आम तौर पर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया को विकास के आधार पर तीन श्रेणियों में बाँट कर देखने का चलन रहा है - पहली विकसित, दूसरी विकासशील और तीसरी अविकसित। इसके अलावा 1990 से पहले तक दुनिया के दो शक्ति केंद्र थे - पूँजीवादी और साम्यवादी। गुट निरपेक्ष देश तीसरी दुनिया कहे जाते थे। लेकिन इन सब बातों से अनंत काबरा के ‘तीसरी दुनिया’ शीर्षक विवेच्य काव्य संग्रह की कविताओं को समझने में कोई खास सहायता नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि कविताएँ रची जाने के बाद संग्रह के नामकरण को तर्कसंगत दिखाने के लिए एक दार्शनिक भूमिका जोड़ दी गई। जिसका सार यह है कि इस संग्रह की कविताओं के केंद्र में ‘युद्ध’ है। इस सार का प्रसार ही कवि की ‘तीसरी दुनिया’ का अभिप्राय है। इससे पहले कि इस संग्रह की कविताओं पर आगे विचार किया जाए, यह कहना जरूरी है कि रूस के यूक्रेन पर हमले ने जिस तरह पूरी दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने लाकर खड़ा कर दिया है, उसे देखते हुए ‘तीसरी दुनिया’ की ये युद्ध केंद्रित कविताएँ आज बेहद प्रासंगिक प्रतीत होती हैं, भले ही इनका प्रकाशन 1988 में हुआ हो। किसी रचना और रचनाकार की रचनाधर्मिता की कसौटी यही है कि वह अपने रचना-काल के बाद भी प्रासंगिक रहे। इस दृष्टि से कवि अनंत काबरा जी के इस संग्रह की कविताएँ देश-काल का अतिक्रमण करने वाली सार्थक कविताएँ सिद्ध होती हैं। उदाहरण स्वरूप हम कुछ कविताएँ देखेंगे।
इतिहास के पन्नों को पलटने से स्पष्ट होता है कि अनादिकाल से युद्ध की विभीषिका चलती आ रही है। युद्ध के बाद चारों ओर विनाश के अलावा कुछ नहीं बचता। हर नया युद्ध विगत युद्ध से भयंकर होता है। परिणाम भी उसी तरह अधिक घातक होते हैं।
कवि यह बार-बार कहते हैं कि युद्ध के आग्रह ने असंतोष का बीज बो दिया है। खुशहाल धरती बंजर बन गई है। चारों ओर कंकाल ही कंकाल नज़र आते हैं। विश्व में जितने भी युद्ध हुए हों, हार तो इंसान की ही हुई है। कवि कहते हैं -
पचास वर्ष पूर्व का आदमी
असमंजस है! आज (तीसरी दुनिया, पृ.23)
युद्ध की यह विभीषिका संपूर्ण मानव जाति को नष्ट कर देगी। विश्व के नक्शे से कुछ देश गायब भी हो सकते हैं। इस संदर्भ में कवि कहते हैं कि -
विश्व के नक्शे पर से
कर जाएँगे कई हाशिये देश -
समर्पण की कई करुण संवेदनाएँ
घिरा देंगी
विश्व को दुखों के बादलों से
विकृति संघर्ष का संशय
फँस जाएगा युद्धों के दलदल में - (पृ. 20)
युद्ध के इस नृशंस तांडव के बाद मनुष्य भयभीत होकर दौड़ रहा है। मौत का डर उसे निगल रहा है। अपने अंदर की मानवता का गला घोंटकर वह नरसंहार कर रहा है। उसके लिए रिश्ते-नाते कोई मायने नहीं रखते। वह तो ‘पत्थर की मूर्ति’ बन बैठा है। कहीं कोई संवेदना नहीं बची है। वह ‘अविश्वास और तनाव भरे परिवेश’ में जी रहा है। ऐसे में कवि दम तोड़ती संवेदनाओं को बचाने की बात करते हैं -
संवेदना के सोपान
जिस उफनती नदी में
नाव पर सवार हैं
काश!
