शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं : ‘अम्न का राग’



मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
जीवन;
कण समूह में हूँ मैं केवल
एक कण!
- कौन सहारा!
मेरा कौन सहारा!" (शमशेर; ‘लेकर सीधा नाम’; कुछ कविताएँ; पृ.17)।

शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 -12 मई,1993) ने प्रगतिशील कविता को एक नया आयाम दिया है। वे कम्यूनिस्ट आदर्शों से अपने आपको प्रभावित मानते हैं। उन्होंने स्वयं कहा है कि "बनारस में शिवदान सिंह चौहान के सत्संग से सहित्य के प्रगतिशील आंदोलन में कुछ दिलचस्पी पैदा हुई। सन्‌ 45 में ‘नया साहित्य’ के संपादन के सिलसिले में बंबई गया। वहाँ कम्यूनिस्ट पार्टी के संगठित जीवन में, अपने मन में अस्पष्‍ट बने हुए सामाजिक आदर्शों का मैंने एक बहुत सुंदर सजीव रूप देखा।" (डॉ.सूर्यप्रकाश विद्‍यालंकार; सप्‍तक त्रय : आधुनिकता एवं परंपरा; पृ.183)।

शमशेर ने लौकिक जीवन के अनेक रंगों और मानव हृदय की भावनाओं को अपनी कविता में उकेरा है। उन्होंने सूक्ष्मतम संवेदनाओं और अनुभूतियों की कभी उपेक्षा नहीं की। इतना ही नहीं उन्होंने चित्रकला, संगीत और स्थापत्य के उपकरणों का भी कविता में प्रयोग किया है। शमशेर ने एक अनूठी शैली विकसित की जिसे ‘शमशेरियत’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने शब्द को साकार रूप दिया। अपनी रचना शैली पर पड़े विभिन्न कवियों के प्रभाव के संबंध में उनका कहना है कि "फिर भी जो रचना शैली मैं सन्‌ 39 से अपनाता चला आया था उसको कोशिश के बावजूद भी सीधा स्पष्‍ट और स्वस्थ रूप नहीं दे सका, हालांकि बंबई आने के बाद ‘नए पत्ते’ के निराला, ‘वक्‍त की आवाज’ के जोश, चंद्रभूषण त्रिवेदी, रामकेर, माया काव्स्की और लोर्का मेरे आदर्श बन गए थे। मेरी शैली पर निराला के अलावा एक के बाद एक बाद और घुल मिलकर भी, इन कवियों की शैली का जिनकी दो-चार आठ-दस कविताएँ मैंने पढ़ ली थीं, काफी असर था, शायद इसलिए कि अपनी भावनाओं की भाषा मुझे एकदम इनमें मिल गई : वर्ले (अनुवाद में), लारेंस, इलियट, पाउंड, कर्मिंग्स, हापकिंस, ईडिथ, सिटवेल, डायलन टामस। ...तथा पंत ने मुझे पहले कविता की भाषा दी।" (वही; पृ.184)।

शमशेर ने अपनी कविताओं में जन आंदोलनों को एक नया रूप देना का प्रयास किया है। वे कहते हैं कि "कला का संघर्ष समाज के संघर्ष से एकदम कोई अलग चीज़ नहीं हो सकती और इसलिए आज इन संघर्षों का साथ दे रहा है। सभी देशों में बेशक यहाँ भी, दरअसल आज की कला का असली भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलनों में हिस्सा ले रहे हैं। टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि, उस भेद को जहाँ वह है वहीं से पा सकते हैं, वे उसको पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" (डॉ.धनंजय वर्मा, ‘शमशेर : आधुनिकता का समावेशी चरित्र’; (सं) विश्‍वरंजन, ठंडी धुली सुनहरी धूप; पृ.92)। शमशेर का यह आत्मसंघर्ष इन काव्य पंक्‍तियों में मुखरित है - "वाम वाम वाम दिशा,/ समय साम्यावादी।/ पृष्‍ठभूमि का विरोध अंधकार - लीन। व्यक्‍ति .../ कुहास्पष्‍ट हृदय-भार, आज हीन।/ हीनभाव, हीनभाव/ मध्यवर्ग का समाज, दीन।/ पथ-प्रदर्शिका मशाल/ कमकर की मुट्ठी में किंतु उधर :/ लाल-लाल/ वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में / पथ प्रदर्शिका मशाल।" (‘वाम वाम वाम दिशा’; कुछ और कविताएँ)।

मध्यवर्गीय समाज की स्थिति दीन-हीन है। इस समाज की मुक्‍ति सिर्फ साम्यवाद में ही निहित है। लाल मशाल जो कामगार की मुट्ठी में है वही मार्ग प्रशस्त करेगी। मार्क्स ने भी कहा था कि "Proletariat alone is a really revolutionary class." (Karl Marx, Friedrich Engles; The Communist Manifesto; Pg. 11)। इसी भाव को शमशेर ने अपनी कविता ‘वाम वाम वाम दिशा’ में व्यक्‍त किया है।

इसी तरह शमशेर ने मजदूर की वास्तविक स्थिति को ‘बात बोलेगी’ में अंकित किया है। इतना ही नहीं उन्होंने समाज और लोगों की स्थिति को उजागर करते हुए लिखा है कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।" वे आगे यह प्रश्‍न करते हैं कि जब हमारी दृष्‍टि ही झूठी है तो देखने से क्या होगा - "सत्य का मुख/ झूठ की आँखें/ क्या - देखें!" वे यह भी प्रश्‍न करते हैं कि "सत्य का/ क्या रंग है?"

शमशेर के अनुसार एकमात्र सत्य यही है कि जनता का दुःख एक है। आर्थिक विषमता ही वसतुतः सत्य का रंग है _ "एक - जनता का/ दुःख एक।/ हवा में उड़ती पताकाएँ/ अनेक।" मजदूर के घर की वास्तविक स्थिति भी यही होती है - "दैन्य दानव : काल/ भीषण क्रूर/ स्थिति कंगाल। बुद्धि; घर मजूर।"

कार्ल मार्क्स ने आवाज दी "The Proletarians have nothing to lose but their chains. They have world to win. Working men of all countries, Unite!" (Karl Marx, Friedrich Engles; Th Communist Manifesto; pg. 121)। इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए शमशेर कहते हैं कि अगर दुनिया के मजदूर एक नहीं होंगे तो उनके स्वातंत्र्य की इति समझनी चाहिए क्योंकि स्वतंत्रता के लिए एकता अनिवार्य है - "एक जनता का - अमर वर :/ एकता का स्वर।/ -अन्यथा स्वातंत्र्य - इति।"

