मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

निजीपन के संसार के कवि शमशेर



ओ मेरे घर
ओ हे मेरी पृथ्वी
साँस के एवज़ तूने क्‍या दिया मुझे
- ओ मेरी माँ?

तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
और क्या दिया
मुझे भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह!"
(शमशेर; ‘ओ मेरे घर’, इतने पास अपने; पृ.19)

हिंदी साहित्य जगत में ‘नई कविता’ के सक्षक्‍त हस्ताक्षर शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 - 12 मई,1993) का अपना एक सुनिश्‍चित स्थान है। वस्तुतः शमशेर और उनकी कविताओं पर कुछ लिखना एक चुनौती है। उनकी काव्य यात्रा छायावादोत्तर रोमांटिक भावधारा से शुरु होकर प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को पार करती हुई नई कविता से जुड़ गई है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का कथन है कि "प्रयोगवादियों में यदि कोई प्रगतिशील संभाग हो, तो उनके प्रतिनिधि के रूप में शमशेर बहादुर को स्वीकार किया जा सकता है।" (नई कविता; आचार्य नंददुलारे वाजपेयी; पृ.55)

शमशेर अद्वितीय शिल्पी हैं। उन्होंने कविता के क्षेत्र में छाए हुए वादों की जकड़न से हमेशा अपने आपको अलग रखा और काव्य भाषा को चित्रात्मकता, संगीत, बिंब विधान और लय के माध्यम से तराशा। इस संदर्भ में रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत द्रष्‍टव्य है - "शमशेर की कविताओं में संगीत की मनःस्थिति बराबर चलती रहती है।एक ओर चित्रात्मकता की मूर्तता उभरती है, और फिर वह संगीत की अमूर्तता में डूब जाती है। भाषा में बोलचाल के गद्‍य का लहजा और लय में संगीत का चरम अमूर्तन इन दो परस्पर प्रतिरोधी संदर्भों के कम-से-कम रहने पर भी शमशेर में हमें एक संपूर्ण रचना संसार दिखाई देता है।" (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदान का विकास; पृ.205)

शमशेर कविता में आंतरिक ऊर्जा को महत्व देते हैं। वे खड़ीबोली के बोलचाल के रूप को महत्व देते हैं। उनका मत है कि ‘पाठक के मन की बात को पाठक की ही भाषा में व्यक्‍त करना चाहिए।’ इस संदर्भ में वे उर्दू को भी याद करते हैं और कहते हैं - "मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूँ। मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं।" (शमशेर, बाढ़)

शमशेर का रचना संसार उनके निजीपन का संसार है। सामाजिक जीवन का  उत्कर्ष उनकी रच्नाओं में नहीं दिखाई देता। इस संदर्भ में उनका मत है कि "अपनी काव्य कृतियाँ मुझे दरअसल सामाजिक दृष्‍टि से बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं। उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्‍न चिह्‍न-सा ही रही है, कितना ही धुँधला सही। खै़र, यह मेरी नितांत अपनी निजी आंतरिक भावना है।" (शमशेर, चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ.6)। पर सामाजिक संघर्षों से शमशेर अछूते नहीं रहे। उन्होंने भले ही किसी शैली या विषय सीमा को स्वीकार नहीं किया हो लेकिन वे कवि कर्म को जानते हैं तथा कविता की सही दिशा को पहचानते हैं। अतः वे कहते हैं कि "कवि का कर्म अपनी भावनाओं में , अपनी प्रेरणाओं में , अपने आंतरिक संस्कारों में, समाज सत्य के मर्म को ढालना - उसमें अपने को पाना है, और उस पाने को अपनी पूरी कलात्मक क्षमता से पूरी सच्चाई के साथ व्यक्‍त करना है, जहाँ तक वह कर सकता है।" (शमशेर, कुछ और कविताएँ, पृ.5)

शमशेर संवेदनशील कवि हैं। उनमें निहित रोमांटिक संवेदना उन्हें छायावाद से जोड़ती है। छायावादी भाव बोध के साथ साथ शमशेर जीवन के यथार्थ बोध को भी साथ लेकर चलते हैं। उनमें प्रेम, सौंदर्य और इंद्रियजनित सहज अनुभूतियाँ हैं। उनमें रोमानी संवेदना की ताजगी है - "छिप गया वह मुख/ ढँक लिया जल आँचलों ने बादलों के/ (आज काजल रात भर बरसा करेगा क्‍या?)" (वही; पृ.27)

शमशेर की कविताओं में एक ओर प्रेम की आकांक्षा, नारी सौंदर्य की कल्पना और निराशा से उत्पन्न व्यथा का मार्मिक चित्रण है - "गोद यह/ रेशमी गोरी/ अस्थिर/ अस्थिर/ हो उठती/ आज/ किसके लिए? जा/ ओ बहार/ जा! मैं जा चुका कब का/ तू भी-/ ये सपने न दिखा?" (वही; पृ.39) तो दूसरी ओर उनका मिज़ाज इन्क़लाबी है - "सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैं।? हमारे अपने नेता भूल जाते हैं हमें जब,? भूल जाता है ज़माना भी उन्हें, हम भूल जाते हैं उन्हें खुद/ और तब/ इन्क़लाब आता है उनके दौर को गुम करने।" (वही; पृ.10)

शमशेर अपनी कविताओं में संवेदनाओं का मूर्त चित्रण करते हैं। इस संदर्भ में मुक्‍तिबोध का मत है कि "शमशेर की मूल प्रवृत्ति एक इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार की है। इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा जो उसके संवेदना-ज्ञान की दृष्‍टि से प्रभावपूर्ण संकेत शक्‍ति रखते हैं।... दूसरे शब्दों में इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार दृश्‍य के सर्वाधिक संवेदनाघात वाले अंशों को प्रस्तुत करेगा और यह मानकर चलेगा कि यदि वह संवेदनाघात दर्शक के हृदय में पहुँच गया तो दर्शक अचित्रित शेष अंशों को अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर लेगा।" (मुक्‍तिबोध, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध; पृ.92)।

शमशेर की धारणाएँ उनकी कविता में बोलती हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।/ सत्य का/ क्या रंग/ पूछो, एक रंग/ एक जनता का दुःख एक/ हवा में उड़ती पताकाएँ अनेक।" (बात बोलेगी)। कभी कभी यह भी प्रतीत होता है कि शमशेर आधुनिक मानवीय दाह को शांत करनेवाले कलाकार हैं - "आधुनिकता आधुनिकता/ डूब रही है महासागर में/ किसी कोंपले के ओंठ पे/ उभरी ओस के महासागर में / डूब रही है/ तो फिर क्षुब्ध क्यों है तू।" (‘सारनाथ की एक शाम’ (त्रिलोचन के लिए); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.21)।

वसतुतः शमशेर को ‘मूड्‍स’ का कवि माना जाता है। उनका यह मूड यथार्थ से होकर गुजरता है। वे खुली आँखों से सामाजिक गतिविधियों को देखकर उन्हें परखते हैं और कहते हैं कि - "मैं समाज तो नहीं, न मैं कुल जीवन,/ कण समूह में हूँ मैं केवल एक कण।"(कुछ कविताएँ; पृ.17)। शमशेर व्यक्‍तिवाद के उस धरातल पर पहुँच जाते हैं जहाँ व्यक्‍ति मन की अनंत गहराइयों में अकेलापन और संत्रास है। इस वैयक्‍तिक मनोभूमि में शमशेर अपने आपको तलाशते नजर आते हैं - "खुश हूँ कि अकेला हूँ,/ कोई पास नहीं है.../ बजुज एक सराही के,/ बजुज एक चटाई के,/ बजुज का ज़रा से आकाश के,/ जो मेरा पड़ोसी मेरी छत पर/ (बजुज उसके, जो तुम होती-मगर हो फिर भी/ यहीं कहीं अजब तौर से।)"

शमशेर की कविता में बिंबात्मकता है। ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ में संकलित कविता ‘कथा मूल’ पर दृष्‍टि केंद्रित करें। यह कविता चार खंडों में विभाजित है। इसमें भारतीय परिवार, लोक जीवन, सामाजिक संबंध और आर्थिक विसंगति आदि का विवरण है - "गाय-सानी। संध्या। मुन्नी - मासी!/ दूध! दूध! चूल्हा, आग, भूख।/ मा/ प्रेम।/ रोटी।/ मृत्यु।" इसका दूसरा खंड प्रथम खंड पर केंद्रित है - "औरत। अंधेरी। जोड़ों का दर्द। बच्चे। पाप। पुनर्जन्म। आत्मोन्नति। पुलिस। आजादी। स्वाहा।" इस कविता का तीसरा खंड है - "गुरुजन। हिम-शिखर। हँसी।" तथा चौथा है - "लिंग; मानस। लिंग; अर्वाचीन।/ लिंग; शिव; भविष्‍य। सदा शिव। तुम तत्-सत्।/ मैं यह क्षण" (‘कथा मूल’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.52-53)। यदि इस कविता में निहित शब्दों को एक-दूसरे से मिलाते जाएँ तो चाक्षुष बिंबों की पूरी कड़ी उभकर सामने आता है। शमशेर ने प्रेम, रोटी, औरत, पुलिस, आजादी जैसे प्रतीकों का भी बखूबी प्रयोग किया है। यह कविता उनकी प्रयोगधर्मिता और सृजनात्मकता का परिचायक है।

