रविवार, 26 जनवरी 2014
बुधवार, 22 जनवरी 2014
FEELINGS
Sometime before
Trees dozed and were motionless
Wind disappeared
Your memories stroked my thoughts
Your whisper lingered in my ears
Some-sort of anxiety smouldered in me
Trees spread their branches
Blossoms spread delicate fragrance
Breeze became soothing
A strong feeling aroused in me.
Trees dozed and were motionless
Wind disappeared
Your memories stroked my thoughts
Your whisper lingered in my ears
Some-sort of anxiety smouldered in me
Trees spread their branches
Blossoms spread delicate fragrance
Breeze became soothing
A strong feeling aroused in me.
मंगलवार, 21 जनवरी 2014
अशआर अशरफ गिल के, पसंद ऋषभ देव शर्मा की
'शब्द सुगंध' के तत्वावधान में 20 जनवरी 2014 को राजस्थानी स्नातक संघ (हैदराबाद) के प्रेक्षागार में अमेरिका से पधारे पाकिस्तान मूल के वरिष्ठ साहित्यकार अशरफ़ गिल की उर्दू गज़लों के हिंदी रूपांतर को प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने लोकार्पित किया. इस अवसर पर उन्होंने विस्तार से अशरफ गिल की गज़लों के कथ्य, शिल्प और काव्यभाषा का विवेचन किया. उन्होंने पाँच श्रेणियों में बाँटकर कवि के कुछ शेरों को उदाहरण के रूप में भी पेश किया जिन्हें पाठकों के रसास्वादन के लिए यहाँ उद्धृत किया जा रहा है.
अशरफ गिल के
चुनिंदा अशआर
मुहब्बत
तुझे वो पेश मुहब्बत, करूँ करूँ न करूँ
- जो बस रही है कसक बनके मेरे सीने में
तो पानी को भी इस ने प्यासा किया है
- ज़रा इस ने देखा जो दरिया की जानिब
इश्क की गरचे है कीमत ज़िंदगी
- इश्क से ‘अशरफ़’ ना घबराया कोई
सितम से तिरे दिल को आराम आए
- खुदा रा ! न तुम अपनी आदत बदलना
तूने दरखशां कर दिए मेरी गली के रास्ते
- सुनसान थे वीरान थे आमद से तेरी पेशतर
हर आशिक़ ने जान गंवाई फिर भी मुहब्बत रास न आई
- ‘अशरफ़’ इस दुनिया की रस्में करते करते अपने बस में
तुझे भूलने की लगन में भी, कई दर्द सीने में पल गए
- तुझे याद करने के शौक में, कई रोग जां को लगा लिए
मिरी यादों की बस्ती में बसी अक्सर गलतफ़हमी !
- हमेशा अश्क ख़्वाहिश जुस्तजू की आड़ में ‘अशरफ़’
ज़िन्दगानी मिरी मुसकुराई न थी
- व आप से जब तलक आशनाई न थी
वो लोग इबादत से मुहब्बत नहीं करते
- जो लोग मुहब्बत की इबादत नहीं करते
जो किसी ने मुझसे बुरा किया, मेरे वास्ते वो भला हुआ
- यहाँ यार कोई भी जब मिला, वो मिला के हाथ जुदा हुआ
रोज़ बढ़ता है, कम नहीं होता
- इश्क का नाम दूसरा है जुनून
व्यक्ति
आदमी ! आज की ख़बर ही नहीं
- उसकी हर पल नई कहानी है
उसको अपना मकान कहते हैं
- कल तलक जिस में रह न पाएँगे
मगर फिर भी मुसलसल चल रहा हूँ
- अगरचे चलते-चलते थक गया हूँ
मिरी ज़बान को पाबंदियों से कसते हैं
- ज़रूरतों से मुझे बांध कर जहाँ वाले
हमवार यारों ने किए बेगानगी के रास्ते
- दुश्मन बनाने को हमें कोशिश नहीं करना पड़ी
और यकीं से उठ रहा सभी का एतबार है
- दोस्ती को पड़ रही हैं दुश्मनी की आदतें
इंसान का जो ऊंचा, मेयार न कर पाए
- वो इश्क है बे मतलब, वो प्यार है बे मानी
जिस से भी सलीके या शराफ़त से मिलेंगे
- मालूम न था हम पे ही तनकीद करेगा
समाज/
राजनीति
दिलों की धरती हसीन तर है, दिलों का नक्शा बदल के देखें
- जो मुल्क ऐटम बना रहे हैं, वुह मुफ़लिसी को बढ़ा रहे हैं
जिसमें हो हर आदमी ही आदमी से डर गया?
- ऐसी नगरी में भला कैसे रहें क्योंकर रहें
लेकिन रवां अल्लाह की जानिब सभी के रास्ते
- कितने मज़ाहिब मुखतलिफ है मुखतलिफ सब की रविश
गर हंसी आए मुसकाइए
- पास रखिए, ना यह नेमतें
सोचकर हाथ पकड़ाइए
- पकड़िए हाथ भी सूझ से
तभी हुकूमती दरबारियों की ज़द में हूँ
- मैं वोट मर्ज़ी के इक रहनुमा को दे बैठा
तभी मैं रोज़ ही बमबारियों की ज़द में हूँ
- मैं कर्बला हूँ जो प्यासों को पानी दे ना सका
सतरों के बदन छलनी अलफ़ाज़ के सर ज़ख्मी
- अखबार की हर सुर्खी यूँ सुर्ख लगे हर दिन
एक तराज़ू को भी तलवार बना के छोड़ा
- खोखली ऐसी हुकूमत की जड़ें हैं जिसने
बदले में मासूमों की जो मासूमियत जाती रही
- हथियार हथिया लो मगर कर पाओगे वापिस कभी?