शमशेर बौद्धिक स्तर पर मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित है। उनकी कविताओं में मार्क्स के विचारों के साथ साथ कला, प्रेम और प्रकृति के विविध रंग विद्‍यमान है। विजयदेव नारायण साही ने शमशेर की काव्य कला के संबंध में कहा है कि "तात्विक दृष्‍टि से शमशेर की काव्यानुभूति सौंदर्य की ही अनुभूति है। शमशेर की प्रवृत्ति सदा की वस्तुपरकता को उसके शुद्ध और मार्मिक रूप में ग्रहण करने में रही है। वे वस्तुपरकता का आत्मपरकता में और आत्मपरकता का वस्तुपरकता में आविष्‍कार करनेवाले कवि हैं, जिनकी काव्यानुभूति बिंब की नहीं बिंबलोक की है।" (शैलेंद्र चौहान; ‘शमशेर की कविता : क्लासिकल ऊँचाई की कविता है’; (सं) विश्‍वरंजन; ठंडी धुली सुनहरी धूप; पृ.248)।

शमशेर ने अपनी काव्यानुभूति के बारे में स्पष्‍ट करते हुए स्वयं कहा है कि "एक दौर था जब मैं ऐसी (रूमानी भावबोध से युक्‍त) चीजें लिखने के लिए अधिक उत्सुक था, उसके लिए अपने अंदर काफी प्रेरणा महसूस करता था। पर अपेक्षित स्तर मुझे सदा अपने कवि-व्यक्‍तित्व की पहुँच से ऊँचा और असंभव-सा महसूस होता। फिर भी मैंने अपनी प्रेरणाओं को कुछ ऐतिहासिक सत्यों से जोड़ने की, उनके मर्म को अपनी धड़कन के साथ व्यक्‍त करने की कोशिश कीं ... फिर भी मैं दोहरा कर कहना चाहूँगा कि जहाँ तक वह मेरी निजी उपलब्धी है, वहीं तक मैं उन्हें दूसरों के लिए भी मूल्यवान समझता हूँ।" (शमशेर; कुछ और कविताएँ; भूमिका)।

कलासृजन, संरचना और शिल्प की दृष्‍टि से शमशेर की लंबी कविता ‘अम्न का राग’ उल्लेखनीय है। इसमें कवि ने समाजशास्त्रीय संबंधों को बखूबी उकेरा है। इस कविता में उन्होंने दो राष्‍ट्रों की संस्कृतियों को प्रतिबिंबित किया है। बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने वैश्‍विक दृष्‍टिकोण को उभारा है। शमशेर शोषण, हिंसा और युद्ध का विरोध करते हैं और यह चाहते हैं कि सर्वत्र शांति कायम हो। उन्होंने अपनी इस लंबी कविता ‘अम्न का राग’ की शुरुआत में ही बसंत के नए प्रभात की ओर संकेत किया है - "सच्चाइयाँ/ जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं/ हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उनमुक्‍त नाचते/ परों में झिलमिलाती रहती हैं/ जो एक हजार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है/ उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ/ कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।" छायावादी सौंदर्यबोध से अनुप्राणित प्रतीत होनेवाले इस काव्यांश में कवि ने प्रतीकों के माध्यम से सत्य और शांति को उजागर किया है।

शमशेर देश की सीमाओं को अतिक्रमित करते हुए कहते हैं कि - "ये पूरब-पश्‍चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं/ मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द लपेट लिया।" शमशेर भारतीय एवं पाश्‍चात्य संस्कृतियों को अपनी आत्मा मानते हैं। उनक दृष्‍टिकोण वैश्‍विक है। इसी वैश्‍विक परिदृष्‍य को उकेरते हुए वे कहते हैं कि "मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर/ बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ/ सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं/ क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख शांति का राग हूँ/ बहुत आदिम, बहुत अभिनव।"

इतना ही नहीं शमशेर ने ‘अम्न का राग’ में भारतीय एवं पाश्‍चात्य विचारकों, शायरों, दार्शनिकों, संगीतकारों और रचनाकारों का उल्लेख किया है - "देखो न हक़ीकत हमारे समय की जिसमें/ होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफ़री को/ इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है/ कि जिसमें फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ अमर लता हिल उठी/ मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में / झलकता हुआ देख रहा हूँ/ और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते/ और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज मेरा तुलसी मेरी/ ग़ालिब/ एक एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का/ कुशल आपरेटर हैं।"

शमशेर को अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है जितना मास्को का लाल तारा। पीकिंग का स्वर्गीय महल मक्का मदीना से कम पवित्र नहीं - "मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है/ जितना मास्को का लाल तारा/ और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल/ मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं/ मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ/ जो वोल्गा से आए/ मेरी देहली में प्रह्‍लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की/ चौखट पर/ युद्ध के हिरण्यकश्‍य को चीर रही हैं।" शमशेर ने इस कविता में नए नए बिंबों का सृजन किया है। यह कविता उनकी अद्‍भुत सृजनात्मक प्रतिभा का परिचायक है।

शमशेर समस्त संसार में शांती कायम करना चाहते हैं - "यह सुख का भविष्‍य़ शांति की आँखों में ही वर्तमान है/ इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक रहे हैं।" उन्होंने अतीत, वर्तमान और भविष्‍य के सपने को एक साथ पिरोया है - "ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों/ का दिल है/ ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी/ और हमारी कला का सच्चा सपना हैं/ ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं/ ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और/ हक़ीक़त का अमर सपना हैं/ इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ/ पाना है।/ हम मानते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।"

शमशेर की कविताओं में एक ओर छयावादी सौंदर्यबोध है तो दूसरी ओर जीवन मर्म, संघर्ष, शांति और भविष्‍य का सुनहरा सपना गुंफित है। ‘अम्न का राग’ इस दृष्‍टि से उनकी कलात्मकता का प्रतिनिधित्व करनेवाली रचना प्रतीत होती है।


शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

तेलुगु साहित्य में गांधी की व्याप्‍ति



"सत्य के प्रयोग करते हुए मैंने रस लूटा है, आज भी लूट रहा हूँ। लेकिन मैं जानता हूँ कि अभी मुझे विकट मार्ग पूरा करना है; इसके लिए मुझे शून्यवत्‌ बनना है। ... अहिंसा नम्रता की पराकाष्‍ठा है। और यह अनुभव सिद्ध बात है कि इस नम्रता के बिना मुक्‍ति कभी नहीं मिलती।" (मोहनदास करमचंद गांधी)

सत्य, अहिंसा और शांति के प्रतीक राष्‍ट्रपिता माहात्मा गांधी (02 अक्‍तूबर, 1869 - 30 जनवरी, 1948) जनमानस में आज भी विराजमान हैं। उन्होंने भारतीय जनता के सम्मुख आदर्श स्थापित किया है। अतः काका कालेलकर कहते हैं कि "गांधी जी ने जिस उत्कट श्रद्धा से और गहराई से चंद सिद्धांतों का पालन किया और लोगों से करवाया उसे देखते हुए गांधी विचार, गांधी मत या गांधी मार्ग की एक निश्‍चित जीवन दृष्‍टि और जीवन साधना तैयार हुई। इसमें दो राय नहीं।" (काका कालेलकर; गांधी नव सर्जन की अनिवार्यता; पृ.236)|

