“सखि, वसंत आया.
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया.
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृंद बंदी –
पिक-स्वर नभ सरसाया.”
(निराला, सखि, वसंत आया, राग—विराग).
वसंत ऋतुराज है. वसंत के आगमन के साथ साथ प्रकृति में नवोत्कर्ष छा जाता है. उसकी शोभा अनूठी है. आम बौराने लगता है और कोयल कूकने लगती है. निराला कहते हैं –
“फूटे हैं आमों में बौर,
भौंरे वन-वन टूटे हैं.
होली मची ठौर-ठौर
सभी बंधन छूटे हैं.
फागुन के रंग राग,
बाग-बन फाग मचा है,
भर गए मोती के झाग,
जनों के मन लुटे हैं.”
(निराला, फूटे हैं आम में बौर, राग-विराग)
“कुमुद विकसित हो गए जब चंद्रमा वह सज उठा
कोकिल-कल-रव-समान नवीन नूपुर बज उठा
प्रकृति और वसंत का सुखमय समागम हो गया
मंजरी रसमत्त मधुकर-पुंज का क्रम हो गया
**** ****
दृश्य सुंदर हो गए, मन में अपूर्व विकास था
आतंरिक औ’ बाह्य सब में नव वसंत-विलास था.”
(जयशंकर प्रसाद, नव वसंत, कानन कुसुम)
वासंती मौसम में सभी आनंदित होते हैं. आयु की कोई सीमा नहीं होती. ऐसे वसंत के बारे में अज्ञेय कहते हैं –
वासंती मौसम में सभी आनंदित होते हैं. आयु की कोई सीमा नहीं होती. ऐसे वसंत के बारे में अज्ञेय कहते हैं –
“मलयज का झोंका बुला गया
खेलते से, स्पर्श से
रोम रोम को कंपा गया
जागो जागो
जागो सखि ! वसंत आ गया, जागो.”
बाबा नागार्जुन अपनी कविता ‘वसंत की अगवानी’ में कहते हैं –
“रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं...
चूम रही हैं—
कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !!
इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-मुई की लोच-लाज को !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ...
***** ******
अपने ही कोमल-कच्चे वृन्तों की मनहर सन्धि भंगिमा
अनुपल इनमें भरती जाती
ललित लास्य की लोल लहरियाँ !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ !!
रंग-बिरंगी खिली-अधखिली...”
वसंत के आगम के पहले ‘संक्रांति’ का उत्सव मनाया जाता है. आंध्र में मकर संक्रांति के दिनों, सिर पर कुम्हड़े की आकृति का ताम्रपात्र रखकर तड़के भगवान का भजन गाते हुए गाँव में वैष्णव भक्त जिय्यर भिक्षाटन करने लगते हैं. उन्हें तेलुगु में ‘हरिदास’ कहते हैं. ‘संक्रांति’ के एक माह पहले से ही घर की छोटी कन्याएँ गोबर के गोल लौंदे बनाकर उन्हें कुम्हड़े और तुरई के फूलों से सजा कर हल्दी और चावल के चूर्ण की रंगवल्लियों से अलंकृत आंगनों में सजाती हैं. इन्हें तेलुगु में ‘गोब्बिल्लु’ कहते हैं. ऐसा लगता है कि मकर संक्रांति और वसंतोत्सव अखिल भारतीय पर्व हैं. तभी तो ‘मकर संक्रांति’ का वर्णन करते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा है –
“अहो हरि नीको मकर मनाये.
चित्र चमन धरि भले लाड़िले पुन्य समय घर आये.
कहा परब कियो दियो दान रस तिल तन प्रगट लखाये.
‘हरिचंद’ खिचरी से मिलि क्यों कि तिरबेनी न्हाये.”
