सोमवार, 19 मार्च 2012

अनुवाद विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन की समस्याएँ

भारतीय भाषाओं में अनुवाद का इतिहास बहुत पुराना है. आज साहित्य के अलावा विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र, पत्रकारिता, खेलकूद, कार्यालय, वाणिज्य, बैंकिंग, प्रशासन, विधि और प्रौद्योगिकी आदि अनेकानेक क्षेत्रों में अनुवाद की भूमिका निर्विवाद है. इन सभी क्षेत्रों में कार्यरत अनुवादकों के समक्ष अनुवाद करते समय विषय से संबंधित, पारिभाषिक शब्दावली से संबंधित आदि अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो सकते हैं. पर मैं यहाँ अकादमिक स्तर पर अनुवाद विज्ञान के अध्ययन–अध्यापन की समस्याओं पर प्रकाश डालने का प्रयास कर रही हूँ.

अकादमिक स्तर पर हमारे यहाँ अर्थात दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में अनुवाद का अध्ययन – अध्यापन तीन स्तरों पर होता है – स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा, एम.ए. और शोध. अक्सर यह पाया जाता है कि इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेनेवाले छात्रों की मातृभाषा अलग अलग होती है अतः इस समस्या का निराकरण हेतु अनुवाद पाठ्यक्रमों में हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं को चुना गया है. फिर भी छात्रों के समक्ष कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं चूंकि अंग्रेजी किसी की भी मातृभाषा नहीं है और मूलतः यह विदेशी भाषा है. कुछ छात्रों के लिए हिंदी भी सीखी हुई भाषा है. 

अनुवाद विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन की मूल भूत समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने से पहले अनुवाद पर चर्चा करना समीचीन होगा. यह सर्वविदित तथ्य है कि अनुवाद विज्ञान अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की शाखा है. इसमें व्यतिरेकी विश्लेषण और तुलनात्मक अध्ययन दोनों सहायक शाखाएं हैं. एक तरह से देखा जाए तो अनुवाद भाषिक व्यापार है. आज यह व्यापार हर क्षेत्र के लिए अनिवार्य हो चुका है. मूलतः एक भाषा अर्थात स्रोत भाषा में निहित तथ्यों को दूसरी भाषा अर्थात लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुसार फिर से प्रस्तुत करना अनुवाद है. इस कार्य में सिर्फ भाषा का आदान-प्रदान नहीं होता है बल्कि सांस्कृतिक विरासत का आदान-प्रदान होता है. इसलिए अनुवाद को सांस्कृतिक सेतु कहा जाता है. 

अनुवाद करने के लिए अनुवादक भी एक सहायक साधन है. इस कार्य को संपन्न करने के लिए प्रमुख रूप से अनुवादक को द्विभाषिक होना चाहिए. स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा ज्ञान के साथ साथ अनुवादक को विषय का ज्ञान, दोनों भाषाओं पर विशेष अधिकार और पारिभाषिक शब्दावली का ज्ञान होना आवाश्यक है. इन सबसे महत्वपूर्ण घटक है दोनों भाषिक परिवेशों से संबंधित संस्कृति का ज्ञान. इसके अभाव में सफल अनुवाद संभव नहीं है. 

प्रशिक्षण के माध्यम से अनुवाद सीख सकते हैं और सिखा भी सकते हैं. अनुवाद करने के लिए स्रोत भाषा के भाषिक अभिव्यक्तियों को समझना चाहिए और मूल भाषा के अर्थ को नष्ट किए बिना उन भाषिक अभिव्यक्तियों को लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करना चाहिए. अनुवादक से अपेक्षा की जाती है वह मूल लेखक के बराबर योग्य हो परंतु ऐसा नहीं होता है. अनुवादक को दोनों भाषाओं के व्याकरण, शब्द ज्ञान, भाषा प्रकृति, स्वनिक एवं स्वनिमिक व्यवस्था की दृष्टि से स्रोत एवं लक्ष्य भाषा का सम्यक ज्ञान होना चाहिए. इतना ही नहीं प्राकृतिक प्रतिभा भी होना आवश्यक है क्योंकि अक्सर यह पाया गया है कि स्रोत एवं लक्ष्य भाषा ज्ञान तथा विषय की अच्छी जानकारी होने पर भी हर कोई व्यक्ति सफल अनुवाद कार्य नहीं कर सकता है. अनुवाद को पुनःसृजन (Recreation) कहा जाता है इसलिए अनुवादक के पास नैसर्गिक प्रतिभा के साथ साथ अनुवाद कार्य के प्रति रूचि और दोनों भाषाओं की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का ज्ञान होना नितांत आवश्यक है. विशेष रूप से साहित्यिक अनुवादक के लिए. इसके अभाव में प्रायः सफल अनुवाद संभव नहीं हो सकता है. भाषाई ज्ञान और सांस्कृतिक ज्ञान की अपर्याप्तता से होनेवाली त्रुटियाँ कुछ इस प्रकार होते हैं – 

