[प्रो.ऋषभ देव शर्मा के कक्षा-व्याख्यान पर आधारित]
मनुष्य मात्र की भावनाओं, राग-विराग और संवेदनशीलता की समानता के आधार पर यह माना जाता है कि मनुष्य जाति की एक समेकित संस्कृति है. इस समेकित संस्कृति का निर्माण करने के लिए अलग-अलग देशकाल में मनुष्यों के समूहों ने जो अलग-अलग प्रयत्न किए, साधनाएँ कीं उनका समेकित रूप ‘विश्व संस्कृति’ है और यह उन मानव समूहों के अपने अपने साहित्यों के माध्यम से व्यक्त होती है. इन अलग अलग देशकाल में रचित साहित्यों के समेकित रूप का नाम ही ‘विश्व साहित्य’ है. स्मरणीय है कि अलग अलग देशकाल और जाति समूहों से संबंधित होते हुए भी अपनी मूल संवेदना में ये सारे साहित्य परस्पर अविरोधी होते हैं क्योंकि ये संबंधित जातियों के, मनुष्यों के सांस्कृतिक प्रयत्न है. इसी प्रकार किसी राष्ट्र के अलग अलग भाषा-भाषी समुदायों द्वारा अपनी संस्कृति के उत्थान और अभिव्यक्तीकरण के क्रम में रचे गए भिन्न भिन्न भाषाओं के साहित्य का समेकित रूप उस देश का ‘राष्ट्रीय साहित्य’ होता है. हम यह भी कह सकते हैं कि राष्ट्रीय साहित्य भिन्न भिन्न भाषाओं में रचे जाने के बावजूद उस राष्ट्र की सामासिक पहचान को व्यक्त करता है और विश्व साहित्य अलग अलग राष्ट्रों की साहित्यिक अभिव्यक्तियों में निहित समग्र मानव चेतना का सम्पुंजन होता है. राष्ट्रीयता और वैश्विकता यहाँ परस्पर पूरक भाव से जुड़ी होती हैं, अविरोधी होती हैं अतः विश्व साहित्य, साहित्य के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र को संभव कर दिखाता है. जहाँ विभिन्न राष्ट्रीय अस्मिताएँ विश्व नागरिक की भाँति एक-दूसरे के साथ अस्तित्व में रहती हैं.
यहाँ प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव का यह कथन द्रष्टव्य है कि “भारत एक बहुभाषी देश है. यहाँ न केवल 1652 मातृभाषाएँ हैं अपितु अनेक समुन्नत साहित्यिक भाषाएँ भी हैं. पर जिस प्रकार अनेक वर्षों के आपसी संपर्क और सामाजिक द्विभाषिकता के कारण भारतीय भाषाएँ अपनी रूप रचना में भिन्न होते हुए भी आर्थी संरचना में समरूप हैं, उसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि अपने जातीय इतिहास, सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक मूल्य एवं साहित्यिक संरचना के संदर्भ में भारतीय साहित्य एक है, भले ही वह विभिन्न भाषाओं के अभिव्यक्ति माध्यम द्वारा व्यक्त हुआ है.” यदि इस संकल्पना का आगे विस्तार करें और भाषा भेद की सीमा को तोड़कर मनुष्य के इतिहास और विकास के देखने का प्रयत्न करें तो विश्व साहित्य की अवधारणा सामने आती है. वास्तव में प्रत्येक भाषा के साहित्य की विषय वस्तु और रूप अभिव्यक्ति एवं उसकी मूल्य चेतना और विधा निरूपण के इतिहास का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ भी हुआ करता है जो उसे क्रमशः राष्ट्रीय साहित्य और विश्व साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है.
राष्ट्रीय साहित्य
वस्तुतः राष्ट्रीय साहित्य द्वारा तुलनात्मक साहित्य का आधार तैयार होता है. इसे यों भी कह सकते हैं कि तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा ही राष्ट्रीय साहित्य और उसमें निहित राष्ट्रीयता की तत्वों की पहचान की जा सकती है. इसीलिए आर. ए. साइसी ने तुलनात्मक साहित्य को ‘विभिन्न राष्ट्रीय साहित्यों का एक-दूसरे से आश्रय से तुलनात्मक संबंधों का अध्ययन’ कहा है. इसी प्रकार गोयते ने विश्व साहित्य के संदर्भ में अपनी साहित्यिक परंपराओं से इतर दूसरी परंपराओं के बोध को अनिवार्य माना है. ऐसा करने से विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे को पहचान या समझ सकते हैं तथा अगर एक-दूसरे से प्रेम न भी कर सकें तो कम-से-कम एक-दूसरे को बर्दाश्त करना तो सीख सकते हैं. वास्तव में आपसी पहचान आदान-प्रदान द्वारा राष्ट्रीय साहित्य अपनी विलक्षणता को बनाए रख सकता है.