गांधी जी का समूचा जीवन सत्य के प्रयोगों से भरपूर है। उनके व्यक्‍तित्व में ऐसी विलक्षणता और अनोखी शक्‍ति थी कि शत्रु भी आकृष्‍ट हो जाते थे। "जितने अनुयायी गांधी विचारधारा के निकले उतने किसी अन्य के नहीं, गांधी जी ने जिस मानवतावाद को अग्रसर किया वह कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। सत्य और अहिंसा के साथ उन्होंने सत्याग्रह का अनुपम मेल कर एक प्रगतिशील मानववाद को जन्म दिया।" (लक्ष्‍मी सक्‍सेना; समकालीन भारतीय दर्शन; पृ.16)

भारतीय संस्कृति से राष्‍ट्रपिता माहात्मा गांधी के विचार ओतप्रोत हैं। भारतीय संस्कृति की ओर देखने का अर्थ है गांधी की ओर देखना। "संसार का ध्यान गांधी जी की ओर इसलिए आकृष्‍ट हुआ कि उन्होंने पशुबल के समक्ष आत्मबल का शस्त्र निकाला, तोपों और मशीनगनों का सामना करने के लिए अहिंसा का आश्रय लिया।" (रामधारी सिंह ‘दिनकर’; संस्कृति के चार अध्याय; पृ.531)। सामान्य जनता ही नहीं बल्कि साहित्यकार भी गांधी जी की विचारधारा से प्रभावित हैं। हिंदी साहित्य के साथ साथ अंग्रेज़ी, जर्मन, इटैलियन, फ्रेंच, रूसी, चीनी, जापानी, हिब्रू, अरबी, फारसी, संस्कृत, असमी, मराठी, तमिल, कन्नड, मलयालम और तेलुगु आदि विजातीय और सजातीय भाषाओं के साहित्य में गांधी जी का प्रभाव दृष्‍टिगोचर है।

आह्‍लाद का विषय है कि भारत भर की भाषाओं में से सबसे पहले गांधी विचारधारा की अभिव्यक्‍ति तेलुगु में हुई। 20वीं सदी के आरंभ में ही आंध्र प्रदेश के साहित्यकारों ने गांधी जी के सिद्धांतों का स्वागत किया। दक्षिण अफ्रीका में बापूजी के सत्याग्रह में भाग लेकर कारावास भोगनेवालों में से अधिकांश लोग आंध्र प्रदेश के थे। गांधी जी ने आंध्र प्रदेश के गाँव गाँव की यात्रा की थी। उन्होंने यह पाया कि आंध्र प्रदेश में उनके सिद्धांत पूरी तरह से क्रियाशील हैं। इससे संतुष्‍ट होकर उन्होंने कहा था कि "वहाँ निष्‍ठावान मेहनती कार्यकर्ता हैं, साधन संपत्ती है, कवित्व है, श्रद्धा भक्‍ति और त्याग बुद्धि है।" (अड़पा रामकृष्‍णराव; तेलिगु में गांधीवाद)

वेंकट पार्वतीश्‍वर, विश्‍वनाथ सत्यनारायण, रायप्रोलु सुब्बाराव, वेंकटेश्‍वर राव, जाषुवा, दाशरथी, सी.नारायण रेड्डी और शेषेंद्र शर्मा आदि कवि गांधी जी से प्रभावित हुए। उन सभी ने उनके सिद्धांतों को अपनी रचनाओं में अंकित किया। इन कवियों की कविताओं में दीन-दलितों तथा शोषित और प्रताड़ितों का हाहाकार, किसानों एवं मजदूरों के मानवाधिकारों की अनुगूँज विद्‍यमान है। इतिहास से पता चलता है कि तिरुपति वेंकट कवि द्वय के नाम से विख्यात दिवाकर्ला तिरुपति शास्त्री और चेल्लपिल्ला वेंकट शास्त्री ने मद्रास (अब चेन्नै) में रवींद्रनाथ टैगोर और सरोजनी नायुडु आदि के सम्मुख बापूजी की प्रशंसा में आशु कविता सुनाई थी।

तुम्मला सीताराम मूर्ति चौधरी ‘महात्मा के आस्थान कवि’ के नाम से विख्यात हैं। उन्होंने गांधी जी की आत्मकथा को तेलुगु में ‘महात्मुनि कथा’ नामक महाकाव्य का रूप दिया है। मारिगंटि शेषाचार्य ने ‘श्री गांधी भागवतम्‌’ (श्री गांधी भागवत्‌) में स्वतंत्रता संग्राम का वर्णन किया है। ‘स्वराज्य रथमु’ (स्वराज्य रथ) नामक काव्य में बलिजुपल्ली लक्ष्‍मीकांतम्‌ ने गांधी जी के सिद्धांतों को उजागर किया है। उन्होंने यह स्पष्‍ट किया है कि इस रथ के सारथी गांधी जी हैं और रथ को खींचनेवाले अश्‍व जनता हैं।

राष्‍ट्रकवि दिनकर कहते हैं कि बापू जी का व्यक्‍तित्व इतना विराट है कि वह पृथ्वी और स्वर्ग तक व्याप्‍त है -"तेरा विराट यह रूप कल्पना/ पट पर नहीं समाता है/ जितना कुछ कहूँ, मगर कहने/ को शेष बहुत रह जाता है।" दिनकर की ही भांति सी.नारायण रेड्डी ने भी गांधी जी के व्यक्‍तित्व को विराट मानकर यह कहा है कि उनकी दिव्य शक्‍ति के सान्निध्य में नरक स्वर्ग हो गया है - "नरक में नन्दन वन लगाया है तूने/ स्थिरों को सिंह शावक बनाया है तूने/ मिट्टी और पत्थरों को वज्रों में परिवर्तित किया तूने।"

तेलुगु साहित्य के इतिहास में राष्‍ट्रकवि के नाम से विख्यात गुरुजाडा अप्पाराव की कविता ‘देश भक्‍ति’ में बापूजी का संदेश मुखरित है - "देशमुनु प्रेमिंचुमन्ना,/ मंचि यन्नदि पेंचुमन्ना,/ विट्टि माटलु कट्टि पेट्टोय्‌/ गट्टि मेल्‌ तलबेट्टवोय्‌।" (देश को प्रेम करो,/ अच्छाई को बढ़ाओ,/ झूठे आश्‍वासन देना बंद करो,/ आचरण करना सीखो।)।
गांधी जी ने अपने व्यावहारिक जीवन दर्शन से भारतीय सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक जगत को एक नया मोड़ दिया तथा राजनैतिक जगत को नई गति प्रदान की। वे यही चाहते थे कि देश में चारों ओर हरियाली और समृद्धि हो। इसी संदेश को गुरजाडा ने अपनी कविता में व्यक्‍त किया है - "पाडि पंटलु पोंगि पोर्ले/ दारिलो नुवु पाटु पडवोय्‌।/ तिंडि कलिगिते कंडा कलदोय्‌,/ कंडा कलवाडेनु मनिषोय्‌।" (जिस राह में हरे भरे खेत लहराते हों, उस राह में श्रम करो। भरपेट खाना जिसके पास होगा उसका स्वास्थ्य भी ठीक होगा।)।

