बुधवार, 24 दिसंबर 2014

स्मृतियों में बसी गंगा की तरंग

9 जून 2014. 
रात की नींद गायब. कल नजीबाबाद जो जाना है ‘परिलेख हिंदी साधक सम्मान’ लेने. इसकी कल्पना भी नहीं की थी. 

10 जून 2014.
सुबह के चार बजे. तैयार हो गई और ठीक पाँच बजे माँ-पापा, भाई और तीन साल की बेटी से विदा लेकर पति के साथ घर से हैदराबाद नामपल्ली रेलवे स्टेशन की ओर निकल पड़ी. 5.40 तक स्टेशन पहुँच गई और ठीक छह बजकर पाँच मिनट पर गाड़ी ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया. सफर बहुत अच्छा रहा. ठीक सामने की सीट पर एक सरदार जी और उनकी पत्नी रमणिक कौर जी (यही नाम बताया उन्होंने) थे. समय बीतता गया और ऐसे ही हम लोगों के बीच सहज वार्तालाप शुरू हुआ. वे दोनों अमृतसर जा रहे थे गुरुद्वारे का दर्शन करने. वार्तालाप से बहुत ही सरल और मिलनसार लगे. नागपुर स्टेशन पर इंजिनियरिंग और सी.ए. के कुछ विद्यार्थियों की टोली चढ़ी. वे मनाली जी रहे थे. उसमें एक व्यक्ति अपने परिवार (पत्नी और आठ साल की बेटी) को भी साथ लेकर जा रहा था. रात भर वे लोग मस्ती करते रहे. सफर में थकान महसूस ही नहीं हुई. जब भी कमर में दर्द होने लगता था तो ऊपर बर्थ पर जाकर सो जाती थी. पहली बार उत्तर की ओर यात्रा कर रही थी. 

आंध्र प्रदेश – अरे बाबा अब तो यह क्षेत्र तेलंगाना हो गया. जब तक गाड़ी तेलंगाना क्षेत्र में चल रही थी तब तक भौगोलिक परिवेश कुछ और था. जैसे जैसे गाड़ी महाराष्ट्र में पहुँची धीरे धीरे भौगोलिक परिस्थिति बदल गई. तेलंगाना के क्षेत्र में सूखे पेड़ दिखाई दे रहे थे. कहीं कहीं बंजर भूमि थी तो कहीं कहीं बुआई के लिए तैयार भूमि दिख पडी. नीम, ताड़, आम, छोटे खजूर और बरगद के पेड़ तो हैं ही, हर जगह टीक और बबूल के वृक्ष भी हैं. गर्मी का तो पता नहीं चला क्योंकि वातानुकूलित कोच में बैठकर यात्रा कर रही थी. महाराष्ट्र में पहुँचते ही मौसम बदला सा गया. बारिश की बूँदें भी गिरीं. नागपुर से जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, संतरे के बाग ही बाग थे. जगह जगह पर आम के बाग थे. पहाड़ों के बीच से जब गाड़ी गुज़री तो बहुत ही अच्छा लगा. कहीं कहीं तो गाड़ी सुरंग से गुज़री. कहीं जंगल था, तो कहीं पहाड़, कहीं सपाट भूमि तो कहीं घाटी. देखने लायक है भारत की प्राकृतिक संपदा. 

11 जून 2014

गाड़ी सुबह 9 बजे के आस-पास दिल्ली पहुँची. पापा के शिष्य अगस्टिन जी गाड़ी लेकर स्टेशन पहुँच गए हमें लेने. हम स्टेशन से सीधे आई.एस.बी.टी. - कश्मीरी गेट पहुँच गए और वहाँ से नजीबाबाद जाने वाली बस में चढ़ गए. ड्राइवर की सीट के पीछे वाली सीट खाली थी तो वहीं आराम से बैठ गए. बस चल पड़ी नजीबाबाद की ओर. जैसे ही बस दिल्ली के बाहर पहुँची तो रास्ते में लीची और रसीले आम दिख गए. हैदराबाद में तो लीची एकदम सूखी होती हैं. लेकिन यहाँ बड़ी बड़ी लाल-लाल रसीली लीची. देखते ही मन ललचाने लगा. बस आगे बढ़ती गई और मैं दोनों तरफ के पेड़-पौधों को देखने लगी. फलों से लदे हुए आम और लीची के पेड़. वाह! क्या बात है! बस रुकने का नाम नहीं ले रही थी. दोपहर हो गई और भूख लग रही थी तो खजूर खाते हुए गए. हैदराबाद से ही लिए थे साथ. मेरठ पार करने के बाद ड्राइवर ने एक ढाबे के पास बस रोक दी और हम सब वहाँ उतरे और ठंडे पानी से मुँह धोया तो मानो जान में जान आ गई. फिर हमने वहाँ चटपटी चाट का मजा लिया, शिकंजी भी पी और फिर आकर बस में विराज गए. रास्ते में अनेक छोटे छोटे गाँव थे. उनके नाम बड़े ही मजेदार लगे. जैसे – भैंसा, फिटकरी, चौलापुरा, इंचौली, बहसूमा, कौल, झुनझुनी, सदपुर, सैफपुर, रामराज, बहसुमा, भगवंतपुरम, मीराँपुर, डाबका, पठानपुरा, मलियाना, पुट्ठा, कुंडा, पतला, निवाडा आदि. मतलब यह है कि दक्षिण के स्थान नामों के अभ्यासी मन को ये नाम बहुत नए और रोचक लगे! और हाँ, ट्रकों व दूसरे वाहनों पर मजेदार स्लोगन भी पढ़ने को मिले. एक ट्रक पर लिखा हुआ था ‘हँस मत पगली प्यार हो जाएगा.’

एक मजेदार बात. एक यात्री को कहीं उतरना था पर ड्राइवर ने बस उसके वांछित स्थान पर नहीं रोकी. यात्री ने कटाक्ष पूर्वक ड्राइवर को संबोधित किया - ‘अपणे घर ही ले कै जागा क्या?’ ड्राइवर भी हाजिर जवाब निकाला. बोला – ‘क्या, मेरा कान बजै? कंडक्टर सै सिट्टी ना बजवा सकै था क्या?’ यह है हमारी लोक बोलियों के बतरस की संपदा जो शहरों की नकली भाषा से गायब है. एक व्यक्ति हाजमे की गोलियाँ बेच रहा था. उसके बेचने का तरीका भी भा गया. वह लोकभाषा (कौरवी) में लोगों को विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था. क्या रेटॉरिक थी उसकी भाषा में. तब समझ में आया कि दिलीप सर क्यों कहते हैं कि भाषा का असली व्यवहार उसके प्रयोक्ता समाज में रहकर ही सीखा जा सकता है. 

होटल ब्ल्यू डाइमंड में 
नजीबाबाद पहुँचते पहुँचते पाँच बज गए. वहाँ बस स्टैंड के पास आयोजक हमारे स्वागत में खड़े थे. रिक्शा कर लिए गए. चेन्नै, हैदराबाद और आंध्र प्रदेश के रिक्शों से यहाँ के रिक्शे अलग ही थे. बहुत बरसों के बाद रिक्शे पर चढ़ी तो मजा आ गया. ब्ल्यू डाइमंड होटल पहुँचे. होटल में डॉ. रजनी शर्मा, डॉ. सुशील कुमार त्यागी, आकाशवाणी के ताहिर महमूद और प्रदीप सिंह ने अगवानी की.

भाई अमन कुमार त्यागी के परिवार के साथ 

थोड़ी देर आराम करने के बाद शाम को वहाँ से परिलेख कला एवं संस्कृति समिति, नजीबाबाद के संस्थापक भाई अमन कुमार त्यागी के घर पहुँचे. वहाँ उनका पूरा परिवार स्वागत में जुटा हुआ था. भाभी और बच्चे (अक्षि और तन्मय), डॉ. सुशील कुमार त्यागी आदि. खाना लाजवाब था. खाने के बाद होटल की ओर पैदल चल पड़े. चाँदनी रात थी. रेलवे स्टेशन क्रॉस करके जाना था. ब्रिज पर चढ़कर स्टेशन पार करते समय निर्मल आकाश में चंद्रमा की मनमोहक छटा निहारने योग्य थी. हम लोगों ने चाँदनी में कुछ फोटोग्राफी भी की. पूरे समय अमन भाई जाने कहाँ-कहाँ के रोचक किस्से सुनाते रहे. बड़े ठहरे से अंदाज में बात करते हैं अमन जी – कोई जल्दी नहीं, कोई तनाव नहीं! 

12 जून 2014. 

सुबह सुबह आँख खुल गई तो हम तैयार हो गए. डॉ. रजनी शर्मा के सुपुत्र आ गए और डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी
डॉ. रजनी शर्मा की पोती गौरी  
तथा डॉ. पूर्णिमा शर्मा जी के साथ हमें अपने घर ले गए नाश्ते पर. गरमा गरम जलेबी और ब्रेड रोल के साथ लस्सी. मजा आ गया. सच कहूँ तो सुबह सुबह इस तरह का नाश्ता पहली बार किया. वहाँ से फिर होटल लौटे. थोड़ी ही देर में रुड़की से श्रद्धेय गुरुवर डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा अरुण जी आए. अरुण जी मुझे बेटी मानते हैं. ईमेल और फोन पर तो उनसे बातचीत होती रहती थी पर प्रत्यक्ष दर्शन पहली बार हुए. इतने में वहाँ ‘अमर उजाला’ के संवाददाता पहुँच गए और हम लोगों के साक्षात्कार लिए. अमन भाई ने आकाशवाणी – नजीबाबाद में रिकॉर्डिंग की भी व्यवस्था की थी; यों बाद में डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा अरुण जी हम सबको सीधे आकशवाणी भवन ले गए. पहले डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी की रिकॉर्डिंग हुई बाद में मेरी. मैंने ‘हिंदी तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं में अंतःसंबंध’ शीर्षक वार्ता प्रस्तुत की. उधर अमन कुमार त्यागी जी के घर उनके पिताजी (श्री महेंद्र अश्क जी), माताजी और अन्य परिवारी जन हमारी प्रतीक्षा में बैठे थे. 

खाना खाते खाते तीन बज गए तो हम तुरंत होटल की ओर निकल पड़े चूँकि 4 बजे से परिलेख कला एवं संस्कृति समिति तथा लोक समन्वय समिति, नजीबाबाद का सम्मान समारोह था. 4 बजे के आसपास हम समारोह स्थल पहुँच चुके थे. बढ़िया बैनर लगा हुआ था – बैनर पर अपना और अपनी पुस्तक का चित्र देखकर मैं रोमांचित तो हुई, विचलित भी हो उठी – मैं इस सबकी अधिकारी हूँ भी या नहीं! 


सम्मान कार्यक्रम समाप्त होते होते आठ बज ही चुके थे. हम सब सीधे अमन भाई के घर पहुँचे. खाना खाकर वहाँ से होटल की ओर प्रस्थान. सब कुछ सपने जैसा लग रहा था. सचमुच मैंने अपने अत्यंत साधारण सी हिंदी सेवा के लिए इतनी स्वीकृति और सम्मान की न तो आशा की थी, न अपेक्षा. यह सब मुझे अनायास ही मिला रहा है – मेरे मातापिता और गुरुजन के आशीर्वाद से! 

13 जून 2014 

ठीक 7 बजे राजकुमार जी हाजिर हो गए हमें अपने घर ले जाने. आदरणीय राजकुमार जी के बारे में यह बताना जरूरी है कि प्रो. देवराज जी के अनन्य और घनिष्ठ मित्र हैं और प्रो. ऋषभ देव शर्मा जी के प्रति भी वैसा ही स्नेहभाव रखते हैं. किस्सागोई में राजकुमार जी अमन जी से इक्कीस निकले. हमें इर्द गिर्द बिठाकर घर के बुजुर्ग की तरह जाने कितनी ‘ऐतिहासिक’ वारदातें उन्होंने सुना डालीं. उनसे ही मुझे ‘साहित्य कुंभ’ तथा ‘साहित्य मंथन’ की ऐतिहासिकता का पता चला. वहाँ से हम गुरुवर डॉ. प्रेमचंद्र जैन जी के घर जाने वाले थे लेकिन कुछ ऐसी अप्रत्याशित स्थितियाँ आ गईं कि जा न सके. और इस तरह नजीबाबाद का हमारी यह सारस्वत यात्रा अधूरी रह गई. 

फिर कार्यक्रम बना कण्वऋषि आश्रम जाने का. पहले यह तय किया गया था कि आश्रम देखकर वहाँ से रुड़की और वहाँ से खतौली जाएँगे. दरअसल, भाई अमन कुमार त्यागी ने जब कहा था कि परिलेख सम्मान ग्रहण करने के लिए नजीबाबाद आना होगा तो मैंने गर्मी में इतनी लंबी यात्रा के डर से आनाकानी शुरू कर दी थी. इस पर उन्होंने मुझे ललचाने की कोशिश की. दो लालच दिए. एक - आपको इस बहाने हरिद्वार और गंगा स्नान का भी पुण्य मिल जाएगा. दो - शायद आपको नहीं पता कि नजीबाबाद के एकदम पास में कोटद्वार में कण्व ऋषि का आश्रम है जो दुष्यंत और शकुंतला की प्रणय कथा से जुड़ा है. यहाँ आएँगी तो वहाँ भी चलेंगे. 

अमन भाई ने अपना वादा निभाया. गंगा स्नान भी कराया और कण्व आश्रम भी दिखाया. साथ में थे अमन भाई,
तन्मय 
उनकी बहुत प्यारी बिटिया अक्षि, चपल और अत्यंत प्रिय बेटा तन्मय, मनमीत के संपादक अरविंद कुमार जी, दिल्ली से आए हुए पत्रकार उपेंद्र जी, गुरुकुल कांगड़ी ज्वालापुर के डॉ. सुशील कुमार त्यागी. डॉ. ऋषभ देव शर्मा और डॉ. पूर्णिमा शर्मा तो मेरे अभिभावक की तरह आए ही थे. इन सबके साथ मालिनी नदी के किनारे फैले कण्व आश्रम में जाना रोमांचकारी अनुभव रहा. दो ट्रकों को रोकने की शक्ति का प्रमाण दे चुके ‘पावर योगी’ जयंत जी (आधुनिक भीम) का दर्शन और भी रोमांचक रहा. उन्होंने स्वयं सारे क्षेत्र का संदर्शन कराया. 
अर्जुन के साथ 

नन्हे लंगूर अर्जुन को मैं कभी नहीं भूल पाऊँगी जो अक्षि और तन्मय को घुड़की देने के बाद चुपके से मेरी गोद में आ बैठा था और इशारे कर करके कभी सिर, कभी पीठ, कभी बगल को खुजवाता रहा था. 

हरिद्वार पहुँचकर गंगा स्नान का पुण्य भी प्राप्त किया. हरिद्वार पहुँची तो मन प्रफुल्लित हो उठा. वहाँ तक जाकर गंगा स्नान किए बिना वापस आना कैसे संभव हो सकता है! हर की पौड़ी पहुँचकर गंगा नदी को नमन किया और जलप्रवाह में धीरे धीरे प्रवेश किया तो शीतल गंगाजल के स्पर्श से तन और मन आनंद से भर उठे. मुझे ऐसा लगा कि मानो माँ का कोमल स्पर्श है. सच कहूँ तो पहले डुबकी लगाने में डर रही थी लेकिन जब यह देखा कि छोटे-छोटे बच्चे गंगा स्नान का आनंद उठा रहे हैं तो मन के भीतर से आवाज आई कि चलो आगे बढ़ो. बस एक सांस में तीन डुबकी लगा ही दी. गंगा की वह पुलक भरी तरंग सदा सदा के लिए स्मृतियों में बस गई है. 