शमशेर की कविता का केंद्र व्यक्‍ति है। उन्होंने अपने आप को व्यक्‍ति के प्रति समर्पित कर दिया है - "समय के/ चौराहों के चकित केंद्रों से।/ उद्‍भूत  होता है कोई : "उसे-व्यक्‍ति-कहो" :/ कि यही काव्य है।/ आत्मतमा/ इसलिए उसमें अपने को खो दिया।" (‘एक नीला दरिया बरस रहा’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.13)

आज मध्यवर्ग की स्थिति बहुत दयनीय है। इसका प्रमुख कारण आर्थिक है। वह उच्च वर्ग की ज़िंदगी जीने के चक्कर में लुट रहा है। शमशेर मध्यवर्ग को आवाज देते हैं - "ओ मध्यवर्ग/ तू क्यों क्यों कैसे लुट गया/ दसों दिशाओं की भी दसों दिशाओं की भी.../ दसों दि... शा... ओं/ में / तू कहा हैं कहीं भी तो नहीं/ इतिहास में भी तू/ असहनीय रूप से दयनीय/ असहनीय/ न-कुछ न-कुछ न-कुछ.../ मैं/ उसीका छाया हुआ/ अंधेरा हूँ/ शताब्दी के/ अंत में। छटता हुआ।" (‘दो बातें’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.70-71)।

शमशेर ने बदलती हुई जटिल और भयावह दुनिया में मनुष्‍य की पीड़ा और मूल्यहीनता को चित्रित किया है। मनुष्‍य परिस्थितियों और उनके सुख-दुःख को विविध धरातलों पर अभिव्यक्‍त किया है। उन्होंने मध्यवर्ग की अधकचरी स्थिति को ऐतिहासिक संदर्भों में देखते हुए कहा है कि - "इतिहास में भी तू/ असहनीय रूप से दयनीय।"

साम्राज्यवाद के नाम पर लोगों को धोखा दिया जा रहा है। इस पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि "बनियों ने समाजवाद को जोखा है/ गहरा सौदा है काल भी चोखा है/ दुकानें नई खुली हैं आजादी की/ कैसा साम्राज्यवाद का धोखा है!" (‘बनियों ने समाजवाद को जोखा है’; सुकून की तलाश; पृ.56)

शमशेर की कई रचनाएँ सामाजिक सच्चाई और लोकतंत्र की ताकत को स्वर देती हैं तथा जन मानस की भावनाओं को छूती हैं। उनकी दृष्‍टि में "दरअसल आज की कविता का उसकी भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलान में हिस्सा ले रहे हैं। टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि को जहाँ वह है, वहीं से पा सकते हैं। वे उसको पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" ((सं) अज्ञेय, दूसरा सप्‍तक; वक्‍तव्य; पृ.77)

समसामयिक युग में दर्द की सच्चाई, तड़प और अनुभूति अपना अस्तित्व खो चुकी हैं। कहा जाता है कि उदात्त भावों का विकास उदात्त स्वभाव वाले व्यक्‍ति के हृदय से होता है। लेकिन आज की विडंबना यह है कि लोग कहते कुछ हैं तथा करते कुछ और। इस पर व्यंग्य करते हुए कवि कहते हैं कि "मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत/ लेकिन इन्सान के दर्शन हैं मुहाल।" (‘मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.56)

भारत-चीन युद्ध के समय कवि ने ‘सत्यमेव जयते’ पर जोर दिया है - "शिव लोक में चीनी दीवार न उठाओ!/ वहाँ सब कुछ गल जाता है/ सिवाए सच्चाई की उज्ज्वलता के!/ असत्य कहीं नहीं है!/ शक्‍ति आकार में नहीं,/ सत्य में है!/ हमारी शक्‍ति/ सत्य की विजय/ ...याद रखो/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!/ सत्यमेव जयते!" (‘सत्यमेव जयते’(भारत-चीन युद्ध); चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.43)। कवि की मान्यता है कि मानव मात्र के लिए बुनियादी चीज है-शांति। अतः वे कहते हैं - "अगर तुमसे पूछा जाय कि/ सबसे बुनियादी वह पहली चीज़ कौन-सी है/ कि मानव मात्र के लिए जिसका होना आवश्यक है?/ तो एक ही जवाब होगा तुम्हारा :/ एकदम पहली ही बार,/ फिर दूसरी बार भी,/ और अंतिम बार भी/ यही एक जवाब :-/ शांति!" (‘शांति के ही लिए’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.57)

भाषागत और वर्णगत वैविध्य भी भारत की अखंड मानवता को खंडित नहीं कर सकते हैं चूँकि "भाषा? भाषा/ हृदय हमारे/ भाषा हमारी/ सीमा रेखाएँ हमारी एक-एक साथ/ हम हैं एक साथ हम हैं/ हम-हम सारी दुनिया!/ लिपियाँ स्‍वर ओ’ व्यंजन/ आरोहावरोह गति टोन/ छंद न्यास मौन की मुखर/ साँस की नाना गतियाँ/ दम सम विराम/ इन सबके अर्थ/ हम/ आर पार-सातों समंदर के/ छहों महाद्वीप के/ गत-आगत के/ आर पार/ हम हैं; हम/ कवि लोग!" (‘गिन्सवर्ग के लिए’; चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.61-62)। शमशेर यह भी कहते हैं कि "भाषाओं की नस-नस एक-दूसरे से गुँथी हुई है/ (मगर उलझती हुई नहीं)/ हमारी साँस साँस में उनका सौंदर्य है/ (मॉ डर्निस्‌ टिक्‌ कहो मत)/ अभी हमें लड़ने दो।" (‘भाषा’, चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.65)

समाज में धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंड पर भी शमशेर कुठाराघात करते हैं - "जो धर्मों के अखाड़े है/ उन्हें लड़वा दिया जाए!/ जरूरत क्या कि हिंदुस्तान पर/ हमला किया जाए!!/ ***/ मुझे मालूम था पहले हि/ ये दिन गुल खिलाएँगे/ ये दंगे और धर्मों तक भि/ आख़िर फैल जाएँगे/ ***/ जो हश्र होता है/ फ़र्दों का वही/ क़ौमों का होता है/ वही फल मुल्क को/ मिलना है, जिसका/ बीज बोता है।" (‘धार्मिक दंगों की राजनीति’, सुकून की तलाश; पृ.71)। वे यह भी कहते हैं कि "जितना ही लाउडस्पीकर चीखा/ उतना ही ईश्‍वर दूर हुआ :/ (-अल्ला-ईश्‍वर दूर हुए!)/ उतने ही दंगे फैले, जितने/ ‘दीन-धरम’ फैलाए गए।" (‘राह तो एक थी हम दोनों की’, सुकून की तलाश; पृ.33)

धर्म के नाम पर होनेवाले पाखंड पर ही नहीं शमशेर ने देश में व्याप्‍त अकाल पर भी व्यंग्य कसा है - "जहाँ कुत्तों का जीवन भर दीर्घतर लगता है,/ स्पृहनीय; केवल/ अपना ही दयनीय।/ क्यों जन्मा था मनुष्‍य/ बीसवीं सदी के मध्याह्‌न में/ यो मरने के लिए?" (‘अकाल’, चुका भी हूँ नहीं मैं; पृ.84)|

शमशेर की कविताओं में प्रकृति के अनेक रंगों की छटा है।प्रेम, सौंदर्य, मनुष्‍य, देश, समाज, प्रकृति, परंपरा, आधुनिकता, युद्ध, संघर्ष, अकेलापन और तनाव आदि मुखरित हैं। शमशेर की कविता हो या गद्‍य उसमें निहित अर्थ छटाओं को खोलना इतना आसान नहीं है।

शमशेर की शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित कृति ‘ठंडी धुली सुनहरी धूप’ ((सं) विश्‍वरंजन/ 2010(प्रथम संस्करण)/ यश पब्लिकेशनस, X/909,चाँद मौहल्ला, गांधी नगर, दिल्ली-110 031/ (Yash-publication@hotmail.com)/ पृ. 309/ मूल्य- रु.495/-) में 31विद्वानों के आलेख सम्मिलित हैं जिन्हें पढ़ने से पाठकों के समक्ष शमशेर और उनकी कविता को समझने के अनेक आयाम खुल जाएँगे।



2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

शमशेर खि जीवनी पर प्रकाश खालती इस पुस्तक की सुंदर समीक्षा के लिए बधाई स्वीकारें डॊक्टर सा’ब॥

arpanadipti ने कहा…

सुन्दर समीक्षा के लिए बधाई डॉ. साहिबा