गुरुवार, 26 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का अंतिम दिन

25/07/2012 की सुर्खियाँ


· पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का समापन समारोह संपन्न

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का अंतिम दिन.

आज पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का अंतिम दिन था. 21 दिनों के पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का समापन समारोह आज अकादमिक स्टाफ कॉलेज, मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ. अच्छा रहता अगर समापन समारोह में हिंदी और अंग्रेजी प्रतिभागी दोनों मिलकर एक साथ बैठते - पहले दिन की तरह.. पर हिंदी और अंग्रेजी पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का समापन समारोह अलग अलग मनाया गया. सुनने में आया कि अकादमिक स्टाफ कॉलेज, मानू के पांच साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है.

इस समारोह में अकादमिक स्टाफ कॉलेज के निदेशक (डॉ.पी.एफ.रहमान), सहायक निदेशक (इमतियाज) और हिंदी विभागाध्यक्ष (प्रो.टी.वी.कट्टीमनी) जी भी उपस्थित रहते, अधिक गरिमा पूर्ण लगता. लेकिन अकादमिक स्टाफ कॉलेज, मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के एसोसिएट डायरेक्टर (डॉ.तहसीन बिलग्रामी), अतिथि श्री सुरेन्द्र वर्मा और समन्वयक डॉ.करन सिंह ऊटवाल ने उनकी कमी महसूस नहीं होने दी.

बुधवार, 25 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का पंद्रहवां दिन

24/07/2012 की सुर्खियाँ

· 'नाटक साहित्य और उसका फिल्मांकन' पर श्री सुरेंद्र वर्मा का व्याख्यान 

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का पंद्रहवां दिन.


श्री सुरेंद्र वर्मा के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' के प्रसिद्ध नाटककार सुरेंद्र वर्मा ने कहा कि नाटक एक तरह से आइसबर्ग के समान है. ऊपर से देखने के लिए तो वह सतही लगता है लेकिन अंदर से वह गहरा है. नाटककार और फिल्म निर्देशक के बीच हमेशा अहं टकराता रहता है. कभी भी निर्देशक यह नहीं चाहता कि रिहार्सल के वक्त मूल लेखक मौजूद हो. जिस तरह से नाटककार नाटक का सृजन करते हैं ठीक उसी प्रकार फिल्म बनाना कठिन अवश्य है लेकिन नामुमकिन नहीं है. 

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का चौदहवाँ दिन

23/07/2012 की सुर्खियाँ

· प्रसिद्ध उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' के लेखक श्री सुरेंद्र वर्मा का नगर आगमन

· 'साहित्य : फ़िल्में' पर श्री सुरेंद्र वर्मा का व्याख्यान 

· 'विज्ञापन और एस एम एस की भाषा' पर मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. तेजस्वी वेंकप्पा कट्टीमनी का व्याख्यान 

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का चौदहवाँ दिन.


श्री सुरेंद्र वर्मा के व्याख्यान का सार संक्षेप 


'साहित्य : फिल्में' पर व्याख्यान देते हुए श्री सुरेंद्र वर्मा ने कहा कि किसी भी साहित्यकार की जिंदगी में बार बार एक शब्द आता है, वह है इंटरप्रेटेशन. समय के साथ साथ तकनीक में भी बदलाव आ रहा है और साथ ही मानवीय संवेदनाएं भी बदल रही हैं. साहित्य के आधार पर जब फिल्मों का निर्माण होता है तब मूल लेखक को निर्देशक के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि फिल्म में नाटकीयता बनाए रखने के लिए निर्देशक कुछ सीन्स को जोड़ भी सकता और जरूरत पड़े तो कुछ को छोड़ सकता है. यह कोई जरूरी नहीं कि उपन्यास, कहानी या नाटक में जो कुछ भी लिखा हो उसे हू-ब-हू फिल्म में दिखा जाए. लेखकों के सिलसिले में फिल्म इंडस्ट्री में एक कहावत बहुत प्रचलित है – 'Take Money and run away, never turn back.'

सुरेंद्र वर्मा ने यह बताया कि उन्हें उपन्यास या नाटक लिखने के बजाए फिल्म स्क्रिप्ट लिखना बेहद पसंद है. उन्होंने कहा कि पहले वे वेश्या समस्या पर आधारित - विशेष रूप से पुरुष जब इस वृत्ति को अपनाते हैं तो उनकी मनःस्थिति और मानसिकता क्या होगी पर - फिल्म स्क्रिप्ट लिखने बैठे थे. लेकिन दो-तीन सीन्स लिखने के बाद उन्हें यह लगा कि इस तरह की फिल्म को दर्शक नहीं स्वीकारेंगे तो उन्होंने 'दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता' शीर्षक से उपन्यास का सृजन किया जिसे पढ़कर काफी लोगों ने उनसे यह कहा - इतना घटिया उपन्यास आपने कैसे लिखा. 

सुरेंद्र वर्मा ने 'Mr & Mrs Mathur – Gender Bender Comedy (Surendra Varma, FRA Registration No. 138041 dated 24/4/08) की पटकथा दिखाकर प्रतिभागियों को यह समझाया कि फिल्म स्क्रिप्ट मॉन्ताज (छोटे छोटे हिस्से) में लिखी जाती है. 


प्रो.टी.वी.कट्टीमनी के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'विज्ञापन और एस एम एस की भाषा' पर व्याख्यान देते हुए मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.टी.वी.कट्टीमनी ने कहा कि विज्ञापन हमेशा अनुवाद को साथ लेकर चलता है. विज्ञापन एक कमर्शियल कंसेप्ट है. माल – कमाल – मालामाल, यही विज्ञापन दुनिया की नीति है. उत्पादक अपने माल को कमाल (आकर्षक विज्ञापनों) के साथ बेचकर मालामाल होना चाहते हैं. इसलिए इसमें प्रयुक्त भाषा हमेशा लचीली और आकर्षक होती है तथा साथ ही नवीन भी. ताजगी विज्ञापनों के लिए अनिवार्य तत्व है. उन्होंने यह भी कहा कि आजकल विज्ञापनों के कारण हर एक की मानसिकता बदल रही है. विज्ञापन ने उपभोक्ता को मुट्ठी में कर लिया है तो एस एम एस ने पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर लिया है. 

सोमवार, 23 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का तेरहवाँ दिन

20/07/2012 की सुर्खियाँ


· 'हिंदी कवियों के सिने गीत : वस्तु और शिल्प' पर हैदराबाद के गीतकार डॉ.डी.के.गोयल का व्याख्यान 

· 'सृजनात्मक नाटक' पर श्री डी.श्रीनिवास का व्याख्यान 

· नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक श्री विकास नारायण राय का व्याख्यान 

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का तेरहवाँ दिन.

डॉ.डी.के.गोयल के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'हिंदी कवियों के सिने गीत : वस्तु और शिल्प' पर व्याख्यान देते हुए डॉ.डी.के.गोयल ने कहा कि 'दिल के दर्द से, दिमाग की गर्द से/ आहे सर्द से बनता है गीत./ भावना की चाल से, वर्तमान के हाल से/ शब्दों के जाल में फँसता है गीत./ बिंबों की साया ले, प्रतीकों की माया ले/ अलंकारों की काया में सजता है गीत/ नए नए छंदों में, गोरख धंधों में/ अकविता के फंदों में, कसता है गीत.' 

