सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

दूरस्थ शिक्षा पर त्रिदिवसीय समारोह संपन्न






                                  दूरस्थ शिक्षा पिछड़े, वंचितों व गृहिणियों तक सीमित नहीं
धारवाड में ‘दूरस्थ शिक्षा के विविध आयाम’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कार्यशाला


प्रो. दिलीप सिंह,
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई - 600 017 .

दक्षिण भारत में दूरस्थ माध्यम की शिक्षा पर हिंदी में विचार-विमर्श का यह पहला मौका था। देशभर में उच्चशिक्षा को सर्वसुलभ बनाने में इस माध्यम की धाक जम चुकी है। अंग्रेजी में दूरस्थ शिक्षा की बढ़ती चुनौतियों-दिशाओं और संभावनाओं पर बातें भी होती रही हैं पर हिंदी में इन पर धारदार चर्चा धारवाड में दो दिनों की इस संगोष्ठी में 21-22 जनवरी, 2011 को की गई।


दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की ओर से आयोजित इस संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए डेक (डिस्टेंस एजुकेशन काउंसिल ) के निदेशक डॉ. भारत भूषण ने गोष्ठी की इस खासियत पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि दक्षिण भारत के इस सुदूर स्थान पर भारत भर के इतने विद्वान जुटेंगे और हिंदी तथा हिंदुस्तान के नज़रिए से दूरस्थ शिक्षा माध्यम की परख करेंगे। भारत भूषण जी की सराहना से अभिभूत होते हुए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग के सम-कुलपति आर.एफ. नीरलकट्टी ने कहा कि ‘‘दक्षिण भारत में दूरस्थ शिक्षा माध्यम की शिक्षा की नींव वास्तव में महात्मा गांधी ने रखी थी। गांधी जी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण के चारों राज्यों में हिंदी शिक्षण की ‘मुक्त परंपरा’ कायम की जिसमें धर्म, जाति, आयु और लिंग का कोई स्थान नहीं था।’’ वे यह कहने में भी नहीं हिचके कि अगर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को प्रोत्साहन और सहयोग मिले तो वह दूरस्थ शिक्षा को एक सार्थक विस्तार देने में पूरी तरह समर्थ है क्योंकि सभा के पास एक बहुत बड़ा और ‘वैलनिट’ मानव-संसाधन मौजूद है।




'दूरस्थ शिक्षा के विविध आयाम’ संगोष्ठी के आगाज़ से ही इन दोनों महानुभावों के वक्तव्यों ने उत्साह बढ़ाने वाले टॉनिक का काम किया। देश के कई हिस्सों से पधारे हिंदी विद्वानों की मौजूदगी से संगोष्ठी को आगे के सत्रों में ठोस ऊँचाई हासिल हुई। ये सभी विद्वान कहीं-न-कहीं दूरस्थ शिक्षा के सरोकारों से जुड़े हुए हैं। इन्हें संबोधित करते हुए डॉ. भारत भूषण ने एक पते की बात और कही कि विश्वविद्यालयों में अब दूरस्थ माध्यम शिक्षा को दूसरे दर्जे की अथवा नियमित शिक्षा से कमतर स्तर की शिक्षा समझने वाली धारणा में भारी बदलाव आया है।
स्वागत भाषण देते हुए संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह ने इस ओर भी इशारा किया कि दूरस्थ शिक्षा एक प्रकार की सु-नियोजित शिक्षा है जिसमें सामग्री और तकनीक के इस्तेमाल से गुणवत्ता सिद्ध की जाती है। उन्होंने भारत में दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में इग्नू की भूमिका की सराहना करते हुए आम जन में इसकी स्वीकार्यता और बढ़ती हुई लोकप्रियता को रेखांकित किया। डॉ. भारत भूषण की यह टिप्पणी दोनों दिन बहस का मुद्दा बनी रही कि - ‘दूरस्थ माध्यम की शिक्षा सिर्फ़ पिछड़ों, वंचितों या घरेलू स्त्रियों तक सीमित नहीं है। आज इसने वह मुकाम हासिल कर लिया है कि देश भर के युवक और युवतियाँ इसे नियमित शिक्षा का एक बढ़िया विकल्प मानकर बड़ी संख्या में पूरे विश्वास के साथ अपना रहे हैं। इतना ही नहीं कौशल तथा दक्षता युक्त यह शिक्षा पूरी करने के बाद वे पूरे आत्मविश्वास के साथ समाज में अपनी ख़ास जगह भी बनाने लगे हैं।






दीप-प्रज्वलन, प्रार्थना, स्वागत-सत्कार की औपचारिकता से शुरू उदघाटन सत्र का संचालन प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने अपने ख़ास अंदाज में किया। धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों की प्रगति और दक्षिण भारत के हिंदी प्रेमियों की मांग को देखते हुए यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि दक्षिण में हिंदी भाषा तथा हिंदी माध्यम की उच्च शिक्षा की सरपरस्ती आगे आनेवाले सालों में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास द्वारा ही की जाएगी।

21 जनवरी के दोनों सत्र दूरस्थ शिक्षा माध्यम के मूलभूत आयामों पर केंद्रित थे। आज के युवा-भारत की ज़रूरतों, आकांक्षाओं और उनके सपनों को पूरा करने के लिए किन-किन दिशाओं में अपने को अग्रसर करें, कहाँ-कहाँ खुद को बदलें और किस विधि से सर्वजन सुलभ और संप्रेषणीय बनें - आदि इन दोनों सत्रों की मूल चिंताएँ थीं। भारत के कोने-कोने में दूरस्थ शिक्षा की पहुँच हो गई हैं। ‘ड्राप आउट्स’ के लिए यह माध्यम एक वरदान है।