बच जाए वह
तभी तो
मेरे अधूरी इच्छा की तस्वीर
भर पाएगी। (पृ. 16)
यह सच है कि भयंकर विनाश के बाद भी कुछ देश अपने पूर्व वैभव को वापस निर्मित कर पाए। वैज्ञानिक प्रगति कर पाए। पर तीसरी दुनिया के उस प्राणी की स्थिति क्या है जो ‘हर पल जान हथेली पर लेकर सड़क के चौराहों पर घूम रहा है’ -
औद्योगिक वायु प्रदूषणों की गंध
साँसों में समेटा जा रहा है
तीसरी दुनिया में (पृ. 27)
इन कविताओं के माध्यम से कवि-मन यह प्रश्न उठा रहा है कि हम भावी पीढ़ी को कैसा वातावरण प्रदान कर रहे हैं? इन कविताओं में एक ओर ‘अणुबमों की खतरनाक होड़’ है तो दूसरी ओर ‘विषैला धुआँ’, ‘प्राणों का आर्तनाद’, ‘लाशों का ढेर’, ‘निराशा की बंदिश’, ‘हत्याओं का नृशंस दौर’, ‘शवों की सड़ांध’, ‘श्मशान बनते घर और बस्तियाँ’, ‘अत्याचार की वारदातें’, ‘संघर्ष का परिवेश’, ‘अभिलाषाओं की अर्थी’, ‘मौत की तनी हुई रस्सी’, ‘सांप्रदायिकता का विष’, ‘मानसिक कुंठाएँ’, ‘षड्यंत्र का स्रोत’, ‘गलतफहमियों की पगडंडी’, ‘सर्वत्र जीवन का आतंक’ द्रष्टव्य है। क्या ऐसा कोई देश है जहाँ युद्ध न लड़ा गया हो? क्या ऐसा कोई देश है जहाँ अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग न किया गया हो? क्या ऐसा कोई देश हैं जहाँ बच्चे सुरक्षित हों? ऐसे वातावरण में जन्म लेने के लिए भी बच्चा डर जाएगा।
कवि कहते हैं कि हथियारों के साथ-साथ मनुष्य का मस्तिष्क भी विस्फोटक हो गया है। ‘दिमाग में फैलती जा रही है/ उस शव की बदबू/ जो बंद कमरे में/ कब मरा पता तक नहीं/ सड़ते विचार/ क्रियाकर्म के भी लायक नहीं।’ (पृ.112)
मेरा मानना है कि अनंत काबरा आस्था और सकारात्मकता के कवि हैं। वे इस विडंबना से भली भाँति परिचित हैं कि -
मनुष्य के अंतर्संबंध तोड़ने के लिए
युद्ध का होना जरूरी है (पृ.133)।
इसके बावजूद वे यही आशा करते हैं कि एक न एक दिन युद्ध की विकृतियाँ समाप्त हो जाएँगी और सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा होगी। संवेदनशील कवि-मन युद्ध के भीषण उन्माद की परिस्थिति से मानव समाज को बचाना चाहता है; युद्ध को रोकना चाहता है। इसीलिए तो अनंत काबरा कहते हैं -
आगामी युद्ध रोका जा सकता है
भावी युद्ध टाला जा सकता है।
लेकिन हम रोकेंगे नहीं, टालेंगे नहीं,
पहुँचेंगे जब तक हम
किसी निश्चित निष्कर्ष पर
×××
युद्ध के बाद
जीवित होंगी
गर्भवतियाँ
अपंग बच्चों को जनने के लिए
पता नहीं -
कैसे जिएँगे वे आश्रयहीन बेचारे। (पृ.5)
इन कविताओं में सिर्फ युद्ध की विभीषिका ही नहीं, बल्कि शांत वातावरण में जीने की इच्छा को भी अभिव्यक्ति प्राप्त हुई। 000
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