अभिनंदन 
-    गुर्रमकोंडा नीरजा 
ओ नई सुबह ! 
तेरा अभिनंदन 
बीत गई रात
रात बहुत गहरी थी 
अंधेरा था घना 
इतना घना 
बहुत बार कर गया 
मन अनमना 
अंधेरे में झींगुर 
कानों के परदे फाड़
रहे थे 
जंगली भैंसे और
सूअर 
चिंघाड़ रहे थे 
हाथियों की चीत्कार
थी 
शेर दहाड़ रहे थे 
चारों तरह से उठ
रही थी 
शिकारी कुत्तों की
भौं-भौं 
और गीदड़ों की हुआ...
हुआ... हू... हू.. हू.. 
दिखाई कुछ भी नहीं देता था 
केवल अंधेरा था 
और आवाजें थीं 
बोलता हुआ अंधेरा
था 
निराकार अंधेरी
आवाजें थीं 
कानों में उंगली ठूंसे 
मैं दौड़ रही थी 
अंधेरे की सुरंग
में 
सुरंग के पार फिर
सुरंग 
सुरंगें ही सुरंगें
कोई दिशा नहीं थी 
दिशाहारा मैं भयभीत...
बन गई अंधेरे का
हिस्सा 
कंठ में घुट गई
आवाज 
अंधेरी आवाजों के
बीच 
गूंगा अंधेरा.....  मैं
बेतहाशा भागती रही
मैं 
लड़ती रही अंधेरे से
और तभी 
एक अंधी सुरंग के
सिरे पर 
दिखाई दी सूरज की
पहली किरण
धीरे-धीरे दृश्य बदलने लगा 
चीख-पुकार, चीत्कार
और दहाड़
बदल गई मेरी निंदा
और गालियों में,
जिन्हें समझा था
अंधेरे में जंगली पशु 
अब उनके चेहरे
दिखने लगे थे साफ़ – 
कोई संबंधी
कोई सहकर्मी
कोई दोस्त...
सबके होंठ विकृत 
सबकी भौहें तनी
हुईं 
सबकी तर्जनी उठी
हुई 
मेरी ओर 
मैं डूबने लगी अंधेरी
सुरंगों के 
बीचोंबीच बनी भंवर
में  
तब मैंने की आखिरी कोशिश 
छलांग लगाकर पकड़ ली
सूरज की पहली किरण 
और एकाएक बदल गया सीन
नए सूर्योदय ! तेरा अभिनंदन