जैसा कि पहले भी कहा गया भारत जैसे बहुभाषी देश में राष्ट्रीय साहित्य का अर्थ है विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीय संस्कृति और मूल्यों की अभिव्यक्ति. इसके लिए तुलनात्मक पद्धती का सहारा लिया जाता है. और यह भी देखा जाता है कि किसी साहित्यिक कृति को दूसरे भाषा भाषियों द्वारा किस प्रकार ग्रहण किया जाता है. या कोई एक साहित्य दूसरे साहित्य पर किस प्रकार प्रभाव डालता है. उदाहरण के लिए हम बंगला और तेलुगु के संबंध की चर्चा कर सकते है. बंगला के कथा साहित्य को तेलुगु में इतनी सहजता से ग्रहण किया जाता है कि बहुत से पाठक तो शरत को बंगला के बजाए तेलुगु का ही साहित्यकार समझते हैं. रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य ने विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य पर जो प्रभाव डाला वह भी भारत के राष्ट्रीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण भाग है. इसी प्रकार बाबा साहेब डॉ.भीमराव अम्बेडकर के चिंतन से प्रभावित होकर जब मराठी में दलित साहित्य का उदय हुआ तो उसका प्रभाव तेलुगु, हिंदी, उर्दू, पंजबी यहाँ तक की समकालीन संस्कृत साहित्य पर भी पड़ा – यह भारतीय साहित्य की समस्वरता का द्योतक है. इतना ही नहीं अलग अलग प्रांत की प्रबुद्ध महिलाओं ने अलग अलग भाषाओं में भले ही स्वयं को अलग अलग प्रकार से अभिव्यक्त किया हो लेकिन स्त्री विमर्श आज किसी एक भाषा के साहित्य की प्रवृत्ति न होकर भारतीय साहित्य की समेकित प्रवृत्ति है. ओल्गा और घंटसाला निर्मला भले ही तेलुगु की कवयित्रियाँ हों, अनामिका और कात्यायिनी हिंदी की हों, निर्मला पुतुल संताली की हों, दर्शन कौर और तरन्नुम रियाज़ पंजाबी की हों – इन सबके द्वारा स्त्री की यातना का चित्रण एक जैसा है और समग्रतः भारतीय स्त्री की यातना का द्योतक है. यह समरसता ही इस तमाम स्त्री विमर्श को भारतीय साहित्य का हिस्सा बनाती है.
इसी प्रकार विभिन्न भाषाओं के साहित्य में प्रयुक्त अंतरवस्तु, मोटिफ, मिथक और काव्य सौंदर्य के उपकरण भी मिलकर किसी देश की राष्ट्रीय साहित्य का रूप निर्धारण करते हैं. अभिप्राय यह है कि राष्ट्रीय साहित्य किसी राष्ट्र की किसी एक भाषा का नहीं बल्कि उसकी विभिन्न भाषाओं के उस साहित्य का सामासिक रूप होता है जिसमें उसके नागरिकों की सांस्कृतिक चेतना और एक समान संवेदना प्रतिबिंबित होती है. यहाँ हम भारतीय साहित्य के संदर्भ में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के एक काव्यांश को देख सकते हैं जिसमें प्रकारांतर से भारत के राष्ट्रीय साहित्य की पहचान का सूत्र दिया गया है -
“भारत नहीं स्थान का वाचक,
गुण-विशेष नर का है,
एक देश का नहीं,
शील वह भूमंडल भर का है.
जहाँ कहीं एकता अखंडित,
जहाँ प्रेम का स्वर है
देश देश में वहाँ खड़ा
जीवित भारत भास्वर है.”
विश्व साहित्य
विश्व साहित्य की अवधारणा का आधार आरंभ में यूरोप का दृष्टिकोण रहा जिसके अनुसार विश्व साहित्य का प्रारंभिक अर्थ यूरोपीय साहित्य तक सीमित था. गोयते ने भी ‘वेल्ट लित्रातुर’ पद का प्रयोग इसी अर्थ में किया था. इसमें संदेह नहीं कि यह अर्थ अत्यंत सीमित था और आज इसे स्वीकार नहीं किया जाता.