हिंदी सिनेमा लगभग गीति नाट्य का ही एक विकसित रूप है. हिंदी सिने गीतकार प्रमुख रूप से तीन प्रकार के हैं – (1) मूलतः हिंदी कवि, (2) मूलतः हिंदी गीतकार और (3) उर्दू शायर. सिने गीत भी साहित्य का ही हिस्सा है. ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि सिने गीतों में तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी शब्दों की बहुलता है. सिचुएशन के अनुरूप गीत लिखे जाते हैं. कुछ गीतों में ध्वन्यात्मक शब्दों का भी प्रयोग होता है. आजकल तो सिने गीतों के लिए कोई शब्द निरर्थक नहीं हैं. इन गीतों में बिंब और प्रतीकों का सुंदर प्रयोग पाया जाता है. काम, प्रेम, विवाह, सौंदर्य, विरह, संयोग, वियोग, दुःख, सुख, संदेह, ईर्ष्या, द्वेष, प्रथम दर्शन, राजनीति, प्रकृति, मानवीय संबंध, माँ, जुआ, शराब, होली, दीवाली, सामाजिक चेतना, देश प्रेम आदि पर गीत हैं. एकल गीत, युगल गीत, समूह गीत, लोरी, पार्श्व गीत, संयुगल गीत, प्रश्नोत्तर शैली में गीत, फेरीवालों की शैली में गीत, वार्ता शैली में गीत, शीर्षक गीत, मुहावरों की शैली में गीत, लोकगीत, दार्शनिक गीत आदि अनेक प्रकार की शैलियों में सिने गीत लिखे जाते हैं.'

डॉ.डी.के.गोयल ने व्यावहारिक स्तर पर पूरी क्लास को तेलुगु सिनेमा 'श्री रामदास' का प्रसिद्ध गीत 'अंता रामा मैयम, जगमंता रामा मैयम...' सुनाकर सबसे यह कहा कि उसके आधार पर नया गीत लिखें. 


श्री डी.श्रीनिवास के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'सृजनात्मक नाटक' पर व्याख्यान देते हुए 'जनपदम' के निर्देशक श्री श्रीनिवास देंचनाला ने कहा कि सृजनात्मक नाटक के लिए स्पेस, अभिनेता और दर्शक प्रमुख अंग है. इनके बिना नाटक का मंचन असंभव है.' मास्टर जी ने तो क्लास रूम को ही थियेटर में बदल दिया! उन्होंने प्रतिभागियों के तीन समूह बनाकर कहा कि पांच मिनट के समय में खुद एक थीम बनाकर नाटक प्रदर्शन करें जिसका अंत ट्रैजिक हो. समूह एक ने मध्यवर्गीय परिवार की समस्या को दर्शाया तो समूह दो ने अस्पतालों में गरीब मरीजों की समस्या को. समूह तीन ने पुलिस व्यवस्था को दर्शाया. सब प्रतिभागी पहले तो अपने आप में यह सोच रहे थे कि यह क्या हो रहा है और आपस में इशारों से बतिया रहे थे. कुछ लोग नाराज भी हो गए. पर अंत में सब प्रतिभागी खुश थे क्योंकि सबको मौक़ा मिला है अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने के लिए. 


श्री विकास नारायण राय के व्याख्यान का सार संक्षेप 

हैदराबाद नेशनल अकादमी के निदेशक डी जी पी श्री विकास नारायण राय ने प्रतिभागियों से यह कहा कि साहित्य से दोस्ती करना अनिवार्य है चूंकि वह हर एक के जीवन का हिस्सा है. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि नाटक लिखना और मंच पर उसे प्रदर्शित करना आसान नहीं है. इस संबंध में उन्होंने 2007 में हरियाणा पुलिस अकादमी के लिए उनके द्वारा रचित '1857 : India's War Of Independence' शीर्षक नाटक के उदाहरण द्वारा ध्वनि एवं प्रकाश के माध्यम से गीतसंगीतमय नाटक की प्रक्रिया को समझाया और अपने अनुभवों को बांटा . 

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का बारहवाँ दिन


19/07/2012 की सुर्खियाँ

· 'संश्लेषण का रंगमंच और कहानी का मंचन' पर दिल्ली आर्ट्स कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर प्रो.महेश आनंद का व्याख्यान 

· 'सृजनात्मक नाटक' पर 'रंगधारा' के निर्देशक प्रो.भास्कर शेवालकर का व्याख्यान 

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का बारहवाँ दिन.

प्रो.महेश आनंद के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'कलाएँ हमारे जीवन और संस्कृति का अहम हिस्सा है. विभिन्न कलाएँ एक-दूसरे से संबद्ध हैं. कहानी के रंगमंच ने कई कल्पनाशील निर्देशकों के कारण अपनी एक पहचान बनाई है. एक पाठक जब कहानी को पढ़ता है या सुनता है, वह उसी समय कहानी के पाठ के समानांतर कहानी को दृश्य के रूप में देखता है. अभिनेता के रूप में मंच पर एक दूसरा लेखक प्रस्तुत हो जाता है. सादगी भरी परिकल्पना वस्तुतः कहानी मंचन की विशेषता है. मंचन करते समय संवादों को पेश करना आसान है लेकिन वर्णन के दृश्यों को पेश करना कठिन है. इसलिए नाट्यरूपांतरण में वर्णन को छोड़ दिया जाता है लेकिन कहानी के रंगमंच में वर्णन को नेरेटर नेरेट करता है. कहानी में निहित व्यंग्यार्थ को मंचित करना चुनौती का कार्य है.'

प्रो.भास्कर शेवालकर के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'सृजनात्मक नाटक' पर व्याख्यान देते हुए 'रंगधारा' के निर्देशक प्रो.भास्कर शेवालकर ने कहा कि 'नाटक महज मनोरंजन के लिए नहीं होता है. वह संप्रेषण का सशक्त माध्यम है तथा सभी कलाओं का सम्मिश्रण. सृजनात्मक नाटक (Creative Drama) पारंपरिक नाटक (Formal Drama) से भिन्न है. सृजनात्मक नाटक के लिए न ही किसी तरह के विशेष मंच की जरूरत है और न ही विशेष वेश-भूषा और मेकअप की और न ही बना बनाया स्क्रिप्ट की. इसके लिए सृजनात्मक व्यक्ति की जरूरत है. एक ऐसा व्यक्ति जो बच्चों की भीतरी प्रतिभा को सामने ला सके.' (Creative drama is especially good for children who are creative but do not get an opportunity to express themselves. Children often like to perform. They will have much more understanding power, self-confidence, better control on their bodies, clear dialogue utterance, grasping power. We can say that Creative Drama is the preparation for Formal Drama and those who are trained in this will bring the Formal Drama to the same imaginative level. By the Creative Drama both the action and the dialogue are improvised.)

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का ग्यारहवाँ दिन


18/07/2012 की सुर्खियाँ

  •  'साहित्य और मीडिया' पर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.रवि रंजन का व्याख्यान 
  •  'हैदराबाद में हिंदी नाटकों की स्थिति' पर मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ.करनसिंह ऊटवाल का व्याख्यान 
पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का ग्यारहवाँ दिन.

प्रो.रवि रंजन के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'साहित्य और मीडिया' पर व्याख्यान देते हुए हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.रवि रंजन ने कहा कि 'मीडिया के क्षेत्र में बहुत तेजी से क्रांति आई है. मीडिया के प्रसार के कारण ज्ञान सूचनात्मक हो गया है. यह सूचना अंतिम सत्य नहीं है. सूचना क्रांति के कारण हाशिए के लोग केंद्र में आ गए हैं. आज मनुष्य को मीडिया नचा रहा है. मीडिया के कारण झूठ का मानकीकरण हो रहा है. इसके परिणामस्वरूप पीत पत्रकारिता आगे बढ़ रही है. आज मीडिया ने रीडिंग हैबिट को कैप्चर कर लिया है. 

विज्ञापनों से मीडिया का वर्ग चरित्र पता चलता है. आवारा पूँजी मीडिया को प्रभावित कर रही है जिसके परिणामस्वरूप लोकहितकारी नीतियों के खिलाफ एक वातावरण तैयार हो रहा है. इसीलिए नामवर सिंह ने अपनी एक कविता में यूं कहा है – 'क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा/ आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा.' मीडिया के कारण हमारी जीवन शैली बदल रही है. सपने भी बदल रहे हैं. यथार्थ में भी बहुत तेजी से बदलाव आया है. यथार्थ क्या है ! यथार्थ वह वस्तु सत्ता है जिसका अस्तित्व हमारी चेतना के बाहर है पर वह हमारी चेतना को प्रभावित करता है. आज मीडिया के कारण यथार्थ के बारे में हमारी धारणा भी बदल रही है. 