पसीना बस ग़रीबों ने बहाना था
- तिजोरी थी अमीरों की भरी जानी
चारों तरफ़ फ़ज़ाओं में बारूद है यहाँ
- इनसान का तो साँस भी लेना मुहाल है
पर यहाँ भूख से मरते है न जाने कितने
- ऐटमी मुल्क का सोचें जो ये खुशहाल लगे
जिंदगी
जानता गर तेरी बाबत ज़िंदगी
- तुझ को बच्चों से भी मैं रखता अज़ीज़
जो बिखर गई ना सिमट सकी, वही आप लोगों के नाम है
- वही ज़िन्दगानी मिरी हुई, मेरे हुक्म पर जो चली रुकी
बस आना जाना होता है
- एक खेल है जीना मरना भी
माँ बन के ख़ौफ़ दिल से मिटाती है ज़िन्दगी
- रो ज़ाना बाप बनके डराती है ज़िन्दगी
कथन
भंगिमा
पौ फटे जैसे अंधेरा रोशनी से डर गया
- वह मेरे इज़हार-ए-उलफ़त पर यूं घबरा से गए
अक्सर आँखें तर करता हूँ
- याद की खेती सूख न जाए
दीया हूँ ! बुझ रहा हूँ जल रहा हूँ
- मैं आंधी और अंधेरे का हूँ साथी
कि मैं इंसान हूँ माँ की दुआ हूँ?
- खुदा भी मुसतरद कैसे करेगा
तू मगर मुझ से से फ़ासिला माँगे
- चाहता हूँ मैं तेरी नज़दीकी
आप नज़रों से अगर सहलाइए
- मेरी आँखों की चुभन शायद हो कम
रंग हैं अनमोल यकता ज़ायका मौजूद है
- सुन के या पढ़ के ही जानोगे मेरे अशआर में
आइए जाइए आइए जाइए
- महफ़िल-ए-गिल में जब जी करे
जो सुझाई क्या, दिखाई भी नहीं देता है
- प्यार तूफ़ान है आंधी है गरजता बादल
ये तो खुदफ़रेबी का खेल था, जो हम आसरों से बहल गए
- न तिरी वफ़ा थी नसीब में, न तिरी नज़र का करम हुआ
जिससे आँख मिलाएं आँसू
- उस की आँखें तरकर डालें
तुम्हारे रूठ जाने से तो थी बेहतर गलतफ़हमी !
- जता के प्यार तुम को कर लिया नाराज़, उफ़ तौबा !
मेरी बारी है तो अब रात हुई जाती है
- अपनी मर्ज़ी से हुआ शहर में सूरज तकसीम
दिल पर जुरमाना होता है
- आँखों की ख़ताओं के बदले
क्या ख़ूब ज़माना होता है
- जिस उम्र में आँखें मिलती हैं
सांस ! जो मकान-ए-जिस्म में किराएदार है
- एक दिन ये ख़ामुशी से घर को छोड़ जाएगी
ज़माने को इसी दम ही रुलाना था
- मिरा जिस वक्त हँसने का ज़माना था
हमारी किस्मतों पर है फकत तेरा इजारा
- खिलौनों की तरह पाबंद हम तेरी रज़ा के
फिर ज़रूर एक हादसा कीजे
- प्यार है हादसे का नाम अगर
कभी उलझनों में खुदा याद आया
- कभी गम में माँ याद आयी है ‘अशरफ़’
कविता
आएंगे जब वो बज़्म में होगी गज़ल तमाम
- होता रहेगा खुद-बखुद अशआर का नुज़ूल
जो ख़ासो आम से नहीं होता है हमकलाम
- ‘अशरफ़’ कुबूलियत नहीं पाता वही कलाम
सोमवार, 20 जनवरी 2014
हिंदी की दशा और दिशा
‘हिंदी की दशा और दिशा’ डॉ. सुधेश 2013, मेट्रो बुक्स, 1/2, गली नं. 5, पांडव रोड, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली – 110032, पृष्ठ – 135, मूल्य – रु.250 |
महात्मा गांधी ने 1917 में भरूंच में गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण में राष्ट्रभाषा के लिए कुछ कसौटियों की पहचान की थी -
1. अमलदारों (सरकारी कर्मचारियों) के लिए आसान होनी चाहिए.
2. अधिकांश भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली सरल भाषा होनी चाहिए.
3. उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए.
4. राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए.
5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न दिया जाए.
हिंदी इन कसौटियों पर खरी उतरी. यही वजह रही कि आज़ाद होने पर भारत संघ ने राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकृति दी. उस संवैधानिक प्रावधान को यथार्थ रूप प्रदान करने के निमित्त प्रतिवर्ष 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ तो मनाया ही जाता है, साथ ही इसे विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने के लिए 10 जनवरी को ‘विश्व हिंदी दिवस’ भी मनाया जाता है.
हिंदी की दशा और दिशा, विश्व बाजार में हिंदी, हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी आदि के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है तथा बहुत कुछ लिखा भी जाता है. संगोष्ठियों का आयोजन भी किया जाता है. निःसंदेह हिंदी किसी एक प्रांत या क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं है अपितु वह हिंद की भाषा है, हिंदुस्तान की भाषा है. साहित्यिक हिंदी और बोलचाल की हिंदी में भिन्नता होती है और यह स्वाभाविक है. बोलचाल की हिंदी वास्तव में बोली मिश्रित भाषा है. शिक्षित, अशिक्षित, अर्धशिक्षित, औपचारिक, अनौपचारिक, क्षेत्रीय, शहरी, ग्रामीण आदि प्रयोक्ता और परिस्थिति के भेद के कारण इसके अनेक स्तर होते हैं. व्यवसाय के कारण भी लोगों की भाषा तथा बोली पर काफी प्रभाव पड़ा है और पड़ रहा है.