गुरुजाडा ने यह भी घोषित किया है कि "देशमंटे मट्टि कादोय्‌,/ देशमंटे मुनुषलोय्‌..."(देश का अर्थ सिर्फ मिट्टि नहीं है। देश का अर्थ है मनुष्‍य)।

गुर्रम्‌ जाषुवा का खंड काव्य ‘गब्बिलम्‌’ (चमगादड) दलितों की दीन दशा की व्यथा सुनता है। अनाथा (अनाथ), शमशान वाटिका (श्‍माशान), बाष्‍प संदेशमु (अश्रु संदेश), पाता चुट्टमु (पुराना मेहमान) आदि कविताओं के माध्यम से उन्होंने अस्पृश्‍यता और जाति भेद के दुष्‍परिणामों को उकेरा है।

तेलुगु साहित्यकारों ने कविताओं के माध्यम से ही नहीं नाटक, कथा साहित्य, निबंध आदि के माध्यम से भी गांधी जी के विचारों को साहित्य में उतारा है। उन्नव लक्ष्मीनारायण का उपन्यास ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव), विश्‍वनाथ सत्यनारायण के ‘वेयि पडगलु’ (सहस्रफण), अडवि बापिराजु के ‘नारायणराव’, बुच्चिबाबू के ‘चिवरकु मिगिलेदि’ (जो शेष है) आदि उपन्यासों में बापूजी के सिधांतों का प्रतिपादन हुआ है।

गांधीजी तत्कालीन अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति से संतुष्‍ट नहीं थे। उस समय शिक्षा का उद्‍देश्‍य अंग्रेज़ी सरकार की निष्‍ठापूर्वक सेवा करनेवाले नागरिकों को तैयार करना भर था। इस संदर्भ में गांधी जी ने स्वयं लिखा है कि "मैकाले का यह उद्‍देश्‍य था कि हम पश्‍चिमी सभ्यता का जनता में प्रचार करनेवाले बन जाएँ।" (महात्मा गांधी, सच्ची शिक्षा; पृ.13)। कवि सम्राट विश्‍वनाथ स्तयनारायण ने ‘वेयि पडगलु’ (सहस्रफण) में इसी तथ्य को उजागर किया है। उसका अंश यहाँ उद्धृत है -
"महात्मा गांधी को अपना असहयोग आंदोलन प्रारंभ किए दो वर्ष हो चुके थे। लोग यह मानने लगे थे गांधी जो भगवान के अवतार हैं, श्रीकृष्‍ण हैं। चरखा उनकी वंशी है। और चरखे की ध्वनि वंशीनाद। सारा देश वृंदावन है और सारी जनता गोपियों की भांति करोड़ों के संख्या में गांधी जी की बात बात पर मुग्ध होकर अनुसरण करती है। देश में एक ऐसा युद्ध प्रारंभ हुआ जो सचमुच युद्ध नहीं था। इस महान आंदोलन को देखकर अन्य देशों के लोग आश्‍चर्यचकित हो गए। देश में अंग्रेज़ी पढ़ाई और पाश्‍चात्य रीतियों के प्रति अनादर उत्पन्न हुआ। उग्रवादी लोग मानने लगे कि अंग्रेज़ी पढ़ाई ने भारतवासियों को पराई संस्कृति के मोह में डाल कर परतंत्रता की शृंकलाओं में बाँध दिया है और उनके मस्तिष्‍क में दास्ता का भाव भर दिया है। रंगापुर गाँव का एक युवक जिसका नाम केशवराव था, एम.ए., बी.एल. पास करके मद्रास में वकालत कर रहा था। गांधी जी का आंदोलन प्रारंभ होते ही उसने अपनी वकालत चोड़ दी और आंदोलन में कूद पड़ा। ... स्थान स्थान पर राष्‍ट्रीय महाविद्‍यालयों की स्थापना हुई और अंग्रेज़ी पढ़ाई छोड़े हुए विद्‍यार्थियों की शिक्षा का कई देशभक्‍तों ने प्रबंध किया। ... केशवराव का विश्‍वास था कि देश में कला और विद्‍या का नाश हो चला है। इसलिए उनके पुनरुत्थान के लिए राष्‍ट्रीय महाविद्‍यालय को प्रयत्‍न करना चाहिए, इसलिए विद्‍यालय में स्वदेशी ढंग का व्यायाम सिखाया जाता था।" (वेयि पदगलु (सहस्रफण) - हिंदी अनुवाद; पृ.147)

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि गांधी जी राष्‍ट्रीय एवं राजनैतिक प्रतिष्‍ठानों के कारण नहीं बल्कि साहित्यकारों की वाणी में बसकर लोक में व्याप्‍त होने के कारण अमर है। इतना ही नहीं अहिंसा का आजीवन पालन करके विश्‍व के सम्मुख गांधी जी ने जो आदर्श स्थापित किए हैं, उसके लिए संपूर्ण विश्‍व उनका ऋणी है। परंतु उनके व्यावहारिक चिंतन को वाद की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। इस विषय में गांधी जी के शब्दों से ही इस चर्चा का समाहार करना उचित होगा - "गांधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है और न ही अपने पीछे मैं कोई ऐसा संप्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ। मैं कदापि यह दावा नहीं करता कि मैंने किन्हीं नए सिद्धांतों को जन्म दिया है। मैंने तो अपने निजी शाश्‍वत सत्यों को दैनिक जीवन और उसकी समस्याओं पर लागू करने का प्रयत्‍न मात्र किया है। मैंने जो समितियाँ बनाई हैं और जिन परिणामों पर मैं पहुँचा हूँ वे अंतिम नहीं है। मैं उन्हें बदल भी सकता हूँ। मुझे संसार को कुछ नया नहीं सिखाना है। सत्य और अहिंसा इतने ही पुराने हैं जितनी ये पहाड़ियाँ। मैंने तो केवल व्यापक आधार पर सत्य और अहिंसा के आचारण में जीवन और उसकी समस्याओं का अनेक विधियों से परीक्षण किया है। अपनी सहज जन्मजात प्रकृति से मैं सच्चा तो रहा हूँ और अहिंसक नहीं । सत्य तो यह है कि सत्य मार्ग की खोज में ही मैंने अहिंसा को ढूँढ़ निकाला। मेरा दर्शन जिसे आपने गांधीवाद का नाम दिया है सत्य और अहिंसा में निहित है, आप इसे गांधीवाद के नाम से न पुकारें, क्योंकि इसमें ‘वाद’ तो नहीं है।" ((सं) डॉ.लक्ष्मी सक्सेना; समकालीन भारतीय दर्शन; पृ.89)

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

निजीपन के संसार के कवि शमशेर



ओ मेरे घर
ओ हे मेरी पृथ्वी
साँस के एवज़ तूने क्‍या दिया मुझे
- ओ मेरी माँ?

तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
और क्या दिया
मुझे भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह!"
(शमशेर; ‘ओ मेरे घर’, इतने पास अपने; पृ.19)

हिंदी साहित्य जगत में ‘नई कविता’ के सक्षक्‍त हस्ताक्षर शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 - 12 मई,1993) का अपना एक सुनिश्‍चित स्थान है। वस्तुतः शमशेर और उनकी कविताओं पर कुछ लिखना एक चुनौती है। उनकी काव्य यात्रा छायावादोत्तर रोमांटिक भावधारा से शुरु होकर प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को पार करती हुई नई कविता से जुड़ गई है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का कथन है कि "प्रयोगवादियों में यदि कोई प्रगतिशील संभाग हो, तो उनके प्रतिनिधि के रूप में शमशेर बहादुर को स्वीकार किया जा सकता है।" (नई कविता; आचार्य नंददुलारे वाजपेयी; पृ.55)

शमशेर अद्वितीय शिल्पी हैं। उन्होंने कविता के क्षेत्र में छाए हुए वादों की जकड़न से हमेशा अपने आपको अलग रखा और काव्य भाषा को चित्रात्मकता, संगीत, बिंब विधान और लय के माध्यम से तराशा। इस संदर्भ में रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत द्रष्‍टव्य है - "शमशेर की कविताओं में संगीत की मनःस्थिति बराबर चलती रहती है।एक ओर चित्रात्मकता की मूर्तता उभरती है, और फिर वह संगीत की अमूर्तता में डूब जाती है। भाषा में बोलचाल के गद्‍य का लहजा और लय में संगीत का चरम अमूर्तन इन दो परस्पर प्रतिरोधी संदर्भों के कम-से-कम रहने पर भी शमशेर में हमें एक संपूर्ण रचना संसार दिखाई देता है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदान का विकास; पृ.205)

शमशेर कविता में आंतरिक ऊर्जा को महत्व देते हैं। वे खड़ीबोली के बोलचाल के रूप को महत्व देते हैं। उनका मत है कि ‘पाठक के मन की बात को पाठक की ही भाषा में व्यक्‍त करना चाहिए।’ इस संदर्भ में वे उर्दू को भी याद करते हैं और कहते हैं - "मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूँ। मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं।" (शमशेर, बाढ़)

शमशेर का रचना संसार उनके निजीपन का संसार है। सामाजिक जीवन का  उत्कर्ष उनकी रच्नाओं में नहीं दिखाई देता। इस संदर्भ में उनका मत है कि "अपनी काव्य कृतियाँ मुझे दरअसल सामाजिक दृष्‍टि से बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं। उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्‍न चिह्‍न-सा ही रही है, कितना ही धुँधला सही। खै़र, यह मेरी नितांत अपनी निजी आंतरिक भावना है।" (शमशेर, चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ.6)। पर सामाजिक संघर्षों से शमशेर अछूते नहीं रहे। उन्होंने भले ही किसी शैली या विषय सीमा को स्वीकार नहीं किया हो लेकिन वे कवि कर्म को जानते हैं तथा कविता की सही दिशा को पहचानते हैं। अतः वे कहते हैं कि "कवि का कर्म अपनी भावनाओं में , अपनी प्रेरणाओं में , अपने आंतरिक संस्कारों में, समाज सत्य के मर्म को ढालना - उसमें अपने को पाना है, और उस पाने को अपनी पूरी कलात्मक क्षमता से पूरी सच्चाई के साथ व्यक्‍त करना है, जहाँ तक वह कर सकता है।" (शमशेर, कुछ और कविताएँ, पृ.5)

शमशेर संवेदनशील कवि हैं। उनमें निहित रोमांटिक संवेदना उन्हें छायावाद से जोड़ती है। छायावादी भाव बोध के साथ साथ शमशेर जीवन के यथार्थ बोध को भी साथ लेकर चलते हैं। उनमें प्रेम, सौंदर्य और इंद्रियजनित सहज अनुभूतियाँ हैं। उनमें रोमानी संवेदना की ताजगी है - "छिप गया वह मुख/ ढँक लिया जल आँचलों ने बादलों के/ (आज काजल रात भर बरसा करेगा क्‍या?)" (वही; पृ.27)

शमशेर की कविताओं में एक ओर प्रेम की आकांक्षा, नारी सौंदर्य की कल्पना और निराशा से उत्पन्न व्यथा का मार्मिक चित्रण है - "गोद यह/ रेशमी गोरी/ अस्थिर/ अस्थिर/ हो उठती/ आज/ किसके लिए? जा/ ओ बहार/ जा! मैं जा चुका कब का/ तू भी-/ ये सपने न दिखा?" (वही; पृ.39) तो दूसरी ओर उनका मिज़ाज इन्क़लाबी है - "सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैं।? हमारे अपने नेता भूल जाते हैं हमें जब,? भूल जाता है ज़माना भी उन्हें, हम भूल जाते हैं उन्हें खुद/ और तब/ इन्क़लाब आता है उनके दौर को गुम करने।" (वही; पृ.10)

शमशेर अपनी कविताओं में संवेदनाओं का मूर्त चित्रण करते हैं। इस संदर्भ में मुक्‍तिबोध का मत है कि "शमशेर की मूल प्रवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है। इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा जो उसके संवेदना-ज्ञान की दृष्‍टि से प्रभावपूर्ण संकेत शक्‍ति रखते हैं।... दूसरे शब्दों में इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार दृश्‍य के सर्वाधिक संवेदनाघात वाले अंशों को प्रस्तुत करेगा और यह मानकर चलेगा कि यदि वह संवेदनाघात दर्शक के हृदय में पहुँच गया तो दर्शक अचित्रित शेष अंशों को अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर लेगा।" (मुक्‍तिबोध, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध; पृ.92)।

