ऋता शुक्ल की रचनाओं में तिवारीपुर का परिवेश दीखता है. किसी भी रचनाकार के लिए परिवेश से कटकर रहना संभव नहीं होता . अतः ऋता शुक्ल ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने परिवेश में निहित व्यष्टिगत एवं समष्टिगत समस्याओं को उकेरा है और जनमानस को सोचने के लिए मजबूर किया है. प्रेम, विवाह, स्त्री - पुरुष संबंध, व्यक्ति के अंतर्द्वन्द्व, अस्तित्व की रक्षा तथा व्यक्ति मन से संबंधित समस्याओं का चित्र उनक कहानियों में विद्यमान है. इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत समस्याओं से उत्पन्न समष्टिगत समस्याओं के प्रति भी उन्होंने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है. इन्हीं बिन्दुओं को दृष्टिगत रखकर सीताराम राठौड़ (1979) ने अपनी किताब ‘ऋता शुक्ल की कहानियों में सामाजिक जीवन ’ (2009) में ऋता शुक्ल की कहानियों का विवेचन - विश्लेषण किया है जो उनके एम.फिल. लघु शोध प्रबंध जा प्रकाशित रूप है. इस अध्ययन में लेखक ने रिता शुक्ल के चार कहानी संग्रहों को आधार बनाया है - कनिष्ठ उंगली का पाप, कासों कहौं मैं दरदिया, मानुस तन और कायांतरण.
भारतीय समाज पितृसत्तात्मक समाज है. मध्यकाल के प्रतिबंधों के बाद आजादी के संघर्ष में स्त्री को घर से बाहर आने का अवसर मिला. आजादी के बाद उसे वैधानिक अधिकार भी मिले, लेकिन भारत की औसत नारी आज भी सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई ही है. दरअसल भारतीय समाज की विविधता के अनुरूप यहाँ स्त्री की स्थिति के भी अनेक स्तर हैं. एक ओर जहाँ वह अपने हित और हकों से अनभिज्ञ है वहीं दूसरी ओर वह अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी करने लगी है. ऋता शुक्ल ने अपनी कहानियों में नारी के इन अनेक रूपों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है . लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि नारी जीवन की विडंबनाओं चित्रण ऋता शुक्ल ने बखूबी किया है. ऋता की कहानियाँ एक ओर नारी की दयनीय स्थिति को उजागर करने में सक्षम हैं तो दूसरी ओर नारी सशक्तीकरण को उजागर करने में. स्त्री समस्याओं के अलावा उनकी कहानियाँ समाज में व्याप्त वर्ग संघर्ष, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, लैंगिक भेद, शिक्षण संस्थाओं की अव्यवस्था, कार्यालयों की भ्रष्ट नीति, बाल श्रमिकों की त्रासदी, मध्यवर्गीय मानसिकता और राजनीतिज्ञों की कूटनीति को भी रेखांकित करती हैं.
आज समाज युद्ध और आतंकवाद से त्रस्त है. सांप्रदायिकता की आग में फंसकर मानव जीवन तहस - नहस हो रहा है. मृत्यु भय, अनिश्चित भविष्य, रोजगार की समस्या आदि अनेक विसंगतियों के कारण मानव भयभीत है. ऋता की कहानियाँ मानव जीवन में व्याप्त इस आशा - निराशा, आस्था - अनास्था एवं सुख - दुःख को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं . लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि "ऋता शुक्ल एक सच्ची साहित्यकार हैं, जिन्होंने जीवन के विविध पहलुओं को बड़ी ही बारीकी के साथ अनुभव किया और अपनी कहानियों में उन्हें जागरूकता के साथ चित्रित किया है ."
शोध की मर्यादा का पालन करते हुए सीताराम राठौड़ ने पहले तो लेखिका के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा की है , उसके बाद एक एक अध्याय में उनकी कहानियों में निहित सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन , नारी जीवन और आध्यात्मिक जीवन पर प्रकाश डाला है. आशा है, हिंदी जगत में उनकी इस प्रारम्भिक कृति का यथायोग्य स्वागत होगा. _____________________________________________________
ऋता शुक्ल की कहानियों में सामाजिक जीवन / सीताराम राठौड़ / 2009 / मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2, कंदास्वामी बाग,हनुमान व्यायामशाला की गली,सुलतान बाज़ार,हैदराबाद-500 095 / पृष्ठ - 116 / मूल्य - रु.150 _____________________________________________________
1 टिप्पणी:
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