बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

SILENT SCREAM

 

My heart aches, a hollow sound,

Like wind through ruins, lost and bound.

A heavy weight, a leaden stone,

Where joy and laughter once had flown.


The vibrant hues have turned to gray,

And shadows lengthen, day by day.

A silent scream, a muffled plea,

Lost in the vast immensity.


The threads of hope, once woven tight,

Now fray and break in fading light.

A fragile shell, a broken wing,

No solace that the hours can bring.


The memories dance, a cruel ballet,

Of moments stolen, slipped away.

A phantom touch, a whispered name,

Fueling the ever-burning flame.


And yet, within the deepest pain,

A flicker stirs, a gentle rain.

A whisper soft, a fragile seed,

A hope that blooms, a silent creed.


That even in this aching void,

A strength remains, to be employed.

To mend the cracks, to heal the scars,

And find the light among the stars.



शुक्रवार, 7 जून 2024

हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं : मुनव्वर राना




मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं,
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,

कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं

कहने वाले मुनव्वर राना 14 जनवरी, 2024 को सदा के लिए अलविदा कह गए। 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित मुनव्वर 26 नवंबर, 1952 को रायबरेली, उत्तर प्रदेश में जन्मे। उनका मूल नाम सय्यद मुनव्वर अली था। भारत-पाक विभाजन के समय उनके रिश्तेदार और पारिवारिक सदस्य भारत छोड़कर पाकिस्तान में जा बसे, लेकिन मुनव्वर का परिवार यहीं बस गया। उस दिन को याद करते हुए वे कहते हैं कि “मेरे वालिद और मैं स्टेशन पर उन्हें छोड़ने गए, उनके जाते वक्त मेरे वालिद लड़खड़ाए। मैंने लपककर सहारा देना चाहा। उन्होंने अपना जिस्म मेरे हवाले कर दिया और मैं उस दिन जवान हो गया।” (मुनव्वर राना, मुन्नवरनामा, संकलन एवं संपादन सचिन चौधरी)

साहित्य अकादमी जैसे अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित मुनव्वर राना की जिंदगी फूलों की सेज नहीं थी। उनका बचपन अभावों में बीता। इस संबंध में उनका यह कथन द्रष्टव्य है – “ज़ख्म कैसी भी हो, कुरेदिए तो अच्छा लगता है। माज़ी कैसा भी रहा हो, सोचिए तो मज़ा आता है। बचपन जैसा भी गुज़रा हो, राज-सिंहासन से अच्छा होता है। मुझे नहीं मालूम ज़मींदारी कैसी होती है, क्योंकि मैंने बारहा माँ को भूखे पेट सोते देखा है। मुझे क्या पता ज़मींदार कैसे होते हैं, क्योंकि मैंने मुद्दतों अपने अब्बू के हाथों में ट्रक का स्टेयरिंग वील देखा है।” (वही)

मुनव्वर राना की दुनिया आशाओं, जिज्ञासाओं, उमंगों और ख्वाबों से भरी दुनिया थी। उनके अभिन्न मित्र अरविंद मंडलोई का कहना है कि उनके पास “डिग्रियों, पदवियों का अंबार नहीं है, फिर भी वे आम आदमी के बोलते शायर हैं, उनके प्रशंसकों की एक लंबी फेहरिस्त है।” (वही)। माँ पर लिखी उनकी कविता को लोगों ने बहुत पसंद किया। जब ग़ज़ल में हुस्न और इश्क की बातें खुलकर हो रही थीं तो मुनव्वर उस जमीन पर रिश्ते बोने लगे। वे ग़ज़ल की दुनिया को इश्क़बाजी से घसीटकर ‘माँ’ के पास ले आए। उनकी कविताओं व गज़लों में माँ जरूर दिखाई देती हैं – “मामूली एक कलम से कहाँ तक घसीट लाए/ हम इस ग़ज़ल को कोठे से माँ तक घसीट लाए/ लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती/ बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती/ किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई/ मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई।” अपने पिता को याद करते हुए वे अत्यंत भावुक हो जाते थे – “हँसते हुए चेहरे ने भरम रखा हमारा/ वो देखने आए थे कि किस हाल में हम।” वे रिश्तों को महत्व देने वाले शायर थे। उनकी रचनाओं में उनके व्यक्तित्व को देखा जा सकता है। वाणी से प्रकाशित उनके ग़ज़ल संग्रह ‘बदन सराय’ की भूमिका में गोपालदास नीरज लिखते हैं कि “भाई मुनव्वर राना की ग़ज़लें पढ़ कर दिल और दिमाग़ को जो ठंडक और जो सुकून मिला, वह अनुभूति का विषय है, शब्दों का नहीं। माँ का आंचल, बाप की दुआएँ, बुज़ुर्गों की यादें, बच्चों के खिलौने और बहनों की राखियाँ कितनी पवित्र-पावन होती हैं और साथ ही किसान का पसीना, मज़दूर की थकान, शायरों को क्या-क्या नए अर्थ प्रदान करती है – अगर आपको यह समझना हो तो राना के दो-चार शेर गुनगुना कर देखिए।” किसानों के संबंध में मुनव्वर राना कहते हैं – “इसी गली में वो भूखा किसान रहता है/ ये वो ज़मीन है जहाँ आसमान रहता है।”