आज का समय अपने आप में आभासी समय है. पहले चीजें बन रहीं हैं और उन चीजों के अनुरूप एक उपभोक्ता वर्ग तैयार हो रहा है. इसी तरह कुछ ऐसे साहित्य भी हमारे सामने आ रहे हैं जो अपना पाठक वर्ग खुद तैयार कर रहे हैं. यदि हम किसी उपन्यास या नाटक या कहानी को पढ़ते हैं तो हमारी कल्पनाशक्ति जागृत होती है. पर यदि हम उसी को परदे पर देखते हैं तो हम वही देखते हैं जो हमारे सामने दिखाया जा रहा है. कहने का आशय यह है कि मीडिया ने हमारे परसेप्शन (ग्रहणबोध) को डिजिटलाइज्ड बना दिया है. इसके फलस्वरूप हमारे सामने एक आभासी दुनिया है – 'तांबे का आसमान, टिन के सितारे, गैसीले अंधकार, उड़ते हैं कस्कुट के पंछी बेचारे.'

भले ही मीडिया एक इंद्रजाल फैला रहा है यह शाश्वत नहीं है. विलियम रेमंड्स ने भी कहा है कि 'Media is mind manipulator.' पर साहित्य चिरस्थाई है.'


डॉ.करनसिंह ऊटवाल के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'हैदराबाद में हिंदी नाटकों की स्थिति' पर व्याख्यान देते हुए मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ.करनसिंह ऊटवाल ने कहा कि आज भी हैदराबाद में नाटक खेले जा रहे हैं और देखे भी जा रहे हैं. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि 'कहानी का रंगमंच' तथा 'कहानी का नाट्यरूपांतरण' दोनों अलग अलग हैं. कहानी के रंगमंच में किसी कहानी को हू-ब-हू मंच पर प्रस्तुत किया जाता है. जहां कहानी में वर्णन होता है उसे बैकग्राउंड में नेरेट किया जाता है. कहानी के नाट्यरूपांतरण में रंगमंच के अनुकूल कहानी को ढाला जाता है. 

डॉ.करनसिंह ऊटवाल ने हैदराबाद में स्थित कुछ नाट्य संस्थाओं और उनके द्वारा प्रदर्शित नाटकों के बारे में सूचनात्मक जानकारी प्रस्तुत की जो इस प्रकार है –

हैदराबाद की कुछ नाटक संस्थाएं –

· आवर्तन (सत्यब्रत रावत)

· सूत्रधार (विनय वर्मा)

· रंगधारा (भास्कर शेवालकर)

· सिफ़र (फिरोज़)

· उड़ान (सौरभ धारी पूरीकर )

· समाहारा (रत्नशेखर)

· कलाश्रोत (चंद्रकांत खानापुरकर)

· प्रदीप कुमार थियेटर अकादमी (प्रदीप कुमार)

· स्टार आर्ट अकादमी (महबूब)

· न्यू थियेटर (खादर अली बैग)

· खादर अली बैग थियेटर फाउण्डेशन (महमद अली बैग)


· 1952 में फाइन आर्ट्स अकादमी की स्थापना हुई.

· 1971 में भास्कर शिवालकर की संस्था 'रंगधारा' की स्थापना हुई.

· 1975 में देवेंद्र राज अंकुर ने निर्मल वर्मा की तीन कहानियों (डेढ़ इंच ऊपर, धूप का दुःख और वीकेंड) का मंचन किया.

बुधवार, 18 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का दसवाँ दिन


17/07/2012 की सुर्खियाँ

· 'प्रदर्शन कलाएँ और कला का मंचन' पर आर्ट्स कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रो.महेश आनंद का व्याख्यान 

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का दसवाँ दिन.

डॉ.महेश आनंद के व्याख्यान का सार संक्षेप 


'प्रदर्शन कलाएँ और कला का मंचन' पर व्याख्यान देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय, आर्ट्स कॉलेज के प्रोफेसर प्रो.महेश आनंद ने कहा कि 'भारत के हर प्रदेश में उत्सवधर्मिता है. हिंदुस्तान की परंपराओं में जिस तरह सम्मिश्रण प्राप्त होता है उसी तरह नाटक में भी कलाओं का सम्मिश्रण पाया जाता है. कूडीयाट्टम (केरल), करागाट्टम (तमिलनाडु), हरिकथा (आंध्र प्रदेश), स्वांग, रासलीला (उत्तरप्रदेश), पंडवानी (छत्तीसगढ़), ख्याल (राजस्थान), तमाशा, नुक्कड़ नाटक आदि अनेक लोक कलाएँ भारत में देखी जा सकती हैं. ये सभी पारंपरिक शैलियाँ हैं. 

कूडीयाट्टम केरल का नाट्य रूप है. यह संस्कृत नाटकों का पुराना रूप है. यदि संस्कृत नाटकों को समझना है तो इसे अवश्य देखना होगा. यह मंदिर कला है. इस कला को केरल के चाक्यार और नंपियार समुदाय के लोग प्रस्तुत करते हैं. 

प्रमुख रूप से ये कलाएँ भारत की मंदिर कलाएँ हैं. मंदिर के मंडपों में हमें लोक कलाओं और नृत्यों से संबंधित प्रतिमाएं, मुद्राएं प्राप्त होंगी. मदुरै मीनाक्षी मंदिर में सहस्र स्तंभ मंडप है. चिदंबरम नटराज मंदिर में नटराज की 108 भंगिमाएं अंकित हैं. वरंगल में सहस्र स्तंभ का मंदिर है. एल्लोरा, अजंता, कोणार्क आदि को भी देख सकते हैं. इन मंदिरों में हमारी प्राचीन कला और संस्कृति को देखा जा सकता है. इन्हीं से हमारी लोक कालाएँ उद्भूत हैं. परंपरा के साथ साथ हमें आज की आधुनिक तकनीकों को भी नाटक और लोक कलाओं में प्रयोग करना चाहिए. हमारी संस्कृति ही हमारी पहचान है.'

बाएँ से - स्नेहलता शर्मा, जी,नीरजा, महेश आनंद और करनसिंह ऊटवाल 

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का नवां दिन




16/07/2012 की सुर्खियाँ 

·        आर्ट्स कॉलेजदिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ.महेश आनद का नगर आगमन 
·        ‘नाटक देखने और पढ़ने की दर्शनीयता’ पर प्रो.महेश आनंद का व्याख्यान
·       ‘हिंदी – तेलुगु नाटक और रंगमंच’ पर उस्मानिया विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रो.माणिक्याम्बा का व्याख्यान

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का नवां दिन.
यह कार्यक्रम 5 जुलाई को शुरू हुआ था. अतः 16 जुलाई 2012 पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का बारहवां दिन है. रविवार (8 जुलाई15 जुलाई) और द्वितीय शनिवार (14 जुलाई) की छुट्टियों को छोड़ दें तो 16 जुलाई नवां दिन हैं.

डॉ.महेश आनंद के व्याख्यान का सार संक्षेप 

नाटक को देखने और पढ़ने की दर्शीयता’ पर व्याख्यान देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालयआर्ट्स कॉलेज के प्रोफेसर प्रो.महेश आनंद ने कहा कि नाटक महज साहित्य या संवेदात्मक कथा नहीं है बल्कि वह एक तरह से सामाजिक घटना है क्योंकि वह मानवीय कार्य को बखूबी पकड़ता है. वह ज़िंदगी के अनकहेअनछुए पक्षों को उद्घाटित करता है. वस्तुतः नाटक एक सामूहिक कला है चूंकि इसमें अनेक कलाओं का सम्मिश्रण है. प्रकाशध्वनिसंगीतनृत्यस्क्रिप्टसाज-सज्जाआहार्य आदि अनेकानेक डिसिप्लिन्स  का सम्मिश्रण है.

