गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

'साहित्यिक पत्रकारिता' : नई पुस्तक

साहित्यिक पत्रकारिता
आशा मिश्र 'मुक्ता'
2016
गीता प्रकाशन, हैदराबाद
मूल्य : रु. 595
पृष्ठ : 176 

भूमिका

श्रीमती आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ की प्रस्तुत शोधपूर्ण कृति के प्रकाशन के अवसर पर मैं अत्यंत हर्ष का अनुभव कर रही हूँ क्योंकि इस कृति के प्रणयन में उन्होंने अत्यंत सदाशयतापूर्वक पग-पग पर मुझसे चर्चा की है. यह पुस्तक इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है कि इसमें हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के विराट मानचित्र पर दक्षिण भारत की रेखाओं को खासतौर पर उभारा गया है. हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता आरंभ से ही अत्यंत तेजस्वी रही है और उसके विकास में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, धर्मवीर भारती, राजेंद्र अवस्थी और मृणाल पांडे जैसे दिग्गज हस्ताक्षरों का योगदान अविस्मरणीय है. इन बड़े नामों के आभामंडल के कारण बहुत बार हिंदीतर भाषी क्षेत्रों की हिंदी पत्रकारिता हाशिए पर धकेल दी जाती है. यह युग हाशियाकृत समुदायों के विमर्श का युग है. इसलिए इतिहास के मुख्य पृष्ठ पर अनुपस्थित रह गए समुदाय अब अपनी उपस्थिति और अस्मिता को नए सिरे से रेखांकित कर रहे हैं. हिंदीतर भाषी क्षेत्रों की साहित्यिक पत्रकारिता भी ऐसा ही एक उपेक्षित समुदाय है. प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने हिंदीतर भाषी क्षेत्र की हिंदी पत्रकारिता पर विमर्श का नया प्रस्थान दर्ज कराया है. इसके लिए उन्होंने हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पहले अनियतकालीन और अब त्रैमासिक पत्रिका ‘पुष्पक’ का विशिष्ट और गहन अध्ययन करके यह प्रतिपादित किया है कि लोकल सरोकारों से उद्भूत होने के बावजूद इस क्षेत्र की साहित्यिक पत्रकारिता ग्लोबल सरोकारों को भी पूरी तरह संबोधित करती है. वस्तुतः हिंदी साहित्य का सार्वदेशिक और समेकित इतिहास लिखते समय ‘पुष्पक’ जैसी पत्रिकाएँ आधारभूत सामग्री का प्रामाणिक स्रोत सिद्ध होंगी. इसलिए यदि यह कहा जाए कि प्रस्तुत पुस्तक साहित्यिक पत्रकारिता ही नहीं समेकित हिंदी साहित्य की इतिहास रचना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. 

स्मरणीय है कि इस पुस्तक में विवेचित पत्रिका ‘पुष्पक’ हैदराबाद (वर्तमान तेलंगाना) से प्रकाशित होती है. इसलिए लेखिका ने हिंदी पत्रकारिता के उद्भव और विकास का इतिहास प्रस्तुत करने से पहले अत्यंत संक्षेप में तेलंगाना के इतिहास की रेखाओं को उकेरा है. तदनंतर दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता की चर्चा करने के बाद साहित्यिक हिंदी पत्रिकाओं का इस क्षेत्र के संदर्भ में सर्वेक्षण किया है. ‘कल्पना’, ‘अजंता’, ‘पूर्णकुंभ’, ‘स्रवंति’, ‘विवरण पत्रिका’, ‘संकल्य’, ‘पुष्पक’, ‘समुच्चय’, ‘भास्वर भारत’, ‘अग्रतारा’, ‘महिला सुधा’, ‘मध्यांतर’ और ‘दक्षिण समाचार’ की यह झांकि इस सत्य का साक्षात्कार कराने में समर्थ है कि साहित्यिक पत्राकरिता की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत उपजाऊ रहा है जिसकी अब तक उपेक्षा की जाती रही है. 

लेखिका ने अपने विवेचन के केंद्र में जिस महत्वपूर्ण पत्रिका को रखा है उसके 25 अंकों की सामग्री का विश्लेषण करते हुए उसकी संपादकीय दृष्टि के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और साहित्यिक आयामों की जमकर पड़ताल की है. साथ ही उसके कथासाहित्य, काव्य, निबंध, समीक्षा एवं अन्य विधाओं के योगदान को भी इन विधओं की विषय वस्तु और भाषा शैली की कसौटी पर कसकर स्थापना की है. विवेचित पत्रिका की प्रधान संपादक का साक्षात्कार इस पुस्तक को और भी परिपूर्णता प्रदान करता है. 

आशा है, कि आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ की इस पुस्तक का हिंदी जगत में व्यापक स्वागत होगा तथा सुधी पाठक इसे उन्हें अपना स्नेह और आशीर्वाद प्रदान करेंगे. 

शुभकामनाओं सहित

- गुर्रमकोंडा नीरजा  

सोमवार, 9 नवंबर 2015

(विषय सूची) अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख

कई मित्रों ने जानना चाहा है कि मेरी सद्यःप्रकाशित पुस्तक 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख' (वाणी प्रकाशन, 2015) में किन-किन विषयों पर सामग्री सम्मिलित है. इस संबंध में यद्यपि मेरे ब्लॉग पर जारी किए गए प्रो. दिलीप सिंह, प्रो. देवराज और प्रो. ऋषभदेव शर्मा के वक्तव्यों में पूरी जानकारी दी गई है, तथापि जिज्ञासु मित्रों की सुविधा के लिए यहाँ इस पुस्तक की विषय सूची (अनुक्रम) को यथावत दिया जा रहा है. 
अनुक्रम

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख 

गुर्रमकोंडा नीरजा 
2015
वाणी प्रकाशन
मूल्य : रु. 495
ISBN : 978-93-5229-249-3
पृष्ठ 304
खंड 1 : अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान
1. भाषाविज्ञान के आधार
2. आधुनिक भाषाविज्ञान : अनुप्रयोग के क्षेत्र
             (क) भाषा शिक्षण
             (ख) अनुवाद विज्ञान
             (ग) शैलीविज्ञान
             (घ) समाजभाषाविज्ञान

खंड 2 : भाषा शिक्षण
1. शिक्षा में भाषा और भाषा में शिक्षा
2. व्यतिरेकी भाषाविज्ञान के आधार एवं उपयोगिता
3. मातृभाषा एवं द्वितीय भाषा शिक्षण (हिंदी शिक्षण का परिप्रेक्ष्य)
4. हिंदी शिक्षण : तेलुगु मातृभाषा भाषियों के समस्या क्षेत्र
5. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के क्षेत्र में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का योगदान

खंड 3 : अनुवाद विमर्श
1. अनुवाद विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन की समस्याएँ
2. अनुवाद सिद्धांत और सांस्कृतिक पाठ : शब्द चयन का संदर्भ
3. ‘कुरुक्षेत्र’ का अनुवाद : सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ (अनुवाद समीक्षा)
4. साहित्येतर अनुवाद की समस्याएँ : मनोविज्ञान का संदर्भ
5. बच्चन की अनुवाद विषयक मान्यताएँ

खंड 4 : साहित्य पाठ विमर्श (शैलीवैज्ञानिक विश्लेषण)
1. पं. प्रताप नारायण मिश्र का निबंध ‘शिवमूर्ति’
2. प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ में स्वतंत्रता के पाठ की भाषा
3. शमशेर की काव्य भाषा : ठेठ और खुरदरा अंदाज
4. अज्ञेय की काव्य भाषा : अस्मिता का आविष्कार 

खंड 5 : प्रयोजनमूलक भाषा 
1. प्रयोजनमूलक हिंदी, प्रिंट मीडिया और दैनिक पत्रों की हिंदी
2. टीवी विज्ञापनों की भाषिक प्रयुक्ति

खंड 6 : समाजभाषिकी 
1. मध्यम पुरुष सर्वनाम : सिद्धांत और अनुप्रयोग
2. नाते-रिश्ते की शब्दावली : अंग्रेजी, हिंदी, तेलुगु और तमिल
3. शिष्टाचार, अभिवादन और संबोधन शब्दावली (रामदरश मिश्र के उपन्यासों का विशेष संदर्भ)
4. दलित आत्मकथाओं का समाजभाषिक संदर्भ
5. स्त्री विमर्श का समाजभाषिक संदर्भ

खंड 7 : भाषा विमर्श में अनुप्रयोग
1. महात्मा गांधी का भाषा विमर्श (संपर्क भाषा की केंद्रीयता)
2. प्रेमचंद का भाषा विमर्श (हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी : साहित्यिक शैलियों का रचनात्मक समन्वय)
3. अज्ञेय का भाषा विमर्श (साहित्यिक शैली के प्रति जागरूकता)
4. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव का भाषा विमर्श (अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के सजग प्रहरी)
5. विद्यानिवास मिश्र का भाषा विमर्श (आधुनिक भाषाशास्त्रीय चिंतन की पीठिका)
6. दिलीप सिंह का भाषा विमर्श (अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की संपूर्ण पड़ताल)

बुधवार, 4 नवंबर 2015

( भूमिका : प्रो. दिलीप सिंह) 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख'

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख 

गुर्रमकोंडा नीरजा 
2015
वाणी प्रकाशन
मूल्य : रु. 495
ISBN : 978-93-5229-249-3
पृष्ठ 304
‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ पुस्तक की पांडुलिपि कई दिनों से मेरे हाथ में थी. शुरू से आखीर तक दो बार पढ़ चुका था कि शल्य-चिकित्सा के चक्कर में कुछ महीने बेकाम निकल गए. छह महीने बाद डॉक्टरों से ‘नॉर्मल’ होने की सनद मिलते ही पढ़ाई-लिखाई फिर से शुरू की तो पुनः यह पांडुलिपि हाथ में ली. वैसे ‘बेकामी’ वाली अवधि में भी यह पुस्तक सोच-विचार में साथ चलती रही थी. अब धीरे-धीरे, मंथर गति से संभल-समझ कर पढ़ना शरू किया – थोड़ा-थोड़ा करके. इस दौरान पुस्तक के कई प्रकरण वैचारिक भी लगे और विचारणीय भी. यदि पुस्तक के ढाँचे की बात करूँ तो मेरी दृष्टि में यह पुस्तक अलग-अलग लेखों का वर्गीकृत संकलन है. पर इन लेखों का सूत्र एक है – अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान. ऐसे संकलनों में सामान्यतः यह देखने में आता है कि कहीं विचार-शृंखला टूट जाती है या कहीं बीच में कौर के कंकड़ की तरह कोई अनावश्यक प्रकरण अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगता है. मुझे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि इस तरह का ‘संदर्भ-परिवर्तन’ पुस्तक में अपनी पैठ नहीं बना सका है क्योंकि एक तो यह कि पुस्तक की व्यापक विषयवस्तु को संतुलित ढंग से और सही क्रम में रखा गया है. और दूसरी यह कि लेखिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा मूलतः तेलुगुभाषी हैं और तमिल, अंग्रेजी और हिंदी भाषा पर भी उनकी कौशलयुक्त दक्षता है. साथ ही वे एक सक्षम अनुवादिका भी हैं. अर्थात भाषासिद्धांतों के अनुप्रयोग को वे अपने जीवन में भी साधती रही हैं. इसीलिए जगह-जगह यह सुखद आभास होता है कि अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख करने में इस ‘वैयक्तिक बहुभाषिकता’ तथा ‘अनुवाद-कार्य’ के दौरान व्यतिरेकी विश्लेषण के आभास ने उनकी भरपूर मदद की है. 

आधुनिक भाषाविज्ञान की यह प्रसिद्ध मान्यता है कि किसी भी प्रकार के अनुप्रयोग का प्रस्थान-बिंदु ‘विश्लेषण’ होता है. और यह भी कि इस खास किस्म के विश्लेषण में भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री (डेटा) पर किया जाता है. लेखिका ने इस मान्यता को अपनाते हुए सैद्धांतिक भाषाविज्ञान की इकाईगत स्थापनाओं तथा तदनुरूप ‘सामग्री’ का उपयुक्त चयन किया है. ‘सामग्री विश्लेषण’ के लिए समसामयिक भाषाविज्ञान की महत्वपूर्ण ‘अवधारणाओं’ का चयन भी डॉ. जी. नीरजा की इस पुस्तक के व्यापक अध्ययन क्षेत्र और इन क्षेत्रों में उनकी रुचि का परिचायक है. 

इस पुस्तक की रूपरेखा एवं इसकी सामग्री सुचिंतित ढंग से प्रस्तुत और विश्लेषित की गई है. यह एक कटु सत्य है कि आज के अकादमिक माहौल में हिंदी और भारतीय भाषओं को लेकर इस तरह का लेखन विरल होता जा रहा है. भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग करते हुए जब इस तरह के ‘पाठ-केंद्रित’ अध्ययन दिखाई देते हैं तो अपार संतोष मिलता है कि ‘भाषा और पाठ’ के परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट संदर्भों और परिस्थितियों से बंधी भाषा/भाषाओं के विश्लेषण द्वारा विभिन्न भाषा-प्रकार्यों को देखने-समझने की परंपरा अभी कायम है. किसी भी भाषा-समाज के संदर्भ में इस ‘परंपरा’ अथवा ‘विश्लेषण प्रणाली’ (अनुप्रयुक्त) की गंभीरता, गहराई और उपादेयता पर भी लेखिका ने इस पुस्तक में पर्याप्त प्रकाश डाला है. 

पुस्तक का प्रत्येक खंड एवं संबद्ध आलेख बड़ी ही तन्मयता के साथ लिखे गए हैं. इस तन्मयता का ही परिणाम है कि हिंदी भाषा के साहित्यिक और साहित्येतर पाठों के विश्लेषण में यह सफल हो सकी है और इस तथ्य को उजागर कर सकी है कि कोई भी भाषा (इस अध्ययन में हिंदी भाषा) अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों और प्रयोजनों में अलग-अलग ढंग से बरती ही नहीं जाती, बल्कि भिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होते समय अपनी अकूत अभिव्यंजनात्मक क्षमता को भी अलग-अलग संरचनाओं में ढाल कर अलग-अलग तरीकों से सिद्ध करती है. पुस्तक में उद्धृत इस सैद्धांतिक कथन को डॉ. जी. नीरजा ने लगता है कि अपनी ‘परख’ में शब्दशः उतार दिया है –
         ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान को आज आधुनिक भाषाविज्ञान का संक्रियात्मक क्षेत्र माना जाता है. भाषाविज्ञान का मूल कार्य है – भाषा की आंतरिक प्रकृति पर प्रकाश डालना तथा भाषा संबंधी तथ्यों का संकलन और विश्लेषण करना, इसके लिए भाषाविज्ञान अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है. भाषाविज्ञान द्वारा प्रयुक्त सिद्धांतों का अनुप्रयोग भाषाविज्ञान, भाषा-उपभोक्ता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करता है. इस प्रकार अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के कई ऐसे क्षेत्र हमारे सामने आते हैं जो उपभोक्ता की आवश्यकताओं द्वारा नियंत्रित लक्ष्य का परिणाम होते हैं.’

‘भाषा-प्रायोज’ के विस्तीर्ण होते जा रहे नक्शे ने वैश्विक स्तर पर इस बात में तनिक भी संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ी है कि पिछली आधी सदी में भाषा से भाषा-उपभोक्ता (प्रयोक्ता-यूज़र) की अपेक्षाएँ बहुत बढ़ गई हैं. वास्तविकता यह भी है कि पिछले कुछ दशकों से भाषा-प्रयोक्ता की इन्हीं अपेक्षाओं की आपूर्ति अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान करता आ रहा है. ‘सामाजिक आवश्यकता’ के जरूरी उद्देश्य की पूर्ति में आधुनिक मानव भाषाओं ने भी अपनी तथाकथित भाषायी रूढ़ियों तथा ‘आदर्श भाषारूप’ के निर्वाह की ज़िद को तिलांजलि दे कर अपने प्रयोक्ता को ‘प्रयोग’ की वैविध्यपूर्ण संरचनाएँ प्रदान करने में तनिक भी संकोच नहीं किया. स्वाभाविक है कि ‘माँग और आपूर्ति’ की इस भाषिक प्रक्रिया को संभव बनाने में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की ‘संक्रियात्मक भूमिका’ सर्वोपरि रही. इस ‘सर्वोच्चता’ का एक ही प्रसंग पर्याप्त होगा कि आधुनिक भाषाविज्ञान की ‘व्यावहारिकता’ अथवा प्रयोक्ता/ प्रयोग सापेक्ष विकल्पनों के विश्लेषण की जो अनगिनत प्रविधियाँ आज हमें उपलब्ध हैं वे हमें अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की भिन्न-भिन्न शाखाओं से ही मिली हैं. इस पुस्तक के संबंध में एक सराहनीय बात यह भी है कि लेखिका ने इसमें अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के सीमित (भाषाशिक्षण) तथा व्यापक (समाजभाषा विज्ञान, अनुवाद विज्ञान, शैलिविज्ञान) इन दोनों ही संदर्भों या कहें शाखाओँ को समेटने का यत्न किया है. पुस्तक के सीमित कलेवर में ऐसा कर पाना कठिन रहा होगा पर डॉ. जी. नीरजा ने ऐसा कर पाने में सफलता अर्जित की है. 