दूरस्थ शिक्षा की भूमिका पर बात करते हुए डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने यह भी चेताया कि जब लोगों का विश्वास हमें मिलता है तब हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। ‘मुक्त शिक्षा’ ने इस बात को समझा भी है और अमली जामा भी पहनाया है। वह निरंतर ‘इन्नोवेटिव’ बनी रही है। शिक्षक और कक्षा की सीमा को इसने असीम साधनों से जोड़ कर नव्य बना दिया है। डॉ. विमल ने कहा कि जब हमारे यहाँ दूरस्थ शिक्षा आंध्र प्रदेश, राजस्थान और इग्नू में शुरू हुई थी तो हम सोचते थे कि यह चल नहीं पाएगी; पर धीरे-धीरे हमारे जैसे लोग भी इसे उत्सुकता से देखने लगे। सच में इस शिक्षा पद्धति ने मीडिया, इन्टरनेट, कंप्यूटर, सेटेलाइट और न जाने कितने उपकरणों का उपयोग करके अपनी भूमिका को विस्तार दे दिया है। उन्होंने इस शिक्षा की रोजगारपक प्रकृति तथा यंत्र-साधित शिक्षण पद्धति की भूरि-भूरि सराहना करते हुए कहा कि भारतवर्ष की एक बड़ी आबादी को उच्च एवं व्यावसायिक शिक्षा देने का काम करके दूरस्थ शिक्षा ने यह उजागर कर दिया है कि उसकी भूमिकाएँ बहुमुखी हैं और जता दिया है कि यह ज्ञान प्रदान करने वाली निष्क्रिय शिक्षा प्रणाली नहीं बल्कि बोध और कौशल पैदा करने वाली सक्रिय शिक्षा पद्धति है।


'दूरस्थ शिक्षा : निर्बाध शिक्षा का अवसर' के नजरिए से डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने दूरस्थ शिक्षा को ‘बाधा-विहीन शिक्षा' कहा क्योंकि इसे बिना किसी रुकावट के अपनाया जा सकता है - न कहीं आने-जाने की समस्या, न हाजिरी-क्लास का बंधन। खेती, मजदूरी, नौकरी, गृहस्थी के साथ यह शिक्षा जारी रखी जा सकती है। इसकी पाठ्य-सामग्री और सहायक-सामग्री अनेक तरह के शोध-संधान के बाद खास और वैज्ञानिक प्रक्रिया से इतनी संप्रेषणीय और बोधगम्य बनाई जाती है कि शिक्षार्थी की समझ भी निर्बाध गति से सही दिशा में विकास पा सके। डॉ. शर्मा ने दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के आँकड़े देकर यह तथ्य सामने रखा कि इन पाठ्यक्रमों में गृहिणियों, ऑफिस कर्मचारियों, अध्यापकों की संख्या अनुपाततः कम नहीं है। उनके शब्दों में दूरस्थ शिक्षा स्वयं में निर्बाध होने के साथ-साथ किन्हीं कारणों से बाधित हो चुकी शिक्षा को जारी रख पाने का एक सुनहरा मौका भी है।

इसी क्रम में ‘हिंदी शिक्षण में दूरस्थ शिक्षा की भूमिका' का मसला भी कम जरूरी नहीं था क्योंकि जिस संस्था के मंच पर यह विचार-मंथन आकार ले रहा था वह दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने वाली राष्ट्रीय महत्व की संस्था का मंच था। दक्षिण भारत और विशेष रूप से केरल प्रांत में हिंदी की उच्च शिक्षा और शोध के जो गवाक्ष दूरस्थ शिक्षा ने खोले हैं, उनका आकलन करते हुए प्रो. सुनीता मंजनबैल ने इस बात पर विशेष बल दिया कि दक्षिण भारत के लिए तैयार हिंदी ‘सिम’(स्वाध्याय सामग्री) को अलग ढंग से तैयार किया जाय जैसा कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय ने किया है। उन्होंने यह भी बताया कि दूरस्थ माध्यम के प्रसार से दक्षिण भारत में हिंदी अध्येताओं की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है।


पहले सत्र के आखिरी पर्चे में बी.बी. खोत ने दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से 'कौशल विकास' की संभावनाओं और घटकों का परिचय दिया। उनके मत में दूरस्थ शिक्षा ‘कौशलयुक्त शिक्षा’ का सार्थक उदाहरण है। कौशल विकास में सहायक ‘सिम लेखन की विशेष पद्धति’, ‘प्रश्न-पत्र निर्माण’, ‘बोध-विस्तार’ आदि के उदाहरणों द्वारा श्री खोत ने यह प्रतिपादित किया कि शिक्षार्थी में कौशल दक्षता उत्पन्न और स्थापित करना ही दूरस्थ शिक्षा का पहला और आखिरी उद्देश्य है।

दूसरा सत्र सही मायने में व्यावहारिक था क्योंकि यह सत्र पहले सत्र की प्रतिपत्तियों की परख करने वाला था। अगर दूरस्थ शिक्षा की भूमिकाओं, उसके उत्तरदायित्वों और लक्ष्यों को सर्वस्वीकार्य आयाम देने हैं तो निश्चित ही सामग्री-निर्माण, प्रश्न -निर्माण, मूल्यांकन पद्धति और परीक्षा संबंधी छात्र सुविधाओं को त्रुटिहीन, आदर्श और गुणवत्ता पुष्ट बनाना अनिवार्य होगा। ये और ऐसे ही कई मुद्दे दोपहर बाद की इस चर्चा-विमर्श में उठे।