मुनव्वर राना की रचनाओं में कहो ज़िल्ले इलाही से, बदन सराय, बग़ैर नक़्शे का मकान, मान, सफ़ेद जंगली कबूतर, जंगली फूल, चेहरे याद रहते हैं, शाहदाबा आदि प्रमुख हैं। वे अनेक सम्मानों से नवाजे गए। माटी रतन सम्मान, खुसरो पुरस्कार, मीर तकी मीर पुरस्कार, गालिब पुरस्कार, डॉ. जाकिर हुसैन पुरस्कार, सरस्वती समाज पुरस्कार एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रमुख हैं। 2014 में ‘शाहदाबा’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। दादरी में अखलाक, सीपीआई नेता गोविंद पनसारे और लेखक कलबुर्गी की हत्या के प्रतीकात्मक विरोध के तौर पर उदयप्रकाश, काशीनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अशोक वाजपेयी जैसे अनेक साहित्यकारों ने इस पुरस्कार को लौटा दिया। इसी क्रम में मुनव्वर राना ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार को लौटाया था। एक लाइव शो में उन्होंने कहा कि “मैं यह अवार्ड लौटा रहा हूँ... और यह रहा एक लाख रुपये का चेक। इस पर मैंने कोई नाम नहीं लिखा है। आप चाहें तो इसे कलबुर्गी को भिजवा दीजिए, या पनसारे को भिजवा दीजिए या अखलाक को भिजवा दीजिए या किसी ऐसे मरीज को भिजवा दीजिए, जो अस्पताल में इलाज न करवा पा रहा हो और हुकूमत के लोग उसे न देख पा रहे हो।”

मुनव्वर धर्मनिरपेक्ष, शांति से युक्त देश को कायम रखना चाहते थे, लेकिन हमेशा विवादों से घिरे रहे। वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि “बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है/ बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है।” वे इंसानी रिश्तों को महत्व देते वाले शायर थे। कविताओं में, गज़लों में और सामान्य बातचीत में इन्हीं रिश्तों को वे आगे रखते थे। उनका मानना था कि “जिसको अहसासे ग़म नहीं होगा/ संग होगा सनम नहीं होगा।” रिश्तों की अहमियत को जानने वाला व्यक्ति ही हमारा सच्चा हमदर्द बन सकता है।

बचपन से ही मुनव्वर को शायरी करना बेहद पसंद था। इस बात का खुलासा उन्होंने स्वयं किया था। बचपन की स्मृतियों को वे बार-बार दोहराते रहते। उनकी गजलों में क्या-क्या नहीं हैं। एक ओर वे अपने बचपन को याद करते हैं। उनकी गज़लों में गाँव का नीम का पेड़ (नीम का पेड़ था, बरसात थी और झूला था/ गाँव में गुजरा ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था), गाँव का टूटा हुआ घर (ऐ शहर! कुछ दिनों के लिए गाँव भेज दे/ याद आ रहा है टूटा हुआ अपना घर हमें), बचपन के खिलौने (मेरा बचपन था, मेरा घर था, खिलौने थे मेरे/ सर पे माँ-बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था) आदि को देखा जा सकता है तो दूसरी ओर रेल के डिब्बों में झाड़ू लगाने वाले बच्चे (फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर खुशबू लगाते हैं/ वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं), मस्जिद की चटाई पर सोते हुए बच्चे (मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे/ इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा)।

वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि शहरी वातावरण विषैला बन चुका है। यदि बच्चों के बचपन को, उनकी मासूमियत को जिंदा रखना हो तो गाँव की ओर लौटना होगा – “भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो/ शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा।” शहरी वातावरण में जीना मुश्किल होता जा रहा है। यहाँ अनेक लोग गरीबी-रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों का बचपन भी छिनता जा रहा है। किताबों के बजाय उन नन्हें कंधों पर कल-कारख़ानों के औजार हैं, हाथों में हथौड़े हैं। मुनव्वर पूछते हैं कि “ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है।” किसी भी व्यक्ति की जिंदगी में बचपन एक सुनहरा पड़ाव है। उससे जुड़े हुए जज़्बात को उन्होंने इस कदर सँजोया है कि पढ़ने/ सुनने वाले का दिल पसीज जाता है – “क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है/ धुआँ चिमनी हमको कारख़ाने से बुलाता है/ किताबों के वरक़ तक जल गए फ़िरक़ापरस्ती में/ ये बच्चा अब नहीं बोलेगा बस्ता बोल सकता है/ इनमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं/ देखना हाथ से अख़बार न गिरने पाए।” मुनव्वर राना यह कहते हैं कि “बचपन खुशबू की तरह होता है, बहुत देर नहीं ठहरता या बचपन को पर लग जाते हैं।” (मुनव्वर राना, मुन्नवरनामा, संकलन एवं संपादन सचिन चौधरी)।

मुनव्वर राना की ग़ज़लें उनके अपने अनुभवों और अनुभूतियों का ही बयान हैं। इसीलिए उनकी गजलों में माँ, पिता, भाई, बहन से लेकर तमाम रिश्तों को देखा जा सकता है। साथ ही बचपन, गाँव, शहर आदि जगहों की स्मृतियों को। वे कहने में संकोच नहीं करते कि “मैं तो आपबीती को जगबीती और जगबीती को आपबीती के लिबास से आरास्ता करके ग़ज़ल बनाता हूँ। आपको अच्छी लगे तो शुक्रिया, न अच्छी लगे तो भी शुक्रिया।” (वही)

मुनव्वर राना कहते हैं कि “मौत का आना तो तय है मौत आएगी” मगर उससे डरना नहीं चाहिए। यह जिंदगी बढ़ नहीं सकती, पर हाँ जितने दिन हम जिएँगे उतने दिन चारों ओर खुशियाँ बिखेरने की कोशिश करनी चाहिए। “मौत तो खुद अपने ठिकाने पे बुला लेती है।” वह हर पल “तकाज़े को खड़ी रहती है। कब तलक हम उसे वादे पे टाल जाते।” शायद मुनव्वर राना अपना वादा निभाने यह कहते हुए इस नश्वर दुनिया को पीछे छोड़ गए कि-

                            मेरी मुट्ठी से ये बालू सरक जाने को कहती है
                                        ये ज़िंदगी भी अब मुझसे थक जाने को कहती है
                                                    मैं अपनी लड़खड़ाहट से परेशान हूँ मगर
                                                                पोती मेरी ऊँगली पकड़ के दूर तक जाने को कहती है 
                                                                                      (मुनव्वर राना)

मैं गुड़िया नहीं, गाय नहीं, गुलाम नहीं!



समाज में किसी व्यक्ति व समुदाय की अस्मिता अथवा पहचान का मुख्य आधार उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा ही होती है। सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए समाज में अनुकूल वातावरण की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत सच्चाई यह है कि दुनिया के सभी समाजों में सदियों से पुरुष और स्त्री को अलग-अलग दृष्टि से देखा जाता है। स्त्री को कमजोर माना जाता है और उसे हमेशा ही अबला, दीन, कमजोर, वीक जेंडर आदि अनेक विशेषणों से संबोधित किया जाता है; लेकिन यह भी निर्विवाद सत्य है कि स्त्री भले ही शारीरिक रूप से पुरुष से कमजोर है पर मानसिक रूप से वह किसी भी स्तर पर कम नहीं है। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा का यह कथन उल्लेखनीय है: “नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव अधिक तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिनकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं। इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना विद्युत और झड़ी में। एक से शक्ति उत्पन्न की जा सकती है, बड़े-बड़े कार्य किए जा सकते हैं, परंतु प्यास नहीं बुझाई जा सकती। दूसरी से शांति मिलती है, परंतु पशुबल की उत्पत्ति संभव नहीं। दोनों के व्यक्तित्व, अपनी पूर्णता में समाज के एक ऐसे रिक्त स्थान को भर देते हैं जिससे विभिन्न सामाजिक संबंधों में सामंजस्य उत्पन्न होकर उन्हें पूर्ण कर देता है।” (महादेवी वर्मा, शृंखला की कड़ियाँ, पृ.11-12)। स्त्री-पुरुष साहित्य के केंद्र में भी आ चुके हैं। साहित्यकार इनके विविध रूपों और विविध संबंधों का चित्रण करते रहे हैं।

1990 के बाद विमर्शों का साहित्य भारतीय भाषाओं में उभरने लगा। इसकी भूमिका एक तरह से उसी समय तैयार हो चुकी थी जब ‘नई कविता’ अस्तित्व और अस्मिता की खोज की बात कर रही थी। नई कविता में व्यक्ति की जिजीविषा और अस्तित्व के संघर्ष की बात थी। आगे चलकर यही व्यक्ति समुदाय में बदल गया - हाशियाकृत समुदाय में। उस समुदाय का संघर्ष ही विमर्श है। जीने की इच्छा, अस्तित्व और अस्मिता को सुरक्षित रखने की जद्दोजहद, शोषण के प्रति आक्रोश और संघर्ष के परिणामस्वरूप स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, तृतीय लिंगी, पर्यावरण आदि विमर्श सामने आए।