आधुनिक भाषाविज्ञान की यह भी मान्यता है कि सटीक भाषा-सिद्धांत वही माना जाएगा जो उस सामग्री का ‘पूर्ण’ एवं ‘तार्किक’ विश्लेषण कर पाने में समर्थ हो जिस पर उसका अनुप्रयोग किया जाना है, अथवा किया जा रहा है. और तभी बाह्य-भाषावैज्ञानिक क्षेत्रों में किए गए भाषायी अनुप्रयोगों को भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग की उत्तम ‘संक्रिया’ कहा जा सकेगा. पुस्तक की विश्लेषणात्मक संक्रिया सीमित सामग्री के होते हुए भी ‘पूर्ण’ एवं ‘तार्किक’ है. 

इस बात से आज देश-विदेश के सभी अनुप्रयुक्त भाषावैज्ञानिक सहमत हैं कि व्यतिरेकी भाषाविज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, अनुवादविज्ञान, कोशविज्ञान, भाषाशिक्षण आदि व्यावहारिक क्षेत्रों में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की भूमिका सर्वोपरि है. इतनी महत्वपूर्ण कि इन सबको अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की शाखाएँ माना गया है – भाषाशिक्षण को तो इसका पर्याय तक कहा जाने लगा था. प्रस्तुत पुस्तक में सबसे  पहले ‘अन्य भाषा शिक्षण’ के क्षेत्र को द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण पर बल देते हुए विवेचित किया गया है. इस चर्चा में लेखिका ने भाषिक सिद्धांतों के ‘अनुप्रयोग’ की अनके श्रेणियों को ‘व्यतिरेकी विश्लेषण’ (कंट्रास्टिव एनालिसिस) की अनेक प्रविधियों द्वारा सामने रखा है – स्वाभाविक है कि यह सुचिंतित विश्लेषण दो भाषाओं हिंदी-तेलुगु की ‘भाषायी सामग्री’ पर आधारित है जिसे क्रमशः भाषिक-संरचना, भाषा-विकल्पन और आखीर में समाज-सांस्कृतिक तथ्यों की भाषिक परिणति को व्यतिरेकी विवरण देकर पुष्ट एवं वैज्ञानिक रूपाकार प्रदान किया गया है. पुस्तक का यह पूरा हिस्सा ‘अनुप्रयोग’ की ‘व्यावहारिकता की परख’ की दृष्टि से सर्वथा स्पष्ट एवं संक्षिप्त है. दो सजातीय भाषाओं की संरचना एवं प्रयोगगत भिन्नता के पीछे निहित पारिवारिक और सामाजिक स्तर भेदों (स्ट्रेटिफिकेशन) की ओर भी संकेत दिए गए हैं, जो आगे ‘समाज और ‘भाषा’ तथा ‘अनुवाद’ वाले खंडों में उभरकर सामने आते हैं, और भाषा की समाज-सांस्कृतिक एवं प्रयोगगत विभिन्नताओं पर बहुरेखीय प्रकाश डालते हैं. भाषा, भाषा-भेदों तथा बोलियों के समुच्चय से निर्मित भारतीय भाषाओं के यथार्थ को इस पुस्तक के लगभग सभी खंडों में पहचानने की कोशिश की गई है – टुकड़ों-टुकड़ों में, जिसे इस किताब की एक बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है. यह भी सराहनीय है कि ये सारे टुकड़े परस्पर जुड़कर ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ तथा उसकी क्षेत्र केंद्रित (फील्ड स्पेसेफिक) विश्लेषण-प्रक्रिया की भी एक सुथरी तस्वीर रच पाए हैं. 

इस पुस्तक के पूरे सैद्धांतिक कलेवर में जगह-जगह यह कहा गया है और इसकी पाठ-विश्लेषण-प्रणाली से भी यह तथ्य छन कर निकलता है कि मनुष्य, किसी भी समाज में जन्म लेते ही ‘भाषा-दर्शन’, ‘भाषा का समाजशास्त्र’ और ‘भाषा-समाज का मनोविज्ञान’ से स्वतः बंधता चला जाता है. मनुष्य की भाषा-अधिगम प्रक्रिया, उसके समाजीकरण एवं उसके व्यक्तित्व-निर्माण में कमोबेश इन तीनों की भूमिका अनिवार्यतः रहती है. संभवतः इसीलिए आधुनिक भाषाविज्ञान की यह मान्यता है कि मानव समाज के लिए भाषा एक बहुआयामी यथार्थ है अथवा ‘व्यवस्थाओं की व्यवस्था’ है. भाषा की यह ‘बहुआयामिता’ भाषायी सिद्धांतों के अनुप्रयोग की पड़ताल से और भी प्रभावी ढंग से उजागर होती जाती है. यही ‘पड़ताल’ संभवतः इस पुस्तक का मूलभूत अभिप्रेत अथवा लक्ष्य है. 

यह अभिप्रेत पुस्तक के ‘भाषाशिक्षण और ‘व्यतिरेकी विश्लेषण’ वाले अंश के भीतर से साफ प्रतिध्वनित होता है क्योंकि इसमें लगभग सभी समाजभाषावैज्ञानिक संकल्पनाएँ समाहित हैं. यह तो माना ही जा चुका है कि इनके अभाव में ‘व्यावहारिक भाषा’ की पहचान संभव ही नहीं है. यह बात भी अब सर्वमान्य है कि व्यावहारिक (Functional) और बोधात्मक (Cognitive) पक्ष के अधिगम में ‘समाज-भाषिक’ तथ्यों का यथोचित समावेश ‘भाषा शिक्षण’ को करना ही पड़ता है. वैसे तो इन तथ्यों के बिना अथवा इनकी त्रुटिपूर्ण समझ (Understanding) से उत्पन्न अनुवाद, शैलीविज्ञान और कोश-विज्ञान की अनुप्रयोगात्मक प्रक्रिया को भी अब सही या वैज्ञानिक नहीं माना जाता – अनुवाद और द्विभाषिक कोश निर्माण में ‘द्वि-निर्देशी’ (बाई-डॉयरेक्शनल) और शैलीवैज्ञान में ‘पाठ-केंद्रित’ होकर यह प्रक्रिया हमारे समक्ष आती है. पुस्तक में कोड-मिश्रण, भाषाद्वैत, भाषा-प्रकार जैसी संकल्पनाओं को हिंदी-तेलुगु व्यतिरेक के साथ लेखिका ने देखा है तथा भाषायी-संप्रेषण में इनकी महती भूमिका को एक पृष्ठभूमि की तरह हमारे समक्ष रखा है. ‘पृष्ठभूमि’ इसलिए कि पुस्तक का एक पूरा खंड ‘समाजभाषाविज्ञान’ पर केंद्रित है जिसमें लेखिका ने ‘समाजशैली विज्ञान’ को आधार बनाकर ‘भाषासिद्धांतों’ का अनुप्रयोग किया है. उदाहरण के लिए सर्वनाम प्रयोग के ‘समाज-संदर्भित’ वैविध्यों को ‘गोदान’ के माध्यम से विश्लेषित किया गया है. नाते-रिश्ते की शब्दावली की प्रयोगगत परख हिंदी के भिन्न ‘कथा-पाठों’ द्वारा की गई है. ‘दलित आत्मकथाओं का सामाजिक संदर्भ’ साहित्यिक या आलोचनात्मक अध्ययन बन गया. कमोबेश ऐसी ही स्थिति ‘स्त्री विमर्श’ वाले आलेख की भी है. पर ‘दलित भाषा’ और ‘स्त्री भाषा’ पर सार्थक बहस उठा देने से यह ‘पाठ’ ‘अनफिट’ होने से बच गया है. 

किताब का ‘अनुवाद’ संबंधी खंड ठोस है. लेखिका स्वयं एक समर्थ अनुवादिका है. अतः इस खंड की बनावट में उनकी व्यावहारिक दृष्टि की झलक बराबर मिलती चलती है. घटकीय (कंपोनेंशियल) विश्लेषण की समस्याओं पर किया गया विमर्श गहराई और सूक्ष्मता लिए हुए है. इसी कड़ी में ‘अनुवाद समीक्षा’ के अंतर्गत ‘दिनकर’ की चर्चित काव्यकृति ‘कुरुक्षेत्र’ के अंग्रेजी अनुवाद को लेकर शब्द और अभिव्यक्ति के धरातल पर एक के बाद एक घटकों के संरचनात्मक तथा समाज-सांस्कृतिक अंतरों को ‘अनुवादनीयता’ के परिप्रेक्ष्य में उभार दिया है. ‘बच्चन की अनुवाद विषयक मान्यताएँ’ एक जानकारी भरा आलेख है. इसकी प्रस्तुति रोचक एवं पठनीय है. साहित्येतर अनुवाद की समस्याएँ  मनोविज्ञान विषयक अनुवाद को आधार बना कर चला है पर इसकी सामग्री (डेटा) इतनी सीमित है कि समस्या को प्रयुक्तिगत विस्तार नहीं मिला पाता. ‘अनुवाद समीक्षा’ की दृष्टि से इस खंड में बहुत कुछ मूल्यवान है. 

मेरी दृष्टि में शैलीवैज्ञानिक अध्ययन वाला अंश भी प्रभावशाली है. प्रतापनारायण मिश्र के निबंध ‘शिवमूर्ति’ का भाषिक विश्लेषण इसलिए भी नवीन लगता है कि इसमें ‘पाठ’ को विराम-चिह्नों के आर्थी घटक के रूप में सामने रखकर भी देखा गया है. ‘स्वतंत्रता के पाठ की भाषा’ भी नयापन लिए हुए है क्योंकि यह हिंदी भाषा की समाज-राजनैतिक प्रयुक्ति के साहित्यिक पाठ में समावेश से संबंधित है. शमशेर तथा अज्ञेय की काव्य-भाषा पर विचार करने वाले दोनों आलेख परोक्षतः ‘कविता की भाषा’ पर खास-खास शैलीवैज्ञानिक मुद्दों को उठाने के कारण लेखिका की हिंदी कविता तथा हिंदी काव्य-भाषा के विषय में तात्विक जानकारी की गहरी कसौटी हैं. 

‘शैलीविज्ञान’ के ही अंग प्रयोजनमूलक भाषा अथवा प्रयुक्ति विश्लेषण केलिए लेखिका ने अपेक्षाकृत नए क्षेत्रों (फील्ड्स) का चयन किया है – विज्ञापन, प्रिंट मीडिया और टीवी विज्ञापन. मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि इनकी चयनित सामग्री अद्यतन है और विश्लेषण-प्रक्रिया पोर-पोर वर्गीकृत. यह अध्ययन हिंदी भाषा की मानक संरचना के व्यावहारिक या वैविध्यपूर्ण या आधुनिक बनने-बनाने की प्रक्रिया की ओर भी इशारा करता है – यह इस खंड की अन्य विशेषता है. 

इस पुस्तक के दो आलेख ‘प्रेरक’ की कोटि के हैं. एक दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास से संबद्ध है और दूसरा गांधी जी के भाषा-चिंतन से. मेरा इस संस्था से लंबा और गहरा संबंध रहा है अतः स्वाभाविक है कि भावात्मक स्तर पर इन लेखों ने मुझे खूब प्रभावित किया है. दोनों के भूमिकाएँ राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा हिंदी के विस्तार, प्रचार-प्रसार तथा व्यावहारिक स्तर के विकास से आबद्ध हैं. प्रेरक यह भी है कि परतंत्र भारत में ‘हिंदी भाषा’ की भूमिका को राष्ट्रीय, सांस्कृतिक एवं भावात्मक एकता के लिए निर्धारित करते हुए राष्ट्रभाषा के रूप में इसे मान्यता दिलवाने तथा संपर्क भाषा के रूप में उसकी अखिल भारतीय व्याप्ति को प्रमाणित करने के जो प्रयत्न किए गए उनका लेखा-जोखा है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के चारों केंद्रों (चेन्नई, हैदराबाद, एर्णाकुलम, धारवाड़) में किए-कराए गए कुछ महत्वपूर्ण भाषा केंद्रित शोध-प्रबंधों की संक्षिप्त सूची देकर लेखिका ने यह भी दर्शा दिया है कि अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के बृहत क्षेत्रों में से किसी एक को चुनकर दक्षिण भारत में हिंदी-शोध की एक परंपरा बन चुकी है. शोधार्थियों के लिए इस तरह के अध्ययन उन्हें बौद्धिकता एवं मौलिकता की दृष्टि से तो संतोष दे ही रहे हैं, ‘प्रोफेशनली’ भी उन्हें लाभ पहुंचा रहे हैं. 

पाँच भाषा-विवेचकों के विचारों को अंत में स्थान देने से पुस्तक के सभी खंडों को मानो अतिरिक्त प्रकाश मिल गया है क्योंकि ये विचार सीधे पिछले खंडों से जुड़ते चले जाते हैं और उन्हें विस्तार देने के साथ ही भाषा-संबंधी चिंतन की भिन्न धाराओं को परखने की दिशा भी देते हैं. एक ओर इसमें प्रेमचंद (गद्यकार) और अज्ञेय (कवि) के भाषा-विचार हैं जिनमें हिंदी के विकास और उसकी साहित्यिक रचनात्मकता पर चर्चा है. दूसरी ओर इसमें पं. विद्यानिवास मिश्र शामिल हैं जिनकी भाषा-तात्विक दृष्टि संस्कृतगर्भित और आधुनिक भारतीय चिंतन का अनूठा सम्मिश्रण है. फिर प्रो. रवींद्रनाथ श्रावास्त्व के और मेरे (प्रो. दिलीप सिंह) प्रमुख भाषावैज्ञानिक विचारों का समावेश किया गया है. प्रो. श्रीवास्तव भारत में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के जनक माने जाते हैं; विशेषकर ‘हिंदी भाषा’ के लिए ‘अनुप्रयोग’ की दिशाएँ प्रशस्त करने के कारण – खासकर भाषाशिक्षण, शैलीविज्ञान और सामजभाषाविज्ञान के स्तर पर. मैंने कुछ खास नहीं किया है – इन्हीं भाषाविचारकों के कार्य को व्यावहारिक जामा भर पहनाया है. इन पर खुद भी काम किया और विद्यार्थियों से भी कराया. यह स्पष्ट शब्दों में कहा जा सकता है कि ये सभी विचार-सरणियाँ मिलकर ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ की वह अपेक्षित छवि उभारती हैं जिन्हें लेखिका ने इस पुस्तक के माध्यम से उकेरने का प्रयास किया है. मैं अपनी तरफ से यह भी कहना चाहूँगा कि इन पाँच विचारकों के भाषा संबंधी विचारों ने मिलकर इस पुस्तक की उपादेयता एवं गंभीरता को बिना कुछ और कहे ही सिद्ध कर दिया है. 

अंत में बस इतना ही कि ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ डॉ. जी. नीरजा के अथक परिश्रम का परिणाम है. लेखिका की विषय के प्रति गहन आस्था पुस्तक के शब्द-शब्द में झलकती है. सुदूर दक्षिण में बैठ कर इस तरह की किताब तैयार करने का साहस दिखाने के लिए मैं व्यक्तिगत तौर पर डॉ. जी. नीरजा को साधुवाद देता हूँ. श्री अरुण माहेश्वरी, प्रबंध निदेशक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली ने इस पुस्तक के प्रकाशन में रुचि दिखाकर इस प्रकार के विरल होते जा रहे लेखन को प्रोत्साहित किया, वे मेरे धन्यवाद के पात्र हैं. 

मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक भाषाविज्ञान में रुचि रखने वाले अध्येताओं को पसंद आएगी तथा हिंदीतर भाषाभाषी हिंदी अध्यापकों तथा छात्र-छात्राओं को उपादेय लगेगी. 