रुड़की पहुँचने से पहले गुरुकुल कांगड़ी गए – डॉ. सुशील कुमार त्यागी जी के घर. वहाँ से रुड़की. डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी के भतीजे आशीष जी और पंकज जी ने गर्मजोशी से अगवानी की. उनके साथ ही श्रद्धेय डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा अरुण जी के घर जाना हुआ. अरुण जी और उनकी श्रीमती जी की जिंदादिली देखकर बड़ी प्रेरणा और ऊर्जा जैसी मिलती लगी. कभी कभी सोचती हूँ कि ये लोग बड़ी बड़ी उपलब्धियों और प्रकांड विद्वत्ता के बावजूद इतने सरल, निश्छल और बालसुलभ स्वभाव वाले कैसे रह लेते हैं! वहाँ से खतौली की ओर चल पड़े. गंगा जी तो साथ साथ चल रही थीं. एक जगह पर सर ने कहा, देखो, यहाँ गंग नहर और गंगा नदी ऊपर नीचे हैं! बहुत खूब! पल भर में ही गाड़ी क्रास हो चकी थी. 

आराध्या 
पूरी यात्रा के दौरान पूर्णिमा मै’म से लीची, चाट, कुल्फी आदि की बातें होती रहीं. खतौली पहुँचने से आशीष जी और पंकज जी ने पुरकाजी में एक जगह गाड़ी रोकी और गरमागरम चाट खिलाई. खतौली पहुँचकर घर के पास ही कुल्फी की दूकान पर मलाईदार कुल्फी का आनंद लिया. अरे हाँ, इससे पहले रुड़की में भी तो एक बड़ा गिलास लस्सी का भरपूर मजा लिया था. आशीष और पंकज का सेन्स ऑफ ह्यूमर तो कमाल का है. रास्ते भर मस्ती करते हुए चले. वाह, मजा आ गया! पूर्णिमा मैडम ने परिवार के सदस्यों से परिचय कराया. आशीष जी की बेटी आराध्या ने तो मेरा मन ही मोह लिया. तस्वीरें लेने की कोशिश की तो पहले मुँह इधर-उधर करती रही बिलकुल मेरी बेटी की तरह. पर थोड़ी ही देर में पोज देना शुरू कर दिए. यही स्नेह का नाता तो हमें जीवित रखता है! 

मैंने सोचा था कि रात का खाना स्किप कर दूँ. पर मुझसे नहीं हुआ. गरमागरम रोटियाँ (शायद मिस्सी रोटी), सब्जी, अचार. स्वादिष्ट भोजन. पेट भरके खाया और आराम से सो गई. 

पूरी यात्रा के दौरान मुझे एक पल के लिए भी यह अहसास नहीं हुआ कि मैं अपने घर छोड़कर कहीं अजनबियों के बीच गई हूँ. सब अपने ही थे. आत्मीय. 

14 जून 2014 

खतौली से दिल्ली की ओर प्रस्थान. सर और आशीष जी आए मुझे बस में बिठाने के लिए. साथ में नन्ही आराध्या भी थी. हाइवे पर बस रोककर, मुझे विधिवत बिठाकर, ड्राइवर को बताकर, तसल्ली करके ही आशीष जी बस से उतारे. बस तेजी से दिल्ली की ओर जा रही थी. उस वक्त मुझे ऐसा लगा कि अपनों से कटकर कहीं दूर जा रही हूँ.

दिल्ली में अगस्टिन आ गए. एपी भवन पहुँचने से पहले रास्ते में लाल किला घूमकर देखा. भोजनोपरांत पार्लियामेंट, इंडिया गेट आदि. फिर रात की गाड़ी से हैदराबाद की वापसी.



रविवार, 21 दिसंबर 2014

ऋषभ देव शर्मा सहित 3 साहित्यकारों को मिलेगा जीवनोपलब्धि सम्मान


हैदराबाद, 21 दिसंबर 2014.
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा संचालित उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के हैदराबाद परिसर में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत साहित्यकार डॉ. ऋषभ देव शर्मा को हिंदी भाषा एवं साहित्य की उनकी सेवाओं के लिए तमिलनाडु हिंदी साहित्य आकादमी द्वारा ‘जीवनोपलब्धि सम्मान’ (लाइफटाइम एचीवमेंट एवार्ड) प्रदान करने की घोषणा की गई है. तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी, चेन्नै द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार यह सम्मान उन्हें 10 जनवरी, 2015 को ‘विश्व हिंदी दिवस’ के अवसर पर आयोजित अकादमी के तृतीय अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में दिया जाएगा. इस सम्मलेन में मुख्य अतिथि के रूप में पधार रहीं गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा यह पुरस्कार प्रदान करेंगी. 

विज्ञप्ति के अनुसार इस वर्ष का जीवनोपलब्धि सम्मान डॉ पि. के. बालसुब्रमण्यम (तमिल-हिंदी साहित्यकार, चेन्नै), डॉ. ऋषभ देव शर्मा (साहित्यकार-समालोचक, हैदराबाद) एवं वी. जी. भूमा (शास्त्रीय तमिल अनुवादक, चेन्नै) को प्रदान किया जाएगा. इन्हें 21000 रुपए की राशि, अभिनंदन पत्र, स्मृति चिह्न आदि से सम्मानित किया जाएगा. उल्लेखनीय है कि डॉ. ऋषभ देव शर्मा को आक्रोशपूर्ण हिंदी कविता के आंदोलन ‘तेवरी’ के प्रवर्तन का श्रेय प्राप्त है. उन्हें आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी और कमला गोइन्का फाउंडेशन द्वारा भी पुरस्कृत और सम्मानित किया जा चुका है. 57 वर्षीय डॉ. ऋषभ देव शर्मा के अब तक 7 कविता संग्रह और 5 आलोचना ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं. उन्होंने 15 पुस्तकों और कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया है. सैकड़ों पुस्तकों की समीक्षा और शताधिक ग्रंथों की भूमिका लिखने वाले डॉ. शर्मा के निर्देशन में 125 शोधार्थी विभिन्न शोध उपाधियाँ प्राप्त कर चुके हैं. 

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

కీలుగుఱ్ఱం

అనగనగా ధర్మపురి పట్టణాన్ని ధర్మంగూడను రాజు పరిపాలించేవాడు. ఒక రోజు రాజు తన మంత్రితోపాటు వేటకి బైలుదేరాడు. ఆ రోజు నిరాశే చవిచూశాడు. అలిసిపోయిన రాజు సేద తీర్చుకోవడం కోసరం ఓ నది ఒడ్డుకు చేరాడు. అక్కడ ఓ అందమైన అమ్మాయిని చూసి మనసు పడ్డాడు. ఆ అమ్మాయి తండ్రి దెగ్గరికి తన రాజభటులను పంపించాడు. ఆగ్రహించిన ఆమె తండ్రి రాజభటులతో ఇలా అన్నాడు – ‘పెళ్లి ఎవరికి? మీకా మీ రాజుకా? స్వయంగా వచ్చి అడగలేని వాడికి పెళ్ళెందుకు?’ ఇది విన్న రాజుకు కోపం వచ్చింది. కాని మంత్రి రాజుకు నచ్చచెప్పడంతో రాజు స్వయంగా వెళ్లి ఆ పిల్ల తండ్రిని అడగటంతో వారి వివాహం జరిగింది. కొత్త రాణితో పాటు రాజు తన రాజ్యానికి తిరిగి వెళ్ళాడు. కొత్త రాణిని చూసి మిగతా ముగ్గురు రాణులు ఈర్ష్యాసూయలతో మండిపడ్డారు. 

కొన్ని నెలలకు చిన్న రాణి గర్భం ధరించింది. పొరుగూరు వెళ్తూ రాజు ముగ్గురు రాణులను పిలిచి చిన్న రాణిని జాగ్రత్తగా చూసుకోమని చెప్పాడు. రాణికి కొడుకు పుడితే రాజుతో పాటు రాజ్య్యంకూడా చేయి జారిపోతుందని భయపడి పుట్టిన పసికందును చంపేయమని భటులకు ఆజ్ఞాపించారు. భటులు రాకుమారుడుని చంపలేక అడవిలో వదిలేసి రాజ్యానికి తిరిగి వచ్చేసారు. పోరుగూరునుంచి తిరిగి వచ్చిన రాజుకు చిన్న రాణికి ముసలం పుట్టిందని చెప్పారు. 

కాలం గడిచిపోతుంది. ఒక రోజు రాజభవనంలోకి చొరబడ్డాడని ఓ చిన్న పిల్లవాడిని భటులు బందించి రాజుగారిముండు హాజరుపరిచారు. ప్రశ్నించగా ఆ పిల్లవాడు రాజుతో ఇలా అన్నాడు – ‘నా గుర్రానికి దాహం వేస్తె నీళ్ళకోసం వెతుకుతూ ఇక్కడకి వచ్చాను.’ ఇది విన్న రాజు ఆ పిల్లవాడిని ఆశ్చర్యంగా చూసి ‘కీలుగుఱ్ఱం నిళ్ళు త్రాగుతుందా!’ అని అడిగాడు. దానితో ఆ పిల్లవాడు అన్నాడు – ‘ఈ రాజ్యంలో ఏమైన జరగవచ్చు. రాణికి ముసలం పుట్టగాలేనిది నా కీలుగుఱ్ఱం నీళ్ళు ఎందుకు త్రాగలేదు!’ అని అన్నాడు. ఇది విన్న రాజు ఆరా తీయగా నిజం తెలిసింది. తన కుమారుడుని అక్కున చేర్చుకొని రాజ్యాభిషేకం చేసాడు. 

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

గర్వం

ఒక అడవిలో ఒక పెద్ద చెట్టు వుంది. దాని మొదలు చాలా లావుగాను చాలా బలంగానూ వుంది. ఆ చెట్టు చాలా గుబురుగా కళకళలాడుతూ వుంది. ఆ చెట్టు మీద ఎన్నో పక్షులు గూడ్లు పెట్టుకొని నివసిస్తున్నాయి. ఒక రోజు ఆ అడవి చుట్టుప్రక్కల ప్రాంతాలలో వర్షం కురిసింది. తెరిపిలేని వాన. దానితో అడవి చుట్టుపక్కల ప్రాంతాలలో వరద పొంగుకొచ్చింది. తమనుతాము కాపుడుకోటానికి జంతువులు, పక్షులు అన్ని ఆ చెట్టు నీడకై పరుగులు తీసాయి. మూడు-నలుగు రోజులు గడచినా వర్షం తెరిపించలేదు. అన్ని జంతువులూ దిక్కు తోచని పరిస్థితిలో పడిపోయాయి. కొద్దిగా వాన తెరిపించింది. దానితో అన్ని జంతువులూ చెట్టుకి కృతజ్ఞతలు తెలుపుతూ మెల్లగా తమ తమ నివాస స్థలాలకు వెల్ల సాగాయి. నేనే లేకపొతే ఈ జంతువుల పరిస్థితి ఏమిటి అని ఆలోచించింది చెట్టు. దానితో ఆ చెట్టుకి గర్వం పెరిగింది. ఇంకేముంది! ఆ తర్వాత అందరితో మాట్లాడటం మానేసింది. నేనే గొప్ప అనే భావం పెంచుకుంది. జంతువులను, పక్షులను తన దరికి కూడా రానివ్వకుండా అడ్డుకట్ట వేసింది. దానితో పక్షులన్నీ తెల్లబోయాయి. చెట్టు మీద కాకపోతే తాము గూడ్లు ఎకడ్డ కట్టుకోవాలి. చెట్టుతో మొర పెట్టుకున్నా అది ససేమిరా అనడంతో చేసేది ఏమిలేక నిరాశతో వెళ్లిపోయాయి. గజరాజు నచ్చ చెప్పిన చెట్టు వినలేదు. ఒక రోజు కొంతమంది వ్యక్తులు కట్టెలు కొట్టుకోవడానికి అడవికి వచ్చారు. చెట్టు చాలా పెద్దగా వున్నందున దాని మొదలును గొడ్డలితో నరకడం మొదలు పెట్టారు. చెట్టు విలవిలలాడింది. తనని కాపాడమని అర్ధించింది. జంతువులన్నీ ఒకటై కట్టెలు కొట్టేవాళ్ళ మీదకు దాడి చేసాయి. దానితో గొడ్డళ్ళు అక్కడికక్కడే వదిలేసి వారు బ్రతుకుజీవుడా అని పారిపోయారు. ఆ చెట్టు గర్వం కాస్తా తునాతునకలైంది.

बुधवार, 12 नवंबर 2014

EVERLASTING MEMORY

Never imagined about an
Everlasting memorable Day.
Eminent personalities
Raised their hands for blessing
Applauses filled thy vacuum
Joyous tears rolled down thy cheeks
And head bowed down with gratitude.

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

समकालीन हिंदी कविता की चुनौतियाँ

वस्तुतः हिंदी कविता का फलक बहुत ही विस्तृत है. अपनी यात्रा में उसे समय समय पर अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. आज के कवि और कविता को और भी नई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. इन चुनौतियों में से मुख्य चुनौती संप्रेषणीयता की चुनौती है. अर्थात काव्यभाषा की समस्या. जनभाषा का स्तर एक है तथा कविता की भाषा का स्तर एक. प्रायः यह माना जाता है कि साहित्यकार बनना हर किसी के बस की बात नहीं है. यह बात कवि और कविता पर भी लागू होती है. कविता लिखना हर किसी के लिए साध्य नहीं है. जिस तरह साहित्यकार को शब्द और भाषिक युक्तियों का चयन सतर्क होकर करना चाहिए उसी प्रकार कविता में भी शब्दों का सार्थक और सतर्क प्रयोग वांछित है. कवि को इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि उसे किस शब्दावली और भाषा का चयन करना होगा. सहज संप्रेषणीयता की दृष्टि से घरेलू परिसर और लोक परिवेश से चुने गए शब्दों और प्रतीकों की प्रयोग को केदारनाथ सिंह की कविता ‘एक पारिवारिक प्रश्न’ में देखा जा सकता है – 

“छोटे से आंगन में/ माँ ने लगाए हैं/ तुलसी के बिरवे दो/ पिता ने उगाया है/ बरगद छतनार/ मैं अपना नन्हा गुलाब/ कहाँ रोप दूँ!/ मुट्ठी में प्रश्न लिए/ दौड़ रहा हूँ वन-वन,/ पर्वत-पर्वत,/ रेती-रेती.../ बेकार” (केदारनाथ सिंह, एक पारिवारिक प्रश्न) 

इसमें संदेह नहीं कि आज बहुत भारी संख्या में कविता के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है. किसे कविता – अच्छी कविता – कहें और किसे नहीं. यह भी एक समस्या है. एक ओर नगरीय बोध वाले कवि हमारे सामने हैं. यदि उनकी कविताओं को ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि उनकी संवेदना शहर से जुड़ी हुई है. अतः उनकी कविताओं में सहज रूप से शहरी परिवेश को देखा जा सकता है. ऐसे कवि जब किसी और भाषा या भाषिक परिवेश के शब्दों, मिथकों और प्रतीकों को हिंदी कविता में आयात करते हैं तो संप्रेषणीयता की समस्या उत्पन्न हो जाती है. उदाहरण के लिए कुमार लव की एक कविता देखें – 

“प्रोमेथ्यूज़ का कलेजा/ हर रोज़ नोचती चील/ सोचती होगी/ कैसा मूर्ख है यह,/ देवताओं से लड़ता है भला कोई!!” (कुमार लव, उल्लंघन)