स्मरणीय है कि उच्च हिंदी, उच्च उर्दू और हिंदुस्तानी हिंदी भाषा की ही तीन शैलियाँ हैं. उच्च हिंदी तत्सम प्रधान शैली है तो उच्च उर्दू अरबी-फारसी प्रधान शैली. हिंदुस्तानी इन दोनों का मिश्रित रूप है. समाजभाषाविज्ञान की शब्दावली में कहें तो ये तीनों शैलियाँ हिंदी भाषा के तीन रजिस्टर्स हैं - विशिष्ट प्रयुक्ति क्षेत्र. हिंदी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है तो उर्दू को फारसी-अरबी लिपि में. लेकिन साहित्य की परंपरा की भिन्नता के कारण लोग हिंदी और उर्दू को दो अलग भाषाओं के रूप में भी देखते हैं. यदि बोलचाल की भाषा पर ध्यन दें तो यह बात स्पष्ट होती है कि बोलचाल की भाषा में खुलापन ज्यादा है तथा बोलचाल की हिंदी और उर्दू में कोई स्पष्ट अंतर दिखाई नहीं देता. अनेक स्रोतों से आए शब्दों के मिश्रण से बोलचाल की हिंदी जीवंत बन जाती है. भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी के इस दौर में बाजार ने भी भाषा को काफी प्रभावित किया है. एक गतिशील भाषा होने के कारण हिंदी इन प्रभावों के अनुसार स्वयं को ढाल रही है. इसमें दो राय नहीं है कि - “हिंदी भारत की आत्मा ही नहीं, धड़कन भी है. यह भारत के व्यापक भू-भाग में फैली शिष्ट और साहित्यिक भाषा है. इसकी अनेक आंचलिक बोलियाँ हैं. इन बोलियों का हिंदी भाषा पर प्रभाव या उपभाषाओं का प्रभाव तथाकथित ‘हिंदी भाषा क्षेत्र’ के मौखिक व्यवहार में और इस क्षेत्र के साहित्यकारों के सर्जनात्मक लेखन में भी स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है. वैज्ञानिक, शैक्षणिक, सामाजिक और ज्ञान-विज्ञान के विस्तार के साथ जीवंत भाषा हिंदी के नए-नए रूप उभरे हैं. इन रूपों के प्रचलन से हिंदी में नए शब्दों, नई अभिव्यक्तियों, नए सह-संबंधों का आगमन हुआ है, इनके प्रयोग की दिशाएँ खुली हैं और इन्हें सामाजिक स्वीकार्यता मिली है. इस तरह हिंदी भाषा निरंतर गतिशील भाषा है.” (प्रो. दिलीप सिंह, ‘हिंदी भाषा का अंतरराष्ट्रीय संदर्भ’, हिंदी भाषा चिंतन, पृ. 276). पूरी दुनिया के लोग आज हिंदी भाषा की ओर आकर्षित ही रहे हैं क्योंकि “भारत की राष्ट्रभाषा तथा भारतीय जीवन की साक्षी भाषा होने के कारण पूरी दुनिया के लोग इस बात को भलीभाँति समझते हैं कि भारत और भारतीय संस्कृति को समझने में हिंदी की अहम भूमिका है.” (वही, पृ. 286).
हाल ही में 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी, चेन्नै द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ. उस सम्मलेन में दो सत्र ‘विदेशों में हिंदी का स्वरूप’ तथा ‘भूमंडलीकरण एवं प्रौद्योगिकी व भाषाएँ’ पर क्रेंदित थे. अतः उन विषयों से संबंधित सामग्री की खोज करते समय मेरे हाथ डॉ. सुधेश की पुस्तक ‘हिंदी की दशा और दिशा’ (2013)लग गई. वैसे तो हिंदी भाषा, उसका उद्भव और विकास, उसकी ऐतिहासिकता, उसका स्वरूप, उसकी विभिन्न प्रयुक्तियों का परिचय आदि से संबंधित अनेकानेक किताबें हैं जिनमें बहुत सारी पुस्तकें ऐसी हैं जो भाषाविज्ञान के शोधार्थियों और अध्यापकों के लिए आकर ग्रंथ के समान हैं परंतु यह पुस्तक अपनी सहजता, सुबोधता और निर्भ्रांतता के कारण ध्यान आकर्षित करती है.
