बुधवार, 28 दिसंबर 2011

जाना भारत भूषण और अदम गोंडवी का


पुण्यस्मरण
जाना भारत भूषण और अदम गोंडवी का


जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे
ढूँढ़ते फिरोगे लाखों में
फिर कौन सामने बैठेगा
बंगाली भावुकता पहने
*****  ******
जितनी उड़ती है आयु परी
इकलापन बढ़ता जाता है
सारा जीवन निर्धन करके
ये पारस पल खो जाएँगे
गोरे मुख लिए खड़े रहना
खिड़की की स्याह सलाखों में
(भारत भूषण, जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे)

मिलना और बिछडना ही जगत का चक्र है. भारत भूषण (८ जुलाई, १९२९ – १७ दिसंबर, २०११) और अदम गोंडवी (२२ अक्टूबर, १९४७ – १८ दिसंबर, २०११) आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं फिर भी ‘राम की जल समाधि’(भारत भूषण) और ‘आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी’(अदम गोंडवी) के रचनाकारों रूप में सदा याद किए जाएँगे.

भारत भूषण का जन्म ८ जुलाई, १९२९ को मेरठ में हुआ था. उन्होंने प्राध्यापक के रूप में अपना कैरियर शुरू किया था. धीरे धीरे उन्होंने कविता के क्षेत्र में अपने आप को स्थापित किया. उन्होंने प्राध्यापक के रूप में ही नहीं बल्कि कवि के रूप में उच्च कोटि की ख्याति अर्जित की. उनके प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं – सागर के सीप वर्ष (१९५८), ये असंगति वर्ष (१९९३) और मेरे चुनिंदा गीत (२००८). उनकी कविताओं में राम की जल समाधि सबसे अधिक चर्चित है. यह छोटी सी रचना इतनी मार्मिक बन पडी है कि राम के क्रमशः सरयू के जल में विलीन होने के साथ साथ पाठक का हृदय भी करुना के सागर में डूबता चला जाता है. यह कविता कुछ इस तरह आरंभ होती है –

पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हरा–हरा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता.’
 (भारत भूषण,राम की जल समाधि)
और समाप्त होती है इस बिंब के साथ –
दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका, लो शून्य राम लो राम लहर,
फिर लहर-लहर, सरयू-सरयू, लहरें-लहरें, लहरें- लहरें,
केवल तम ही तम, तम ही तम, जल, जल ही जल केवल,
हे राम-राम, हे राम-राम
हे राम-राम, हे राम-राम ।
  (भारत भूषण,राम की जल समाधि)

भारत भूषण संवेदनशील कवि हैं. वे यही कहते हैं कि यदि अपना कोई बिछड़ जाए तो अकेलेपन को सहना मुश्किल हो जाएगा. अतः वे प्रश्न करते हैं कि
‘ये देह अजंता शैली सी
किसकी रातें महकाएँगी
जीने के मोडों की छुअनें
फिर चाँद उछालेगा पानी
किसकी समुंदरी आँखों में’
 (भारत भूषण, जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे)

भारत भूषण अस्तित्व का यह मूलभूत प्रश्न भी उठाते हैं कि यह शरीर और मन किस लिए हैं तथा यह धरती उसे किसलिए सहे और वे इस धरती को किस लिए सहें –
‘किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूँ, धरती मुझको किसलिए सहे.’
(भारत भूषण,राम की जल समाधि)


यह काल चक्र का संयोग ही कहा जाएगा कि सलोने सुकुमार गीतकार भारत भूषण के निधन के अगले ही दिन हिंदी उर्दू के कबीरी परंपरा के ठेठ किसानी थाथ्वाले गजलकार अदम गोंडवी का भी स्वर्गवास हो गया. अदम गोंडवी की रचनाओं में भारत के आम आदमी की मनोदशा की अभिव्यंजना ध्यान खींचती है. उनका जन्म २२ अक्टूबर, १९४७ को सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंड) के आटा ग्राम में हुआ. उनका वास्तविक नाम था रामनाथ सिंह. उनकी प्रमुख कृतियों में धरती की सतह पर, समय से मुठभेड़ आदि परिद्ध हैं. कवि के रूप में वे आम जनता के प्रबल पक्षधर हैं. वे कहते हैं कि जिंदगी गरीबों की नजर में एक कहर है –
‘आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी
हम गरीबों की नजर में इक कहर है जिंदगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्खतर है जिंदगी.’
(आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी, अदम गोंडवी)