20 वीं शताब्दी में विश्व साहित्य के अर्थ में क्रांतिकारी परिवर्तन आया. विश्व के बारे में जो यूरोप केंद्रित जातिगत विशिष्ट अवधारणा थी, उसके अर्थ में एक खास तरह की व्यापकता आई. इस प्रकार विश्व साहित्य का दायरा यूरोप के बाहर तक फ़ैला और उसके अंतर्गत विश्व के दूसरे क्षेत्रों के साहित्य और तुलनात्मक अध्ययन को स्थान दिया गया. अब विश्व साहित्य का तात्पर्य है – पृथ्वी के किसी भी साहित्य का अध्ययन. अर्थात सार्वभौमिक स्तर पर साहित्य के इतिहास को ही विश्व साहित्य माना जाता है. प्रो.इंद्रनाथ चौधुरी ने लिखा है कि ‘विश्व साहित्य के इतिहास विषयक ग्रंथों में विभिन्न राष्ट्रीय साहित्यों को विभिन्न माध्यमों में बाँट कर या एक-दूसरे के सान्निध्य में रखकर अध्ययन किया जाता है. या फिर विश्व साहित्य के विभिन्न आंदोलनों, प्रवृत्तियों या कालों का विवरण देते हुए विश्लेषण होता है.’ जे.ब्रांट कॉर्स्टियस (J. Brandt Corstius) ने इस प्रकार रचे गए विश्व साहित्य के इतिहास की संभावनाओं और सीमाओं का विस्तार से विवेचन किया है. स्पष्ट है कि विश्व साहित्य बड़ी सीमा तक राष्ट्रीय साहित्यों का समूह है अतः इसमें राष्ट्र अथवा देश का तत्व जुड़ा रहता है. कहना न होगा कि इस तत्व के कारण ही विश्व साहित्य की तुलनात्मक दृष्टि का विकास होता है और वे बिंदु उभरते हैं जो विभिन्न राष्ट्रों के साहित्यों में व्यक्त होनेवाली मानव जाति की एक जैसी चिंताओं को दर्शित है.
विश्व साहित्य का एक अर्थ यह भी है कि केवल देश ही नहीं ‘काल’ के संदर्भ में भी जो महान है अर्थात काल की कसौटी पर जिसकी श्रेष्ठता सिद्ध हो चुकी है वह कालजयी और श्रेष्ठ साहित्य विश्व साहित्य है. जैसे ‘डिवाइन कॉमेडी’, ‘डान कोहटे’, ‘पैराडाइज लॉस्ट’, ‘अभिज्ञान शाकुंतल’, ‘कुमार संभव’ आदि की श्रेष्ठता देश और काल से ऊपर है. अतः ये अपने अपने राष्ट्र और भाषा की महान कृतियाँ तो है ही. विश्व साहित्य का भी अमर धरोहर हैं. इतना ही नहीं वर्तमान में भी जिन रचनाओं को अपने राष्ट्र के परिधि के बाहर प्रसिद्धि प्राप्त होती है उन्हें भी विश्व साहित्य के अंतर्गत गिना जाता है. परंतु यह विश्व साहित्य का गौण अर्थ है. विश्व साहित्य का मुख्य स्वरूप तो समस्त राष्ट्रों के साहित्य के समुच्चय द्वारा ही प्रकट होता है.
फ्रिट्ज स्टाइच के अनुसार विश्व साहित्य के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं –
- अपने राष्ट्रीय साहित्य की परम्परा के साथ ही दूसरे राष्ट्रीय साहित्यों की परम्पराओं से परिचित होना.
- दूसरे देशों या भाषाओं में लिखित साहित्य के प्रति खुलापन रखना.
- विभिन्न साहित्यों में परस्पर आदान-प्रदान का अवसर देना.
विश्व साहित्य के इस स्वरूप के अंतर्गत प्रकाशित ग्रंथों के शीर्षकों की सहायता से भी समझा जा सकता है. जैसे लेयार्ड द्वारा संपादित ‘The World Through Literature’ और ‘रिप्ले’ द्वारा संपादित ‘Dictionary of World Literature’ अथवा ‘ Encyclopaedia of Literature’ में भी विश्व साहित्य की यही संकल्पना स्वीकार की गई है. तुलनात्मक साहित्य की पद्धतियों का विश्व साहित्य के अध्ययन के लिए उपयोग सहज है, परंतु अनिवार्य नहीं. अर्थात विविध साहित्यों की तुलना के स्थान पर उनका संकलन करना भी विश्व साहित्य के लिए पर्याप्त है. उदाहरण के लिए यदि तुर्गनेव, हाथॉर्न, थैकरे और मोपसां के निबंधों के संकलन को ‘Figures of World Literature’ नाम दिया जाए तो यह सहज ही विश्व साहित्य के अंतर्गत स्वीकार्य होगा. भले ही इसमें तुलनात्मक अध्ययन संमिलि हो या न हो.
विश्व साहित्य का भारतीय संदर्भ
विश्व साहित्य पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में विचार करते हुए प्रो.इंद्रनाथ चौधुरी ने ‘तुलनात्मक साहित्य की भूमिका’ में यह बताया है कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने सन् 1907 में तुलनात्मक साहित्य के लिए ‘विश्व साहित्य’ शब्द का प्रयोग किया था. कवींद्र रवींद्र यह मानते थे कि यदि हमें उस मनुष्य को समझना है जिसकी अभिव्यक्ति उसके कर्मों, प्रेरणाओं और उद्देश्यों में होती है तो संपूर्ण साहित्य के माध्यम से उसके अभिप्रायों से परिचित होना होगा. वास्तव में मनुष्य इतिहास में स्थानीय या सीमित व्यक्ति की अपेक्षा शाश्वत या सार्वभौमिक मनुष्य को देखना चाहता है. उसकी इस अपेक्षा को विश्व साहित्य ही पूरा करता है. विश्व साहित्य में मनुष्य अपनी आत्मा के आनंद को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करता है. अतः विश्व साहित्य की एक बड़ी कसौटी उसमें मनुष्य की आत्मा के आनद और रागात्मक संबंधों की अभिव्यक्ति को माना जा सकता है.
रवींद्रनाथ ठाकुर के अनुसार ‘जिस प्रकार यह विश्व जमीन के टुकड़ों का योगफल नहीं है उसी प्रकार साहित्य विभिन्न लेखकों द्वारा रचित कृतियों का योगफल नहीं है. हमें राष्ट्रीयता की संपूर्ण मनोवृत्ति से अपने को मुक्त करना है. प्रत्येक कृति को उसकी संपूर्ण इकाई में देखना है और इस संपूर्ण इकाई या मनुष्य की शाश्वत सृजनशीलता की पहचान विश्व साहित्य के द्वारा ही हो सकती है.’
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विश्व साहित्य मनुष्य की शाश्वत सृजनशीलता की खोज का परिणाम है तथा विभिन्न राष्ट्रीय साहित्यों का समुच्चय होता हुए भी वह राष्ट्रीय संकीर्णताओं से मुक्त तथा 'वसुधैव कुटुंबकं' की वैश्विक चेतना से अनुप्राणित होता है.
संदर्भ :
1. तुलनात्मक साहित्य की भूमिका – इंद्रनाथ चौधुरी, 1983, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास, टी.नगर, चेन्नई - 600017
2. भारतीय साहित्य : अवधारणा, समन्वय एवं सादृश्य, (सं) जगदीश यादव, 2011, सिंघई पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, एल-654, सेक्टर – 2, आर.एस.यूनिवर्सिटी, रायपुर - 492010
3. भारतीय साहित्य की पहचान, (सं) डॉ.सियाराम तिवारी, 2009, नालंदा खुला विश्वविद्यालय, तीसरा तल, बिस्कोमान भवन, पश्चिमी गांधी मैदान, पटना - 800001
1 टिप्पणी:
रिषभ देव जी का यह व्याख्यान पढ़ कर प़सन्नता हुई । यह थोड़े में बहुत कुछ
कह गया है , िजस से न केवल तुलनात्मक साहित्य और विश्व साहित्य की स्पष्ट पहचान उभरती है , बल्कि विश्व मानव और विश्व संस्कृति की भी अच्छी
पहचान की जा सकती है । कई वर्षों पहले मैं ने एक पुस्तक तुलनात्मक साहित्य
,सिद्धान्त और व्यवहार लिखनी शुरु की थी । तब मैं इन्हीं प़श्नों से उलझा था,
जिन्हें सुलझाने की कोशिश डा शर्मा ने की है । नीरजा जी को धन्यवाद कि
उन्होंने यह सामग़ी यहाँ प़स्तुत की ।
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