या भी एक स्त्री है. वह भी अपने अधूरे सपनों को पूर करन चाहती है- "आनंदी /सबको आनंद देती है /अपना धर्म निभाती है /हँसती-गाती है /ग्राहकों का मन बहलाती है /जब अकेली होती है तो रोने लग जाती है /अधूरे सपनों में /खो जाती है."(मानिक बच्छावत;’आनंदी’;नया ज्ञानोदय;मई २००९;पृ.७५)

आज स्त्री जागरूक हो गई है. अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है. पुरुषपक्षीय परंपराओं को तोड़ना सीख गई है. अशोक लव कहते हैं- "लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान /परंतु उनके पंखों पर बाँध दिए गए हैं /परंपराओं के पत्थर /ताकि वे उड़ान न भर सकें /और कहीं छून न लें आसमान /*** लड़कियाँ अपने रक्त से लिख रही हैं /नए गीत /वे पसीने की स्याही में डुबोकर देहें /रच रहीं हैं नए ग्रंथ /उन्होंने सीख लिया है /पुरुषपक्षीय परंपराओं को चिथड़े-चिथड़े करना /उन्होंने कर लिया है निश्चय /बदलने का अर्थों को, /इन तमाम ग्रंथों में रचित /लड़कियों विरोधी गीतों का /जिन्हें रचा था पुरुषों ने /अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए."(अशोक लव;’लड़कियाँ छूना चाहती हैं’;साहित्य सुमन,जुलाई-सितंबर,२००८;पृ.६०)

पुरुषों के हाथों कठपुतली बनकर स्त्री खूब नाच चुकी है. पुरुष द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को लांघकर स्त्री अपना एक सपनों का संसार रचना चाहती है. लेकिन उसे हर कदम पर धोखा ही मिलता है. ऋषभदेव शर्मा की कविता ’इतिहास हंता मैं’ इसकी साक्षी है- "मैं घर से निकल आई थी /तुम्हें पाने को! /मैंने धरम की दीवार गिराई थी, /तुम्हें पाने को, /अपने पिता से आँख मिलाई थी /भाई से ज़बान लड़ाई थी- /तुम्हें पाने को! /माँ अपनी कोख नाखूनों से नोचती रह गई, /पिता ने जीते जी मेरा श्राद्ध कर दिया; /मैंने मुडकर नहीं देखा /मैं अपना इतिहास जलाकर आई थी- /तुम्हें पाने को! /तुमने मुझे नया नाम दिया /मैंने स्वीकार किया, /तुमने मुझे नया मज़हब दिया- /मैंने अंगीकार किया. /वैसे ये शब्द उतने ही निर्थक थे /जितने मेरा जला हुआ अतीत /***और सो गई थी /थककर चकनाचूर /आँख खुली तो तुम्हारी दाढ़ी उग आई थी, /तुम हिजाब कहकर /मेरे ऊपर कफ़न डाल रहे थे. /***मैं देख्ती रह गई; /तुमने मुझे जिंदा कब्र में गाड़ दिया! /एक बार फिर /सब कुछ जलाना होगा- /मुझे /खुद को पाने को!!"

ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी स्त्री को पग-पग पर अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है. घर की दहलीज पार करके जहाँ स्त्री समाज में पुरुषों से कदम मिलाकर आगे चल रही है वहीं उसे जिल्ल्त भी उठानी पड़ रही है. ऋषभदेव शर्मा ने अपनी कविता ’प्रशस्तियाँ’ के माध्यम से इस बात को स्पष्ट किया है- "मैंने जब भी कुछ पाया /मर खप कर पाया /खट खट कर पाया /अग्नि की धार पर गुज़र कर पाया /पाने की खुशी /लेकिन कभी नहीं पाई /***शिक्षा हो या व्यवसाय /प्रसिद्धि हो य पुरस्कार /हर बार उन्होंने यही कहा- /चर्म-मुद्रा चल गई! /[चर्म-चर्वणा से परे वे कभी गए ही नहीं!]





संस्कार और संस्कृति


"गृह्यसूत्रों में संस्कारों का स्वरूप"


डॉ.मुक्तावाणी (1969) ने अपनी पुस्तक "गृह्यसूत्रों में संस्कारों का स्वरूप" (2008) में मानव जीवन की यात्रा को आत्मोन्नयन की यात्रा बनाने षोडश संस्कारों के उपयोग की भारतीय धारणा और पद्दति का विवेचन किया है. यह पुस्तक उनके इसी विषय पर केंद्रित शोधप्रबंध का प्रकाशित रूप है. माना जाता है कि मानव जीवन का लक्ष्य चतुर्विध पुरुषार्थ है. यह तभी संभव होगा जब मानव संस्कारित जीवन जीने का यत्न करेगा. जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत भारतीय संस्कृति में जिन 16 संस्कारों का विधान किया गया है, यहाँ लेखिका ने उन्हें अत्यंत संक्षिप्त एवं सरल ढ़ंग से व्याख्या सहित पाठकों के समक्ष रखा है.

