शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

‘उर्वशी’ : आभा है निखिल भुवन की




"नहीं, उर्वशी नारि नहीं, आभा है निखिल भुवन की;
रूप नहीं, निष्‍कलुष कल्पना है स्रष्‍टा के मन की।" (उर्वशी, पृ.17)


रामधारी सिंह ‘दिनकर’(30 सितंबर, 1908 - 25 अपैल, 1974) का साहित्यिक व्यक्‍तित्व राष्‍ट्रीय आंदोलन की इतिहास यात्रा से जुड़ा हुआ है। उनका समय नवीन आयामों के विकास का समय था। उन दिनों स्वाधीनता आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। ‘वंदे मातरम्‌’ के उद्‍घोष ने जनमानस में राष्‍ट्रीयता की चिनगारी को जगा दी थी। इन सभी परिस्थितियों से प्रभावित होकर दिनकर ने अपने समूचे अस्तित्व को राष्‍ट्रीय अनुभूतियों के अधीन कर दिया तथा पौरुष का शंखनाद और क्रांति के अंगार लेकर वे साहित्य में उतरे।


पौरुष के प्रतीक, अनल के कवि, मानवता के पक्षधर दिनकर ने जन-जागरण की काव्यधारा को भी तीव्र एवं प्रहर बनाया। उनकी कविताओं में योद्धा का गंभीर घोष, अनल का सा तीव्र ताप और सूर्य का सा प्रखर तेज विद्‍यमान है। जीवन की हर स्थिति में उनका कवि रूप ही जीवंत और प्रखर बना रहा। राष्‍ट्रीयता उनकी कविता का मूल स्वर है। उनकी कविता किसी क्षणिक उत्तेजना या तात्कालिक आवेग की कविता नहीं अपितु स्वदेश की मिट्‍टी को दहकानेवाली, हिमगिरि को पिघलानेवाली और गंगा के पानी को खौलानेवाली शाश्‍वत कविता है।


दिनकर का पौरुष और क्रांति का तेवर ‘रेणुका’. हुँकार’, ‘सामधेनी’, ‘कुरुक्षेत्र’,‘रश्‍मिरथी’ से होते हुए ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में नए रूप में सामने आता है। इन काव्यों की मूल समस्या युद्ध है। स्‍वाधीनता के संघर्ष में जूझ रहे भारत के ‘युगचारण’ कहे जानेवाले दिनकर का क्रांतिकारी तेवर ‘उर्वशी’ में एक सुंदर मोड़ लेकर प्रेम की रागात्मिकता और अनोखे ‘कामाध्यात्म’ में परिवर्तित होता दिखाई देता है। कई आलोचकों ने इसे एक आकस्मिक घटना माना लेकिन स्वयं दिनकर ने कहा - "माचा पर बैठे बैठे टीन बजाते बजाते थक गया हूँ। अब कुछ ऐसा लिखना चाहता हूँ जिसमें आत्मा का रस अधिक हो।" (कुमुद शर्मा; हिंदी के निर्माता; पृ.323)


"पढ़ो रक्‍त की भाषा को, विश्‍वास करो इस लिपि का;
यह भाषा, यह लिपि मानस को कभी न भरमायेगी,
***** ***** *****
रक्‍त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है।" (उर्वशी; पृ.45-46)


इस उद्‍घोष पर आधारित काव्य रूपक ‘उर्वशी’ का प्रकाशन 1961 में हुआ। इसमें पुराण प्रसिद्ध पुरूरवा और उर्वशी की कथा संकलित है। नाटक की भाँति पाँच अंकों मे विभक्‍त इस काव्य रूपक के प्रत्येक अंक में स्थान स्थान पर रंगमंचीय संकेत भी अंकित है। ‘उर्वशी’ कवि की समसामयिक विचारधारा के साथ साथ उनके जीवन दर्शन की भी द्योतक है। कवि ने नर-नारी की प्रेम समस्या पर अत्यंत गंभीरता एवं सूक्ष्मता के साथ विचार किया है। ध्यान देने की बात है कि उन्होंने सौंदर्य और आसक्‍ति तथा कर्तव्य और प्रेम में कोई अंतर नहीं किया है।