मातृ-दिवस                                                                                                         - दिलीप सिंह 
2015

शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

(शुभाशंसा : प्रो. ऋषभदेव शर्मा) 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख'

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख 

गुर्रमकोंडा नीरजा 
2015
वाणी प्रकाशन
मूल्य : रु. 495
ISBN : 978-93-5229-249-3
पृष्ठ 304
                                      शुभाशंसा

हमारी परंपरा ने पंचभूतों की उत्पत्ति चिदाकाश से मानी है जिसमें नाद, शब्द, वाक् या भाषा व्याप्त है. इसीलिए हमारा सारा चिंतन भाषामूलक है. वाक् और अर्थ के संबंधों को समझने के लिए ही भाषाविज्ञान और काव्यशास्त्र विकसित हुए हैं. ये दोनों एक दूसरे को प्रभावित तो करते ही हैं, प्रतिच्छादित भी करते हैं. इन दोनों में भी भाषाविज्ञान अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक है और अपनी वैज्ञानिक विश्लेषण प्रक्रिया के कारण अनुप्रयोग की अनंत संभावनाएँ भी प्रस्तुत करता है. अनुप्रयोग से जुड़कर भाषाविज्ञान के सिद्धांत विभिन्न ज्ञान शाखाओं का विस्तार करते हुए नित्य नए क्षितिजों का उद्घाटन कर रहे हैं. इससे अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के कई क्षेत्र सामने आए हैं. भाषा शिक्षण, अनुवाद विज्ञान, शैलीविज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, संचार अभियांत्रिकी, कंप्यूटर विज्ञान आदि क्षेत्रों में भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग ने नई संभावनाओं को उजागर किया है. इसलिए अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की अलग अलग क्षेत्रों में व्यावहारिक परख भी आवश्यक हो गई है. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा की यह पुस्तक इसी दृष्टिकोण से लिखी गई है. 

लेखिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा को दक्षिण भारत में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन और तत्संबंधी शोधकार्य का अच्छा अनुभव है. वे समाजभाषिकी, अनुवाद, भाषा शिक्षण, व्यतिरेकी विश्लेषण, संचार, पत्रकारिता और साहित्यालोचन से व्यावहारिक रूप से प्रत्यक्षतः जुड़ी हुई हैं और इन विषयों पर प्रायः सोचती, पढ़ती और लिखती रहती हैं. यह पुस्तक उनके भाषा-साहित्य के स्वाध्याय और साधना का प्रीतिकर प्रतिफलन है. लेखिका ने अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के विभिन्न मुद्दों को आत्मसात करके उन्हें सोदाहरण सरल एवं सटीक भाषाशैली में इस पुस्तक में पिरोया है. 

सात खंडों वाली इस पुस्तक की प्रस्तुति पूर्णतः तर्कसंगत और क्रमिक विकास की दृष्टि से सोपानबद्ध है. ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ खंड में भाषा अध्ययन की दृष्टियों पर चर्चा करते हुए अनुप्रयोग के कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर प्रकाश डाला गया है. इस संक्षिप्त पीठिका के साथ अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख की ओर अगले छह खंडों में क्रमशः प्रस्थान किया गया है. इस प्रस्थान के बिंदु हैं – भाषा शिक्षण, अनुवाद विमर्श, साहित्य पाठ विमर्श या शैलीवैज्ञानिक विश्लेषण, प्रयोजनमूलक भाषा विमर्श, समाजभाषिक विमर्श और भाषाचिंतन. 

इसमें संदेह नहीं कि यह पुस्तक अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अनेक आयामों की व्यावहारिकता को उद्घाटित करने के साथ साथ उनका परीक्षण एवं मूल्यांकन भी करती है. इस दृष्टि से डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा की यह कृति भाषा और साहित्य, दोनों ही के जिज्ञासु पाठकों और शिक्षकों के लिए अत्यंत उपादेय सिद्ध होगी तथा नई पीढ़ी को अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की ओर आकृष्ट करने में भी सफल होगी, ऐसा मेरा विश्वास है. 

शुभकामनाओं सहित
25 अप्रैल, 2015                                                                                                  -  ऋषभ देव शर्मा

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

(फ्लैप वक्तव्य : प्रो. देवराज) 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख'

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख 

गुर्रमकोंडा नीरजा 
2015
वाणी प्रकाशन
मूल्य : रु. 495
ISBN : 978-93-5229-249-3
पृष्ठ 304
पुस्तक के बारे में  

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की सैद्धांतिकी पर चाहे जितना लिखा गया हो, उसकी व्यावहारिक परख के बारे में पुस्तकाकार नहीं लिखा गया है. इसका कारण लेखकों के समक्ष इकहरेपन से उभरी चुनौतियाँ हैं. प्रायः या तो हम कोरी सैद्धांतिकी को समर्पित होते हैं या उसे समझने की आवश्यकता अनुभव न करते हुए उसके निपट प्रयोक्ता. हम यह विचारने की भी कोशिश नहीं करते कि किसी भी लेखक, अध्येता, अनुवादक और कभी-कभी पाठक की दृष्टि से भी यह इकहरापन हमारे कार्य की गंभीरता, उपादेयता और प्रासंगिकता को हल्का बनाता है. हमें सार्थक होने और करने के लिए अपने इकहरेपन से मुक्त होने की महती आवश्यकता है. जो लेखक इस बात को समय पर स्वीकार कर लेता है, उसी का लिखा पीढ़ियों तक चल पाता है. इसके लिए उदाहरण खोजने बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, हमारे आसपास ही कुछ बड़े सटीक उदाहरण मिल जाते हैं.

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान ने भाषा, पाठ और अनुवाद में जो हस्तक्षेप किया है उसने लेखन, शिक्षण, समालोचना, अनुवाद आदि के परिदृश्य बदल डाले हैं. जिस अनुवाद को अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का अंग माना जाता है वह भी आज एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में ढलने के लिए अपना व्याकरण तेज़ी से तैयार कर रहा है. भाषा तो उसके सहारे अपना नया परिवेश रच ही चुकी है. अब देखना यह है कि इस वैज्ञानिक उपलब्धि के सहारे हम पाठ को कितनी दूर तक ले जाने का कौशल विकसित करते हैं और कहाँ तक उसे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक संदर्भों के साथ जोड़े रख कर भाषा, साहित्य व मनुष्य के रिश्ते की नई इबारत लिख पाते हैं.

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने एक ऐसे विषय पर भरपूर सामग्री तैयार की है जो अन्य लोगों के लिए रचनात्मक स्तर पर चुनौती बना हुआ है. उनकी अध्ययनशीलता और संकल्पशीलता के लिए मेरी शुभकामनाएँ!

- देवराज, आचार्य, अनुवाद अध्ययन विभाग, अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा – 442001.

बुधवार, 28 अक्टूबर 2015

(मेरी पुस्तक) अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख 

गुर्रमकोंडा नीरजा 
2015
वाणी प्रकाशन
मूल्य : रु. 495
ISBN : 978-93-5229-249-3
पृष्ठ 304

आज  [27 अक्टूबर, 2015] सुबह मेरे नाम पर वाणी प्रकाशन से एक पार्सल आया था. मैं अपनी आखों पर यकीन नहीं कर पाई. मेरी पुस्तक ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ की लेखकीय प्रतियाँ!!! मेरी आँखें अनायास ही नम हो आईं. 

‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ को लिखने के पीछे मेरे दो गुरुजन का प्रोत्साहन रहा - प्रो. दिलीप सिंह और  प्रो. ऋषभदेव शर्मा. इस पुस्तक का नामकरण भी दिलीप सर ने ही किया था. देखा जाय तो यह पुस्तक मेरे लिए देखा गया इन दोनों का सपना है जो आज इस रूप में पूरा हुआ है. मैं दोनों गुरुजन के प्रति कृतज्ञ हूँ. नतमस्तक हूँ. 

अपनी खुशी  दिलीप सर से बाँटनी चाही तो वे उपलब्ध नहीं हुए. मैं और मेरे पतिदेव शर्मा सर के घर पहुँच गए पुस्तकों के पार्सल सहित. शर्मा सर और पूर्णिमा मैडम दोनों पुस्तक को देखकर बेहद  खुश हुए. दोनों ने मुझे बार-बार आशीर्वाद दिए. 

गुरुजनों और हितैषियों के आशीष के अतिरिक्त और क्या चाहिए!

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

चाहिए सर्वोदय बेहतर दुनिया के लिए

महात्मा गांधी ने लोकतंत्र के भारतीय स्वरूप की कल्पना सर्वोदय के रूप में की थी. सर्वोदय का एक अर्थ है ‘सबका उदय’ तथा दूसरा अर्थ है ‘सब प्रकार से उदय’. जो व्यवस्था सब प्रकार से सबका उदय करे, सर्वोदय है. इसे देश काल से परे संपूर्ण मनुष्य जाति के लिए वांछित आदर्श माना जा सकता है. इसकी सिद्धि का मार्ग सहयोग, सत्याग्रह और समन्वय के तिराहे से सीधा अनासक्ति के शिखर की ओर बढ़ता है. यह कोई एकांगी राजनैतिक व्यवस्था नहीं है बल्कि परिवार, समाज, धर्म, राजनीति सब कुछ का नियामक सिद्धांत है. 

गांधी और मार्क्स दोनों ही समाज की वर्गीय विषमता से विचलित होते हैं. मार्क्स का विचलन जहाँ वर्ग संघर्ष की दिशा में बढ़ता है और अंततः वर्गहीन समाज की कामना करता है वहीं गांधी का विचलन वर्ग सहयोग की दिशा में बढ़ता है और समरस समाज की कामना करता है. मार्क्स जिस लक्ष्य को घृणा, हिंसा और युद्ध से प्राप्त करना चाहते हैं गांधी उसी लक्ष्य को प्रेम, अहिंसा और शांति द्वारा उपलब्ध होना चाहते हैं. लक्ष्य एक ही है – वर्गभेद की समाप्ति. गांधी को न तो धनपतियों का नर पिशाच बनना स्वीकार था और न ही धनहीनों का रक्तपिपासु पशु बनना. वे दोनों की इंसानीयत को बचाना, जगाना और बढ़ाना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख के उपयोगितावादी सिद्धांत का खंडन करते हुए सबके सुख का लक्ष्य सामने रखा. धन का समान वितरण और आर्थिक समानता चाहने वाले महात्मा गांधी का मानना था कि प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार प्राप्त होना चाहिए. सामान वितरण का यह अर्थ नहीं है कि हाथी और चींटी दोनों को बराबर भोजन दिया जाए. 

वास्तव में महात्मा गांधी ने सर्वोदय का यह विचार उस भारतीय परंपरा से प्राप्त किया है जिसमें संपूर्ण जगत को कुटुंब माना जाता है और अपने सुख से पहले लोक के सुख की कामना की जाती है – सब सुखी हों, सब नीरोग हों, सबका कल्याण हो और किसी को दुःख प्राप्त न हो. यह दोहराने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि सबका उदय चाहने वाले ऐसे समाज की प्रवृत्ति संघर्ष और हिंसा की प्रवृत्ति नहीं हो सकती. सब जीवों को परस्पर एक दूसरे के आश्रित और उपकारी मानने वाली भारतीय चेतना अहिंसा, स्वतंत्रता, समानता और सहयोग जैसे उत्कृष्ट मूल्यों के आधार पर ही समाज को संगठित करना चाहती है. अभिप्राय यह है कि सर्वोदय में सब प्राणी सब प्राणियों की कल्याण साधना में रत रहते हैं – सर्व भूत हिते रता. इसके लिए गांधी ने ट्रस्टीशिप का विचार सामने रखा जिसके अनुसार “पूँजीपति समाज के सदस्यों के पूँजी के संरक्षक होंगे जो पूँजी का प्रयोग उचित स्थान पर करेंगे. सभी बलवान दुर्बलों की रक्षा स्करेंगे अर्थात समाज का प्रत्येक सदस्य समाज के अन्य सदस्यों का ध्यान रखेगा. यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अधिकारों के आग्रह के स्थान पर अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करे तो मानव जाति में तुरंत व्यवस्था का राज्य स्थापित हो जाएगा.” (राकेश शर्मा ‘निशीथ’, महात्मा गांधी की विचारधारा आज भी प्रासंगिक, पृ. 96) 

युद्ध और आतंकवाद की विभीषिका से त्रस्त उत्तर आधुनि़क विश्व को यह समझना होगा कि गांधी द्वारा प्रतिपादित सर्वोदय ही इस धरती को सुरक्षित रखने का सर्वोत्तम मार्ग है. अन्यथा सुख साधनों पर एकाधिकार के लिए एक दूसरे को नष्ट करने पर तुले हुए देश पृथ्वी को मनुष्यों के रहने लायक नहीं छोड़ेंगे. केवल वर्गभेद ही नहीं, किसी भी प्रकार का भेदभाव गांधी के सर्वोदय को स्वीकार नहीं है. हम सब सभी प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठें, तभी महात्मा गांधी का सर्वोदय का स्वप्न साकार हो सकेगा. इस 2 अक्टूबर (गांधी जयंती) पर हम इन्हीं विचारों के साथ भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘गांधी का सपना’ को उद्धृत करते हुए इस अंक के आस्वादन हेतु आपको आमंत्रित करते हैं - 
                            यह अछूत वह काला गोरा 
                            यह हिंदू वह मुसलमान है 
                            वह मजदूर और मैं धनपति 
                            यह निर्गुण वह गुण निधान है 
                            ऐसे सारे भेद मिटेंगे जिस दिन अपने 
                            सफल उसी दिन होंगे गांधीजी के सपने. 

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

नहीं रहे उत्कट जीवट के धनी साहित्यकार बालशौरि रेड्डी

हिंदी-तेलुगु का एक सुदृढ़ सेतु गिर गया 

1 जुलाई, 1928 - 15 सितंबर, 2015
यह अत्यंत दुखद समाचार है कि तेलुगु और हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, ‘चंदामामा’ के पूर्व संपादक और बालसाहित्यकार, उत्कट जीवट के धनी बालशौरि रेड्डी हमारे बीच नहीं रहे. 15 सितंबर, 2015 को सुबह लगभग 10 बजे के आस-पास फोन की घंटी बजी और उठाते ही यह दुखद समाचार सुनने को मिला. अपने कानों पर यकीन नहीं कर पाई क्योंकि 8 सितंबर को उनसे फोन पर बात हुई थी तो कह रहे थे - बेटी भोपाल जा रहा हूँ विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने. आने के बाद बात करेंगे. वे मुझे बेटी कहकर संबोधित करते थे 

चूंकि रड्डी जी और मेरे पिताजी अच्छे दोस्त थे. बचपन में तो मैं उनकी गोद में खेली थी. उनकी जिजीविषा इतनी सक्षम थी कि वे दो बार मौत से जीत चुके थे. संकोच करते हुए रड्डी जी के घर फोन किया. उधर से भैया (उनके सुपुत्र) ने फोन उठाया और जब मैंने उनसे यह कहा कि ‘भैया यह मैं क्या सुन रही हूँ?’ तो उन्होंने कहा – ‘ठीक ही सुना है. सुबह 8.30 बजे चाय पी रहे थे और हम सबसे बात करते करते अचानक ही लुढ़क गए.’ बस इतना ही कह पाए. उनकी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी. 

बालशौरि रेड्डी का जन्म आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिला में स्थित गोल्लल गूडूर में 1 जुलाई, 1928 को हुआ था. उनकी मातृभाषा तेलुगु थी. अपनी मातृभाषा के साथ साथ हिंदी के लिए भी वे समर्पित थे. वे हमेशा यही कहा करे थे कि मेरी दो-दो मातृभाषाएँ हैं - तेलुगु और हिंदी. तेलुगु के साथ साथ हिंदी में भी उन्होंने अनेक मौलिक रचनाओं का सृजन किया. बालसाहित्य के साथ साथ उपन्यास, कहानी, नाटक निबंध, समीक्षा, आलोचना आदि विधाओं के माध्यम से उन्होंने दक्षिण भारत की संस्कृति को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का काम किया. मौलिक लेखन के साथ साथ अनुवादों के माध्यम से भी उन्होंने दक्षिण और उत्तर के भेद को मिटाने का प्रयास किया. 

पाश्चात्य देशों की तुलना में भारत में आज भी बालसाहित्य की कमी है. इस क्षेत्र में बालशौरि रेड्डी का प्रयास सराहनीय है. ‘चंदामामा’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बालसाहित्य लेखन को आगे बढ़ाया. उनकी मान्यता थी कि देश का भविष्य बच्चों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास पर ही निर्भर होता है. इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदी के बालपाठकों के लिए ‘तेलुगु की लोक कथाएँ’, ‘आंध्र के महापुरुष’, ‘तेनाली राम के लतीफे’, ‘तेनाली राम के नए लतीफे’, ‘बुद्धू से बुद्धिमान’, ‘न्याय की कहानियाँ’, ‘तेनाली राम की हास्य कथाएँ’, आदर्श जीवनियाँ’, ‘आमुक्तमाल्यदा’ जैसी बालोपयोगी रचनाएँ कलात्मक रूप से प्रस्तुत की. बालसाहित्य के संबंध एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि “बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य मनोरंजक हो. उनका हित करने वाला हो. साहित्य का कार्य है मानव मात्र को योग्य नागरिक एवं उत्कृष्ट सामाजिक बनाना, जीवन यात्रा में सही दिशा में बोध कराना. साहित्य मनोरंजन भी करे, साथ ही परोक्ष रूप से उसमें सामाजिक और नैतिक मूल्यों से युक्त मानदंड स्थापित करने की क्षमता भी हो.” उल्लेखनीय है कि उनकी पहली रचना बालसाहित्य की ही रचना थी. 

