"गृह्यसूत्रों में संस्कारों का स्वरूप"
डॉ.मुक्तावाणी (1969) ने अपनी पुस्तक "गृह्यसूत्रों में संस्कारों का स्वरूप" (2008) में मानव जीवन की यात्रा को आत्मोन्नयन की यात्रा बनाने षोडश संस्कारों के उपयोग की भारतीय धारणा और पद्दति का विवेचन किया है. यह पुस्तक उनके इसी विषय पर केंद्रित शोधप्रबंध का प्रकाशित रूप है. माना जाता है कि मानव जीवन का लक्ष्य चतुर्विध पुरुषार्थ है. यह तभी संभव होगा जब मानव संस्कारित जीवन जीने का यत्न करेगा. जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत भारतीय संस्कृति में जिन 16 संस्कारों का विधान किया गया है, यहाँ लेखिका ने उन्हें अत्यंत संक्षिप्त एवं सरल ढ़ंग से व्याख्या सहित पाठकों के समक्ष रखा है.
संस्कारों के उन्नयन पर विचार करते हुए लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि "जो कुछ हम देखते,सुनते और बोलते हैं उन सबका सूक्ष्म प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है,इसी प्रभाव को संस्कार कहते हैं. संस्कार मानव निर्माण की सर्वोत्तम प्रक्रिया है. जिस प्रकार भोज्य पदार्थों को संस्कृत करने से उनमें सुगंध व उत्तमता की अभिवृद्दि होती है,उसी प्रकार मानव जीवन भी सुसंस्कारों से सुवासित होते हैं. जीवन में सुगंध को जन्म देना ही संस्कारों का ध्येय है."
पुस्तक में आरंभ में वेद,वेदाङ्ग,ब्राह्मण ग्रंथों के परिचय के साथ-साथ कल्पसूत्रों अर्थात श्रौतसूत्र (कर्मकांड को विकसित करनेवाला सूत्र), गृह्यसूत्र (जन्म से लेकर मृत्यु तक के समस्त संस्कारों/अनुष्ठाणों से संबंधित सूत्र), धर्मसूत्र (विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक कर्तव्यों, आश्रमों,विवाह,उत्तराधिकारी से संबंधित सूत्र) तथा शुल्वसूत्र (वेदियों का नापना,उनके लिए स्थान चुनना आदि से संबंधित सूत्र. ये सूत्र भारतीय ज्यामिति के प्राचीन ग्रंथ हैं.) का विवरण प्रस्तुत किया गया है तथा उपलब्ध सूत्रग्रंथों की सूची भी दी गई है.
लेखिका ने जोर देकर यह प्रतिपादित किया है कि मानव निर्माण के लिए संस्कार अत्यंत उपयोगी है. वैदिक संस्कृति में संस्कारों का अत्यंत महत्व है क्योंकि जीवन संस्कारों के अभाव में निष्प्रयोजन हो जाएगा. ‘संस्कार’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है मांजना,चमकना,शुद्ध करना या उत्तम कार्य करना. 16 संस्कारों के माध्यम से मनुष्य के दुर्गुणों को निकालकर उसमें सदगुण डालने का प्रयास ही वैदिक विचारधाराओं के अनुसार ‘संस्कार’ है.
वैदिक शास्त्र के अनुसार मानव शरीर दो प्रकार का है - स्थूल और सूक्ष्म. स्थूल देह नश्वर है और सूक्ष्म देह समस्त संस्कारों से अभिभूत होता है. यह एक शृंकला है. शरीर,मन और आत्मा को पवित्र रखना ही संस्कारों का मुख्य प्रयोजन है. इन संस्कारों की संख्या के विषय में मतभेद है, लेकिन दयानंद ने मनुस्मृति के आधार पर 16 संस्कारों का स्पष्ट उल्लेख किया है.
मानव जीवन का अंकुरार्पण उसी समय शुरु हो जाता है जब माँ के गर्भ में उसका बीजारोपण किया जाता है. ’गर्भाधान’ संस्कार के पश्चात दूसरे या तीसरे महीने में जब गर्भ में बीज स्थित हो जाता है तब ‘पुंसवन’ संस्कार का विधान किया जाता है. चौथे महीने में अर्थात मस्तिष्क के उन्नयन के आरंभ में ‘सीमंतोन्नयन’ संस्कार किया जाता है. इन तीनों संस्कारों को ‘प्राग्जन्म’ संस्कार के नाम से संबोधित किया जाता है. अर्थात साधारण रूप में यह शिशु का जन्मकाल है. भारतीय संस्कृति में ‘नामकरण’ संस्कार को धूमधाम से मनाया जाता है. प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में नाम का महत्व निर्विवाद है क्योंकि ‘नाम’ व्यक्ति के अस्तित्व का चिह्न है.
मानव शिशु जन्म लेते ही बाह्य वातावरण से आसानी से जुड़ नहीं पाता. इसलिए तीसरे महीने में ‘निष्क्रमण’ संस्कार संपन्न होता है. अर्थात पहली बार शिशु को बाहर खुले वातावरण से परिचत कराना. उसके बाद ‘अन्नप्राशन’ संस्कार संपन्न होता है.
‘चूडा़कर्म’ संस्कार मानव जीवन का आठवाँ पड़ाव है. इस समय शिशु का शारीरिक और बौद्धिक विकास शुरु होता है. माना जाता है कि बालक के सिर के बाल काटने से इस विकास को सरलता से देखा जा सकता है.
संक्रामक एवं विषैले तत्वों से देह को बचाने हेतु किसी विशेष तत्व के धातु से कर्ण और नासिका भेदन किया जाता है जिसे ‘कर्णबेध’ कहते हैं. यह मानव जीवन का नौवाँ पड़ाव है.
प्राग्जन्य और बाल्यावस्था के संस्कारों के पश्चात शैक्षणिक संस्कार (उपनयन,वेदारंभ,समावर्तन), आश्रम प्रवेश संस्कार (विवाह,वानप्रस्थ,संन्यास) और अवसान संस्कार (अंत्येष्टि) का विधान पूर्ण होता है. इस प्रकार मानव जीवन 16 संस्कारों की परिक्रमा है. लेखिका ने इन 16 संस्कारों के बारे में सरल ढ़ंग से पाठकों को अवगत कराया है. यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है.
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* गृह्यसूत्रों में संस्कारों का स्वरूप/डॉ.मुक्तावाणी/2008 (प्रथम संस्करण)/मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2,कंदस्वामी बाग,हनुमान व्यायामशाला की गली,सुलतान बाज़ार,हैदराबाद-500 095/ पृष्ठ-197 / मूल्य- रु.250/-
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‘सुमित्रानंदन पंत के काव्य में संस्कृति और जीवन-दर्शन‘
‘संस्कृति’ शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण है. संस्कृति और युगानुकूल जीवन दर्शन का सामंजस्य नवीन मूल्यों से संबद्ध होता है. इन नवीन मूल्यों के कारण मानव उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है. इसलिए "लोकायतन" के कविवर सुमित्रानंदन पंत ने अपने युग के सांस्कृतिक दायित्व का उल्लेख करते हुए लिखा है कि "आज हमें मानव-चेतना के क्षीर-सागर को फिर से मथकर उसके अंथस्तल में छिपे हुए रत्नों को पहचानना है और मौलिक अनुभूतियों के नवीन रत्नों को भी बाहर निकालकर अपने युग-पुरुष के स्वर्ण शुभ्रकिरीट में उन्हें समय के अनुरूप नवीन सौंदर्यबोध में जड़ना है,जिससे वह भावी मनुष्यत्व की गरिमा को वहन कर सकें." उनहोंने वर्तमान युग के सांस्कृतिक सूत्रों का भी उल्लेख किया है. ये सूत्र हैं मानव प्रेम, लोक जीवन की एकता, विश्व मानवता तथा जीवन सौंदर्य का उपभोग. पंत जी ने अपनी उपलब्धियों को एक अक्षय सांस्कृतिक वैभव के रूप में मानवता को प्रदान किया है. "लोकायतन" काव्य में उन्होंने भारतीय संस्कृति की परंपरा में गांधी व अरविंदवादी जीवन का समावेश करके विश्व मानव की भावना को अभिव्यक्त किया है.
‘सुमित्रानंदन पंत के काव्य में संस्कृति और जीवन-दर्शन‘(2008) डॉ.दीपगुप्ता (1945) की शोध कृति है. लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि "पंत ने लोक चेतना, सांस्कृतिक बोध, मानव प्रेम, लोकजीवन की एकता, जीवन सौन्दर्य का उपभोग तथा विश्वात्मा का निर्माण आदि सूत्रों को निश्चित आकार देने के लिए दर्शनों पर अपनी आस्था प्रकट की हैं."
‘लोकायतन‘ नवनिर्माण की मूल चेतना को रूपायित करता है. वस्तुतः पंत को जनतंत्र भी चाहिए और आर्थिक समानता भी. इस यांत्रिक युग में ‘लोकायतन‘ की प्रांसंगिकता निर्विवाद है क्योंकि पंत सारे काव्य में अंतर्बाह्य, भौतिक-आध्यात्मिक तथा पूर्व-पश्चिम जैसे द्वंद्वों में समन्वय चाहते हैं - "इस प्रकार सांस्कृतिक कल्प-नव/भू-जीवन में होता विकसित/एक चेतना रस-साजर में/विविध रूप उठ होते अवसित./प्रथम बार अब जगत ब्रह्म में/ब्रह्म जगत में हुआ प्रतिष्ठित./ मुक्त-भेद मन से भू-जीवन/सित-चित पट में हुआ समन्वित/जन्म ले चुका नव-मानव/जड़ चित को कर रस-संयोजित/धरा स्वर्ग कल्पना न रह अब/जन-जीवन में होता मूर्तित."
लेखिका ने सुमित्रानंदन पंत के जीवन और व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत करते हुए उनके काव्य की विभिन्न प्रवृत्तियाँ और उनके दार्शनिक तथा सांस्कृतिक आयाम का परिचय दिया है. "लोकायतन" काव्य में निहित संस्कृति और जीवन दर्शन को उजागर करते हुए लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि "‘लोकायतन‘ समग्र मानव-यात्रा का सृजन प्रवाह है और समस्त सृजन-प्रवाह में मानव की यात्रा है - "नव-संस्कृति के स्पर्शों से अब/हो मानवीय वन-भू जीवन/जन-भू कुटुम्ब का सभ्य अंग/बनता जाता नवयुग चेतन."
बीसवीं शताब्दी के मूल्य चिंतन का केंद्र मनुष्य था. लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि इसलिए पंत जी ने ‘लोकायतन‘ में मानव चेतना और उसके अस्तित्व की प्रासंगिकता के प्रवाह की रचना की है,जो निरंतर वर्तमान है.
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* सुमित्रानंदन पंत के काव्य में संस्कृति और जीवन-दर्शन/ डॉ.दीपा गुप्ता/ 2008/ मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2,कन्दस्वामी बाग,हनुमान व्यायामशाला की गली,सुलतान बाज़ार,हैदराबद-500 095/ पृष्ठ-264/ मूल्य- रु.300/-
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