अशोक वाजपेयी के हैदराबाद आगमन पर विशेष
"समय, मुझे सिखाओ
कैसे भर जाता है घाव, पर
एक अदृश्य फाँस दुखती रहती है
जीवन भर।
**** ****
समय, अंधेरे में हाथ थामने,
सुनसान में गुनगुनाहट भरने,
सहारा देने, धीरज बँधाने,
अडिग रहने, साथ चलने और लड़ने का
कोई भूलाबिसरा पुराना गीत तुम्हें याद हो
तो समय गाओ,
ताकि यह समय,
यह अंधेरा,
यह भारी
यह असह्य समय कटे।" (अशोक वाजपेयी, समय से अनुरोध)
‘दक्षिण समाचार’ के संस्थापक संपादक मुनींद्र जी की प्रथम पुण्यतिथि (16 अप्रैल, 2011) के अवसर पर हैदराबाद में विशेष व्याख्यान का आयोजन किया जा रहा है। इस प्रसंग में प्रख्यात हिंदी साहित्यकार और ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के चेयरमैन अशोक वाजपेयी हैदराबाद पधार रहे हैं। आदरणीय प्रफुल्ल मुनींद्र ने फोन करके कहा कि इस अवसर पर प्रकाशन के लिए व्याख्यानमाला के वक्ता यानी अशोक वाजपेयी पर एक परिचयात्मक आलेख चाहिए| आदेश टालना संभव न था अतः यह लेख लिखा गया|
नई कविता के सशक्त कवि, संपादक, आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी का जन्म 16 जनवरी, 1941 को दुर्ग (छत्तीसगढ़) में हुआ। वे चिंतकमिजाज और संवेदनशील कवि हैं। उनकी कविताओं में समसामयिक परिस्थितियाँ दृष्टिगत होती हैं। वे अपने समय और समाज, जिसे वे अपना पड़ोस कहते हैं, की सच्चाइयों के प्रति सजग और संवेदनशील हैं। उनकी कविताओं में विषयवैविध्य है। परंपरा और आधुनिकता, प्रेम, अनुभूति, जिजीविषा, आस्था, समाज, समय, शब्द, पूर्वज, कलाएँ, घर, पड़ोस, मृत्यु, कुंठा, अकेलापन और मनुष्य की नियति आदि उनकी कविताओं में विशेष रूप से दिखाई पड़ते हैं।
अशोक वाजपेयी ने सागर विश्वविद्यालय से बी.ए. और नई दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की हैं। तत्पश्चात वे दो साल तक ध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत रहे। 1965 में वे भारतीय प्रशासन सेवा में शामिल हुए। उन्होंने मध्यप्रदेश शासन के अनेक विभागों में सचिव के रूप में अपनी सेवाएँ दी। 1992 में भारत सरकार के संस्कृति विभाग में संयुक्त सचिव बने। उस समय उन्होंने साहित्य और कलाओं के राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर अनेक आयोजन भी किए। इतना ही नहीं वे भारत भवन (भोपाल), कालिदास अकादमी, उर्दू अकादमी, मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद आदि अनेक संस्थाओं के संस्थापक और संचालक भी रह चुके हैं। भारतीय प्रशासन सेवा कार्यों के साथ साथ वाजपेयी जी ने अपने सृजनात्मक लेखन को लगातार जारी रखा है।
अशोक वाजपेयी की प्रमुख रचनाओं में ‘शहर अब भी संभावना है’(1966), ‘एक पतंग अनंत में’(1984), ‘अगर इतने में ’(1986), ‘तत्पुरुष’(1989), ‘कहीं नहीं वहीं’(1991), ‘बहुरि अकेला’(1992), ‘थोड़ी जगह’(1994), ‘घास में दुबका आकाश’(1994), ‘होना पृथ्वी न होना आकाश’(1994), ‘आविन्यों’(1995), ‘अभी कुछ और’(1988),‘समय के पास समय’(2000), ‘इबारत से गिरी मात्राएँ’(2002), ‘उजाला एक मंदिर बनाता है’(2002), पुरखों की परछाई में धूप’(2003), कुछ रफ़ू कुछ थिगड़े’(2004), ‘उम्मीद का दूसरा नाम’(2004), ‘कुछ पूर्वग्रह’(1984) और समय से बाहर’(1994) आदि कृतियाँ शामिल हैं। अशोक वाजपेयी ने ‘समवेत’, ‘समास, ‘पूर्वग्रह’ ‘पहचान’, ‘बहुवचन’ और कविता एशिया(अंग्रेज़ी) आदि प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं के संपादक के रूप में ब्भी पर्याप्त ख्याति अर्जित की हैं।
