आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है
पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है
आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है
(ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है, रामावतर त्यागी)
इन पंक्तियों के रचनाकार हैं सुप्रसिद्ध गीतकार रामावतार त्यागी (17 मार्च, 1925-12 अप्रैल 1985)। उनका जन्म मुरादाबाद जिले (उत्तर प्रदेश) के कुरकावली ग्राम में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा 10 साल की उम्र में शुरू हुई थी। हिंदी साहित्य जगत में वे ‘पीड़ा के गायक’ के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन वे आस्था और जिजीविषा के कवि भी हैं, जो इस दुनिया को बेहतर बनाने के सपने देखा करते थे। रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं कि “दर्द की छोटी-सी टीस, मगर, पता नहीं, वह कहाँ से उठती और कहाँ जाकर विलीन हो जाती है। उमंग का एक मतवाला झोंका जो आता तो बड़ी नरमी से है, मगर, सारी वाटिका के भीतर एक सिहरन-सी दौड़ जाती है। किसी नन्हीं उंगली की एक हल्की-सी चोट पड़ती तो एक तार पर है, किंतु जीवन-वीणा के सारे तार एक साथ झनझना उठते हैं।” (रामधारी सिंह दिनकर, भूमिका, आठवाँ स्वर, रामावतार त्यागी, पृ. 6)। जी हाँ, रामावतार त्यागी की कविताओं में वह शक्ति है जो पाठकों के हृदय को झंकृत कर देती है।
रामावतार त्यागी की काव्य कृतियों में नया खून (1953), आठवाँ स्वर (1958), मैं दिल्ली हूँ (1959), सपना महक उठे (1965), गुलाब और बबूल वन (1973), गाता हुआ दर्द (1982), लहू के चार कतरे (1984), गीत बोलते हैं (1986, मरणोपरांत प्रकाशित) आदि उल्लेखनीय हैं। उन्होंने महाकवि कालिदास रचित ‘मेघदूत’ का काव्यानुवाद भी किया और कविता के अलावा उन्होंने उपन्यास (समाधान और राम झरोखा), पत्र साहित्य (चरित्रहीन के पत्र) और कहानियाँ (राष्ट्रीय एकता की कहानियाँ) भी रचीं। समाज (मासिक) और प्रगति (त्रैमासिक) पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
भावुक गीतकार रामावतार त्यागी अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे। उनके गीतों में उनके जीवन के अनुभवों को देखा जा सकता है। वे अपनी अनुभूतियों को गीतों में पिरोते हैं। उनके व्यक्ति रूप और कवि रूप में से किसी एक की उपेक्षा करके दूसरे को समझ ही नहीं सकते। कहने का अर्थ है कि दोनों एक-दूसरे में इस तरह समाहित हैं कि एक के अभाव में दूसरा अधूरा लगेगा। उनके व्यक्तित्व के संबंध में डॉ. शेरजंग गर्ग लिखते हैं कि “पहली मुलाकात में कठिन-सा लगने वाला व्यक्तित्व जब खुल जाता था, तो बहुत जल्दी आत्मीय बन जाता था। बात-बात पर जुमले कसना, बहुत धीमे-धीमे मुस्कराते हुए हँसना और वेशभूषा में कतई सामान्य-सा लगना त्यागी के व्यक्तित्व को बहुत असामान्य बनाते थे।” (सं. शेरजंग गर्ग, भूमिका, हमारे लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी, पृ.11)। वे यह भी कहते हैं कि उनके काव्य पाठ में भी कोई विशेष आकर्षण नहीं होता था, लेकिन उनकी कविताओं और गीतों में निहित भावुकता, पीड़ा और संघर्ष की बानगी अंतर्मन को झकझोरने में समर्थ थीं।
रामावतार त्यागी हमेशा नए प्रयोग करते हैं। डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय यह मानते हैं कि त्यागी की कविताओं में मानव मूर्ति मुस्कुराकर उभरती है। वे आगे यह कहते हैं कि इसके निर्माण में समष्टिमूलक नए मानव मूल्य हैं। (अति-आधुनिक हिंदी काव्य में यथार्थवाद, विश्वंभरनाथ उपाध्याय, समालोचक, फरवरी 1959, पृ.117)।
त्यागी जी कह उठते हैं कि-
मेरे गीत रहें जीवन भर कारावास भोगतें,
लेकिन मैं गुमराह स्वर्ण को अपनी कलम नहीं बेचूँगा!
उक्त पंक्तियों को पढ़ते समय भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ’ अनायास ही स्मरण हो आई। उसमें मिश्र जी कहते हैं - 'जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।/ मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ;/ मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ।’ कहा जाता है कि मिश्र जी ने पश्चात्ताप स्वरूप इन पंक्तियों को रचा था। साहित्य की दुनिया में यह कविता आत्म व्यंग्य का उदाहरण बन गई। त्यागी जी भी आहत होकर पलटवार के रूप में लिखा है -
सुन लो गीत बेचने वाले
ओ सौदागर, ओ व्यापारी
अपने भरे भरे लोचन से तुमने कितने गीत लिखे हैं?
शब्दों के रेशमी नमूने
देख लिए अब माल दिखाओ
कोई गीत जड़ें हो तुमने
जिस पर तीनों कला दिखाओ
बातें करते हुए पवन से तुमने कितने गीत लिखे हैं?
रामावतार त्यागी को जो नजदीक से जानते हैं, वे उनके व्यक्तित्व के बारे में सटीक रूप से कह सकते हैं। वे अक्खड़, तुनक मिजाज और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अतः वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि -
मेरी खुशियों को चाहे जब जिंदा मरघट में दफना दो,
लेकिन मैं बदचलन पतन को अपना जनम नहीं बेचूँगा।
दीपक बिक सकता है जिसका
अंतर ज्योतिर्मान नहीं है
पर अंगारे को खरीदना
दुनिया में आसान नहीं है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ यह स्वीकार करते हैं कि उन्हें रामावतार त्यागी के गीत बेहद पसंद हैं। “उसके रोने, उसके हँसने, उसके बिदकने और चिढ़ने, यहाँ तक कि उसके गर्व में भी एक अदा है, जो मन को मोह लेती है।” (भूमिका, आठवाँ स्वर, रामावतार त्यागी, पृ. 6)। त्यागी की कविताओं पर चर्चा करते हुए दिनकर जी ने तीन बातों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। निःसंदेह ये बातें रामावतार त्यागी की कविता को समझने में सहायक सिद्ध होंगी -
● महादेवी और बच्चन ने जो परंपरा चलाई वह जनता को अब भी पसंद है। वही परंपरा नीरज, त्यागी, वीरेंद्र, राही आदि कवियों के भीतर से अपना प्रसार कर रही है।
● बच्चन तक हिंदी गीतों के छंद केवल हिंदी के छंद से लगते थे, अब वे उर्दू के पास पहुँच रहे हैं। भाषा भी इन गीतों की हिंदुस्तानी रूप ले रही है। कहाँ है हिंदी में रिवाइवलिज़्म? यह तो रिवाइवलिज़्म के ठीक विपरीत चलने वाली धारा है।
● तीसरी बात यह है कि जिस ओर से प्रयोगवादी कवि अपना नूतन प्रयोग कर रहे हैं, उसी ओर से इस पीढ़ी के अनेक नव कवि गीतों में अपना अंतर उंडेल रहे हैं। यह ठीक है कि नए आलोचकों ने अपनी आशा प्रयोगवाद से बाँध रखी है, किंतु, जनता का प्रेम आज भी इन गीतों पर ही बरस रहा है। (रामधारी सिंह दिनकर, भूमिका, आठवाँ स्वर, रामावतार त्यागी, पृ.6-7)।
रामावतार त्यागी के गीतों को ध्यान से पढ़ने पर यह बात स्पष्ट होती है कि वे दुनिया वालों को चुनौती दे रहे हैं। वे समाज के जटिल बंधनों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध हैं। वे कहते हैं -
मैं तो तोड़ मोड़ के बंधन
अपने गाँव चला जाऊँगा
तुम आकर्षक संबंधों का,
आँचल बुनते रह जाओगे।
वस्तुतः हम सब प्रेम के दो पक्ष - वियोग और संयोग - के बारे में काफी पढ़ चुके हैं। मध्यकालीन कविताओं में इन दोनों रूपों को देख भी चुके हैं। पर प्रेम का एक और पक्ष है - विश्व शांति का। जिंदगी से प्रेम करने वाला व्यक्ति युद्ध का विरोध अवश्य करेगा, लेकिन जहाँ युद्ध अनिवार्य है वहाँ वह जरूर गुहार लगाएगा, जनता को चेताएगा यह कहकर कि ‘लेकिन युद्ध तो अनिवार्य है।’ रामावतार त्यागी का संवेदनशील हृदय उस जन-मानस के साथ है जो सबके लिए अन्न पैदा करता है, पर खुद दो जून रोटी के लिए कर्ज के तले दब जाता है। ‘किसान दिवस’ (23 दिसंबर) पर लिखी उनकी एक कविता का अंश देखें -
जुलूसों और नारों से।
प्रदर्शन या प्रचारों से,
न कोई देश जीता है,
सभाएँ बंद कर, चल खेत में या कारखानों में,
सिपाही के लिए कपड़े, जवानों के लिए रोटी,
सभाएँ बन नहीं सकती, लगी है जान की बाजी,
यह तो वक्त है कुछ काम कर, कुछ काम कर प्यारे,
विवादों को उठाने से,
न कोई देश जीता है
रामावतार त्यागी अपने अनूठे तेवर और अंदाज के लिए जाने जाते हैं। वे निराशा की स्थिति में भी आशा का संचार करवाना चाहते हैं। इसीलिए कह गए -
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
इक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