जब तक पाठक प्रोमेथ्यूज़ को नहीं जानते तब तक कविता को समझना भी कठिन है. दूसरी ओर ग्रामीण बोध वाले कवि हैं. इनके शब्द चयन में आंचलिकता का अतिशय आग्रह संप्रेषणीयता को बाधित करता है. परंतु जहाँ कवि दैनिक जीवन के बिंबों को प्रचलित लोक शब्दावली में बांधता है वहाँ पाठक को उससे जुड़ने में कोई व्यवधान महसूस नहीं होता. उदाहरण के लिए – 

“चिकनी पीली मिटटी को/ कुएँ के मीठे पानी में गूँथकर/ बनाया था माँ ने वह चूल्हा/ और पूरे पंद्रह दिन तक/ तपाया था जेठ की धूप में/ दिन दिन भर/ उस दिन/ आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,/ हमारे घर का बगड़/ बूंदों में नहा कर महक उठा,/ रसोई भी महक उठी थी –/ नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था./ गाय के गोबर में/ गेहूँ का भुस गूँथ कर/ उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से/ और आषाढ़ के पहले/ बिटौड़े में सजाती थी उन्हें/ बड़ी सावधानी से” (ऋषभदेव शर्मा, बनाया था माँ ने वह चूल्हा)

यह कविता ग्रामीण जीवन और मानव संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती है. लेकिन आज की शहरी युवा पीढ़ी न ही चिकनी मिटटी से चूल्हा बनाने की प्रक्रिया से अवगत है और न ही गाय के गोबर में गेहूँ का भुस गूँथकर उपले थापने से. आज तो खाना गैस स्टोव पर या इलेक्ट्रिक ओवेन में बनता है तो रसोई की महक क्या होती है और उससे जुड़ी माँ की संवेदना क्या होती है. यह भला कैसे जान सकते हैं? ऐसे में इस कविता की संप्रेषणीयता में व्यवधान उत्पन्न होना स्वाभाविक है. ग्रामबोध वाली कविताओं में बहुत सारे ग्रामीण अंचल के शब्द मुखरित हैं. उदाहरण के लिए ऋषभदेव शर्मा की एक कविता का शीर्षक ही है ‘गलगोड्डा’. अब इस शब्द को समझने के लिए अंचल का दरवाजा खटखटाना जरूरी है. तेलुगु में इसे ‘गुदिबंडा’ कहा जाता है. अर्थात चंचल पशुओं के गले में बाँधा जाने वाला गति-अवरोधक पत्थर, पाया अथवा खूंटा. 

यह तो हुई संप्रेषणीयता की बात. समकालीन कविता के समक्ष उपस्थित होने वाली दूसरी चुनौती है वक्तव्य प्रधानता. ‘चौथा सप्तक’ (1979) की भूमिका में अज्ञेय ने इस बात को रेखांकित किया था कि “आज की कविता में वक्तव्य का प्राधान्य हो गया है. उसके भीतर जो आंदोलन हुए हैं और हो रहे हैं वे सभी इस बात को न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि बहुधा इसी को अपने दावे का आधार बनाते हैं.” वे आगे कहते हैं कि “कविता में वक्तव्य तो हो सकता है और वक्तव्य होने से ही वह अग्राह्य हो जाए ऐसा भी नहीं है. लेकिन वक्तव्य के भी नियम होते हैं और उनकी उपेक्षा काव्य के लिए खतरनाक होती है. यह बात उतनी ही सच है जितनी यह कि काव्य में कवि वक्ता के रूप में भी आ सकता है, लेकिन उत्तम पुरुष के प्रयोग की जो मर्यादाएँ हैं उनकी उपेक्षा करने से कविता का ‘मैं’ कवि न होकर एक अनधिकारी आक्रांता ही हो जाता है. आज कविता पर एक दावे करने वाला ‘मैं’ बुरी तरह छा गया है. कविता में ‘मैं’ भी निषिद्ध नहीं है, दावे भी निषिद्ध नहीं हैं, कविता प्रतिश्रुत और प्रतिबद्ध भी हो सकती है, लेकिन कहाँ अथवा कहाँ तक इन सबका काव्य में निर्वाह हो सकता है और कहाँ ये काव्य के शत्रु बन जाते हैं यह समझना आवश्यक है.” (अज्ञेय, ‘काव्य का सत्य और कवि का वक्तव्य’, भूमिका, चौथा सप्तक). 

समकालीन कविता में प्रायः यह देखा जा सकता है कि कवि अपने बारे में और कविता के बारे में ज्यादा बोलते हैं. वस्तुतः कविता को लाक्षणिक और सांकेतिक होना चाहिए न कि विवरणात्मक. लेकिन आज की कविता बड़ी सीमा तक विवरणात्मक है और वक्तव्य के रूप में, अर्थात गद्य के रूप में, सामने आती है. इसका निराकरण करने के लिए कवि संवादात्मकता की तकनीक अपनाते दिखाई देते हैं. उदाहरण के लिए धूमिल की कविता ‘मोची राम’ वक्तव्य प्रधान होते हुए भी पूरी तरह से संवादात्मक कविता है. देखें – 

“राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे/ क्षण-भर टटोला/ और फिर/ जैसे पतियाये हुये स्वर में/ वह हँसते हुए बोला-/ बाबूजी सच कहूँ - मेरी निगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है/ जो मेरे सामने/ मरम्मत के लिए खड़ा है।“ (धूमिलमोची राम) 

आज के उत्तरआधुनिक परिप्रेक्ष्य में विमर्शों की कविता को देखा जा सकता है - स्त्री विमर्श की कविताएँ, दलित विमर्श की कविताएँ, अल्पसंख्यक विमर्श की कविताएँ आदि. एक तरह से ये कविताएँ आत्मवक्तव्य सी बनती जा रही हैं. ऐसे रचनाकारों को यह समझना आवश्यक है कि आपबीती को जगबीती कैसे बनाया जाय. 

समकालीन कविता के सामने जो तीसरी चुनौती उपस्थित है वह है अभिव्यक्ति का खतरा. मुक्तिबोध ने कहा था कि ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे.’ आज के समय में भी अभिव्यक्ति के खतरे हैं क्योंकि पग पग पर विमर्शों का दबाव है. कवि की वैचारिकता विमर्शों के कारण दबाव महसूस करती है. यह भी देखा जा सकता है कि विमर्शों के नाम पर नकली संवेदना अर्थात कल्पित यथार्थ को भी कविता में जगह दी जा रही है. एक ओर सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था का दबाव है तो दूसरी ओर बाजार का सर्वव्यापी दबाव है. बाजार ने मनुष्य को इतना प्रभावित कर दिया है कि उसका जीवन भी बाजार में खरीदी बेची जाने वाली वस्तु बनता जा रहा है. उसकी कल्पनाएँ एवं संवेदनाएँ सूख रही हैं. भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने कविता को भी नहीं छोड़ा है. आज की कविता का बड़ा हिस्सा भूमंडलीकरण और बाजारवाद के बीच पिसते हुए मनुष्य की अभिव्यक्ति है. सपनों तक पर बाजार के छा जाने की त्रासदी को कविता में कैसे अभिव्यक्त किया जाय - यह प्रश्न हमारे कवियों के समक्ष उपस्थित है. इस समय उत्तरआधुनिकता से आगे बढ़कर एकदम अस्थिर प्रकृति वाली तरल आधुनिकता भी कवि की चिंता का विषय है. अंततः ‘एक परोपकारी राजा था,/ एक करुणामयी रानी थी,/ एक दुष्ट राक्षस था .... / ऐसी कहानियों के अंत बदल देने चाहिए/ बच्चे बड़े हो रहे हैं.’ (पंकज राग, कहानियों का अंत)

समकालीन साहित्य की चुनौतियाँ : एक चर्चा

पिछले डेढ़ सौ – दो सौ वर्षों में हमारे परिवेश और चिंतन में बड़े बदलाव आए हैं. वैज्ञानिक क्रांति के साथ आधुनिकता की आहटें सुनाई देने से लेकर उत्तरआधुनिकता और उससे जुड़े विमर्शों तक की इस यात्रा ने हमें आज जिस मुकाम पर ला खड़ा किया है वहाँ हम सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक मोर्चों पर नई नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो भी सब ओर काफी धुंधलका बरसता दिखाई देता है. इस धुंधलके में रचनाकार को अपनी राह तलाशने की बड़ी चुनौती का सामना है. समकाल की वे चुनौतियाँ उन स्थायी चुनौतियों के अतिरिक्त हैं जिनका सामना वस्तु, विचार, अभिव्यक्ति और शिल्प की खोज के स्तर पर किसी भी रचनाकार को करना होता है. 

इन चुनौतियों से जुड़े विविध पहलुओं पर विचार करने के लिए गत 30-31 अक्टूबर 2014 को कर्नाटक विश्वविद्यालय (धारवाड़), अयोध्या शोध संस्थान (अयोध्या) और साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था (उल्हासनगर) के संयुक्त तत्वावधान में धारवाड में ‘समकालीन हिंदी साहित्य की चुनौतियाँ’ विषयक द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया. उद्घाटन सत्र की मुख्य अतिथि अमेरिका से पधारी देवीनागरानी थीं. विशिष्ट अतिथियों में डॉ. विनय कुमार (हिंदी विभागाध्यक्ष, गया कॉलेज), डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह (निदेशक, अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या), डॉ. प्रदीप कुमार सिंह (सचिव, साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था, उल्हासनगर), डॉ. राम आह्लाद चौधरी (पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कोलकाता), डॉ. प्रभा भट्ट (अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कर्नाटक विश्वविद्यालय), डॉ. एस. के. पवार (कर्नाटक विश्वविद्यालय) और डॉ. बी. एम. मद्री (कर्नाटक विश्वविद्यालय) शामिल थे. 

उद्घाटन भाषण में देवी नागरानी ने कहा कि उन्हें भारत और अमेरिका में कोई विशेष अंतर नहीं दीखता क्योंकि जब कोई भारत से विदेश में जाते हैं तो वे सभ्यता, संस्कृति और संस्कार को भी अपने साँसों में बसाकर ले जाते हैं. एक हिंदुस्तानी जहाँ जहाँ खड़ा होता है वहाँ वहाँ एक छोटा सा हिंदुस्तान बसता है. उन्होंने भाषा और संस्कृति के बीच निहित संबंध को रेखांकित करते हुए कहा कि विदेशों में तो ‘हाय, बाय और सी यू लेटर’ की संस्कृति है जबकि हमारे भारत में विनम्रता से अभिवादन करने का रिवाज है. लेकिन आजकल यहाँ कुछ तथाकथित लोग विदेशी संस्कृति को अपनाकर हमारी संस्कृति की उपेक्षा कर रहे हैं जबकि विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय अपनी भाषा और संस्कृति को बचाए रखने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. विश्वा (सं. रमेश जोशी), सौरभ (सं. अखिल मिश्रा), अनुभूति एवं अभिव्यक्ति (सं. पूर्णिमा वर्मन) आदि अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ अंतर्जाल के माध्यम से हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति को बचाए रखने में महती भूमिका निभा रही हैं. उन्होंने सबसे अपील की कि ‘हमें अपनी भाषा को, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को बचाए रखने के लिए कदम उठाना चाहिए चूँकि भाषा ही हमें विरासत में प्राप्त हुई है. अतः इसे सींचना और संजोना हमारा कर्तव्य है.’ 

साहित्य को अंधेरा चीरने वाला प्रकाश बताते हुए डॉ. राम अह्लाद चौधरी ने कहा कि ‘आज प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की चुनौती साहित्यकारों के समक्ष है. भारतीय साहित्य में इतिहास, दर्शन और परंपरा का संगम होता है. लेकिन आज के साहित्य में यह संगम सिकुड़ता जा रहा है. समाकीलन साहित्य के सामने एक और खतरा है अभिव्यक्ति का खतरा. गंभीरता और जिम्मेदारी पर आज प्रश्न चिह्न लग रहा है क्योंकि सही मायने में साहित्य के अंतर्गत लोकतंत्र का विस्तार नहीं हो रहा है. हाशियाकृत समाजों को केंद्र में लाना भी आज के साहित्य के समक्ष चुनौती का कार्य है. आलोचना के अंतर्गत भी गुटबाजी चल रही है. आलोचना पद्धति के मानदंड को बदलना आवश्यक है. साहित्य का कारपोरेटीकरण हो रहा है. सौंदर्य और प्रेम साहित्य के बुनियाद हैं. साहित्य को प्रवृत्तिमूलक दृष्टिकोण से देखना अनुचित है. जब तक उसके स्रोत तक नहीं पहुँचेंगे तब तक सिर्फ प्रवृत्ति के आगे चक्कर लगाते ही रहेंगे. साहित्य हाथ छुड़ाने का काम नहीं बल्कि हाथ थामने का काम करता है. एक दूसरे को जोड़ने काम करता है.’ 

समकालीन रचनाकार एक ऐसे वातावरण में जी रहा है जहाँ यथार्थ को समग्र रूप में देखने के बजाय टुकड़ों में देखने का प्रचलन है. युगों तक हाशिए पर रहने के लिए विवश विविध समुदाय आज अपनी अस्मिता को रेखांकित कर रहे हैं जिससे विविध विमर्श सामने आए हैं. इस संदर्भ में डॉ. प्रतिभा मुदलियार (मैसूर) ने कहा कि ‘समकालीन हिंदी कविता में मानवाधिकारों से वंचित वर्ग ने अपनी अस्मिता कायम करने के लिए अभिव्यक्ति का शस्त्र अपनाया. हिंदी दलित विमर्श ने एक मुकाम हासिल की है. निर्मला पुतुल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम आदि साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से भोगे हुए यथार्थ को अभिव्यक्त किया है. उनकी रचनाओं में उनकी वैचारिकता को रेखांकित किया जा सकता है. ये रचनाएँ अस्तित्व की लड़ाई की रचनाएँ हैं, विद्रोह और संघर्ष की रचनाएँ हैं. इनमें पीड़ा का रस है. घृणा के स्थान पर प्रेम को स्थापित करना की मुहीम है.’

डॉ. ऋषभदेव शर्मा (हैदराबाद) ने कहा कि समकालीन कविता की चुनौतियों को यदि समझना हो तो पंकज राग की कविता ‘यह भूमंडल की रात है’ को देखा जा सकता है क्योंकि भूमंडलीकरण/ भूमंडीकरण आज की सबसे बड़ी चुनौती है. उन्होंने कहा कि ‘कविता के समक्ष कुछ शाश्वत चुनौतियाँ हैं – विषय चयन से लेकर भाषा, पठनीयता और संप्रेषण तक. कविता का धर्म मनुष्यता को बचाना है. व्यक्ति को जारूक बनाना है. कवि को अपने समय से दो चार होते हुए चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. कविता को लोकमंगल, लोक रक्षण की भूमिका निभाने के लिए नए पैतरों को अपनाना होगा.’ उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि ‘आज के समय में पठनीयता की समस्या अर्थात संप्रेषण की समस्या है. यदि कवि लोक से जुड़ने की अपेक्षा लोकप्रियता से जुड़ जाय तो कविता में गंभीरता की क्षति होती है. समाज को टुकड़ों में बांटने वाली कविता नहीं चाहिए जबकि जोड़ने वाली कविता चाहिए. उपदेशों तथा निबंधों का अनुवाद कविता में नहीं करना चाहिए. जीवन की सच्ची अनुभूति की अभिव्यक्ति सरल शब्दों में होना नितांत आवश्यक है.’