आज ऐसे कई कल्पनाशील निर्देशक हैं जो नित नए प्रयोगों द्वारा नाटक के अलावा अन्य विधाओं से रंगमंच को जोड़कर उसके फलक को विस्तार देने की कोशिश कर रहे हैं. समकालीन नाटकों में तकनीकी प्रयोग तो हो रहा है लेकिन तकनीकी चमत्कार से अलग अभिनेता को केंद्र में लाते हुए रंगमंच को एक नया आयाम और अर्थ दिया जा रहा है.

नाटक एक ऐसा जीवंत माध्यम है जो जीवंत व्यक्तियों के लिए जीवंत व्यक्तियों द्वारा खेला जाता है. नाटक का जन्म दो बार होता है – पहली बार तब  जब निर्देशक या नाटककार उसे लिखता है तथा दूसरी बार तब  जब अभिनेता उसका मंच पर दर्शकों के समक्ष अभिनय करता है. वस्तुतः निर्देशक/ नाटककारअभिनेता और दर्शक थियेटर के मुख्य अंग हैं तथा अन्य सदस्य जो प्रकाशध्वनिसाज-सज्जाआहार्य आदि चीजों का ध्यान रखते हैं वे गौण अंग हैं.

परंपरागत लोकनाट्य के प्रचलित नाट्य रूपों के साथ साथ किस्सागोई की परंपरा भी रही है. समकालीन नाटकों में रगमंच ने किस्सागोई के इन रूपों से अलग अपना एक स्वतंत्र रूप बना लिया है. नाटक में वस्तुतः प्रदर्शन प्रमुख है. नाटक के क्षेत्र में सिर्फ सैद्धांतिकी से काम नहीं चलेगा. यहाँ व्यावहारिकता पर अधिक बल दिया जाता है. अभ्यास बहुत महत्वपूर्ण है. एक नाटककार/ निर्देशक अपने अर्थ को अभिनेता के माध्यम से दर्शक तक पहुंचाना चाहता है. इसके लिए वह ऐसे शब्दों का चयन करता है जिनसे दर्शक प्रभावित हो सकें. नाटक प्रस्तुति के बिना अधूरा है. उसका मुख्य प्रयोक्ता अभिनेता है. यही अभिनेता अपने हाव-भावों के माध्यम से दर्शक तक बात पहुंचाता है. शब्दों को आकार देने का काम अभिनेता करता है. एक तरह से कहा जाए तो अभिनेता संपूर्ण स्क्रिप्ट को कंट्रोल करता है. (Actor controls the whole script and displays it. For this an aesthetic sense is required so that he can communicate maintaining an equilibrium.). अभिनेता को थियेटर स्पेस प्रदान करता है अपने टैलेंट को प्रदर्शित करने के लिए.       

नाटक में वर्णन नहीं होता है. शब्द बोलते हैं अभिनेता के हर अंग के साथ. अभिनेता समूह को संबोधित करता है. अतः यह कहा जा सकता है कि प्रदर्शनीयता  नाटक का प्रमुख गुण है.

डॉ.माणिक्याम्बा के व्याख्यान का सार संक्षेप

हिंदी - तेलुगु नाटक और रंगमंच’ पर प्रकाश डालते हुए उस्मानिया विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर प्रो.माणिक्याम्बा ने कहा कि नाटककार जीवन के शाश्वत बिंदुओं को  छू लेता है. उन्होंने प्रमुख रूप से नवजागरणकालीन तेलुगु नाटकों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उन दिनों नाटककारों ने समाज सुधार के लिए ही नाटकों का सृजन किया. वीरेशलिंगम पंतुलुगुरजाडा अप्पारावचिलकमरतीरघुपति वेंकटरमण नाइडू आदि नाटककारों ने सफल नाटकों का सृजन करके तत्कालीन समाज में व्याप्त वेश्या समस्याबाल विवाहविधवा समस्यासती प्रथाअनमेल विवाह आदि का यथार्थ चित्रण किया है.

प्रो.माणिक्याम्बा ने यह कहा कि आजकल विशेष रूप से हैदराबाद में नाटक देखने को नहीं मिल रहें हैं क्योंकि यहाँ नाटक कंपनियां ही नहीं हैं. उनकी बात एक सीमा तक सही  हो सकती है परन्तु इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता की इन दिनों हैदराबाद में कई नाट्य संस्थाएं सक्रिय हैं.        

शनिवार, 14 जुलाई 2012

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते .....

भारत महान परंपराओं वाला देश है. इसकी अनेक महान परंपराओं में से एक परंपरा यह भी है कि यहाँ ईश्वर की कल्पना पुरुष के साथ साथ स्त्री रूप में भी की गई है तथा यह माना गया है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा की जाती है वहाँ देवता निवास करते हैं. “विश्व में संभवतः भारत एकमात्र ऐसा देश है और भारतीय संस्कृति एकमात्र ऐसी संस्कृति है जहाँ स्त्री को ‘देवी’ कहा जाता है, उसके नाम के साथ ‘देवी’ जोड़ा जाता है, जहाँ विद्या, संपदा, शक्ति की अधिष्ठाता शक्तियों को सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा – यों स्त्रीरूप में दर्शाया जाता है. यूनानी, रोमन सभ्यताओं में भी विशिष्ट कार्यों, व्यवसायों के विशिष्ट देवी-देवता हैं लेकिन उनकी इतने पूज्य-भाव से घर-घर में और सार्वजनिक तौर पर और इतने सुदीर्घ काल से पूजा नहीं होती है. भारत में ‘माँ’ का स्थान अत्यंत पूज्य और आदरणीय है, पत्नी अपने पति की ‘अर्धांगिनी’ है लेकिन सदियों के भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक इतिहास से स्त्री ‘विलुप्त’ है, निम्नतम सोपान पर है. जन्मपूर्व सामाजिक, व्यक्तिगत आकांक्षाओं से लेकर देहांत के बाद भी पराधीन है.”(डॉ.राजम पिल्लै, महाराष्ट्र की संत कवयित्रियाँ, पृ. 3) 

आचरण के स्तर पर देवी स्वरूपा स्त्री के साथ पशु से भी बदतर  व्यवहार के उदाहरण हमारे समाज में रोज ही मिलते रहते हैं. ऐसा लगता है जैसे सब ओर देवताओं के स्थान पर दानव रमण करने लगे हैं. प्रमाणस्वरूप गत दिनों गुवाहाटी में घटित कुकृत्य का उल्लेख किया जा सकता है. “एक नाबालिग लड़की पर टूट पड़े वहशी दरिंदों की करतूत को कैमरे में कैद करने की हिम्मत दिखाने वाले मीडियाकर्मी दीप्य बोरदोलोई से जब सोमवार की इस आंखों देखी घटना के बारे में पूछा गया तो उनके पहले लफ्ज थे,'यह छेड़छाड़ नहीं सामूहिक दुष्कर्म जैसा वाकया था।' गुवाहाटी में एक स्थानीय चैनल न्यूजलाइव के रिपोर्टर दीप्य ने दावा किया कि उन्होंने लड़की को छोड़ने की कई बार गुहार लगाई, लेकिन उन उन्मादी युवकों ने एक न सुनी। उन दुस्साहसी युवकों की भीड़ बढ़ती गई। युवकों के उग्र तेवरों को देख दीप्य ने कैमरामैन से इन शर्मसार करने वाली तस्वीरों को कैद करने का इशारा किया। सोमवार रात को शहर के भीड़ भरे इलाके में फर्राटा भरती गाड़ियों के बीच यह सबकुछ हो रहा था। पीड़िता चीखती-चिल्लाती रही, लेकिन कोई उसके बचाव में आगे नहीं आया। कुछ राहगीर तमाशबीन बनकर देखते रहे, मगर किसी ने नशे में धुत उन युवकों को रोकने की कोशिश नहीं की। आरोपियों ने लड़की का चेहरा कैमरे की ओर करने की कोशिश भी की, जैसे वह कोई बहादुरी का काम कर रहे हों। घटनास्थल से एक किमी दूर पुलिस स्टेशन होने के बावजूद पुलिसकर्मी 40 मिनट बाद वहां पहुंचे। असंवेदनशीलता में डूबी पुलिस इंटरनेट पर वीडियो देखकर भड़के लोगों के गुस्से के बाद ही नींद से जागी।“ (जागरण, 14 जुलाई, 2012). 