हिंदी प्रचार-प्रसार में बालशौरि रेड्डी का योगदान उल्लेखनीय है. यदि उन्हें राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत व्यक्ति कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. नेताओं की कथनी और करनी में अंतर देखकर वे चिंतित हो जाते थे. इसीलिए वे कहा करते थे - “हमारे राष्ट्रीय नेता तथा शासन तंत्र से जुड़े हुए लोग मंच पर अथवा हिंदी दिवस, सप्ताह या पखवाड़े के समारोहों में उत्तेजित स्वर में हिंदी के प्रति जोश प्रकट करते हैं तथा प्राचीन सांस्कृतिक वैभव का गुणगान करते थकते नहीं. किंतु व्यावहारिक रूप में कार्यान्वयन का जब प्रश्न उठता है, तब नाना प्रकार की समस्याओं की दुहाई देकर अपने को अधिक उदार होने की, प्रशस्ति पाने का नाटकीय अभिनय करते हैं. हमारे यहाँ कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर दर्शित होता है.” जो लोग यह मानते हैं कि हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाएँ बाधक बनती हैं उनकी धारणा को खंडित करते हुए वे कहा करते थे कि “मातृभाषा कभी भी राष्ट्रभाषा के मार्ग में बाधक नहीं बन सकती. सभी क्षेत्रीय भाषाएँ पुष्प हैं जो राष्ट्र रूपी हार की शोभा बढ़ाते हैं. हिंदी के विकास के पड़ाव में अंतर्धारा के रूप में मातृभाषा कार्य कर सकती है.” 

बालशौरि रड्डी क्रियाशील व्यक्ति थे. वे यह मानते थे कि आराम हराम है. महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और उनके विचारों से वे प्रभावित हुए तथा अपने जीवनकाल में उनके विचारों का पालन करते रहे. उनसे जब भी मुलाकात होते थी तो वे कहा करते थे – मुझे तो 100 साल तक जीने की उम्मीद है. उनकी जिजीविषा को देखकर हम सब आश्चर्य व्यक्त करते थे. हिंदी-तेलुगु का एक सुदृढ़ सेतु गिर गया. आज 13 साल पहले ही उनके सौ साल पूरे हो गए. ऐसे महान व्यक्तिव को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि. 

रविवार, 13 सितंबर 2015

भाषाभिमान जगाने के लिए......

सितंबर का महीना आते ही हर शिक्षण संस्थान, निगम, सरकारी कार्यालय आदि में ‘हिंदी दिवस’ के प्रसंगवश त्योहार का माहौल देखा जा सकता है. 14 सितंबर, 1949 को हिंदी ने भारत की राजभाषा का संवैधानिक पद प्राप्त किया और 14 सितंबर, 1954 को पहला ‘हिंदी दिवस’ मनाया गया. तब से यह सिलसिला जारी है. उल्लेखनीय है कि भाषा के अभाव में न ही मनुष्य का अस्तित्व होता है और न ही देश का. इस संदर्भ में थोमस डेविड का कथन ध्यान खींचता है. उनका कहना है कि कोई भी देश राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र नहीं कहला सकता. गोपालराव एकबोटे ने अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रभाषा विहीन राष्ट्र’ (हिंदी प्रचार सभा, 1984) में इसी बात पर जोर दिया है. इस वर्ष यह महीना इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो गया है कि 10 से 12 सितम्बर 2015 को भोपाल में 10वाँ विश्व हिंदी सम्मलेन संपन्न हुआ.

भाषा महज आदान-प्रदान या अभिव्यक्ति का साधन नहीं है अपितु वह मनुष्य की अस्मिता है. हिंदी एक ऐसी भाषा है जो एक साथ अनेक भूमिकाएँ निभा सकती है और निभा भी रही है. अर्थात जनभाषा, संपर्क भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, शिक्षा की माध्यम भाषा, प्रौद्योगिकी की भाषा, बाजार-दोस्त भाषा, मीडिया भाषा आदि. सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में हिंदी की भूमिका निर्विवाद है. 

स्मरणीय है कि विश्व हिंदी सम्मेलन की संकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा 1973 में की गई थी और 10-12 जनवरी, 1975 में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा' के तत्वाधान में नागपुर में किया गया. इस सम्मलेन का बोधवाक्य था 'वसुधैव कुटुंबकम्'. द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन मोरिशस में 28-30 अगस्त, 1976 में संपन्न हुआ. तदुपरांत नई दिल्ली (तीसरा सम्मेलन, 28-30 अक्टूबर, 1983), मोरिशस (चौथा सम्मलेन, 2-4 दिसंबर, 1993), त्रिनिडाड व टोबेगो (पांचवा सम्मेलन, 4-8 अप्रैल, 1996), लंदन (छठा सम्मेलन, 14-18 सितंबर, 1999), सूरीनाम (सातवाँ सम्मेलन, 6-9 जून, 2003), न्यूयॉर्क (आठवाँ सम्मेलन, 13-15 जुलाई, 2007), जोहानसबर्ग (नौवाँ सम्मेलन, 22-24 सितंबर, 2012) और भोपाल (दसवाँ सम्मेलन, 10-12 सितंबर, 2015) आदि देशों में विश्व हिंदी सम्मेलनों का आयोजन किया गया.

सम्मेलन का मूल उद्देश्य इस बात पर विचार विमर्श करना था कि ‘हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश पाकर विश्व भाषा के रूप में समस्त मानव जाति की सेवा की ओर अग्रसर हो. साथ ही यह किस प्रकार भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र 'वसुधैव कुटुंबकम' विश्व के समक्ष प्रस्तुत करके 'एक विश्व एक मानव परिवार' की भावना का संचार करे.' नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए अब समुचित और समयबद्ध कार्रवाई की जाएगी. 

हिंदी के वैश्विक विस्तार हेतु विचारणीय बिंदुओं के संबंध में आज सोशल मीडिया के माध्यम से काफी कुछ कहा जा रहा है. यहाँ 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ (हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार का मंच) एक ऐसा मंच सक्रिय है जिसके माध्यम से आम जनता हिंदी भाषा के संबंध में अपने विचार व्यक्त कर पा रही है. हिंदी दिवस और विश्व हिंदी सम्मलेन के हवाले से यहाँ विभिन्न लोगों द्वारा सुझाए गए कुछ बिंदु पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत हैं – 

  • अनेक कंप्यूटर-साधित सॉफ्टवेयर बनाए जाएँ जिससे हिंदी का प्रचलन और भी आसान हो सके. 
  • विभिन्न संगठनों द्वारा विकसित भाषा-उपकरण न सिर्फ सरकारी दफ्तरों तक सीमित हो अपितु उसे जन-मानस के लिए सुलभ कराया जाए. 
  • हिंदी सिर्फ एक सरकारी भाषा बन के न रह जाए अपितु लोग उसे सहर्ष स्वीकारें. अहिंदी भाषियों को इस प्रकार प्रेरित करना चाहिए कि वो हिंदी को सहर्ष ही अपने आप स्वीकारें.
  • इंडिया हटाओ ‘भारत’ बनाओ. 
  • भारत सरकार के सभी कार्यालयों, मंत्रालयों, विभागों आदि का कामकाज प्रथम राजभाषा हिंदी में नोट शीट से ले कर सभी विधेयक तक बिना विलम्ब प्रारम्भ कर दिया जाय. 
  • न्याय के क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय तक अपील तथा बहस की सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध करा दी जाए. 
  • सभी कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बिना विलंब बनाने के समय आ गया है. 
  • देश में देवनागरी लिपि के लिये अंग्रेजी भाषा की लिपि का उपयोग तेज़ी से बढ़ाया जा रहा है. यह हिंदी की लिपि देवनागरी के अस्तित्व पर संकट पैदा कर रहा है. इसे हतोत्साहित करना चाहिए. 
अंततः इतना ही कि अब समय आ गया है कि हिंदी को उसका सही सम्मानपूर्ण वैश्विक स्थान प्रदान कराने के लिए सभी भारतवासियों को नवीनतम भाषा प्रौद्योगिकी से सुसज्जित होकर भाषाभिमान का परिचय देना चाहिए.

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

'मिसाइल मैन' डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम

27 जुलाई, 2015. शिलांग. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के सम्मेलन में हिस्सा लेते समय ‘मिसाइल मैन’ के नाम से विख्यात भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम मूर्छित हो गए और बाद में उनका निधन हो गया. 

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का जन्म तमिलनाडु के रामेश्वरम जिले के धनुषकोडी नामक गाँव में 15 अक्टूबर, 1931 को हुआ था. मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे कलाम ने कठिन परिश्रम से जीवन में सफलता अर्जित की. 1954 में मद्रास विश्वविद्यालय से भौतिक विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद 1958 में मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से अंतरिक्ष विज्ञान की उपाधि प्राप्त की. उसके बाद हावरक्राफ्ट परियोजना पर काम करने के लिए भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में प्रवेश लिया. 1962 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से जुड़े और अनेक उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं में भाग लिया. स्मरणीय है कि परियोजना निदेशक के रूप में उन्होंने भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान (एसएलवी 3) के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसके परिणास्वरूप जुलाई 1982 में ‘रोहिणी’ उपग्रह अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक भेजा जा सका. इतना ही नहीं उन्होंने ‘अग्नि’ एवं ‘पृथ्वी’ जैसे प्रक्षेपास्त्रों के निर्माण में स्वदेशी तकनीक को अपनाया. 1988 में उनकी देखरेख में भारत ने पोखरण में सफलतापूर्वक परमाणु परीक्षण किया. यदि कहा जाय कि अब्दुल कलाम के कठिन परिश्रम के कारण ही भारत परमाणु शक्ति से संपन्न राष्ट्रों की सूची में शामिल हुआ तो गलत नहीं होगा. प्रक्षेपास्त्रों के विकास के संबंध में उन्होंने कहा कि ‘2000 वर्षों के इतिहास में भारत पर 600 वर्षों तक अन्य लोगों ने शासन किया है. यदि आप विकास चाहते हैं तो देश में शांति की स्थिति होना आवश्यक है और शांति की स्थापना शक्ति से होती है. इसी कारण प्रक्षेपास्त्रों को विकसित किया गया ताकि देश शक्ति संपन्न हो.’ 18 जुलाई, 2002 को डॉक्टर कलाम भारत के 11 वें राष्ट्रपति चुने गए. 

सफल वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ के साथ साथ अब्दुल कलाम समर्थ साहित्यकार भी थे. विंग्स ऑफ़ फायर (अग्नि की उड़ान), इंडिया 2020 - ए विज़न फ़ॉर द न्यू मिलेनियम (भारत 2020 नवनिर्माण की रूपरेखा), माई जर्नी, इग्नाइटेड माइंड्स - अनलीशिंग द पावर विदिन इंडिया’, महाशक्ति भारत, हमारे पथ प्रदर्शक, हम होंगे कामयाब, अदम्य साहस, छुआ आसमान, भारत की आवाज़ और टर्निंग प्वॉइंट्स आदि उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं. ‘अग्नि की उड़ान’ में अब्दुल कलाम की जीवनी के साथ साथ 'अग्नि', 'पृथ्वी', 'त्रिशूल' और 'नाग' मिसाइलों के विकास की भी कहानी अंकित है. 

अब्दुल कलाम भारत के विकास और निर्माण के बारे में सोचा करते थे. इस संबंध में उन्होंने लिखा भी था कि ‘हमारे पास वह सब कुछ है, जो हमें ऐसे राष्ट्र में रूपांतरित कर सकता है कि दुनिया के देशों में हम गर्व से सिर उठाकर चल सके. वैभव के शिखर पर जाने का रोडमैप क्या है? शोध, डिजाइन, विकास, उत्पादन और फिर सच्चे अर्थों में भारत में निर्मिति. यही है मैक इन इंडिया को साकार करने का अर्थ. हमारे पास ऐसी बौद्धिक क्षमता है कि जो चीज हमें दूसरे देश नहीं देते हम उन्हें विकसित कर लेते हैं. दुनिया के 15 बड़े निर्यातक देशों में मैन्यूफैक्चरिंग की सबसे कम लागत हमारे यहाँ है और उद्यमशीलता के मामले में हमारी बराबरी अमेरिका की सिलिकॉन वैली से होती है. जाहिर है नौजवानों के लिए व्यापक अवसर हैं.’ डॉ. कलाम अपने संबोधन में अक्सर यही कहा करते थे कि देश को आगे ले जाना है तो बच्चों को कमर कसकर आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि भ्रष्टाचार मुक्त देश का निर्माण उन्हीं के हाथों संभव है. वे कहा करते थे कि ‘अपने मिशन में कामयाब होने के लिए, आपको अपने लक्ष्य के प्रति एकचित्त निष्ठावान होना पड़ेगा.’ 

अब्दुल कलाम इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स का नेशनल डिजाइन अवार्ड, एरोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया का डॉ. बिरेन रॉय स्पेस अवार्ड, एस्ट्रोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया का आर्यभट्ट पुरस्कार, विज्ञान के लिए जी.एम. मोदी पुरस्कार, राष्ट्रीय एकता के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए. 1981 में पद्म भूषण, 1990 में पद्म विभूषण तथा 1997 में भारत रत्न से सम्मनित हुए. लेकिन दंभ व अहंकार लेशमात्र के लिए भी उन्हें छू न सके. 

मानवता के प्रबल समर्थक अब्दुल कलाम को ‘स्रवंति’ परिवार की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि. 

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को प्रो. देवराज (वर्धा) की भावभीनी श्रधांजलि 

महावृक्ष की रोशनी 
- देवराज 
                                       एक छतनार महावृक्ष 
                                       धरती पर आ गिरा 
                                       पूर्वोत्तर की पहाड़ियों को 
                                       अमृत-फल बाँटते हुए 
                                       भीतर कहीं एक विस्फोट जा धँसा 
                                       तने को चीरते हुए 
                                       थरथराईं शाखा-प्रशाखाएँ 
                                       कुछ ही क्षण, 
                                       शांत पड़ती गईं 
                                       एक-एक कर सारी पत्तियाँ, 
                                       फटी की फटी रह गईं 
                                       डालियों पर चहचहाते 
                                       पंछियों की आँखें, 
                                       छटपटाए बेतरह 
                                       उड़ते रहे चारों तरफ 
                                       एक दूसरे से सवाल करते हुए 
                                       ‘क्या करें कि लौट आये 
                                       शिराओं में रक्त का बहाव?’ 
                                       आवाजें लगाते रहे हलक फाड़ 
                                       नहीं सुना 
                                       दूर जाते स्पंदन ने, 
                                       नहीं लौटा वह 
                                       पंछियों के लिए महावृक्ष के पास, 
                                       असफल हुईं प्रार्थनाएँ 
                                       रिक्त होती गईं हवाएँ 
                                       पास आती गई रात 
                                       धीरे-धीरे टहलते हुए 
                                       ........... ............ 
                                       मगर एक रोशनी भी 
                                       तेजवंती आभा लिए 
                                       फूट रही है महावृक्ष के फलों से 
                                       पंछियों की दिशा में बढ़ती रात को 
                                       पीछे धकेलने का आह्वान 
                                       रश्मि-जाल के तंतुओं में. 
                                       क्या सुन पा रहे हैं पंछी 
                                        महावृक्ष को? 