दूरस्थ शिक्षा माध्यम के लिए सामग्री-निर्माण की प्रक्रिया की विशिष्टता और अधिगम संबंधी सूक्ष्मताओं की अनुकूलता पर प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने विचार किया। सामग्री परीक्षा और मूल्यांकन - इन तीनों के अंतस्संबंध को बनाए रखने को भी उन्होंने दूरस्थ शिक्षा प्रणाली की सफलता का मूलाधार बताया। बी.ए. और एम.ए. स्तर की हिंदी के ‘सिम’ निर्माण में समेटे जाने वाले सामयिक-विमर्शों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि नियमित पद्धति से दी जानेवाली हिंदी की उच्च शिक्षा सामयिक संदर्भों, सभ्यता-विमर्श तथा उत्तर आधुनिक चिंतन को स्थान देने में हिचकती है जबकि दूरस्थ शिक्षा की मुक्तता हिंदी पाठ्यक्रम को भी मुक्त और समीचीन बनाने का काम कर रही है।


अनुदेशन सामग्री और ‘सिम’ के भेदोपभेदों को डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों धरातलों पर प्रस्तुत किया। उन्होंने इस बात की सराहना की कि दूरस्थ शिक्षा में खासकर इग्नू ने ‘सिम’ के लिखित पाठ को अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों से सप्लीमेंट करने का अथवा फ़ेस-टु-फेस शिक्षण को सहायक बना कर इस्तेमाल करने का जो काम किया है उसने कौशलपरक शिक्षा को एकदम नया और अनूठा आयाम प्रदान कर दिया है।

डॉ. माधव सोनटक्के ने नियमित हिंदी पाठ्यक्रमों की परंपरागत प्रश्न-निर्माण एवं मूल्यांकन पद्धति पर चुटकी लेते हुए कहा कि परीक्षा और मूल्यांकन की रूढ़िबद्धता को दूरस्थ शिक्षा ने एक हद तक तोड़ा है। प्रश्न-पत्र निर्माण और मूल्यांकन को बोध और दक्षता के विकास में सहयोगी बनाने की अपील करते हुए उन्होंने कई उपयोगी मॉडल्स सामने रखे।

इस संदर्भ में दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विद्यार्थियों को परीक्षा संबंधी जो सुविधाएँ दी जाती हैं उनका पारदर्शी विवेचन श्रीमती गीता वर्मा ने किया। उन्होंने बताया कि निदेशालय की ‘सिम’ के निर्माण में देशभर के विद्वान विशेषज्ञों की मदद ली गई है । इन सबने ‘सिम’ में ही सतत मूल्यांकन के बिंदु निर्धारित कर दिए हैं जिनको दत्त कार्य तथा प्रश्नपत्र में भी सम्मिलित करके दृढ़ीकरण की माप की जाती है। प्रश्नों के ‘विषयपरक’ और ‘बोधपरक’ प्रकारों की भी उन्होंने चर्चा की तथा निदेशालय के बी.ए., एम.ए., डिप्लोमा पाठ्यक्रमों के प्रश्नपत्रों से इनके उदाहरण दिए।


22 जनवरी को तीसरे सत्र में दूरस्थ शिक्षा प्रणाली के सर्वथा नवीन आयामों पर बातचीत हुई। पहले दोनों सत्रों की अनुगूंज भी इस सत्र में सुनाई देती रही। प्रो. टी.मोहन सिंह ने कौशल आधारित शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में दूरस्थ शिक्षा का अवगाहन करते हुए ‘कौशल’ को शिक्षा और सही मायनों में शिक्षित करने, होने का मानदंड माना। उन्होंने अर्जन, अधिगम और बोधन की अनुकूल प्राप्यता को ‘कौशल’ की कसौटी कहा तथा आंध्र प्रदेश में हिंदी भाषा कौशल उत्पन्न करने के बीच आनेवाली समस्याओं पर विचार करते हुए इन्हें समतल करने वाले रास्तों की भी चर्चा की। व्यावहारिक हिंदी अर्जन पर उन्होंने हिंदी व्याकरण की जटिलता के मद्देनजर प्रकाश डाला तथा हिंदी की शैलियों के अधिगम को ‘भाषा कौशल' के लिए जरूरी स्वीकार किया।

तकनीकी आधारित शिक्षा को दूरस्थ शिक्षा की धुरी के रूप में व्याख्यायित करते हुए श्रीमती निधि सिंह ने तकनीकी साधित शिक्षण सामग्री निर्माण की प्रविधियों की चर्चा की। उन्होंने तकनीकी माध्यमों/उपकरणों की संभावनाओं और सीमाओं की पहचान को भी रेखांकित किया और कहा कि इस पहचान के आलोक में ही दूरस्थ माध्यम शिक्षा के विद्यार्थियों को सहज-संप्रेषणीय शिक्षा से जोड़ा जा सकता है। साहित्यिक एवं साहित्येतर पाठों को तकनीकीबद्ध करने की प्रचलित और अद्यतन पद्धतियों के इस्तेमाल को भी उन्होंने विविध तकनीकी उपकरणों के उपयोग से संबद्ध करके दिखाया।