‘संक्रांति’ के एक माह के बाद ‘वसंत पंचमी’ मनाया जाता है. यह त्यौहार माघ महीने की पंचमी को होता है. इस दिन माँ सरस्वती की पूजा की जाती है. वसंत पंचमी ऋतुराज वसंत के आगमन का प्रथम दिन है. “वसंत बर्फ के पिघलने, गलने और अँखुओं के फूटने की ऋतु है। ऋतु नहीं, ऋतुराज। वसंत कामदेव का मित्र है। कामदेव ही तो सृजन को संभव बनाने वाला देवता है। अशरीरी होकर वह प्रकृति के कण कण में व्यापता है। वसंत उसे सरस अभिव्यक्ति प्रदान करता है। सरसता अगर कहीं किसी ठूँठ में भी दबी-छिपी हो, वसंत उसमें इतनी ऊर्जा भर देता है कि वह हरीतिमा बनकर फूट पड़ती है। वसंत उत्सव है संपूर्ण प्रकृति की प्राणवंत ऊर्जा के विस्फोट का। प्रतीक है सृजनात्मक शक्ति के उदग्र महास्फोट का। इसीलिए वसंत पंचमी सृजन की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा का दिन है।“ (रंग गई पग-पग धन्य धरा, ऋषभ देव शर्मा, साहित्यकुंज.नेट). ऐसे वसंत का चित्रण करते हुए जयदेव की एक अष्टपदी का भारतेंदु कृत अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है -
“हरि बिहरत लखि रसमय बसंत.
जो बिरही जन कहँ अति दुरंत.
बृन्दाबन-कुंजनि सुख समंत.
नाचत गावत कामिनी-कंत.
लै ललित लवंगलता-सुबास.
डोलत कोमल मलयज बतास.
अलि-पिक-कलरव लहि आस-पास.
रह्यौ गूँजि कुंज गहवर आवास.
उन्मादित ह्वै तापी-मदन-ताए.
मिलि पथिक बधू ठानहिं बिलाप.
अलि-कुल कल कुसुम-समूह-दाप.
बन सोभित मौलसिरी कलाप.
मृगमद-सौरभ के आलबाल.
सोभित बहु नव चलदल तमाल.
जुव-हृदय-बिदारन नख कराल.
फूलो पलास बन लाल लाल.
बन फ्रफुल्लित केसर कुसुम आन.
मनु कनक छुरी लिए मदन रान.
अलि सह गुलाब लागे सुहानु.
विष बुझे मैन के मनहू बान.
नव नीबू फूलन करि विकास.
जग निलज निरखि मनु करत हास.
तिमि बिरही हिय-छेदन हतास.
बरछी से केतकी-पत्र पास.
लपटन इव माधविका सबास.
फूली मल्ली मिलि करि उजास.
मोहे सुनिजन करि काम-आस.
लखि तरुन-सहायक रितु-प्रकास.
पुसपित लतिका नव संग पाय.
पुलकित बोराने आम आय.
लहि सीतल जमुना लहर बाय.
पावन वृंदावन रह्या सुहाय.
जयदेव रचित यह सरस गीत.
रितु-पति बिहारन हरि-जस पुनीत.
गावत जे करि ‘हरिचंद’ प्रति.
ते लहत प्रेम तजि काम-भीत.”
वसंत में प्रकृति का नव शृंगार होता है. विविध पुष्पों से वन-उपवन, घर-आँगन, बाग-बगीचे सब सज उठते हैं. वासंती मौसम में चांदनी भी मन मोह लेती है. तेलुगु साहित्य के कवि सम्राट विश्वनाथ सत्यनारायण ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘वेयिपडगलु’ (सहस्रफण) में इसका सुंदर वर्णन किया है – “वसंत की शोभा अनूठी है. आम की कोंपलें प्रेयसी के हाथों की तरह बड़ी प्यारी लगती हैं. ..... सूर्यास्त हुआ. फिर चांदनी आई. तमाल-वृक्ष के पल्लवों पर पड़कर चांदनी ऐसी चमक उठी, मानो बाल-गोपाल के शरीर पर प्रसारित हो रही हो. माकंद पल्लवों पर चांदनी ऐसी रेंग रही थी, मानो स्वामी के कटाक्षों से घुल-मिल रही हो, पुन्नाग के पुष्प-गुच्छों पर प्रसारित होकर चांदनी ऐसी लगी, मानो ग्वालबाल जगन्नाथ के कान की बाली के इर्द-गिर्द मंडरा रहे हों. कुरंटक के पल्लवों को स्पर्श करके चांदनी रक्तिम हो गई, मानो नंदनंदन के सुमनोहर नखों का अनुकरण कर रही