रामावतार त्यागी के गीतों में उनके जीवन-दर्शन को भी देखा जा सकता है। इनके अलावा किसी और कवि या गीतकार यह कहने का साहस नहीं कर पाया कि
मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने
और बर्बाद किया क़ौम के अय्याशों ने
तेरे दामन में बस मौत से ज़्यादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है
देखते-देखते दुनिया ही उजड़ जाती है
मेरी कश्ती तेरा तूफ़ान से वादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
‘जिंदगी और तूफान’ फिल्म के गीत ‘ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है’ ने रामावतार त्यागी की प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए थे। कहा जाता है कि त्यागी ने इसके बाद फिल्मों के लिए गीत लिखना स्वीकार नहीं किया। फिक्र तौंसवी का यह कथन उल्लेखनीय है कि “त्यागी ने फिल्मी दुनिया को एक हसीन और दिलचस्प गीत देकर तलाक दे दिया। कहने लगा, हम शायर हैं भड़भूँजे नहीं है। और बंबई का फिल्म स्टार सौदागरों का स्टार है। वह गुड, बेसन, चीनी, मूँगफली और शायरी सबको मार्केट का माल समझते हैं। मैं अब कभी उधर का रुख नहीं करूँगा।” (सं. शेरजंग गर्ग, हमारे लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी, पृ. 7)
कहने की जरूरत नहीं कि दर्द किसी भी व्यक्ति को इस तरह माँजता है कि वह औरों के दुख-दर्द को समझने में समर्थ हो जाता है। इतना ही नहीं, उसे उनकी पीड़ा के सामने अपनी पीड़ा बहुत छोटी नजर आती है-
हारे थके मुसाफिर के चरणों को धोकर पी लेने से
मैंने अकसर यह देखा है मेरी थकन उतर जाती है।
कोई ठोकर लगी अचानक जब-जब चला सावधानी से
पर बेहोशी में मंजिल तक जा पहुँचा हूँ आसानी से
रोने वाले के अधरों पर अपनी मुरली धर देने से
मैंने अकसर यह देखा है, मेरी तृष्णा मर जाती है॥
आचार्य क्षेमचंद्र सुमन ने रामावतार त्यागी को ‘गीतों के राजकुमार’ कहकर संबोधित किया है। सच में वे गीतों के राजकुमार ही हैं। उन्होंने नए समाज के निर्माण में अपनी भूमिका को पहचान लिया था -
इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ;
मत बुझाओ!
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी!
×××
मैं जहाँ धर दूँ क़दम वह राजपथ है;
मत मिटाओ!
पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!
×××
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ
मत सुखाओ!
मैं खिलूँगा, तब नई बगिया खिलेगी!
रामावतार त्यागी के गीतों के संबंध में रमेश गौड़ कहते हैं कि “त्यागी के गीत किसी व्यक्ति विशेष का विलाप न होकर पूरे समाज की आज की स्थिति को वाणी देते हैं। और जो लोग मुझसे सहमत नहीं हैं, उनसे अत्यंत विनम्र शब्दों में पूछना चाहता हूँ कि जब वह कहता है, ‘ठोकर सह बोलूँ नहीं इतना मुझे संयम न दो’ या ‘मेरे अधर न कम झुलसे हैं मेरी प्यास न हरगिज कम हैं’ तो क्या वह एक व्यक्ति के रूप में बोलता है?” (सं. शेरजंग गर्ग, हमारे लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी, पृ.9)। सच भी है, उनके गीत व्यक्तिगत गाथा नहीं, बल्कि ‘जिंदगी निर्माण की जीवन-कथा है।’
रामावतार त्यागी के गीतों में मानव जीवन से जुड़े तमाम आयामों को देखा जा सकता है। एक ओर उनके गीतों में शहर का कोलाहल है तो दूसरी ओर गाँव की स्मृतियाँ -
तन बचाने चले थे कि मन खो गया
एक मिट्टी के पीछे रतन खो गया
घर वही, तुम वही, मैं वही, सब वही
और सब कुछ है वातावरण खो गया
यह शहर पा लिया, वह शहर पा लिया
गाँव का जो दिया था वचन खो गया
रामावतार त्यागी यह जानते हैं कि इस संसार में मनुष्य को भी बेजान वस्तु की तरह खरीदने की होड़ लगी हुई है। ऐसे में मनुष्य का ईमान डगमगाने लगेगा तो आश्चर्य की बात नहीं है। पर त्यागी जी कहते हैं -
दूकानों में होड़ लगी है
ईमानों को खरीदने की