इसी क्रम में डॉ. अर्जुन चव्हाण ने दूरस्थ शिक्षा में संचार माध्यमों की उपयोगिता स्थापित की। भारत में शिक्षा संबंधी सुविधाओं के अभाव पर रोष प्रकट करते हुए प्रो. चव्हाण ने संचार माध्यमों के व्यावसायीकरण पर भी चिंता व्यक्त की। उच्च शिक्षा और संचार माध्यमों की उपादेयता की अनदेखी करनेवाली नियमित शिक्षा पद्धति को अधूरा मानते हुए उन्होंने दूरस्थ शिक्षा की इसलिए सराहना की कि यह प्रणाली संचार माध्यमों की शैक्षिक शक्ति को पहचानने वाली है और इसने ‘मीडिया’ को मनोरंजन की सीमा से निकाल कर शिक्षा-प्रसार के महत् उद्देश्य से ला जोड़ा है।


चौथा सत्र दूरस्थ शिक्षा निदेशालय की ‘सिम’(स्वाध्याय सामग्री) के आकलन पर केंद्रित था। हिंदी की सामग्री का श्रीमती एन. लक्ष्मी, अंग्रेजी की सामग्री का श्रीमती गीता वर्मा तथा शिक्षाशास्त्र की सामग्री का आकलन प्रो. अरविंद पांडेय ने किया। इस सत्र में प्रस्तुत विवेचन भी अत्यंत पारदर्शी थे। इस सत्र में प्रस्तुत आकलन की सफलता डॉ. भारत भूषण की समापन-सत्र में दी गई इस टिप्पणी से पुष्ट हो जाती है कि ‘मुझे प्रसन्नता है कि निदेशालय की सामग्री दूरस्थ शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बहुत सोच-समझकर और मेहनत से बनाई गई है। सामग्री के आकलन से यह भी पता चलता है कि आपका विज़न एकदम क्लियर है और आपकी मंशा स्टूडेंट फ्रेंडली।’

22 जनवरी की शाम। समापन सत्र की अध्यक्षता डॉ. भारत भूषण ने की। संगोष्ठी की रपट प्रो. दिलीप सिंह ने प्रस्तुत की। टिप्पणीकार थे - डॉ. गंगा प्रसाद विमल, डॉ. टी.वी.कट्टीमनी, डॉ. टी. मोहन सिंह, डॉ. अर्जुन चव्हाण, डॉ.ऋषभ देव शर्मा और डॉ. हीरालाल बाछोतिया। सभी टिप्पणीकारों ने इस बात की सराहना की कि ‘दूरस्थ माध्यम शिक्षा ' पर हिंदी में और वह भी दक्षिण भारत में यह संगोष्ठी आयोजित की गई। संगोष्ठी की गंभीरता और सुगठन ने सभी को मुग्ध कर दिया था। प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि यह संगोष्ठी निदेशालय के लिए मार्गदर्शक का काम करेगी। और यह भी जोड़ा कि संगोष्ठी दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के कामकाज से संबद्ध उसके आंचलिक और क्षेत्रीय केंद्रों के उपस्थित कार्यकर्ताओं, अध्यापकों, संचालकों आदि के लिए एक किस्म का प्रषिक्षण भी सिद्ध हुई है। डॉ. भारत भूषण संगोष्ठी की सुचारु व्यवस्था से अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने कहा कि ऐसा लग रहा है कि यह गोष्ठी आपकी नहीं बल्कि दूरस्थ शिक्षा परिषद, नई दिल्ली की है। उन्होंने संगोष्ठी में पढ़े गए कई आलेखों की सराहना भी की। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा एकनिष्ठ और उत्साही कार्यकर्ताओं से भरी-पूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘भविष्य दूरस्थ शिक्षा का ही है। सभा ने सही समय पर इस शिक्षा प्रणाली में प्रवेश किया है। आपकी निष्ठा और समझ को देख कर मुझे कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा बहुत जल्द ही दूरस्थ शिक्षा की एक अग्रणी संस्था बन कर उभरेगी।' उल्लेखनीय है कि समारोह के आरंभ में सभा के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय द्वारा तैयार की गई स्वाध्याय सामग्री और दूरस्थ माध्यम से संपन्न एम.फिल. तथा पीएच. डी.के शोधप्रबंधों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसका उद्घाटन डॉ. भारत भूषण ने रिबन काटकर किया.















23 जनवरी को पुनश्चर्या पाठ्यक्रम एवं कार्यशाला का आयोजन किया गया।दूरस्थ शिक्षा निदेशालय से संबंधित चारों प्रांतों (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक) के लगभग पचास पदाधिकारी, अध्यापक एवं संगोष्ठी में देश भर से पधारे सभी विद्वान कार्यशाला में उपस्थित थे। कार्यशाला के मुख्यतः दो उद्देश्य थे - एक यह कि निदेशालय के कार्यकलाप से जुड़े सभी लोग विचार-विमर्श द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढें, निदेशालय के स्तरीय संचालन के लिए रचनात्मक सुझाव दें तथा एक-दूसरे से बातचीत करके कुछ नया सीखें। दूसरा उद्देश्य यह था कि निदेशालय द्वारा निर्मित हिंदी साहित्य की शिक्षण सामग्री का पुनरवलोकन करके आवश्यक रिवीज़न का परामर्श दिया जाय।


कार्यशाला के उद्घाटन में सभी अतिथि विद्वानों ने अनौपचारिक टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं। प्रारंभ में प्रो. दिलीप सिंह ने कार्यशाला के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए उपस्थित जन का स्वागत किया।