इस पुस्तक (हिंदी की दशा और दिशा) में हिंदी भाषा से संबंधित अट्ठारह निबंधों को दो खंडों में सम्मिलित किया गया है. पहले खंड में हिंदी को भारतीय संदर्भ में देखा और परखा गया है तथा दूसरे खंड में विदेशों के संदर्भ में. पहले खंड में भाषायी स्वाभिमान का प्रश्न, बोलचाल की हिंदी का बदलता स्वरूप, संचार माध्यमों में हिंदी, हिंदी की समस्याएँ और चुनौतियाँ, आज की हिंदी आलोचना की भाषा, वैश्वीकरण और हिंदी, विज्ञापन और हिंदी, सूचना क्रांति और हिंदी प्रकाशन, हिंदी का वर्तमान, हिंदी का भविष्य, भविष्य की हिंदी, हिंदी और उसके छद्म शुभचिंतक शामिल हैं. दूसरे खंड में ब्रिटेन में हिंदी की दुर्गति, इटली में हिंदी, दक्षिणी कोरिया में हिंदी, यूरोप में हिंदी की स्थिति, विदेशों में हिंदी का अध्ययन, विदेशों में हिंदी के अध्ययन की समस्याएँ सम्मिलित हैं. लेखक ने यद्यपि प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि उन्होंने अपने अनुभवों के आधर पर टिप्पणियाँ की हैं तथा कुछ निष्कर्ष निकाले हैं अतः यह आवश्यक नहीं है कि सब उनके निष्कर्षों से सहमत हों तथापि उनके निष्कर्ष प्रायः इतने साढ़े हुए और सुचिंतित है कि उनसे सहमत ही हुआ जा सकता है.
भाषा चाहे हिंदी हो या अन्य भारतीय भाषाएँ हो या फिर विदेशी भाषाएँ, अपने प्रयोक्ता समूह, समाज अथवा देश की अस्मिता की प्रतीक होती हैं. लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने भी कहा है कि “राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं.” अपनी भाषा के प्रति प्रेम और गौरव की भावना न हो तो देश की अस्मिता खतरे में पड़ सकती है. “भाषायी स्वाभिमान केवल भावना और आत्मसंतोष का विषय नहीं है. उसके लिए कर्तव्य-बोध और व्यवहार की भी आवश्यकता है.” (डॉ. सुधेश, ‘भाषायी स्वाभिमान का प्रश्न’, हिंदी की दशा और दिशा, पृ. 11). स्मरणीय है कि बोलचाल की हिंदी में अनेक भाषाओं के शब्दों का मिश्रण पाया जाता है. कुछ लोग भले ही कहें कि बोलचाल की हिंदी का स्तर गिर रहा है लेकिन इस मिश्रित भाषा में एक खास मिठास है. समाजभाषाविज्ञान भी यह मानता है कि समाज में व्यवहृत भाषा एकरूप न होकर विषमरूपी है. अतः शब्दों, वाक्यों आदि का बहुकोडीय मिश्रण स्वाभाविक है. हिंदी भाषा की मिठास के बारे अमीर खुसरो का कथन याद आ रहा है – “अगर आप सच पूछें तो मैं हिंदुस्तान का तोता हूँ; अगर आप मिठास के साथ मुझसे बात करना चाहें तो ‘हिंदवी’ में बात कीजिए.” हाँ, इस मिश्रण के लिए भी कुछ नियम है. यदि गलत शब्दों का सहप्रयोग करेंगे तो हास्यास्पद हो सकता है.
आज भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी के कारण विश्व की भाषाएँ प्रभावित हो रही हैं. हिंदी भाषा पर भी यह प्रभाव स्पष्ट झलकता है. नए क्षेत्रों में जाने के लिए यह जरूरी भी है. जैसे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था “हमारे सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है हमारी भाषा को अनजान क्षेत्रों में ले जाना. राष्ट्रभाषा के प्रचार को मैं राष्ट्रीयता का अंग मानता हूँ. हमारी राष्ट्रभाषा की गंगा में देशी और विदेशी शब्द मिलकर एक हो जाएँगे.” डॉ. सुधेश भी इस मत के समर्थक प्रतीत होते हैं. उनकी पुस्तक की कुछ स्थापनाएँ आपके विचारार्थ यहाँ उद्धृत की जा रही हैं -
- हिंदी के विदेशी विद्वान अपनी अपनी भाषा में ही हिंदी भाषा और साहित्य के बारे में लिखते हैं. इसका कारण उनका भाषायी स्वाभिमान ही है. भारतीयों में यह भाषायी स्वाभिमान प्रायः नहीं मिलता. (पृ. 14)
- हिंदी के मिश्रण का क्रम जारी है. इससे हिंदी की शब्द संपदा बढ़ती है, उसकी अभिव्यंजना शक्ति का विकास होता है. (पृ. 23)
- बोलचाल की हिंदी एक तरह की नहीं होगी. उसके अनेक रूप और उसकी अनेक शैलियाँ होगी. उन्हें अशुद्ध कह कर उनकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए. व्याकरण सम्मत भाषा की माँग लिखित भाषा या साहित्यिक भाषा से जानी चाहिए. (पृ. 23)
- अप्रचलित, अनगढ़ विदेशी शब्दों के भार से हिंदी को बोझिल बनाना सर्वथा अनुचित है. (पृ. 26)
- अंग्रेजी पर आधारित सूचना प्रौद्योगिकी का यदि भारत भी हिस्सेदार होगा तो उस की राजनीति, उसकी व्यापारिक नीतियों, सुरक्षा नीतियों आदि तक नव उपनिवेशवादियों की पहुँच होगी, जिसके कारण भारत को अपनी उन नीतियों पर चलने में बड़ी कठिनाइयाँ होंगी. अतः सूचना प्रौद्योगिकी का विकास अपनी भाषा में करना अत्यंत आवश्यक है. (पृ. 44)
- आलोचना की भाषा में अंग्रेजी शब्दों की ठूंसठास की प्रवृत्ति यह संकेत देती है कि हिंदी एक लचर भाषा है, जिसे अंग्रेजी शब्दों की बैसाखी चाहिए. (पृ. 51)
- हिंदी और भारतीय भाषाओं के विद्वानों, लेखकों, कम्पयूटर विशेषज्ञों, तकनीकी विशेषज्ञों को संयुक्त रूप से अपनी भाषाओं के हित में काम करना होगा. हिंदी का हित भारतीय भाषाओं से अलग नहीं है. वैश्वीकरण और सूचनाक्रांति के दौर में हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाएँ भी पिछड़ रही हैं. अंग्रेजी का वर्चस्व सब को दबा रहा है इसलिए सब भारतीय भाषाओं के हितैषियों को एकजुट होकर अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती देनी चाहिए. (पृ. 59)
‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ पढ़ते हुए
[हैदराबाद के हिंदी दैनिक 'मिलाप' ने 19 जनवरी 2014 के अपने रविवारीय परिशिष्ट 'फुर्सत का पन्ना' में यह समीक्षा स्थानाभाव के कारण अंग-भंग करके छापी है. नीचे पूरा आलेख प्रस्तुत है.]
‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ पढ़ते हुए
तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ
ऋषभ देव शर्मा
2013
पृष्ठ – 204
मूल्य – रु. 395
जगत भारती प्रकाशन, सी-3-77, दूरवाणी नगर,
ए डी ए, नैनी, इलाहाबाद – 211008 (उत्तर प्रदेश )
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डॉ. ऋषभ देव शर्मा (1957) कई दशक से दक्षिण भारत में रहकर निष्ठापूर्वक हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा कर रहे हैं. इस अवधि में आपने एक सफल अध्यापक, जिज्ञासु अनुसंधानकर्ता, सुधी समीक्षक, विवेकशील संपादक और ओजस्वी वक्ता के रूप में ख्याति अर्जित की है. आपकी काव्य कृतियों में तेवरी (1982), तरकश (1996), ताकि सनद रहे (2002), देहरी (स्त्री पक्षीय कविताएँ, 2011), प्रेम बना रहे (2012) और सूँ साँ माणस गंध (2013), आलोचना कृतियों में तेवरी चर्चा (1987), हिंदी कविता : आठवाँ-नवाँ दशक (1994), साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श (2000) और कविता का समकाल (2011) तथा संपादित ग्रंथों में अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य (1999, 2009), भारतीय भाषा पत्रकारिता (2000), अनुवाद : नई पीठिका नए संदर्भ (2003), स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम (2004), प्रेमचंद की भाषाई चेतना (2006) एवं भाषा की भीतरी परतें (2012) जैसी पुस्तकें बहुप्रशंसित रही हैं. एक खास बात जो डॉ. शर्मा को अपने अनेक समकालीन और समशील रचनाकारों से अलग करती है वह यह है कि आप निरंतर नई प्रतिभाओं को प्रेरित और पोषित करते हैं. शायद यही कारण है कि उन्हें हिंदीतरभाषी हिंदीसेवियों का बड़ा स्नेह मिला है. लगभग एक दशक पूर्व प्रो. दिलीप सिंह ने उनके संबंध में ठीक ही लिखा था कि “हैदराबाद के हिंदी जगत् में ऋषभदेव जी अत्यंत लोकप्रिय हैं. सब उनका साथ चाहते हैं, और वे भी किसी को निराश नहीं करते.” यह लोकप्रियता उन्होंने तेलुगु भाषा और साहित्य के प्रति अपने प्रेम के बल पर अर्जित की है. इस प्रेम की ही परिणति है उनका सद्यःप्रकाशित निबंध संग्रह ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ (2013).
इस पुस्तक (तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ) में छह खंड हैं जिनमें 36 आलेख और 1 विस्तृत शोधपत्र सम्मिलित हैं. पहले खंड में आंध्र के महान भक्त कवियों अन्नमाचार्य, रामदास, क्षेत्रय्या, पोतना, मोल्ला और वेंगमाम्बा तथा संत कवि वेमना पर केंद्रित हिंदी पुस्तकों का विवेचन करते हुए भारतीय साहित्य में भक्ति आंदोलन के योगदान पर कुछ टिप्पणियाँ शामिल हैं. दूसरा खंड आधुनिक तेलुगु कविता को समर्पित है. इसमें जिन अनेक तेलुगु कवियों की अनूदित कृतियों की विवेचना की गई है उनमें श्रीश्री, डॉ. सी. नारायण रेड्डी, कालोजी, दिगंबर कविगण (नग्नमुनि, निखिलेश्वर, चेरबंड राजु, महास्वप्न, ज्वालामुखी और भैरवय्या), पेर्वारम, अजंता, वासा प्रभावती, डॉ. एस. शरत ज्योत्स्ना रानी, मुस्लिमवादी कविगण (एस. ए. अज़ीम, अली, ख्वाजा, आजम, दिलावर, शाहजहाना, सिकिंदर, गौस मोहिउद्दीन और स्काई बाबा), डॉ. एन. गोपि, डॉ. शिखामणि, डॉ. सी. भवानी देवी, डॉ. पी. विजयलक्ष्मी पंडित, वाणी रंगाराव, डॉ. मसन चेन्नप्पा और डॉ. एस. वी. सत्यनारायण के नाम शामिल हैं. इसी प्रकार तीसरे और चौथे खंड में कथा साहित्य और नाट्य साहित्य के अनुवादों की तटस्थ समीक्षा देखी जा सकती है. यहाँ विवेचित कृतियाँ हैं बैरिस्टर पार्वतीशम (मोक्कपाटी नरसिंह शास्त्री), द्रौपदी (डॉ. यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद), नई इमारत के खंडहर (सय्यद सलीम), अहल्या (चलसानी वसुमती), सोने की वर्षा (डॉ. भार्गवी राव), बारिश थम गई (एल. आर. स्वामी), आक्रमण कब का हो चुका (पेद्दिन्टि अशोक कुमार), पंचामृत (डॉ. डी. विजय भास्कर) तथा अक्षर (नंदि राजु सुब्बाराव). साथ ही, आरंभिक भारतीय उपन्यासों पर एक शोधग्रंथ (आर. एस. सर्राजू) और प्रतिनिधि