संस्कारों के उन्नयन पर विचार करते हुए लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि "जो कुछ हम देखते,सुनते और बोलते हैं उन सबका सूक्ष्म प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है,इसी प्रभाव को संस्कार कहते हैं. संस्कार मानव निर्माण की सर्वोत्तम प्रक्रिया है. जिस प्रकार भोज्य पदार्थों को संस्कृत करने से उनमें सुगंध व उत्तमता की अभिवृद्दि होती है,उसी प्रकार मानव जीवन भी सुसंस्कारों से सुवासित होते हैं. जीवन में सुगंध को जन्म देना ही संस्कारों का ध्येय है."

पुस्तक में आरंभ में वेद,वेदाङ्ग,ब्राह्मण ग्रंथों के परिचय के साथ-साथ कल्पसूत्रों अर्थात श्रौतसूत्र (कर्मकांड को विकसित करनेवाला सूत्र), गृह्यसूत्र (जन्म से लेकर मृत्यु तक के समस्त संस्कारों/अनुष्ठाणों से संबंधित सूत्र), धर्मसूत्र (विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक कर्तव्यों, आश्रमों,विवाह,उत्तराधिकारी से संबंधित सूत्र) तथा शुल्वसूत्र (वेदियों का नापना,उनके लिए स्थान चुनना आदि से संबंधित सूत्र. ये सूत्र भारतीय ज्यामिति के प्राचीन ग्रंथ हैं.) का विवरण प्रस्तुत किया गया है तथा उपलब्ध सूत्रग्रंथों की सूची भी दी गई है.

लेखिका ने जोर देकर यह प्रतिपादित किया है कि मानव निर्माण के लिए संस्कार अत्यंत उपयोगी है. वैदिक संस्कृति में संस्कारों का अत्यंत महत्व है क्योंकि जीवन संस्कारों के अभाव में निष्प्रयोजन हो जाएगा. ‘संस्कार’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है मांजना,चमकना,शुद्ध करना या उत्तम कार्य करना. 16 संस्कारों के माध्यम से मनुष्य के दुर्गुणों को निकालकर उसमें सदगुण डालने का प्रयास ही वैदिक विचारधाराओं के अनुसार ‘संस्कार’ है.

वैदिक शास्त्र के अनुसार मानव शरीर दो प्रकार का है - स्थूल और सूक्ष्म. स्थूल देह नश्वर है और सूक्ष्म देह समस्त संस्कारों से अभिभूत होता है. यह एक शृंकला है. शरीर,मन और आत्मा को पवित्र रखना ही संस्कारों का मुख्य प्रयोजन है. इन संस्कारों की संख्या के विषय में मतभेद है, लेकिन दयानंद ने मनुस्मृति के आधार पर 16 संस्कारों का स्पष्ट उल्लेख किया है.

मानव जीवन का अंकुरार्पण उसी समय शुरु हो जाता है जब माँ के गर्भ में उसका बीजारोपण किया जाता है. ’गर्भाधान’ संस्कार के पश्चात दूसरे या तीसरे महीने में जब गर्भ में बीज स्थित हो जाता है तब ‘पुंसवन’ संस्कार का विधान किया जाता है. चौथे महीने में अर्थात मस्तिष्क के उन्नयन के आरंभ में ‘सीमंतोन्नयन’ संस्कार किया जाता है. इन तीनों संस्कारों को ‘प्राग्जन्म’ संस्कार के नाम से संबोधित किया जाता है. अर्थात साधारण रूप में यह शिशु का जन्मकाल है. भारतीय संस्कृति में ‘नामकरण’ संस्कार को धूमधाम से मनाया जाता है. प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में नाम का महत्व निर्विवाद है क्योंकि ‘नाम’ व्यक्ति के अस्तित्व का चिह्न है.

मानव शिशु जन्म लेते ही बाह्य वातावरण से आसानी से जुड़ नहीं पाता. इसलिए तीसरे महीने में ‘निष्क्रमण’ संस्कार संपन्न होता है. अर्थात पहली बार शिशु को बाहर खुले वातावरण से परिचत कराना. उसके बाद ‘अन्नप्राशन’ संस्कार संपन्न होता है.

‘चूडा़कर्म’ संस्कार मानव जीवन का आठवाँ पड़ाव है. इस समय शिशु का शारीरिक और बौद्धिक विकास शुरु होता है. माना जाता है कि बालक के सिर के बाल काटने से इस विकास को सरलता से देखा जा सकता है.

संक्रामक एवं विषैले तत्वों से देह को बचाने हेतु किसी विशेष तत्व के धातु से कर्ण और नासिका भेदन किया जाता है जिसे ‘कर्णबेध’ कहते हैं. यह मानव जीवन का नौवाँ पड़ाव है.

प्राग्जन्य और बाल्यावस्था के संस्कारों के पश्चात शैक्षणिक संस्कार (उपनयन,वेदारंभ,समावर्तन), आश्रम प्रवेश संस्कार (विवाह,वानप्रस्थ,संन्यास) और अवसान संस्कार (अंत्येष्टि) का विधान पूर्ण होता है. इस प्रकार मानव जीवन 16 संस्कारों की परिक्रमा है. लेखिका ने इन 16 संस्कारों के बारे में सरल ढ़ंग से पाठकों को अवगत कराया है. यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है.

