कहते हैं खुदा ने इस जहाँ में सभी के लिए
तेरा मिलना है उस रब का इशारा मानो
मुझको बनाया तेरे जैसे ही किसी के लिए
कुछ तो है तुझसे राब्ता
कुछ तो है तुझसे है राब्ता
कैसे हम जाने हमें क्या पता
कुछ तो है तुझसे राब्ता
तू हमसफर है तो क्या फिकर है
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कहते हैं खुदा ने इस जहाँ में सभी के लिए
किसी न किसी को है बनाया हर किसी के लिए
जब मैंने डॉ. प्रवीण प्रणव की किताब ‘कुछ राब्ता है तुमसे : साहित्यिक जीवनी’ देखी, तो अनायास ही मुझे उक्त गाना याद आ गया। खैर...
कुछ राब्ता है तुमसे : पहली मुलाक़ात
पुस्तक ‘कुछ राब्ता है तुमसे’ (2025) के रचनाकार प्रवीण प्रणव (1975) से मेरी पहली मुलाक़ात उस वक़्त हुई थी, जब वे अपनी पहली पुस्तक की पाण्डुलिपि लेकर परिलेख प्रकाशन के अमन त्यागी से मिलने हमारे घर आए थे। बस दो बातें ही हुई थी, उस समय उनसे। उस वक़्त मैंने यह सोचा भी नहीं था कि उनसे आगे भी मुलाक़ात होगी। लेकिन कहते हैं न कि इस दुनिया में किसी न किसी से मिलना रब का ही इशारा होता है। रब ने भाई प्रवीण प्रणव से मेरा परिचय करवाया है।
साहित्यिक जुड़ाव : आईटी से साहित्य तक की यात्रा
‘स्रवंती’ पत्रिका के तो ये नियमित पाठक और लेखक भी हैं। माइक्रोसोफ्ट और ब्रॉडकॉम जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से संबद्ध, तकनीकी दुनिया से ताल्लुक रखने वाली शख्सियत का साहित्य की दुनिया में इस कदर छा जाना साधारण बात नहीं हो सकती।
सूचना प्रौद्योगिकी उनका व्यावसायिक करियर है, लेकिन साहित्य से वे सक्रिय रूप से जुड़े हैं। यदि मैं कहूँ कि सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र से जुड़े प्रवीण प्रणव की गहरी रुचि ग़ज़ल और हिंदी कविता में है, तो गलत नहीं होगा। उनकी इसी रुचि का परिणाम हैं उनके काव्य संकलन - 'खलिश', 'चुप रहूँ या बोल दूँ', और समीक्षात्मक कृतियाँ - 'मुक्ता की परख', 'लिए लुकाठी हाथ'। समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में उनकी पुस्तक समीक्षाएँ और आलोचनात्मक लेख प्रकाशित होते ही रहते हैं। इतना ही नहीं, हैदराबाद जैसे प्रेम के शहर में हर महीने के दूसरे शनिवार को नियमित रूप से होने वाले कार्यक्रम ‘क से कविता’ के माध्यम से प्रवीण प्रणव हिंदी और उर्दू साहित्य प्रेमियों को एक मंच प्रदान कर रहे हैं। यह एक ऐसा मंच है जो स्थानीय स्तर पर हिंदी और उर्दू कविता के पाठकों को एक साथ लाता है। यह मंच बहुत विशेष है, क्योंकि यह सिर्फ और सिर्फ पाठकों का मंच है। यह मंच स्वरचित कविताओं के लिए अनुमति नहीं देता है। और यही बात इसे एक विशुद्ध पाठक-केंद्रित साहित्यिक मंच बनाती है।
कुछ तो है तुझसे राब्ता….