तेलुगु कहानियों के 2 संकलनों की भी विवेचना की गई है जिसके कारण तेलुगु कथा साहित्य के संपूर्ण परिदृश्य का विहंगम अवलोकन संभव हो सका है. पाँचवे खंड में 4 आलेख हैं – तेलुगु साहित्य का परिवर्तनशील परिदृश्य, बीसवीं सदी का तेलुगु साहित्य, हिंदी तेलुगु तुलना और हिंदी में दक्षिण भारतीय साहित्य जिनमें क्रमशः निखिलेश्वर, डॉ. आई. एन. चंद्रशेखर रेड्डी, डॉ. शकीला खानम और डॉ. विजय राघव रेड्डी की हिंदी पुस्तकों के बहाने तेलुगु साहित्य के इतिहास, आलोचना और अनुवाद पक्ष की चर्चा की गई है. पुस्तक के छठे खंड में तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद की परंपरा और उसके प्रदेय पर केंद्रित 56 पृष्ठों का एक सुविस्तृत शोधपत्र प्रकाशित किया गया है. मुझे भी सहलेखक के रूप में इस शोधपत्र के लिए काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. यह अपनी प्रकार का शायद पहला शोधपत्र है जिसमें अनुवाद परंपरा की चर्चा के बाद तेलुगु से अनूदित पाठों का गहराई से विश्लेषण करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि हिंदी के भाषा समाज को ये अनुवाद किस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषिक और साहित्यिक स्तर पर समृद्ध करते हैं. ‘भास्वर भारत’ (दिसंबर 2013) में प्रो. गोपाल शर्मा ने इस खंड को इस पुस्तक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंश मानते हुए लिखा है “कहना न होगा कि इस विस्तृत खंड में हिंदी में आए तेलुगु साहित्य के कुछ पाठों से ही ज्ञात हो जाता है कि तेलुगु भाषासमाज की सांस्कृतिक विशेषताएं एक ओर तो समग्र भारत के समान है और दूसरी ओर इसमें किंचित इंद्रधनुषी विभिन्नताएँ भी हैं. तेलुगुभाषी लेखक समय-समय पर तेलुगु जीवन शैली का विवरण-विश्लेषण भी करते जाते हैं और हिंदी के पाठक समझ जाते हैं कि आंध्र जीवनशैली में किन-किन सांस्कृतिक चिह्नों का प्रयोग आज भी हो रहा है. इस प्रकार के तुलनात्मक समाजभाषावैज्ञानिक अध्ययन की हिंदी में यह पहली मिसाल देखने में आई है.” वस्तुतः यह अनुवाद का सेतुधर्म है और प्रो. शर्मा की यह पुस्तक इस सेतुधर्म को ही विशेष रूप से रेखांकित करती है.
तेलुगु और हिंदी के भाषासमाजों के बीच इस साहित्यिक सेतु के निर्माण में मूल रचनाकारों और प्रस्तुत ग्रंथकार का संवाद अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. परंतु यहाँ यह कहना जरूरी है कि यह संवाद अनुवादकों के बल पर ही संभव हुआ है. प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने इस पुस्तक में जिन 23 अनुवादकों के द्वारा अनूदित सामग्री का विवेचन किया है वे हैं डॉ. भीमसेन निर्मल, डॉ. एम. बी. वी. आई. आर. शर्मा, डॉ. निर्मलानंद वात्स्यायन, डॉ. एम. रंगैया, डॉ. पी. माणिक्यांबा, डॉ. जे.एल. रेड्डी, डॉ. टी. मोहन सिंह, प्रो. पी. आदेश्वर राव, डॉ. विजय राघव रेड्डी, डॉ. भागवतुल सीता कुमारी, डॉ. वाई. वेंकटरमण राव, आर. शांता सुंदरी, एस. शंकराचार्लु, निखिलेश्वर, पारनंदि निर्मला, डॉ. आर. सुमनलता, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, जी. परमेश्वर, डॉ. म. लक्ष्मणाचारी, डॉ. वेन्ना वल्लभ राव, डॉ. के. श्याम सुंदर, डॉ. संतोष अलेक्स एवं डॉ. बी. विश्वनाथाचारी. वस्तुतः, जैसा कि प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ‘भूमिका’ में निर्दिष्ट किया है, “यह ग्रंथ अनूदित साहित्य के प्रति ऋषभ देव शर्मा की सहज संवेदना को प्रदर्शित करता है. भारतीय संदर्भ में हिंदी में इतर भाषा से अनूदित साहित्य मूल भाषासमाज की सांस्कृतिक अस्मिता को समझने के लिए वृहत पाठक वर्ग को अवसर प्रदान करता है. यह ग्रंथ हिंदीभाषी पाठकों एवं शोधार्थियों के लिए तेलुगु साहित्य के गणनीय हिस्से को समझने में न केवल सहायक होगा बल्कि यह शोध के क्षेत्र में नई संभावनाओं को भी विकसित करेगा. तेलुगु साहित्य के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए यह ग्रंथ उत्प्रेरक की भूमिका अवश्य निभाएगा.”