8 मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है, अतः स्त्री विमर्श पर दृष्टि केंद्रित करना समीचीन होगा। स्त्री विमर्श की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा करने से पूर्व ‘स्त्री’ शब्द पर विचार करना आवश्यक है। स्त्री शब्द के अनेक पर्याय हैं। जैसे हिंदी में नारी, औरत, महिला, कन्या, मादा, श्रीमती, लुगाई आदि और अंग्रेजी में female, woman, damsel. इसी तरह तेलुगु में स्त्री, आडदी, इंति, महिला, कन्या, श्रीमती, आविडा, आडपिल्ला, अम्मायी, मगुवा आदि शब्दों का प्रयोग संदर्भ के अनुसार किया जाता है। इसी तरह तमिल में पेन, मंगै, श्रीमत आदि का प्रयोग किया जाता है। यदि ‘स्त्री’ शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट होता है कि यास्क ने अपने ‘निरुक्त’ में ‘स्त्यै’ धातु से इसकी व्युत्पत्ति मानी है जिसका अर्थ लगाया गया है – लज्जा से सिकुड़ना। पाणिनि ने भी ‘स्त्यै’ धातु से ही ‘स्त्री’ की व्युत्पत्ति सिद्ध की है, पर इस धातु का अर्थ इकट्ठा करना लगाया है – ‘‘स्त्यै शब्द-संघातयोः’ (धातुपाठ)। साहित्य में स्त्री को दया, माया, श्रद्धा, देवी आदि अनेक रूपों में संबोधित किया जाता है। स्त्री को इस तरह अनेक रूपों में विभाजित करके देखने के बजाय उसके व्यक्तित्व को समग्र रूप में अर्थात मानवी के रूप में देखने की आवश्यकता है।

भारतीय स्त्री को बचपन से ही घर और समाज की मर्यादाओं की पट्टी पढ़ाई जाती है। पुराने समय में लड़की को एक सीमा तक ही शिक्षा प्रदान की जाती थी। उसे घरेलू काम-काज में प्रशिक्षण दिया जाता था। उसके लिए तरह-तरह की पाबंदियाँ होती थीं। हमारे शास्त्रों में कहा भी गया है न कि ‘न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हति’। यही माना जाता रहा है कि स्त्री पिता, पति और पुत्र के संरक्षण में सुरक्षित रहती है। लेकिन शास्त्रकार यह भूल जाते हैं कि स्त्री भी है तो मनुष्य ही। वह मानवी है। उसके भीतर भी भावनाएँ हैं। पुरुषसत्तात्मक समाज ने उसे माँ और देवी का रूप प्रदान करके उसे ऐसे सिंहासन पर बिठा दिया कि वह कठपुतली बनती गई। स्त्री को जहाँ एक ओर देवी, माँ, भगवती आदि कहकर संबोधित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर उसकी अवहेलना की जाती है। “नारी के देवत्व की कैसी विडंबना है!” (शृंखला की कड़ियाँ, पृ. 35)। पुरुष के समान स्त्री भी इस समुदाय का हिस्सा है, तो सारे प्रतिबंध उसी के लिए क्यों!? पुरुष के लिए क्यों नहीं?

स्त्री को यह कहकर घर की चारदीवारी तक सीमित किया गया कि घर के बाहर वह असुरक्षित है। घर ही उसका साम्राज्य है। “कितना मनहूस था वह दिन जब किसी पिता ने, किसी भाई ने, किसी बेटे ने,/ किसी बेटी को/ किसी बहन को/ किसी माँ को, किसी पत्नी को सुझाव दिया था/ घर में रहने का, हिदायत दी थी/ देहरी न लाँघने की/ और बँटवारा कर दिया था/ दुनिया का - घर और बाहर में।/ बाहर की दुनिया पिता की थी – वे मालिक थे, संरक्षक थे/ भीतर की दुनिया माँ की थी – वे गृहिणी थीं संरक्षिता थीं।” (ऋषभदेव शर्मा, क्यों बड़बड़ाती हैं औरतें, देहरी, पृ. 36)।

स्त्री जिस घर में जन्म लेती है वह घर विवाह के बाद उसके लिए पराया हो जाता है। उस घर के लिए वह मेहमान बन जाती है। विवाह के बाद नए घर में प्रवेश करके वहाँ अपने आपको जड़ से रोपने की कोशिश करती है। और यह कोशिश निरंतर चलती है। रुकने का नाम नहीं लेती। इस रोपने की क्रिया में उसे तमाम तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उसकी एक नई पहचान बनती है। और वह नए रिश्ते में बंध जाती है। सबकी जरूरतों के बारे में सोचने वाली स्त्री अपनी जरूरतों को दरकिनार कर देती है। इस संदर्भ में मुझे तेलुगु कवयित्री एन. अरुणा की प्रसिद्ध कविता ‘सुई’ याद आ रही है। उस कविता में उन्होंने सुई के माध्यम से स्त्री जीवन को व्यक्त किया है। यहाँ सुई प्रतीक है। जिस तरह फटे कपड़ों को सुई जोड़ती है उसी तरह स्त्री भी अपने परिवार को आत्मीयता के धागों से पिरोती है - इन्सानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ/ फटे भूखंडों पर/ पैबंद लगाना चाहती हूँ/ कटते भाव-भेदों को रफू करना चाहती हूँ/ आर-पार न सूझने वाली/ खलबली से भरी इस दुनिया में/ मेरी सुई है/ और लोकों की समष्टि के लिए खुला कांतिनेत्र। (एन. अरुणा, मौन भी बोलता है, पृ. 53-54)। इतना करने पर भी स्त्री को क्या मिलता है! कभी-कभी तो उसे घर के सदस्यों की अवहेलना और तिरस्कार भी झेलना पड़ता है। चाहे गलती किसी की भी क्यों न हो स्त्री को ही दोषी ठहराया जाता है। “युगों से उसको उसकी सहनशीलता के लिए दंडित होना पड़ रहा है।” (महादेवी वर्मा, शृंखला की कड़ियाँ, पृ.17)।

समय के साथ-साथ स्त्री भी मूलभूत मानवाधिकारों के प्रति सचेत हो गई। सदियों से हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाने लगी। यदि महादेवी वर्मा के शब्दों में कहें तो “स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण-प्रतिष्ठा चाहती है। कारण वह जान गई है कि एक का अर्थ अन्य की शोभा बढ़ाना तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजापे को देखते रहना है जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग बाँट लेंगे। आज उसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष को चुनौती देकर अपनी शक्ति की परीक्षा देने का प्रण किया है और उसी में उत्तीर्ण होने को जीवन की चरम सफलता समझती है।” (वही, पृ.105)। शोषण के प्रति स्त्री अपनी आवाज उठाने लगी: “नहीं! मैं गुड़िया नहीं,/ मैं गाय नहीं,/ मैं गुलाम नहीं!” (ऋषभदेव शर्मा, गुड़िया-गाय,-गुलाम, देहरी, पृ.10)। परिणामस्वरूप स्त्री विमर्श की अवधारणा सामने आई।

स्त्री विमर्श की अवधारणा भारत एवं पाश्चात्य संदर्भ में बिल्कुल अलग-अलग है क्योंकि भारतीय दृष्टि में स्त्री ‘मूल्य’ है जबकि पाश्चात्य दृष्टि में वह मात्र ‘वस्तु’ है। स्त्री विमर्श एक प्रतिक्रिया है। युगों की दासता, पीड़ा और अपमान के विरुद्ध स्त्री की सकारात्मक प्रतिक्रिया है अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की रक्षा हेतु। 1949 में सिमोन द बुआ ने अपनी पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ में स्त्री को वस्तु रूप में प्रस्तुत करने की स्थिति पर प्रहार किया। डोरोथी पार्कर का मानना है कि स्त्री को स्त्री के रूप में ही देखना होगा क्योंकि पुरुष और स्त्री दोनों ही मानव प्राणी हैं। 1960 में केट मिलेट ने पुरुष की रूढ़िवादी मानसिकता पर प्रहार किया। वर्जीनिया वुल्फ़, जर्मेन ग्रीयर आदि ने भी स्त्री के अधिकारों की बात की। इन स्त्रीवादी चिंतकों का प्रभाव भारतीय समाज पर भी पड़ा। भारतीय स्त्रीचिंतकों में वृंदा करात, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, महाश्वेता देवी, मेधा पाटकर, अरुंधति राय, वोल्गा, अब्बूरी छायादेवी, जयाप्रभा, अंबै (सी.एस.लक्ष्मी) आदि उल्लेखनीय हैं।

स्त्री, समाज को अपने व्यक्तिगत अनुभवों से जोड़कर देखती है। वह जब से यह महसूस करने लगी कि वह पुरुष से किसी भी स्तर पर कम नहीं तब से ही वह अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के लिए आवाज उठाने लगी। स्त्री विमर्श में महत्वपूर्ण कारक है ‘जेंडर’। स्त्री इसी लिंग केंद्रित जड़ता को तोड़ना चाहती है। इसे स्त्री मुक्ति का पहला चरण माना जा सकता है। वैश्विक स्तर पर घटित विभिन्न आंदोलन स्त्रीवादी सैद्धांतिकी को निर्मित करने में सहायक सिद्ध हुए। प्रमुख रूप से उदारवादी स्त्रीवाद, समाजवादी-मार्क्सवादी स्त्रीवाद, रेडिकल स्त्रीवाद, सांस्कृतिक स्त्रीवाद, पर्यावरणीय स्त्रीवाद, वैयक्तिक स्त्रीवाद स्त्री प्रश्नों पर प्रकाश डालते हैं।