‘उर्वशी’ के प्रथम अंक में विभिन्न पात्रों के द्वारा वर्णित घटनाओं तथा उनकी विचारधाराओं में उसके प्रतिपाद्‍य की स्थापना हुई है। प्रारंभ में पुरूरवा की राजधानी प्रतिष्‍ठानपुर के बगीचे में अप्‍सराएँ आती हैं। यहीं उनके द्वारा पुरूरवा और उर्वशी के स्वर्ग में प्रथम दर्शन और उससे उत्पन्न प्रेम का पता चलता है। द्वितीय अंक में पुरूरवा की महारानी औशीनरी को उर्वशी और पुरूरवा के प्रेम संबंध का समाचार मिलता है। इस अंक में दाम्पत्य और परकीय प्रेम की तुलना की गई है। चेतन और अचेतन स्तर पर प्रेम के विविध रूपों का विश्‍लेशण किया गया है। तीसरे अंक में पुरूरवा और उर्वशी विश्‍व-नर और विश्‍व-नारी के प्रतीक बन जाते हैं। वे दोनों गंधमादन पर्वत पर विहार करते समय स्त्री-पुरुष प्रेम के विविध गहन अनुभव प्राप्‍त करते हैं। यहाँ दर्शाया गया है कि मनुष्‍य होने के कारण पुरूरवा भौतिकता और अध्यात्म के बीच झूलता है और प्रेम के अनुभव को अशरीरी स्तर तक ले जाने के लिए चेतन और अचेतेन स्तर पर क्रियाशील रहता है। चौथे अंक में उर्वशी अपने नवजात शिशु को च्यवन ऋषि की पत्‍नी सुकन्या को सौंप कर पुरूरव के साथ रहने लगती है। क्योंकि उसे यह शाप है कि पति और पुत्र नहीं, पति या पुत्र का ही सुख मिल सकता है। इस अंक में प्रकृति और पुरुष की एकानुभूति तथा संन्यास और प्रेम के बीच संतुलन की स्थापना का परिचय महर्षि च्यवन के माध्यम से दिया गया है। पाँचवे अंक में सुकन्या उर्वशी-पुरूरवा के पुत्र आयु को प्रतिष्‍ठानपुर ले आती है। भरतमुनि का शाप प्रतिफलित होता है और उर्वशी अदृश्‍य हो जाती है तथा पुरूरवा संन्यास ले लेता है। आयु का राज्याभिषेक होता है। औशीनरी उसे माँ का प्रेम देती है -( "बरस गया पीयूष, देवी! यह भी है धर्म क्रिया का/ अटक गयी हो तेरी मनुज की किसी घाट-अवघट में ,/ तो छिगुनी की शक्‍ति लगा नारी फिर उसे चला दे;/ और लुप्‍त हो जाय पुनः आतप, प्रकाश, हलचल से।" (उर्वशी; पृ.130)


‘उर्वशी’ में वर्तमान युग के व्यक्‍ति के अंतर्द्वन्द्व का चित्रण हुआ है। स्वयं दिनकर की दृष्‍टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का। उर्वशी पंचेंद्रियों की कामनाओं का प्रतीक है तो पुरूरवा इंद्रिय संवेदना से प्राप्‍त सुखों से उद्वेलित मनुष्‍य है। जिस प्रकार धर्म का उद्‍भव भय से और कला का जन्म काम से होता है, उसी प्रकार देवत्व की तृष्‍णा रूप के निराकार भाव से उपजती है। अतः ‘उर्वशी’ का कवि कहता है - "जीवन में सूक्ष्‍म आनंद और निरुद्‍देश्‍य सुख के जितने भी सोते हैं, वे कहीं-न-कहीं, काम के पर्वत से फूटते हैं। जिसका काम कुंठित, उपेक्षित अथवा अवरुद्ध है, वह आनंद के अनेक सूक्ष्म रूपों से वंचित रह जाता है।" (उर्वशी; भूमिका)


‘उर्वशी’ का मूल विषय काम एवं अध्यात्म के बीच सामंजस्य की खोज ही है। यह काव्य दर्शन और मनोविज्ञान द्वारा जीवन के कामपक्ष की व्याख्या करता है। काम या प्रेम के अनेक रूप हैं - भ्रातृ प्रेम, मातृ प्रेम, पितृ प्रेम, यौवनाश्रित प्रेम, शृंगारिक प्रेम, आत्म प्रेम तथा ईश्‍वर प्रेम। हम भली-भाँति जानते हैं कि मानव चेतना के आधार तत्व हैं - इंद्रियाँ, मन और आत्मा। मानव चेतना का संपूर्ण इतिहास शारीरिक काम से उद्वेलित है। ‘उर्वशी’ काव्य में काम के चार प्रतिनिधि रूप हैं - उर्वशी अतीन्द्रिय प्रेम से कुंठित होकर मानवीय प्रेम अर्थात्‌ ऐंद्रिक सुख की प्राप्‍ति के लिए मानव लोक में आती है। पुरूरवा द्वन्द्व से युक्‍त है चूँकि द्वन्द्व में रहना मनुष्‍य का स्वभाव है। पुरूरवा जिस मानवीय प्रेम का प्रतीक है वह ऐंद्रिय होकर भी आत्मिक है। महारानी औशीनरी का प्रेम संपूर्ण समर्पण का प्रतीक है तथा सुकन्या के प्रेम में काम का सफल रूप है। अर्थात्‌ काम का पूर्ण उपभोग तो है पर वह स्वतंत्र न होकर धर्म का ही अंग है।


