अजीब है यह जिंदगी का सफर
नहीं है हमें मंजिल की ख़बर
चारों ओर हैं कंक्रीट का जंगल
वाह रे भाई, क्या यही है महानगर !
लाखों-करोड़ों गगनचुंबी अट्टालिकाएँ
मगर नहीं दीखता है घर
इस तिकड़मी संसार में
बिछे हैं काँटे हर कदम पर
डगर डगर पर
दुनिया की भीड़ में लाखों अजीज हैं
ढूँढे बहुत पर कोई अपना नहीं मिला
दोस्ती करने आख़िर जाएँ हम कहाँ
पत्थरों के बने आदमी हैं यहाँ
सभी आसमान को छूना चाहते हैं
उन्मुक्त गगन में पंछी बन उड़ना चाहते हैं
मगर मंजिल तक पहुँचने से पहले ही भटक जाते हैं
भटकते भटकते पता नहीं कहाँ पहुँच जाते हैं
शहर की इस भीड़ में हम खो गए ऐसे
रात दिन नयनों से अश्रु बहते रहे
कैसे बयाँ करूँ अपने इस दर्द को
अपनों के बीच ही अजनबी बनके रहे
झोंपड़ी में अंधेरे का राज्य है
महलों में रोशनी का साम्राज्य है
मेहनतकश भूखों मरते हैं
शासक वर्ग ताज पे मोती जड़ते हैं
खून पसीना बहाने के बाद भी
गरीब की रीढ़ की हड्डी जुड़ी नहीं
माटी भी अपना रंग बदलने लगी
भूख से पेट की अंतडियां कराहने लगीं
टूटते संबंधों के इस दौर में
आदमी बँट गया है टुकड़ों में / खेमों में
टूटे दिलों को जोड़कर
ऊँच-नीच की दीवार तोड़कर
अपना तकदीर ख़ुद बनाएँगे
एक नया इतिहास रचेंगे
7 टिप्पणियां:
जी, यही है महानगर ! (बदक़िस्मती से)
खून पसीना बहाने के बाद भी
गरीब की रीढ़ की हड्डी जुड़ी नहीं
गरीब की रीढ़ की हड्डी कब जुडी है भला
अच्छा लिखा है आपने । सहज विचार, संवेदनशीलता और रचना शिल्प की कलात्मकता प्रभावित करती है ।
मैने भी अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-घरेलू हिंसा से लहूलुहान महिलाओं का तन और मन-समय हो तो पढ़ें और कमेंट भी दें ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
कविताओं पर भी आपकी राय अपेक्षित है। कविता का ब्लाग है-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
आज के हालात का सटीक चित्रण .. बहुत बढिया लिखा है !!
ऐसा ही तो महानगर होता है......
कोशिश जारी रखें।
"टूटते संबंधों के इस दौर में
आदमी बँट गया है टुकड़ों में / खेमों में
टूटे दिलों को जोड़कर
ऊँच-नीच की दीवार तोड़कर
अपना तकदीर ख़ुद बनाएँगे
एक नया इतिहास रचेंगे"
वक़्त की पुकार - सुंदर रचना
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