अंत में, मैं यह उल्लेख करना चाहूँगी कि इस पुस्तक का समर्पण-वाक्य अत्यंत भावपूर्ण और श्लाघनीय है “समकालीन भारतीय कविता के उन्नायक ‘नानीलु’ के प्रवर्तक परम आत्मीय अग्रज कवि प्रो. एन. गोपि को सादर” समर्पित यह कृति हिंदी और तेलुगु साहित्यकारों के बीच भावपूर्ण स्नेह-संबंध की प्रतीक और प्रतिमान बन गई है. इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि प्रो. ऋषभ देव शर्मा की इस आलोचना कृति को हिंदी के साथ साथ तेलुगु समाज का भी भरपूर स्नेह प्राप्त होगा.
- गुर्रमकोंडा नीरजा
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रविवार, 12 जनवरी 2014
स्त्री-पुरुष में द्वैताद्वैत वादी संबंध वांछित है
“प्रश्न गाँव औ’ शहरों के तो
हम पीछे सुलझा ही लेंगे
तुम पहले कंधों पर सूरज
लादे होने का भ्रम छोड़ो.
*****
कैसे हवा उठेगी ऊपर
तपने पर भी
कैसे कोई बारिश में भीगेगा हँसकर?
छत पर आग उगाने वाले
दीवारों के सन्नाटों में
क्या घटता है –
हम पीछे सोचें सलटेंगे
तुम पहले कंधों पर सूरज
लादे होने का भ्रम छोड़ो.”
(कविता वाचक्नवी, मैं चल तो दूँ)
(कविता वाचक्नवी, मैं चल तो दूँ)
इसमें संदेह नहीं कि आज की स्त्री का पुरुष के प्रति दृष्टिकोण प्राचीन और मध्यकालीन स्त्री की तुलना में बड़ी सीमा तक परिवर्तित हुआ है. यदि प्राचीन भारतीय स्त्री के लिए पुरुष पिता, पति और पुत्र के रूप में ऐसी सुरक्षा की गारंटी था जिसके चलते उसे किसी स्वतंत्रता की आवश्यकता नहीं थी तथा मध्यकालीन भारतीय स्त्री के लिए पुरुष मालिक और परमेश्वर था जिसकी सर्वोपरि इच्छाओं के समक्ष बलिदान हो जाना ही स्त्री की नियति थी और इसे ही वह अपना अहोभाग्य समझती थी; तो इन दोनों प्रकार की मानसिकताओं से आगे बढ़कर आज की प्रगतिशील स्त्री की मानसिकता पुरुष को समता के धरातल पर मित्र और सखा के रूप में स्वीकार करने की मानसिकता है.
इसमें संदेह नहीं कि रखवाला और मालिक मानकर पुरुष के समक्ष आत्महीनता और आत्मदया से ग्रस्त रहने वाली स्त्रियाँ आज भी हमारे समाज में बड़ी संख्या में हैं. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पुरुष से मैत्रीपूर्ण आचरण की अपेक्षा रखने वाली स्त्री भी इसी पृष्ठभूमि की जमीन तोड़कर पुरातनता के खोल से बाहर निकलकर आ रही है.
यह प्रगतिशील स्त्री, स्त्री और पुरुष की गैरबराबरी को स्वीकार नहीं करती बल्कि मनुष्य होने के पने अधिकार को पहचानती है. अपने अधिकार की इस पहचान ने उसे आत्मविश्वास और दृढ़ता प्रदान की है. हिंदी साहित्य में यह दृढ़ और आत्मविश्वासी स्त्री प्रेमचंद और प्रसाद के समय से ही दिखाई देने लगी थी - धनिया और ध्रुवस्वामिनी जैसे पात्रो के रूप में. यशपाल के ‘दिव्या’ और ‘दादा कामरेड’ जैसे उपन्यासों में भी प्रगतिशील स्त्री का यह नया चेहरा दिखाई देता है. लेकिन फिर एक दौर ‘नई कहानी’ के जमाने में ऐसी मानसिकता का आया कि तमाम कहानी-उपन्यासों में आधुनिक स्त्री को कुंठित मानसिकता वाली दर्शाया जाने लगा. यह स्वतंत्र भारत के आरंभिक दशकों का वह दौर था जब स्त्रियाँ बड़ी संख्या में घर के बाहर निकल रही थीं और कामकाजी स्त्री के रूप में नया अवतार ले रही थीं. हो सकता है कि मेरी यह बात बहुत प्रामाणिक न हो परंतु मुझे लगता है कि उस दौर के कथाकार स्त्री की इस प्रगति से बड़ी सीमा तक आतंकित और आशंकित दिखाई देते हैं. यही कारण है कि उस दौर में स्त्री की जिस छवि का निर्माण किया गया वह दमित वासनाओं से संचालित थी. परंतु यह छवि सही रूप में प्रगतिशील स्त्री का प्रतिनिधित्व नहीं करती. इसके बाद जब 20वीं सदी के अंतिम दो दशकों में विमर्शों ने जोर पकड़ा तो स्त्री विमर्श के नाम पर भी आरंभ में काफी भ्रमपूर्ण स्थितियाँ सामने आईं. लेकिन धीरे धीरे धुंध हट गई और एक ऐसी प्रगतिशील स्त्री सामने आई जो पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकता चलती ही है, उसकी आँखों में आँखें डालकर देखती भी है और पुराने जमाने की नायिकाओं की तरह मूर्छित नहीं हो जाती.