स्रोत भाषा अंग्रेजी की कम जानकारी के कारण छात्र प्रायः इस प्रकार की त्रुटियाँ करते हैं - 

  • ‘What is your Christen name?’ इस वाक्य का अनुवाद प्रायः विद्यार्थी इस तरह करते हैं – ‘आपका ईसाई नाम क्या है?’ यह गलत अनुवाद है. ‘Christen’ का अर्थ ‘ईसाई’ नहीं है बल्कि इसका अर्थ है ‘जन्म लेना’. अतः इस वाक्य सही अनुवाद होगा – ‘आपका जन्म नाम क्या है? 

  • इसी प्रकार एक और उदाहरण देखें – ‘He hardly works.’ कुछ छात्र इस वाक्य का अनुवाद यूं करते हैं – ‘वह कठोर परिश्रम करता है.’ जब कि इसका आशय यह है कि अमुख व्यक्ति कामचोर है. 
लक्ष्य भाषा हिंदी की कम जानकारी के कारण भी इस प्रकार की त्रुटियाँ करते हैं - 

  • ‘द्वार पर पहरा बैठा दो.’ छात्र इसका अनुवाद सामान्य रूप से इस तरह करते हैं – ‘Make the guard sit at the gate.’ पर इसका सही औए सटीक अनुवाद है – ‘Deploy a guard at the door.’
  • ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ का अनुवाद ‘Jeera in a camel’s mouth’ के रूप में करते हैं. जबकि इसका सटीक अनुवाद है – ‘A Drop in the Ocean.’ 
स्रोत और लक्ष्य भाषाओं की कम जानकारी के कारण अक्सर छात्र अर्थ का अनर्थ कर बैठते हैं. इसके एकाध उदाहरण देखें – 

  • Well equipped hospitals – कुओं से सुसज्जित अस्पताल. (साधनयुक्त अस्पताल) 
  • Foreign elements in the blood – खून में विदेशी तत्व. (खून में बाहरी तत्व) 
  • Railway sleepers washed away – सोनेवाले रेलवे कर्मचारी बह गए. (रेल की पटरियां बह गए) 
  • I am feeling chilly – मुझे मिर्ची लग रही है. (मरी तो कुल्फी जमी जा रही है या मुझे ठंड लग रही है.) 
इसी तरह पारिभाषिक शब्दावली की कम जानकारी के कारण भी छात्र गलत अनुवाद करते हैं. कुछ उदाहरण देखें – 

  • The judgement is reserved – सुनवाई सुरक्षित है. (सुनवाई स्थगित किया गया है.) 
  • Labour Pain - ‘श्रम पीड़ा’ (प्रसव पीड़ा) 
  • Labour Room – श्रामिक कक्ष (प्रसूति गृह) 
  • The tonsils are the body’s own professional vaccinator – टांसिल शरीर के अपने व्यावसायिक टीका लगाने वाले हैं. (टांसिल शरीर में स्थित प्राकृतिक रोग निरोधक का कार्य करते हैं.) 