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता

आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता 

- ऋषभ देव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा 

भारत के दक्षिणपूर्व समुद्र तट पर अवस्थित अविभाजित आंध्रप्रदेश राज्य (जो अब 2 जून 2014 से आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के रूप में नवगठित हो चुका है) क्षेत्रफल की दृष्टि से 2 जून 2014 तक देश का चौथा और जनसंख्या की दृष्टि से पांचवाँ सबसे बड़ा राज्य था जिसमें तीन क्षेत्र शामिल हैं – तेलंगाना, तटीय आंध्र और रायलसीमा. अविभाजित आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद ही फिलहाल नवगठित दोनों प्रांतों की राजधानी है. आंध्र और तेलंगाना की राजभाषा तेलुगु रही है. उर्दू यहाँ की सहराजभाषा है और हिंदी, मराठी, तमिल, कन्नड़ तथा उड़िया भाषियों की भी यहाँ बड़ी तादाद है. स्मरणीय है कि अविभाजित आंध्रप्रदेश का गठन 1 नवंबर 1956 को तत्कालीन आंध्रप्रदेश के साथ हैदराबाद राज्य के तेलुगु भाषी क्षेत्रों को सम्मिलित करके किया गया था. वर्तमान में आंध्रप्रदेश और तेलंगाना राज्य से तेलुगु, उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी की अनेक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं. प्रमुख तेलुगु पत्र-पत्रिकाएँ हैं – ईनाडु, आंध्रभूमि, आंध्रप्रभा, आंध्रपत्रिका, आंध्रज्योति, प्रजाशक्ति, साक्षी, वार्ता, सूर्या, नमस्ते तेलंगाना और विशालांध्रा. उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में सम्मिलित हैं – अवाम, इत्तेमाद (डेली), मुंसिफ (डेली), सियासत (डेली), ब्लिट्ज़. राज्य के प्रमुख हिंदी दैनिक पत्र हैं – डेली हिंदी मिलाप और स्वतंत्र वार्ता. साथ ही अनेक पत्रिकाएँ हिंदी में प्रकाशित होती हैं. इनके अलावा अंग्रेज़ी के जिन पत्रों के संस्करण आंध्रप्रदेश से प्रकाशित होते हैं उनमें शामिल हैं – डेक्कन क्रोनिकल, हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स, बिजनस लाइन, इकोनॉमिक टाइम्स, न्यू इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, प्लेज और हंस इंडिया. उल्लेखनीय है कि आंध्रप्रदेश में पत्रकारिता का इतिहास बहुत पुराना है. तेलुगु पत्रकारिता तो 19वीं शताब्दी के दूसरे दशक से ही आरंभ हो गई थी. इसके बाद उर्दू पत्रकारिता का उदय 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हुआ जबकि हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी द्वारा चलाये गए हिंदी प्रचार अभियान के दौर में और खास तौर से ब्रिटिश और निजाम शासन के विरुद्ध आर्य समाज की राष्ट्रीय गतिविधियों के साथ बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के आरंभिक वर्षों में उदित हुई. 

1. आंध्रप्रदेश की तेलुगु पत्रकारिता 
तेलुगुभाषी प्रांत आंध्रप्रदेश में प्रकाशन की सुविधा और पत्रकारिता के इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि ईसाई मिशनरियों के प्रयास से 1747 में तेलुगु में ‘बाइबिल’ का प्रकाशन हुआ. आगे चलकर 1818 में मछलीपट्टनम (बंदरु, जिला कृष्णा) से ‘हितवादी’ और 1835 में बल्लारी से ‘सत्यदूत’ – ये दो तेलुगु पत्रिकाएँ निकलीं जो ईसाई धर्मप्रचार पर केंद्रित थीं. सुरवरम प्रताप रेड्डी ने ‘आंध्रुला सांघिक चरित्र’ (आंध्र का समग्र इतिहास) नामक ग्रंथ में यह सूचित किया है कि 19वीं शताब्दी के मध्य काल में ‘श्रीयक्षिणी’ (साप्ताहिक) प्रकाशित होती थी जिसे उन्होंने तेलुगु भाषा की प्रथम पत्रिका माना है. लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय राजनैतिक चेतना और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी हुई पहली तेलुगु पत्रिका 1838 में मंडिगल वेंकटराय शास्त्री के संपादन में मद्रास से प्रकाशित हुई जिसका नाम था ‘वृत्तांतिनी’. इसमें सरकार से संबंधित टिप्पणी, जुलूस तथा हड़ताल आदि से संबंधित समाचार प्रमुखता से प्रकाशित होते थे. वास्तव में ‘वृत्तांतिनी’ को पहली देसी तुलुगु पत्रिका होने का गौरव प्राप्त है. (डॉ.बालशौरि रेड्डी, ‘तेलुगु पत्रिकला चरित्र’, (तेलुगु पत्रिकाओं का इतिहास), एमएसको बुक्स, हैदराबाद, 2010).

1842 में पुव्वाड वेंकटराव के संपादकत्व में ‘वर्तमान तरंगिणी’ का प्रकाशन आरंभ हुआ जो आठ वर्ष तक चला. इस पत्रिका को संस्कृत महाकाव्यों का तेलुगु अनुवाद प्रकाशित करने का श्रेय है. इसके अतिरिक्त 1848 में ‘हितवादी’ और ‘दिन वर्तमान’ जैसी पत्रिकाएँ निकलनी शुरू हुईं जिनमें क्षेत्रीय समाचारों के साथ साहित्यिक विषयों का भी समावेश होता था. उल्लेखनीय है कि 1862 में पूर्णरूप से साहित्यिक, शैक्षणिक और वैज्ञानिक विषयों को समर्पित मासिक पत्रिका ‘सुजन रंजनी’ आरंभ हुई जो बाद में त्रैमासिक हो गई. 1863 में बल्लारी से ‘श्रीयक्षिणी’ तथा 1865 में मद्रास से ब्रह्मसमाज की पत्रिका ‘तत्वबोधिनी’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. इन पत्रिकाओं ने विदेशी धर्मप्रचार का सामना करने के लिए भारतीय दर्शन, धर्म, निष्ठा, स्वाभिमान, राष्ट्रभक्ति और समाज सुधार पर ध्यान केंद्रित किया. ये पत्रिकाएँ अंग्रेज़ों के अत्याचार के विरुद्ध भी खुलकर लिखतीं थीं. (चर्ल अन्नपूर्णा, तेलुगु पत्रकारिता (आलेख), भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन, 2000, (सं.) दिलीप सिंह और ऋषभ देव शर्मा). इस अवधि की एक अन्य पत्रिका थी ‘आंध्र भाषा संजीवनी’. इसमें भी साहित्य, समाज और राजनीति विषयक लेख और समीक्षाएँ प्रकाशित होती थीं. तेलुगु भाषा के विकास में इस पत्रिका का योगदान अत्यंत महवपूर्ण है. तेलुगु पत्रकारिता के प्रथम दौर की इन सभी पत्रिकाओं ने सामाजिक, राजनैतिक और राष्ट्रीय चेतना को उद्बुद्ध करने के साथ साथ आंध्र क्षेत्र के नए लेखकों को प्रोत्साहित करने का बड़ा काम किया. यहाँ ‘पुरुषार्थ प्रदायिनी’ (1872 से प्रकाशित/ (सं) उमा रंगनायकुलु), ‘स्वधर्म प्रकाशिनी’, सुधीरंजनी’ और ‘सकल विद्याभिवर्धिनि’ का भी उल्लेख किया जा सकता है जिनमें तेलुगु मुहावरे, लोकोक्तियाँ, प्राचीन सूक्तियाँ और ऐतिहासिक गाथाएं प्रकाशित होती थीं. 

1874 में आधुनिक तेलुगु भाषा के सुधार आंदोलन के प्रवर्तक कंदुकूरि वीरेशलिंगम द्वारा राजमहेंद्री से प्रकाशित ‘विवेकवर्धनि’ के साथ तेलुगु पत्रकारिता के नए युग का सूत्रपात हुआ. “वहीं से उन्होंने सन 1874 में ‘विवेकवर्धनि’, सन 1883 में ‘सतीहितबोधिनि’, सन 1892 में ‘सत्यसंवर्धनि’, सन 1905 में ‘सत्यवादिनि’ नामक पत्रिकाओं का क्रमश: प्रकाशन किया और सामाजिक परिवर्तन तथा राष्ट्रीय जागरण के प्रधान आधार के रूप में इन्हें स्थापित किया. इतना ही नहीं उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि लोगों की रुचि ही समाचार पत्र की असली पूंजी है. उस समय की प्रगतिविरोधी शक्तियों, मठाधीशों, धोखेबाजों और गुंडों की भी उन्होंने अच्छी ख़बर ली. उनकी पत्रिकाओं से ये असामाजिक तत्व थर-थर कांपते थे.” (वही) 

यहाँ किसी अंग्रेज़ी पत्रिका के प्रथम तेलुगुभाषी संपादक के रूप में प्रतिष्ठित नेल्लूर वासी दामपुरी नरसैया का उल्लेख आवश्यक है. उन्होंने अंग्रेज़ी में मद्रास से ‘द नेटिव एडवोकेट’ (साप्ताहिक) का संपादन किया. साथ ही अनेक समाज सुधारकों तथा ब्रह्म समाज से प्रभावित होकर 1871 में नेल्लूर से ‘नेल्लूर पायोनियर’ का प्रकाशन किया. उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़कर 1881 से’ 1897 तक की अवधि में ‘पीपुल्स फ्रेंडली’ (अंग्रेज़ी साप्ताहिक) का प्रकाशन किया. दामपुरी नरसैया को तेलुगु के प्रथम साप्ताहिक ‘आंध्र भाषा ग्राम वार्तामणि’ के प्रकाशन का भी श्रेय प्राप्त है जिसे उन्होंने ग्रामीण, निर्धन और दलित समुदाय के हितों के लिए समर्पित किया. 

1876 में वी.कृष्णमाचार्युलु के संपादकत्व में मद्रास स्कूल बुक एंड वर्नाकुलर लिटरेचर सोसाइटी की ओर से मद्रास से प्रथम बालोपयोगी तेलुगु पत्रिका ‘जनविनोदिनि’ निकली. इस अवधि की अन्य उल्लेखनीय पत्रिकाएँ हैं - ‘शशिरेखा’ (1874 से/ मद्रास/ (सं) गटुपल्लि शेषाचार्युलु), ‘आंध्रप्रकाशिका’ (1885 से/ (सं) ए.वी.पार्थसारथी नायुडु), ‘देशाभिमानी’ (मासिक) (1890 से/ बेजवाड़ा (विजयवाडा) : (सं) देशगुप्तम शेषाचलपति द्वारा आरंभ यह पत्र आगे चलकर दैनिक हो गया. अतः ‘देशाभिमानी’ को तेलुगु का प्रथम दैनिक समाचार पत्र माना जाता है), ‘मनोहारिणि’ (नरसापुर/ (सं) अखिलन), ‘चिंतामणि’ ((सं) न्यायपति सुब्बाराव). तेलुगु पत्र-पत्रिकाओं के इतिहास में स्त्री संबंधी प्रथम पत्रिका के रूप में ‘सतीहितबोधिनि’ (सं. वीरेशलिंगम पंतुलु) के अतिरिक्त स्वयं महिलाओं द्वारा संपादित ये पत्रिकाएँ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं – ‘सौंदर्यवल्ली’ (मद्रास/ (सं) श्रीमती रामबाई), ‘हिंदू सुंदरी’ (काकीनाडा/ (सं.) मोसलिकंटि रामबायम्मा), ‘सावित्री’ (सं. पुलुगुर्ति लक्ष्मी नरसमाम्बा), ‘अनसूया’ (सं. विन्जमूरि वेंकट रत्नम्मा). 

बीसवीं शताब्दी में तेलुगु पत्रकारिता का बहुमुखी विकास हुआ तथा इसके माध्यम से “व्यावहारिक भाषा” को लोकप्रियता प्राप्त हुई. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के युग में देशभक्त कोंडा वेंकटप्पय्या (1902, बंदरु – कृष्णा पत्रिका), चिलकमर्ती लक्ष्मी नरसिम्हम (मनोरमा – 1906, देशमाता – 1910) और मुट्नूरी कृष्णाराव (1907 से कृष्णा पत्रिका के संपादक) जैसे पत्रकारों के नाम प्रमुख हैं. 1905 में “वंदेमातरम आंदोलन” के प्रबल होने पर तेलुगु पत्रकारिता में राष्ट्रीयता का जमकर विकास हुआ. अंग्रेज़ विरोधी तेवर के कारण चिलकमर्ती लक्ष्मी नरसिम्हम (भारतभूमि एक दुधारू गाय है, अंग्रेज़ रूपी चालाक ग्वाले भूखे बछड़े की तरह रोती हुई भारतीय जनता के मुँह को छींके से बाँधकर इस गाय का दूध अपने लिए दुह रहे हैं.) और ‘स्वराज्य’ (1908) के संपादक गाडिचर्ल हरिसर्वोत्तम राव (अरे रे! फिरंगी! क्रूर व्याघ्र!) को जेल यात्रा करनी पड़ी. इस युग में चिल्कूरी वीरभद्रराव ने राजमहेंद्री से ‘आंध्रकेसरी’ और चिल्लरिगि श्रीनिवास राव ने मछलीपट्टनम से ‘नवयुग’ का प्रकाशन किया. जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है 1902 में देशभक्त कोंडा वेंकटप्पय्या और दासु नारायण राव द्वारा शुरू की गई ‘कृष्णा’ पत्रिका से 1907 में मुट्नूरि कृष्णा राव संपादक के रूप में जुड़े. इस पत्रिका से अवटपल्ली नारायण राव, पट्टाभि सीतारामैया, कोपल्ले हनुमंता राव और कौता राममोहन शास्त्री भी संबद्ध रहें. 

‘कृष्णा पत्रिका’ के समान ही ‘आंध्र पत्रिका’ ने भी राष्ट्रीय आंदोलन काल में संघर्षशील पत्रकारिता का इतिहास रचा. इसे 1908 में साप्ताहिक के रूप में काशीनाथुनि नागेश्वरराव पंतुलु ने मुंबई से आरंभ किया था. 1914 में इसे दैनिक पत्र के रूप में मद्रास स्थानांतरित कर दिया गया. बाद में दैनिक और साप्ताहिक ‘आंध्र पत्रिका’ के साथ साथ काशीनाथुनि नागेश्वर राव पंतुलु ने साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘भारती’ भी निकाली. पंतुलु के प्रयास से तेलुगु जनता में पठन-पाठन के संस्कार का प्रभूत विस्तार हुआ और उनकी प्रेरणा से अनेक देशभक्त युवक पत्रकारिता के क्षेत्र में आए. स्मरणीय है कि विश्वनाथ सत्यनारायण का विख्यात महाकाय उपन्यास ‘वेयीपडगलु’ (सहस्रफण) ‘आंध्र पत्रिका’ में दैनिक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ था. 

“बाद में ‘आंध्र साहिती परिपुष्पत्रिका’ नामक पत्रिका सन 1912 में प्रकाशित हुई. इसी युग में ‘त्रिलिंग’ नामक पत्रिका सन 1916 में निकली. इसी प्रकार सन 1923 में निकली ‘मुत्याला सरस्वती’ नामक पत्रिका ने प्राचीन प्रबंध काव्यों के प्रचार को प्रधानता दी. सन 1924 में प्रकाशित ‘आंध्र सर्वस्वम’ और ‘सारस्वत सर्वस्वम’ आदि पत्रिकाएँ उल्लेखनीय हैं. इसी वर्ष में प्रकाशित ‘प्रबुद्धान्ध्र’ नामक पत्रिका में गिडुगु राममूर्ति जी के व्यावहारिक भाषा वाद को समर्थन मिलता है.” (एल.विश्वनाथ रेड्डी, तेलुगु भाषा के विकास में पत्रिकाओं का योगदान, सहस्र वर्षों का तेलुगु इतिहास, (सं) यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद). 

महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन ने तेलुगु पत्रकारों की एक और नई पौध तैयार की. इनमें टंगुटूरी प्रकाशम पंतुलु का नाम शीर्षस्थ है जिन्होंने 1921 में मद्रास से ‘स्वराज्य’ का अंग्रेज़ी, तमिल और तेलुगु में प्रकाशन आरंभ किया. उनके बाद गोविंदराजुलु वेंकट कृष्णा राव ने भी मद्रास से ही ‘नवयुगम’ का प्रकाशन किया. उन्हें तेलुगु के प्रथम साम्यवादी पत्रकार माना जाता है. ‘मातृसेवा’ (1922, ताड़िपत्री से, गाडिचर्ल हरिसर्वोत्तम राव), ‘कांग्रेस’ (1922, राजमहेंद्री, अन्नपूर्णय्या) तथा ‘सत्याग्रही’ (एलुरु, आत्मकूरी गोविंदाचार्युलू) को ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा. ‘कांग्रेस’ के कई संपादकों को जेलयात्रा भी करनी पड़ी. राष्ट्रीय आंदोलन को तीव्रतर बनाने में एलुरु से प्रकाशित ‘गान्डीवमु’ और ‘देवदत्तमु’, मद्रास से प्रकाशित ‘जन्मभूमि’ (एक कानी – तीन कौड़ी मूल्य के कारण ‘कानी’ पत्रिका नाम से प्रसिद्ध) तथा नेल्लूरु से प्रकाशित ‘जमीनु रैतु’ (1928) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 

राष्ट्रीय आंदोलन काल में रायलसीमा और तेलंगाना क्षेत्र से भी कई तेलुगु पत्रिकाएँ प्रकाशित हुईं. ‘मातृसेवा’ (ताड़िपत्री), ‘हास्य मंजूषा’ (अनंतपुर), ‘पिनाकिनी’, ‘कौमोदिकी’ (नंदयाल), ‘इंद्रावती’ (सं. वनम शंकर शर्मा), ‘विजयवाणी’ (सं. मूलनारायण स्वामी), ‘ब्रह्मनंदिनी’ (कडपा, (सं.) स्वधानम कृष्णमुनी) रायलसीमा की प्रतिनिधि पत्रिकाएँ रहीं. यहाँ उल्लेखनीय हैं कि तेलंगाना क्षेत्र में तेलुगु पत्रकारिता का विकास अपेक्षाकृत पिछड़ा रहा क्योंकि यह इलाका निजाम शासन में दबा हुआ था. इसके बावजूद ‘हितबोधिनि’ (1913, महबूब नगर), ‘तेलुगु पत्रिका’ (1920, इन्गुर्ति), ‘नीलगिरि’ (नलगोंडा), ‘गोलकोंडा’ (1925, सुरवरम प्रताप रेड्डी) तथा ‘सुजाता’ (1927, (सं.) सुरवरम और मंडपाटि) ने तेलंगाना क्षेत्र की तेलुगु पत्रकारिता को निजी पहचान प्रधान की. आगे चलकर 1933 – 38 की अवधि में तेलंगाना क्षेत्र से ‘देशबंधु’, ‘दक्कन केसरी’, ‘आंध्र वाणी’, ‘तेलुगु तल्लि’ और ‘विभूति’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. 1945 में राजगोपाल मुदलियार ने अंग्रेज़ी दैनिक ‘दक्कन क्रोनिकल’ के साथ साथ तेलुगु दैनिक ‘तेलंगाना’ का प्रकाशन आरंभ किया जो बाद में बंद हो गया. उन्होंने ही आगे चलकर ‘आंध्र भूमि’ तेलुगु दैनिक निकाला जो अभी तक चल रहा है. तेलुगु दैनिक ‘मिज़ान’ भी 1945 में हैदराबाद से आरंभ हुआ. इसके अलावा निज़ाम शासकों के शोषण चक्र के विरुद्ध किसानों के क्रांतिकारी आंदोलन के समर्थन में विजयवाडा से ‘प्रजाशक्ति’ (सं. रामानुजराव) का प्रकाशन आरंभ हुआ – यह दैनिक पत्र भी अब तक चल रहा है.). 

तेलुगु पत्रकारिता को उद्योग के रूप में विकसित करने का प्रथम श्रेय 1937 से प्रकाशित समाजवादी पार्टी के पत्र ‘नवशक्ति’ और 1938 से प्रकाशित रामनाथ गोयनका के पत्र ‘आंध्रप्रभा’ को जाता है. विशेष रूप से ‘आंध्रप्रभा’ दैनिक ने तेलुगु पत्रकारिता में अनेक नए आयाम जोड़े. स्वातंत्र्यपूर्व युग की तेलुगु पत्र-पत्रिकाओं में ‘जनवाणी’, ‘प्रतिभा’, ‘गृहलक्ष्मी’, ‘प्रबुद्ध आंध्र’, ‘उदयिनी’, ‘ज्वाला’’, साहिती’, ‘विज्ञानमु’, ‘बाला’ और ‘चंदामामा’ के नाम उल्लेखनीय हैं. इन्होंने तेलुगु के व्यावहारिक भाषारूप को लोकप्रियता प्रदान की तथा साहित्यिक पत्रकारिता, महिला पत्रकारिता, विज्ञान पत्रकारिता और बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. 

तेलुगु पत्रकारिता के इतिहास से पता चलता है कि 1939 से 42 तक समाजवादी दल द्वारा गुप्त रूप से ‘स्वतंत्र भारत’ का प्रकाशन किया जाता था. इसके अलावा ‘जनता’, ‘संदेशम’, ‘विशालांध्र’, ‘जनवाणी’, ‘नगारा’ जैसी पत्रिकाओं ने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए डटकर संघर्ष किया. ‘विशालांध्र’ 1952 से दैनिक हो गया. ये पत्र-पत्रिकाएँ साम्यवादी विचारधारा का प्रचार करने वाली रहीं. ‘नवयुग’ (युवाओं के लिए), ‘आंध्र वनिता’ (महिलाओं के लिए) ‘वर्कर’ (श्रमिकों के लिए) तथा ‘अभ्युदय’ (प्रगतिशील लेखक संघ) भी प्रगतिशील विचारधारा की विशिष्ट पत्रिकाएँ हैं. 

तेलुगु पत्रकारिता का नया उन्मेष तीन ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा है – भारत की आजादी (1947), आंध्र प्रांत का गठन (1953) और आंध्र प्रदेश का निर्माण (1956). पहले मद्रास से छपने वाले तेलुगु समाचार पत्र अब आंध्र प्रदेश में छपने लगे. आंध्रप्रभा (1959), आंध्रपत्रिका (1965), आंध्रज्योति (1967), प्रभा और ज्योति आदि सचित्र दैनिक और साप्ताहिक पत्र एकाधिक केंद्रों से प्रकाशित होने लगे. 1974 में विशाखपट्टनम से और 1975 में हैदराबाद से ‘ईनाडु’ दैनिक का प्रकाशन आरंभ हुआ. 

वर्तमान में आंध्रप्रदेश भर से तेलुगु की लगभग 500 पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं. इनमें प्रसार संख्या की दृष्टि से ईनाडु, आंध्रज्योति, आंध्रभूमि पहले तीन स्थानों पर हैं. वर्तमान उपलब्ध प्रमुख तेलुगु दैनिक समाचार पत्र हैं – आंध्रभूमि, आंध्रज्योति, आंध्रपत्रिका, ईनाडु, ईमाता, वार्तलु, आंध्रप्रभा, विशालांध्रा, प्रजाशक्ति, विजेता, वार्ता, साक्षी, सूर्या, नेटि तेलंगाना. साप्ताहिक तेलुगु पत्रिकाओं में आंध्रभूमि, आंध्रज्योति, आंध्रप्रभा, स्वाति, चित्रभूमि, ज्योतिचित्र, मयूरी, सितारा, शिवरंजनी, इंडिया टुडे (तेलुगु), रचना, कृष्णा पत्रिका, प्रतिभा, प्रगति के नाम उल्लेखनीय हैं. तेलुगु की मासिक पत्रिकाओं के अंतर्गत मुख्य रूप से अन्नदाता, चतुरा, स्वाति, उद्योग विजयालु, विपुला, चतुरा, आंध्रभूमि, प्रजासाहिती, पालपिट्टा, प्रतिबिंबम, माभूमि, गमनम, ग्रामस्वराज्यम, अभिनय, मनिदीपम, चिनुकु, प्रजाशक्ति, उज्वला, कापुमित्रा, कापुसत्ता, कापुयुवता, भूमिका, महिलाज्योति, माधुरी-2, रैतुनेस्तम, रैतुमित्रा, आंध्रप्रदेश, मयूरी अत्यंत उपयोगी पत्रिकाएँ हैं. इसके अतिरिक्त वेदांतभेरी, शुभवार्ता, सप्तगिरी, सनातन सारथी, अक्षरमैथिली, उषश्री, सनमार्गामु, भक्तिप्रपंचम, ज्ञानभूमि, मणिदीपम, पुण्यक्षेत्रालु, तिरुपति, ओंकारवेदमु, ऋषिपीठमु आदि आध्यात्मिक वर्ग की तेलुगु पत्रिकाओं के रूप में उल्लेखनीय है. फिल्म पत्रकारिता भी तेलुगु में अत्यंत लोकप्रिय हैं. इस कोटि की मुख्य पत्र-पत्रिकाएं हैं – सितारा (1976, मासिक), चलनचित्र (1973, मासिक), सिनी सम्राट (1997), स्टार डिटेक्टिव (1998, पाक्षिक), सिनिमा चांस (1998), संतोषम (2002, साप्ताहिक), उल्लासम (2003, मासिक), सुमांजलि (2003, साप्ताहिक), केमेरा (2003, साप्ताहिक), सिनी गूढ़ाचारी (1987, साप्ताहिक), सिनेमा (1984, मासिक), सिनीरमा (1976), ज्योतिचित्रा (1977), चित्रभूमि (1980, साप्ताहिक), सिनीविनोदमु (2002, तेलुगु – हिंदी साप्ताहिक), चित्रांजलि (2001, साप्ताहिक), चित्रम (2001, साप्ताहिक), मूवी लैंड्स (2002, साप्ताहिक), मा (1998, मासिक), शिवरंजनी (1986, मासिक; 1997, साप्ताहिक), मेघसंदेशम (1997, साप्ताहिक), सिनी मार्जिन (1986, साप्तहिक) और आंध्रभूमि (सिनेमा – 1981, साप्ताहिक). इसी प्रकार प्रमुख तेलुगु बालपत्रिकाओं में चंदामामा, बंगारुबोम्मा (1976, मासिक), चिन्नारीलोकम (1985, मासिक), आंध्रबाला (1995, मासिक), बाल जोजो वेन्नला (2000, मासिक), चिन्नारुलु (2002, मासिक), सिसिंद्रीलु (2006, मासिक) और बालतेजम (2006) के नाम सम्मिलित हैं. 

तेलुगु पत्रकारिता के इतिहास की सबसे नई ऐतिहासिक परिघटना के रूप में फरवरी 2004 से आरंभ पहले वैश्विक तेलुगु समाचार पत्र के प्रकाशन का उल्लेख किया जा सकता है. ‘तेलुगु टाइम्स’ के नाम से प्रकाशित यह समाचार पत्र भारत और विदेशों के मीडिया और व्यवसाय जगत के अनुभवी पत्रकारों द्वारा चलाया जा रहा है. इसके पृष्ठ तैयार तो हैदराबाद के कार्यालय में किए जाते हैं लेकिन उन्हें सीधे अमेरिका स्थित प्रेस को प्रेषित कर दिया जाता है और उन्हें वहीं में मुद्रित और वितरित किया जाता है. वास्तव में ‘तेलुगु टाइम्स’ का प्रकाशन उत्तरी अमेरिका में बसे हुए पांच लाख प्रवासी तेलुगुभाषियों की मीडिया और जनसंचार संबंधी अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए आरंभ किया गया है. 

2. आंध्रप्रदेश की उर्दू पत्रकारिता 
आंध्रप्रदेश में पत्रकारिता के इतिहास का दूसरा आयाम उर्दू पत्रकारिता से संबंधित है. आंध्रप्रदेश की प्रथम उर्दू पत्रिका का प्रकाशन 1857 ई में हआ जब आसफ़जाही शासन के दौरान हैदराबाद से स्वास्थ्य संबंधी पत्रिका ‘तिबाबत’ निकली. आजे चलकर 1860 में काज़ी मोहम्मद क़ुतुब के संपादन में हैदराबाद का पहला उर्दू समाचार पत्र ‘आफ़ताब दक्कन’ आरंभ हुआ जो वास्तव में हैदराबाद की सभ्यता, संस्कृति और विभिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक और राजमहल संबंधी गतिविधियों की सूचनाएँ जनता को देने का माध्यम बना. इसी प्रकार 1869 से 1948 तक हैदराबाद राज्य के गजट के प्रकाशन की भी जानकारी मिलती है. ‘आफ़ताब दक्कन’ (1860) के अलावा ‘खुर्शीद दक्कन’ (1877) को भी इस राज्य का पहला उर्दू समाचार पत्र माना जाता है. प्रथम उर्दू ‘दैनिक’ समाचार पत्र के स्थान के भी दो दावेदार हैं. पहला 1883 में सुल्तान मोहम्मद आकिल देहलवी द्वारा संपादित ‘खुर्शीद दक्कन’ तथा दूसरा 1888 में हाजी करतान द्वारा संपादित ‘शौकत उल इस्लाम’. 19वीं शताब्दी के अंतिम पच्चीस वर्षों में प्रकाशित अन्य उर्दू पत्रों में शामिल हैं ‘अखबार आसफी’ (1885), ‘अफ़सर उल अखबार’ (1886) और ‘अफ़सर’ (1897). 

‘भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन’ (2000) में सम्मिलित ‘उर्दू पत्रकारिता’ विषयक निबंध में नेहपाल सिंह वर्मा यह जानकारी दी है कि “हैदराबाद के पत्रकारिता जगत के सबसे महत्वपूर्ण समाचार पत्र ‘मुशीर दक्कन’ का संपादन 1892 ई. में स्व. किशनराव ने किया. उर्दू पत्रकारिता के क्षेत्र में शायद ही कोई दूसरा समाचार पत्र इतना पुराना इतिहास रखता है. यह पत्र 22 अप्रैल 1892 से 10 दिसंबर 1898 ई. तक नियमित प्रकाशित होता रहा. कुछ दिन बंद रहा. पुनः 1899 ई. से प्रकाशित होने लगा. 1898 ई. में आपत्तिजनक निबंध के प्रकाशन के आरोप में किशनराव को शहर से निकाल दिया गया. उन्होंने इसे मद्रास से निकाला और फिर 1899 ई. से इसे पुनः हैदराबाद से प्रकाशित किया. 1902 ई. में सादिक़ हुसैन ने ‘इल्म व अमल’ प्रकाशित किया. 1901 ई. में समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं की संख्या 14 थी जिनमें 12 उर्दू के और 2 मराठी के थे. इनमें सात दैनिक पत्र थे. इनमें ‘मुशीर दक्कन’ ही ऐसा दैनिक पत्र था जो 1970 ई. तक प्रकाशित होता रहा. इस दैनिक ने पत्रकारिता को एक नया रूप दिया. उस समय लोगों की राजनैतिक समाचारों में रुचि कम थी, कोई संवादवाहिनी संस्था नहीं थी. बादशाह को ईश्वर के बाद शक्ति का अवतार मानते थे. ऐसे समय 1904 ई. में मोहब हुसैन ने ‘इल्म व अमल’ जारी किया. यह वह समय था जब राष्ट्रीय कांग्रेस की हवा हैदराबाद पहुँच गई थी. केशवराव कोरटकर, वामन नायक, मुल्ला अब्दुल कय्यूम, डॉ.रघुनाथ चट्टोपाध्याय, पं. तारानाथ, बैरिस्टर श्री किशन और बैरिस्टर मोहम्मद असगर ने निजाम राज्य में जनजागृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण लेख लिखे.” ‘मुशीर दक्कन’ को पत्रकारिता के मूल्यों की स्थापना का श्रेय दिया जाता है.” (नेहपाल सिंह वर्मा, ‘उर्दू पत्रकारिता’ (आलेख), भातरीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन, पृ.109). 

आगे चलकर 1911 में ‘मुआरिफ’ (मुल्ला अब्दुल बासित) और ‘उस्मान गजट’ (सैयद राजा शाह) के अतिरिक्त ‘सहीफ़ा’ ने पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त की. इस पत्र ने साहित्यिक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बताया जाता है कि निजाम मीर उस्मान अली खान की उत्तर भारत की यात्रा के अवसर पर उनके साथ गए अकबर अली द्वारा प्रेषित ताज़ा समाचारों के कारण ‘सहीफ़ा’ को यह लोकप्रियता मिली. 1920–1948 की अवधि में अहमद मोहिउद्दीन द्वारा ‘रहबर दक्कन’ का प्रकाशन किया गया जो मजलिस इत्तहाद उल मुसलमीन का धार्मिक पत्र था. बाद में इसका नाम ‘रहनुमाये दक्कन’ कर दिया गया जो मुसलमानों और मुस्लिम धर्म के पक्षधर पत्र के रूप में आगे भी प्रकाशित होता रहा. 

