शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 - 12 मई,1993) अपनी जटिल काव्य संवेदना और सूक्ष्म शिल्प के लिए जाने जाते हैं। बड़े बड़े आलोचकों का ध्यान स्वतः ही उनके कवि व्यक्तित्व पर पड़ा है, गद्य की ओर बहुत ही कम और विशेष रूप से कहानियों पर तो न के बराबर। आलोचकों ने शमशेर को कविता में जनोन्मुखी प्रगतिशील से लेकर ‘कवियों के कवि’ तक बना दिया है। इसका कारण यह है कि शमशेर एक ऐसी विलक्षण प्रतिभा है कि उनका समूचा रचना संसार भाषा, संवेदना, बिंब और संगीत आदि दृष्टियों से अपूर्व है और साथ ही गहरे अंतर्विरोधों से युक्त भी।
इसमें संदेह नहीं कि अपने समूचे सर्जनात्मक व्यवहार में शमशेर मूलतः कवि हैं और एक सच्चे कलाकार की उनकी सजीवता उनके गद्य में भी दिखाई देती है। ध्यान से देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि गद्य रचनाओं में भी कवि शमशेर अपने पूरे वजूद के साथ उपस्थित हैं। वे गद्य और पद्य की भिन्न भावदशाओं और मुद्राओं में खुलेपन से बातचीत करते हैं। एक कहानीकार के रूप में उनकी विशेषता है - ठोस ज़मीन और स्वदेशी गहराई।
अपनी कहानियों के बारे में स्पष्ट करते हुए स्वयं शमशेर ने कहा है कि ‘वे कविता के भाव से वहाँ उत्पन्न हो सकती हैं जहाँ वह भाव किसी समस्या की उलझन हो और उसका दर्द सुलगता हुआ-सा चित्रपट बनना चाह रहा हो।’ (श्रीप्रकाश मिश्र; ‘शमशेर का गद्य’; (सं)विश्वरंजन, ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ.240)।
शमशेर के रचना व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए विष्णु चंद्र शर्मा ने कहा है कि "शमशेर का पूरा जीवन कलात्मक प्रयोगशाला में संघर्ष और चुनौती भरा खुला इतिहास है, जहाँ उर्दू-हिंदी एक नए सांस्कृतिक और भाषाई मुहावरे का व्यावहारिक रास्ता खोलती है। काल से होड़ लेते शमशेर का कवि और गद्य लेखक कई बार आपको सावधान करता है। यह सावधानी भावी भारत की कहानी कभी बनेगी।" (विष्णु चंद्र शर्मा; ‘शमशेर का अच्छा गद्य’;(सं)विश्वरंजन, ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ.81)।
यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि गद्य हो या पद्य - शमशेर की भाषा बनावटी नहीं है। शमशेर खड़ीबोली क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ठेठ तथा एक सीमा तक खुरदरा अंदाज उनकी भाषा में भी है। इसीलिए उनकी कहानी पढ़ते समय यह साफ दिखाई देता है कि उनका गद्य बातचीत की शैली का है। वे जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते भी हैं। लिखते समय भी वे बातचीत का खुलापन लाते हैं। स्वयं शमशेर की दृष्टि में उनकी कहानियाँ कविता के उनके अतियथार्थवादी प्रगतिशील बोध से भिन्न हैं। यह बात और भी प्रामाणिक हो जाती है जब हम उनकी कहानी ‘प्लाट का मोर्चा’ को देखते हैं।
उल्लेखनीय हैं कि भले ही शमशेर कवि के रूप में अधिक विख्यात हों लेकिन प्रकाशन क्रम में उनकी गद्य रचनाएँ पहले सामने आईं। उनका निबंध संग्रह ‘दोआब’ 1948 में प्रकाशित हुआ तो ‘प्लाट का मोर्चा : कहानियाँ और स्केच’ 1952 में । अपने और अपनी रचनाओं के संदर्भ में शमशेर बहुत ही संकोची अंदाज में ‘प्लाट का मोर्चा’ में पाठकों से शुरू में ही इस तरह कहते हैं कि "बहुत सी चीजें नींद में होती हैं या खुली हैं। कुछ कहानियाँ इन्हीं चीजों की छाया हैं। कहानियाँ कविता के भाव से भी पैदा हो सकती हैं। जहाँ वह भाव किसी समस्या की उलझन होता है और उसका दर्द केवल एक सुलगता हुआ-सा चित्रपट बनना चाहता है। कुछ कहानियाँ इस संग्रह में ऐसी ही हैं। सायद जी की बातें सी कहने की कोशिश, गो ये बातें खत्म तो नहीं होतीं कभी शायद।" (‘प्लाट का मोर्चा’, भूमिका; बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियाँ, (सं) महेश दर्पण, हिंदी कहानी की कहानी : पाँच, पृ.19)। यही नहीं वे यह भी अपनी ओर से बताना नहीं भूलते कि "यह संग्रह कुल मिलाकार प्रगतिशील नहीं है। ... छायावादी युग के अंत का एक व्यक्तित्व इनमें बोल रहा है।"(वही; पृ.19)| महेश दर्पण ने इसे शमशेर बहादुर सिंह के संकोच का परिचायक माना है।