विषय की जानकारी के अभाव में संक्षिप्तियों का भी गलत अनुवाद कर बैठते हैं. देखिए – 

  • SALT – एस ए एल टी का अनुवाद ‘साल्ट’ (नमक) करते हैं जब कि यह ‘Strategic Arms Limitation Treaty’ का संक्षिप्त रूप है. 
  • PRINCE – पी आर ऐ एन सी ई का अनुवाद प्रायः छात्र ‘राजकुमार’ करते हैं लेकिन यह ‘Programmed International Computer Environment’ का संक्षिप्त रूप है. 
यह पहले भी कहा जा चुका है कि अनुवाद सांस्कृतिक सेतु है. अतः अनुवाद करने के लिए दोनों भाषाओं की संस्कृति का ज्ञान भी अनिवार्य है. इसके अभाव में अर्थ का अनर्थ तो होगा ही और साथ ही सांस्कृतिक पतन भी होगा. सांस्कृतिक प्रभाव के कारण एक भाषा दूसरी भाषा से कुछ न कुछ शब्द ग्रहण कर लेती है. हर भाषा के शब्द संस्कृति के वाहक होते हैं. हिंदी भाषा में प्रयुक्त कुछ मिठाइयों था खाद्य पदार्थों – जलेबी, रबड़ी, रायता का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करना कठिन है. इसी तरह भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त कुछ खाद्य पदार्थों – इदियाप्प्म, वडा, अदिरसम, अरिसेलु, बोब्बटटलू आदि का अनुवाद करना भी कठिन है. इसी प्रकार अंग्रेजी के सेंडविच, बर्गर आदि का. वस्तुतः अनुवाद समतुल्य होता है सामान नहीं. ऐसे में जब तक हम किसी भी भाषा की मूल संस्कृति को नहीं जानेंगे तब तक सटीक अनुवाद करना संभव नहीं है. अंग्रेजी में प्रयुक्त अभिव्यक्ति ‘Herculean Task’ के लिए हिंदी में ‘भागीरथ प्रयास’ का प्रयोग किया जाता है. हमारे छात्र न ही Hercules को जानते हैं और न ही भगीरथ को. तो अनुवाद क्या कर पाएंगे! 

एक और उदाहरण देखें - 

“I saw a black crow 

Sitting on a Hemlock tree 

Showering dew drops upon me.” 

इस कविता में प्रयुक्त सभी शब्द परिचित शब्द हैं. अतः इसका सामान्य अनुवाद इस तरह किया जा सकता है– 

“मैंने देखा एक काला कौआ 

हेमलोक पेड़ पर बैठा हुआ 

मुझ पर छिड़क रहा है ओस की बूँदें.” 

पर इस कविता में निहित प्रतीकार्थ को समझना होगा. इसके लिए पहले स्रोत भाषा की संस्कृति को समझना आवश्यक है. वास्तव में यह शोक गीत है. ‘Hemlock Tree’ एक विषैला वृक्ष है. कविता में यह शब्द ‘मृत्यु’ के प्रतीकार्थ में प्रयुक्त है. ‘Black Crow’ उस ‘Priest’ का प्रतीक है जो मृतक के शरीर पर ‘पवित्र जल’ छिड़क रहा है. जब तक हम किसी भाषिक परिवेश और उसकी संस्कृति को नहीं जानेंगे तब तक साहित्यिक अनुवाद नहीं कर सकते हैं. यह समस्या शोध छात्रों के समक्ष भी उपस्थित होती है. अनुवाद मूल्यांकन और परीक्षण करने के लिए शोधार्थियों को भी भाषिक परिवेशों और संस्कृतियों का समुचित ज्ञान अनिवार्य है. इसीलिए अनुवाद विज्ञान को पढ़ते और पढ़ाते समय छात्रों एवं अध्यायपकों के समक्ष अनेक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाते हैं.


  • 15 मार्च, 2012 को हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में 'दक्षिण भारत में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की समस्याओं' पर केन्द्रित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला में प्रस्तुत किया गया आलेख    

शनिवार, 17 मार्च 2012

दक्षिण भारत में हिन्दी के अध्ययन–अध्यापन की समस्याओं पर राष्ट्रीय कार्यशाला

उद्घाटनकर्ता प्रो.दिलीप सिंह का स्वागत सत्कार 
 हैदराबाद, 17 मार्च, 2012.
हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद और महेश बैंक, हैदराबाद के सहयोग से “ दक्षिण भारत में हिन्दी के अध्ययन–अध्यापन की समस्याएं ” पर आयोजित त्रि दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला ( 14-16  मार्च) का समापन मुख्य अतिथि श्री रमेश कुमार बंग और प्रति कुलपति प्र. ई हरिबाबू द्वारा कल दिनांक 16 मार्च को संपन्न हुआ. श्री रमेश कुमार बंग जी ने इस कार्यशाला के सकुशल संपन्न होने पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए महेश बैंक के इस प्रकार के राष्ट्रीय महत्त्व के सरोकारों और अपने हिन्दी प्रेम से श्रोताओं को अवगत कराया.