कहना न होगा कि इस प्रकार की घटनाएँ इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटनाएँ हैं. इनसे हमारा यह महान देश भी कलंकित होता है. ऐसी हालत में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का विचलित हो उठना स्वाभाविक है. लेकिन यह और भी चिंताजनक है कि जिन्हें विचलित होना चाहिए वे ज़रा भी विचलित दिखाई नहीं देते. शायद इसी से दुखी और हताश होकर ‘फेसबुक’ पर डॉ.कविता वाचक्नवी ने यह लिखा कि “पुरुषरहित होना ही इस (दुनिया) का अपराधरहित होना है क्योंकि संसार के सारे अपराध (क्राइम) पुरुष ही से शुरू होते और उसी पर अंत होते हैं या उसी के इर्दगिर्द के कारणों ही से उपजते हैं।”  यह कथन हमें यह सोचने के लिए विवश करता है कि क्या हमारा पुरुष समाज अभी तक सभ्य नहीं हुआ है और उसे इतना सभ्य होने में और कितने युग लगेंगे कि इस धरती पर स्त्रियाँ अपने आपको पुरुषों के होते हुए भी  सुरक्षित महसूस कर सकें. 

सारांश यह है कि जब तक स्त्री के प्रति बर्बरता रहेगी तब तक हमें सभ्य समाज नहीं माना जा सकता.

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का आठवाँ दिन

13/07/2012 की सुर्खियाँ
·        'हिंदी सिनेमा और दलित विमर्श' तथा 'हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श' पर एसोसियेट प्रोफेसर डॉ.आलोक पांडेय का व्याख्यान
पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का आठवाँ दिन
डॉ.आलोक पांडेय के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'हिंदी सिनेमा और दलित विमर्श' पर व्याख्यान देते हुए डॉ.आलोक पांडेय ने पहले 'विमर्श' शब्द पर प्रकाश डालते हुए कहा कि विमर्श के साथ साथ हमेशा विचार जुड़ा हुआ होता है. यह एक ओपन डिस्कशन है. जब विमर्श कट्टर हो जाता है तो विचार लुप्त हो जाते हैं. कुछ आलोचकों की मान्यता है कि दलित साहित्य दलितों के लिए, दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य है और स्त्री साहित्य भी स्त्री के लिए, स्त्रियों के द्वारा लिखा गया साहित्य. पर यह धारणा गलत है. विमर्शों की दुनिया को 'भी' वादी होना चाहिए, 'ही' वादी नहीं. 'दलित' शब्द पर ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि हजारों साल से समाज में जिसका दलन हुआ है वह दलित है. डी.सी.दिनकर ने अपनी पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान' में अछूतों के शौर्य, साहस, त्याग और बलिदान का चित्रण किया है. सिर्फ साहित्यिक कृतियों पर ही नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा जो वास्तव में हिन्दुस्तानी सिनेमा है उसने 100 साल की अपनी यात्रा में दलितों (हाशिया कृत समाज) को किस रूप में प्रस्तुत किया है और इसे बनाने में दलितों की क्या भूमिका रही है आदि बातों पर भी ध्यान देना आवश्यक है. दलित विमर्श की दृष्टि से 'अछूत कन्या' (1936), 'अछूत'(1940), 'सुजाता'(1959), 'सद्गति'(1981), 'आक्रोश'(1980, 2010), 'अंकुर'(1974), 'मंथन'(1976), 'बैंडिट क्वीन'(1994), 'दीक्षा'(1991), 'दामुल'(1985), 'तर्पण', 'बवंडर', 'एकलव्य' आदि प्रमुख फ़िल्में हैं. 24 सितंबर 1932 में 'पूना पैक्ट' (हरिजन आंदोलन) का समझौता बी.आर.अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच हुआ. अम्बेडकर ने अछूतों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की अवधारणा की बात उठाई पर महात्मा गांधी के अनशन के सामने उन्हें झुकना पड़ा. इसे भी हिंदी सिनेमा में दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया है. 1970 के आस पास समानांतर सिनेमा की शुरुआत हुई. इस पर इतालवी की नियोरियलिज्म का प्रभाव भी दिखाई देता है. इसी समय नामदेव ढसाल के नेतृत्व में दलित पैंथर आंदोलन का सूत्रपात हुआ. दलितों ने अपनी आवाज बुलंद की जिससे राजनैतिक व्यवस्था में हलचल पैदा हो गई. भले ही साहित्यकारों ने दलितों पर लिखा है और हिंदी सिनेमा ने भी दलितों की दयनीय स्थिति को उजागर किया है पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी सिनेमा मूलतः कमर्शियल सिनेमा ने जाति व्यवस्था को मिटाने के बजाय उसे और मजबूत किया है.


अपने दूसरे व्याख्यान 'हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श' में डॉ.आलोक पांडेय ने यह स्पष्ट किया  कि हिंदी सिनेमा में वस्तुतः स्त्री की तीन छवियों को अक्सर देखा जा सकता है. एक वह जो आदर्श और त्याग का प्रतिरूप है (देवी – माँ), दूसरा खलनायिका का रूप और तीसरा रूप इन दोनों के बीच का है अर्थात नायिका का रूप. हीरोइन ओरियंटेड फिल्म भी अनेक बनी हैं. उनमें 'हंटरवाली' (1935), 'मदर इंडिया' (1957) आदि अनेकानेक फिल्म उल्लेखनीय हैं. हिंदी सिनेमा ने स्त्री का संघर्ष, अस्तित्व की तलाश, आत्मनिर्भरता, आजादी, स्त्री जिजीविषा आदि को बखूबी चित्रित किया है.        

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का सातवाँ दिन


12/07/2012 की सुर्खियाँ
·        'जनसंचार के माध्यमों में हिंदी' पर उस्मानिया विश्वविद्यालय, थियेटर ऑफ आर्ट्स के अध्यक्ष प्रो.प्रदीप कुमार का व्याख्यान

·        'स्वातंत्र्योत्तर नाटकों में निर्देशक की भूमिका' पर हैदराबाद विश्वविद्यालय, थियेटर आर्ट्स के एसोसियेट प्रोफ़ेसर डॉ.सत्यब्रत रावत का व्याख्यान  
  
पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का सातवाँ दिन.


प्रो.प्रदीप कुमार के व्याख्यान का सार संक्षेप 

'जनसंचार के माध्यमों में हिंदी' पर व्याख्यान देते हुए प्रो.प्रदीप कुमार ने कहा कि आज जनसंचार का माध्यम बहुत ही सशक्त हो गया है. प्राचीनकाल पर दृष्टि केंद्रित की जाय तो यह स्पष्ट होता है कि 500 ई.पू. में  प्राचीन फारस (ईरान) में राजकीय संदेश भेजने के लिए ऊँची मीनारों पर गुलामों को नियुक्त किया जाता था. दुनिया भर में उसके पश्चात बिगुल, ढफ, आदि यंत्र उपयोग में आए. कबूतर, घोड़े जैसे जानवरों का प्रयोग भी किया जाता था. डाकिया ने घुड़सवारी का स्थान ले लिया. आज के परिप्रेक्ष्य में जनसंचार के माधामों के रूप में प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि का प्रयोग हो रहा है. ध्यान से देखा जाए तो इन माध्यमों में प्रयुक्त भाषा जनसामान्य की भाषा है जो जनता को काफ़ी प्रभावित कर रही है.
    