वस्तुतः स्त्री विमर्श के लिए कुछ समीक्षाधार निर्धारित करना अनिवार्य है। समाज में स्त्री की स्थिति, स्त्री विषयक पारंपरिक मान्यताओं पर पुनर्विचार, पारंपरिक स्त्री संहिता की व्यावहारिक अस्वीकृति, शोषण के विरुद्ध स्त्री का असंतोष और आक्रोश, देह मुक्ति, पुरुषवादी वर्चस्व के ढाँचे को तोड़ना, स्त्री सशक्तीकरण और सार्वजनिक जीवन में स्त्री की भूमिका आदि को प्रमुख रूप से स्त्री विमर्श की कसौटियाँ माना जा सकता है। इनके आधार पर साहित्य का स्त्री विमर्शमूलक विश्लेषण आसानी से किया जा सकता है।

भाषा की दृष्टि यदि स्त्री विमर्श को देखा जाए तो रोचक तथ्य सामने आते हैं। स्त्री-भाषा पुरुष की भाषा से भिन्न होती है। स्त्री अपने अनुभव जगत से शब्द चयन करती है। जहाँ पुरुष-भाषा में वर्चस्व, रौब और अधिकार की भावनाओं को देखा जा सकता है वहीं स्त्री-भाषा में सखी भाव अर्थात मैं से हम की यात्रा को देखा जा सकता है। सामान्य स्त्री के भाषिक आचरण में पुरुष की रुचि-अरुचि का ध्यान रखने की प्रवृत्ति, परिवार की शुभेच्छा की प्रवृत्ति, स्त्री सुलभ कलाओं में रुचि की प्रवृत्ति, घर-परिवार और संस्कारों में रुचि की प्रवृत्ति, घरेलू चिंताओं की प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। इसी प्रकार एक शिक्षित स्त्री के भाषिक आचरण में पूर्ण आत्मविश्वास, निडरता, जागरूकता, स्थितियों के विश्लेषण की क्षमता आदि प्रवृत्तियों को देखा जा सकता है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श से अभिप्राय है स्त्री में आत्मनिर्णय की प्रवृत्ति होना जिससे वह उस रूढ़िगत स्त्री संहिता का अतिक्रमण कर सकती है जो उसकी अस्मिता एवं अस्तित्व के लिए घातक है तथा सार्वजनिक जीवन में अपनी भूमिका निभा सकती है। 8 मार्च को हर.वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अभियान के रूप में मनाया जाता है। यह 1909 से शुरू होकर आज तक चल रहा है। इस वर्ष का थीम है इंस्पायर इनक्लूजन। अर्थात हर क्षेत्र की स्त्री को प्रोत्साहित करना और उन्हें आगे बढ़ने में सहायता करना।

‘हिंदी प्रचार समाचार’ के पाठकों को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की अनंत शुभकामनाएँ।

अपनी ऊर्जा रचनात्मक कार्य में लगाएँ : बापू




8 मार्च को वैश्विक स्तर पर महिला दिवस का आयोजन होता है। स्त्रियों के सम्मान में मनाया जाने वाला यह दिन महत्वपूर्ण है। ध्यान देने की बात है कि कुछ देशों में - विशेष रूप से अफगानिस्तान, जॉर्जिया, अंगोला, आर्मेनिया, चीन, अजरबाइजान, बुर्किना फासो, कंबोडिया, क्यूबा, गिन्नी-बिसाउ, बेलारूस, कजाखिस्तान, किर्गिस्तान, लाओस जैसे देशों में - अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस घोषित अवकाश है। इन देशों के अतिरिक्त मकदूनिया, मेडागास्कर, माल्डोवा, मंगोलिया, नेपाल, रूस, ताजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूगांडा, यूक्रेन, वियतनाम और जाम्बिया में भी आधिकारिक तौर पर अवकाश होता है।

इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि महिला दिवस की शुरूआत 1908 में तब हो गई थी जब लगभग 15 हजार स्त्रियों ने न्यूयॉर्क शहर में एक परेड निकाली थी। उनकी प्रमुख माँग यही थी कि स्त्रियों के काम के घंटे कम हों, वेतन अच्छा मिले और उन्हें वोट डालने का हक भी मिले। 1909 में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की घोषणा की। 1910 में क्लारा जेटकिन नामक महिला ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की बुनियाद रखी। आगे चलकर 1975 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में चिह्नित किया गया। ‘महिलाओं में निवेश करें : प्रगति में तेजी लाएँ’ – यह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2024 की थीम है।