शमशेर की धारणाएँ उनकी कविता में बोलती हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।/ सत्य का/ क्या रंग/ पूछो, एक रंग/ एक जनता का दुःख एक/ हवा में उड़ती पताकाएँ अनेक।" (बात बोलेगी)। कभी कभी यह भी प्रतीत होता है कि शमशेर आधुनिक मानवीय दाह को शांत करनेवाले कलाकार हैं - "आधुनिकता आधुनिकता/ डूब रही है महासागर में/ किसी कोंपले के ओंठ पे/ उभरी ओस के महासागर में / डूब रही है/ तो फिर क्षुब्ध क्यों है तू।" (‘सारनाथ की एक शाम’ (त्रिलोचन के लिए); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.21)।

वसतुतः शमशेर को ‘मूड्‍स’ का कवि माना जाता है। उनका यह मूड यथार्थ से होकर गुजरता है। वे खुली आँखों से सामाजिक गतिविधियों को देखकर उन्हें परखते हैं और कहते हैं कि - "मैं समाज तो नहीं, न मैं कुल जीवन,/ कण समूह में हूँ मैं केवल एक कण।"(कुछ कविताएँ; पृ.17)। शमशेर व्यक्‍तिवाद के उस धरातल पर पहुँच जाते हैं जहाँ व्यक्‍ति मन की अनंत गहराइयों में अकेलापन और संत्रास है। इस वैयक्‍तिक मनोभूमि में शमशेर अपने आपको तलाशते नजर आते हैं - "खुश हूँ कि अकेला हूँ,/ कोई पास नहीं है.../ बजुज एक सराही के,/ बजुज एक चटाई के,/ बजुज का ज़रा से आकाश के,/ जो मेरा पड़ोसी मेरी छत पर/ (बजुज उसके, जो तुम होती-मगर हो फिर भी/ यहीं कहीं अजब तौर से।)"

शमशेर की कविता में बिंबात्मकता है। ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ में संकलित कविता ‘कथा मूल’ पर दृष्‍टि केंद्रित करें। यह कविता चार खंडों में विभाजित है। इसमें भारतीय परिवार, लोक जीवन, सामाजिक संबंध और आर्थिक विसंगति आदि का विवरण है - "गाय-सानी। संध्या। मुन्नी - मासी!/ दूध! दूध! चूल्हा, आग, भूख।/ मा/ प्रेम।/ रोटी।/ मृत्यु।" इसका दूसरा खंड प्रथम खंड पर केंद्रित है - "औरत। अंधेरी। जोड़ों का दर्द। बच्चे। पाप। पुनर्जन्म। आत्मोन्नति। पुलिस। आजादी। स्वाहा।" इस कविता का तीसरा खंड है - "गुरुजन। हिम-शिखर। हँसी।" तथा चौथा है - "लिंग; मानस। लिंग; अर्वाचीन।/ लिंग; शिव; भविष्‍य। सदा शिव। तुम तत्-सत्।/ मैं यह क्षण" (‘कथा मूल’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.52-53)। यदि इस कविता में निहित शब्दों को एक-दूसरे से मिलाते जाएँ तो चाक्षुष बिंबों की पूरी कड़ी उभकर सामने आता है। शमशेर ने प्रेम, रोटी, औरत, पुलिस, आजादी जैसे प्रतीकों का भी बखूबी प्रयोग किया है। यह कविता उनकी प्रयोगधर्मिता और सृजनात्मकता का परिचायक है।

शमशेर की कविता का केंद्र व्यक्‍ति है। उन्होंने अपने आप को व्यक्‍ति के प्रति समर्पित कर दिया है - "समय के/ चौराहों के चकित केंद्रों से।/ उद्‍भूत  होता है कोई : "उसे-व्यक्‍ति-कहो" :/ कि यही काव्य है।/ आत्मतमा/ इसलिए उसमें अपने को खो दिया।" (‘एक नीला दरिया बरस रहा’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.13)

आज मध्यवर्ग की स्थिति बहुत दयनीय है। इसका प्रमुख कारण आर्थिक है। वह उच्च वर्ग की ज़िंदगी जीने के चक्कर में लुट रहा है। शमशेर मध्यवर्ग को आवाज देते हैं - "ओ मध्यवर्ग/ तू क्यों क्यों कैसे लुट गया/ दसों दिशाओं की भी दसों दिशाओं की भी.../ दसों दि... शा... ओं/ में / तू कहा हैं कहीं भी तो नहीं/ इतिहास में भी तू/ असहनीय रूप से दयनीय/ असहनीय/ न-कुछ न-कुछ न-कुछ.../ मैं/ उसीका छाया हुआ/ अंधेरा हूँ/ शताब्दी के/ अंत में। छटता हुआ।" (‘दो बातें’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.70-71)।

शमशेर ने बदलती हुई जटिल और भयावह दुनिया में मनुष्‍य की पीड़ा और मूल्यहीनता को चित्रित किया है। मनुष्‍य परिस्थितियों और उनके सुख-दुःख को विविध धरातलों पर अभिव्यक्‍त किया है। उन्होंने मध्यवर्ग की अधकचरी स्थिति को ऐतिहासिक संदर्भों में देखते हुए कहा है कि - "इतिहास में भी तू/ असहनीय रूप से दयनीय।"

साम्राज्यवाद के नाम पर लोगों को धोखा दिया जा रहा है। इस पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि "बनियों ने समाजवाद को जोखा है/ गहरा सौदा है काल भी चोखा है/ दुकानें नई खुली हैं आजादी की/ कैसा साम्राज्यवाद का धोखा है!" (‘बनियों ने समाजवाद को जोखा है’; सुकून की तलाश; पृ.56)

शमशेर की कई रचनाएँ सामाजिक सच्चाई और लोकतंत्र की ताकत को स्वर देती हैं तथा जन मानस की भावनाओं को छूती हैं। उनकी दृष्‍टि में "दरअसल आज की कविता का उसकी भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलान में हिस्सा ले रहे हैं। टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि को जहाँ वह है, वहीं से पा सकते हैं। वे उसको पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" ((सं) अज्ञेय, दूसरा सप्‍तक; वक्‍तव्य; पृ.77)

समसामयिक युग में दर्द की सच्चाई, तड़प और अनुभूति अपना अस्तित्व खो चुकी हैं। कहा जाता है कि उदात्त भावों का विकास उदात्त स्वभाव वाले व्यक्‍ति के हृदय से होता है। लेकिन आज की विडंबना यह है कि लोग कहते कुछ हैं तथा करते कुछ और। इस पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि "मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत/ लेकिन इन्सान के दर्शन हैं मुहाल।" (‘मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.56)