जब हम कहते हैं कि पुरुष के संबंध में आज की स्त्री का नज़रिया बदल रहा है तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि वह पति परमेश्वर वाले आतंककारी संबंध से निकलकर पति को सहयात्री के रूप में स्वीकार करती है, मालिक के रूप में नहीं. दरअसल यदि परिवार को लोकतांत्रिक सामाजिक संस्था के रूप में देखा जाए तो स्त्री और पुरुष दोनों ही को परस्पर मालिक और गुलाम मानने की मानसिकता से मुक्त होना होगा. आज की स्त्री चाहती है कि पुरुष समय-असमय अपना ‘पतिपना’ न दिखाया करे. स्त्री को भी गाहेबगाहे प्रतिपल अपना ‘पत्नीपना’ दिखाने की प्रवृत्ति से बाज़ आना होगा. वह ज़माना गया जब पति-पत्नी ‘दो शरीर एक प्राण’ होते थे क्योंकि इस एकप्राणता के लिए दो में से किसी एक को अपना व्यक्तित्व दूसरे के व्यक्तित्व में विलीन करना होता था. आज की स्त्री अपने व्यक्तित्व को इस तरह पुरुष के व्यक्तित्व में विलीन करने के लिए तैयार नहीं है. उसे अपनी स्पष्ट पहचान और परिवार तथा समाज में अपना स्थान व सम्मान चाहिए. भारतीय परंपरा में ‘अर्द्धनारीश्वर’ इस परस्पर पहचान की स्वीकृति का अत्यंत सुंदर और समर्थ प्रतीक है. यह बात भी समझनी चाहिए कि स्त्री-पुरुष दुनिया की दो विपरीत अपूर्ण इकाइयाँ हैं जिन्हें प्राकृतिक संरचना के कारण पूर्णता प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे की जरूरत होती है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. ऐसी स्थिति में विचारों के स्तर पर भेद को सहन करना सीख लेना ज्यादा अच्छा होगा. हाँ, इन स्थितियों के आधार पर यह तो कहा ही जा सकता है कि पति-पत्नी ‘दो शरीर एक प्राण’ नहीं बल्कि ‘दो शरीर और दो प्राण’ ही होते हैं. (नीलम कुलश्रेष्ठ, परत दर परत स्त्री, पृ. 77). अभिप्राय यह है कि स्त्री को ‘मानव’ के रूप में स्वीकृति चाहिए. यह स्वीकृति पुरुष के प्रति स्त्री के दृष्टिकोण को भी बदलने और व्यापक बनाने वाली साबित होगी, इसमें संदेह नहीं.
आज की प्रगतिशील नारी यह समझ चुकी है कि उसकी पुरुष के साथ प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा नहीं है. उसे शिकायत है तो पुरुष के मालिकाना और अहंवादी व्यवहार से है. अधिकतर घरेलू ही नहीं कामकाजी स्त्रियां भी यह महसूस करती हैं कि पुरुष स्त्री के श्रम से लेकर धन तक और प्रेम से लेकर संतान तक सब कुछ को लेता तो अपना अधिकार समझकर है, लेकिन देने की बात आती है तो घर खर्च के कुछ रुपए देते वक्त भी उसका अंदाज ऐसा होता है जैसे स्त्री को खैरात दे रहा हो. ‘यदि पुरुष अपने अहं से निकलकर सिर्फ अपनी मानसिकता बदल लें तो सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी.’ (वही, पृ. 159).
यही कारण है कि आज दुनिया के हर कोने में औरतें यही चाह रही हैं कि पुरुष अपनी मानसिकता बदलें. जिन्होंने अपनी मानसिकता को बदल लिया है वे निश्चित ही स्वस्थ संबंधों और सभ्य समाज की नई इमारत बना रहे हैं.
अंत में एक बात की ओर इशारा जरूरी है कि प्रगतिशीलता के कारण जो तनाव और संघर्ष पैदा हुए हैं उनमें ‘जो पिछली पीढ़ी के जीवन की सर्वोत्तम निधि नष्ट हुई है वह है स्त्री-पुरुष के बीच के आकर्षण का सौंदर्यबोध व आपसी सहज संबंध. दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पर वार एवं प्रतिवार करते रह गए हैं.’ (वही, पृ. 160). आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे को पूर्ण मानव माने तथा एक दूसरे की भावनाओं और संवेदनाओं का सम्मान करें. ऐसा होगा तो आनेवाला समय निश्चय ही मंगलमय होगा. स्त्री के मुक्त होने या मानव के रूप में पहचाने जाने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि स्त्री पुरुष के बीच के मधुर संबंध को नकार दिया जाए. दरअसल दोनों एक-दूसरे से द्वैताद्वैत वादी संबंध की उम्मीद रखते हैं. यानी हमारा अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी हो और हम एक-दूसरे के होकर भी रहें. ऐसी स्तिथि में ‘दोनों अपनी अपनी स्वायत्तता में दूसरे का अनन्य रूप भी देखेंगे. संबंधों की पारस्परिकता और अन्योन्याश्रितता से, चाह, अधिकार, प्रेम और आमोद-प्रमोद के अर्थ समाप्त नहीं हो जाएँगे और न ही समाप्त होंगे दो संवर्गों के बीच से शब्द देना, प्राप्त करना, मिलन होना; बल्कि दासत्व जब समाप्त होगा और वह भी आधी मानवता का, तब व्यवस्था का यह सारा ढोंग समाप्त हो जाएगा तथा स्त्री-पुरुष के बीच का विभेद वास्तव में एक महत्वपूर्ण नई सार्थकता को अभिव्यक्त करेगा.’ (सिमोन द बोउवार, स्त्री : उपेक्षिता).
(चेन्नई के अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (11.1.14) में प्रस्तुत शोधपत्र.)
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