‘उर्वशी’ में दिनकर ने नर-नारी प्रेम की अशरीरी आनंद लहर को प्रस्तुत किया है। उन्होंने इस बात पर बार बार बल दिय है कि प्रेम का जन्‍म काम में होता है, किंतु उसकी परिणति काम के अतिक्रमण में होनी चाहिए। इसलिए कवि कहते हैं - "रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है" (उर्वशी; पृ.36) और यह प्रेम ‘सेक्स’ से भिन्न है चूँकि ‘सेक्स’ केवल शारीरिक स्तर की अनुभूति है जबकि प्रेम की अनुभूति में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों अनुभूतियाँ समन्वित रहती हैं। इसलिए दिनकर यह मानते हैं कि प्रणय अनास्क्‍ति के गंगाजल में स्‍नान कर पवित्र हो जाता है - "नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्‍ति सीमित है/ उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है।" (उर्वशी; पृ.34)


किंतु प्रेम की इस आध्यात्मिक अनुभूति को प्राप्‍त करना मानव मात्र के लिए सहज नहीं है। इसे पाने के लिए विषिष्‍ट होना चाहिए। अतः दिनकर ने उस विशिष्‍ट समन्वित नर को ‘कवि’ की संज्ञा दी हैं - "दाह मात्र नहीं, प्रेम होता है अमृत-शिखा भी,/ नारी जब देखती पुरुष को इच्छा-भरे नयन से,/ नहीं जगाती है केवल उद्वेलन, अनल रुधिर में ,/ मन में किसी कान्त कवि को भी जन्म दिया करती है।/ नर समेट रखता बाँहों में स्थूल देह नारी की,/ शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीड़ा करता है।/ तन्‍मय हो सुनता मनुष्‍य जब स्वर कोकिल-कण्ठी का,/ कवि हो रहता लीन रूप की उज्जवल झंकारों में।/ नर चाहता सदैव खींच रख लेना जिसे हृदय में,/ कवि नारी के उस स्वरूप का अतिक्रमण करता है।" (उर्वशी; पृ.47)


स्थूल से सूक्ष्म एवं लौकिक से अलौकिक की ओर प्रस्थान ही ‘उर्वशी’ काव्य का प्राण स्वर है। दिनकर ने दिव्य एवं उज्ज्वल प्रेम का निरूपण भी किया है - "देह प्रेम की जन्मभूमि है, पर उसके विचरण की/ सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक।/ यह सीमा प्रसरित है मन के गहन गुह्य लोकों में ,/ जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आँका करती है,/ और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी-मुखमंडल में / किसी दिव्य अव्यक्‍त कमल को नमस्कार करता है।" (उर्वशी; पृ.47-48)


इस प्रकार दिनकर ने देह से उतपन्न होनेवाले प्रेम को रहस्य चिंतन तक पहुँचा दिया है। अर्थात्‌ उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि शारीरिक प्रेम से आत्मिक प्रेम पैदा होता है। नारी के रूप को ‘दिव्य अव्यक्‍त कमल’ अर्थात्‌ उदात्त बना देना वस्‍तुतः फ्रायड के मनोवैज्ञानिक उदत्तीकरण के तरह ही है। इतना ही नहीं उन्होंने नर-नारी के बीच विद्‍यमान अंतर को भी इस उदत्तता के आकाश में विलीन होते दिखाया है - "वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में ,/ न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो,/ दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,/ देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी हो।" (उर्वशी; पृ.48)


‘उर्वशी’ का तृतीय अंक वस्तुतः इस काव्य का मर्मस्थल है। पुरूरव और उर्वशी गंधमाधन पर्वत पर हैं, धरती और स्वर्ग के मध्य। पुरूरवा धरती का धर्म छोड़कर स्वर्ग के धर्म को ग्रहण करता है तथा उर्वशी स्वर्ग का धर्म छोड़कर आसक्‍ति की व्यथा को भोग रही है। प्रकृति से उद्‍भूत बिंब में भावों को अभिव्यक्‍त करने की गहरी शक्‍ति होती है। गंधमादन पर्वत का बिंब आँखों के सामने उभर कर आता है - "दमक रही कर्पूर-धूलि दिग्बधुओं के आनान पर,/ रजनी के अंगों पर कोई चंदन लेप रहा है।/ यह अधित्यक्‍ता दिन में तो कुछ इतनी बड़ी नहीं थी?/ अब क्या हुआ कि यह अनन्त सागर-समान लगती है?/ कम कर दी दूरता कौमुदी ने भू और गगन की?/ उठी हुई-सी मही, व्योम कुछ झुका हुआ लगता है।" (उर्वशी; पृ.51)


इस अंक में प्रेम की व्याख्या अधिक हुई है। पुरूरवा और उर्वशी आत्मज्ञापन करने लगते हैं कि ‘यह कर्म नहीं क्रिया है, क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है।’ बुद्धि और कामना के द्वन्द्व से उत्पन्न मनुष्‍य के अंतर्मन की झांकियों को दिनकर ने अपने विचार एवं कल्पना के माध्यम से बाँध लिया है। ‘उर्वशी’ की कथा को संयोजित करते हुए दिनकर ने ‘भूमिका’ में लिखा है कि "नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते-उछालते उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, वह प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँचकर निस्पन्द हो जाता है। और पुरुष के भीतर एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है। इंद्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श; यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।" (उर्वशी; भूमिका)


इसमें संदेह नहीं कि ‘उर्वशी’ में प्रतिपादित काम और अध्यात्म के समन्वय के इस सिद्धांत की अनेक प्रकार से व्याख्या, विवेचन और आलोचना की जा सकती है; की गई है। लिकिन विवादों को किनारे करके यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ‘उर्वशी’ साहित्य आकाश में वह नक्षत्र है जो निरंतर अपनी उदात्त एवं उज्जवल आभा से सहृदयों को आकर्षित करती रहेगी तथा प्रेमियों में निश्‍चल प्रेम की उत्तेजना, कर्मशील व्यक्‍तियों में निष्‍काम कर्म की प्रेरणा तथा सहृदयों में आत्मदान की भावना जगाती रहेगी -
"प्राण की चिर-संगिनी यह, वह्‍नि
इसको साथ लेकर
भूमि से आकाश तक चलते रहो।
मर्त्य नर का भाग्य
जब तक प्रेम की धारा न मिलती
आप अपनी आग में जलते रहो।" (उर्वशी; पृ.42)


`स्रवंति' राष्ट्रकवि दिनकर विशेषांक (मई , २००९) में प्रकाशित

लाल शॉल ओढ़कर मेरे घर आई एक रिवॉलवर




तेलुगु साहित्य जगत्‌ में आरुद्रा (31 अगस्त, 1925 - 4 जून, 1998) के नाम से विख्यात भागवतुल सदाशिव शंकर शास्त्री का जन्म विशाखपट्टनम्‌ में हुआ। आरुद्रा ने कविता, कथा साहित्य, नाटक, समीक्षा, आलोचना और गीत सहित अनेक विधाओं के माध्यम से समसामियिक परिस्थितियों को सशक्‍त रूप से उकेरा है।

महात्मा गांधी से प्रभावित होकर आरुद्रा ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन (1943 - 1947) के समय इंटरमीडियट की पढ़ाई को तिलांजलि देकर रॉयल इंडियन एयरफोर्स में लिपिक के रूप में कार्यभार संभाला। तत्पश्‍चात्‌ उन्होंने संगीत पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने चेन्नै से प्रकाशित ‘आनंदवाणी ’ नामक पत्रिका के संपादक के रूप में 1947 -1948 तक काम किया। उस पत्रिका में प्रकाशित आरुद्रा और श्री श्री (श्रीरंगम्‌ श्रीनिवास राव) की कविताओं ने निद्रा मग्न जनमानस को जगाया और उन्हें सोचने पर मजबूर किया।

आरुद्रा 1943 में स्थापित ‘अभ्युदय रचयितल संघम्‌’ (अरसम्‌ - प्रगतिशील लेखक संघ) के व्यवस्थापकों में एक हैं। उन्होंने आजीवन उस संस्था की अभिवृद्धि हेतु कार्य किया। कहा जाता है कि आरुद्रा ने अपने मामा श्रीश्री तथा ‘चासो’ के नाम से विखात चागंटि सोमयाजुलु से प्रभावित होकर मार्क्सवादी दृष्‍टिकोण को अपनाया।

आरुद्रा ने ‘त्वमेवाहम्‌’ नामक प्रतीकात्मक खंड काव्य का सृजन किया। ‘त्वमेवाहम्‌’ की रचना उन्होंने 1948 में रज़ाकरों (निजाम की सेना) के हाथ रौंदी और कुचली गई स्त्री के बारे में ‘कृष्‍णा’ पत्रिका में पढ़कर प्रतिकार स्वरूप की। उन्होंने तेलंगाना निज़ाम के निरंकुश शासन पर कुठाराघात करते हुए लिखा है - "ब्रेन लो स्टनगन्‌ला/ चेट्‍लु चिट्टेलुकलु ,/ चेरभड्ड आडवाल्लु ,/ चेद पुरुगुलु/ मदमेक्किन सोल्जरलु।" (त्वमेवाहम्‌; ब्रेन में स्टेनगन के समान है/ पेड़-पौधे और चूहे/ जंजीरों में जकड़े मनुष्‍य/ सलाखों के पीछे कैद औरतें,/ दीमकों जैसे/ अंकुशहीन सैनिक।)

आगे उन्होंने यह भी लिखा है कि "एर्र शालुवा कप्पुकोनी/ मा इंटिकोच्चिंदी ओक रिवॉलवर।" (त्वमेवाहम्‌; लाल शाल ओढ़कर/ मेरे घर आई एक रिवॉलवर)

आरुद्रा ने कविता के लोकमंगलकारी रूप की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘कविता पथविहीन दग्ध मरुभूमि में शीतल जल और मीठे फल प्रदान करके आशा तथा आकांक्षा को जागृत करनेवाली शस्यश्‍यामल भूमि है।’ वे कोरी कल्पना को काव्य की उपकारिणी नहीं मानते। उन्होंने सर्वत्र यथार्थ को ही महत्व दिया है। उनके मतानुसार ‘हाथी दाँतों की मीनारों में बैठकर कल्पना करनेवाले जीवन के सही अर्थ को नहीं जान सकते हैं। यदि जीवन का सही अर्थ जानना है तो यथार्थ की भूमि पर उतरना ही होगा।’ उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई थी। परंतु भारत के अंग्रेज़ी शासन से मुक्‍त होने पर भी देशवासियों को कष्‍टों से मुक्‍ति नहीं मिली, यह देखकर उनका कवि-हृदय विकल हो उठा। कवि ने देखा कि हाशिए पर स्थित लोगों की हालत तब भी वही थी और आज भी वही है। उनका जीवन और भी दूभर होता जा रहा है। इससे उद्वेलित होकर आरुद्रा कहते हैं कि - "मना स्वातंत्रम्‌ मेडिपंडु,/ मना दरिद्रम्‌ राचपुंडु।" (हमारी स्वतंत्रता मीठा फल है,/ हमारी दरिद्रता कैंसर है।)

आरुद्रा की रचनाओं में ‘इंटिंटि पद्‍यालु’ (घर घर के पद), ‘रामुडिकि सीता एमवुतुंदि’ (राम के लिए सीता कौन हैं?), ‘गुडिलो सेक्‍स’ (मंदिर में सेक्‍स) और ‘जानपदा जावली’ (लोकसाहित्य) आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी यह भी बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने व्यावहारिक भाषा में ‘समग्रांध्र साहित्यम्‌’ (समग्रांध्र साहित्य - 13 खंड) का सृजन किया। तेलुगु साहित्य के क्षेत्र में यह कृति मील का पत्थर है।

जिस प्रकार गांधी जी अंग्रेज़ी के खिलाफ नहीं थे, बल्कि अंग्रेज़ियत के खिलाफ थे, उसी प्रकार आरुद्रा भी अंग्रेज़ियत के खिलाफ थे। उनकी कविताओं में अंग्रेज़ी - तेलुगु कोड मिश्रण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यथा - "कावाली कविता हृदयानिकि नरिशमेंट,/ कारादु एनाडु मेदडुकु पनिशमेंट" (बनाओ कविता को हृदय का नरिशमेंट,/ मत बनाओ उसे मस्तिष्‍क के लिए पनिशमेंट।)

उन्होंने लगभग 400 से अधिक फिल्मी गीतों की रचना की जो आज भी तेलुगु सिनेमा दर्शकों के मुँह से अनायास ही ध्वनित होते हैं। 500 से अधिक फिल्मों के लिए पटकथा, गीत तथा संवाद लिखने का श्रेय आरुद्रा को प्राप्‍त है। अपनी कविताओं और गीतों के माध्यम से उन्होंने दर्शकों के हृदय में अपना ऐसा स्थान बनाया जो चिरस्थायी है। वे हमेशा कहा करते थे कि "कविता कोसम्‌ नेनु पुट्टानु,/ क्रांति कोसम्‌ कलम पट्टानु।" (कविता के लिए ही मैंने जन्म लिया,/ क्रांति के लिए ही मैंने कलम साधा।)

जनमानस में चेतना जगानेवाले आरुद्रा ने 73 वर्ष की आयु में 4 जून, 1918 को अपने पाठकों से चिरविदा ली।


बुधवार, 28 जुलाई 2010

तेलुगु काव्य प्रभा


आज के परिप्रेक्ष्य में अनुवाद एक अपरिहार्य सामाजिक आवश्‍कता बन गया है। दिन-ब-दिन इसका वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है। अनुवाद के माध्‍यम से सिर्फ भाषा का अंतरण नहीं होता बल्कि संस्कृति का अंतरण होता है। अतः अनुवाद को सांस्कृतिक सेतु कहा जता है। वास्तव में अनुवादक को दो भाषा समाजों के मध्य सांस्कृतिक राजदूत की भूमिका निभानी पड़ती है। इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद के माध्यम से भारतीय साहित्य और संस्कृति को वैश्‍विक स्तर पर पहुँच और पहचान मिली है। साथ ही विश्‍व साहित्य भी भारतीय भाषाओं में अनूदित है। भारतीय भाषाओं के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी अनुवाद के माध्यम से हो रहा है।

आज की विचाराधीन पुस्तक पर चर्चा करने से पहले मैं एक और बात कहना चाहती हूँ। वह यह कि कहा जाता है कि गद्‍यानुवाद की अपेक्षा काव्यानुवाद कठिन कार्य है क्योंकि इसमें भाषांतरण मात्र से काम नहीं चलता, कविता का दूसरी भाषा में पुनःसर्जन करना पड़ता है। काव्यानुवाद करने के लिए अनुवादक के पास भी कवि हृदय अर्थात्‌ संवेदनशील हॄदय होना जरूरी है। तभी काव्यानुवाद मूल की भाँति पाठक को प्रभावित कर सकता है। ऐसा न होने पर अनूदित पाठ का जड़, नीरस और प्रभावहीन होने से नहीं बचाया जा सकता।

पिचले कई दशकों से आधुनिक तेलुगु कविताओं का अनुवाद हिंदी में प्रचुर मात्रा में हो रहा है। इसी कड़ी में सद्‍यः प्रकाशित पुस्तक ‘तेलुगु काव्य प्रभा’(2010) हमारे समक्ष है। इसके अनुवादक जी.परमेश्‍वर ने तेलुगु के 56 कवियों की 56 कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत किया है। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात कवि डॉ.सी.नारायण रेड्डी, साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत एन.गोपि, प्रमुख दलित कवि कत्ति पद्‍माराव और मुस्लिमवादी कवयित्री शाजहाना से लेकर नवागंतुकों तक की कविताएँ इस संग्रह में संकलित हैं।

कविता तीव्र मनोभावों का सहज उच्छलन है। संवेदनशील कवि कविता के माध्यम से जीवन संघर्ष के अनेक चित्रों को उकेरता है। साथ ही, जीवन संघर्ष और सामाजिक चित्तवृत्ति के साथ कविता और उसकी अभिव्यक्‍ति में भी बदलाव आता है। पिछली शताब्दी में तेजी से बदलती प्रवृत्तियों के साथ साथ तेलुगु कविता भी बदली। कवियों ने समसामायिक स्थितियों को सरल भाषा में काव्यात्मकता के साथ अंकित करना आरंभ किया। इस संकलन की कविताएँ इस प्रवृत्ति का आइना पेश करती हैं। जी.परेमेश्‍वर द्वारा अनूदित इन कविताओं में एक ओर जीवन का सार प्रवाहित है तो दूसरी ओर दलित का आक्रोश। तेलंगाना की संस्कृति के साथ साथ उपभोक्‍ता संस्कृति का चित्र भी अंकित है। इतना ही नहीं प्लेटोनिक प्रेम भी है और पुरुष विमर्श भी।

सिनारे के नाम से प्रसिद्ध डॉ.सी.नारयण रेड्डी तेलुगु के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कवि, समीक्षक, शिक्षाविद्‌, गीतकार, चिंतक और वक्‍ता हैं। वे किसी वाद के कटघरे में नहीं समाते। वे वस्तुतः मानवतावादी कवि हैं। उनकी कविताओं में मानव जीवन की सूक्ष्‍म परतें उजागर होती हैं। कवि अपनी कविता ‘मौलिक पाठ’ के माध्यम से यह स्पष्‍ट करते हैं कि मात्र साँस लेना ही जीवन नहीं है। मानव मूल्यों की रक्षा के लिए प्राणों को अर्पित करना ही जीवन का परमार्थ है - "उच्छ्‌वास-निःश्‍वास के संपुट को ही/ जीवन समझने के बदले/ मानव मूल्यों की रक्षा हित/ प्राणों के अर्पण में ही/ जन्म चरितार्थ होता है।" (पृ.14)

नलगोंड़ा जिले में जन्मे एन.गोपि की कविताओं में मिट्टी का सोंधापन है। अपनी कविता ‘स्माइल प्लीज’ के माध्यम से वे कहते हैं कि "हँसने को कहने पर हँसी आएगी क्या !/ ***/ हँसने के लिए कहते है तो/ तुम पर ही हँसने की इच्छा होती है।/ किन पर्तों के नीचे, अंतिम साँसें गिन रही हैं हँसी।/ गाँव में खोई हुई कांति, शहर में जगमाएगी क्या?/ कैमरे पर डालकर परदा, हँसने को कहते हो।/ ***/ तुम्हारे खींचे जानेवाले फोटोग्राफ में / कितनी रिक्‍तताएँ!!/ भर सकोगे उन्हें??" (पृ.26)

गुंटूर जिले में जन्मे कत्ति पद्‍माराव दलित कवियों में प्रमुख हैं। उनकी कविता में पीडितों और शोषितों की आवाज गूँज उठती है। वे जाति भेद का खंडन करते हैं। भारतीय समाज जाति के नाम पर अमानवीय रीति से बँटा हुआ है। इस भेद भाव को मिटाने के लिए अनेक प्रयास हुए लेकिन यह आज भी समाज में विद्‍यमान है। इसी पर आक्रोश व्यक्‍त करते हुए कवि अपनी कविता ‘हमारे गाँव में मानवता नहीं है’ में कहते हैं कि - "मेरे गाँव के साथ मेरा कुछ बनता नहीं, जमता नहीं।/ मुझे तो मेरी बस्ती ही पसंद है।/ ***/ मानव को जाति भेद की दृष्‍टि से देखनेवाली/ मेरे गाँव की आँख/ फोड़ने का मन करता था मेरा।/ गाँव के तालाब में जब वह अपनी भैंस को नहलाता था/ तो मुझे सीढ़ियों पर चढ़ने तक नहीं देता था/ ***/ आज का गाँव/ मानवताविहीन, बिफरा-साँड़ है।/ मानव को मानव-सा/ न देखपानेवाले, हमारे गाँव पर/ कभी-कभी गाज गिरती है।/ ***/ उसकी माँस पेशियों के बढ़ने के साथ साथ/ जाति का अंह बढ़ता ही जा रहा है।/ गाँव और मुहल्ले के बीच/ कौटिल्य द्वारा बनाई गई/ लौह-दीवार टूट नहीं रहीं।" (पृ.23-24)

शिखामणि ने अपनी कविता ‘पुतली’ में एक अधेड़ उम्र की भिखारिन की दुर्दशा का वर्णन किया है जो तपती दुपहरी में सड़क के किनारे अंजलि पसार कर बैठी रहती है - " तपती दोपहरी की धूप में / भीड़ भरी सड़क के एक कोने में / सदा एक ही मुद्रा में / अंजली पसार कर/ एक अधेड़ उम्र की औरत.../ ***/ मानव होकर भी वह ठूँठ बन गई है।" (पृ.53)

प्रेम ऐसी भावना है जिसे परिभाषित करना कठिन कार्य है। एम.रघु ने अपनी कविता ‘प्रेम पत्र’ में यह स्पष्‍ट किया है कि "यौवन का छिटका/ प्रेम लेख/ किताब में रखे मारे पंख-सा मिला/ कल्पना की प्रेयसी-सी/ विचारों से भरी कक्षाएँ/ संकेत, मेघसंदेश की/ यादें हैं आज भी तरो ताजा।" (पृ.38)। लेकिन आज मनुष्‍य जीवन इतना यांत्रिक बन चुका है कि उसके पास न तो प्रेम करने के लिए वक्‍त है और न प्रेम पत्र लिखने के लिए ही। इसीलिए कवि व्यंग्य पूर्वक कहते हैं कि - "सचमुच/ वह प्लेटोनिक प्रेम की पीठिका है!/ अब गोदावरी की बाढ़-सा/ सच्चा प्रेम डूबा जा रहा है।/ अब लिखा नहीं जाता/ प्रथम प्रेम पत्र।" (पृ.39)

किछ दश्कों से स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्‍ति और स्त्री सशक्‍तीकरण की बातें सुनाई दे रही हैं। स्त्री अधिकारों के साथ ही पुरुष सोच के बदलाव को भी कुछ कविताओं में लक्षित किया गया है। कोडूरि विजय कुमार ने अपनी कविता में उत्तर आधुनिक पुरुष के इस सोच को दर्शाया है कि संसार के एक ग्राम बन जाने के साथ ही स्त्री पुरुष का भेद भाव समाप्‍त हो गया है। यह पढ़ना बड़ा मनोरंजक लगता है कि उत्तर आधुनिक पुरुष भी यह सोचकर घरेलू काम करने से परहेज करते हैं कि कहीं ऐसा करना स्त्री को बुरा न लगे। अर्थात्‌ स्त्री को बाहर के साथ साथ घर की भी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए बाध्य करने का बहुत सुंदर तर्क उत्तर आधुनिक मर्दों ने खोज लिया है - " जिस दिन नौकरानी नहीं आती है,/ चौका बासन करने की, कपड़े धोने की बात सोचता हूँ,/ लेकिन ‘तुम्हें यह सब पसंद नहीं होगा’ समझकर चुप हो जाता हूँ।/ ***/ बच्चों के नैपकिन बदलना चाहता हूँ,/ टॉयलट धोना चाहता हूँ,/ ‘तुम ठीक से नहीं धोते हो’ कहोगी, समझकर चुप रह जाता हूँ।/ स्त्रियों के समान सुंदर,/ घर या ससोई का काम/ क्या पुरुष कर सकते हैं, माय डियर!" (पृ.49)

समसामियिक तेलुगु कविता की एक विशिष्‍ट प्रवृत्ति के रूप में मुस्लिमवादी कविता उभर कर आई है। परंतु इस संग्रह में शाजहाना, ख़ादर शऱीफ शेख़ और एस.समीउल्लाह की जो कविताएँ संकलित हैं, वे इस प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ऐसा संभवतः इसलिए है कि अनुवादक ने विभिन्न प्रवृत्तियों के प्रतिनिधित्व की दृष्‍टि से कवियों और कविताओं का चयन नहीं किया है, बल्कि ‘विशेषकर पिछले 2007 से 2009 के बीच (यानि तीन वर्ष) एक रविवारीय अंक में छपी कविताओं को उन्होंने चुना है।" जैसा कि निखिलेश्‍वर ने कहा है ‘समकालीन तेलुगु कविताओं का यह एक समयिक अंश है। अनुवादक को जो भी जंचा और अनुकूल लगा, उन कविताओं को अपना लिया’। निखिलेश्‍वर ने अनुवादक की कलम की लड़खड़ाने और शब्द चयन में असावधानी की ओर भी संकेत किया है। मुझे इस संबंध में कुछ नहीं कहना। जैसा कि डॉ.एम.रंगय्या ने इंगित किया है इस संकलन की उपलब्धि इसके विषय वैविध्य में है जिसमें प्रेम, गाँव, माँ, बुढ़ापा, स्वप्‍न, फूल, कली, धूप, पगड़ी, दलित, पुतली, समय, स्वेच्छा, कुशल मंगल और चूने की डिबिया तक न जाने क्या क्या शामिल है।

120 पृष्ठ की यह अनूदित काव्य कृति ‘कादंबिनी क्लब’, हैदराबाद द्वारा प्रकाशित की गई है। मूल्य के स्थान पर ‘अमूल्य’ अंकित है। डॉ.अहिल्या मिश्र के नेतृत्व में ‘कादंबिनी क्लब’ ने अनेक उपलब्धियाँ अर्जित की है। यह कृति उस क्रम में एक और मील का पत्थर है। यों तो हैदराबाद में हिंदी और तेलुगु के साहित्य को प्रोत्साहित करनेवाली अनेक संस्थाएँ हैं लेकिन हिंदी के माध्यम से तेलुगु को एक अमूल्य पुस्तक के रूप में उपलब्ध कराने का जो अनूठा कार्य है वह सराहनीय है।

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तेलुगु काव्य प्रभा (कविता संकलन)/ जी.परमेश्‍वर/ मूल्य : अंकित नहीं/ 2010/ पृ.120/ प्रकाशक : कादंबिनी क्लब, 93/सी, राज सदन, वेंगलराव नगर, हैदराबाद - 500 038