साहित्य की पठनीयता के संकट की चर्चा करते हुए डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (हैदराबाद) ने कहा कि मुख्य चुनौती संप्रेषणीयता की चुनौती है. अर्थात काव्यभाषा की समस्या. जनभाषा का स्तर एक है तथा कविता की भाषा का स्तर एक. प्रायः यह माना जाता है कि साहित्यकार बनना हर किसी के बस की बात नहीं है. यह बात कवि और कविता पर भी लागू होती है. कविता लिखना हर किसी के लिए साध्य नहीं है. जिस तरह साहित्यकार को शब्द और भाषिक युक्तियों का चयन सतर्क होकर करना चाहिए उसी प्रकार कविता में भी शब्दों का सार्थक और सतर्क प्रयोग वांछित है. कवि को इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि उसे किस शब्दावली और भाषा का चयन करना होगा. 

साहित्य को जीवन प्रतिक्रया मानते हुए डॉ. श्रीराम परिहार (खंडवा) ने कहा कि जीवन की जो भी चुनौतियाँ होंगी वे सभी कविता की चुनौतियाँ होंगी. जयशंकर प्रसाद ने भी कहा था कि काव्य जीवन की संकल्पनात्मक अभिव्यक्ति है. श्रीराम परिहार ने इस बात को रेखांकित किया कि भारत और विदेश में मूलभूत अंतर है. विदेश में संस्कृति, धर्म और दर्शन जीवन के हिस्से हैं. लेकिन भारत में धर्म व्यापक है. संस्कृति, समाज और दर्शन सभी धर्म के हिस्से हैं. जीवन में जो आचरण होता है वह कहीं न कहीं धर्म से जुड़ा हुआ होता है. अतः भारतीय साहित्य और कविता को इस दृष्टि से समझना अनिवार्य है.’ उन्होंने यह पीड़ा व्यक्त की कि हम ऐसे आलोचक पैदा नहीं कर पा रहे हैं जो साहित्य के सभी विधाओं को बराबर आदर दे सकें. उन्होंने इस बात को उदाहरणों से पुष्ट करते हुए कहा कि हमारे आलोचक एक रचना को सिर्फ एकांगी दृष्टि से आंकते रहते हैं. उसको समग्रता में नहीं देखते. बैंकों का राष्ट्रीयकरण, डंकल, पेटेंट आदि ने समाज में नवउदारवादी नीति को आगे बढ़ाया जिसके फलस्वरूप भूमंडलीकरण और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ता गया. तीन ‘एम’ – ‘माइंड’, ‘मनी’ और ‘मसल’ पूरी तरह से सभी क्षेत्रों में हावी हो गए. साहित्य भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा. उन्होंने यह अपील की कि साहित्य को एकांगी दृष्टि से न देखें. उसको समग्रता में देखें और समझें. 

संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में कविता, नाटक, उपन्यास और कहानी के समक्ष उपस्थित समकालीन चुनौतियों पर तो चर्चा हुई ही, एक सत्र में राम साहित्य की प्रासंगिकता पर भी विचार विमर्श हुआ जिससे यह बात उभरकर आई कि उत्तरआधुनिकता से आगे तरल आधुनिक होते जा रहे समकालीन विश्व में मनुष्यता, मानवीय संबंध और जीवन मूल्य खतरे में हैं और यह ख़तरा साम्राज्यवादी ताकतों तथा मुनाफाखोर बाजार से उपजी उपभोक्तावादी संस्कृति से है. इसका सामना करने के लिए रचनाकारों को यथार्थ का अंकन करने के साथ साथ मनुष्य और मनुष्य को जोड़ने वाले मूल्यों की स्थापना करने वाले साहित्य की रचना करनी होगी. यह बात भी उभरकर सामने आई कि रचनाकार जब तक अपने पाठक से सीधे संवाद स्थापित नहीं करेंगे और सामाजिक कार्यकर्ता की सक्रिय भूमिका में नहीं उभरेंगे तब तक साहित्य की प्रासंगिकता प्रश्नों के घेरे में रहेगी. 

बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

तेलंगाना की सांस्कृतिक पहचान ‘बतुकम्मा’

स्वायत्त अस्तित्व ग्रहण करने के बाद तेलंगाना राज्य ने 24 सितंबर 2014 से 2 अक्टूबर 2014 तक विराट स्तर पर राजकीय लोकपर्व के रूप में ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार भव्यता के साथ मनाया. इस त्यौहार का संबंध देवी पूजा से है. रोचक तथ्य यह है कि तेलंगाना का एक अन्य लोकपर्व ‘बोनालु’ भी देवी पूजा से ही संबंधित है. 

अतः ‘बतुकम्मा’ पर चर्चा करने से पूर्व संक्षेप में ही सही ‘बोनालु’ की चर्चा अपेक्षित है. ‘बोनालु’ को हैदराबादी भाषा में ‘बोनाल’ कहा जाता है. ‘बोनालु’ शब्द ‘भोजनालु’ (भोजन) का बिगड़ा हुआ रूप है. आषाढ़ मास आधा बीत जाने के बाद शुरू होकर यह पर्व श्रावण के आधा बीतने पर समाप्त होता है. अर्थात एक माह तक मनाया जाता है. इसके साथ एक लोक कथा जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि लगभग डेढ़ सौ साल पहले तेलंगाना में बारिश का मौसम शुरू होते ही आषाढ़ मास में महामारी फैल गई. सब लोग इसे दैवी प्रकोप मानने लगे. देवी माँ को शांत करने के लिए पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, मेले-ठेले का आयोजन किया गया. और तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है. क्रमशः गोलकुंडा, सिंकदराबाद, लाल दरवाजा और पुराने शहर में माह के चार सप्ताह के लिए यह उत्सव मनाया जाता है. प्रसाद के रूप में देवी माँ को नमक और काली मिर्च के साथ पके हुए चावल चढ़ाते हैं. मंदिर में देवी माँ के समक्ष जो चावल का ढेर लग जाता है उसे ‘बल्लम गल्ला’ कहते हैं. इस अवसर पर सोमवार को जुलूस की तैयारी की जाती है. माता के लिए रंगबिरंगे कागजों से सबसे ऊँचा बेंत का झूला तैयार किया जाता है. इस जुलूस का अर्थ है खुशी से माता को उनके ससुराल विदा करना. विदा करने के लिए तो भाई ही जाते हैं. माँ की विदाई के लिए उनके भाई और अंगरक्षक ‘पोतुराजु’ जाते हैं. नदी किनारे झूला और ‘बल्लम गल्ला’ रख दिए जाते हैं और नदी में दिया छोड़कर लोग वापस आ जाते हैं. लोक विश्वास है कि प्रेतात्माएँ भोजन पाकर तृप्त हो जाएँगी अतः कोई अनिष्ट नहीं होगा और देवी माँ सबकी रक्षा करेगी. 

इसी तरह ‘बतुकम्मा’ भी तेलंगाना का विशिष्ट त्यौहार है. यह त्यौहार भाद्रपद मास की समाप्ति के दिन अर्थात अमावस से शुरू होता है. स्मरणीय है कि आश्विन मास में भारतवर्ष में दुर्गा नवरात्र धूमधाम से हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. भारत के विभिन्न भागों में यह त्यौहार अलग अलग ढंग से मनाई जाती है. इस अवसर पर उत्तर भारत में रामलीला का आयोजन होता है तो गुजरात में डांडिया या गरबा का. आंध्र प्रदेश में दशहरे के रूप में मनाया जाता है तो तेलंगाना में ‘बतुकम्मा’ के नाम से प्रचलित है. अलग तेलंगाना राज्य बनने के बाद इस त्यौहार को तेलंगाना राज्य त्यौहार की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है. यह पर्व महालय अमावस के दिन शुरू होकर दुर्गाष्टमी के दिन समाप्त होता है. अंतिम दिन को ‘सद्दुला बतुकम्मा’ या ‘पेद्दा बतुकम्मा’ (बड़ी बतुकम्मा/ महाबतुकम्मा) कहा जाता है. इसके बाद होता है ‘बोड्डम्मा’ (गौरी पूजन) जिसके लिए तालाब की मिट्टी से माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाई जाती है. यह भी मान्यता है कि ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार जहाँ वर्षा ऋतु के समाप्त होने की निशानी है तो ‘बोड्डम्मा’ शरद ऋतु की शुरूआत की निशानी है. ‘बतुकम्मा’ दो शब्दों की संधि से बना हुआ शब्द है, ‘बतुकु’ (जीवन) + ‘अम्मा’ (माँ) अर्थात जीवनदायिनी माँ. इसका एक और अर्थ भी है कि ‘हे माँ जागो सबकी रक्षा करो’. 

बतुकम्मा पर्व वर्षा ऋतु के समाप्त होने का प्रतीक है. बारिश की समाप्ति के बाद जीवन की रक्षा के लिए देवी माँ के धन्यवाद स्वरूप यह उत्सव मनाया जाता है. विशेष रूप से फूलों से ‘बतुकम्मा’ को सजाते हैं. बरसात में हर जगह जंगली पौधे उग आते हैं. तेलंगाना के क्षेत्र में इस मौसम में हर जगह मद्धम सफेद रंग के ‘गुनुका’ (Celosia) के फूल उग आते हैं. इन्हें बतुकम्मा के फूल कहते हैं. बतुकम्मा को सजाने के लिए इन फूलों का प्रयोग किया जाता है. इन फूलों के साथ साथ तंगेडू (अमलतास), आक, कनेर, घास के फूलों का भी प्रयोग किया जाता है. पहले तो लोग इन फूलों को अपने आसपास के पेड़-पौधों से तोड़ लाते थे लेकिन आजकल जंगली फूलों के स्थान पर गेंदे, गुलाब, गुलदाउदी, गुड़हल और सजावटी फूलों का उपयोग किया जाने लगा है जो बाजार में उपलब्ध हैं. 

अब एक नजर ‘बतुकम्मा’ बनाने की विधि पर. पीतल की थाल जिसे ‘तांबलम’ कहते हैं उसमें गोबर की गोल से सतह बनाई जाती है और उस पर गुनुका (बतुकम्मा के फूल) के फूलों को इस तरह सजाया जाता है कि डंठल भीतर की ओर हो और बाहर फूल दिखाई दें. इन डंठलों पर फिर गोबर से सतह बनाई जाती है और उस पर फिर फूलों से सजाया जाता है. इस तरह परत दर परत पिरामिड आकार में फूलों से सजाया जाता है. शिखर पर कुम्हडे का फूल रखकर उस पर दिया जलाया जाता है. फूल खुशहाली का प्रतीक है और दिया प्रकाश का. आजकल गोबर के स्थान पर बेंत से पिरामिड आकार बनाया जाने लगा है और उसे रंगबिरंगे फूलों से सजाया जाता है. अष्टमी के दिन बतुकम्मा को लेकर स्त्रियाँ नदी किनारे पहुँचती हैं और बतुकम्मा के चारों ओर गोलाकार बनाकर गीत गाते हुए नाचती हैं. इसे स्त्री-बहनापे का भी प्रतीक कहा जा सकता है. गीत-संगीत और नृत्य के बाद ‘बतुकम्मा’ को नदी या तालाब में विसर्जित करते हैं और प्रसाद के रूप में ‘मलीदा’ (बाजरे और जवारी के आटे को मिलकर बनाई गई रोटी में गुड़ मिलाकर बनाया गया नैवेद्य) बाँटते हैं. 

‘बतुकम्मा’ त्यौहार से संबंधित अनेक लोक कथाएँ प्रचलित हैं. उनमें से कुछ इस प्रकार हैं – कहा जाता है कि चोल वंश के राजा धर्मंगा और उनकी पत्नी सत्यवती की सौ शूरवीर संतानें युद्ध में एक साथ शहीद हो जाती हैं. राजपाट सब छोड़कर राजा अपनी पत्नी समेत वनवास चले जाते हैं और संतान की कामना करते हुए माँ से याचना करते हैं. माँ की कृपा से बेटी का जन्म होता है लेकिन जन्म से ही उसे तरह तरह के खतरों का सामना करना पड़ता है. तब उस बच्ची का नामकरण ‘बतुकम्मा’ किया जाता है. इस कथा से संबंधित एक प्रचलित लोकगीत भी है जो आमतौर पर बतुकम्मा के अवसर पर गाया जाता है - बतक्म्मा बतकम्मा उय्यालो, बंगारू बतकम्मा उय्यालो/ आनाटी कलाना उय्यालो, धर्मांगुडनु राजु उय्यालो/ आ राजु भार्यायु उय्यालो, अति सत्यवती अंदुरु उय्यालो/ ...../ कलिकी लक्ष्मीनि गूर्ची उय्यालो, गनता पोंदिरिंका उय्यालो/ ..../ सत्यवती गर्भमुना उय्यालो, जनियिंचे श्रीलक्ष्मी उय्यालो. तेलंगाना क्षेत्र में आज भी यदि किसी घर में जन्म लेते ही बच्ची मर जाती है तो ऐसे माँ-बाप देवी माँ के दरबार में जाकर मन्नत मांगते हैं कि यदि बेटी जन्म लेगी तो उसका नाम ‘बतुकम्मा’ रखेंगे. 

एक और कथा भी प्रचलित है. बलात्कार से त्रस्त एक अबोध बालिका नदी में कूदकर आत्महत्या कर लेती है. गाँव वाले उस लड़की को ‘बतुकम्मा’ (जीवित हो जाओ, माँ) कह कर आशीर्वाद देते हैं. लोग आज भी यह मानते हैं कि ‘बतुकम्मा’ किसी भी अबोध बच्ची के साथ ऐसा कुकृत्य नहीं होने देगी. एक और मिथकीय कथा इस त्यौहार से जुड़ी हुई है. वह यह कि दक्ष के यज्ञ में सती देवी बिना बुलाए चली जाती हैं यह सोचकर कि गुरु और पिता के घर बिन बुलाए जाया जा सकता है. परंतु वहाँ दक्ष शिव की निंदा करते हैं तो सती इस अपमान को सह नहीं पाती और प्राण त्याग देती है. इसी की स्मृति में सती देवी के पुनः जीवित होने की कामना करते हुए फूल और हल्दी से गौरी माता की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है. 

वस्तुतः ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार धरती, पानी और मनुष्य के बीच निहित संबंध को उजागर करता है. बतुकम्मा के लिए प्रयुक्त फूलों में औषधीय गुण होते हैं जो पानी के स्वच्छ रखने में सहायक होते हैं. जहाँ बतकम्मा फूलों से सजती हैं वहीं ‘बोड्डम्मा’ तालाब की मिट्टी से बनती है. माँ दुर्गा की मूर्ति को तालाब की मिट्टी से बनाकर पूजा-अर्चना करते हैं तथा तालाब में विसर्जित करते हैं ताकि तालाब हमेशा पानी से लबालब रहे. 

2 अक्टूबर 2014 को दुर्गाष्टमी के दिन शाम को हैदराबाद स्थित टैंक बंड पर ‘बतुकम्मा’ का पर्व बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया. इस अवसर पर विभिन्न अंचलों के लोककलाकार यहाँ एकत्र हुए और यक्ष गान, शिव तांडव, विभिन्न अंचलों के लोक नृत्य आदि का प्रदर्शन किया गया. यह त्यौहार प्रकृति की सुंदरता और तेलंगाना के लोगों की सद्भावना का प्रतीक बन गया है. आज यह पर्व तेलंगाना राज्य की सांस्कृतिक पहचान बन चुका है.

शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

प्रो. एन. गोपि से साक्षात्कार


प्रो. एन. गोपि से डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा का संवाद 

[तेलुगु साहित्य जगत में नई काव्य विधा ‘नानीलु’ के प्रवर्तक प्रो. एन. गोपि का जन्म 25 जून, 1948 को भुवनगिरि (जिला नलगोंडा, तेलंगाना क्षेत्र, आंध्र प्रदेश) में हुआ. डॉ. एन. गोपि तेलुगु साहित्य जगत में कवि, समीक्षक, अनुसंधानकर्ता, यात्रावृत्तकार, संपादक और स्तंभ लेखक के रूप में सुप्रसिद्ध हैं. बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. गोपि जन्मजात कवि हैं. समकालीन तेलुगु कवियों में अग्रगण्य डॉ. गोपि को ‘कालान्नि निद्र पोनिव्वनु’ (समय को सोने नहीं दूँगा) काव्य संकलन पर सन 2001 में केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया. आपके अब तक प्रकाशित ग्रंथों में 19 काव्य संग्रह, 6 निबंध संग्रह, 3 शोधकार्य, 4 यात्रावृत्त, 2 अनुवाद, 2 समीक्षा, 3 आलेख संग्रह और 4 पाठ्यपुस्तकें सम्मिलित हैं. आपके लगभग सारे काव्य संग्रह किसी न किसी संस्था से पुरस्कृत हुए हैं. उनमें से प्रमुख हैं – तंगेडु पूलु (1976, पीले फूल), मइलु राइ (1981, मील का पत्थर), चित्र दीपालु (1989, रंगीन रोशनी), वंतेना (1993, सेतु), कालान्नि निद्र पोनिव्वनु’ (1998, समय को सोने नहीं दूँगा), नानीलु (1998, नन्हे मुक्तक), चुट्ट कुदुरु (2000, जूड़ा), एंड पोडा (2002, धूप का निशान) जलगीतम (2002, जलगीत), गोपि नानीलु (2002, गोपि के नन्हे मुक्तक), मरो आकाशम (2004, दूसरा आकाश), अक्षराललो दग्धमै (2006, अक्षर दग्ध), दीपम ओका एकांतम (2007, दीप अकेला), गोवा लो समुद्रम (2008, गोवा में समुद्र), मा ऊरु महाकाव्यम (2010, मेरे गाँव का महाकाव्य), राति केरटालु (2011, पथरीला ज्वार) और हृदय रश्मि (2013, हृदय रश्मि) आदि. आपकी अनेक कविताओं का हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, नेपाली, तमिल, मलयालम, मराठी, कोंकणी, डोगरी, मैथिली, कन्नड, पंजाबी, संस्कृत, ओड़िया, सिंधी, मणिपुरी और फारसी में अनुवाद हो चुका है. 2008 में पोट्टि श्रीरामुलु तेलुगु विश्वविद्यालय के कुलपति के कार्यभार से मुक्त होने के उपरांत संप्रति वे हैदराबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं. इस समय वे केंद्रीय साहित्य अकादमी के तेलुगु सलाहकार बोर्ड के संयोजक भी हैं. संपर्क सूत्र : 13-1/5 बी, श्रीनिवासपुरम, रामंतापुर, हैदराबाद – 500 013. 

प्रस्तुत हैं प्रो. एन. गोपि से ‘बहुब्रीहि’ के लिए 5 अप्रैल 2014 को अपराह्न 4 बजे से रात्रि 8 बजे तक लिए गए साक्षात्कार के मुख्य अंश.]

अक्षर ही मेरी धड़कन है 

घर दूर हो गया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे 

  • आपका जन्म तेलंगाना क्षेत्र के एक गाँव में हुआ. वहाँ से चलकर आप समकालीन तेलुगु कविता के शिखर स्थान तक पहुँचे. आपकी यह यात्रा कई तरह के उतार-चढ़ाव वाली रही होगी. हिंदी जगत के पाठक आपकी इस जीवन यात्रा और रचना यात्रा के बारे में जानना चाहेंगे. आपका पारिवारिक, शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश कैसा रहा – बचपन और किशोर अवस्था में?
मेरा जन्म नलगोंडा जिले के भुवनगिरि में निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ. अब यह तालुका है. मंडल हेडक्वार्टर्स. मेरा परिवार सुसंपन्न परिवार नहीं था. मेरे पिताजी श्री चेन्नय्या और माँ श्रीमती लक्ष्मम्मा ने जो संस्कार मुझे दिए वे आज भी मेरे जीवन का अटूट हिस्सा हैं. मुझे परिवार से शिक्षा और साहित्य की कोई प्रेरणा विरासत में नहीं मिली. निम्न मध्यवर्गीय परिवार की स्वाभाविक आर्थिक कठिनाइयों के बीच मेरा बचपन गुजरा. प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा 12वीं कक्षा तक गाँव में ही संपन्न हुई. हमारे गाँव में एक ‘तालूका शाखा ग्रंथालय’ था. वहाँ बैठकर खूब किताबें पढ़ता था. चाहे समझ में आए या न आए इससे कोई मतलब ही नहीं था. एक तरह का जूनून ही कहिए, बस बैठकर किताबें पढ़ लेता था. लगभग तीन या चार हजार किताबें. आठवीं कक्षा में ही विश्वनाथ सत्यनारायण के प्रसिद्ध महाकाय उपन्यास ‘वेयिपडगलु’ को पढ़ डाला. एक तरह से वह मेरे साहित्यिक जीवन की नींव है. 

मैंने धीरे धीरे कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं. वैसे तो बचपन से ही कविता की ओर मेरा रुझान थी. 8वीं कक्षा में मैंने पहली बार कविता लिखी. वही मेरी साहित्य यात्रा का श्रीगणेश था. पत्र-पत्रिकाओं में भी तभी से मेरी कविताएँ छापने लगीं. मछलीपट्टनम से प्रकाशित होने वाली ‘कृष्णा पत्रिका’ में कोई रचना छप जाए तो यह बहुत बड़ी बात मानी जाती थी. 13 साल की उम्र में ही ‘कृष्णा पत्रिका’ में मेरी कविताएँ छपने लगीं. बैंगलोर से प्रकाशित ‘प्रजामत’ में भी छपीं. तब से लेकर मैं नियमित रूप से हर दिन कविताएँ लिखता रहा. जिस दिन कविता नहीं लिखी जाती उस दिन खाना भी नहीं रुचता था. अक्षर ही मेरा रक्तस्पंदन है, मेरी धड़कन है. यही वह समय था जब मैंने डॉ. सी. नारायण रेड्डी का काव्य संग्रह ‘स्वप्न भंगमु’ (स्वप्न भंग) पढ़ा था. उससे मैं काफी प्रभावित हुआ. मैंने उन्हें पत्र लिखा. उन्होंने मेरे पत्र का उत्तर दिया तो उनसे लगातार पत्राचार चल पड़ा. 1963 की बता है. उनसे मिलने के लिए पहली बार ट्रेन की यात्रा की और हैदराबाद पहुँचा. उस समय वे आर्ट्स कॉलेज में प्राध्यापक थे और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र की तेलुगु पत्रिका ‘स्रवंति’ के संपादक भी थे. उस समय वे शिखर पर थे. उन्होंने मेरी दो कविताओं ‘अद्वैतम’ (अद्वैत) और ‘कन्नीरू’ (अश्रु) को ‘स्रवंति’ में स्थान दिया. उन दिनों मैंने एक ही दिन में ‘शशि’ के आत्मबोधन से एक शतक काव्य की रचना की जो ‘नेता’ में प्रकाशित हुआ. उसे दिवाकर्ल वेंकटावधानी, सी. नारायण रेड्डी, दाशरथि कृष्णमाचार्य और विश्वनाथ सत्यनारायण जैसे महान साहित्यकारों का आशीर्वाद मिला. इस सबसे मेरे मन में कवि बनने की इच्छा बलबती होती गई. परिणामस्वरूप प्रवेश मिलने के एक महीने के बाद ही इंजिनीयरिंग की पढ़ाई छोड़ दी और हैदराबाद के आर्ट्स कॉलेज में बी.ए. में प्रवेश लिया. उस जमाने में डॉ. सी. नारायण रेड्डी का काफी प्रभाव था मुझ पर. तेलुगु, संस्कृत और भाषाविज्ञान विषय लेकर मैंने बी.ए. किया. निज़ाम स्वर्ण पदक के साथ साथ नेशनल मेरिट स्कॉलरशिप भी प्राप्त हुई. उसी से मैंने एम.ए. (तेलुगु) में प्रवेश लिया और यहाँ भी प्रथम श्रेणी के साथ गुरजाडा अप्पाराव स्वर्ण पदक प्राप्त किया. 

मेरी काव्य रुचि को ‘सृजना’ पत्रिका की कविता प्रतियोगिता से भी प्रेरणा मिली. यहाँ मेरी कविता ‘कत्ति कार्चिना कन्नीरू’ (तलवार की अश्रुधारा) के लिए विशिष्ट पुरस्कार प्राप्त हुआ. शिक्षा के साथ साथ मेरा साहित्य सृजन निर्बाध गति से चलता रहा. मेरे अंदर तेलंगाना बोली के प्रति विशेष रुझान है. मैं तरह तरह की क्षेत्रीय बोलियों की मिमिक्री भी करता था. मैं स्टेज आर्टिस्ट भी था. आगे चलकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के समय में महबूब नगर जिले में अनौपचारिक शैक्षणिक कार्यक्रम की शुरूआत हुआ तो मुझे उस परियोजना के अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया. मेरे अधीन 100 गाँव थे. इस अवसर के कारण मेरे ज्ञान की सीमा का विस्तार हुआ. 1973 में महबूब नगर में सूखा पड़ा हुआ था. उस स्थिति से विचलित होकर मैंने एक कविता लिखी थी जिसकी पंक्तियाँ हैं – अंगी बरुवैइंदी/ अन्नम विगटैइंदि (कपड़े बोझ हो गए हैं/ भोजन अखाद्य). तो ऐसे चली मेरी साहित्य यात्रा. 

  • आपकी प्रथम प्रकाशित पुस्तक कौन सी थी? और आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कहाँ से मिली? 
मेरा पहला काव्य संग्रह 1976 में ‘तंगेडु पूवुलू’ (कसोद के फूल) नाम से प्रकाशित हुआ. जैसा मैंने पहले भी कहा, आरंभिक दिनों में डॉ. सी. नारायण रेड्डी का काफी प्रभाव मुझ पर था. सिर्फ मुझ पर ही नहीं, बहुत सारे रचनाकारों को उन्होंने प्रभावित किया. उस समय ग्रांथिक तेलुगु का प्रभाव था. इसके विपरीत, तेलंगाना क्षेत्र में उर्दू ज्यादा प्रचलित थी - यहाँ उस समय तेलुगु भाषा उतनी प्रचलन में नहीं थी. इस क्षेत्र में तेलुगु भाषा के प्रचार-प्रसार का श्रेय ‘हरिकथा’ को जाता है. हम बचपन में ‘हरिकथा’ सुनने जाते थे. मैं उस समय नोटबुक और कलम लेकर बैठता था. जो भी पद हरिकथाकार के मुख से सुनता था उन्हें नोट करके बाद में उनके अर्थ शब्दकोश में ढूँढ़ता था तथा उनके द्वारा प्रयुक्त शास्त्रीय शब्दों का प्रयोग अपनी कविताओं में संदर्भानुसार करता था. अगर मैं कहूँ कि ‘हरिकथा’ के ही माध्यम से मैंने तेलुगु भाषा सीखी तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है. हरिकथाओं के माध्यम से ही रामायण, महाभारत, भागवत आदि घर घर में पहुँचे और इनके पात्र हमारे परिवारों के सदस्य बन गए. कहा जा सकता है कि साहित्य सृजन में ‘हरिकथा’ ने भी मुझे प्रभावित किया. 
  • आप तेलुगु सहित भारतीय साहित्य के गहन अध्येता रहे हैं. विशेष रूप से वेमना पर आपका कार्य अति चर्चित रहा है. वेमना के प्रति अपने रुझान और लगाव को आप किस रूप में देखते हैं? 
एम.ए. (तेलुगु) के बाद स्वतः ही पीएचडी करने की इच्छा जगी. मेरे पिताजी अशिक्षित होते हुए भी संदर्भानुसार वेमना के पद सुनाया करते थे. आंध्र प्रदेश में वेमना तो हर घर में पाए जाते हैं. और हर सदस्य के मुँह से वेमना के पद स्वतः ही फूट पड़ते हैं. वे साधारण जनता के बीच प्रसिद्ध थे. आज भी हैं. वे विलक्षण कवि हैं. पिताजी के द्वारा दिए हुए इस संस्कार के कारण मैं बचपन से वेमना के जीवन और उनके पदों के प्रति आकर्षित था. अब मेरा भाग्य देखिए, हैदराबाद की ओल्ड सिटी में एम.बी. साईंस कॉलेज में लेक्चर की नौकरी तथा पीएचडी सीट एक साथ प्राप्त हुई. मैंने वेमना को शोध का विषय बनाया. उन्हीं दिनों शादी हुई; बेटा पैदा. आर्थिक पारिस्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. जिंदगी की जिम्मेदारियों ने मुझे बहुत ही गंभीर बना दिया. सुबह से लेकर शाम तक नौकरी करता और शाम को पीएचडी के लिए अध्ययन. 

मैं आपको बता दूँ कि वेमना का अध्ययन ताड़ पत्रों पर हस्तलिखित ग्रंथों के अध्ययन के बिना पूरा नहीं हो सकता. इसके लिए मैं मद्रास पहुँचा. इससे पहले तेलुगु के प्रसिद्ध कवि आरुद्रा के घर पहुँचा क्योंकि उन्होंने वेमना पर कुछ काम किया था. वे ही मुझे मद्रास विश्वविद्यालय परिसर में स्थित मद्रास ओरिएंटल लाइब्रेरी ले गए जो हस्तलिखित पांडुलिपियों के लिए प्रसिद्ध है. वहाँ पहुँचा तो मेरा दिमाग चकरा गया. सामन्य रूप से लोग ‘वेमना शतक’ को जानते हैं. अर्थात 100 पद. पर वहाँ जाने के बाद मुझे पता चला कि वेमना के लगभग 3000 से ज्यादा पद हैं. सभी ताड़ पत्रों पर हस्तलिखित. उस समय तो आधुनिक टेकनालॉजी नहीं थी. जीरोक्स की सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी. तो क्या करता ! बैठकर लिखने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं था. फिर अगले दिन पहुँचा यह तय करके कि सुबह से लेकर शाम तक 150 पद अपनी कॉपी में लिखूँगा. इस तरह पाँच महीने वहाँ रहा और 1500 पदों को उनके पाठांतर सहित अपनी कॉपी में उतार कर लाया. उस सामग्री को मैंने अपने शोध का आधार बनाया. मैं इस घटना को अपनी जिंदगी का एक वर्तन बिंदु (टर्निंग पाइंट) मानता हूँ. उस वक्त मैंने यह महसूस किया कि ज्ञान निरंतर कार्य करने से आता है. यह वह समय था जब 25 साल के लड़के में मानसिक और बौद्धिक परिवर्तन हुआ. मैंने चार साल की अवधि में वेमना पर अपना शोधकार्य संपन्न किया जो ‘प्रजाकवि वेमना’ शीर्षक से पुस्तकाकार पाठकों के सामने आया. अब तक उसके छह पुनर्मुद्रित संस्करण आ चुके हैं. वेमना पर यह एक तरह से प्रामाणिक कार्य हो गया. हैदराबाद बुक ट्रस्ट ने मुझसे ‘वेमना वादम’ (वेमना का सिद्धांत) शीर्षक से वेमना के पदों की व्याख्या भी लिखवाई. उसके भी छह पुनर्मुद्रण हो चुके हैं. दो लाख कॉपियाँ बिक गईं. यह सोचकर मैं रोमांचित हूँ कि अशिक्षा और असुविधा के अंधेरे में जन्मा ‘गोपन्ना’ तेलुगु साहित्यिकों के लिए ‘वेमना गोपि’ बन गया. ...तो यह है मेरी जीवन यात्रा – गोपि से वेमना गोपि तक ! 
  • वेमना और भारतीय भाषाओं के संत साहित्य के बीच क्या आपको कोई संपर्क सूत्र दिखाई देता है? 
सपर्क सूत्र तो सपष्ट रूप से दिखाई देता है. मैं तो मानता हूँ कि वेमना कबीर की तरह ही हैं. इसमें कोई दो राय नहीं. मैंने कबीर से तुलना करने के लिए हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘कबीर’ का अध्ययन किया. जिस तरह से एक छोटा बच्चा पढ़ता है उस तरह से मैंने उस किताब का एक एक अक्षर पढ़ डाला और उसे आत्मसात करता गया. भारतीय भाषाओं के संतों में वेमना के जैसे और कौन हैं इसका भी अध्ययन मैंने किया और यह पाया कि कबीर, तिरुवल्लुवर और अरुणगिरिनाथर (तमिल), गुरुनानक, तुकाराम, सर्वज्ञ, पोतुलूरी वीरब्रह्मेंद्र स्वामी, येगंटि लक्षमप्पा, दूदेकुला सिद्धप्पा, रामदासु, त्यागय्या ही नहीं आधुनिक काल में गुरजाडा और कालोजी आदि भी वेमना के समशील हैं. वेमना वस्तुतः लोक-अद्वैतवादी हैं. इसे अचल (अद्वैत) ही कहा जाता है. इससे एक बात स्पष्ट है कि भारतीय संतों की विचारधारा मूलतः एक ही है. इन सबको पिरोने वाला अंतःसूत्र एक ही है. भले ही नाम अलग अलग हों, संप्रदाय अलग अलग हों, पर अंतःसूत्र एक ही है – अद्वैत. बाहरी आक्रमणों से जब-जब भारतीय जीवन मूल्य खतरे में पड़े, तब-तब संतों ने भारतीयता को नष्ट होने से अपनी वाणी द्वारा बचाया. 
  • संतों और भक्तों के साहित्य को आज की ग्लोबल दुनिया में आप किस तरह प्रासंगिक मानते हैं? 
देखा जाय तो इस तरह के साहित्य की जरूरत आज ही सबसे जयादा है. आज का मनुष्य भोगविलास में इतना लिप्त है कि उसकी मानसिक शांति नष्ट हो रही है. संयुक्त परिवार टूट रहे हैं. संयुक्त परिवारों में हमें मानवता का प्रशिक्षण प्राप्त होता था. मानवता आकाश से नहीं टपकती. वह हमारे घर-आँगन से पल्लवित होती है. एक तरह से कहें तो मूल्यों की शिक्षा हम परिवार से ग्रहण करते हैं. सुख-दुःख सब एक-दूसरे से बाँटने की शिक्षा, बड़ों के आदर की शिक्षा आदि. लेकिन आज हम यह देख रहें हैं कि धन कमाने के लिए हम इधर-उधर भटक रहे हैं और घर से दूर जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में परिवार से मिलने वाले मूल्यों के प्रशिक्षण का टूटना स्वाभाविक है. इसके फलस्वरूप ऐसी स्थितियों का हमें सामना करना पड़ रहा है कि छोटी से छोटी बात भी हमें विचलित कर देती है. छोटी विपत्ति को भी हम झेलने की स्थिति में नहीं हैं. ऐसी स्थिति में संतों की वाणी प्रासंगिक प्रतीत होती है क्योंकि वह मौलिक संवेदना से उद्भूत वाणी है. उनके साहित्य में जीवन के उतार-चढ़ाव, विसंगतियों और विद्रूपताओं आदि का समावेश है. अतः मैं यह मानता हूँ कि यदि हम इन संतों के साहित्य को सही अर्थ में ग्रहण करेंगे तो जीवन में अशांति के लिए जगह नहीं होगी. 
  • यहाँ रुककर एक प्रश्न तेलुगु भाषा के बारे में. तेलुगु भाषा की प्राचीनता के संबंध में तो कोई संदेह नहीं है. लेकिन इसके आरंभ के बारे में कई तरह के मत पाए जाते हैं. इस संबंध में आपकी क्या मान्यता है? 
भले ही कुछ लोग यह मानते हों कि तेलुगु संस्कृत से विकसित हुई, मैं यहाँ यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि तेलुगु द्रविड मूल की भाषा है. इसमें 60 प्रतिशत संस्कृत की शब्दावली है. यह भी कहा जा सकता है कि संस्कृत के प्रति आदर भाव के कारण तेलुगु ने ज्यादा से ज्यादा संस्कृत शब्दों को अपनाया. संस्कृत शब्दावली को देखकर तेलुगु को संस्कृत से विकसित भाषा समझना स्वाभाविक है. तेलुगु में प्राकृत के भी कुछ शब्द हैं. बाद में उर्दू और अंग्रेजी शब्द भी आ गए हैं. साथ ही तेलुगु ने हिंदी भाषा के भी बहुत सारे शब्दों को ग्रहण कर लिया है. पर आतंरिक व्याकरणिक संरचना को ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह द्रविड भाषा है. आप यह भी देख सकते हैं कि मलयालम में 80 प्रतिशत संस्कृत शब्द हैं पर वह द्रविड भाषा है. कन्नड में भी यही स्थिति है. तमिल भाषा पर संस्कृत का प्रभाव अपेक्षाकृत कम है. 
  • तेलुगु और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओँ के आपसी रिश्तों के बारे में आप क्या सोचते हैं? आप का साहित्य अकादमी से लंबे समय से जुड़ाव है, इसलिए यह भी जानने की इच्छा है कि साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएँ इस दिशा में क्या कर सकती हैं? 
सभी भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे संबद्ध हैं. अगर एक ही वाक्य में कहना हो तो मैं यही कहूँगा कि मुझे हिंदी से लगाव है. मैं अपने अनुभव से यह बात बता रहा हूँ कि हिंदी समस्त भारतवर्ष की सबसे सशक्त संपर्क भाषा है. मैं अपनी ही बात कहूँगा. मेरे काव्य संग्रह ‘कालान्नि निद्रा पोनिव्वनु’ (समय को सोने नहीं दूँगा) का अनुवाद 20 भाषाओं में हुआ है और सभी का प्रकाशन साहित्य अकादमी ने किया है. यह पुस्तक हिंदी के माध्यम से ही इतनी भाषाओं में पहुँची है. कहने का तात्पर्य यही है कि सभी भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे को संमृद्ध करती हैं. सभी भारतीय भाषाओं में अन्योन्याश्रय संबंध देखा जा सकता है. साहित्य अकादमी में पहले मैं तेलुगु सलाहकार समिति का सदस्य था. अब मैं उस समिति का संयोजक हूँ. साथ ही कार्यकारिणी परिषद का सदस्य भी. मैं अपने अनुभव से यही कहूँगा कि साहित्य अकादमी एक बड़ा सपना है. अकादमी पूरे भारत को जोड़ने का कार्य कर रही है. यह संपूर्ण भारत का भावनात्मक भांडागार, सृजनात्मक भांडागार है. आज यह 24 भाषाओं में निरंतर काम कर रही है. यहाँ मुझे सर्वेपल्लि राधाकृष्णन की बात याद आ रही है. उन्होंने कहा था कि भारतीय साहित्य मूलतः एक ही है भले ही वह विभिन्न भाषाओं लिखा जाता है. साहित्य अकादमी की मूलभूत अवधारणा यही है. इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु वह सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को संमृद्ध करने में सफलता प्राप्त कर रही है. 
  • आप विभिन्न विश्वविद्यालयों से भी संबद्ध हैं. कुलपति भी रहे हैं. भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रमों के संबंध में आपका क्या अनुभव है? आज के समय में विश्वविद्यालय स्तर पर भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रम किस प्रकार के होने चाहिए? खासतौर से तेलंगाना क्षेत्र को ध्यान में रखकर क्या सुझाव देंगे? 
अच्छा प्रश्न किया आपने. मैं आपको बताना चाहूँगा कि तेलुगु साहित्य के इतिहास में न तो तेलंगाना के साहित्य को समुचित स्थान प्राप्त हुआ है और न ही तेलंगाना भाषा को. पाठ्यक्रमों में भी यही स्थिति रही. 60 वर्ष के सुदीर्घ संघर्ष के बाद आज तेलंगाना अलग हुआ है और एक स्वतंत्र राज्य के रूप में आविर्भाव के लिए यत्नशील है. अतः आज विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों का नवीकरण वांछित है. तेलंगाना साहित्य को पाठ्यक्रम में समुचित स्थान दिया जाना चाहिए. इसके लिए अखिल आंध्र के पाठ्यक्रम में जो रिक्त स्थान है उसे भरना होगा. इसका अर्थ यह नहीं कि आंध्र और तेलंगाना का पाठ्यक्रम अलग अलग हो या इन्हें दो अलग भाषाएँ मानी जाए. सब तेलुगु ही है. मेरा अभिप्राय है कि तेलंगाना क्षेत्र की साहित्यिक उपलब्धि को साहित्य के इतिहास में समुचित स्थान देने से रिक्तता को कम किया जा सकता है. 
  • ये तो हुईं भाषा और शिक्षा से जुड़ी प्रासंगिक बातें. अब पुनः अपनी मुख्य चर्चा की ओर लौटें. साहित्य की चर्चा. हमने वेमना के बहाने संत और भक्ति साहित्य की बात की और यह जाना कि हिंदी और तेलुगु का संत साहित्य संवेदना के स्तर पर समान है. मैं कई बार सोचती हूँ कि 19वीं शताब्दी का भारतीय नवजागरण सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक आंदोलन होने के साथ साथ भारतीय साहित्य का व्यापक आंदोलन भी था. पुनर्जागरण काल के तेलुगु साहित्य की सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना के बारे में आप किस प्रकार सोचते हैं? 
नवजागरण का दौर बहुत ही प्रभावशाली था. उत्तर भारत जिस तरह से उससे प्रभावित था उसी तरह दक्षिण भारत. तेलुगु साहित्य पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है. देखा जाय तो हमारे साहित्यकारों पर बंगला साहित्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है. बंगला से रोमांटिसिज़्म और अन्य नई विधाएँ तेलुगु साहित्य में आनी लगीं. लेकिन इस पुनर्जागरण में तेलंगाना के पुनर्जागरण का उल्लेख कहीं भी नहीं है. तत्कालीन परिस्थितियों में तेलंगाना की जनता निज़ाम शासन से त्रस्त थी. आंध्र प्रदेश में उस समय तेलुगु भाषा को दबाया गया. तेलुगु का अस्तित्व खतरे में पड़ने लगा. भारतीय नवजागरण के कारण इस क्षेत्र में भी धीरे धीरे जनता में चेतना जगी. परिणामस्वरूप अनेक आंदोलन फूट पड़े. उनमें प्रमुख हैं रज़ाकर आंदोलन (निज़ाम समर्थक), किसान आंदोलन, पुस्तकालय आंदोलन और साक्षरता आंदोलन आदि. इससे तेलंगाना पुनर्जागरण संभव हुआ जिसे इतिहास में हाशिए पर रख दिया गया है. तेलंगाना के इतिहास को देखेंगे तो सुरवरम प्रताप रेड्डी और माडपाटी हनुमंत राव जैसे समाज सुधारकों को तेलंगाना पुनर्जागरण के प्रवर्तकों के रूप में याद किया जा सकता है. 
  • पुनर्जागरण काल में ग्रांथिक और व्यावहारिक तेलुगु का प्रश्न भी उभरा. व्यावहारिक तेलुगु के विकास के बारे में हिंदी पाठकों की उत्सुकता स्वाभाविक है. 
जब ग्रांथिक भाषा कुछ विद्वानों तक सीमित थी तब व्यावहारिक भाषा आंदोलन की शुरूआत हुई. निश्चय ही भाषा प्रयोग के क्षेत्र में व्यावहारिक भाषा आंदोलन ने लोकतांत्रिक वातावरण पैदा किया. इस आंदोलन को तेलुगु पत्रकारिता की सहायता मिली. पत्रकारिता की भाषा में परिवर्तन आया. उसकी काया पलट गई. दैनिक समाचार पत्रों को सामान्य जनता भी पढ़ कर समझने लगी. अपने विचारों को सशक्त रूप से अभिव्यक्त करने लगी. व्यावहारिक भाषा आज की माँग है चूँकि इसी भाषा के माध्यम से हम अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकते हैं. 
  • भारतीय पुनर्जागरण की एक परिणति हिंदी में स्वच्छंदतावादी कविता या छायावाद के रूप में दिखाई दी तो तेलुगु में भावकविता के रूप में. भाव कविता को आप किस नज़रिए से देखते हैं? 
मेरी दृष्टि में भाव कविता श्रेष्ठ कोटि की कविता है. इसके उन्नायक थे रायप्रोलु सुब्बाराव. देवुलपल्लि कृष्णशास्त्री ने इसे समृद्ध किया. राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कविता-परिणाम का यह भी एक हिस्सा है. इंग्लैंड की रोमांटिक कविता ने समूचे विश्व को प्रभावित किया. कीट्स, शेली, बाइरन आदि का काफी प्रभाव रहा. देखा जाय तो इसका प्रादुर्भाव पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के विरोध में हुआ था. वहाँ से बंगाल के रस्ते इसकी अनुगूँज समस्त भारत में फ़ैली. अनेक तेलुगु साहित्यकार अंग्रेजी में दक्ष थे. अंग्रेजी के माध्यम से ही वस्तुतः यह धारा तेलुगु में आई और हमारे तेलुगु साहित्यकारों ने इसे अपनी निजी शैली में विकसित किया. भाव कविता मुख्य रूप से भाव प्रधान और छंद प्रधान कविता है. प्रकृति के माध्यम से भावों को अभिव्यक्त करने का सिलसिला है. भाव के अभाव में कविता का क्या अस्तित्व है भला? इतिहास में झाँकने से यह स्पष्ट होता है कि भाव कविता से तत्काल पहले की कविता में स्त्री के भावनात्मक या मानसिक सौंदर्य की अपेक्षा उसका शारीरिक और मांसल वर्णन होता था. स्त्री को केवल भोग की वस्तु मानकर नखशिख वर्णन किया जाता था. इसके विरोध में भाव कविता का उद्भव हुआ. भाव कविता स्त्री को हृदयेश्वरी मानती है. इस काव्य धारा पर राष्ट्रीयता और देशभक्ति तथा स्वातंत्र्य चेतना का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है. अनेक कवियों ने भाव कविता को आगे बढ़ाया जिसके पथप्रदर्शक के रूप में देवुलपल्लि कृष्णशास्त्री का नाम लिया जाता है. उन्हें तेलुगु साहित्य में ‘भाव कविता पितामह’ के नाम से जाना जाता है. 
  • प्रगतिवाद और जनवाद की तेलुगु साहित्य में परिणति अभ्युदय और विप्लव साहित्य के रूप में हुई. एक कवि और आलोचक के रूप में इन पर आपकी क्या टिप्पणी है? 
आंध्र के क्षेत्र में कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ साथ अभ्युदय कविता का प्रादुर्भाव हुआ. यहाँ से वचन कविता (गद्य कविता) का उद्भव हुआ. श्रीश्री की कविताएँ इसका उदाहरण हैं. उन्होंने गद्य कविता के साथ साथ गेय कविताएँ भी लिखी हैं. अनेक प्रयोग भी किए. कार्टून कविता भी लिखी. उन्हें एक्सपेरीमेंटलिस्ट माना जाता है. अभ्युदय कविता आम आदमी को साहित्य के केंद्र में प्रतिष्ठित किया. कृषक और श्रर्मिक उसके लिए प्रधान थे. उसी समय तेलंगाना क्षेत्र में निज़ाम शासन के विरुद्ध किसानों का आंदोलन चल रहा था. उसे भी अभ्युदय कविता से बल मिला. आगे चलकर 1972-80 के काल में विप्लव कविता (वरवरराव, लोचन आदि) का प्रादुर्भाव हुआ. इसे क्रांतिकारी कविता और जनवादी कविता भी कहा जा सकता है. यह समय नक्सल आंदोलन के प्रभाव का समय था. इस अवधि में तेलंगाना के क्षेत्र में दाशरथि और सी. नारायण रेड्डी प्रतिष्ठित हो चुके थे. आंध्र प्रदेश के साहित्यिक इतिहास से टक्कर लेने के लिए इन दोनों महाकवियों ने पद्य रचना, गेय रचना और वचन कविता का सृजन किया. दाशरथि प्रगतिशील चेतना से युक्त आंदोलनी कवि हैं तो नारायण रेड्डी मानवतावादी कवि. कालोजी और दाशरथि ने प्रत्यक्ष रूप से निज़ाम के विरुद्ध हुए आंदोलन में भाग लिया था. अतः इनकी कविताएँ स्वानुभूति की कविताएँ हैं. आक्रोश की कविताएँ हैं. कुछ संवेदनशील सहृदय आंध्र के साहित्यकारों ने भी इस निज़ाम शासन के विरूद्ध हुए आंदोलन का समर्थन किया. जैसे कुंदुर्ति आंजनेयुलू और सोमसुंदर आदि. इन लोगों ने सहानुभूतिपरक साहित्य का सृजन किया. 
  • मनोविश्लेषणवाद (फ्रायड) और अस्तित्ववाद (सार्त्र) के प्रभाव को आप तेलुगु साहित्य के लिए कैसा मानते हैं? 
तेलुगु साहित्य में उपन्यास साहित्य पर फ्रायड और सार्त्र का प्रभाव दिखाई पड़ता है. गोपीचंद के उपन्यास ‘असमर्थतुनि जीवयात्रा’ (असमर्थ की जीवनयात्रा), बुच्चिबाबू के ‘चिवरकु मिगिलेदी’ (अंत में जो शेष है) और नवीन के ‘अम्पशय्या’ (शरशय्या) आदि को उदाहरण के तौर देख सकते हैं. इन उपन्यासों में विभिन्न मनोविश्लेषणात्मक पहलू द्रष्टव्य हैं. तेलुगु साहित्य में अस्तित्ववाद एक्सपेरीमेंटल स्टेज में ही रह गया. कहा जा सकता है, अस्तित्ववाद आज के साहित्य में अधिक मुखर हैं - स्त्री, दलित और मुस्लिम वादी साहित्य के रूप में. पर ये अलग हैं. 
  • दिगंबर कविता के प्रस्तुतकर्ताओं से तो आपका प्रत्यक्ष संबंध रहा होगा. उनके बारे में कुछ बताएँ. 
अभ्युदय कविता के बाद 1965 मेंदिगंबर कविता प्रारंभ हुई. दिगंबर कवियों (नग्नमुनि, निखिलेश्वर, चेरबंडा राजु, महास्वप्न, ज्वालामुखी और भैरवय्या) ने एक तरह से तत्कालीन समाज में व्याप्त व्यवस्था के प्रति आक्रामक तेवर का प्रदर्शन किया. पर छात्र जीवन से ही मैं दिगंबर कविता को पसंद नहीं करता. इसमें प्रयुक्त अश्लील शब्दावली से मुझे परहेज है. यह मेरी निजी मान्यता है. पर दिगंबर कविता तेलुगु साहित्य के इतिहास की एक परिघटना तो है ही. इससे इनकार नहीं किया जा सकता. दिगंबर हो या विप्लव कवि - वे सीधे सीधे ब्लैकमेल करते थे कि प्रेम के बारे में लिखना नहीं चाहिए. यदि लिखना हो तो लाल झंडे के बारे लिखें. इन कवियों के आक्रामक तेवर ने उत्तम कवियों को मार डाला, कुचल डाला. बहुत सारे कवियों ने तो कविता लिखना बंद कर दिया. यह चिंता मुझे सालती रही. पर मैंने उनकी नारेबाजी व फतवों की परवाह नहीं की और बेबाक होकर लिखता रहा. उनके महत्व को मैं नहीं नकारता पर मुझे उनका डोमिनेट करने का आचरण पसंद नहीं है. मैंने अपने अंदर के कवि को इस तमाम विप्लव से, तूफ़ान से, बचाया. 
  • 20वीं शती के तेलुगु साहित्य में अलग अलग विधाओं में आप किन साहित्यकारों के संपर्क में आए या प्रभावित हुए? 
मैंने आप से पहले भी कहा कि बचपन में मैं डॉ. सी. नारायण रेड्डी से काफी प्रभावित हुआ. आरंभिक दिनों में एक हद तक दाशरथि और दुव्वूरि रामरेड्डी का भी प्रभाव था. लेकिन धीरे धीरे मुझ में अपनी एक निजी शैली का विकास हुआ. इसके बाद मुझ पर किसी और का प्रभाव नहीं रहा. मैं ‘मैं’ बन गया. अर्थात ‘गोपि’. 
  • तेलंगाना क्षेत्र की भाषा और साहित्य की निजता की पहचान आपके ख़याल से किन रचना और रचनाकारों द्वारा हो सकती है – आप तो हैं ही? 
अगर मैं अपनी बात कहूँ तो मेरी रचनाओं में तेलंगाना की भाषा और परिवेश साफ़ दिखाई पड़ता है. मेरी पहली कविता से लेकर आज तक की तमाम कविताओं में तेलंगाना अंचल की भाषा, संस्कृति और परिवेश मेरे साथ हैं. इनसे कटकर हम नहीं रह सकते. इनके अभाव में हमारा अस्तित्व नहीं रहेगा. आंध्र परिवेश का प्रभाव भी कहीं कहीं दिखाई पड़ता है, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता. आंध्र और तेलंगाना में आपसी रिश्ता है. अतः एक दूसरे को प्रभावित करते रहेंगे. और रही अन्य रचनाकारों की बात. तेलंगाना क्षेत्र की भाषा और साहित्य को भलीभाँति प्रजाकवि कालोजी नारायणराव की कविताओं में आप देख सकते हैं. वे मूलतः सक्रिय कार्यकर्ता थे. उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से निजाम शासन में होने वाले अत्याचारों तथा तत्कालीन समाज में व्याप्त राजनैतिक विसंगतियों के प्रति आवाज उठाई. उनकी कविताओं में तेलंगाना के प्रति विशेष लगाव दिखाई देता है. उनकी कविताओं में तेलंगाना की उपेक्षित जनता की आवाज सुनाई पड़ती है. दूसरा कोई कालोजी नहीं हो सकता. दाशरथि और सी. नारायण रेड्डी की कविताओं में भी आप इस निजता को रेखांकित कर सकते हैं. सी. नारायण रेड्डी की पुस्तक ‘मा ऊरू माट्लाडिंदि’ (हमारा गाँव बोल उठा) में तेलंगाना की आंचलिक भाषा को देख सकते हैं. यह पुस्तक पूरी तरह से तेलंगाना की आंचलिक भाषा में लिखी गई है. इसमें अपनी मिट्टी के प्रति लगाव को आप महसूस कर सकते हैं. अपने परिवेश और भाषा से कटकर साहित्यकार जीवित नहीं रह सकता. यह उसके लिए संभव नहीं. मैं यही कहना चाहूँगा कि यदि घर दूर हो गया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे. चाहे कालोजी हो या दाशरथि, या सी. नारायण रेड्डी या फिर मैं – हम सब ने घर से ही अपनी बात शुरू की. फिर हम पहुंचे दूर तक. लेकिन हमारी आँखें हमारी जमीन पर गड़ी हुई हैं. 
  • तेलुगु में स्त्रीवादी, दलितवादी और मुस्लिमवादी साहित्य के उभार को आप किस तरह देखते हैं? इनका भविष्य क्या है? आज के कवि और कविता से आप क्या चाहते हैं? 
मेरी दृष्टि में स्त्रीवादी, दलितवादी और मुस्लिमवादी साहित्य अस्तित्ववादी आंदोलन के ही रूप हैं. इस तरह का साहित्य विश्व भर में उभरा. तेलुगु में भी अनिवार्य रूप से आया. ये सभी धाराएँ साहित्य में अभियोग और फ़रियाद के रूप में उभरी हैं. इन सब ने अपना एक दर्शन बना लिया है. आज स्त्री शिक्षित हो रही है. शिक्षा ने उसे अपने अधिकारों के प्रति चेताया. जब उसने यह महसूस किया कि उसे मूलभूत अधिकार भी प्राप्त नहीं हो रहे हैं तो उसने आक्रोश जताया और विद्रोह किया. जब स्त्री ने सार्वजनिक भूमिका में प्रवेश किया तो उसने चाहा कि उसे ऐसा साथी मिले जो उसका सहयोगी और मित्र हो न कि पुरुष वर्चस्व से त्रस्त पति. लेकिन पुरुष पढ़ी-लिखी स्त्री को चाहता है पर पुराने संस्कारों से युक्त. वह यह चाहता है कि स्त्री बाहर जाकर कमाकर भी लाए और घर आने के बाद उसकी सेवा भी. तो ऐसी स्थिति में स्त्रीवाद का जोर पकड़ना स्वाभाविक है. यह नहीं कहा जा सकता कि हर पुरुष स्वार्थी है. पुरुषों में भी बदलाव आ रहा है. पर यह बदलाव धीरे धीरे परिलक्षित होता है. मैंने पहले कहा कि पुरुष वर्चस्व के खिलाफ यह एक अभियोग और फ़रियाद के रूप में उभरा. लेकिन आज स्थितियाँ बदल चुकी हैं. अब स्त्रीवाद को फ़रियाद से ऊपर उठना होगा. तभी वह ‘उभयवाद’ के रूप में परिणत हो सकता है. ठीक यही स्थिति दलित वाद की भी है. अनेक पिछड़ी जातियों के बच्चे शिक्षित हुए. अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए. तो उन्होंने अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष किया. क्योंकि आज हम किसी के आधिपत्य को स्वीकारने की स्थिति में नहीं हैं. चाहे स्त्री हो या दलित या अल्पसंख्यक. स्त्रीवादी, दलितवादी और अल्पसंख्यकवादी कविताओं में विशेष रूप से उनकी संस्कृति, उनकी स्वानुभूति, उनकी पीड़ा, उनका आक्रोश, उनका संघर्ष और उनकी मुक्ति मुखरित है. अतः मैं यही कहूँगा कि इस तरह के साहित्य को नकारत्मक रूप में देखने की आवश्यकता नहीं है. स्त्रीवादी चिंतन को लेकर लिखने वाले अनेक साहित्यकार हैं लेकिन स्त्रीवादी पथप्रदर्शक के रूप में प्रमुख रूप से वोल्गा का नाम लिया जा सकता है. दलित लेखन के अग्रदूतों के बारे कहना चाहें तो विप्लववाद में पहले सत्यमूर्ति ने दलित चिंतन को उजागर किया. आज के दलितवादी लेखकों में शिखामणि, एंड्लूरि सुधाकर, कत्ति पद्माराव, पयिडि तेरेश बाबू आदि प्रमुख हैं. इसी तरह मुस्लिमवादी लेखकों में शाहजहाना, स्काई बाबा आदि. 