डॉ. भारत भूषण ने संकेत किया कि ज्ञान और चिंतन तथा भाषा और साहित्य के स्वरूप में आज इतनी तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं कि मानविकी और साहित्य की निर्मित सामग्री को चार-पाँच साल में एक बार परिवर्धन-परिवर्तन की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम चलाने की चुनौतियाँ अलग हैं और हम सब को इसका सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि - ‘मैंने 21 की सुबह निदेशालय की ‘सिम’ की प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए आपकी सामग्री देखी और कुछ सुझाव भी दिए थे। आपकी सामग्री काफी अच्छी है पर अच्छे को और-और बेहतर बनाने की ज़रूरत हमेशा रहती है। आपके पास प्रबुद्धजनों की अनुभवी टीम है। मुझे विश्वास है कि इस चर्चा-परिचर्चा से हम सब कुछ-न-कुछ नया सीखेंगे और अपने विद्यार्थियों को भी नया और उपयोगी दे सकेंगे।’ और फिर टीम बनाकर आठ टीमों ने वरिष्ठ विद्वानों की देखरेख में पूरे दिन चर्चाएँ कीं, समाधान ढूँढ़े और सामग्री की बेहतरी के लिए लिखित सुझाव दिए जिन्हें अगली सामग्री-संशोधन कार्यशालाओं में ध्यान में रखकर सामग्री की गुणवत्ता में वृद्धि की जाएगी।












23 जनवरी की शाम। दूरस्थ शिक्षा पर केंद्रित तीन दिन का यह समारोह जब संपन्नता को प्राप्त हुआ तो सभी प्रतिभागी अपने-आप को संपन्नतर महसूस कर रहे थे। सभी ने इस दूरदर्षितापूर्ण और सामयिक आयोजन के लिए दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सराहना करते हुए परस्पर विदा ली।





- प्रो. दिलीप सिंह,
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई - 600 017 .

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

संस्थान में निराला जयंती


निराला की कविता आज के मनुष्य की चेतना से जुड़ने में सक्षम है - डॉ.राधेश्याम शुक्ल.

हैदराबाद, ०८ फरवरी २०११(प्रेस विज्ञप्ति)|

"वसंत पंचमी सृजन का पर्व है. सकल शब्दमयी सरस्वती की प्रतिमा मनुष्य के भीतरी और बाहरी अस्तित्वों के तादात्म्य का प्रतीक है. उसका सम्बन्ध ऐसे अजर-अमर संसार से है जो काव्य का संसार है. वास्तव में मनुष्य एक साथ तीन समानांतर संसारों में जीता है. पहला संसार दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का अर्थात ज्ञान का संसार है, तो दूसरा संसार आम जीवन का अर्थात कर्म का संसार है. जबकि तीसरा संसार भावनाओं और संवेदनाओं का, स्वप्नों और संभावनाओं का तथा आत्म और अध्यात्म का संसार है - यही है कवि का संसार. इसीलिए, कविता का यथार्थ जीवन के यथार्थ का आइना नहीं होता, बल्कि कवि के मानस का आइना होता है. कवि का मानस, जितना उज्ज्वल होगा, उसका कवित्व उतना ही उदात्त होगा. वाल्मीकि, व्यास, कालिदास और निराला इसीलिए महाकाव्य की चेतना के कवि हैं कि वे इस तीसरे संसार में जीते हैं. इसी से निराला की कविता में, वह शक्ति आई है कि वह आज के मनुष्य की चेतना से जुड़ने में सक्षम है. निराला ने कभी आत्म-पीड़ा और आत्म-दया का भाव नहीं दिखाया, बल्कि सतत जीवन संघर्ष का उदहारण अपने व्यक्तित्व और कृतित्व द्वारा सामने रखा."

ये उदगार 'स्वतंत्र वार्ता' दैनिक के सम्पादक डॉ. राधे श्याम शुक्ल ने वसंत पंचमी के अवसर पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के साहित्य-संस्कृति मंच द्वारा आयोजित निराला जयंती समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रकट किए. समारोह की अध्यक्षता प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने की. वरिष्ठ गीतकार विनीता शर्मा और कवि डॉ.देवेन्द्र शर्मा विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित रहे. इस अवसर पर विनीता शर्मा ने विशेष रूप से वसंत और निराला पर केन्द्रित अपने कई गीत प्रस्तुत किए.

आरम्भ में सरस्वती-दीप-प्रज्वलन के उपरांत सभा के विशेष अधिकारी एस.के.हलेमनी की ओर से अतिथियों को अंगवस्त्र प्रदान कर सम्मानित किया गया. के.नागेश्वर राव ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की. संध्या रानी, गायकवाड भगवान विश्वनाथ, जटावत श्रीनिवास राव और डॉ.जी.नीरजा ने निराला की कविताओं का वाचन किया. डॉ.पेरीशेट्टी श्रीनिवास राव ने 'अभी न होगा मेरा अंत' का तेलुगु अनुवाद प्रस्तुत किया. डॉ.गोरखनाथ तिवारी, डॉ.मृत्युंजय सिंह और मिसाले उत्तम लक्ष्मण ने क्रमशः महादेवी वर्मा, डॉ. रामविलास शर्मा और अमृतलाल नागर के निराला सम्बन्धी संस्मरण पढ़ कर सुनाए . हेमंता बिष्ट ने जब निराला की प्रसिद्ध कहानी 'देवी' का वाचन किया तो सब भावाभिभूत हो गए.

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में संपन्न निराला पर केन्द्रित शोधकार्यों की प्रदर्शनी भी इस अवसर पर आयोजित की गई. जिसमें, उनकी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और संस्मरणों के विविध पहलुओं पर तो अनुसन्धान किया ही गया है, साथ ही उनकी तुलना 'अमृतं कुरिसिन रात्रि' और 'कृष्णपक्षमु' जैसी तेलुगु रचनाओं के साथ भी की गई है.

