मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

स्त्री : अशक्त या सशक्त

 
स्त्री कितनी अशक्त और कितनी सशक्त? यह सवाल बार बार हमारे सामने उपस्थित हो जाती है. इस पर अनेक विद्वानों एवं विदुषियों ने समय समय पर काफी कुछ कहा है. इस मुद्दे पर काफी चर्चा-परिचर्चा, बहस-मुहाबिसा भी हो चुका है. मैं भला इस पर और क्या कह सकती हूँ?

पर एक बात जरूर कहना चाहूंगी. स्त्री होने का प्रमुख लक्षण है कोमल होना. भावनात्मक स्तर पर स्त्री कोमल है. दया, ममता, वात्सल्य आदि गुण स्त्री को कोमल बानाते हैं. इसी कोमलता के कारण स्त्री पुरुष की सहचरी बनकर सृष्टि का निर्माण करती है. सृष्टि के निर्माण में स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं. स्त्री की इस निर्भरता को, इस स्त्रीत्व को पुरुष वर्चस्व ने स्त्री के लिए अभिशाप बना दिया. वह उसकी संवेदनशीलता का दोहन करने लगा. सिर्फ पुरुष ही स्त्री का शोषण नहीं करता है. स्त्री का शोषण स्त्री भी करती है, परिवार भी करता है और साथ ही साथ समाज भी करता है. इसमें संदेह नहीं कि पुरुष को भी इस समाज में समस्याओं का सामना करना पड़ता है पर स्त्री को उससे ज्यादा पीड़ा उठानी पड़ती है.

बचपन से ही लड़की को लड़की होने का अहसास कराया जाता है. हर बात पर उसे यह कहकर टोका जाता है कि तुम लड़की हो, चुप रहो. शादी-ब्याह करके पराए घर में जाना है. पुरुष की तरह सीना तान के मत चलो. सर झुकाए बैठो. इत्यादि...... इत्यादि....... इत्यादि...... परंपरा और संस्कृति के नाम पर स्त्री को जंजीरों में जकड़ दिया जाता है. इस समाज ने जबरदस्ती उसे सती बनाया. देवदासी बनाया. उसे खिलौना बनाकर नचाया. इसलिए नीलम कुलश्रेष्ठ कहती हैं 'इतिहास की कोई दरबारी गायिका हो, नर्तकी हो या खूबसूरत रानी ही क्यों न हो. उसके इर्द गिर्द षड्यंत्रों के शिकंजे कसे होते थे.'

स्त्री की अशक्तता नैसर्गिक नहीं बल्कि थोपी हुई स्थिति है. उसे सपनों तक से वंचित कर दिया गया था. समाज ने स्त्री को अपने बारे में भी निर्णय लेना का अधिकार नहीं दिया. वह सबके सामने ऊँची आवाज में बात तक नहीं कर सकती निर्णय क्या ख़ाक लेगी! परंतु पुनर्जागरण आंदोलन, समाज सुधार आंदोलन, स्वतंत्रता आंदोलन तथा लोकतांत्रिक भारत में सामाजिक न्याय की माँग ने स्त्री के सशक्तीकरण को संभव बनाया.

निस्संदेह समाज ने स्त्री की भूमिका तय कर दी. उसे यह बताया गया कि घर संभालना, बच्चों को पैदा करना और उन्हें पालना, स्वादिष्ट भोजन बनाना, घर परिवार के लिए बलिदान होना आदि उसकी जिम्मेदारियां हैं. इन जिम्मेदारियों को निभाते निभाते स्त्री यह भूल गई कि उसका भी कोई अस्तित्व है.

उसे जागरूक बनाने के लिए राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद और महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे महापुरुषों ने आवाज बुलंद की तो वे समाज सुधारक कहलाए. जब स्त्री जागरूक हुई और शोषण तथा  षड्यंत्र के खिलाफ आवाज उठाई तो वह विद्रोहिणी बन गई. कुलटा बन गई. और न जाने क्या क्या बन गई. इसके बावजूद उसने अपने पर खोलकर उड़ना नहीं सीखा और आत्मनिर्भरता हासिल करके दिखाई. जब स्त्री पर-निर्भर थी, कोमल थी समाज के हाथों ठगी गई, लूटी गई, प्रताड़ित हुई, शिकार हुई. धीरे धीरे स्त्री अपनी शक्ति को पहचानने लगी. अपनी कमजोरियों को दूर करने लगी. आत्मनिर्भर होने लगी. यह आत्मनिर्भरता स्त्री को शिक्षा ने प्रदान की. महादेवी वर्मा कहती है 'युगों से पुरुष स्त्री को उसकी शक्ति के लिए नहीं, सहनशीलता के लिए दंड देता आ रहा है. स्त्री बोल्ड बनी. समाज में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगी. हर क्षेत्र में वह आगे बढ़ी. वह अपने स्त्रीत्व को ही गुलामी का कारण समझने लगी. क्या स्त्रीत्व को खोना ही सशक्तीकर्ण है? पुरुष को हर तरह से खलनायक के रूप में चित्रित करना ही सशक्तीकरण है? स्त्री, स्त्री भी रहे, अपनी संवेदनाओं और सुकोमलता को भी बरकारा रखे और साथ ही मनुष्य भी बने. उसे शिकार न होना पड़े. वह अपमानित महसूस न करे. उसके साथ अन्याय न हो. इसीलिये महादेवी वर्मा कहती हैं 'हमें पुरुष नहीं बनाना है. हमें मनुष्य बनाना है.' हाँ संवेदनशील मनुष्य बनाना है.

आज कारपोरेट दुनिया और राजनीती में स्त्री ने अपनी ताकत का झंडा फहराया है. वह हर तरह से सफल है. सशक्त है. पर क्या आज हम यह कह सकते हैं कि कन्या भ्रूण सुरक्षित है ! स्त्री अकेली आधी रात को घर से बाहर निकल सकती है ! अगर नहीं तो मानना पडेगा कि सशक्त होकर भी आज की दुनिया में स्त्री सशक्त नहीं है जो हमारे समय की एक शर्मनाक सच्चाई है.   
  • गत माह कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद की मासिक गोष्ठी में प्रस्तुत किया गया आलेख      

कोई टिप्पणी नहीं: