मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं,
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
कहने वाले मुनव्वर राना 14 जनवरी, 2024 को सदा के लिए अलविदा कह गए। 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित मुनव्वर 26 नवंबर, 1952 को रायबरेली, उत्तर प्रदेश में जन्मे। उनका मूल नाम सय्यद मुनव्वर अली था। भारत-पाक विभाजन के समय उनके रिश्तेदार और पारिवारिक सदस्य भारत छोड़कर पाकिस्तान में जा बसे, लेकिन मुनव्वर का परिवार यहीं बस गया। उस दिन को याद करते हुए वे कहते हैं कि “मेरे वालिद और मैं स्टेशन पर उन्हें छोड़ने गए, उनके जाते वक्त मेरे वालिद लड़खड़ाए। मैंने लपककर सहारा देना चाहा। उन्होंने अपना जिस्म मेरे हवाले कर दिया और मैं उस दिन जवान हो गया।” (मुनव्वर राना, मुन्नवरनामा, संकलन एवं संपादन सचिन चौधरी)
साहित्य अकादमी जैसे अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित मुनव्वर राना की जिंदगी फूलों की सेज नहीं थी। उनका बचपन अभावों में बीता। इस संबंध में उनका यह कथन द्रष्टव्य है – “ज़ख्म कैसी भी हो, कुरेदिए तो अच्छा लगता है। माज़ी कैसा भी रहा हो, सोचिए तो मज़ा आता है। बचपन जैसा भी गुज़रा हो, राज-सिंहासन से अच्छा होता है। मुझे नहीं मालूम ज़मींदारी कैसी होती है, क्योंकि मैंने बारहा माँ को भूखे पेट सोते देखा है। मुझे क्या पता ज़मींदार कैसे होते हैं, क्योंकि मैंने मुद्दतों अपने अब्बू के हाथों में ट्रक का स्टेयरिंग वील देखा है।” (वही)
मुनव्वर राना की दुनिया आशाओं, जिज्ञासाओं, उमंगों और ख्वाबों से भरी दुनिया थी। उनके अभिन्न मित्र अरविंद मंडलोई का कहना है कि उनके पास “डिग्रियों, पदवियों का अंबार नहीं है, फिर भी वे आम आदमी के बोलते शायर हैं, उनके प्रशंसकों की एक लंबी फेहरिस्त है।” (वही)। माँ पर लिखी उनकी कविता को लोगों ने बहुत पसंद किया। जब ग़ज़ल में हुस्न और इश्क की बातें खुलकर हो रही थीं तो मुनव्वर उस जमीन पर रिश्ते बोने लगे। वे ग़ज़ल की दुनिया को इश्क़बाजी से घसीटकर ‘माँ’ के पास ले आए। उनकी कविताओं व गज़लों में माँ जरूर दिखाई देती हैं – “मामूली एक कलम से कहाँ तक घसीट लाए/ हम इस ग़ज़ल को कोठे से माँ तक घसीट लाए/ लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती/ बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती/ किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई/ मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई।” अपने पिता को याद करते हुए वे अत्यंत भावुक हो जाते थे – “हँसते हुए चेहरे ने भरम रखा हमारा/ वो देखने आए थे कि किस हाल में हम।” वे रिश्तों को महत्व देने वाले शायर थे। उनकी रचनाओं में उनके व्यक्तित्व को देखा जा सकता है। वाणी से प्रकाशित उनके ग़ज़ल संग्रह ‘बदन सराय’ की भूमिका में गोपालदास नीरज लिखते हैं कि “भाई मुनव्वर राना की ग़ज़लें पढ़ कर दिल और दिमाग़ को जो ठंडक और जो सुकून मिला, वह अनुभूति का विषय है, शब्दों का नहीं। माँ का आंचल, बाप की दुआएँ, बुज़ुर्गों की यादें, बच्चों के खिलौने और बहनों की राखियाँ कितनी पवित्र-पावन होती हैं और साथ ही किसान का पसीना, मज़दूर की थकान, शायरों को क्या-क्या नए अर्थ प्रदान करती है – अगर आपको यह समझना हो तो राना के दो-चार शेर गुनगुना कर देखिए।” किसानों के संबंध में मुनव्वर राना कहते हैं – “इसी गली में वो भूखा किसान रहता है/ ये वो ज़मीन है जहाँ आसमान रहता है।”
मुनव्वर राना की रचनाओं में कहो ज़िल्ले इलाही से, बदन सराय, बग़ैर नक़्शे का मकान, मान, सफ़ेद जंगली कबूतर, जंगली फूल, चेहरे याद रहते हैं, शाहदाबा आदि प्रमुख हैं। वे अनेक सम्मानों से नवाजे गए। माटी रतन सम्मान, खुसरो पुरस्कार, मीर तकी मीर पुरस्कार, गालिब पुरस्कार, डॉ. जाकिर हुसैन पुरस्कार, सरस्वती समाज पुरस्कार एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रमुख हैं। 2014 में ‘शाहदाबा’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। दादरी में अखलाक, सीपीआई नेता गोविंद पनसारे और लेखक कलबुर्गी की हत्या के प्रतीकात्मक विरोध के तौर पर उदयप्रकाश, काशीनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अशोक वाजपेयी जैसे अनेक साहित्यकारों ने इस पुरस्कार को लौटा दिया। इसी क्रम में मुनव्वर राना ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार को लौटाया था। एक लाइव शो में उन्होंने कहा कि “मैं यह अवार्ड लौटा रहा हूँ... और यह रहा एक लाख रुपये का चेक। इस पर मैंने कोई नाम नहीं लिखा है। आप चाहें तो इसे कलबुर्गी को भिजवा दीजिए, या पनसारे को भिजवा दीजिए या अखलाक को भिजवा दीजिए या किसी ऐसे मरीज को भिजवा दीजिए, जो अस्पताल में इलाज न करवा पा रहा हो और हुकूमत के लोग उसे न देख पा रहे हो।”
मुनव्वर धर्मनिरपेक्ष, शांति से युक्त देश को कायम रखना चाहते थे, लेकिन हमेशा विवादों से घिरे रहे। वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि “बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है/ बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है।” वे इंसानी रिश्तों को महत्व देते वाले शायर थे। कविताओं में, गज़लों में और सामान्य बातचीत में इन्हीं रिश्तों को वे आगे रखते थे। उनका मानना था कि “जिसको अहसासे ग़म नहीं होगा/ संग होगा सनम नहीं होगा।” रिश्तों की अहमियत को जानने वाला व्यक्ति ही हमारा सच्चा हमदर्द बन सकता है।
बचपन से ही मुनव्वर को शायरी करना बेहद पसंद था। इस बात का खुलासा उन्होंने स्वयं किया था। बचपन की स्मृतियों को वे बार-बार दोहराते रहते। उनकी गजलों में क्या-क्या नहीं हैं। एक ओर वे अपने बचपन को याद करते हैं। उनकी गज़लों में गाँव का नीम का पेड़ (नीम का पेड़ था, बरसात थी और झूला था/ गाँव में गुजरा ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था), गाँव का टूटा हुआ घर (ऐ शहर! कुछ दिनों के लिए गाँव भेज दे/ याद आ रहा है टूटा हुआ अपना घर हमें), बचपन के खिलौने (मेरा बचपन था, मेरा घर था, खिलौने थे मेरे/ सर पे माँ-बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था) आदि को देखा जा सकता है तो दूसरी ओर रेल के डिब्बों में झाड़ू लगाने वाले बच्चे (फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर खुशबू लगाते हैं/ वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं), मस्जिद की चटाई पर सोते हुए बच्चे (मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे/ इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा)।
वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि शहरी वातावरण विषैला बन चुका है। यदि बच्चों के बचपन को, उनकी मासूमियत को जिंदा रखना हो तो गाँव की ओर लौटना होगा – “भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो/ शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा।” शहरी वातावरण में जीना मुश्किल होता जा रहा है। यहाँ अनेक लोग गरीबी-रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों का बचपन भी छिनता जा रहा है। किताबों के बजाय उन नन्हें कंधों पर कल-कारख़ानों के औजार हैं, हाथों में हथौड़े हैं। मुनव्वर पूछते हैं कि “ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है।” किसी भी व्यक्ति की जिंदगी में बचपन एक सुनहरा पड़ाव है। उससे जुड़े हुए जज़्बात को उन्होंने इस कदर सँजोया है कि पढ़ने/ सुनने वाले का दिल पसीज जाता है – “क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है/ धुआँ चिमनी हमको कारख़ाने से बुलाता है/ किताबों के वरक़ तक जल गए फ़िरक़ापरस्ती में/ ये बच्चा अब नहीं बोलेगा बस्ता बोल सकता है/ इनमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं/ देखना हाथ से अख़बार न गिरने पाए।” मुनव्वर राना यह कहते हैं कि “बचपन खुशबू की तरह होता है, बहुत देर नहीं ठहरता या बचपन को पर लग जाते हैं।” (मुनव्वर राना, मुन्नवरनामा, संकलन एवं संपादन सचिन चौधरी)।
मुनव्वर राना की ग़ज़लें उनके अपने अनुभवों और अनुभूतियों का ही बयान हैं। इसीलिए उनकी गजलों में माँ, पिता, भाई, बहन से लेकर तमाम रिश्तों को देखा जा सकता है। साथ ही बचपन, गाँव, शहर आदि जगहों की स्मृतियों को। वे कहने में संकोच नहीं करते कि “मैं तो आपबीती को जगबीती और जगबीती को आपबीती के लिबास से आरास्ता करके ग़ज़ल बनाता हूँ। आपको अच्छी लगे तो शुक्रिया, न अच्छी लगे तो भी शुक्रिया।” (वही)
मुनव्वर राना कहते हैं कि “मौत का आना तो तय है मौत आएगी” मगर उससे डरना नहीं चाहिए। यह जिंदगी बढ़ नहीं सकती, पर हाँ जितने दिन हम जिएँगे उतने दिन चारों ओर खुशियाँ बिखेरने की कोशिश करनी चाहिए। “मौत तो खुद अपने ठिकाने पे बुला लेती है।” वह हर पल “तकाज़े को खड़ी रहती है। कब तलक हम उसे वादे पे टाल जाते।” शायद मुनव्वर राना अपना वादा निभाने यह कहते हुए इस नश्वर दुनिया को पीछे छोड़ गए कि-
मेरी मुट्ठी से ये बालू सरक जाने को कहती है
ये ज़िंदगी भी अब मुझसे थक जाने को कहती है
मैं अपनी लड़खड़ाहट से परेशान हूँ मगर
पोती मेरी ऊँगली पकड़ के दूर तक जाने को कहती है
(मुनव्वर राना)