कार्यक्रम के अंतिम चरण में प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने निराला की क्लासिक कृति 'राम की शक्तिपूजा' का भावपूर्ण सस्वर वाचन किया. संचालन डॉ.बलविंदर कौर ने किया तथा कार्यक्रम संयोजिका डॉ.साहिरा बानू बी बोरगल ने धन्यवाद ज्ञापित किया.
प्रस्तुति - डॉ.जी. नीरजा

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

‘भंगियों का गाँव’ के प्रणेता उन्नव लक्ष्मीनारायण




श्रीरामुलु और शेषम्मा दंपति के पुत्र उन्नव लक्ष्मीनारायण (1877-1950) का जन्म 4 दिसंबर, 1877 को गुंटूर जिले के वेमुलूरूपाडु नामक गाँव में हुआ था। तेलुगु साहित्य जगत में उन्नव लक्ष्मीनारायण ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव; 1921) के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं।

अमीनाबाद और गुंटूर में अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरा करने के बाद उन्नव लक्ष्मीनारायण 1913 में बैरिस्टर की शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए इंग्लैंड गए। 1916 में भारत वापस लौटकर गुंटूर और चेन्नै में वकालत शुरू की। राष्‍ट्रपिता महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया।

समाज सुधारक कंदुकूरी वीरेशलिंगम पंतुलु से प्रभावित होकर उन्नव ने विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया। तत्कालीन समाज में बाल विवाह और अनमेल विवाह की प्रथा प्रचलित थी जिसके कारण कच्ची उम्र में ही अनेक लड़कियों को वैधव्य का बोझ ढोना पड़ता था। विधवाओं के उद्धार हेतु उन्होंने 1905 में गुंटूर में ‘वितंतु शरणालयमु’ (विधवा शरणालय) की स्थापना की।

उन्न्व लक्ष्मीनारायण यह मानते थे कि स्त्री सशक्‍तीकरण के अभाव में समाज की समृद्धि नहीं हो सकती। स्त्री जब तक अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहेगी तब तक उसका शोषण होता ही रहेगा। अपने अधिकारों को पहचानने एवं समाज में अपनी अस्मिता को कायम रखने के लिए सबसे पहले स्त्री का शिक्षित होना आवश्‍क है। स्त्री को सशक्‍त बनाने के उद्धेश्‍य से उन्नव ने 1921 में ‘शारदा निकेतन’ की स्थापना की। उनकी पत्‍नी लक्ष्मीबाईयम्मा ने भी अपने पति के आथ मिलकर समाज सेवा की। स्वतंत्रता संग्राम में ‘शारदा निकेतन’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1921 में उन्नव लक्ष्मीनारायण ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जाकर पलनाडु के किसानों की सहायता की जिसके कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। जेल में रहकर ही उन्होंने ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव; 1921) उपन्यास का सृजन किया। प्रकाशन के साथ ही तेलुगु साहित्य जगत में इस उपन्यास ने अपना एक सुनुश्चित स्थान बना लिया।

‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव) तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों का दस्तावेज है। इसमें लेखक ने ब्रिटिश शासन काल में आंध्र प्रदेश की दशा और दिशा का अंकन किया है। ब्रिटिश शासन की वास्तविकता के साथ साथ ब्रिटिश शासन के द्वारा किए जाने वाले आर्थिक शोषण, शिक्षा के प्रसार, स्त्रियों की स्थिति, जमींदारों द्वारा किसानों के शोषण और दमन, सरकारी मामलों में फैले अत्याचार, रिश्‍वतखोरी, भ्रष्‍टाचार आदि का चित्रण भी इस उपन्यास में अंकित है। वस्तुतः इस उपन्यास में उन्नव ने राष्‍ट्रीय चेतना को अभिव्यक्‍त करने की कोशिश की थी जिसके लिए उन्हें सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा।

‘मालपल्ली’ में लेखक की समाजवादी विचारधारा परिलक्षित है जो प्रगतिशीलता पर आधारित है। इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि ‘जिस समाज में गरीबों, शोषितों और दलितों के लिए स्थान नहीं है, वह समाज उस घर के समान है जिसकी बुनियाद कमजोर है। मानवता को हमेशा कुचलना संभव नहीं है। समता जीवन का आधार है। यही एक ऐसी दशा है, जो समाज को स्थिर रख सकती है।’ जागृति अन्याय को सहन नहीं कर सकती। लेखक ने जिस राजनैतिक क्रांति को उपन्यास में चित्रित किया है, वह तत्कालीन समय की सामाजिक विसंगतियों, वर्ग वैषम्य, वर्ण व्यवस्था एवं शोषण से प्रभावित था। लेखक एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिससे पूर्ण समाजवाद की स्थापना हो सके और परस्पर समानता एवं सहयोग की भावना जन्म ले सके।

यह सर्वविदित है कि भारतीय संस्कृति में वर्णाश्रम की व्यवस्था है। हिंदू धर्म के चार प्रधान वर्ण हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र। यह वर्गीकरण कर्म पर आधारित है। उनमें शूद्र का कर्म है सेवा करना। शूद्र जाति में निम्न कोटि के लोगों को शामिल किया गया है। उनमें भी अलग अलग शाखाएँ हैं जिनमें हरिजन भी शामिल हैं। आंध्र समाज के हरिजनों में माला, मादिगा, तोगटा, दासरी और पाकी आदि अनेक शाखाएँ हैं। दुर्भाग्य की बात है कि वर्ण व्यवस्था के विकृत हो जाने के कारण उन्हें अग्र वर्णों की गुलामी करनी पड़ती है तथा इन्हें अछूत कहकर मुख्य गाँव से दूर रखा जाता है। इनकी बस्तियाँ गाँव से कुछ दूरी पर होती हैं। आज भी गाँवों में इन्हें अग्र वर्णों के शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। स्वतंत्रता पूर्व भी इनकी स्थिति बदहाल थी और आज भी वैसी ही है।