भारत-चीन युद्ध के समय कवि ने ‘सत्यमेव जयते’ पर जोर दिया है - "शिव लोक में चीनी दीवार न उठाओ!/ वहाँ सब कुछ गल जाता है/ सिवाए सच्चाई की उज्ज्वलता के!/ असत्य कहीं नहीं है!/ शक्‍ति आकार में नहीं,/ सत्य में है!/ हमारी शक्‍ति/ सत्य की विजय/ ...याद रखो/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!" (‘सत्यमेव जयते’(भारत-चीन युद्ध); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.43)। कवि की मान्यता है कि मानव मात्र के लिए बुनियादी चीज है-शांति। अतः वे कहते हैं - "अगर तुमसे पूछा जाय कि/ सबसे बुनियादी वह पहली चीज़ कौन-सी है/ कि मानव मात्र के लिए जिसका होना आवश्यक है?/ तो एक ही जवाब होगा तुम्हारा :/ एकदम पहली ही बार,/ फिर दूसरी बार भी,/ और अंतिम बार भी/ यही एक जवाब :-/ शांति!" (‘शांति के ही लिए’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.57)

भाषागत और वर्णगत वैविध्य भी भारत की अखंड मानवता को खंडित नहीं कर सकते हैं चूँकि "भाषा? भाषा/ हृदय हमारे/ भाषा हमारी/ सीमा रेखाएँ हमारी एक-एक साथ/ हम हैं एक साथ हम हैं/ हम-हम सारी दुनिया!/ लिपियाँ स्‍वर ओ’ व्यंजन/ आरोहावरोह गति टोन/ छंद न्यास मौन की मुखर/ साँस की नाना गतियाँ/ दम सम विराम/ इन सबके अर्थ/ हम/ आर पार-सातों समंदर के/ छहों महाद्वीप के/ गत-आगत के/ आर पार/ हम हैं; हम/ कवि लोग!" (‘गिन्सवर्ग के लिए’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.61-62)। शमशेर यह भी कहते हैं कि "भाषाओं की नस-नस एक-दूसरे से गुँथी हुई है/ (मगर उलझती हुई नहीं)/ हमारी साँस साँस में उनका सौंदर्य है/ (मॉ डर्निस्‌ टिक्‌ कहो मत)/ अभी हमें लड़ने दो।" (‘भाषा’, चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.65)

समाज में धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंड पर भी शमशेर कुठाराघात करते हैं - "जो धर्मों के अखाड़े है/ उन्हें लड़वा दिया जाए!/ जरूरत क्या कि हिंदुस्तान पर/ हमला किया जाए!!/ ***/ मुझे मालूम था पहले हि/ ये दिन गुल खिलाएँगे/ ये दंगे और धर्मों तक भि/ आख़िर फैल जाएँगे/ ***/ जो हश्र होता है/ फ़र्दों का वही/ क़ौमों का होता है/ वही फल मुल्क को/ मिलना है, जिसका/ बीज बोता है।" (‘धार्मिक दंगों की राजनीति’, सुकून की तलाश; पृ.71)। वे यह भी कहते हैं कि "जितना ही लाउडस्पीकर चीखा/ उतना ही ईश्‍वर दूर हुआ :/ (-अल्ला-ईश्‍वर दूर हुए!)/ उतने ही दंगे फैले, जितने/ ‘दीन-धरम’ फैलाए गए।" (‘राह तो एक थी हम दोनों की’, सुकून की तलाश; पृ.33)

धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंड पर ही नहीं शमशेर ने देश में व्याप्‍त अकाल पर भी व्यंग्य कसा है - "जहाँ कुत्तों का जीवन भर दीर्घतर लगता है,/ स्पृहनीय; केवल/ अपना ही दयनीय।/ क्यों जन्मा था मनुष्‍य/ बीसवीं सदी के मध्याह्‌न में/ यो मरने के लिए?" (‘अकाल’, चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.84)|

शमशेर की कविताओं में प्रकृति के अनेक रंगों की छटा है।प्रेम, सौंदर्य, मनुष्‍य, देश, समाज, प्रकृति, परंपरा, आधुनिकता, युद्ध, संघर्ष, अकेलापन और तनाव आदि मुखरित हैं। शमशेर की कविता हो या गद्‍य उसमें निहित अर्थ छटाओं को खोलना इतना आसान नहीं है।

शमशेर की शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित कृति ‘ठंडी धुली सुनहरी धूप’ ((सं) विश्‍वरंजन/ 2010(प्रथम संस्करण)/ यश पब्लिकेशनस, X/909,चाँद मौहल्ला, गांधी नगर, दिल्ली-110 031/ (Yash-publication@hotmail.com)/ पृ. 309/ मूल्य- रु.495/-) में 31विद्वानों के आलेख सम्मिलित हैं जिन्हें पढ़ने से पाठकों के समक्ष शमशेर और उनकी कविता को समझने के अनेक आयाम खुल जाएँगे।



मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

एक निबंधकार का समग्र अनुशीलन



"अब तो धर्मनिरपेक्षता के लिए राम और रहीम को भूलना अनिवार्य सा हो गया है। राम को कोसिए तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं, रहीम को उपेक्षा कीजिए तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं। मुसलमान हैं तो हिंदुओं की बात कीजिए आप धर्मनिरपेक्ष हैं, हिंदू हैं तो मुसलमानों की बात कीजिए तो धर्मनिरपेक्ष हैं, पर अपने धर्म की बात कीजिए तो आप सांप्रदायिक हैं। भाइयो! कहीं धर्मनिरपेक्षता को नास्तिकता से तो जोड़ नहीं लिया है। यदि यह सही है तो सत्यानाश हो ऐसी धर्मनिरपेक्षता का। इसे लानत भेजता हूँ। अरे गंजेड़ियो! तुम्हें किसने बता दिया है कि धर्मनिरपेक्ष होने के लिए धार्मिक उदासीनता जरूरी है। जिस किसी ने ऐसा बताया है उसका मन साफ नहीं है। उसको पहचानो, वह कोई और नहीं तुम्हें तपानेवाला कोई कुटिल है।" (बढ़ गई है गर्मी)

यह विचार ललित निबंधकार रामअवध शास्त्री का है। उनकी दृष्‍टि में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता दोनों निंदनीय हैं चूँकि ये मनुष्‍य को तपाती हैं। इनके ताप से मनुष्‍यता झुलस रही है। उन्होंने एक साक्षात्कार में अपना मत व्यक्‍त करते हुए कहा है कि "धर्म का मानना, उसके अनुसार आचरण करना तो श्रेयस्कर है, पर उसकी आड़ में अपना उल्लू सीधा करना व्यक्‍ति और समाज दोनों के लिए घातक है। दुर्भाग्यवश आज उल्लू सीधा करने की राजनीति चल रही है। राजनीतिज्ञों की सोचने की शैली अपनी है, पर वे ही सर्वेसर्वा नहीं हैं। इस देश में कलाकार हैं, बुद्धिजीवी हैं, विद्वान हैं, दार्शनिक हैं, चिंतक हैं जिनकी समझ कहीं राजनीतिज्ञों की समझ से अधिक सुलझी हुई होती है। उन्हें महत्व मिलना चाहिए तभी इन समस्याओं का समाधान संभव है और तभी हमारी सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रह सकती है। आज के भारत की संस्कृति मिश्रित संस्कृति है। उसके निर्माण में जितना योगदान हिंदुओं का है उससे कम योगदान मुसलमानों तथा अन्य धर्मावलंबियों का नहीं है। इस सच्चाई को स्वीकारना चाहिए।"