अदम गोंडवी की कविताओं में व्यंग्य का स्वर मुखरित होता है. वे समकालीन राजनीति पर तीखा प्रहार करते हैं और कहते हैं कि
‘काजू भुने प्लेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनाएँ तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में’

आज नोट के बदले वोट का चलन है. पैसों की ताकत पर सरकार बनाई भी जा सकती है और गिराई भी. इसीलिए अदम गोंडवी कहते हैं कि
‘पैसे से आप चाहे तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गई है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में’
     
      अदम गोंडवी की कविताओं में दलित विमर्श भी द्रष्टव्य है. यह कहा जा रहा है कि यह उत्तर आधुनिक युग है और इस युग में हाशिए पर स्थित समुदाय केन्द्र में आ रहे हैं. स्त्री, वृद्ध और दलित केंद्रित साहित्य में वृद्धि इसीका परिणाम है. पर अदम गोंडवी यह प्रश्न करते हैं कि वेद में जिनका स्थान हाशिए पर भी नहीं है, वे आस्था और विश्वास लेकर क्या करेंगे –
‘वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें

इसमें कोइ संदेह नहीं कि जिस प्रकार भारत भूषण गीत की परम्परा के उन्नायक थे उसी प्रकार अदम गोंडवी भी गजल को नया संस्कार प्रदान करने वालों में अपनी तरह के अकेले रचनाकार थे. इन दोनों प्रतिभाओं के एक साथ तिरोहित हो जाने से हिंदी गीत – गजल की दुनिया स्तब्ध रह गई है. यह सूनापन जल्दी भरनेवाला नहीं.

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

वैविध्यपूर्ण गीतों का संग्रह : 'गीत ही मेरे मीत'