हो. जम्बू-तरु के पल्लवों से घुल-मिलकर चांदनी भगवान कृष्ण के सर में सजे मोर-पंख की छटा उगलने लगी. बिल्व-पत्रों पर इधर-उधर बिखरकर चांदनी मानो विष्णु चरण धोने की अभिलाषा में झुककर विनम्रता प्रदर्शित करने लगी. शमी वृक्ष की टहनियों पर झूला-झूलती हुई चांदनी मानो शिवजी की दृष्टि की भांति तेजस्विनी बन गई. पके केलों के पृष्ठों पर रेंगकर चांदनी स्वामी के चरणों में नैवेद्य बनाने की इच्छा का मूर्तिमान निरूपण-सी दृग्गोचर हुई. चंपक की पकी पंखुड़ियों में घुसकर मोटी से जटिल बाल गोपाल के नासापुट की भांति भक्तजनों के आह्लाद का कारण बनी. मलय मारुत से संस्पर्शित नारिकेल के कुसुमों में मिलकर चांदनी ऐसी लगी मानो वृन्दनाथ के शरीर में लेप किया हुआ चंदन सूखकर झड़ रहा हो. अमलतास के पल्लवों को छूकर चांदनी पीतांबर की छटा उगलने लगी. फूटे हुए कपास के फल चांदनी में पांचजन्य से भासने लगे. फूटे हुए धतूरे के फूल सुदर्शन चक्र की भांति और पकी हुई केतकी की पंखुड़ियाँ नन्दक खड्ग की भांति चांदनी में भास रही थीं.”
आरंभ में हम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उल्लेख कर चुके हैं. उन्होंने वसंत पंचमी को अपना जन्मदिन घोषित किया. वसंत निराला की प्रिय ऋतु है. वे कहते हैं कि संपूर्ण धरा वसंत में राग रंजित हो उठती है–
“रंग गई पग-पग धन्य धरा, -
हुई जग जगमग मनोहरा.”
वर्ण गंध धर, मधु-मरंद भर,
तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर
खुली रूप-कलियों में पर भर
स्तर-स्तर सुपरिसरा.”
निराला ने अपनी कविता ‘जुही की कली’ में वासंती निशा की चर्चा इस प्रकार की है -
“विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी – स्नेह-स्वप्न-मग्न –
अमल-कोमल-तनु तरुणी – जुही की कली,
दृग बंद किए, शिथिल, - पत्रांक में,
वासंती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल.”
(निराला, जुही की कली, राग-विराग).
निराला बार बार वसंत का आह्वान करते हैं –
“आओ, आओ फिर, मेरे वसंत की परी –
छबि-विभावरी;
सिहरो, स्वर से भर-भर, अंबर की सुंदरी
छबि-विभावरी!” (निराला, वसंत की परी के प्रति, राग-विराग)
वसंत पंचमी के बाद ‘रथ सप्तमी’ का पर्व मनाया जाता है. इस दिन सूर्य भगवान की विशेष पूजा की जाती है. तदुपरांत वसंत का सबसे अद्भुत पर्व आता है होली. भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते हैं –
“लाल फिर होरी खेलन आओ.
फेर वहै लीला को अनुभव हमको प्रगट दिखाओ.
फेर संग लै सखा अनेकन राग धमारहि गाओ.
फेर वही बंसी धुनि उचरौ फिर वा डफहि बजाओ.
फेर वही कुंज बहै वन बोली फिर ब्रज-बास बसाओ.”
मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ के नवम सर्ग में यूँ कहा है –
“काली काली कोइल बोली –
होली-होली-होली !
हंस कर लाल लाल होठों पर हरियाली हिल डोली,
फूटा यौवन, फाड़ प्रकृति की पीली पीली चोली.
होली-होली-होली !
**** ****
रागी फूलों ने पराग से भर ली झोली,
और ओस ने केसर उनके स्फुट-सम्पुट में घोली.
होली-होली-होली !”
वसंत ऋतु सबके जीवन में उमंग और उल्लास भर दे ! इसी शुभकामना के साथ -
1 टिप्पणी:
waah bahut acchi prastuti ......basnt ke aagmn par...
एक टिप्पणी भेजें