प्रवीण प्रणव ने अपनी नई पुस्तक 'कुछ राब्ता है तुमसे' में सरल भाषा का इस्तेमाल करते हुए रोचक जानकारी देने का प्रयास किया है, जिससे यह किताब हर पाठक के लिए पठनीय और ज्ञानवर्धक बन गई है। इस किताब के ज़रिए प्रवीण प्रणव ने 18 महान साहित्यकारों से पाठकों को मिलवाया है। इनमें से कुछ तो मेरे प्रिय लेखक हैं, जबकि कुछ के केवल नामों से ही मैं पहले परिचित थी। एक तो ऐसा भी नाम इस पुस्तक में शामिल है, जिनके बारे में मैंने इसी पुस्तक के माध्यम से नाता जोड़ा। परवीन शाकिर।
आदत के अनुसार, पहले मैंने किताब का कवर बार-बार पलटा। पहले कवर पर ‘ईस्टमैन कलर’ में 18 महान साहित्यकारों के चित्र थे। मेरी नज़र उन चित्रों से हट ही नहीं रही थी, क्योंकि मुझे उनमें चेहरे कम और भारत का नक्शा ज़्यादा दिख रहा था।
किताब के पिछले कवर पर, भाई प्रवीण प्रणव ने यह घोषणा की है कि, "यह किताब अठारह रचनाकारों के जीवन से परिचय कराती है; कुछ अनसुने किस्से सुनाती है, कुछ भूले हुए सच बताती है...। यह किताब उन सभी के लिए है जो जानना चाहते हैं कि रचनाएँ कैसे रचनाकारों की दुनिया से जन्म लेती हैं।"
मम्मी और पापा को समर्पित यह किताब सचमुच एक अमूल्य धरोहर है। इसके छठे पृष्ठ पर विक्टर ह्यूगो का यह वाक्य लिखा है - "लेखक व्यक्ति में क़ैद एक संपूर्ण संसार होता है।" इस किताब में शामिल अठारह जीवनीपरक लेख इस वाक्य को सही साबित करते हैं। इनके माध्यम से पाठक हिंदी, उर्दू और भोजपुरी के साहित्यकारों के जीवन और उनके साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।
पुस्तक के अनुक्रम पर मेरी नज़र गई तो पहला ही आलेख चंद्रधर शर्मा गुलेरी का है। इसका शीर्षक भी रोचक है – अमर कहानी का अमर कहानीकार। कौन नहीं जानता कि ‘उसने कहा था’ एक ऐसी कहानी है जिसने चंद्रधर शर्मा गुलेरी को अमर बना दिया। इसी रोचकता को प्रवीण जी ने भिखारी ठाकुर, जोश मलीहाबादी, सुभद्रा कुमारी चौहान, मखदूम मुहिउद्दीन, महादेवी वर्मा, फैज अहमद फैज, नागार्जुन, गोपाल सिंह नेपाली, कैफी आज़मी, फणीश्वरनाथ रेणु, साहिर लुधियानवी, गोपाल दास नीरज, दुष्यंत कुमार, केदारनाथ सिंह, धूमिल, अदम गोंडवी और परवीन शाकिर पर केंद्रित लेखों में बरकरार रखा है।
साथी सरहद पार के....
सरहद पार के तीन ऐसे व्यक्तित्वों की चर्चा मैं करना चाहूँगी जो उर्दू साहित्य के मील के पत्थर हैं – जोश मलीहाबादी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और परवीन शाकिर।
जोश मलीहाबादी (1898 – 1982) के नाम से जाने गए शब्बीर हसन ख़ाँ का जन्म उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद में हुआ। इनके पूर्वज फ़्रंटियर प्रोविन्स में पश्तूनों के आफरीदी कबीले से थे, जो मलीहाबाद में आकर बस गए थे। शब्बीर का तेवर बचपन से विद्रोही था। वे ‘जोश’ उपनाम से ग़ज़ल और नज़्म लिखते थे। उनकी ग़ज़लों में विद्रोह, क्रांति और स्वतंत्रता की गूँज निहित है। उन्होंने अपने उपनाम के साथ जन्म स्थान का नाम भी जोड़कर ‘जोश मलीहाबादी’ के नाम से साहित्य जगत में अपना एक निजी स्थान बना लिया था। वे उर्दू साहित्य में क्रांतिकारी विचारधारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। उनकी कविताओं में स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक बदलाव की छाप गहरी दिखती है। 1956 में वे पाकिस्तान चले गए और वहीं जीवन के अंतिम वर्षों तक रहे। प्रवीण प्रणव जोश मलीहाबादी के संदर्भ में लिखते हैं कि -
"एक जमींदार, एक बगावती तेवर का शायर, एक ऐसा शख़्स जिसके ताल्लुकात प्रधानमंत्री से थे; फिर भी जोश ने अपनी जिंदगी में क्या नहीं देखा। लोगों का प्यार देखा, बगावत की वजह से मुश्किलात का सामना किया। एक समय था जब वह सब छोड़ कर सब्ज़ी बेचने का मन बना चुके थे, यह 1948 का दौर था। पाकिस्तान जाने का भावनात्मक निर्णय लिया, जिसकी वजह से बाद के उनके दिन बेबसी और गुमनामी में बीते। लेकिन काश इनसान के हाथों में होता भविष्य जान पाना और उसी के अनुरूप निर्णय ले पाना। जोश भले ही पाकिस्तान चले गए लेकिन उनकी शायरी सरहद से परे है।” (प्रणव : 25 : 56)