यह तो हुई वैश्विक स्तर की बात। अब हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों की दशा और दिशा पर बात करेंगे। भारत में, वैदिककालीन स्त्री स्वतंत्रता के इतिहास को भुलाकर, मध्यकाल में स्त्री को घर की चारदीवारी के अंदर ‘सुरक्षित’ (!?) क्षेत्र तक सीमित कर दिया गया था। यह कब हुआ, कैसे हुआ यह बताना कठिन है। लेकिन पुनर्जागरण काल के भारतीय इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि उस समय भारतीय स्त्री ने सार्वजनिक रूप से स्वतंत्रता संग्राम में महती भूमिका निभाई। यह भी ध्यान देने की बात है कि साहित्य के किसी काल-खंड में ऐसा नहीं हुआ कि ‘स्त्री’ प्रमुख विषय न रहा हो। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य के केंद्र में स्त्री किसी न किसी रूप में रही है। इस साहित्य से पुष्टि होती है कि समाज में पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था होने के कारण प्रमुख विषयों में निर्णय लेना का अधिकार पुरुष को प्राप्त हुआ। 19 वीं सदी के पूर्वार्ध में बाल विवाह, कन्या भ्रूणहत्या, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, दहेज आदि सामाजिक विसंगतियाँ बहुत बढ़ी हुई थीं। उचित शिक्षा के अभाव में स्थितियाँ बदतर होने लगीं और स्त्री घर-परिवार तक सीमित होती गई। एक ओर उसे देवी के रूप में पूजा जाता है, तो दूसरी ओर उसे दानवी कहकर धिक्कारा जाता है। ये दोनों ही स्थितियाँ घातक हैं। स्त्री न ही अपने आपको देवी मानती है और न ही दानवी। वह तो बस इस समाज से यही चाहती है कि उसे ‘मानवी’ का दर्जा प्राप्त हो। वह भी इनसान है। समाज में अपना अस्तित्व कायम रखना चाहती है। स्त्री बार-बार यही गुहार लगाती है कि वह एक स्त्री है, ममता की प्रतिमूर्ति है। उसके पास दो चेहरे, दो मुँह और दो तरह का जीवन नहीं है। जैसा भी है वह अपनी उस स्थिति को स्वीकारती है। अफसोस नहीं करती कि वह सीता-सावित्री के साँचे में फिट नहीं बैठती। उसके लिए तो बस इतना काफी है कि वह मनुष्य है - अपनी सारी कमजोरियों और खूबियों के साथ।

यहाँ हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में स्त्री के बारे में कुछ बातें महात्मा गांधी के बहाने करना चाहेंगे। गांधी जी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से यह स्पष्ट होता है कि गांधी जी स्त्रियों के अधिकारों के प्रति जागरूक थे और स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। वे इस बात पर बल देते थे कि स्त्री सहनशीलता की मूर्ति है। वे स्त्री और पुरुष में भेदभाव करने का विरोध करते थे। स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव को मन में रखकर जीने को वे मानसिक कमजोरी व बीमारी मानते थे। उनका मानना था कि पुरुष स्त्री की क्षमाशीलता जैसे स्वाभाविक गुणों का भरपूर लाभ उठाते हैं। अतः स्त्री को हर तरह से सक्षम होने की आवश्यकता है।

महात्मा गांधी ने स्त्रियों की राजनैतिक भागीदारी को पारंपरिक और पारिवारिक भूमिकाओं के विस्तार के रूप में देखते थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि स्त्रियों में विदेशी शासन के प्रलोभनों का विरोध करने की क्षमता अधिक है। इसीलिए उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए स्त्रियों का आह्वान किया। स्वतंत्रता आंदोलन को महात्मा गांधी ने एक नई दिशा दी और बड़ी संख्या में स्त्रियों को इसमें शामिल किया।

गांधी जी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से यह बात स्पष्ट होती है कि वे स्त्रियों के अधिकारों के प्रति जागरूक थे; और स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक। ‘यंग इंडिया’ (1921) में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने लिखा कि ‘पुरुष द्वारा खुद बनाई गई बुराइयों में से कोई भी इतनी अपयश-जनक, पाशविक और अप्रिय नहीं है जितनी कि मानवता के आधे हिस्से यानि महिलाओं के साथ किया गया दुर्व्यवहार है। हालांकि महिला कमजोर लिंग नहीं है।’ स्त्री पुरुष से शारीरिक स्तर पर भले ही कमजोर हो सकती है, लेकिन मानसिक स्तर पर वह उससे कम नहीं है।