प्रो.सत्यब्रत रावत के व्याख्यान का सार संक्षेप

'स्वातंत्र्योत्तर नाटकों में निर्देशक की भूमिका' पर व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए प्रो.सत्यब्रत रावत ने कहा कि  इब्राहिम अल्काज़ी को भारतीय थियेटर के जनक के रूप में माना जा सकता है. उन्होंने हिंदी रंगमंच को नया दृष्टिकोण प्रदान किया है. 1942 में आई पी टी ए (इन्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन) की शुरुआत हुई. 1956 में केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के तत्वावधान में पहली बार 'नाटक की दिशा और दशा (संस्कृत नाटक के सन्दर्भ में)' पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था. थियेटर वास्तव में जनसंचार का सशक्त माध्यम है. इब्राहिम अल्काज़ी, हबीब तनवीर, बी.वी.कारंत, के.एम.पनिकर जैसे प्रसिद्ध निर्देशकों ने अपने नाटकों में नित नए प्रयोग किये हैं  और उन्हें जनसामान्य तक नुक्कड़ नाटकों आदि के माध्यम से पहुँचाया. इब्राहिम अल्काज़ी, हबीब तनवीर और बी.वी. कारंत  को नाटक के त्रिक के रूप में जाना जाता है.        
इस  पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के संबंध में गत दिनों की जानकारी के लिए देखें-

[पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का छठा दिन] मीडिया-साहित्य-सिनेमा-उत्तरआधुनिकता



11/07/2012 की सुर्खियाँ
·        ‘साहित्य और मीडिया’ तथा ‘उत्तरआधुनिकता और हिंदी सिनेमा’ पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद के अध्यक्ष प्रो.ऋषभ देव शर्मा का व्याख्यान   
·        ‘मीडिया के सामाजिक सरोकार’ तथा ‘मीडिया और भारतीय प्रजातान्त्रिकता’ पर श्री वेंकटेश्व विश्वविद्यालय, तिरुपति के अध्यक्ष प्रो.आई.एन.चंद्रशेखर रेड्डी का व्याख्यान  
  
पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का छठा दिन.
पांच दिनों से हम लगातार साहित्य, मीडिया और रंगमंच के साथ साथ सिनेमा के बारे में काफी कुछ सुन रहे हैं और कुछ नाटक और सिनेमा क्लिपिंग्स भी देख रहे हैं. पर हम यह नहीं समझ पा रहे थे कि किस तरह सिनेमा या नाटक को इंटरप्रेट करना है. हम सभी प्रतिभागी यही आशा कर रहे थे कि आज के व्याख्यान से हम यह जरूर जान जाएँगे कि सिनेमा को किस तरह से इंटरप्रेट किया जा सकता है क्योंकि आज उत्तरआधुनिकता और सिनेमा पर व्याख्यान है.प्रो.ऋषभ देव शर्मा जी का व्याख्यान सुनने के बाद हम सब को यही लगा कि सर के व्याख्यान और दो दिन लगातार होते तो हम और भी लाभान्वित होते. विषय ही कुछ ऐसा है कि इसे महज तीन – चार घंटों में नहीं समेटा जा सकता है. फिर भी सर ने व्यवस्थित ढंग से स्लाइड शो के साथ काफी कुछ हमें समझा दिया है. जब कुछ प्रतिभागियों ने मुझसे यह कहा कि हमें भ्रम पैदा हो रहा था कि हम यहाँ ऋषभ देव शर्मा जी को देख रहे हैं या फिर दिलीप सिंह जी को तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा क्योंकि दोनों ही मेरे गुरु हैं और दोनों को एक साथ फील करने का अनुभव ही एक छात्र के लिए अनूठा होता है.
      
प्रो.ऋषभ देव शर्मा के व्याख्यान का सार संक्षेप 

(1) साहित्य, मीडिया और नाटक – ये तीनों ऐसे शब्द हैं जो सुनने के लिए भले ही अलग ध्वनित हों लेकिन ये वास्तव में एक ही हैं जैसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर. यहाँ मीडिया से अभिप्राय है व्यापक जनसमूह को संबोधित माध्यम. जनता  तक पहुँचने के लिए ये सभी  माध्यम है. जनसमूहों तक पहुँचने के  माध्यमों में एक साहित्य भी है. कई तरह के संचारों की बात की जाती है – जैसे एकलसंचार, दो व्यक्तियों के बीच का संचार, समूह संचार और जनसंचार. किसी सूचना को या सामग्री को एक साथ व्यापक जन तक पहुंचाना वास्तव में जनसंचार का उद्देश्य होता है और यह उद्देश्य साहित्य का भी है. रचनाकार साहित्य के माध्यम से जो कुछ कहता है उसे व्यापक जनसमूह तक पहुँचाने के लिए वह रंगमंच या किसी मीडिया को अपना सकता है. अतः यह कहा जा सकता है कि जनसंचार लोकतंत्र की ओर अग्रसर होता है. आज मीडिया के विस्फोट का समय है. उसे ज्ञान या शक्ति का माध्यम माना जा सकता है. कम्यूनिकेशन के द्वारा आज न्यू मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) के द्वारा बहुत ही तीव्र गति से वैश्विक संचार संभव हो रहा है. इस न्यू मीडिया के पंखों पर बैठकर ही ग्लोलाइजेशन तथा उत्तरआधुनिकता ने भारत में प्रवेश किया है. इस से एक आभासी ख़तरा महसूस किया गया कि मीडिया के आने से साहित्य का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा. पर यह गलत है. साहित्य मीडिया के माध्यम से और भी निख सकता है और निखरा भी है. उसे अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त होंगी और हो भी रही हैं. मीडिया ने रचनाकार को सूचनाएं प्रदान की है और अब रचनाकार का दायित्व बनता है कि वह इन तमाम सूचनाओं को कैसे अनुभूति में बदलकर एक नया सृजन करता है. अज्ञेय भी कहते हैं कि अनुभव को ज्यों का त्यों रचना में नहीं डालना चाहिए. पर उस अनुभव को अनुभूति में पककर अभिव्यक्ति के रूप में ढलना होगा. यही बड़ी चुनौती है रचनाकार के सामने.

(2) उत्तरआधुनिकता और सिनेमा पर प्रकाश डालते हुए प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने कहा कि उत्तरआधुनिकता यह मानकर चलती है कि किसी रचना का अंतिम पाठ नहीं होता. परिपाटी के पट परिवर्तन का नाम ही आधुनिकता है. उत्तरआधुनिकता हमें पाठ या टेक्स्ट की संकल्पना और पाठ विश्लेषण की पद्धति देती है. बहुपाठीयता, बहुकेंद्रीयता आदि उत्तरआधुनिकता के प्रमुख लक्षण हैं. हमेशा अंतरपाठ, सहपाठ और पुनर्पाठ की संभावना बनी रहती है. सिनेमा के संदर्भ में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि रिड्ले स्कॉट की ‘ब्लेड रनर’ (1982) को प्रथम उत्तरआधुनिक सिनेमा माना जाता है. भारतीय सिनेमा यों तो अभी पूरी तरह से उत्तरआधुनिक नहीं है पर उत्तरआधुनिकता के कुछ लक्षण अवश्य अनेक फिल्मों में दिखाई देते हैं. इसके उदाहरण के रूप में ‘हे राम’ (2000) को  हिंदी की पहली उत्तर आधुनिक फिल्म के रूप में ले सकते हैं. पुराने महावृत्तांत के टूटने के रूप में उत्तरआधुनिकता को देखा जा सकता है. हिंदी सिनेमा के कई  उत्तरआधुनिक लक्षण हैं जैसे -  
  
1.      गहराई का अभाव (Depthlessness)
2.      रिक्त पैरोडी (Blank parody / Empty pastiche)  
3.      भव्य सम्मूर्तन (The Figural)
4.      खंड खंड पहचान (Fragmentation of Identity)
5.      आत्मप्रतिबिंबन (Self  Reflexivity)
6.      अंतरपाठीयता (Inter textuality)
7.      उत्तर यथार्थवाद (Hyper Realism)
8.      अवमिश्रण (Hybridity)
9.      समांतर दर्पण तकनीक (Mise-en-abyme)
10.  सीमाओं का धुंधलका (Boundary Blurring)
11.  महावृत्तांतों की विरचना (Deconstruction of Meta narratives)
12.  वर्जित की प्रस्तुति (Presenting the un-presentable)

अंततः उन्होंने यह कहा कि बॉलीवुड हॉलीवुड की पैरोडी है.