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (1911 – 1984) का जन्मस्थान है सियालकोट, जो अब पाकिस्तान में है। आधुनिक उर्दू शायरी के महानतम शायरों में से एक हैं फ़ैज़। उन्हें ‘शायर-ए-इंक़लाब’ और ‘रोमांटिक-रिवोल्यूशनरी’ कहकर संबोधित किया जाता है। जोश मलीहाबादी की ही तरह फ़ैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों में प्रेम और इंक़लाब का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। वे वामपंथी विचारधारा से जुड़े रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय सदस्य थे। इस नाते जेल भी गए। 1962 में सोवियत संघ ने उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार प्रदान किया। फ़ैज़ ने आम जनता के दर्द को समझा। उसे अपनी शायरी में अभिव्यक्त किया। वे सच के साथ खड़े होने और उस सच के हक में आवाज़ बुलंद करने के लिए गुहार लगाते हैं - “बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है/ जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले/ बोल कि सच ज़िंदा है अब तक/ बोल जो कुछ कहना है कह ले।” ऐसे निर्भीक और बेबाक शायर फ़ैज़ के संदर्भ में प्रवीण जी कहते हैं –
"फ़ैज़ ने कई रूमानी ग़ज़ल और नज़्म लिखीं। बाद में उनकी शायरी में तबदीली आई और जनता से सरोकार के मुद्दों पर फ़ैज़ ने खुल कर लिखा।” (प्रणव : 25 : 120)
परवीन शाकिर (1952 – 1994) के नाम से प्रसिद्ध सैयदा परवीन बानो शाकिर का जन्म पाकिस्तान के कराची में हुआ। उनके पिताजी सैयद शाकिर हुसैन बिहार के दरभंगा जिले में स्थित लहेरियासराय के रहने वाले थे। भारत-पाक विभाजन से पहले ही वे नौकरी की तलाश में कराची चले गए थे। विभाजन के बाद वे वहीं के होकर रह गए। परवीन उर्दू की आधुनिक और लोकप्रिय कवयित्री थीं। उन्होंने ग़ज़ल और नज़्म में एक संवेदनशील स्त्री आवाज़ को भरा और सबसे अलग पहचान बनाई। उनकी शायरी में प्रेम, स्त्री-स्वतंत्रता, निजी संवेदनाएँ और सामाजिक यथार्थ की झलक मिलती है। उनकी रचनाओं के संबंध में प्रवीण जी का कहना है कि
“परवीन शाकिर की रचनाओं में तीव्र विद्रोह नहीं है। संघर्ष का तेज आह्वान नहीं है। लेकिन उनकी रचनाएँ एक आईना बन कर हमारे सामने खड़ी हो जाती हैं जिनमें हमारा असली अक्स नज़र आता है और इससे आँखें मिलाते हुए हमें शर्मिंदगी होती है। उनकी रचनाओं के शब्द कठोर नहीं हैं, लेकिन उनका असर गहरा है।” (प्रणव : 25 : 208)
पुस्तक को कहीं से भी खोलिए - आपके सामने कोई न कोई सूत्रवाक्य अवश्य होगा। आप स्वयं को उस व्यक्ति के बारे में और अधिक जानने के लिए मजबूर पाएँगे। पुस्तक को पढ़ने के बाद मुझे यह स्पष्ट हुआ कि प्रवीण जी ने छठे पृष्ठ पर विक्टर ह्यूगो के कथन का उल्लेख क्यों किया है। यदि मैं कहूँ कि प्रवीण जी के भीतर एक संपूर्ण संसार क़ैद है, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके भीतर की जिज्ञासा निरंतर कुलबुलाती रहती है - कुछ और जानने की, कुछ और अभिव्यक्त करने की बेचैनी। इसी अनबुझ जिज्ञासा और बेचैनी का परिणाम है उनकी यह किताब।
कुल 303 पृष्ठों के इस रोचक और संभावनापूर्ण ‘कोश’ को हापुड़ के संभावना प्रकाशन ने सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया है। पुस्तक का मूल्य 499/- रुपये है, लेकिन इसमें निहित सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर निःसंदेह अमूल्य है।
नोट : मैंने इस पुस्तक को ‘कोश’ की संज्ञा इसलिए दी है क्योंकि यह वास्तव में सूत्रवाक्यों का एक संग्रहणीय कोश है।