वाजपेयी जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार(1994) और दयावती मोदी कविशेखर सम्मान(1994) मिले हैं। पोलिश सरकार ने उन्हें अपने सम्मान ‘आफ़िसर आव् द आर्डर आव् क्रास’(2004) और फ्रेंच सरकार ने ‘आफ़िसर आव् द आर्डर आव् आर्ट्स एवं लैटर्स’(2005) से गौरवान्वित किया है।
अशोक वाजपेयी की काव्य प्रकृति को स्पष्ट करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा है कि "तीखे व्यंग्य विद्रूप के युग में अशोक वाजपेयी बड़ी कोमल और सुकुमार मनःस्थिति के कवि हैं।" वे अपने परिवेश से इतने जुड़े हुए हैं कि उनकी रचनाओं में वह स्वतः ही मुखरित होता है। इसीलिए उनको ‘पड़ोस के कवि’ के रूप में जाना जाता है। वे समय के महत्व को जानते हैं और वे समय के साथ चलते हैं और कहते हैं कि
"अगर वक़्त मिला होता
तो मैं दुनिया को कुछ बदलने की कोशिश करता।
आपकी दुनिया को, नहीं,
अपनी दुनिया को,
जिसको सँभालने-समझने
और बिखरने से बचाने में ही वक़्त बीत गया।" (अगर वक़्त मिला होता)।
जब समाज एक साँचे में जकड़ जाता है तो संवेदनशील हृदय का संत्रस्त होना स्वाभाविक है चूँकि उस परिस्थिति में सबसे पहले सृजनात्मकता नष्ट हो जाती है। इसीलिए अशोक वाजपेयी स्वस्थ समाज की कामना करते हुए कहते हैं कि
"हमें हार-जीत का कौशल नहीं
जीने की सीदी-सादी हिकमतें चाहिए
और उसके लिए थोड़ा-सा इतिहास काफ़ी है।" (थोड़ा-सा इतिहास)।
अशोक वाजपेयी आस्था के कवि हैं। वस्तुतः भारतीय मनीषा इसी बात पर विश्वास करती है। इसलिए वे कहते हैं कि
"अपनी गाड़ी में ले जाएगी
लादकर मृत्यु सारा अंबार और अटाला
पर छूट ही जाएगी
एक टुटही मेज़ और बाल्टी -
सब चले जाएँगे
सुख-दुख, धैर्य और लालच
सुंदरता और पवित्रता
पर प्रार्थना के अंतिम अक्षय शब्द की तरह
बची रह जाएगी कामना -
सब कुछ नष्ट नहीं होगा,
कुछ तो बच ही जाएगा।" (कुछ तो)।
वे आगे यह भी कहते हैं कि
"अगर बच सका
तो वही बचेगा
हम सबसे थोड़ा-सा आदमी -
***** ****
जो रौब के सामने नहीं गिड़गिड़ाता,
***** ****
जो दूध में पानी मिलाने से हिचकता है,
जो अपनी चुपड़ी खाते हुए दूसरे की सूखी के बारे में सोचता है," (थोड़ा-सा)।
अशोक वाजपेयी कवि के साथ साथ आलोचक भी हैं। उनकी पक्षधरता मनुष्य के सामने उपस्थित संकटों की पहचान में निहित है -
"हमें खुद ही पता नहीं है
हम इतने सारे सच
उठाए चल रहे हैं
अपने समय का सच,
अपने समय में आदमी के धीरे-धीरे
गायब हो जाने का सच,
चीज़ों, लालच और डाह के बढ़ जाने
और जगह के कम होते जाने का सच
दिन-ब-दिन भरोसा न किए जाने का सच।" (धूल की तरह सच)।
किसी भी रचनाकार के व्यक्तित्व को पहचानना है तो उनकी रचनाओं को परखना होगा। अशोक वाजपेयी की कविताओं को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है कि वे आत्मचेतना के कलाकार हैं। उनकी मान्यता है कि एक जागरूक बुद्धिजीवी के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि अपनी समकालीन दुनिया में उसे बौद्धिक चुनौतियाँ दी जाना बंद हो जाएँ। वे मानवीयता के खोजी हैं -
"पदाघात से
खिलता है अशोक का फूल
बिखरते हैं रंग
होती है सुबह
पृथ्वी मनाती है मोद
पदाघात से! (पदाघात)।