कहानी ‘प्लाट का मोर्चा’ के बारे में यह कहना समीचीन होगा कि हिंदी साहित्य में अज्ञेय को छोड़कर महायुद्ध के प्रभाव को इतनी मार्मिकता से रेखांकित करनेवाले कहानीकार शमशेर बहादुर सिंह ही हैं। इस कहानी में मनोवैज्ञानिक परतें हैं। शमशेर का गद्य वहाँ उदत्त हो जाता है जहाँ व्यक्ति को अपनी बात अस्तित्व के धरातल पर कहनी है। जैसे : "आँसुओं का देश सूख गया है!’ वह कह उठा। ...वह एकाग्र मन और शांतिचित्त था। नगर का कोलाहल अभी मद्धिम नहीं हुआ था। लोग अभी बहुत आकुल जान पड़ते थे। वह कह उठा, ‘तुम इन नक्षत्र-राशियों को मिलाकर तो कोई कहानी बना नहीं सकते। मानो ये साफ स्पष्ट है और अपनी सरलता में बहुत... बहुत...ऊँची हैं। पर कोई कहानी तुम इन तारों की आत्मा से नहीं निकाल सकते..." (वही; पृ.102)|
‘प्लाट का मोर्चा’ में एक ओर महायुद्ध की विभीषिका का प्रभाव अंकित है तो दूसरी ओर कहानी के प्लाट की खोज में निकला हुआ एक लेखक हैं। यह लेखक एक महान कहानी की खोज में निकला है। उसे अपना जीवन कहानी के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं लगता है। लेकिन अचानक लुइसा से मुलाकात होने के बाद कहानी में तनाव उत्पन्न हो जाता है। शत्रु सेना के गुप्त विभाग में काम करनेवाली एक महिला अपने साथ एक शिशु को लेकर आती है, नेरेटर के पास। जब वह महिला उस बच्चे को अपने साथ रखने के लिए नेरेटर से कहती है तो वह एकदम गंभीर हो जाता है, महत्वपूर्ण पात्र में बदल जाता है। यहाँ कहानीकार की टिप्पणी है - "स्त्री मर्द को जब सहसा डरा देती है, तो मन में क्रोध उठता है।" (वही, पृ.102)|
कहानीकार ने संकेतों के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि यह महिला शत्रु पक्ष के पुरुषों को अपने जाल में फँसाकर अपने सैनिकों को सौंप देती है और उस बच्चे के पिता का भी वही हाल है। लेकिन युद्ध मोर्चे के 70 मील दूर अपनी कोख से जने इस बच्चे को वह खत्म होने से बचाना चाहती है। इसलिए वह नेरेटर से कहती है - "लोग कहते हैं, तुम हमारे नए कलाकार हो। केवल एक मनुष्य को जो कुछ करना चाहिए वह तुम करो - और मैं तुमसे कुछ नहीं चाहती।"(वही)। यहाँ कहानिकार ने मनुष्यता को सबसे आगे खड़ा कर दिया है। एक दूसरे के प्रति मानवीय विश्वास को दिखाया है और बच्चा मानवता का प्रतीक बन गया है। नेरेटर सब कुछ जानकर भी लुइसा पर प्रहार या उससे घृणा नहीं कर पाता बल्कि उसे अपने आलिंगनपाश में कसकर उसे चूम लेता है। एकाएक उसके मुँह से निकल्ता है - "लुइसा, तुम इतनी सुंदर हो, मैं नहीं जानता था।" (वही; पृ.103)। पर उसके मन के अंदर अनेक भीषण विरोधी भावों का झंझावात चल रहा होता है।
कहानीकार ने नेरेटर के माध्यम से यह सवाल उठाया है कि हम क्यों एक सरल प्लाट को अपने जीवन का हिस्सा नहीं बना सकते हैं? नेरेटर को वस्तुतः शांति का प्लाट चाहिए। पर वह लुइसा के जीवन के बारे में सोचता रह जाता है। यह कहानी युद्ध के विरुद्ध आवाज उठाती है, पर बिना शोर मचाए।
इस कहानी के अंत में दो पत्र हैं। एक में उस बच्चे के न रहने की खबर है तो दूसरा लुइसा का जिससे यह जाहिर होता है कि बच्चा स्वस्थ और सुरक्षित है, और वह कहती है कि "मेरे जीवन का एक सुखी, महान दिन आपने सफल किया।" (वही; पृ.104)।
शमशेर की यह कहानी अत्यंत मार्मिक है। कहीं कहीं कहानीकार ने मात्र संकेतों से बड़ी बड़ी सूचनाएँ दी हैं। इस संदर्भ में महेश दर्पण कहते हैं कि "आकार में छोटी-सी यह कहानी शमशेर की कला बखूबी सामने रखती है, जहाँ अनावश्यक विवरणों के लिए कोई जगह नहीं है।" ((सं) महेश दर्पण; बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियाँ-५; हिंदी कहानी की कहानी-५;पृ.20)। इसके स्थान पर कहानी में निहित सांकेतिकता इस कहानी को सतर्कता के साथ पढ़ने की डिमांड करती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि यदि गद्य कवि की कसौटी है तो ‘प्लाट का मोर्चा’ कहानी का गद्य इस कसौटी पर खरा उतरता है और गद्य में कविता की सी बिंबात्मकता तथ सांकेतिकता के करण कथा भाषा का नितांत निजी मुहावरा बनता दिखाई देता है।