रेगिस्तानों ने जिद पकड़ी
उद्यानों को खरीदने की
मेरे दर्पण को यदि संभव हो तो खंड खंड कर डालो
लेकिन मैं तन की इच्छा पर मन का नियम नहीं बेचूँगा।
त्यागी जी के गीतों में जहाँ एक ओर पर-दुख कातरता है, मनुष्यता है, संवेदनशीलता है, वहीं दूसरी ओर उनके गीतों में आस्था और जिजीविषा है। कवि का आत्मविश्वास यह कहने में संकोच नहीं करता कि-
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नजर में
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए
त्यागी जी की कविताओं में जीवन संघर्ष के साथ-साथ भ्रष्ट तंत्र के प्रति विद्रोह भी मुखरित है। जहाँ मानव विरोधी शक्तियाँ प्रबल होती जा रही हैं वहाँ गीतकार बेईमान समय के सामने अपना अहं नहीं बेचना चाहता और दृढ़ संकल्प लेता है, यह कहकर कि-
मेरे सपनों को सूली पर लटका दो तुम बड़ी खुशी से
पर मैं बेईमान समय को अपना अहं नहीं बेचूँगा।
×××
सूनी काल कोठारी में ही सारी उम्र बिता दूँगा
लेकिन किसी मोह को अपने कवि का धरम नहीं बेचूँगा।
समाज में चारों ओर व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं को देखकर रामावतार त्यागी आक्रोश से भर उठते हैं और घोषित करते हैं -
देश के समुद्र में बूँद-बूँद डाल दो
दुश्मनों को देश की जमीन से निकाल दो
तेज और भाइयो तेज करो आग को
आंधियाँ न सोख लें देश के चिराग को
भाल से खरोंच दो स्याह-स्याह दाग को
नाच-नाच युद्ध में झूम-झूम ताल दो,
दुश्मनों को देश की जमीन से निकाल दो
मानव मन की गहन अनुभूतियों को गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करने वाले रामावतार त्यागी जिजीविषा और आस्था के कवि हैं। वे आत्मविश्वास के साथ मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे और आजीवन एक ऐसे इंसान की तलाश करते रहे जो-
मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
कहना ही होगा कि रामावतार त्यागी आस्था, जिजीविषा, संवेदना, स्वाभिमान, देशप्रेम, मानवीय गंध की प्यास, मूल्य, गाँव, शहर, प्रेम, विरह, पीड़ा, संघर्ष, रूढ़िवादी मानसिकता के प्रति विद्रोह आदि सुंदर मानकों को गीत-माला में पिरोने वाले रचनाकार हैं। समझौतों के शहर में रहने के बावजूद उन्होंने अपने अंदर गाँव को जीवित रखा। वे भाग्य पर नहीं, कर्म पर विश्वास रखते हैं। उनके अनुसार ‘बनाने के लिए हमने स्वयं किस्मत बनाई है’ और इस राह में ‘विफलता मात्र पूँजी है, निराशा ही कमाई है’ तथा ‘जलन से दोस्ती है’ और ‘उलझनों से आशनाई’। उनकी लड़ाई किसी और से नहीं बल्कि अपने अस्तित्व से ही है। उनका कवि मन न विरोधों की चिंता करता है और न ही बाधा के पग पर शीश धरता है। वह उन हमदर्दों से डरता है जो पीठ पीछे वार करता है। साफ दिखाई देने वाले शूलों से भयभीत नहीं है, पर ‘फूलों की उत्कंठित मुसकानों से डरता’ है; ‘राम के तन से मिट्टी नोचकर रावण की मूर्ति गढ़ने वालों’ से डरता है! ‘दर्द तो वह अनमोल धन है, जो सबके भाग्य में नहीं होता।’ त्यागी जी ऐसे दर्द को गले लगाते हैं जो इंसान को इंसान बनाए रखने में सहायक हो। वे बार-बार यह कहते हैं कि-
पूरी तरह टूटे बिना
दुख का मजा आता नहीं
आधी तड़प से गीत भी
पूरा लिखा जाता है।
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संदर्भ ग्रंथ
1. त्यागी, रामावतार (1958 प्रथम आवृत्ति). आठवाँ स्वर. दिल्ली : फ्रैंक ब्रदर्स एंड कंपनी
2. त्यागी, रामावतार (1959). मैं दिल्ली हूँ. दिल्ली : साहित्य संस्थान
3. त्यागी, रामावतार (1986 ). गीत बोलते हैं. दिल्ली : आत्माराम एंड संस
4. सं. गर्ग, शेरजंग (2006). हमारे लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी. नई दिल्ली : वाणी
5. प्र. सं. शर्मा, रामविलास (फरवरी 1959). समालोचक. द्वितीय वर्ष. अंक 1. जयपुर