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि रजाकार आंदोलन (1948) के कारण उत्पन्न विषम परिस्थितियों ने इस राज्य में हिंदू-मुस्लिम एकता के वातावरण को बहुत क्षति पहुँचाई तो आर्य समाज के आंदोलन ने राष्ट्रीय चेतना को शक्ति प्रदान की. “उस समय ‘रहबर दक्कन’, रैयत’ और ‘पयाम’ महत्वपूर्ण पत्र थे. सरकार ने जब देखा कि ‘रैयत’ राष्ट्रीयता का प्रचार कर रहा है तो उस पर रोक लगा दी गई. एम.नरसिंह राव, संपादक ने समाचार पत्र ही बंद कर दिया. ‘रैयत’ के बंद होते ही बी.रामकिशन राव और एम.नरसिंह राव (जो बाद में मुख्यमंत्री और गृहमंत्री हुए) के सहयोग से शोयब उल्लाह खान ने ‘इमरोज’ निकाला. शोयब उल्लाह खान गांधीवादी थे. उन्होंने खुलकर हैदराबाद में हो रहे सांप्रदायिक तांडव का विरोध किया. उन्होंने बादशाह उस्मान अलीखान को सलाह दी कि वह हैदराबाद को भारत में विलय कर देश की कौमी धारा से जुड़ जाएँ और रजाकारों की गतिविधियों को तुरंत बंद करा दें. रजाकारों ने उन्हें जान से मार डालने की धमकी दी और एक दिन जब वह साईकिल से काम कर वापस लौट रहे थे उन पर आक्रमण किया गया. उनका सीधा हाथ काट दिया गया और उन्होंने वहीं सड़क पर अपने प्राण छोड़ दिए. हैदराबाद की पत्रकारिता के इतिहास में यह पहले पत्रकार का बलिदान था, जो रंग लाया और भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल को हैदराबाद पर पुलिस एक्शन कर इसे भारत में विलय कराने का कार्य करना पड़ा. उसी समय प्रगतिवादी विचारधारा के दैनिक पत्र ‘पयाम’ (सं. अख्तर हसन) के कार्यालय पर भी आक्रमण किया गया और आग लगा दी गई.” (द्रष्टव्य - नेहपाल सिंह वर्मा, ‘उर्दू पत्रकारिता’, भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन, पृ. 110).

इन सब परिस्थितियों के समानांतर आंध्रप्रदेश की उर्दू पत्रकारिता की यात्रा आगे बढ़ती रही. ‘निजाम गजट’ (1927 : हबीब उल्ला रशदी, विकार अहमद), ‘सुबह दक्कन’ (1928 : अहमद आरिफ़, अली अशरफ़), ‘मज़लिस’ (1948 : हकीम गफ्फार अहमद अंसारी), ‘वक्त’ और ‘मंशूर’ (1928 : अब्दुल रहमान रईस), ‘सल्तनत’ (1930 : अहमद उल्लाह कादरी), ‘पयाम (1935 : काज़ी अब्दुल गफ़ार) के अनंतर 1942 (भारत छोड़ो आंदोलन) से 1948 (हैदराबाद का भारत में विलय) की अवधि में अनेक उर्दू पत्र-पत्रकार सामने आए. जैसे ‘मीज़ान’ (1942 : गुलाम मुहम्मद और हबीब उल्लाह ओज), ‘तन्जीम’ (1942 : अली अशरफ़), ‘इत्तहाद’ (1947 : अब्दुल इहाशमी), ‘मुस्तकबिल’ और ‘तामीर दक्कन’ (फैज़ उद्दीन ‘फैज़’), ‘इन्कलाब’ (मुरतुज़ा मुज्तहदी), ‘मुहबे वतन’ (लक्ष्मी रेड्डी), ‘आवाज़’ (अब्दुल कादर), ‘जिन्नाह’ (अज़हर रजवी), ‘हमदम’ (मुस्तफ़ा कादरी), ‘आगाज़’ (सैयद मोईन उलहक), ‘मंजिल’ (अज़हर रजवी), ‘इखदाम’ (मुरतुजा मुजतहदी), ‘नई जिंदगी’ (जे.एन.शर्मा), ‘शोईब’ (अनीस उलरहमान).

इसमें संदेह नहीं कि 1935 (‘पयाम’) से 1948 (‘इखदाम’) तक की अवधि आंध्रप्रदेश की उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण रही. “बादशाह के समर्थक समाचार पत्रों में ‘निजाम दक्कन’ और ‘दक्कन’ प्रमुख थे. इन समाचार पत्रों में बादशाह की ओर से नज़री बाग से जारी निजाम के आदेश और फरमान छपते थे, जिन्हें बाद में हर समाचार पत्र को प्रकाशित करना पडता था. ‘रहबर दक्कन’, ‘मजलिस’, ‘इत्तहाद’, ‘जिन्नाह’, ‘आगाज़’ मजलिस के समर्थक समाचार पत्र थे. इन पत्रों ने स्वतंत्र हैदराबाद के लिए जनमत तैयार किया. ‘रैयत’, ‘पयाम’, ‘वक्त’ और ‘इमरोज़’ प्रजातांत्रिक शासन के लिए आवाज़ उठा रहे थे. ‘पयाम’ ने कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए काम किया. अंततः 1948 ई. में इन समाचार पत्रों का प्रकाशन रंग लाया और हैदराबाद राज्य का भारत में विलय हो गया.” (वही). उल्लेखनीय है कि 1948 में प्रगतिशील पत्रकार मुरतुजा मुज्तहदी द्वारा प्रकाशित ‘इखदाम’ से अनेक प्रगतिशील पत्रकार और लेखक संबंधित रहे जिनमें मखदूम मोहिउद्दीन और राज बहादुर गौड़ भी सम्मिलित थे. मुरतुजा ने 1950 में ‘अंगारा’ निकाला जिसके बंद होने पर मोईन फारुकी ने ‘अंगारे’ का प्रकाशन किया. 

1948 के बाद की अवधि में अर्थात निजामशाही के समापन के बाद अनेक नए उर्दू पत्र सामने आए जिनमें उल्लेखनीय हैं ‘नई जिंदगी’ (जे.एन.शर्मा), ‘हमदर्द’ (नक्श आलमी), ‘हमदम’ (जमाल उद्दीन और मुस्तफा कादरी), ‘ताजयाना’ (सआदत जहां), ‘हमारा इखदाम’ (शहरयार), ‘नया ज़माना’ (असद जाफ़री), ‘सल्तनत’ (सादउल्लाह कादरी), ‘पैसा अखबार’ (अहमद उल्लाह कादरी), ‘अंगारे’ (मोईन फारुकी), ‘वतन’ (रशीद बेग), ‘अमर भारत’ (पूरनचंद शाकिर), ‘सदाकत’ (वही उलहसन), ‘ज़बीह’ (इस्माईल ज़बीह), ‘हक’ (शेख चाँद), ‘नवीद दक्कन’ (अज़ीम अस्कंरी), मुंसिफ (महमूद अंसारी), ‘खून नाव’ (जी.एम.उरूज) आदि. इनके अलावा 1948 से हैदराबाद से ‘मिलाप’ (दैनिक उर्दू पत्र) निकला जिसके संपादक युद्धवीर थे. अपनी राष्ट्रीय चेतना और आर्य समाजी विचारधारा के कारण इसे हिंदुओं में खूब लोकप्रियता प्राप्त हुई. अब यह पत्र बंद हो चुका है. 

हैदराबाद की उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में ‘सियासत’ का अपना विशिष्ट स्थान है. इसे आबिद अली खान ने महबूब हुसैन ‘ज़िगर’ के साथ मिलकर 15 अगस्त 1949 से उर्दू दैनिक के रूप में आरंभ किया. वर्तमान में दैनिक ‘सियासत’ के साथ साथ मासिक ‘सियासत’ का भी प्रकाशन किया जाता है. इस पत्र को प्रगतिशील विचारधारा के लिए जाना जाता है. दैनिक ‘सियासत’ के वर्तमान संपादक है जाहिद अली खान. इसके जैसी ही लोकप्रियता ‘मुंसिफ’ को भी प्राप्त है जिसे महमूद अंसारी ने आरंभ किया था और अब भारतीय अमेरिकी खान लतीफ़ द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है. 

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि आंध्रप्रदेश की पत्रकारिता में उर्दू पत्रों और पत्रकारों का योगदान अविस्मरणीय है. यहाँ अंत में यह जोड़ना भी प्रासंगिक होगा कि शीर्षस्थ उर्दू पत्रकार जाहिद अली खान और नसीम आरिफी यह मानते हैं कि उर्दू मीडिया में अभी संसाधनों और प्रोफेशनलिज्म की कमी है जिसके कारण वह कुछ हद तक पिछड़ा हुआ है. इसके बावजूद वह बड़ी सीमा तक उर्दू भाषी जनता और आंध्रप्रदेश के प्रशासन के मध्य सेतु की भूमिका निभा पा रहा है. यहाँ राज्यपाल और मुख्यमंत्री के समक्ष अंग्रेज़ी और तेलुगु के अखबारों के साथ साथ उर्दू अखबारों की क्लिपिंग भी प्रस्तुत की जाती हैं. आज ‘सियासत’ दुनिया के 107 देशों में पढ़ा जाता है लेकिन यह अवश्य चिंतनीय है कि नई पीढ़ी का उर्दू के प्रति झुकाव काफी कम होता जा रहा है. 

3. आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता 
आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता का इतिहास पर्याप्त रोचक है तथा इस प्रांत के हिंदी प्रेम और राष्ट्रीयता का द्योतक भी. पत्रकारिता के इतिहास संबंधी शोधकर्ताओं ने इस तथ्य पर विस्मय प्रकट किया है कि जहाँ एक ओर हिंदी विरोधी समझे जाने वाले मद्रास प्रांत में हिंदी पत्रकारिता को हिंदी प्रचार के साथ जुड़कर विकसित होने का अनुकूल वातावरण मिला, वहाँ उर्दू को प्रमुखता देने वाला और दक्खिनी हिंदी को अपनाने वाला निजाम द्वारा शासित हैदराबाद प्रांत हिंदी पत्रकारिता के रास्ते में काँटे बिछाने वाला बना. इसके बावजूद यह भी रेखांकित किया गया है कि हिंदी पत्रकारिता का जो रूप हमें दक्षिण भारत में देखने को मिलता है वह अन्यत्र नहीं मिल सकता क्योंकि यहाँ हिंदी देशप्रेम की संवाहिका बनकर आई और भावों की संवाहिका कुछ देर से बनी. डॉ.गोपाल शर्मा ने हैदराबाद के प्रमुख हिंदी पत्रकार मुनींद्र जी के अमृतोत्सव के अवसर पर दिलीप सिंह और ऋषभ देव शर्मा के संपादकत्व में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ ‘भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन’ (2000) के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए अपने शोधपूर्ण निबंध ‘दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता’ में दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को चार कालों में विभक्त किया है, जिन्हें आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता के संदर्भ में ज्यों-का-त्यों स्वीकार किया जा सकता है. यही नहीं उनके द्वारा प्रस्तुत सूचनाएँ और विश्लेषण भी अत्यंत प्रामाणिक हैं जिन्हें हम यहाँ आभार सहित इस्तेमाल कर रहे हैं. आंध्रप्रदेश में हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को जिन चार कालखंडों में बाँटा जा सकता है, वे हैं –
1. उद्भव काल (सन 1947 से पूर्व)
2. विकास काल (सन 1948 से 1972 तक)
3. नव निर्माण काल (सन 1973 से 1998 तक)
4. वर्तमान काल (सन 1999 से....)

स्वातंत्र्यपूर्व काल में स्थानीय राजनैतिक कारणों वश हैदराबाद में निजामशाही के दौरान हिंदी को ‘बगावत की भाषा’ और ‘विदेशी भाषा’ समझा जाने लगा था जबकि उर्दू यहाँ की राजभाषा थी. हिंदी में पत्र-पत्रिका प्रकाशित करने पर पाबंदी थी. 1931 में अर्जुन प्रसाद मिश्र ‘कंटक’ ने ‘भाग्योदय’ नामक मासिक पत्रिका के लिए अनुमति तो प्राप्त कर ली लेकिन भयभीत जनता का सहयोग न प्राप्त कर सके. यही कहानी और भी एक-दो हिंदी पत्रों की है. हिंदी के प्रति शासन के इस विद्वेष का कारण यह था कि यहाँ धार्मिक एवं नागरिक स्वतंत्रता के लिए आर्य समाज शासन से टकराव मोल लेता रहता था. आर्य समाज के प्रचारक हिंदी का प्रयोग करते थे अतः उनके प्रभाव को कम करने के लिए हिंदी भाषा और हिंदी पत्रकारिता को लगातार दबाया जाता था. आर्य समाजियों ने हैदराबाद की जनता के लिए बाहर से पत्र प्रकाशित करने शुरू किए, एक ऐसा ही पत्र सोलापुर से निकला. ‘आर्य संदेश’ नामक इस पत्र में जनता को न्याय-पथ पर चलने की सलाह दी जाती थी और हैदराबाद के शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया जाता था. इस पत्र के संपादकद्वय त्रिलोकी नाथ शास्त्री और राम देव ने ‘आर्य संदेश’ को राजनीतिक चेतना फैलाने के लिए प्रयोग किया. इस पत्र का मुख्य संदेश आज भी हैदराबाद के बुजुर्गों को याद है : ‘उठ बाँध कमर, क्यों डरता है – फिर देख प्रभु क्या करता है.’ यह पत्र दो वर्ष तक भी न चल पाया. चल ही नहीं सकता था. सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया. कई वर्षों तक हैदराबाद राज्य की हिंदी पत्रकारिता में लुका-छिपी का खेल चलता रहा. आर्य प्रतिनिधि सभा अनुमति लेकर पत्र निकालती, सरकार प्रतिबंध लगा देती, इसलिए संपादकों ने कई नामों की अनुमति ले डाली. कभी कोई पत्र नागपुर से छपता, कभी सोलापुर से, कभी पत्र बड़ा होता तो कभी विवरण पत्र मात्र बन जाता. इस समय प्रकाशित पत्रों के नामों की एक लंबी सूची है जैसे आर्यभानु, दैनिक दिग्विजय, सुधाकर, हनुमान, दिवाकर, पताका, वेद प्रकाश, वैदिक ज्योति आदि. कई अन्य पत्रकारों ने भी कोशिश की जैसे बृंदावन विहारी मिश्र ने ‘व्यापार’ नामक पत्र निकाला और अपने आप को विवादों से दूर रखने का प्रयत्न किया. (गोपाल शर्मा, ‘दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता’ (आलेख), भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन, पृ. 115). इस प्रकार स्वातंत्र्यपूर्व काल में हैदराबाद में हिंदी पत्रकारिता को अपने अस्तित्व के लिए घोर संघर्ष करना पड़ा. 

स्वातंत्र्योत्तर काल में उपर्युक्त स्थिति में परिवर्तन आया और हैदराबाद नवीन पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का केंद्र बनकर उभरा. सितंबर 1948 में हैदराबाद राज्य के भारत संघ में विलय के बाद हैदराबाद से नियमित रूप से दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्र निकलने लगे. हैदराबाद से प्रकाशित ‘अजंता’ और ‘कल्पना’ जैसी मासिक पत्रिकाओं ने ‘सरस्वती’ और ‘हंस’ के समान ख्याति अर्जित की. ‘अजंता’ हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद द्वारा प्रकाशित की जाती थी. गया प्रसाद शास्त्री, श्यामू संन्यासी, श्रीराम शर्मा, वंशीधर विद्यालंकार, हरिकृष्ण पुरोहित, राजकिशोर पांडेय और भीमसेन निर्मल जैसे दिग्गज इस पत्रिका के संपादक रहे. दूसरी ओर ‘कल्पना’ का प्रकाशन बद्री विशाल पित्ती द्वारा अगस्त 1949 से आरंभ किया गया जिसके संपादकों में डॉ.आर्येंद्र शर्मा से लेकर भवानीप्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय और मुनींद्र जी तक अनेक समर्पित हिंदी सेवी जुड़े थे. इसके कला विभाग से एम.एफ.हुसैन और जगदीश मित्तल जैसे चित्रकार और कला समीक्षक संबद्ध रहे. यह भारत भर के लेखकों एवं पत्रकारों की प्रिय पत्रिका बनी तथा 1978 में कोई विशेष कारण घोषित किए बिना बंद हो गई. स्मरणीय है कि आर्येंद्र शर्मा मूलतः वैयाकरण थे. उनकी पुस्तक ‘बेसिक ग्रामर ऑफ हिंदी’ भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की गई थी जिसे आज भी हिंदी का मानक व्याकरण माना जाता है. भाषा के प्रति उनकी गंभीरता और अच्छी रचनाओं को पहचानने की विवेकी दृष्टि ने ‘कल्पना’ को अपनी एक अलग जगह बनाने में मदद की. ‘कल्पना’ के माध्यम से वे अनेक नए रचनाकारों को सामने लाए जो बाद में प्रतिष्ठित हुए. इसी अवधि में मारवाड़ी प्रेस, हैदराबाद के बालकृष्ण लाहोटी द्वारा प्रकाशित ‘दक्षिण भारती’ भी निकली जो चार-पांच वर्ष तक चली. इसके संपादक महेंद्र भटनागर थे. बाद में वेमूरि आंजनेय शर्मा भी इस पत्रिका के संपादक रहे. यह पत्रिका दक्षिण भारत के हिंदी साहित्यकारों को एक साझा मंच उपलब्ध कराने के उद्देश्य से आरंभ की गई थी.