मैं इस बात पर बल देना चाहूँगा कि शिक्षा के कारण समाज में काफी परिवर्तन दिखाई दे रहा है. पहले तो हमें द्वेष को जड़ से उखाड़ कर दूर फेंकना चाहिए. मानवता को कायम करना चाहिए. स्त्रीवादी साहित्य भी तो यही चाहता है कि स्त्री को मानवी के रूप में देखें. उसके अस्तित्व को न नकारें. उसे जीने का अधिकार दें. दलित साहित्य और मुस्लिमवादी साहित्य भी यही चाहता है. लेकिन हमें एक बात ध्यान में रखनी होगी कि मानवता सबसे ऊँची चीज है. यह चिंता मुझे बार बार सालती रहती है कि मानव और मानवता आज खतरे में हैं. इंसानियत खतरे में है. यह समाप्त हो जाएगी तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा. तहस-नहस हो जाएगा. आज जितना ख़तरा मँडरा रहा है उतना शायद सृष्टि के आरंभ में भी नहीं मँडराया होगा. आज हम सबसे जयादा खतरनाक वक्त में हैं. अर्थप्रधान समय है यह. व्यक्तिगत मानवीय संबंध अब सार्वजनिक हो गए हैं. संयुक्त परिवार टूट गए हैं. अमेरिकीकरण का बोलबाला है. एक मात्र अमेरिका ही सबकी मंजिल बनता जा रहा है. डॉलर सबको प्रभावित कर रहा है. अमानवीयता प्रबल होती जा रही है. ऐसे में एक कवि होने के कारण, एक सहृदय होने के कारण, मैं तो यही कहूँगा कि साहित्य वादों से परे हो और मानवता को प्रोत्साहित करने वाला हो. मानव से मानव को जोड़ने वाला साहित्य ही आज हमें चाहिए. 
  • अब कुछ चर्चा आपके अपने साहित्य की. आप अपने साहित्य-जीवन में किन घटनाओं को टर्निंग पॉइंट्स मानते हैं? 
बारह-तेरह वर्ष की आयु से लेकर आज तक निर्बाध गति से मेरी लेखनी चल रही है. अभी तक मेरी 42 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें 19 काव्य संग्रह, 6 निबंध संग्रह, 4 यात्रावृत्त, 3 शोधकार्य, 2 अनुवाद, 2 समीक्षा और 3 स्तंभ लेखन सम्मिलित हैं. मैंने उन तमाम स्थितियों पर लिखा है जो मेरे अंदर के कवि को झकझोरती रही हैं. मैंने पहले भी इस बात का जिक्र किया कि एम.ए. के बाद महबूब नगर के सूखा ग्रस्त इलाके में काम करने का मौका मिला तो वहाँ की परिस्थिति ने मुझे झिंझोड़ दिया. उस समय मैंने काफी कविताएँ लिखी. मेरे साहित्यिक जीवन में व्ह एक टर्निंग पाइंट था. 
  • आपकी कृति ‘कालान्नि निद्र पोनिव्वनु’ को केंद्रीय साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया. आपके विचार से इस कृति की श्रेष्ठता किस बात में निहित है? 
वास्तव में इस संग्रह से मेरी कविता की आवाज बदल गई. यह वह समय था जब मेरी 17 साल की बेटी रचना की अकाल मृत्यु हुई. उसके बाद मैं दो साल तक भावनात्मक रूप से काफी अस्त-व्यस्त रहा. एक तरह से मैं पाताल में पहुँच गया था. मुझे अपने आपको संभालने में तथा सामान्य बनाने में पूरे दो साल लग गए. इन दो सालों में पता नहीं मेरे अंदर का कवि क्या लिख रहा था. पर वह कुछ न कुछ लिखता रहा. यह घटना तो मेरे जीवन में वास्तविक टर्निंग पाइंट है जिसने मेरे टोन को बदल दिया. ‘कालान्नि निद्र पोनिव्वनु’ (समय को सोने नहीं दूँगा) मेरी उस दो साल की भावनात्मक लड़ाई का दस्तावेज है. इसे रचकर मैंने महसूस किया कि व्यक्तिगत दुःख विश्व जनीन दुःख में परिणत हो गया. 
  • दूसरी बात. आपकी एक कृति ‘जलगीतम’ ने जल चेतना के काव्य के रूप में भारतीय साहित्य में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है. इस कृति की पृष्ठभूमि और विषय वस्तु के बारे में कुछ बताएँ. 