पुस्तक चर्चा 
श्रीमती सुषमा  बैद (1957) हैदराबाद के कविता मंचों का जाना पहचाना नाम है. खासकर उन्हें सस्वर कविता वाचन के लिए जाना जाता है. जैन समाज में वे एक आस्थाशील भक्तिप्रवण कवयित्री के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए हैं. 1995 से अब तक उनके भक्ति गीत, कविता, मुक्तक और सावन गीत संग्रहों के रूप में ग्यारह प्रकाशन आ चुके हैं और अब यह बारहवां प्रकाशन सामने आया है – 'गीत ही मेरे मीत'(2011) जिसमें अलग अलग खंड बनाकर भक्ति गीत, अन्य गीत, कविताएँ, हास्य-व्यंग्य और मुक्तक परोसे गए हैं.
एक भक्तिप्रवण रचनाकार के रूप में सुषमा  जी अपने आराध्य की राह निहारती और उन पर सब कुछ वारती दिखाई देती हैं.(पृ.18). वे यह मंगल कामना करती हैं कि सब राग-द्वेष को तजकर स्नेह सूत्र में बंध जाएँ.(पृ.19). उनके आराध्य की यह विशेषता है कि वह शराणागत को कभी निराश नहीं करता, सब का दाता और त्राता है, भाग्य विधाता है, अज्ञान के अंधेरे का हरण करके घट घट में ऐसी सुख शांति को व्याप्त करने वाला है जिससे जन्मों का फेरा मिट जाता है.(पृ.20). कवयित्री ऐसे प्रभु को पाने केलिए जप तप का महत्व स्वीकार करती है और याद दिलाती है कि संयम की सरिता में स्नान करने से ही मन का मैल मिटता है और तन का स्वर्ण निखरता है.(पृ.20). तन को सोना बनाने का यह सूत्र वैसे तपस्या के साथ जुडता दिखाई नहीं देता क्योंकि मूल उद्देश्य शरीर को निखारना नहीं है यहाँ.
सुषमा  बैद के भक्ति गीतों में लोक भाषा और लोक गीत की खूब झलक मिलती है. वे मन का दीप जलाकार तन की बाती में प्राण की लौ सुलगाती हैं. हर सांस में अपने आराध्य का स्मरण करती हैं और सौ सौ बार उनके चरणों में सर नवाती हैं.(पृ.40). उल्लेखनीय है कि ये सारे गीत उन्होंने आचार्य श्री महाश्रमण जी की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर निवेदित किए हैं और यह प्रार्थना की है – "तेरे द्वार पे आई हूँ भगवान, चाहो तो बेड़ा पार करो/ करूं चरणों में निवेदन सादर, चाहो तो मेरा उद्धार करो."(पृ.42).
अन्य गीतों में सुषमा  ने अपनी सामाजिक चिंताओं को व्यक्त किया है जैसे मानवीय मूल्यों का हनन, प्रदर्शनप्रियता, अपसंस्कृति, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुडी समस्याएँ तथा पर्यावरण प्रदूषण. वे यह गुहार लगाती है कि "हमें प्रदूषित शहर नहीं, गुनगुनाता गाँव चाहिए/ नहीं चाहिए नकली जीवन, पीपल नीम की छाँव चाहिए."(पृ.66). लेकिन उनकी भावुकता और सहृदयता का परिचय तो केवल वहीं मिलता है जहां वे आत्मविभोर होकर प्रेम के शब्द चित्र बनाती हैं. ऐसे स्थलों पर उनके भीतर बैठी प्रेम विह्वल स्त्री यह याचना करती है कि – "मुरझाए कहीं न ये दिल की कली/ सींचकर प्यार से फिर हरा कीजिए/ लोग सहते हैं कैसे जुदाई का गम/ गम में तडपा न यूं अधमरा कीजिए."(पृ.53).
हाथों से पल पल फिसलते संयोग सुख को रोके रखने की यह बेताबी बहुत कुछ कहती है.  कबीर की तरह प्रेम पात्र की प्रतीक्षा में यह हाल हो गया है कि – "जीवन है यह धुंधला-सा तन साँसें बुझीं बुझीं/ पथ देख देख थकीं अंखियाँ पा दर्शन के लाले."(पृ.56). इसीलिए वे यह सीख भी देती चलती हैं कि दर्द को भुलाने हर पल हमें व्यस्त रहना चाहिए/ जिंदगी के हर इक मौसम में मस्त रहना चाहिए.(पृ.60).
कविता खंड में धार्मिक-सामाजिक सरोकार प्रमुख हैं और हास्य-व्यंग्य तथा मुक्तक खंड में भी. इतिवृत्तात्मकता और उपदेशात्मकता में ये कवितायें कहीं कहीं तो द्विवेदी युग की याद दिला देती हैं, कहीं कहीं सीधे सीधे नारे भी कविता में उतर आए प्रतीत होते हैं. जैसे "बेटा बेटी हैं एक सामान/ मत करो बेटी का अपमान/ क्यों जान लेते भ्रूण ह्त्या कर/ बेटी को भी दो जीवन दान.(पृ.110).
कुलमिलाकर सुषमा बैद का यह बारहवां कविता संग्रह उनकी आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक और समसामयिक चिंताओं को मुख्यतः अभिधामूलक अभिव्यक्ति प्रधान करता है. प्रासंगिक रूप से कुछ स्थलों पर मार्मिक भावों की व्यंजना भी देखाई देती है.
·         गीत ही मेरे मीत (काव्य संग्रह)/ सुषमा बैद/ 2011/ सुषमा-निर्मलकुमार बैद, 3-3-835/1ए, के.एन.आर., संयुक्त एन्क्लेव, फ्लैट नं. 302, कुतबीगुडा, हैदराबाद – 500 027/ पृष्ठ 124/ मूल्य – रु.200
गुर्रमकोंडा नीरजा, प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500 004