प्रो. ऋषभदेव शर्मा के सान्निध्य में प्रतिभागीजन
और डॉ.करन सिंह ऊटवाल [समन्वयक]

प्रो.आई.एन.चंद्रशेखर रेड्डी के व्याख्यान का सार संक्षेप
मीडिया के सामाजिक सरोकार तथा मीडिया और भारतीय प्रजातंत्र पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए प्रो.आई.एन.चंद्रशेखर रेड्डी ने कहा कि भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश में मीडिया आज हर क्षेत्र में अपना एक सुनिश्चित स्थान बना चुका है. वह प्रोफेशनल इंस्टीट्यूशन बन चुका है. इसलिए वह अपने ढंग से काम करता है. आज कल मीडिया एक विशेष अभिजात्य वर्ग के लिए काम कर रहा है. इस संबंध में प्रसिद्ध समाजशास्त्री स्टुअर्ट हाल का कथन द्रष्टव्य है. उन्होंने कहा कि आज के समाचार पत्र अभिजात्य वर्ग के सदस्यों के कार्यों, स्थितियों तथा विशेषताओं से भरे रहते हैं. प्रजातंत्र में मीडिया को जरूरतमंद लोगों का समर्थन करना चाहिए और उसे प्रतिबद्धता, पक्षधरता और एकपक्षता से मुक्त रहना चाहिए. 


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बुधवार, 11 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का पांचवा दिन




10/07/2012 की सुर्खियाँ

·        पौराणिक नाटक साहित्य की मंचीयता और उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटक साहित्य  पर उस्मानिया विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष  प्रो.दुर्गेश नंदिनी का व्याख्यान
·        साहित्यिक कृतियों के मंचन पर 'सूत्रधार' के निदेशक श्री विनय वर्मा का व्याख्यान  
  


पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का पाँचवा दिन.

आज का पहला विषय था 'पौराणिक नाटक साहित्य में स्त्री सशक्तीकरण' और 'उपेन्द्रनाथ अश्क का नाटक साहित्य'.
    
प्रो.दुर्गेश नंदिनी के व्याख्यान का सार संक्षेप 
साहित्य समय सापेक्ष होता है. प्राचीन  काल के नाटक और आधुनिक काल के नाटकों में बहुत अंतर दिखाई देता है. आज वह सीता सीता नहीं रही और द्रौपदी द्रौपदी नहीं रही. परिवेश बदल चुका है, परिप्रेक्ष्य भी बदल चुका है अतः दृष्टिकोण भी में भी परिवर्तन परिलक्षित है. आज की स्त्री घर – बाहर दुहरी भूमिका निभा रही है. वह संघर्षरत है अपने अस्तित्व के लिए और अपने अधिकारों के लिए. स्त्री जीवन में दो स्तरों पर द्वंद्व दिखाई पड़ता है – आतंरिक स्तर पर और बाह्य स्तर पर. पौराणिक नाटक की मेनका  इंद्र के कहने पर चुपचाप विश्वामित्र को रिझाने और उनकी तपस्या को भंग करने के लिए स्वर्ग से भू पर उतरती है पर आज की मेनका  इंद्र से कहती हैं – हाँ ! मैं तो स्त्री हूँ. इसलिए तो तुम अपने आपको बचाने के लिए मेरा उपयोग कर रहे हो. मुझे अपना गुलाम बनाकर नचाना चाहते हो ! यह अब नहीं होगा. मैं ऐसे होने भी नहीं दूंगी. हाँ यह अंतर है पौराणिक मेनका  और आज की मेनका  में.
इतना कहकर दुर्गेश जी मोहन राकेश और सुरेंद्र वर्मा के नाटक साहित्य का परिचय देती रहीं. उसके बाद उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटक साहित्य पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटक पठनीय हैं और अभिनेय भी. उनके नाटकों के समस्त पात्रों को सहज रूप में रंगमंच पर उतारा जा सकता है.
श्री विनय वर्मा के व्याख्यान का सार संक्षेप
विनय वर्मा साहित्यकार या अध्यापक नहीं हैं. वे मूलतः रंगकर्मी हैं जो मंच पर व्यावहारिक प्रयोग करते हैं. 'मैं राही मासूम' नाटक की पटकथा उन्होंने स्वयं लिखी हैं और उसका सफल मंचन भी किया है. 11 जुलाई 2012 को सायं 7 बजे 'नेशनल पुलिस अकादमी, शिवरामपल्ली में इस नाटक का मंचन होगा.

अभिनेता होने के कारण विनय वर्मा ने क्लास में उन परिस्थितिओं को उजागर किया जिनसे एक कलाकार को जूझना पड़ता है जब किसी साहित्यिक कृति को मंचित किया जाता है या उसे फिल्माया जाता है. अभिनेता को हमेशा अपने परिवेश, अपनी परम्परा और अपनी संस्कृति से रू-ब-रू होना अनिवार्य है. साहित्य क्रान्ति का वह माध्यम है जिसे रंगमंच और सिनेमा से जोड़ना अनिवार्य है. अभिनेता को यदि किसी किरदार को निभाना है तो पहले उसे उस पात्र के बारे में समग्र रूप से जानना अनिवार्य होता है. अभिनेता उस पात्र के चरित्र को जब तक आत्मसात नहीं करता तब तक वह उस पात्र के साथ न्याय नहीं कर सकता है. इसके लिए उसे शोध करना पड़ता है. मंचन के लिए चुनी गई कृति यदि किसी अन्य भाषा की है तो अभिनेता को मूल कृति से भी अवगत होना पड़ता है. तभी वह पूरी ईमानदारी के साथ अभिनय कर सकता है. एक कलाकार तभी व्यावहारिक हो सकता है जब वह उस पात्र और स्क्रिप्ट के साथ ईमानदार हो. अभिनेता को पृष्ठभूमि और परिवेश को समझना होगा और उसे उस क्षण में जीना होगा पूरी ईमानदारी के साथ. नाटक समाप्त होने के बाद अभिनेता को फिर से यथार्थ में आना होता है .   
बाएं से - स्नेहलता शर्मा, विनय  वर्मा, नीरजा, करनसिंह ऊटवाल , पूनम बिष्ट, ममता  
  

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मंगलवार, 10 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का चौथा दिन. भाग - 2




09/07/2012 की सुर्खियाँ

·        जयशंकर प्रासाद के नाटक और रंगमंचीयता पर उसमानिया विश्वविद्यालय, आर्ट्स कॉलेज की प्रोफ़ेसर प्रो.शुभदा वांजपे का व्याख्यान
·      साहित्य, मीडिया और संस्कृति पर बाबू जगजीवनराम डिग्री कॉलेज के लेक्चरर डॉ.घनश्याम का व्याख्यान   

डॉ.घनश्याम के व्याख्यान का सार संक्षेप



डॉ.घनश्याम ने ‘साहित्य, मीडिया और संस्कृति’ पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट किया कि ये तीनों अपने आप से इस तरह मिले हुए हैं कि इन्हें अब समग्रता में देखने की आवश्यकता है. उन्होंने संस्कृति से अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि ‘संस्कृति’ शब्द पर ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि इसमें ‘कृति’ निहित है. सारी सृष्टि एक कृति है(प्लेटो). इस कृति से प्रकृति (भूख, प्यास...) बनती है. प्रकृति से जब मनुष्य ऊपर उठता है तो ‘संस्कृति’ बनती है और यदि वह नीचे गिरता है तो ‘विकृति’. वस्तुतः मनुष्य का अर्थ है मनन करने वाला. संस्कृति भाषा में निहित है. जब भी हम संस्कृति की बात करते हैं तब तीन चीजें हमारे सामने प्रकट हो जाते हैं – स्मृति (भूत), वास्तविकता (वर्तमान) और आकांक्षा (भविष्य).

