गुरुवार, 5 नवंबर 2009

आशियाना

मैंने कुछ कहा
उसने कुछ सुना
दोनों ने एक दूसरे को
कुछ कहते सुना

एक - दूसरे के साथ
जीने मरने की कसमें खाई
एक - दूसरे के बीच
फासले मिटा दिए

मैंने तो अपना सब कुछ
उसके नाम कर दिया
उसीको अपना कर्ता धर्ता मान लिया

उसके लिए दुनिया को पीछे छोड़ दिया
अपना घर - परिवार, भाई - बहन,
रिश्ते - नाते और अपनों का अपनापन
लेकिन उसने मुझे क्या दिया !

दिन बीतते गए और
मैं सपनों में खो गई
नींद टूटी तो
एक तरफ कुँआ दूसरी तरफ खाई

उसके लिए मैंने सारी दुनिया से टक्कर ली
लेकिन उसने मुझे बैसाखियों के सहारे छोड़ दिया

हवा में हिलता रहा मेरा घोंसला
बिखर गया मेरा सपना
लेकिन हिम्मत नहीं हारी
मैं बनूँगी, कुछ करके दिखाऊँगी...
एक एक तिनका जोड़कर
फिर अपना आशियाना सजाऊँगी
संवारूंगी

2 टिप्‍पणियां:

शिवा ने कहा…

हिम्मत नहीं हारी ,मैं बनूँगी, कुछ करके दिखाऊँगी...
एक एक तिनका जोड़कर ,फिर अपना आशियाना सजाऊँगी
तिनका तिनका जोड़कर ही आशियाना बनता है बहुत अच्छी रचना.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत खुद्दारी वाली रचना है...अच्छा लगा पढ़ कर...लिखती रहिये...
नीरज