‘हरिजन’ के एक अंक में गांधी जी ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए लिखा कि ‘मैं स्त्रियों की समुचित शिक्षा की हिमायती हूँ, लेकिन यह भी मानता हूँ कि स्त्री दुनिया की प्रगति में अपना योग पुरुष की नकल करके या उसकी प्रतिस्पर्धा करके नहीं दे सकती है, चाहे तो वह प्रतिस्पर्धा कर सकती है, परंतु पुरुष की नकल करके वह उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकती। उसे पुरुष का पूरक बनना चाहिए।’ महात्मा गांधी स्त्रियों के अधिकारों के प्रति सजग थे। वे इस बात पर बल देते थे कि स्त्री भी एक व्यक्ति है। वे पहले ही यह बात जान चुके थे कि भारतीय स्त्री की कानूनी एवं पारंपरिक स्थिति खराब रही है। अतः वे इस स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की कोशिश करते रहे। ‘मेरे सपनों का भारत’ में गांधी जी भारतीय स्त्री के पुनरुत्थान की बात करते हुए कहते हैं कि ‘जिस रूढ़ि और कानून के बनाने में स्त्री का कोई हाथ नहीं था और जिसके लिए सिर्फ पुरुष ही जिम्मेदार है, उस कानून और रूढ़ि के जुल्मों ने स्त्री को लगातार कुचला है। अहिंसा की नींव पर रचे गए जीवन की योजना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को भी अपने भविष्य की रचना का है, उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने का है।’ (मेरे सपनों का भारत, पृ. 188)। पर यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि ‘अहिंसक समाज की व्यवस्था में जो अधिकार मिलते हैं, वे किसी न किसी कर्तव्य या धर्म के पालन से प्राप्त होते हैं। इसीलिए यह भी मानना चाहिए कि सामाजिक आचार-व्यवहार के नियम स्त्री-पुरुष दोनों आपस में मिलकर और राजी-खुशी से तय करें।’ (वही)। जब स्त्री और पुरुष एक ही तरह की जिंदगी जीते हैं, तो उनमें भेदभाव क्यों? क्या उनकी जिम्मेदारियों और भूमिकाओं के कारण इस तरह का भेदभाव प्रचलित है? यह सोचने की बात है।

अकसर कहा जाता है कि स्त्री-पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक ही रथ के दो पहिये हैं, आदि आदि आदि। पर व्यावहारिक रूप से कभी भी स्त्री को पुरुष के समान अधिकार नहीं दिए जाते। यह भेद तो घर-परिवार से ही शुरू हो जाता है। लड़की से कहा जाता है – तुम लड़की हो, घर के भीतर ही बैठो। बाहर घूमने न जाना। अकेले मत जाना, छोटे भाई को साथ ले जाना। लेकिन लड़का बिना कोई बंदिश घूम सकता है, क्योंकि वह ‘लड़का’ है। पति रूपी पुरुष स्त्री को अपना मित्र व साथी मानने के बजाय अपने को उसका स्वामी मानता है तथा उसे अपनी दासी। हिंदुस्तान की स्त्रियों को इस गिरी हुई हालत से ऊपर उठाने की बात गांधी जी करते हैं और स्त्री शिक्षा पर जोर देते हुए कहते हैं कि ‘स्त्रियों को उनकी मौलिक स्थिति का पूरा बोध करावें और उन्हें इस तरह की तालीम दें, जिससे वे जीवन में पुरुषों के साथ बराबरी के दरजे से हाथ बँटाने लायक बनें।’ (वही, पृ.189)। यह तभी संभव होगा जब पुरुष स्त्री को मन बहलाने की गुड़िया न समझकर उसे सम्मान देगा। हम यह भी देख सकते हैं कि कुछ समुदायों में गाँव की स्त्रियाँ हर काम में पुरुषों से टक्कर लेती हैं। कुछ मामलों में निर्णय भी लेती हैं, हुकूमत भी करती हैं। इससे स्पष्ट है कि स्त्रियों में घर और समाज को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता अंतर्निहित है।

महात्मा गांधी की दृष्टि में स्त्री-पुरुष समान हैं। वे यह नहीं चाहते कि ऐसा कोई भी कानूनी प्रतिबंध स्त्री पर लगे, जो पुरुष पर न लगाया गया हो। कहने का आशय है कि उनके साथ पूरी समानता का व्यवहार होना चाहिए। स्त्रियों को पहले स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनना होगा। उल्लेखनीय है कि 22 फरवरी, 1944 को अपनी सहधर्मिणी कस्तूरबा गांधी के निधन के बाद एक अप्रैल, 1945 को महात्मा गांधी ने कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की स्थापना की थी। इस ट्रस्ट का उद्देश्य भी यही है कि समस्त स्त्रियों को स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनाया जाए। याद रहे कि स्त्री की आत्मनिर्भरता का मतलब यह कतई नहीं है कि इससे पुरुषों की स्थिति हीन हो जाएगी। बल्कि केवल इतना है कि स्त्रियों की स्थिति सुधर जाएगी। गांधी जी यही चाहते थे कि स्त्रियाँ अपनी ऊर्जा रचनात्मक कार्यों में लगाएँ ताकि उनकी स्थिति में आश्चर्यजनक सुधार हो।

इन्हीं शब्दों के‘स्रवंति’ के पाठकों को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएँ...