गुरुवार, 24 मार्च 2016

!! रंगारंग शुभकामनाएँ !!


महाशिवरात्रि और होली की रंगारंग शुभकामनाएँ देते हुए इस बार त्योहारों के इस महीने में हम आपके लिए लाए हैं लोक कवि ईसुरी के फाग काव्य के कुछ अंश. लोक कवि ईसुरी का जन्म बुंदेलखंड के मेंढ़की गाँव (जिला झांसी) में सन 1838 ई. (संवत् 1895 वि.) में चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को हुआ था. वे बचपन से ही लोक संस्कृति के विभिन्न रंगों में इस तरह पग गए थे कि उन्होंने अपना सारा जीवन लोक रंजन और लोक शिक्षण के लिए समर्पित कर दिया. यहाँ तक कि इसके लिए उन्होंने दरबारी कवि बनने के सम्मानित प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया. उन्होंने राम कथा, कृष्ण कथा, पुराणों और इतिहास के प्रसंगों को आधार बनाकर भारतीय जीवन मूल्यों की शिक्षा देने वाले अनेक फाग छंदों की रचना की. प्रकृति और प्रेम के वे अद्भुत चितेरे थे. अपने जीवन काल में ही उन्हें फाग गायन के कारण इतनी लोकप्रियता मिल गई कि उनकी काव्य नायिका रजऊ को लेकर तरह-तरह के प्रवाद तक प्रचलित हो गए. सब प्रकार की निंदा-स्तुति से ऊपर उठकर ईसुरी प्रेम की कुंठाहीन अभिव्यक्ति करते रहे. उन्होंने अपनी काव्य नायिका को प्रेमिका के स्तर से उठाकर राधिका बना दिया. राधिका और कृष्ण की होली का उन्होंने अनेक फागों में अत्यंत तन्मय होकर अंकन किया है. 

ईसुरी के पाँच होली संबंधी फाग छंद ......

                               [1]

ऎसी पिचकारी की घालन, कहाँ सीख लई लालन
कपड़ा भींज गये बड़-बड़ के, जड़े हते जर तारन
अपुन फिरत भींजे सो भींजे, भिंजै जात ब्रज-बालन
तिन्नी तरें छुअत छाती हो, लगत पीक गइ गालन
ईसुर अज मदन मोहन नें, कर डारी बेहालन ।

                             [2]

सारी चोर-बोर कर डारी, कर डारी गिरधारी।
गिरधारी पकरन के काजैं।जुर आईं ब्रजनारी। 

नारी भेस करौ मोहन कौ। पैराई तन सारी।
सारी पैर नार भए मोहन, नाचें दै-दै तारी
तारी लगा ग्वाल सब हँस रय, ईसुर कयँ बलहारी।

                                [3]

रंग डारो ना लला को अलकन में। पर जैं है मुकुट की झलकन में।
उड़त गुलाल लाल भये बादर, परत आँख की पलकन में।
पकर पकर राधे मोहन खाँ, मलत अबीर कपोलन में।
खेलत फाग परस पर ईसुर, राधे मोहन ललकन में।

                                      [4]

ब्रज में खेले फाग कनाई, राधे संग सुहाई.
चलत अबीर रंग-केसर कौ, नभ अरुनाई छाई.
लाल-लाल ब्रज लाल-लाल बन, बीथन कीच मचाई. 
‘ईसुर’ नर-नारिन के मन में, अति आनंद सरसाई. 


                                     [5]

राधे सजी सखिन की पलटन, आप बनी लफटंटन.
ललिता सूबेदार सलामी, देन लगी फर जंटन. 
पथरकला सन सैन सँवारी, वर्दी पैरी बन ठन.
राइट-लेपट, मिचन नैनन की, खोलन खोल फिरंटन.
‘ईसुर’ कृष्णचंद मन-व्याकुल, बनौ रहौ है घंटन. 

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

अभिनंदन

अभिनंदन
-    गुर्रमकोंडा नीरजा

ओ नई सुबह !
तेरा अभिनंदन
बीत गई रात

रात बहुत गहरी थी
अंधेरा था घना
इतना घना
बहुत बार कर गया
मन अनमना
अंधेरे में झींगुर
कानों के परदे फाड़ रहे थे
जंगली भैंसे और सूअर
चिंघाड़ रहे थे
हाथियों की चीत्कार थी
शेर दहाड़ रहे थे
चारों तरह से उठ रही थी
शिकारी कुत्तों की भौं-भौं
और गीदड़ों की हुआ... हुआ... हू... हू.. हू..
दिखाई कुछ भी नहीं देता था
केवल अंधेरा था
और आवाजें थीं
बोलता हुआ अंधेरा था
निराकार अंधेरी आवाजें थीं
कानों में उंगली ठूंसे
मैं दौड़ रही थी
अंधेरे की सुरंग में
सुरंग के पार फिर सुरंग
सुरंगें ही सुरंगें
कोई दिशा नहीं थी
दिशाहारा मैं भयभीत...

बन गई अंधेरे का हिस्सा
कंठ में घुट गई आवाज
अंधेरी आवाजों के बीच
गूंगा अंधेरा.....  मैं

बेतहाशा भागती रही मैं
लड़ती रही अंधेरे से
और तभी
एक अंधी सुरंग के सिरे पर
दिखाई दी सूरज की पहली किरण
धीरे-धीरे दृश्य बदलने लगा
चीख-पुकार, चीत्कार और दहाड़
बदल गई मेरी निंदा और गालियों में,
जिन्हें समझा था अंधेरे में जंगली पशु
अब उनके चेहरे दिखने लगे थे साफ़ –
कोई संबंधी
कोई सहकर्मी
कोई दोस्त...
सबके होंठ विकृत
सबकी भौहें तनी हुईं
सबकी तर्जनी उठी हुई
मेरी ओर

मैं डूबने लगी अंधेरी सुरंगों के
बीचोंबीच बनी भंवर में  
तब मैंने की आखिरी कोशिश
छलांग लगाकर पकड़ ली
सूरज की पहली किरण
और एकाएक बदल गया सीन
नए सूर्योदय ! तेरा अभिनंदन  


गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

'साहित्यिक पत्रकारिता' : नई पुस्तक

साहित्यिक पत्रकारिता
आशा मिश्र 'मुक्ता'
2016
गीता प्रकाशन, हैदराबाद
मूल्य : रु. 595
पृष्ठ : 176 

भूमिका

श्रीमती आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ की प्रस्तुत शोधपूर्ण कृति के प्रकाशन के अवसर पर मैं अत्यंत हर्ष का अनुभव कर रही हूँ क्योंकि इस कृति के प्रणयन में उन्होंने अत्यंत सदाशयतापूर्वक पग-पग पर मुझसे चर्चा की है. यह पुस्तक इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है कि इसमें हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के विराट मानचित्र पर दक्षिण भारत की रेखाओं को खासतौर पर उभारा गया है. हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता आरंभ से ही अत्यंत तेजस्वी रही है और उसके विकास में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, धर्मवीर भारती, राजेंद्र अवस्थी और मृणाल पांडे जैसे दिग्गज हस्ताक्षरों का योगदान अविस्मरणीय है. इन बड़े नामों के आभामंडल के कारण बहुत बार हिंदीतर भाषी क्षेत्रों की हिंदी पत्रकारिता हाशिए पर धकेल दी जाती है. यह युग हाशियाकृत समुदायों के विमर्श का युग है. इसलिए इतिहास के मुख्य पृष्ठ पर अनुपस्थित रह गए समुदाय अब अपनी उपस्थिति और अस्मिता को नए सिरे से रेखांकित कर रहे हैं. हिंदीतर भाषी क्षेत्रों की साहित्यिक पत्रकारिता भी ऐसा ही एक उपेक्षित समुदाय है. प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने हिंदीतर भाषी क्षेत्र की हिंदी पत्रकारिता पर विमर्श का नया प्रस्थान दर्ज कराया है. इसके लिए उन्होंने हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पहले अनियतकालीन और अब त्रैमासिक पत्रिका ‘पुष्पक’ का विशिष्ट और गहन अध्ययन करके यह प्रतिपादित किया है कि लोकल सरोकारों से उद्भूत होने के बावजूद इस क्षेत्र की साहित्यिक पत्रकारिता ग्लोबल सरोकारों को भी पूरी तरह संबोधित करती है. वस्तुतः हिंदी साहित्य का सार्वदेशिक और समेकित इतिहास लिखते समय ‘पुष्पक’ जैसी पत्रिकाएँ आधारभूत सामग्री का प्रामाणिक स्रोत सिद्ध होंगी. इसलिए यदि यह कहा जाए कि प्रस्तुत पुस्तक साहित्यिक पत्रकारिता ही नहीं समेकित हिंदी साहित्य की इतिहास रचना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. 

स्मरणीय है कि इस पुस्तक में विवेचित पत्रिका ‘पुष्पक’ हैदराबाद (वर्तमान तेलंगाना) से प्रकाशित होती है. इसलिए लेखिका ने हिंदी पत्रकारिता के उद्भव और विकास का इतिहास प्रस्तुत करने से पहले अत्यंत संक्षेप में तेलंगाना के इतिहास की रेखाओं को उकेरा है. तदनंतर दक्षिण भारत में हिंदी पत्रकारिता की चर्चा करने के बाद साहित्यिक हिंदी पत्रिकाओं का इस क्षेत्र के संदर्भ में सर्वेक्षण किया है. ‘कल्पना’, ‘अजंता’, ‘पूर्णकुंभ’, ‘स्रवंति’, ‘विवरण पत्रिका’, ‘संकल्य’, ‘पुष्पक’, ‘समुच्चय’, ‘भास्वर भारत’, ‘अग्रतारा’, ‘महिला सुधा’, ‘मध्यांतर’ और ‘दक्षिण समाचार’ की यह झांकि इस सत्य का साक्षात्कार कराने में समर्थ है कि साहित्यिक पत्राकरिता की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत उपजाऊ रहा है जिसकी अब तक उपेक्षा की जाती रही है. 

लेखिका ने अपने विवेचन के केंद्र में जिस महत्वपूर्ण पत्रिका को रखा है उसके 25 अंकों की सामग्री का विश्लेषण करते हुए उसकी संपादकीय दृष्टि के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और साहित्यिक आयामों की जमकर पड़ताल की है. साथ ही उसके कथासाहित्य, काव्य, निबंध, समीक्षा एवं अन्य विधाओं के योगदान को भी इन विधओं की विषय वस्तु और भाषा शैली की कसौटी पर कसकर स्थापना की है. विवेचित पत्रिका की प्रधान संपादक का साक्षात्कार इस पुस्तक को और भी परिपूर्णता प्रदान करता है. 

आशा है, कि आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ की इस पुस्तक का हिंदी जगत में व्यापक स्वागत होगा तथा सुधी पाठक इसे उन्हें अपना स्नेह और आशीर्वाद प्रदान करेंगे. 

शुभकामनाओं सहित

- गुर्रमकोंडा नीरजा