साहित्य के बारे में समय समय पर विद्वानों ने, आलोचकों ने काफी कुछ कहा है जैसे साहित्य समाज का दर्पण है, आलोचना है, इत्यादि इत्यादि इत्यादि. साहित्य और संस्कृति दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं. ये दोनों अब मीडिया को प्रभावित कर रहे हैं और प्रभावित भी हो रहे हैं. मार्शल मेक्लूहन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Understanding Media : The Extensions Of Man (1964) में यह कहा है कि माध्यम ही संदेश है (Medium is the message) और यह भी महत्वपूर्ण पहलू है कि यह संदेश किसके हाथों नियंत्रित है.

हमारे सामने आज बहुत सारे isms’ (वाद) हैं. ‘जर्नलिज़्म’ पत्रकारिता भी वाद बन चुका है. मीडिया आज सब पर हावी है. चाहे वह साहित्य हो या संस्कृति. आज भारतीय संस्कृति और प्रसिद्ध भारतीय साहित्य को भी बाज़ार का हिस्सा बनाया जा रहा है. इसका एक उदाहरण है हेवेल्स वाईर का विज्ञापन. इसमें ईदगाह की कथा को पृष्ठभूमि के तौर पर प्रयोग किया गया है. इस विज्ञापन का कैप्शन है – ‘wires that doesn’t catch fire.’

आज कल मीडिया एक तरह का भ्रम पैदा कर रहा है. वह हमारे जीवन को नियंत्रित करने लगा है. आज सूचना का विस्फोट हो रहा है. ज़िंदगी में आम आदमी बहुत दौड़ रहा है. दौड़ दौड़ वह कहाँ और किस स्थिति में पहुँच रहा है पता ही नहीं चल रहा है. महादेवी वर्मा ने भी कहा है कि हमारी दौड़ ज्वर ग्रस्त है. आज हमारी ज़िंदगी भी हाई टेक होती जा रही है. एक-दूसरे से मिलने के लिए भी समय नहीं है. मूल्य समाप्त हो रहे है. इसी कारण आज मीडिया ने विकराल रूप धारण कर लिया है.

डॉ.घनश्याम ने साहित्य, संस्कृति और मीडिया के आपसी संबंध को समझाने के लिए विज्ञापनों का पावरपोइंट प्रेसेंटेशन प्रस्तुत किया है.         

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पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का चौथा दिन. भाग - 1


 
09
/07/2012 की सुर्खियाँ


·        जयशंकर प्रासाद के नाटक और रंगमंचीयता पर उसमानिया विश्वविद्यालय, आर्ट्स कॉलेज की प्रोफ़ेसर प्रो.शुभदा वांजपे का व्याख्यान
·      साहित्य, मीडिया और संस्कृति पर बाबू जगजीवनराम डिग्री कॉलेज के लेक्चरर डॉ.घनश्याम का व्याख्यान   
  

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का चौथा दिन.

आज ट्राफिक के कारण मैं पांच मिनट देर से पहुँची यानी कि 10.35 को. मैं तो यह सोच रही थी कि क्लास शुरू हो चुका होगा. पर प्रतिभागी इक्के दुक्के थे. इसलिए पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के कोऑर्डीनेटर डॉ.करन सिंह ऊटवाल ने क्लास देर से शुरू किया. 10.45 को आज का सत्र शुरू हुआ. 

प्रो.शुभदा वांजपे के व्याख्यान का सार संक्षेप 



‘छायावाद के युग प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद के नाटक और रंगमंचीयता’ पर अपना व्याख्यान शुरू करते हुए प्रो.शुभदा वांजपे ने यह कहा कि जयशंकर प्रसाद मूलतः कवि हैं. अतः उनके नाटकों में, कथासाहित्य में भी बार बार उनका यह कवि रूप झलकता है. भावना प्रधान कहानियाँ लिखने वाले लेखकों में जयशंकर प्रसाद का विशेष स्थान है. उनके नाटकों पर ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि उनके नाटकों में कथानक, चरित्र, कथोपकथन, संकलन त्रय, भाषा शैली, प्रतिपाद्य आदि विशिष्ट हैं. उनके नाटकों में बड़े बड़े संवाद होते हैं. भाषा भी परिमार्जित और संस्कृत निष्ठ होती है. जब आलोचकों ने उनके नाटकों की अभिनेयता पर प्रश्न चिह्न लगाया तो उन्होंने यह कहा कि ‘रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिए न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल.’

प्रसाद जी ने तो एक नवीन जीवन दर्शन को स्थापित किया है. ‘चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त, जनमेजय का नागयज्ञ, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु, राजश्री, करुणालय (गीतिनाट्य) आदि उनके प्रसिद्ध और कालजयी नाटक हैं. जयशंकर प्रसाद ऐसे नाटकारों में एक हैं जिन्होंने गागर में सागर भरने का काम किया है. उन्होंने अपने नाटकों में वर्तमान स्थिति को बनाए रखने का भरपूर प्रयास किया है. उन्होंने अपने ऐतिहासिक नाटकों में आदर्श चरित्रों का निर्माण किया है. उनके नाटकों में जो प्रेम परिलक्षित होता है वह सिर्फ व्यक्ति तक सीमित नहीं है बल्कि वह देश प्रेम तथा राष्ट्र प्रेम में मुखरित होता है. उनके नाटकों में प्रकृति सौंदर्य, रहस्यानुभूति, दर्शन, धर्म, सौंदर्य तथा सामाजिक समस्याओं का अंकन भी है. उनके नाटकों में अनके प्रकार के शैली रूप दिखाई पड़ते हैं. जैसे वर्णनात्मक शैली, भावात्मक शैली, आलंकारिक शैली, सूक्तिपरक शैली, प्रतीकात्मक शैली, बिंबात्मक शैली आदि.

वस्तुतः प्रसाद जी का मूल उद्धेश्य है सांस्कृतिक चेतना तथा मूल्यों की स्थापना. पाठकों को उपदेश देना या फिर उनका मनोरंजन करना उनका आशय नहीं है. उनके नाटकों में उनकी प्रयोगात्मक दृष्टि दिखाई पड़ती है. उन्होंने संस्कृत नाट्य शैली के साथ साथ पाश्चात्य नाट्य शैली को भी ग्रहण करकेर उनका समायोजन अपने नाटकों में किया है.

‘ध्रुवस्वामिनी’ तीन अंकों का नाटक है. रंगमंच की दृष्टि से सर्वोत्तम नाटक है. 1933 में प्रकाशित यह नाटक स्त्री विमर्श की दृष्टि से सशक्त नाटक है. उस ज़माने में ही प्रसाद जी ने स्त्री अस्मिता, अस्तित्व और अधिकारों की बात कही हैं. उन्होंने तत्कालीन समाज में स्त्री का स्थान, स्त्री का पुनर्विवाह जैसे प्रश्न उठाया. इस नाटक की प्रधान पात्र ध्रुवस्वामिनी जिससे प्रेम करती है (चंद्रगुप्त से) वह उससे विवाह नहीं कर सकती और जिससे उसका विवाह संपन्न होता है (रामगुप्त) वह उससे प्रेम नहीं कर सकती. इस नाटक में पुरुषसत्तात्मक समाज पर प्रश्न चिह्न लगाया गया है. जयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से ऐसे परुषों पर प्रहार किया है जो स्त्री को पशु संपत्ति समझता हो, उस पर अत्याचार करता हो – ‘पुरुषों ने स्त्रियों को पशु संपत्ति बनाकर उस पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है. यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा तथा नारी का गौरव नहीं बचा सकते तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो.’ 

चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह जयशंकर प्रसाद की प्रगतिशील दृष्टि ही है. ध्रुवस्वामिनी के विवाह को उचित माना जाता है. धर्मशास्त्रों में भी खा गया है कि स्त्री-पुरुषों का विश्वासपूर्वक अधिकार, रक्षा और सहयोग जब होता है तभी वह विवाह होता है, अन्यथा धर्म और विवाह खेल हैं.

प्रो.शुभदा वांजपे ने स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, अजातशत्रु, राजश्री आदि नाटकों की कथावस्तु को स्पष्ट करते हुए यह बताया कि जयशंकर प्रसाद के नाटक रंगमंचीयता की दृष्टि से भी उत्कृष्ट हैं.   


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