मैं जिस क्षेत्र से आया हूँ – नलगोंडा क्षेत्र - वह सूखाग्रस्त क्षेत्र है. वहाँ पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है जिसके कारण अनेक लोगों को तरह-तरह की बीमारियों का भी शिकार होना पड़ता है. हमारे घर में कुँआ नहीं था तो मैं अपनी माँ के साथ बहुत दूर से पीने का पानी लाता था. अतः मुझे पानी की अहमियत मालूम है. जब मैं कुलपति था तब छह वर्षों तक पानी के बारे में, उससे जुड़ी समस्याओं के बारे में, अलग अलग आयामों के बारे में सोचता रहा. जब कुलपति का कार्यकाल पूरा हो गया तो मैंने उस लौकिक मालिन्य को धो डालना चाहा. तब मैं निर्णय लेकर बैठ गया लिखने के लिए. 100 दिनों में मैंने दीर्घकविता ‘जलगीतम’ लिखकर पूरी की. उसकी पृष्ठभूमि बहुत विशाल है. इसमें पानी का बहुआयामी चित्रण है. पानी के शारीरिक, मानसिक, रासायानिक, आत्मिक और आध्यात्मिक आदि बहुत आयाम आपके सामने उभर कर आएँगे. पानी और मनुष्य के संबंध को भी इस कविता में दिखाने की कोशिश मैंने की है. कविता को समाप्त करने के बाद मैंने यह सोचा कि राजस्थान में जल-संग्रहण करने वाले रामन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेंदर सिंह को यह कृति समर्पित करूँ तो कैसे होगा. यह विचार मन में आते ही मैंने उन्हें फोन किया और सारी बात बताई तो वे उछल पड़े. उन्होंने कहा कि ‘रक्त संबंध से भी जल संबंध गहरा है.’ लोकार्पण के अवसर पर वे हैदराबाद आए. यह कृति अब तक 10 भाषाओं में अनूदित हो चुकी है. 
  • आपके द्वारा प्रवर्तित काव्य विधा ‘नानीलु’ अत्यंत लोकप्रिय है और प्रो. एन. गोपि तथा ‘नानीलु’ को लोग पर्याय के रूप में देखते हैं. इस छंद को प्रवर्तित करने का विचार आपको कब और कैसे आया तथा इसे तेलुगु साहित्य में एक व्यापक आंदोलन का रूप किस प्रकार मिला? 
‘जलगीतम’ (जलगीत) लिखने से पहले मैं नन्हे नन्हे मुक्तक लिखता था. इसके पीछे कोई निश्चित कारण तो नहीं है. बस ऐसे ही मन में उठे विचारों को कागज पर उतारता था. पूरा लिखने के बाद मैंने उन्हें गौर से देखा और सोचा कि क्या इन मुक्तकों में कोई विशेषता है? देखा-परखा तो मुझे वे अलग प्रतीत हुए. वे एकदम नवीन थे. तब मैंने यह पाया कि इनमें चार पंक्तियाँ हैं - दो इकाइयों में. प्रथम इकाई दूसरी इकाई के साथ जुड़ती है. पहली इकाई में एक भाव है तो दूसरी इकाई में दूसरा. पहला अंश दूसरे अंश का समर्थन करता है और दूसरा अंश उसे प्रतिपादित करता है. खास बात यह है कि दूसरे अंश में ऊर्जा होनी चाहिए. पंच होना चाहिए. इसमें कवि की ऊर्जा ध्वनित होती है – चिता में/ दायाँ हाथ नहीं जला/ कारण/ कलमग्राही तो ठहरा. यह है मेरा पहला ‘नानी’ (नन्हा मुक्तक). वस्तुतः यह छंद गुलेल में रखकर मारे गठ पत्थर सा है. मैंने यह अहसास किया कि यह नई आवाज मेरे अंदर से फूट रही है. मैंने उसे नहीं रोका. 20 दिनों के अंदर मैंने 365 मुक्तक लिख दिए. एक दिन तेलुगु पत्र ‘वार्ता’ के संपादक ए.बी.के.प्रसाद मेरे घर आए थे. उनकी नजर उन मुक्तकों पर पड़ी. उन्होंने झट से वह पांडुलिपि समेत ली. अपने साथ ले गए और ‘वार्ता’ के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित करते गए. बस फिर क्या था? ‘नानी’ का बुखार चढ़ गया. यह ज्वर इतना प्रबल हो गया कि आज 1000 से ज्यादा कवि इस विधा में सृजन कार्य कर रहे हैं और लगभग 230 संग्रह छप चुके हैं. इस तरह मैं इस विधा का प्रवर्तक बन गया - ‘नानी का जनक’. मुझे ‘नानीला त्रिविक्रमुडु’, ‘नानीला नान्ना’ के रूप में पुकारा जाने लगा. डॉ. सी. भवानी देवी, डॉ. एस. रघु आदि अनेक लोग इस विधा में लिख रहे हैं. अभी गत दिनों साहित्य अकादमी ने कम उम्र में (25 साल के अंदर) ‘नानी’ लिखने वालों का चयन करने का दायित्व मुझे सौंपा तो मैंने पाया कि 10वीं कक्षा का बालक बहुत ही पंच के साथ लिख रहा है. यह विधा अनुवाद के माध्यम से हिंदी में गई. डॉ. विजय राघव रेड्डी ने अनुवाद किया. विश्वनाथ त्रिपाठी ने हिंदी भवन (दिल्ली) में उस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कहा कि यह नई मुक्तक संपदा है जो दक्षिण से उत्तर की ओर आई है ! 
  • आपकी रचनाओं के अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं. क्या आप इन अनुवादों से संतुष्ट हैं? अपने अनुवादकों से आपके कैसे संबंध हैं? अनुवाद के कुछ रोचक अनुभव? 
मैं अपने अनुवादकों से बहुत संतुष्ट हूँ. उनसे बहुत कुछ सीखा भी है. आप यकीन नहीं करेंगे, मैंने प्रत्यक्ष रूप से अपने 90 प्रतिशत अनुवादकों के साथ बैठकर अनुवाद कराया है. यह उनके लिए भी फायदेमंद सिद्ध हुआ. मूल में जो भाव है वह अनुवाद में भी उसी भंगिमा को लेकर आया है या नहीं, यह देखने के लिए. ज्यादातर अनुवादक तेलुगु जानते थे. कुछ अनुवादकों ने संपर्क भाषा हिंदी के माध्यम से किया है और बहुत कम अनुवादकों ने अंग्रेजी से. मेरी मान्यता है कि यह मनुष्यों को आपस में मिलाने का कार्य है. जब हम अनुवादों के माध्यम से उस भाषा में जाते हैं तो उस भाषा के लोगों के हृदय के निकट पहुँचते हैं. तभी हम कह सकते हैं कि अनुवाद वास्तव में सार्थक हुआ है. मैं अनुवादों के प्रति बहुत ही गंभीर हूँ. मेरे अंदर भी स्वार्थ है दूसरी भाषाओं में जाने का. पर मैं नाम के वास्ते नहीं जाना चाहता हूँ. मेरी कामना है कि मेरी कविता उन भाषाओं के पाठक के हृदय की धड़कन को छू सके. 

मेरे अनुवादकों से मेरा बहुत अच्छा संबंध है. सबने स्वैच्छिक रूप से अपनी इच्छा के अनुसार अनुवाद किया है. डॉ. माणिक्यांबा ने ‘जलगीतम’ (जलगीत) का अनुवाद किया. उस पर उन्हें केंद्रीय सरकार का एक लाख का पुरस्कार प्राप्त हुआ. तेलुगु विश्वविद्यालय ने नगमे-आब’ के अनुवादक प्रो. रहमत यूसुफ़ जॉय को उर्दू के उत्तम अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित किया. ‘जलगीत’ के गुजराती (रमणीक सोमेश्वर) अनुवाद को साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ. मणिपुरी में सलाम तोम्बा ने किया. मेरी कविताओं का हिंदी में सर्वाधिक अनुवाद अनुवाद शांता सुंदरी ने किया. ‘समय को सोने नहीं दूँगा’ का हिंदी अनुवाद उन्होंने ही किया है. कह सकता हूँ कि उन्होंने मेरी आत्मा को पकड़ कर अनुवादों में उसे प्रभावी रूप से अंकित किया है. मेरे मन में एक आशा जग रही है कि मैं एक पुस्तक लिखूँ - ‘अनुवादकों के साथ मेरा अनुभव’. चूँकि उनके साथ मेरा अनुभव इंद्रधनुषी है. एक भाषा जब दूसरी भाषा के रूप में परिवर्तित होती है तब वह किस तरह उस भाषा के रंग और स्वाद को कैसे लेकर जाती है इसे अभिव्यक्त करना चाहता हूँ. 
  • एक पारिवारिक जिज्ञासा. आपकी धर्मपत्नी श्रीमती एन. अरुणा भी तेलुगु कवयित्री हैं. आपने अपनी कृतियाँ उन्हें समर्पित की हैं और षष्ठिपूर्ति पर आपके समग्र काव्य का संपादन उन्होंने किया है. आप दोनों का घरेलू और साहित्यिक तालमेल कैसा रहता है? 
हम दोनों एम.ए. के सहपाठी हैं. 1974 में हम वैवाहिक बंधन में बंधे. प्रेम विवाह. हमारा विवाह अंतर्जातीय है. मेरी धर्मपत्नी अरुणा भी कविताएँ लिखती हैं. उस समय मैं अपने शोधकार्य में व्यस्त था. अतः मेरे करियर के लिए घर-परिवार की जिम्मेदारियों में उलझ गईं. पोते के जन्म के बाद अर्थात जब उन्होंने अपने जीवन की 50 वर्षों की यात्रा पूरी कर की तो एक बार फिर उनके अंदर की कवियत्री जग गई. जहाँ तक हो सका मैंने उनका साथ दिया. उन्होंने सूझबूझ के साथ घर भी संभाला और साहित्यिक जीवन भी. 
  • पाठक आपके परिवार और संतानों के बारे में भी उत्सुकता रखते हैं. 
एक बेटा है. बहु एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर है. दो पोते – एक सातवीं कक्षा में है और दूसरा कक्षा एक में. उनके लालन-पालन में दिन बीत रहा है. सुखी परिवार. 
  • अब पुनः साहित्य की ओर. आजकल आपकी क्या दिनचर्या है? नया क्या क्या लिख रहे हैं? 
दिनचर्या और क्या हो सकती है एक कवि के लिए. कविताएँ लिखना. 2008 में सेवानिवृत्त होने के बाद यूजीसी मेजर प्रोजेक्ट हाथ में लिया. ‘वेमना वेलुगुलु’ (वेमना ज्योति) शीर्षक से 500 पृष्ठों की पुस्तक प्रकाशित की. इसमें वेमना के पदों की व्याख्या है - समीक्षा के रूप में. ‘समकालीन (तेलुगु) कविता की वस्तु और रूप’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित हो रही है. बहुत जल्दी वह पाठकों के समक्ष होगी. हो सका तो इस जून तक अर्थात मेरे जन्मदिन तक एक और काव्य संग्रह प्रकाशित करने की योजना है. इसका शीर्षक है ‘मल्ली वित्तनम लोकि’ (फिर से बीज के अंदर) – ‘अप्पुड़प्पुडु मल्ली वित्तनम लोकि वेल्लि रावालि/ ई नाटि आकुला निगनिगलु अर्धम कावालंटे, आनाटी मूलालो कि तोंगिचूडालि/ इप्पटि पूवुलनु अप्पटि स्वप्नालनु बेरीजु वेसुकोवाली’ (कभी कभार फिर से बीज के अंदर तक जाकर आना होगा/ आज के पत्तों की चमक को पहचानना हो तो उसके मूल में जाना होगा./ अब के फूल और तब के सपनों का आकलन करना होगा). आज की दुनिया स्वार्थपरक है. इस स्वार्थ को मिटाने के लिए तथा स्वस्थ समाज की स्थापना के लिए हमें फिर से अतीत की ओर लौटकर देखना होगा. रिफ्रेश होने के लिए. 

मेरी एक और योजना भी है ‘वृद्धोपनिषद’ लिखने की. इस विषय में अपने मित्र हिंदी कवि ऋषभ देव शर्मा से मैंने चर्चा की है. उन्होंने कुछ सामग्री भी मुझे पढ़ने को लाकर दी है. इस विषय पर गहन अध्ययन कर रहा हूँ. चूँकि पहले वृद्धों की मानसिकता को समझना चाहिए. इस दुनिया में बूढ़े सुखी जीवन नहीं जी रहे हैं. निःसहाय स्थिति में हैं. गरीब बूढ़ों की स्थिति तो और भी दयनीय है. एक तरह से उनका जीवन नारकीय जीवन है. अतः बूढ़ों पर लिखने के लिए स्वानुभव की भी जरूरत होती है. अब मुझे यह महसूस हो रहा है कि धीरे धीरे मैं बुढ़ापे की ओर बढ़ रहा हूँ. भविष्य में लिखूँगा. मैं यही कहूँगा कि पहले हमें मृत्यु से डर छोड़ना होगा. तब हम आराम से जी सकते हैं; नहीं तो चिंता अंदर ही अंदर खा जाएगी. यह सब मैं अपने लिए भी कह रहा हूँ क्योंकि मेरे अंदर भी कहीं न कहीं वह डर है. बुढ़ापे में शरीर का एक एक अंग कमजोर होता जाता है. मानसिक स्थिति भी इससे प्रभावित होती है. ऐसी स्थिति में हमें कमजोर नहीं होना चाहिए. यहाँ भी देखिए ‘अर्थ’ प्रधान है. आर्थिक स्थिति अच्छी रही तो आप आराम की जिंदगी जी सकते है नहीं है तो फिर वही..... 
  • आपका जीवन दर्शन क्या है? 
अच्छे ढंग से जीना. कृत्रिम जीवन नहीं. मनुष्य भावात्मक प्राणी है. जीवन भावप्रपूर्ण होना चाहिए. उसे अनुभव करना चाहिए. प्रेम, वात्सल्य, सौहार्द और मानवता आदि से युक्त जीवन हमें जीना चाहिए. खुद जिँए और दूसरों को भी जीने दें. मैं यही कहूँगा कि अपने जीवन से सीखना चाहिए. अपने शोध के दौरान बहुत कठिनाइयों का सामना किया. मद्रास में पुस्ताकालय से सामग्री का संचयन करने के लिए गया था तो दो रात बसस्टैंड पर सोकर बिताई थी. उस घटना के कारण मैंने यह संकल्प लिया कि दूरदराज इलाकों से आने वाले शोधार्थियों के लिए कुछ करना चाहिए. इसीलिए मैंने अपने ही घर पर वेमना के नाम पर पुस्तकालय की स्थापना की. यहाँ शोधार्थी आकर अपना शोधकार्य कर सकते हैं. उनके ठहरने की मुफ्त व्यवस्था है. 
  • ‘बहुब्रीहि’ के पाठकों के लिए आपका संदेश ...... ? 
मैं संदेश क्या दे सकता हूँ. बस यही चाहता हूँ कि हम आगे की पीढ़ी को एक स्वस्थ समाज प्रदान करने का प्रयास करते रहें. 

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प्रो. एन. गोपि, 13-1/5 बी, श्रीनिवासपुरम, रामंतापुर, हैदराबाद – 500 013.

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (सह-संपादक ‘स्रवंति’), प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500 004
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  • 'बहुब्रीहि' अंक 2, जनवरी-जून 2014 में प्रकाशित