इन साहित्यिक पत्रिकाओं के अतिरिक्त इस काल में हैदराबाद से कई समाचारबहुल पत्र भी प्रकाशित हुए. डॉ.गोपाल शर्मा ने लिखा है कि साप्ताहिकों में ‘आर्यभानु’ और ‘संगम’ उल्लेखनीय पत्र हैं. ‘आर्यभानु’ का संपादन विनायक राव विद्यालंकार और कृष्णदत्त ने किया. वंदेमातरम रामचंद्रराव ने इस पत्र को जीवित रखने का भरसक प्रयास किया. शिवनंदन शास्त्री ने ‘संगम’ का प्रकाशन 28 अप्रैल 1958 को प्रारंभ किया. इस पत्र ने पाठकों को सुरुचिपूर्ण साहित्य दिया. “हैदराबाद के दैनिक पत्रों में ‘डेली हिंदी मिलाप’ को भी इस काल की प्रमुख उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए. ‘हिंदी मिलाप’ नाम से अखबार दिल्ली और जालंधर से भी निकलते थे. ‘मिलाप’ स्वतंत्रता से पूर्व ही हैदराबाद से प्रकाशित होने लगा था. स्वतंत्रता के पश्चात श्री युद्धवीर जी के संपादकत्व में इस पत्र ने अपनी पहचान भी बनाई और हिंदी प्रेमियों के बीच जगह भी. धीरे धीरे यह पत्र दैनिक आवश्यकता बन गया. ‘मिलाप’ के प्रकाशक की हैसियत से युद्धवीर जी ने अनेक नए पत्रकारों को अवसर दिया. बाहर से भी योग्य प्रतिभाओं को बुलाया और अवसर दिया. पं.दिवाकर पांडेय इस पत्र से जुड़े. सरदार हरनाम सिंह ‘प्रवासी’ ने इस पत्र में कार्य किया. श्री रवि श्रीवास्तव इस पत्र से जुड़े. ‘मिलाप’ जब कुछ दिनों के लिए बंद हो गया तो दिवाकर पांडेय ने प्रकाश भाई के साथ मिलकर ‘दैनिक विश्व वाणी’ का प्रकाशन किया. ‘विश्व वाणी’ के साथ डी.एस.सिंह ‘लाट’ भी जुड़े. ‘साथी’ के संपादन प्रकाशन में भी दिवाकर पांडेय की महत्वपूर्ण भूमिका रही.” (वही, पृ. 117). 

आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक नया मोड 1973 में तब उपस्थित हुआ जब 14 सितंबर 1973 (हिंदी दिवस) से मुनींद्र जी के संपादकत्व में ‘हैदराबाद समाचार’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. आगे चलकर इसका नाम ‘दक्षिण समाचार’ कर दिया गया. इस पत्र की पृष्ठभूमि में मुख्य रूप से दो लक्ष्य थे. एक तो यह कि हैदराबाद के हिंदी से जुड़े हुए लोगों को परस्पर सूचनाओं के आदान-प्रदान की सुविधा प्राप्त हो. आगे चलकर इसका क्षेत्र हैदराबाद से बढ़कर आंध्रप्रदेश और फिर दक्षिण भारत तथा अंततः पूरा भारत बन गया. दूसरा महत्वपूर्ण लक्ष्य था भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुरूप हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति की वाहक भाषा के रूप में विकसित करना. हिंदी के विकास, भाषा की शुद्धता, साहित्य में घटित नई रचनात्मक प्रवृत्तियों की जानकारी और अंग्रेज़ी के विरोध तथा मानक हिंदी के प्रयोग को इस पत्र ने सदा आंदोलन के रूप में प्रसारित किया. इसके साथ ही इस साप्ताहिक पत्र ने हिंदी के लेखन को प्रोत्साहित करने और दक्षिण भारत भर में हो रहे लेखन से समस्त भारत को परिचित कराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. मुनींद्र जी के निधन के बाद उनके पुत्र प्रफुल्ल कुमार तथा उनके बाद वर्तमान समय में नीरज कुमार ने भी इन्हीं नीतियों पर ‘दक्षिण समाचार’ को आगे बढ़ाया है. 

हिंदी अकादमी, हैदराबाद (1956) द्वारा कई वर्ष तक हस्तलिखित पत्रिका के रूप में प्रकाशित प्रसारित ‘संकल्य’ 1974 में विधिवत पंजीकरण के बाद मुद्रित मासिक पत्रिका के रूप में निकलने लगी. उस समय इसके संपादक मुधुसूदन चतुर्वेदी थे बाद में 1977 से बैजनाथ चतुर्वेदी के संपादकत्व में इसे साहित्यिक त्रैमासिक के रूप में भारत भर में ख्याति प्राप्त हुई. 

हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार और संवर्धन की दृष्टि से हैदराबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की आंध्र शाखा द्वारा प्रकाशित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘पूर्णकुंभ’ का योगदान उल्लेखनीय है. 1977 अप्रैल से प्रकाशित ‘पूर्णकुंभ’ के संपादन से दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-आंध्र के सचिवों के रूप में कई बड़े हिंदी प्रचारकों के नाम जुड़े रहे हैं. परंतु इस पत्रिका ने 1997 से विशेष रूप से नया स्वरूप तब प्राप्त किया जब दिलीप सिंह और ऋषभ देव शर्मा क्रमशः संपादक और सह-संपादक के रूप में ‘पूर्णकुंभ’ से जुड़े तथा कविता, कहानी, लेख, समीक्षा आदि विविध विषयों के साथ साथ इसमें अनुवाद, भाषाविज्ञान और साहित्य की विशिष्ट विधाओं को प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया. इस अवधि में ‘पूर्णकुंभ’ के कई चर्चित विशेषांक भी निकले, यथा, रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, शिवप्रसाद सिंह, नागार्जुन, नागेंद्र और रामविलास शर्मा पर केंद्रित विशेषांक. आगे चलकर अप्रैल 2003 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा – आंध्र की तेलुगु पत्रिका ‘स्रवंति’ और हिंदी पत्रिका ‘पूर्णकुंभ’ का परस्पर विलय करके उन्हें द्विभाषी साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘स्रवंति’ का रूप दे दिया गया जिसमें हिंदी और तेलुगु दोनों भाषाओं की सामग्री रहती है. सभा के सचिव इसके पदेन संपादक रहते हैं. सह-संपादक के रूप में नारायण राजु और मल्लसर्ज मंगोडी के बाद अगस्त 2008 से गुर्रमकोंडा नीरजा इस पत्रिका का संपादन कार्य देख रही हैं. हिंदी और तेलुगु की मौलिक और अनूदित सामग्री प्रस्तुत करने वाली यह पत्रिका जनवरी 2011 से इंटरनेट पर भी उपलब्ध है. इस लघुकाय पत्रिका के कई विशेषांक भी विगत वर्षों में प्रकाशित और चर्चित हुए, जैसे राष्ट्रकवि दिनकर विशेषांक (मई 2009), उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य विशेषांक (फरवरी 2011), शमशेर बहादुर सिंह विशेषांक (अप्रैल 2011), अज्ञेय जन्मशती विशेषांक – 1,2,3 (जून, जुलाई, अगस्त 2011), स्व.प्रो.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव अमृत वर्ष विशेषांक (अक्टूबर 2011), दूरस्थ शिक्षा पर एकाग्र (मार्च 2012), पुण्य स्मृति (परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया, अमरकांत, राजेंद्र यादव और ओमप्रकाश वाल्मीकि) विशेषांक (2014) और मुक्तिबोध विशेषांक (2015). 

हिंदी प्रचार सभा (नामपल्ली, हैदराबाद) द्वारा 1977 से प्रकाशित मासिक ‘विवरण पत्रिका’ भी हिंदी भाषा और साहित्य के मुद्दों को समर्पित है. इसके संपादकों के रूप में पांडुरंग ढगे, शीलम वेंकटेश्वर राव, धोंडीराव जाधव और चंद्रदेव भगवंत राव कवडे ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. सहयोगी संपादक के रूप में सुरेश दत्त अवस्थी और अहिल्या मिश्र ने इसे साहित्यिक स्वरूप प्रदान करने के लिए पर्याप्त श्रम किया है. यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रतिष्ठान, हैदराबाद की पत्रिका ‘अग्रतारा’ का भी उल्लेख जरूरी है जिसने हिंदीतरभाषियों के लेखन को प्रमुखता से छापा. अनियतकालीन पत्रिका ‘राष्ट्रनायक’ 1963 से हरिश्चंद्र विद्यार्थी के संपादन में निकल रही है. इसके अलावा पुरुषोत्तम प्रशांत द्वारा प्रकाशित ‘काव्य वार्षिकी मध्यांतर’ ने अपने पांच अंक निकालकर देशभर के कवियों को हैदराबाद से जोड़ा. कहना न होगा कि इस अवधि (नवनिर्माण काल) में हैदराबाद की हिंदी पत्रकारिता ने चतुर्मुख विकास किया. पत्रकारिता पर चर्चाएँ भी आरंभ हुईं और शोध भी. पत्रकारीय लेखन के क्षेत्र में इस अवधि में नन्दकिशोर शर्मा (वेणु गोपाल), किशोरी लाल व्यास नीलकंठ, गोवर्धन ठाकुर, जे.वी.कुलकर्णी, विजय कुमार मलहोत्रा, मुरलीधर शर्मा, विजयराघव रेड्डी, मनोहर लाल व्यास, दुली चंद शशि (‘मुचकुंदा’ के संपादक वजन कवि), बजरंग राव बांगरे, नेहपाल सिंह वर्मा, अशोक मिश्र आदि कलमकार खास तौर से उभरकर सामने आए.

‘हिंदी पत्रकारिता : विविध आयाम’ (सं. वेदप्रताप वैदिक) में आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता के मूल्यांकन के संदर्भ में डॉ.श्रीराम शर्मा ने 1976 में संकेत किया था कि आंध्रप्रदेश का तेलंगाना क्षेत्र आज एक ऐसे साप्ताहिक पत्र की प्रतीक्षा कर रहा है जो उसकी सांस्कृतिक और साहित्यिक आवश्यकता को पूरा कर सके. इस बात को आगे बढ़ाते हुए डॉ.गोपाल शर्मा ने 2000 में लिखा कि “यूँ तो शर्मा जी के सामने ‘मिलाप’ भी था, ‘हैदराबाद समाचार’ भी और आंध्रप्रदेश सरकार का ‘आंध्रप्रदेश’ भी, आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी का ‘संकल्य’ भी, फिर भी वे एक बेहतर पत्र चाहते थे. इस पत्र की चाह शर्मा जी के जीवन काल में पूरी न हो सकी. नवनिर्माण काल में ‘स्वतंत्र वार्ता’ (1996 से आरंभ) ने बहुत हद तक इस चाह को पूरा किया. इस पत्र के प्रकाशन ने दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता को बहुआयामी बनाया. (1996 से मार्च 2012 तक) इसके संपादक के रूप में डॉ.राधेश्याम शुक्ल दक्षिण के लेखकों एवं पाठकों को ऐसा मंच प्रदान करने में समर्थ हुए जिसकी आवश्यकता थी. उनके द्वारा संपादित ‘स्वतंत्र वार्ता’ दैनिक किसी भी राष्ट्रीय पत्र के समकक्ष बड़े गर्व के साथ रखे जाने योग्य पत्र के रूप में स्थापित हुआ तथा स्थानीय लेखकों एवं पत्रकारों को अपनी पहचान बनाने का एक और मौक़ा मिला.” 

1999 से हैदराबाद की हिंदी पत्रकारिता का वर्तमान काल आरंभ माना जा सकता है. नवंबर 1999 से यहाँ से गोविंद अक्षय के संपादन में कविता प्रधान मासिक ‘गोलकोंडा दर्पण’ का प्रकाशन आरंभ हुआ जिसे आरंभ से ही ऋषभ देव शर्मा, गोपाल शर्मा, नेहपालसिंह वर्मा, कविता वाचक्नवी, अमृत मेहता, पूर्णिमा शर्मा, दिलीप सिंह, वेणु गोपाल और भगवान दास जोपट जैसे स्थायी स्तंभकारों के लेखन ने अलग पहचान दी. लगभग इसी समय 2000 ईस्वी से ‘संकल्य’ ने भी अपने नए रूपाकार में वसंत चक्रवर्ती के प्रधान संपादकत्व में आलोचना प्रधान त्रैमासिक के रूप में नया अवतार लिया. इसे भी ऋषभ देव शर्मा और शुभदा वांजपे जैसे संपादकों ने देश भर में प्रतिष्ठा अर्जित करने में सहयोग दिया. चक्रवर्ती जी के निधन के पश्चात 2003 से टी.मोहन सिंह इसके संपादक हैं. हिंदी अकादमी, हैदराबाद के सचीव के रूप में गोरखनाथ तिवारी इसके प्रकाशक हैं. विगत दस वर्षों में ‘संकल्य’ हैदराबाद की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका बन गई है. इसके महादेवी वर्मा (2002), प्रेमचंद (2005,2006), दिनकर (2008), बच्चन (2009), आदिवासी विमर्श (2010) और जन्मशती (2011-12) विशेषांक देश भर में साहित्यिक हलकों में काफी चर्चित हुए हैं. 

हैदराबाद की हिंदी पत्रकारिता के संवर्धन में महिला पत्रकारों का योगदान भी अविस्मरणीय है. सीता युद्धवीर, विपमा वीर, नरेश बंसल, अहिल्या मिश्र, कमला रानी संघी, सरोज बजाज, मुखविंदर कौर, कविता वाचक्नवी, गुर्रमकोंडा नीरजा, रमा द्विवेदी, प्रतिभा गर्ग आदि ने संपादन, और स्तंभ लेखन को सुपारिभाषित स्त्री-स्पर्श प्रदान किया है. यहाँ अहिल्या मिश्र के प्रधान संपादकत्व में प्रकाशित अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘पुष्पक’ का उल्लेख भी आवश्यक है जिसके विगत पंद्रह वर्ष में 20 अंक प्रकाशित हो चुके हैं. कृष्णकुमार गोस्वामी, दिलीप सिंह, ऋषभ देव शर्मा, रमा द्विवेदी और लक्ष्मी नारायण अग्रवाल आदि के परामर्श और संपादन में ‘पुष्पक’ ने विविध विधाओं की साहित्यिक पत्रिका के रूप में दक्षिण भारत के हिंदी रचनाकारों को तो अखिल भारतीय मंच प्रदान किया ही है, देश भर के अनेक नए-पुराने रचनाकारों को भी दक्षिण में परिचित कराया है.

आंध्रप्रदेश भर में फैले हुए केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों के राजभाषा विभागों से अनेक हिंदी पत्रिकाएँ गृह पत्रिका के रूप में प्रकाशित होती हैं. इनमें यों तो अपने अपने विभाग की सूचनाएँ और गतिविधियाँ सम्मिलित होती हैं तथापि इनमें से कुछ राजभाषा पत्रिकाओं ने तकनीकी लेखन की दृष्टि से राजभाषा विभागों के बाहर भी अपना वैशिष्ट्य प्रमाणित किया है. जैसे सीसीएमबी, हैदराबाद से प्रकाशित ‘जिज्ञासा’, एनजीआरआई, हैदराबाद से प्रकाशित ‘वसुंधरा’, एनएमडीसी, हैदराबाद से प्रकाशित ‘खनिज भारती’, एनआईआरडी, हैदराबाद से प्रकाशित ‘ग्रामीण विकास समीक्षा’ और बीडीएल, हैदराबाद से प्रकाशित ‘पथिक’ आदि. 

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आंध्रप्रदेश में हिंदी पत्रकारिता का उदय यद्यपि अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में हुआ था परंतु स्वातंत्र्योत्तर काल में इस हिंदीतर राज्य में निरंतर बढ़ती हुई हिंदी की स्वीकार्यता ने हिंदी पत्रकारिता के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान किया और दैनिक समाचार पत्रकारिता, साहित्यिक पत्रकारिता तथा राजभाषा पत्रकारिता के विविध क्षेत्रों में आज राज्य की राजधानी हैदराबाद के अलावा विजयवाडा और विशाखपट्टनम से भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सफलतापूर्वक प्रकाशन हो रहा है. उल्लेखनीय है कि लोगों की सामाजिक-राजनैतिक जागरूकता तथा साहित्यिक अभिरुचि के निर्माण और परिष्कार में हिंदी की इन पत्र-पत्रिकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा भारत की राष्ट्रभाषा-राजभाषा-संपर्कभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा में अपना-अपना योगदान दिया है.