नियोगी ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने पर भी उन्नव लक्ष्मीनारायण दलितों और शोषितों के पक्षधर थे। अतः उन्होंने ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव) में भंगी जीवन की नारकीय वास्तविकताओं का बहुत सटीक और संवेदनापूर्वक अंकन किया है। लेखक ने ‘मालपल्ली’ में कर्मयोग के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इस उपन्यास का मूल स्वर सेवा और त्याग के साथ साथ अस्पृश्‍यता निवारण है।

‘मालपल्ली’ सामाजिक एवं राजनैतिक उपन्यास है। इसका कथानक आँध्र के मंगलापुरम गाँव से संबंधित है। गाँधी जी के सत्याग्रह आंदोलन के प्रभाव से इस गाँव में क्रांति शुरू हुई। वस्तुतः मंगलापुरम 1850 से लेकर 1922 तक के आंध्र प्रदेश की सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों को प्रतिबिंबित करने में समर्थ है।

मंगलापुरम गाँव में सिर्फ अग्रवर्ण और निम्न वर्ण हिंदू ही नहीं, बल्कि मुसलमान भी थे। गाँववाले अपनी अपनी वृत्तियों में लगे रहते थे। गाँव के अग्रवर्ण - रेड्डी, नायुडु, करणम आदि मुखिया बने रहते थे। रेड्डी, कम्मा, कापू, बलिजा आदि जातियाँ भूमिहार थीं। रेड्डी को मुनसुब भी कहते थे। इन लोगों का मुख्य काम होता था - गाँव का देखभाल करना, लड़ाई झगड़ों में न्याय करना, पुलिस मामलों में साक्षीस बनना, आदि। मंगलापुरम के चौधरय्या, मुनसुब, शास्त्री, करणम आदि धनिक और ग्राम देवताओं के प्रतिनिधि थे। सारे गाँव में इनका ही राज्य चलता था। इनके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा सकता था। यदि कोई इनके खिलाफ जाता था तो उसे अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ता था। ये लोग हरिजनों को अपने गुलाम समझते थे और उनका शोषण करते थे। हरिजन स्त्रियों की स्थिति और भी दयनीय थी। जिस तरह प्रेमचंद ने अपने पात्र रूरदास (रंगभूमि; 1925) के माध्यम से समाज को चेताया है उसी तरह उन्नव लक्ष्मीनारायण ने अपने पात्र रामदासु (मालपल्ली; 1921) के माध्यम से दलित, शोषित और पीड़ित जनता को चेताया है। हरिजन पात्र संगमदासु के माध्यम से उन्होंने गाँधी विचारधारा को रेखांकित किया है। इसलिए ‘मालपल्ली’ उपन्यास को ‘संग विजयम’ नाम से भी जाना जाता है। लेखक ने इस उपन्यास में आंचलिक भाषा का प्रयोग किया है। कथानक, भाषा, परिवेश और उद्धेश्‍य की दृष्‍टि से भी यह उपन्यास अत्यंत उल्लेखनीय माना जाता है। इस उपन्यास में चित्रित मंगलापुरम गाँव सिर्फ आंध्र प्रदेश तक सीमित नहीं है, अपितु वह संपूर्ण भारत वर्ष में व्याप्‍त है। 1921 की सामाजिक परिस्थितियों अर्थात भंगी जीवन की नारकीय विसंगतियाँ आज भी विद्‍यमान हैं। अतः यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक है।

उन्न्व लक्ष्मीनारायण की अन्य कृतियों में ‘पलनाटी वीरा चरित्रा’ (पलनाडु का इतिहास), ‘नायकुरालु’ (नायिका), ‘भावतरंगालु’ (भावतरंग) आदि उल्लेखनीय हैं।

80 वर्ष की आयु में अर्थात 25 सितंबर, 1950 को उन्नव लक्ष्मीनारायण का निधन हुआ। तेलुगु साहित्य जगत में उन्नव लक्ष्मीनारायण कृत ‘मालपल्ली’ मील का पथर है।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

कर्नाटक संगीत के ‘गायक ब्रह्‍मा’: त्यागराज




"मरुगेलरा? ओ राघवा!
मरुगेलरा? चराचरा रूपा!
परात्परा! सूर्य सुधाकरा लोचना!
अन्नी नीवनुचू नन्नंतरंगमुना
दिन्नगा वेदकी तेलुसु कोन्टिनय्या
निन्नेगाना मदिनी नेन्नुजाला नोरुल्‌
नन्नु भ्रोववय्या, त्यागराज सुत!"
(त्यागराज कीर्तन)

(हे राघव! यह आँख मिचौनी क्यों? चराचर रूप, परात्पर, सूर्य सुधाकर लोचन, तुम्हें ही सब कुछ मानकर अपने अंतरंग में ढूँढ़ने से यह समझ पाया कि तुम ही मेरे मन में बसे हो। अत: यह मुँह सिर्फ तुम्हारा ही गुन गान करेगा।)