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* गृह्यसूत्रों में संस्कारों का स्वरूप/डॉ.मुक्तावाणी/2008 (प्रथम संस्करण)/मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2,कंदस्वामी बाग,हनुमान व्यायामशाला की गली,सुलतान बाज़ार,हैदराबाद-500 095/ पृष्ठ-197 / मूल्य- रु.250/-
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‘सुमित्रानंदन पंत के काव्य में संस्कृति और जीवन-दर्शन‘


‘संस्कृति’ शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण है. संस्कृति और युगानुकूल जीवन दर्शन का सामंजस्य नवीन मूल्यों से संबद्ध होता है. इन नवीन मूल्यों के कारण मानव उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है. इसलिए "लोकायतन" के कविवर सुमित्रानंदन पंत ने अपने युग के सांस्कृतिक दायित्व का उल्लेख करते हुए लिखा है कि "आज हमें मानव-चेतना के क्षीर-सागर को फिर से मथकर उसके अंथस्तल में छिपे हुए रत्नों को पहचानना है और मौलिक अनुभूतियों के नवीन रत्नों को भी बाहर निकालकर अपने युग-पुरुष के स्वर्ण शुभ्रकिरीट में उन्हें समय के अनुरूप नवीन सौंदर्यबोध में जड़ना है,जिससे वह भावी मनुष्यत्व की गरिमा को वहन कर सकें." उनहोंने वर्तमान युग के सांस्कृतिक सूत्रों का भी उल्लेख किया है. ये सूत्र हैं मानव प्रेम, लोक जीवन की एकता, विश्व मानवता तथा जीवन सौंदर्य का उपभोग. पंत जी ने अपनी उपलब्धियों को एक अक्षय सांस्कृतिक वैभव के रूप में मानवता को प्रदान किया है. "लोकायतन" काव्य में उन्होंने भारतीय संस्कृति की परंपरा में गांधी व अरविंदवादी जीवन का समावेश करके विश्व मानव की भावना को अभिव्यक्त किया है.

‘सुमित्रानंदन पंत के काव्य में संस्कृति और जीवन-दर्शन‘(2008) डॉ.दीपगुप्ता (1945) की शोध कृति है. लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि "पंत ने लोक चेतना, सांस्कृतिक बोध, मानव प्रेम, लोकजीवन की एकता, जीवन सौन्दर्य का उपभोग तथा विश्वात्मा का निर्माण आदि सूत्रों को निश्चित आकार देने के लिए दर्शनों पर अपनी आस्था प्रकट की हैं."

‘लोकायतन‘ नवनिर्माण की मूल चेतना को रूपायित करता है. वस्तुतः पंत को जनतंत्र भी चाहिए और आर्थिक समानता भी. इस यांत्रिक युग में ‘लोकायतन‘ की प्रांसंगिकता निर्विवाद है क्योंकि पंत सारे काव्य में अंतर्बाह्य, भौतिक-आध्यात्मिक तथा पूर्व-पश्चिम जैसे द्वंद्वों में समन्वय चाहते हैं - "इस प्रकार सांस्कृतिक कल्प-नव/भू-जीवन में होता विकसित/एक चेतना रस-साजर में/विविध रूप उठ होते अवसित./प्रथम बार अब जगत ब्रह्म में/ब्रह्म जगत में हुआ प्रतिष्ठित./ मुक्त-भेद मन से भू-जीवन/सित-चित पट में हुआ समन्वित/जन्म ले चुका नव-मानव/जड़ चित को कर रस-संयोजित/धरा स्वर्ग कल्पना न रह अब/जन-जीवन में होता मूर्तित."

लेखिका ने सुमित्रानंदन पंत के जीवन और व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करते हुए उनके काव्य की विभिन्न प्रवृत्तियाँ और उनके दार्शनिक तथा सांस्कृतिक आयाम का परिचय दिया है. "लोकायतन" काव्य में निहित संस्कृति और जीवन दर्शन को उजागर करते हुए लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि "‘लोकायतन‘ समग्र मानव-यात्रा का सृजन प्रवाह है और समस्त सृजन-प्रवाह में मानव की यात्रा है - "नव-संस्कृति के स्पर्शों से अब/हो मानवीय वन-भू जीवन/जन-भू कुटुम्ब का सभ्य अंग/बनता जाता नवयुग चेतन."

बीसवीं शताब्दी के मूल्य चिंतन का केंद्र मनुष्य था. लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि इसलिए पंत जी ने ‘लोकायतन‘ में मानव चेतना और उसके अस्तित्व की प्रासंगिकता के प्रवाह की रचना की है,जो निरंतर वर्तमान है.

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* सुमित्रानंदन पंत के काव्य में संस्कृति और जीवन-दर्शन/ डॉ.दीपा गुप्ता/ 2008/ मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2,कन्दस्वामी बाग,हनुमान व्यायामशाला की गली,सुलतान बाज़ार,हैदराबद-500 095/ पृष्ठ-264/ मूल्य- रु.300/-
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