संगोष्ठी निदेशक डा.आलोक पाण्डेय : उद्देश्य कथन 
६ सत्रों में विभाजित इस कार्यशाला का उदघाटन दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा चेन्नई के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह  और  मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. राम जी तिवारी ने संयुक्त रूप से मानविकी संकाय के डीन प्रो. मोहन जी रमनन की अध्यक्षता में १४ मार्च को किया था. इस कार्यक्रम में स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद की तरफ से डॉ विष्णु भगवान जी विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे. ६ सत्रों में विभाजित इस कार्यशाला में पूरे देश से लगभग ६० विद्वतजनों - जिनमें चेन्नई से दिलीप सिंह और मधु धवन, रांची से ध्रुव तननानी, मुंबई से राम जी तिवारी, कांचीपुरम से नागेश्वर राव, अमरावती से ज्योति व्यास, गुलबर्गा से मैत्री ठाकुर हैदराबाद से एम वेंकटेश्वर ,  विष्णु भगवान् , टी मोहन सिंह, माणिक्य अम्बा , शीला मिश्र, शुभदा बांजपे, एफ एम सलीम, जे आत्मा राम,करण सिंह ऊटवाल, रहीम खां, हेमराज दिवाकर, रेखा रानी, जी नीरजा, मृत्युन्जय सिंह, गोरखनाथ तिवारी आदि अनेक विद्वानों, अध्यापकों और शोधार्थियों ने भाग लिया और अपने प्रपत्र पढ़े.  

दूसरे दिन का पहला सत्र : स्त्री सत्ता !

राष्ट्रीय कार्यशाला के उद्घाटन सत्र में बोलते हुए वरिष्ठ भाषावैज्ञानिक  प्रो. दिलीप सिंह ने दक्षिण भारत में स्कूल स्तर से हिन्दी की समस्या के निदान पर  बल दिया. बीज व्याख्यान  देते हुए प्रो राम जी तिवारी ने हिन्दी के प्राथमिक  शिक्षण को मजबूत करने की आवश्यकता बतायी. डॉ विष्णु भगवान ने भाषा की सम्पूर्ण जानकारी के अभाव में गलत अनुवाद की समस्या पर बल देते हुए कहा कि भाषा की समस्याओं को दूर कर के ही अच्छा अनुवादक बना जा सकता है . प्रो ऋषभदेव  शर्मा ने शिक्षकों की  जवाबदेही पर बात की. 

डा.पी.मानिक्याम्बा : वक्तव्य 




कार्यशाला के समापन सत्र में बोलते हुए प्रति कुलपति प्रो. ई . हरिबाबू  ने  त्रिभाषा  प्रणाली की उपयोगिता को रेखांकित किया . अंत में कार्यशाला के उपनिदेशक डॉ एम आन्ज्नेयुलू ने संगोष्ठी रपट प्रस्तुत की और कार्यशाला  के निदेशक  डॉ आलोक पांडेय ने सभी अतिथियों, वक्ताओं और श्रोताओं को धन्यवाद देते हुए, विशेष रूप से महेश बैंक के चेयरमैन रमेश कुमार बंग  और स्टेट बैंक हैदराबाद के डॉ विष्णु भगवान को, उनके बैंक की तरफ से आर्थिक  सहयोग  प्रदान करने के लिए विशेष धन्यवाद  दिया.

तीसरे दिन का पहला सत्र : प्रो.ऋषभ देव शर्मा की अध्यक्षीय टिप्पणी  

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

क्षणिकाएं


       चीख
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए

चीख रहे हैं.

नहीं जानते

इतिहास के पन्नों में खो जाएँगे

या जबरदस्ती चुप कर दिए जाएँगे.



        स्त्री  




डैश, कॉमा, कोलन, सेमीकोलन,

प्रश्न चिह्न, रिक्त स्थान

क्या यही है तेरी जिंदगी ?







         मिट्टी


कुम्हार के हाथों कुटी - पिटी

चाक पर चढ़ी

घूम घूम नाची.

हथेलियों और उँगलियों के सहारे ढली

नित नए रूप में.

        कभी खिलौना बनी

                  कभी प्याली

                            कभी मूरत

                                        कभी दीपक



तनाव



         न

                      व


तनाव .... तनाव .... तनाव ....

घर में तनाव

बाहर तनाव

मन में कसाव

दिल में दबाव

चहुँ ओर तनाव.