कर्नाटक संगीत के श्रेष्‍ठ विद्‍वान, ‘गायक ब्रह्‌मा’ के नाम से प्रसिद्ध त्यागराज अथवा त्यगय्या (1767-1847) का जन्म 4 मई, 1767 को कावेरी नदी के समीप स्थित तिरुवायूर (तमिलनाडु) में हुआ था। उनके पिता का नाम रामब्रह्‌मा तथा माता का नाम सीतम्मा था। कुछ लोग त्यगराज को तमिल भाषी मानते हैं लेकिन उनकी मातृभाषा तेलुगु है। उनके पूर्वज सन्‌ 1600 में काकर्ला (प्रकाशम्‌ जिला, आंध्र प्रदेश) नामक गाँव से तमिलनाडु के तंजावूर में जाकर बस गए थे।

बचपन से ही त्यागराज श्रीराम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने आठ साल की उम्र से तंजावूर साम्राज्य के प्रधान विद्‍वान श्री शोंठी वेंकट रमणय्या के यहाँ संगीत का प्रशिक्षण प्राप्‍त किया।

कर्नाटक संगीत के क्षेत्र में त्यागराज का योगदान उल्लेखनीय है। उनके गीत कर्नाटक संगीत के प्राण तत्व हैं। नवरस कन्नडा, बहुधारी, स्वरावली, गरुडध्वनि, कुंतलवराली और जयंतश्री जैसे अनेक नवीन रागों के वे जन्मदाता हैं। उनके पद ‘त्यागराज कृतुलु’ (त्यागराज कृतियाँ) अथवा ‘त्यागराज कीर्तनलु’ (त्यागराज कीर्तन) के नाम से विख्यात हैं। कहा जाता है कि त्यागराज ने अपने आराध्य भगवान श्रीराम की स्मृति में दस हजार कीर्तन लिखे हैं, किंतु उनमें से छह सौ कीर्तन ही विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। जैसे - ‘एन्दरो महानुभावुलु, अंदरिकी वंदनमुलु’ (सभी महानुभावों को प्रणाम), ‘मरुगेलरा? ओ राघवा!’ (यह आँख मिचौनी क्यों? हे राघव!) आदि। कविता उनका साधन है और राम भक्ति साध्य।

त्यागराज के दादा, पिता और भाई राज्याश्रय प्राप्‍त कवि थे। वे यही चाहते थे कि त्यागराज भी राजा की सेवा करें, लेकिन त्यागराज को यह स्वीकार नहीं था। वे भिक्षाटन के जरिए अपना जीवन यापन करते थे। उन्होंने तंजावूर के राजा शरभोजी के प्रस्ताव को यह कहकर विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया कि "ममता बंधनयुत नर स्तुति सुखमा?" (ममता के बंधन में जकडे़ हुए नर की स्तुति क्या सुखदायक होगी?)।

कहा जाता है कि त्यागराज के जीवन शैली से क्रोधित भाइयों ने जब उनके आराध्य की मूर्तियों को कावेरी नदी में फेंक दिए तो त्यागराज पागलों की भाँति विचलित हुए। उसी विरह स्थिति में उन्होंने अपने आराध्य का स्मरण करते हुए ‘नेनेंदु वेदुकुदुरा हरि?’ (तुम्हें कहाँ ढूँढ़ूँ, हे हरि?), ‘एन्दुदागिनाडो श्रीरामुडु?’ (श्रीराम कहाँ छिपे हैं?), ‘मरुगेलरा? ओ रागघवा!’ (यह आँख मिचौनी क्यों? हे राघव!) जैसे अनेक पदों की रचना की। जब उन्हें कावेरी नदी के तट पर भगवान की मूर्तियाँ प्राप्‍त हुईं तब उन्होंने ‘रा रा माइन्टिदाका, रामा’ (आओ मेरे घर तक, हे राम) कहकर श्रीराम की आराधना की।

उत्तर में जो स्थान तानसेन का है वही स्थान दक्षिण में त्यागराज का है। त्यागराज के पदों से प्रभावित होकर किसी विद्वान ने कहा है कि "त्यागराजुनी गीतालु दक्षिणांध्र वाड्‍.मय शृंगारमने बुरदनिंचि विकसिंचिन तामरतो समानमु।" (त्यागराज के गीत दक्षिणांध्र वाड्‍.मय के शृंगार रूपी पंक से विकसित कमल के समान हैं।) वस्तुत: त्यागराज के पद भक्ति, संगीत और साहित्य के संगम हैं।

त्यागराज ने दक्षिण के अनेक तीर्थ स्थानों का भ्रमण करके अनेक पदों की रचना की है। उनके दस हजार पदों के अतिरिक्‍त ‘सीतारामा विजयम्‌’ (सीताराम विजय), ‘नौका चरितम्‌’ (नौका की कथा) और ‘प्रह्‍लाद भक्ति विजयम्‌’ (प्रह्‍लाद भक्ति विजय) नामक तीन यक्षगान भी सुप्रसिद्ध हैं।

कर्नाटक संगीत के गायक ब्रह्‍मा त्यागराज की आत्मा 6 जनवरी, 1847 (पुष्‍य बहुला पंचमी) को परमात्मा में विलीन हुई। उनकी समाधी तिरुवायूर में कावेरी नदी तट के समीप है। तिरुवायूर कार्नाटक संगीत के त्रिक - श्याम शास्त्री, मुत्तुस्वामी दीक्षितर और त्यागराज का जन्म स्थान है। इन विद्वानों के काल को वस्तुत: ‘कर्नाटक संगीत का स्वर्ण युग’ कहा जाता है।

तिरुवायूर में हर साल त्यागराज की पुण्यतिथि अर्थात पुष्‍य बहुला पंचमी के दिन से लेकर पाँच दिनों तक ‘त्यागराज आराधन दिनोत्सवालु’ (त्यागराज आराधन महोत्सव) मनाया जाता है। संगीत के क्षेत्र में त्यगराज का नाम चिरस्मरणीय है।