रामअवध शास्त्री वस्तुतः मानवता के पक्षधर हैं। उनमें आम आदमी से जुड़ने का भाव है और आदमी को केवल आदमी के परिवेश में देखने की ललक है। इस ललक के कारण ही वे आम आदमी की वकालत करते हैं। इसीलिए उनके निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण तथा कविता पाठकों को स्वतः मोह लेते हैं और संदर्भ विशेष में सोचने के लिए विवश करते हैं। मानवतावादी दृष्‍टिकोण ही उनके निबंधों का केंद्रीय तत्व है।

एक कहावात है - काला अक्षर भैंस बराबर। इसमें यह संकेत छिपा है कि शिक्षा मनुष्य को जैविक जंतु से समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है। अतः वह मनुष्य के अस्तित्व का अभिन्न अंग है। रामअवध शास्त्री की दृष्‍टि में जो शिक्षा मनुष्‍य को मनुष्‍य के पास जाने से रोकती है और भेदभाव को जगाती है, उसका मिलना और न मिलना दोनों बराबर है - "जो शिक्षा हमारी विवशता का उन्मूलन नहीं करती, मनुष्‍य को मनुष्‍य से जोड़ना नहीं जानती, मनुष्‍य को मनुष्‍य का महत्व नहीं समझा पाती, उसका मिलना और न मिलना दोनों बराबर है।" (जोगी ठाकुर)

गुरु-शिष्‍य परंपरा बहुत प्राचीन है। गुरु वह है जो शिष्‍य को ज्ञान दे और शिष्‍य वह है जो अपने गुरु से ज्ञान ले। दोनों के बीच आत्मीय संबंध होता है। लेकिन आज गुरु-शिष्‍य के बीच आत्मीयता का अभाव है। न ही शिष्‍य गुरु को सम्मान दे रहे हैं और न ही गुरु शिष्‍य को स्नेह। इस पर शास्त्री जी कहते हैं कि "गुरु और शिष्‍यों के बीच अब आत्मीयता नहीं रही। अब न कोई शिष्‍य किसी गुरु की खोज में निकलता है, न कोई गुरु बहुत जाँच-पड़ताल के बाद अपने शिष्‍यों का चुनाव करता है और न उसके कृत्याकृत्य का भागीदार बनना चाहता है।" (गुरु जी का चूल्हा)

रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों में परंपरा की गूँज सुनाई पड़ती है। वे कहते हैं कि ‘परंपरा से कट कर कोई जीवित नहीं रह सकता। मैं परंपरावादी तो हूँ, किंतु रूढ़िवादी नहीं हूँ। रूढ़ियों का तो घोर विरोधी हूँ। स्वयं निजी जिंदगी में भी मैंने रूढ़ियों को तोड़ा है और अपने लेखन द्वारा लोगों को तोड़ने के लिए उकसाया है क्योंकि रूढ़ियाँ प्रगति के लिए बाधक होती हैं। आधुनिकता की तरह परंपरा भी गतिशील है, हाँ चलती है किसी कुलवधू की तरह मंथर गति से। उसकी यह गति लोगों को अपनी ओर आकृष्‍ट करती है, मुझे भी आकृष्‍ट करती है। मैं भी आकृष्‍ट होता हूँ। अपने देश के चिंतन से जुड़ा हूँ, अपने देश के साहित्य से जुड़ा हूँ, अपने देश के महान साहित्यकारों से जुड़ा हूँ कि भले ही हमारा समाज पाषाण युग से प्‍लास्टिक युग में आ गया हो किंतु उसकी कई मान्यताएँ और मूल्य आज भी प्राचीनता की चादर ओढ़े हुए हैं।’

वस्तुतः रामअवध शास्त्री जिजीविषा और जीवट के रचनाकार हैं। वे ऐतिहासिक और परंपरागत मूल्यों में आस्था रखने के बावजूद रूढ़िगत मूल्यों के विरुद्ध जागरूक हैं। उनकी दृष्‍टि में नारी परंपरा की संवाहिनी है और परंपरा निर्वाह से सर्वाधिक सुरक्षा और सुविधा उसे ही प्राप्‍त होती है। इस समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान तभी प्राप्‍त होगा जब पुरुष का संवेदनशील हृदय उसके साथ जुड़ेगा। जहाँ कहीं नारी का अपमान होता है, शास्त्री जी का संवेदनशील हृदय विचलित होता है। अतः वे कहते हैं - "बहुत होती थीं चर्चाएँ/ मच जाता था शोर/ जब कोई नारी/ अपमानित हो जाती थी/ किसी चौराहे पर।"

पर आज लोग संवेदनहीन होते जा रहे हैं। दिनदहाड़े आँखों के सामने ही किसी को मौत के घाट उतारा जा रहा है, किसी की इज्जत लूटी जा रही है। फिर भी लोग अपने रास्ते जाते हैं। इस स्थिति से शास्त्री जी का मन पीड़ित होता है - "किंतु अब ऐसा कुछ नहीं होता/ न द्रवित होता है मन/ न फूटती हैं प्रतिक्रियाँ/ किन्हीं ऐसी घटनाओं पर/ हम आश्‍वस्त हो जाते हैं।"

‘निबंधकार रामअवध शास्त्री’ शीर्षक शोधपरक पुस्तक में शानमियाँ ने रामअवध शास्त्री के व्यक्‍तित्व और कृतित्व (विशेष रूप से निबंधों) का समग्र विवेचन किया है और यह दर्शाया है कि वे परंपरा प्रेमी होते हुए भी आअधुनिकता के बोध से सुसंपन्न रचनाकार है। निष्‍कर्षतः यह कृति यह प्रतिपादित करने में सर्वथा समर्थ है कि रामअवध शास्त्री के निबंधों में उनका साहित्यानुरागी एवं बहुभाषाविद्‌ व्यक्‍तित्व झलकता है जो भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों का समर्थक तथा आधुनिक समाज में पनपती विसंगतियों के प्रति सचेत है। उनके निबंधों में साहित्य की अन्य विधाओं की ऐसी सुगंध मिलती है जिससे प्रभावित हुए बिना कोई पाठक नहीं रह सकता।

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* निबंधकार रामअवध शास्त्री/ (सं) देवकीनंदन शर्मा/ 2008 (प्रथम संस्करण)/ नवयुग पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, एल-21/1, गली नं.5, शिवानी मार्ग, वेस्ट घोंडा, दिल्ली-110 053/ पृष्‍ठ-150/ मूल्य- रु.295/-